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पाइअसहमहण्णवो
संनिवेस-संपणिवाय
संनिवेस पुं[संनिवेश] १ नगर के बाहर संपइ प्र[संप्रति १ इस समय, अधुना, अब संपज्जलिअ पुं [संप्रज्वलित] तीसरा नरक का प्रदेश, जहाँ प्राभीर वगैरह लोग रहते (पाय; महा: जी ५०; दं ४६; कुमा)। २ का नववाँ नरकेन्द्रक, नरकावास-विशेष हों। २ गाँव, नगर आदि स्थान (भग १, पुं. एक प्रसिद्ध जैन राजा, सम्राट अशोक | (देवेन्द्र १) १-पत्र ३६)। ३ यात्री प्रादि का डेरा, का पोत्र (कुप्र २; धर्मवि ३७; पुप्फ २६०) संपट्ठिअ देखो संपत्थिअ = संप्रस्थित (उप मार्ग का वास-स्थान, पड़ाव (उत्त ३०, १७)। काल पुं [ काल] वर्तमान काल (सुपा । १४२ टी; औप; संबोध ५५; सुपा ७७; ४ ग्राम, ग.व (सिरि ३८)। ५ रचना (उप। ४४६) कालीण वि[कालीन] वर्तमान- उपपु १५८)।। पृ१४२) काल-सम्बन्धी (विसे २२२६)
संपड अक [सं + पद्] १ प्राप्त होना, संनिवेसणया श्री सिंनिवेशमा] संस्थापन | संपइण्ण वि [संप्रकीर्ण] व्याप्त (राज)।।
मिलनाः गुजराती में 'सांपडवु" । २ सिद्ध (उत्त २६, १)
होना, निष्पन्न होना । संपडइ, संपति संपउत्त वि [संप्रयुक्त] संयुक्त, संबद्ध, जोड़ा संनिसिल्ल वि [संनिवेशिन] रचनावाला, हा (ठा ४, १--पत्र १८७; सूत्र २, ७,
(वजा ११६, समु १५८: वज्जा ५.)। (उप पृ १४२)1
वकृ. संपडंत (से १४, १: सुर १०.६७)। २, उवा; औप; धर्मसं ६६५: राय १४६)। संनिसन्न वि [संनिपण्ण बैठा हुआ, सम्यक् संपअंग पुं[संप्रयोग] संयोग, संबन्ध (ठा
संपडिअ वि [दे संपन्न लब्ध मिला हुआ,
प्राप्त (दे८.१४: स २५... स्थित (णाया १.१-पत्र १६: कुप्र १६६, ४,१-पत्र १८७; स ६१४; अ ७२८ श्रु १२; सण) .
संपडिबूह सक [संप्रांत + बृह] प्रशंसा टी कुप्र ३७३: प्रौप) संनिसिजा श्री सिंनिपद्या] प्रासन- संपकर देखो संघगर। संपकरेइ (उत्त २१,
करना, तारीफ करना । सपाडव्हति सूत्र २,
२, ५५) । संनिसेजा विशेष, पीठ यादि प्रासन (सम १६)
संपडिलेह सक [संप्रति + लेखय् ] प्रति२१, उत्त १६, ३; उव)। | संपक्क पुं[संपर्क] सम्बन्ध (सुपा ५८;
जागरण करना, प्रत्युपेक्षण करना, अच्छी संनिह वि [संनिभ] समान, सदृश (प्रासू ___ सम्मत्त १४१)।
तरह निरीक्षण करना। संपडिलेहए (उत्त ६६. सण) संपक्कि वि संपर्किन् ] संकवाला, संबन्धी
२६, ४३)। कृ. संपडिलेहिअव्व (दसचू संनिहाण न [संनिधान] १ ज्ञानावरणीय (कप्पू काप्र १७) । आदि कर्म (प्राचा) । २ कारक-विशेष, अधि
संपक्खाल पुं[संप्रक्षाल] तापस का एक संपडिवज सक [संप्रति + पद्] स्वीकार करण कारक, प्राधार (बिसे २०६६ ठा भेद जो मिट्टी वगैरह घिस कर शरीर का
करना । संपडिवज्जइ (भग) ८-पत्र ४२७)। ३ सान्निध्य, निकटता प्रक्षालन करते हैं (प्रौप)।
संपडिवत्ति स्त्री [संप्रतिपत्ति] स्वीकार, (स ७१८, ७६१) सत्थ न [शस्त्र] संपक्खालिय वि संप्रक्षालित] धोया हुआ | अंगीकार (विसे २६१४)। संयम, त्याग (प्राचा)। सत्थ न [शास्त्र] (धर्म ३)
संपडिवाइअ वि [संप्रतिपादित] स्थित कर्म का स्वरूप बतानेवाला शास्त्र (प्राचा)।- संपक्खित्त वि[संप्रक्षिप्त प्रक्षिप्त, फेंका (उत २२, ४६; सुख २२, ४६)। २ संनिहि पुंस्त्री [संनिधि] १ उपभोग के लिए हुआ, डाला हुमा (पंच ५, १५७) ।
स्थापित (दस २, १०) स्थापित वस्तु (माचा १, २, १, ४)। २ संपगर सक [संप्र+कृ] करना । संपगरेइ संपडिवाय सक [संप्रति + पादय] संपादन संस्थापन। ३ मुन्दर निधि (प्राचा १, २, (उत्त २१, १६)
करना, प्राप्त करना। संपडिवायए (दस ६, ५, १)। ४ समीपता, निकटता (उप पू संपगाढ वि सिंप्रगाढ १ अत्यन्त प्राक्त
२,२०)। १८६ स ६८: कुप्र १३०)। ५ संचय, (उत्त २०, ४५; सूत्र २, ६, २२)। २
संपणदिय । देखो संपणाइय (राजा संग्रह (उत्त ६, १५; दस ३, ३;८, २४)। व्याप्त (सूत्र १, ५, १, १७)। ३ स्थित,
संपणद्दिय । कप्प)।
संपणा देखो संपण्णा (दे ८,८)।। संनिहिश पुं[संनिहित] अणपनि देवों के व्यवस्थित (सूत्र १, १२, १२)
संपणाइय । वि संप्रमादित] समोदक्षिण दिशा का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र संपगिद्ध वि [संप्रगृद्ध] अति प्रासक्त संपणादिय । चीन शब्दवाला; 'तुडियसद्दसं८५)। देखो संणिहिअ (गाया १, १ टी-- (पण्ह १, ४-पत्र ८५)
परणाइया' (जीव ३, ४-पत्र २२४; पत्र पत्र ४)।
संपग्गहिअ वि [संप्रगृहीत] खूब प्रकर्ष । २२७ टी)। संनेझ देखो संनिभः 'उवगारि त्ति करेइ से गृहीत, विशेष अभिमान-युक्त (दस ६, ४, संपणाम सक [संप्र+नामय ] अर्पण कुमरस्स सन्नेज्ज(? ज्झ)' (कुप्र २५, चेइय २)।
करना । संपणामए (उत्त २३, १७) । संपज अक सिं+पद्] १ संपन्न होना, संपणिपाअj [सप्रणिपात] प्रणाम, संपअ(अप) देखो संपया (पिंग पि ४१३;
सिद्ध होना। २ मिलना । संपजइ (षड्; संपणिवाय । समीचीन नमस्कार (पंचा ३, संपइ हे ४, ३३५कुमा) ।
महा)। भवि. संपबिस्सइ (महा)। १८ चेइय २३७)
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