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पाइअसहमहण्णवो
संजोइय-संणज्म संजोइय वि [संदृष्ट] दृए, निरीक्षित (भवि)। संठ वि [शठ] धूर्त, मायावी (कुमा; दे ६, १--वत्र १६ भगः कप्प; प्रौप; गा८; सुर संजोग देखो संजोअ = संयोग (हे १, १११)।
३, ३०; महा: प्रासू १४५); "तियसतरुसंडों २४५) ।
संठ (चूपै) देखो संढ (हे ४, ३२५) । (गउड)। ३ . नपुंसक (हे १. २६०)। संजोगि वि [संयोगिन संयोग-युक्त, संबन्धी संठप्प देखो संठव ।।
संडास पुंन [संदंश] १ यन्त्र-विशेष, सँड़सी,
चिमटा (सूत्र १, ४, २, ११; विपा १, (संबोध ४६)।
संठव सक [सं + स्थापय ] १ रखना,
स्थापना करना। २ आश्वासन देना, उद्वेग- ६-पत्र ६८; स ६६९)। २ ऊरु-संधि, संजीगेत्तु वि [संयोजयितु] जोड़नेवाला
रहित करना, सान्त्वना करना। संठवइ, जाँघ और ऊरु के बीच का भाग (प्रोष (ठा ८-पत्र ४२६)।
संठवेइ (भविः महा)। वकृ. संठवंत (गा २:६; प्रोघभा १५५)4 तोंड पुं [तुण्ड] संजोत्त (अप) देखो संजोअ = स + योजय ।
३६) । कवकृ. संटविज्जत (सुर १२, ४१)। पक्षि-विशेष, सड़सी की तरह मुखवाला पाँखी संकृ. संजोत्तिवि (भवि) ।
संकृ. संठवेऊण (महा), संठप्प (उव), | (पएह १, १-पत्र १४) । संझ नीचे देखो (णाया १, १-पत्र ४८) । संठविअ (पिंग)।
संडिज्झ । न [दे] बालकों का क्रीड़ा-स्थान च्छेयावरण वि [च्छेदावरण] १ सन्ध्या- संठवण देखो संठावण (मृच्छ १५४) ।
संडिब्भ (राजः दस ५, १, १२)। विभाग का प्रावारक। २. चन्द्र, चाँद संठविअ वि [संस्थापित १ रखा हुआ संडिल्ल [शाण्डिल्य १ देश-विशेष (उप (अणु १२० टी)। पभ पुंन [प्रभ] । (हे १, ६७, प्राप्र; कुमा)। २ पाश्वामित ।
१८३१ टी; सत्त ६७ टी)। २ एक जैन शक्र के सोम-लोकपाल का विमान (भग ३, ३ उद्वेग-रहित किया हुआ (महा) ।
मुनि का नाम (कप्प; एंदि ४६)। ३ एक ७-पत्र १७५) । संठा अक [सं+ स्था] रहना, अवस्थान
ब्राह्मण का नाम (महा)। देखो संडेल्ल । संझास्त्री [सन्ध्या] १ सांझ, साम, सायंकाल करना, स्थिति करना। संठाइ (पि ३०६
संडी स्त्री [दे] वल्गा, लगाम (दे ८, २)। (कुमाः गउड; महा)। २ दिन और रात्रि ४८३)
संढेय पुं [षाण्डेय] षंढ-पुत्र, षंढ, नपुंसक का संधि-काल । ३ युगों का संधि-काल । संठाण न [संस्थान ] १ प्राकृति, पाकार
'कुक्कुडसंडेयगामपउरा' (प्रौपा णायाः १, ४ नदी-विशेष । ५ ब्रह्मा की एक पत्नी (हे (भग औप; पत्र २७६; गउड महाः दं ३)।
१ टी-पत्र १) १,३०)। ६ मध्याह्न काल; 'तिसंझ' (महा)। २ कर्म-विशेष, जिसके उदय से शरीर के शुभ
संडेल न [शाण्डिल्य १ गोत्र विशेष । २ गय न [गत] १ जिस नक्षत्र में सूर्य! या अशुभ प्राकार होता है वह कर्म (सम
पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७-पत्र अनन्तर काल में रहनेवाला हो वह नक्षत्र । - ६७; कम्म १, २४ ४०)। ३ संनिवेश,
३६०) । देखो संडिल्ल ।। २ सूर्य जिसमें हो उससे चौदहवाँ या पनरहवाँ रचना (प्रासू ८७)।
सडक पु.] पानी में पैर रखने के लिए नक्षत्र । ३ जिसके उदय होने पर सूर्य उदित / संठाव देखो संठव। संकृ.संठाविअ (नाट-
रखा जाता पाषाण प्रादि (मोघ ३१) । हो वह नक्षत्र । ४ सूर्य के पीछे के या प्रागे चैत ७५) ।
संडेवय (अप) देखो संडे य; ‘गामई कुक्कुडके नक्षत्र के बाद का नक्षत्र (वय १) संठावण न संस्थापन] रखनाः 'तेरिन्छ
- संडेययाई' (भवि)। 'छेयावरण देखो संझ-च्छेयावरण (पव | संठावणं' (पव ३८)। देखो संथावण।
|संडोलिअ वि [दे] अनुगत, अनुयात (दे २६८), गुराग व् [°नुराग] साँझ के संठावणा स्त्री [संस्थापना ] आश्वासन, ८, १७)। बादल का रंग (पएण २-पत्र १०६) सान्त्वना (से ११, १२१)। देखो संथावणा संढ पिण्ड नपुंसक (प्राप्र हे १, ३०० 'वली स्त्री ["वली] एक विद्याधर-कन्या का
संठाविअ देखो संठविअ (हे १, ६७; कुमाः संबोध १९)। नाम (महा)। "विगम पुं[विगम] रात्रि प्राप्र)
संढो स्त्री [दे] साँढ़नी, ऊँटनी (सुपा ५८०)। रात (निचू १६)। "विराग पुं[विराग]
संठिअ वि [संस्थित] १ रहा हुमा, सम्यक संढोइय वि [संढौकित] उपस्थापित (सुपा साँझ का समय (जीव ३, ४)।
स्थित (भगः उवा: महा; भवि)। २ न. संझाअ सक [सं +ध्यै] ख्याल करना, आकार (राय)।
संण वि [संज्ञ] जानकार, ज्ञाता (प्राचा चिन्तन करना. ध्यान करना। संझादि
संठिइ स्त्री [संस्थिति] १ व्यवस्था (सुज्ज १, ५, ६, १०)। (शौ) (पि ४७६; ५५८)। वकृ. संझायंत
। १,१)। २ अवस्था, दशा, स्थिति (उप संणक्खर देखो संनक्खर (राज)। (सुपा ३:९) १३६ टी)
संणज्ज न [सांनाय्य मन्त्र प्रादि से संस्कारा संझाअ अक [संध्याय] संध्या की तरह संड ( [शण्ड, षण्ड] १ वृष, बैल, साँढ; जाता धी वगैरह (प्राकृ १९)
आचरण करना । संझायइ (गउड ६३२) । । 'मत्तसंडुव्व भमेइ विलसेइ प्र (श्रा १२, संणज्झ अक [सं+ नह.] १ कवच धारण संटंक पुं[सटङ्क] अन्वय, संबन्ध (चेइइ सुर १५, १४०)। २ पुंन. पप आदि का करना, बखतर पहनना । २ तैयार होना । ३६६)
समूह, वृक्ष आदि की निबिड़ता (णाया १, संगज्झइ (पि ३३१)।
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