Book Title: Paia Sadda Mahannavo
Author(s): Hargovinddas T Seth
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 947
________________ सम्मइ-सयं पाइअसहमहण्णवो सम्मइ देखो सम्मुइ = सन्मति, स्वमति (उत्त २८, १७ प्राचा). सम्मइग देखो सामाझ्य (संबोध ४५) । सम्म प्र[सम्यग् ] अच्छी तरह (प्राचाः सूत्र १, १४, ११, महा)। सम्मुइ स्त्री [सन्मति , संगत मति । २ सुन्दर बुद्धि, विशद बुद्धि (उत्त २८, १७; सुख २८, १७; कप्पा आचा)। ३ पुं. एक कुलकर पुरुष (पउम ३, ५२) । सम्मुइ स्त्री [स्वमति स्वकीय बुद्धि (प्राचा) सम्हरिअ वि [संस्मृत] अच्छी तरह याद किया हुआ (अच्तु ३५)। सय अक[शी, स्वप्] सोना, शयन करना। सयइ, सए, सएज्जा (कप्पः प्राचा १,७, ८, १३, २, २, ३, २५, २६) सयंति (भग १३, ६-पत्र १७)। वकृ. सयमाण (प्राचा २,२, ३.२६)। हेकृ. सइत्तए (पि ५७८)। कृ. देखो सयणिज्ज, सयणी - सय अक [स्वदु] पचना, जीणं होना, माफिक पाना । सयइ (प्राचा २, १, ११, १)। सय प्रक[स्त्र] झरना, टपकना । सयइ (सून २, २,५६) सय सक [भि] सेवा करना । सयंति (भग १३,६-पत्र ६१७)।. सय देखो स= सत् 'वंदणिज्जो सयारणं' पन्नत्ता' (सम ८८), कंत न [कान्त [सहस्रतम] लाखवा (णाया १,८१ रत्न-विशेष । २ वि. शतकान्त रत्नों पत्र १३१)। साहस्स वि [°साहस्र] १ से बना हुआ (देवेन्द्र २६८), 'कित्ति लाख-संख्या का परिमारणवाला (णाया १, j[कीर्ति] एक भावी जिन-देव (पव ४६); १-पत्र ३७)। २ लाख रुपया जिसका 'सत्त (?य) कित्ती' (सम १५३), गुणिअ मूल्य हो वह (पव १११ दसनि ३, १३) । वि[गुणित ] सौगुना (श्रा १०; सुर ३, साहस्सि वि [सहस्रिन्] लखपति, २३२)। ग्घी स्त्री [ध्नी] १ यन्त्र-विशेष, लक्षाधीश (उा पृ ३१५), साहस्सिय वि पाषाण-शिला-विशेष (सम १३७; अंतः प्रौप)। ["साहसिक] देखो साहस्स (स ३६६ २ चक्की, जाँता (दे ८, ५, टी), जल न राज)। साहस्सी स्त्री ["सहस्री] लक्ष, [ज्वल] १ वरुण का विमान (देवेन्द्र २७०)। लाख (पि ४४७; ४४८) 4 °सिक्कर वि देखो सयंजल। २ रत्न को एक जाति । [शर्कर] शत खंडवाला, सौ टुकड़ावाला ३ वि. शतज्वल-रत्नों का बना हुआ (देवेन्द्र (सुर ४, २२; १५३) हा अ धा] सौ २६६) । ४ पुंन. विद्य त्प्रभ नामक वक्षस्कार प्रकार से, सौ टुकड़ा हो ऐसा (सुर १४, पर्वत का एक शिखर (इक) दुवार न २४२) हुत्तं [कृत्वस.] सौ बार [द्वार] एक नगर (अंत), धणु पुं (हे २. १५८, प्रातः षड् ) उ पुं [धनुष्] १ऐरवत वर्ष में होनेवाला एक [आयु] १ एक कुलकर पुरुष का नाम कुलकर पुरुष (सम १५३)। २ भारत वर्ष (सम १५०) । २ मदिरा-विशेष (कुप्र १६०; में होनेवाला दसवाँ कुलकर पुरुष (ठा १०- राज),णि पाणी पुं [नीक] एक पत्र ५१८)। पई स्त्री [पदो] क्षुद्र जन्तु राजा का नाम (विपा १, ५–पत्र ६० की एक जाति (श्रा २३) पित्त देखो । अंत; ती १०) वत्त (गाया १,१-पत्र ३८) पाग न सब देखो सयं = स्वयंः 'सयपालणा य एत्थं' [पाक] एक सौ प्रोषधियों से बनता (पंचा ५, ६६) एक तरह का उत्तम तेल (णाया १,१ सयं देखो सई = सकृत (वै ८८) पत्र १६ ठा ३, १-पत्र ११७) पुप्फा | सयं अस्वयम् ] आप, खुद, निज (प्राचा स्त्री [पुष्पा] वनस्पति-विशेष, सोया का | १, ६, १, ६, सुर २, १८७ भग, प्रासू गाछ (पएण १--पत्र ३४; उत्तनि ३) ७५; अभि ५६; कुमा), कड वि [कृत] 'पोर न पर्वन् इक्षु, ऊख (पव १७४ खुद किया हुप्रा (भग) गाह पुं[ग्राह] टी) + बाहु पुं[बाहु] एक राषि १ जबरदस्ती ग्रहण करना । २ विवाह-विशेष (पउम १०, ७४) भिसया, 'भिसा स्त्री (से १, ३४)। ३ वि. स्वयं ग्रहण करने[भिषज ] नक्षत्र-विशेष (इक; पउम २०, वाला (वव १) । पभ पुं[प्रभ] १ ३८), यम वि [तम] सौवा, १०. वाँ ज्योतिष्क ग्रह-विशेष (ठा २, ३-पत्र ७८)। (पउम १००, ६४) ह पुं [रथ] एक २ भारतवर्ष में प्रतीत उत्सपिणी काल में कुलकर पुरुष (सम १५०) रिलह पुं उत्पन्न चौथा कुलकर पुरुष (सम १५०)। ३ [वृषभ] अहोरात्र का तेईसवाँ मुहूर्त (सुज आगामी उत्सपिणी काल में भारत में होनेवाला १०, १३)वई देखो पई (दे २, ६१) चौथा कुलकर पुरुष (सम १५३) । ४ वत्त न [पत्र] १ पद्य, कमल (पान)। प्रागामी उत्सर्पिणी काल में इस भारतवर्ष में २ सौ पत्तीवाला कमल, पद्म-विशेष (सुपा होनेवाले चाथे जिन-देव (सम १५३)। ५ ४६)। ३ पुं. पक्षि-विशेष, जिसका दक्षिण एक जैन मुनि जो भगवान् संभवनाथ के पूर्वदिशा में बोलना अपशुकन माना जाता है जन्म में गुरु थे (पउम २०, १७)। ६ एक (पउम ७, १७) सहस्स पुंन [°सहस्र] हार का नाम (पउम ३६, ४)। ७ मेरु संख्या-विशेष, लाख (सम २, भगः सुर ३, । पर्वत (सुज ५)। ८ नन्दीश्वर द्वीप के मध २१ प्रासू ६; १३४) । सहस्सइम वि में पश्चिम-दिशा-स्थित एक अंजन-गिरि (पव सय देखो स-स्व (सूत्र १, १, २, २३; गाया १, १४-पत्र १६०; प्राचा; उवा; स्वप्न १६) सय देखो सग = सप्तन् । हत्तरि स्त्री [°सप्तति] सतहत्तर, ७७ (श्रा २८) सय प्र[सदा] हमेशा, निरन्तरः ‘असवुडो सय करेइ कंदप्प' (उव)। काल न [ काल] हमेशा, निरन्तर (सुपा ८५)। सय पुंन [शत] १ संख्या-विशेष, सौ, १००। २ सौ की संख्यावाला (उवा; उवः गा १०१; जी २६ दं)। ३ बहुत, भूरि, अनल्प संख्यावाला (गाया १, १-पत्र ६५)। ४ अध्ययन, ग्रंथ-प्रकरण, ग्रन्थांश-विशेष: 'विवाहपन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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