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समुज्जाय-समुह
पाइअसहमहावा समुजाय वि [समुद्यात] १ निर्गत (विसे होना । समुत्तरइ (गउड ६४१; १०६६)। | समुदाग सक [समुदानय ] भिक्षा के २६०६) । २ ऊँचा गया हुआ (कप्प)।- संकृ. समुत्तरेवि (अप) (भवि)
लिए भ्रमण करना । संकृ. समुदाणेऊण समुज्जोअ अक [सद् + द्युत् ] चमकना, समुत्ताराविध वि [समुत्तारित] १ पार (पएह २, १-पत्र १०१)। प्रकाशना । वकृ. समुज्जोयंत (पउम ११६, पहुँचाया हुआ। २ कूप आदि से बाहर समुदाणिअ देखो सामुदाणिय (प्रौपः भग १७)। निकाला हुया (स १०२)
७, १-पत्र २६३)।समुज्जोअ ' [समुद्योत] प्रकाश, दीप्ति |
समुत्तास सक समुत् + त्रासा ] अति- समुदागिणा स्त्री सामुदानिकी] क्रिया(सुपा ४०: महा)।
शय भय उपजाना । समुत्तासेदि (शौ) (नाट- विशेष, समुदान-क्रिया (सूअनि १६८) । समुज्जोवय सक [समुद् + द्योतय 7
मालती ११६) । प्रकाशित करना। वकृ. समुज्जोवयंत (स
समुदाय समुदाय समूह (अणु २७० समुन्तिण्ण वि [समवतोर्ण अवतीर्ण (पउम टो विसे ६२१)। ३४०) समुज्झ सक [सम् + उज्झ ] त्याग
समुदाहिय वि [समुदाहृत] प्रतिपादित, समुत्तुंग वि [समुत्तुङ्ग] अति ऊँचा (भवि)। करना । संक. समुजिकरण (वै ८७)।
कथित (उत्त ३६, २१)समुत्तुग वि [दे] गवित (गउड) समुट्ठा अक [समुत् + स्था] १ उठना ।
समुदिअ देखो समुइअ = समुदित (सूअनि समुत्थ वि [समुत्थ] उत्पन्न (स ४८ ठा २ प्रयत्न करना। ३ ग्रहण करना। ४
१२१ टी, सुर ७, ५६)। उत्पन्न होना। संकृ. समुट्ठिऊण (सण),
४.४ टी-पत्र २८२, सुर २, २२५ समुदिण्ण देखो समुइन्न (राज)।
___ सुपा ४७०)। समुद्राए, समुठ्ठिऊण (प्राचा १, २, २,
समुदीर सक[समुद् + ईरय 1 १ प्रेरणा समुत्थइउं देखो समुत्थ्य = समुत् + स्थगय ।। १; १, २, ६, १; सण)।
करना । २ कर्मों को खींच कर उदय में समुट्ठाइ वि[समुत्थायिन् ] सम्यग् यत्न | | समुत्यण न [समुत्थान] उत्पत्ति (णाया
लाना, उदीरणा करना। वकृ. समुद्दी करनेवाला (प्राचा)।१, ६-पत्र १५७)।
[?दी] रेमाण (णाया १, १७-पत्र समुट्ठाइश देखो समुद्विअ (स १२५)। समुत्यय सक [समुत् + स्थगय ] पाच्छा
२२६)। संकृ. समुदोरिऊण (सम्यक्त्वो ___दन करना, ढकना । हेकृ. समुत्थइउं (गा समुहाग न [समुपस्थान] फिर से वास |
३६४ अ; पि ३०६)। करना । सुय न [ श्रुत] जैन शास्त्र-विशेष
समुद पुं[समुद्र] १ सागर, जलधि (पामा समुत्थय वि [समवस्तृत आच्छादित (कुप्र (दि २०२)।
णाया १,८-पत्र १३३; भगः से १,२१ हे १६२) समुहाग न [समुत्थान] १ सम्यग् उत्थान ।
२, कप्पू प्रासू ६०॥ २ अन्धकवृष्णि का समुत्थल्ल वि [समुच्छलित] उछला हुआ २ निमित्त, कारण (राज)। देखो समुत्थाण।
ज्येष्ठ पुत्र (अंत ३) । ३ आठवें बलदेव और (स ५७८)समुट्ठिअ वि [समुत्थित] १ सम्यक् प्रयत्न
वासुदेव के पूर्व जन्म के धर्म-गुरु (सम १५३)। समुत्थाण न [समुत्थान] निमित्त, कारण शील (सूत्र १, १४, २२)। २ उपस्थित ।
४ वेलन्धर नगर का एक राजा (पउम ५४, (विसे २८२८) । देखो समुट्ठाण । ३ प्राप्त (सूत्र १, ३, २, ६)। ४ उठा
३६) । ५ शाण्डिल्य मुनि के शिष्य एक जैन समुत्थिय देखो समुट्टिअ (भवि) 10 हुआ, जो खड़ा हुआ हो वह (सुर १, ९६)।
मुनि (णंदि ४६) । ६ वि. मुद्रा-सहित (से
१, २१) समुदग पुं [समुदय] १ समुदाय, संहति, ५ अनुष्ठित, विहितं (सूअ १, २, २, ३१) ।
दत्त पुं [दत्त] १ चौथे ६ उत्पन्न (णाया १,६-पत्र १५६)।
समूह (औप, भग; उवर १८६) । २ समुन्नति, वासुदेव का पूर्वजन्मीय नाम (सम १५३)। ७ आश्रित (राज)। अभ्युदय (कुप्र २२)
२ एक मच्छीमार का नाम (विपा १, ८समुड्डीण वि [समुड्डीन] उड़ा हुआ (वज्जा | समुदाआर । देखो समुआचार (स्वप्न
पत्र ८२)। दत्ता स्त्री ["दत्ता] १ हरिषेण ६२, मोह ६३)।
समुदाचार । ४५ नाट-शकु ७७; औप; वासुदेव की एक पत्नी (महा ४४)। २ स ५६५)
समुद्रदत्तमच्छोमार को भार्या (विपा १, ८)। समुण्णइय देखो समुत्तइय (राज)।
समुदाण न [समुदान] १ भिक्षा (प्रौप)। °लिक्खा स्त्री [लिक्षा] द्वीन्द्रिय जंतु को समुत्त न [संमुक्त] १ गोत्र-विशेष । २
२ भिक्षा-समूह (भग)। ३ क्रिया-विशेष, एक जाति (परण १-पत्र ४४) विजय पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्नः 'समुता (?त्ता)'
प्रयोग-गृहोत कर्मों को प्रकृति-स्थित्यादि-रूप j[विजय] १ चौथे चक्रवर्ती राजा का (ठा ७–पत्र ३६०)। देखो समुत्त ।
से व्यवस्थित करनेवालो क्रिया (सूअनि पिता (सम १५२)। २ भगवान् अरिष्टनेमि समुत्तइय वि [दे] गर्वित (पिंड ४६५) । १६६)। ४ समुदाय (आव ४) चर वि का पिता (मम १५१; कप्प; अंत)। सुआ समुत्तर सक [समुत् + तृ] १ पार [चर] भिक्षा की खोज करनेवाला (पएह स्त्री [सुता] लक्ष्मी (समु १५२)। देखो जाना । २ अक. नीचे उतरना। ३ प्रवतीणं । २,१-पत्र १००)
समुद्र । ११०
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