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६८१ ) । कृ. संतप्पियव्य ( स ६८१) । वकृ. संतप्पमाण (सुज्ज ६) । संतपक्ष वि[संतप्त ] संताप-युक्त (कुमा. ६, १४) । २ न. संताप ( स २० ) । संतमसन [संवनस] १ अन्धकार अँधेरा (पान सुपा २०५ ) । २ अन्ध-कूप, अँधेरा ( १०. १५०)
संतय देखो संतन्त्त = संतत (पाश्रः भग) 1 संतर सक[सं+ तृ] तैरना, तैर कर पार करना। हेकृ. संतारत्तए ( कस) M संतरण न [ संतरण] तैरना, तैर कर पार करना (१८७४३ २२०) संतस अक [ सं + ] १ भय-भीत होना। २ उद्विग्न होना। संतसे ( उत्त २० ११) 1
संताण [संतान] १ (क) २ श्रविच्छिन्न धारा प्रवाह (विसे २३१७; २३६८; गउडः सुपा १६८ ) । ३ तंतु-जाल, मकड़ी आदि का जाल 'मक्खडासंताण ए (भाषा पडि कस) 1
संताण न [ संत्राण ] परित्राण, संरक्षण (१) ।
संता श्री [शान्ता] सातवें दिन भगवान की संतास [संत्रास ] भय, डर (स २४४) शासन-देवता (संति संतास वि [संत्रासिन् ] त्रास जनक ( उप ७६८ टी) |
संताणि वि[संतानिन]
विचारा में उत्पन्न, प्रवाह-वर्ती; 'संतारिणो न भिरणो जइ संतारणी न नाम संतागो' (विसे २३६८ धर्मं सं २३५ ) । २ वंश में उत्पन्न, परंपरा में उत्पन्न; 'देव इह श्रत्थि पत्तो उज्जाणे पासनाहतः केसी नाम वराहरों (धर्मवि ३) 1
।
संतार वि [ संतार ] १ तारनेवाला, पार उतारनेवाला (पउम २, ४४ ) । २ पुं. संतरण, तैरना (पिंग) संतारिअ वि[संधारित] पार उतारा हुआ (पिंग) 1संतारिम वि[संतारिम] तैरने योग्य (भाषा २, ३, १, १३) । - संताय सक [ सं + तापय_ ] १ गरम करना, तपाना । २ हैरान करना । संतावेति
पाइअसहमहावी
कवकृ.
-
( सुज्ज ९ ) । वकृ. संतावित (सुपा २४८ ) । क. संताविजमाण (नाट–मुद्र १२७) । संताय [संताप] १ मन का छेद ह १, ३ – पत्र ५५३ कुमाः महा) । २ ताप, गरमी ( परह १. ३ – पत्र ५५; महा) | संतावण न [ संतापन ] संताप, संतप्त करना (सुपा २३२) । -
संतावणी स्त्री [संतापनी ] नरक- कुम्भी (सूत्र १, ५, २, ६ ) 1
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संता वि[संतापक] संतापजनक (भवि) 1 संताविव [संतापिन्] संतत होनेराला, जलनेवाला (कप्पू)।
संताविय वि[संतापित] संत किया (कास) 10
संतास तक [ सं प्रासय] भी करना, डराना। संतासइ (पिंग ) । -
संति स्त्री [शान्ति ] १ क्रोध श्रादि का जय,
उपशम, प्रशम ( श्राचा ११, ७ १, चेइय ५४) २ मुक्ति मोघ (घाचा १, २, ४, ४; सूत्र १, १, १ ठा - पत्र ४२५ ) । अहिंसा (याचा १, ६,५, ३) ४ उपद्रव - निवारण ( विपा १, ६–पत्र ६१० सुपा ३६४ ) । ५ विषयों से मन को रोकना । ६ चैन, आराम । ७ स्थिरता (अ ७२८ टी
संवि] १)। ८ (सूत्र दाहोपशम ठंडाई (सूच] १. ३, ४, २०) । देवी-विशेष (पंचा ११. २४) १०. सोलह जिनदेव का नाम (सम ४३ कप्प; पडि) ° उदअ [उदक] शान्ति के लिए मस्तक में दिया जाता मन्त्रित पानी (पि १६२) कम्म ["कर्मन् ] उपद्रव निवारण के लिए किया जाता होम आदि कर्म (परह १, २ – पत्र ३०, सुपा २६२ ) । कम्मंत न [कर्मान्त ] जहाँ शान्ति-कर्म किया जाता हो वह स्थान ( श्राचा २, २, २, ε)। गिह न [गृह] शान्ति-कर्म करने का स्थान (कम्प) जल न [जल] देखो 'उदअ ( धर्मं २) जिण पुं [°जिन] सोलहवें जिन- देव (संति १ ) * मई स्त्री [ती] एक श्राविका का नाम
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संतपि-संतोसि
(सुपा६२२) [६] शान्ति प्रदाता (उप ७२८) सूरि [रिं] एक टी) जैनाचार्य धीर प्रकार (जी ५०) सेणिय
[श्रेणि] एक प्राचीन जैन मुनि (कल्प ) 1 " [गृह] भगवान् शान्तिनाथजी का मन्दिर ( प ६७, ५) होम ["होम ] शान्ति के लिए किया जाता हवन (विपा १, ५-पत्र ६१ ) ।
संति संतिग
} रखनेवाला श्रम्मा पिउसंतिए
[स]
वद्धमाणे' (कप्प ); 'नो कप्पइ निन्गंथारण वा निग्गंधीरण वा सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अहिक संपदा (कस
उव महाः सं २०६ सुपा २७८ ३२२० परह १, ३ – पत्र ४२ ) ।
संविजाधर देखो संति-गिद्द (महा ६० संतिण वि[संतीर्ण ] पार-प्राप्त, पार उतरा हुआ 'संतिएरणं सव्वभया' (श्रजि १२) । संतुट्ठ वि [संतुष्ट ] संतोष प्राप्त (स्वप्न २०;
महा) 1
संतुयट्ट वि [संत्वगत्त] जिसने पार्श्व घुमाया हो वह, जिसने करवट बदली हो वह, लेटा हुआ ( खाया १, १३ - पत्र १७९ ) 1 संतुलगा श्री [संतुलन ] तुलना, तुल्यता, साई (सार्थ २०)
संतुरस
[ सं+तु ] १ प्रसन्न होना । २ तृप्त होना । संतुस्सइ (सिरि ४०२ ) । V संतेजावर देणो संविापर हा ६८ 28) 10
संतोष [ अन्तर ] मध्य बीच 'तो संतो संत[सं+ तोषय ] मध्यायें (७९)) I
प्रसन्न करना, खुशी करना । २ तृप्त करना । कर्म. संतोसीश्रदि (शौ) (नाट - रत्ना ४० ) IV संतोस पुं [संतोष ] तृप्ति, लोभ का प्रभाव; 'हरइ अरवि परगुणो गरुयम्मिवि रियगुणे न संतोसो' (गउड कुमाः परह १, ५पत्र ६३३ प्रासू १७७; सुपा ४३६) संतोसि श्री [संतोष]] सन्तोष, तुष्टि, भूमि (उवा) ।
संतोसि वि [ संतोषिन् ] १ सन्तोष-युक्त, लोभ-रहित, निर्लोभी, तृप्त (सूत्र १,१२,
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