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विशेष (ग) चमग ["मायक] वानप्रस्थ की एक जाति (राज) + धर पुं ["घर] श्रीकृष्ण विष्णु (कुमा) पाल देखो ॰वाल (ठा ४, १—–पत्र १९७ ) + पर न] [पुर ] १ एक विद्याधर नगर (इक) । २ नगर - विशेष जो श्राजकल गुजरात में संखेघर के नाम से प्रसिद्ध है (राज) पुरी श्री [["पुरी] कुलंगल देश की प्राचीन राजधानी जो पीछे से अहिच्छत्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई थी (सिरि ७८) माल पुं [माल] वृक्ष की एक जाति (जीन ३] १४२) व [न] एक उद्यान का नाम ( उवा) । 'वण्णा ['वर्णाभ] ज्योतिष्क महाग्रहविशेष ( २० ) बन ["वर्ण] जोतिष्क महाग्रह - विशेष (ठा २, ३ - पत्र ७८) वन्नाभ देखो वण्णा (ठा २, ३-पत्र ७८ ) वर पुं [वर ] १ एक द्वीप २] एक समुद्र (दीव; एक) बरोभास
[वरावभास] १ एक द्वीप । २एक समुद्र (दोन) बाल [पाळ] नाग- कुमार देवों के धरण और भूतानन्द नामक इन्द्रों के एक एक लोकपाल का नाम (इक) वालय पुं [* पालक] १ जैनेतर दर्शन का अनुयायी एक व्यक्ति (भग ७, १० - पत्र ३२३) । एक आजीविक मत का एक उपासक (भग ८, ५ - पत्र ३७०) लगवि [ वत् ] शंखवाला ( छाया १, ८ पत्र १३३) । "बई श्री [ती] नगरी विशेष (ती) - संख वि[संख्य ] संख्यात, गिना हुप्रा, गिनतीवाला (कम्म ४, ३६ ४१) ।
[सांख्य] १ दर्शन-विशेष, कपिलमुनिप्रणीत दर्शन (गाया १, ५-पत्र १०५ सुपा ५६९) । २ वि. सांख्य मत का अनुयायी ( श्रौप; कुप्र २३) ।
संख पुं [दे] मागध, स्तुति पाठक (देप, २) । संखम [संख्येय] जिसकी संख्या ही सके वह (विसे ६७०; अणु ६१ टी ) । संखड न [दे] कलह, झगड़ा (पिड ३२४) शोध १५७) । -
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[] विवाह आदि के उपलक्ष्य में नात-नातेदार आदि को दिया जाता भोज,
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पाइअसहमणवो
जेवनार ( आचा २, १,२,४; २,१, ३, १ २; ३ पिंड २२८ ओघ १२; ८८ भास २ ) संधि श्री [संस्कृति] घोदन-पाक (क) - संखणग पुं [ शङ्खनक] छोटा शंख (उत्त
३६, १२६; पराग १ – पत्र ४४० जीव १ टी-पत्र ३१) |
[दे] गोदावरी हर
संग्रह १४) 1
संखबइल पुं [दे] कृषक की इच्छानुसार उठ कर खड़ा होनेवाला बैल (दे ८, १९ ) 1संखम वि [संक्षम ] समर्थ (उप ६८६ टी) । संखय पुं [संक्षय ] क्षय, विनाश ( से, ४२) ।
संख्य वि [ संस्कृत ] संस्कारयुक्तः 'य संखयमाहु जीवियं' (सू १, २,२, २११, २, ३, १०; पि ४६), 'असंखयं जीविय मा पमायए' (उत्त ४, १) संखलय पुं [दे] शम्बूक, शुक्ति के श्राकारवाला जल-जन्तु विशेष (दे ८, १८) 1 संखला देखो संकला (गउड; प्रामा)
संखलि पुंस्त्री [दे] कर्ण- भूषरण विशेष, शंखपत्र का बना हुआ ताडंक (दे ८, ७) संखव सक [ सं + क्षपय ] विनाश करना। संकृ. संखवियाण (उत्त २०, ५२ ) । संखविअ वि [संक्षपित ] विनाशित (प्रच्चु 5) 1~
संखा सक [ सं + ख्या] १ गिनती करना। २ जानना । संकृ. संखाय (सूत्र १,२, २, २१) । कृ. संखिज्ज, संखेज्ज (उवा जी ४१; उवः कप्प) |
संखा प्रक [ सं + स्त्यै] १ श्रावाज करना । २ संहत होना, सान्द्र होना, निबिड़ बनना । संखाइ, संखाश्रइ (हे ४, १५; षड् ) संखा की [संख्या] १ प्रता, बुद्धि (धाचा १, ६, ४, १) । २ ज्ञान (सूत्र १,१३, ८ ) । ३नि ( ४ गिनती, गहना (भगः अणु; कप्प; कुमा) । ५ व्यवस्था ( सू २, ७, १०) अवि [तीत ] असंख्य (भग १, १ टी; जीव १ टी -पत्र १३३ श्रा ४१) । 'दत्तिय वि [दत्तिक ] उतनी ही भिक्षा
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संख–संखुड्ड
लेने का व्रतवाला संयमी, जितनी कि प्रमुक गिने हुए प्रक्षेपों में प्राप्त हो जाय (ठा २, ४ – पत्र १००, ५, १-- पत्र २६६ श्रौष) 1 संखाण न [ संख्यान] १ गिनती, गणना, संख्या । २ गणित शास्त्र (ठा ४, ४ - पत्र २६३३ भगः कप्प; श्रपः पउम ८५, ६; जीवस १३५)
संखाय [संस्थान] सान्द्र ननिविद (कुमा ६, ११) । २ आवाज करनेवाला । ३ संहत करनेवाला । ४ न. स्नेह । ५ निबिड़पन । ६ संहति, संघात । ७ श्रालस्य । 5 प्रतिशब्द, प्रतिध्वनि ( हैं १, ७४, ४, १५) । संखाय देखो संखा = सं + ख्या । - संखाय वि[संखाय ] संख्या-युक्त (सूम १, १३, ८)
संखायण न [शाङ्खायन] गोत्र - विशेष (सुख १०, १६ इक)
संथाल [हे] हरिया की एक जाति, सांबर मृग (दे ८, ६) -
संखालग देखो संखालग= शङ्ख-वत् । संखावई देखो संखावई = शङ्खावती । - संखाविय वि[संख्यापित] जिसकी गिनती कराई गई हो वह (२६२ ४१६) लिंग देखी संखिय शाङ्खिक (१०३० कु १४६ ) |
=
=
संखिज्ज देखो संखा सं + ख्या । संखिज्जइ वि [संख्येग्रतम ] संख्यातवाँ (श्रण
1 (29
संखित्त वि [संक्षिप्त ] संक्षेप-युक्त, छोटा. किया हुआ (उवा; दं ३ जी ५१) । संखिय
[शाङ्गिक] १ मंगल के लिए चन्दन - गर्भित शंख को हाथ में धारण करनेवाला । शंख बजानेवाला (कप्प; श्रौष) 1 संखिय देशो संख (४४१ पंच २. ११ जीवस १४६) ।
संखिया श्री [शङ्खिका ] छोटा व (जीव ३-पत्र १४६ नं २ टी -पत्र १०१; राय ४५) ।
संखुड्ड भक [रम् ] क्रीड़ा करना, संभोग करना । संखुहुइ (हे ४, १६८)
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