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विसील-विसोहिय
पाइअसद्दमण्णवो विसील वि [विशील] १ ब्रह्मचर्य-रहित, विसूरमाण (उव; गा ४१४; सुपा ३०२ | विसेसय पुंन [विशेषक] तिलक, चन्दन व्यभिचारी (वसुः उप ५६७ टी)। २ खराब | गउड)। कृ. विसूरियव्य (गउड)
आदि जा मस्तक-स्थित चिह्न (पानः से १०, स्वभाववाला, विरूप आचरणवाला (उत्त विसूरण न [खेदन] १ खेद । २ पीड़ा (पएह ७४) वेणी ४६ गा ६३८ कुप्र २५५)।--
१, ५--पत्र ९४)।
| विसेसिअ वि [विशेषित] १ विशेषण-युक्त विसुज्झ अक [वि + शुध् ] शुद्धि करना। विसूरणा स्त्री [खेदना] खेद, अफसोसः दुःख
किया हुअा, भेदित (सम्म ३७, विसे २६८७)। विसुज्झइ (उव)। वकृ. विसुभंत, विसु(से ५, ३) ।
२ अतिशयित (पास)। ज्झमाण (उप ३२० टी; णाया १,१-पत्र विसूरिअ वि [खिन्न] खेद-युक्त, दिलगीर |
विसेस्स देखो विसेस = वि + शेषय । - ६४. उवाः प्रौप; सुर १६, १६१)।
विसोग वि [विशोक] शोक-रहित (आचा)।विसुणिय वि [विधुत] विज्ञात (पएह १,
(से १०,७६)।४-पत्र ८५)। विसूहिय पुन [विष्वम्हित] एक देव-विमान विसोत्तिया स्त्री [विस्रोतसिका] १ विमार्ग
गमन, प्रतिकूल गति । २ मन का विमार्ग (सम ४१)।विसुत्त वि[विसोतस ] १ प्रतिकूल । २
में गमन, अपध्यान, दुष्ट चिन्तन (आचाः खराब, दुष्ट (भवि)।
विसेढि स्त्री विश्रेणि] १ विदिशा-सम्बन्धी
श्रेरिण, वक्र रेखा । २वि, विश्रेरिण में स्थित विसुत्तिया देखो विसोत्तिया (श्रावक ५६
विसे ३०१२; उवः धर्मसं ८१२)। ३ शंका दस ५, १, ६) (णंदिः पि ६६; ३०४)।
(आचा)।
विसोपगापुंन [दे. विंशोपक] कौड़ी का विसुद्ध वि [विशुद्ध १ निर्मल, निर्दोष (सम विसेस सक [वि+शेषय ] विशेष-युक्त
विसोवग) बीसवाँ हिस्सा (धर्मवि ५७; पंचा ११६ ठा ४, ४ टी-पत्र २५३; प्रासू २२, करना, गुण आदि द्वारा दूसरे से भिन्न करना,
११, २२)। उव; हे ३, ३८)। २ विशद, उज्ज्व ल विशेषण से अन्वित करना, व्यवच्छेद करना।
विसोह सक [वि + शोधय 1 १ शुद्ध (परण १५-पत्र ४८६)। ३ पुं. ब्रह्मदेव- विसेसइ, विसेसेइ (भविः सणः सूअनि ६१
करना, मल-रहित करना, निर्दोष बनाना । लोक का एक प्रतर (ठा ६-पत्र ३६७)।टी: भग; विसे ७६; महा) । कम विसेसिज्जइ
२ त्याग करना। विसोहइ, विसोहेइ (उव; विसुद्धि स्त्री [विशुद्धि] निर्दोषता, निर्मलता (विसे ३१११)। संकृ. विसेसिङ (विसे
सणः कस)। विसोहिज्ज (आचा २, ३, २, ३११४)। कृ. विसेसणिज, विसेस्स (प्रौप; गा ७३७)।
३)। हेकृ. विसोहित्तए (ठा २, १विसुमर सक [वि + स्मृ] भूल जाना, याद | (विसे २१५६; १०३५)।
पत्र ५६)। न पाना । विसुभरइ, विसुमरामि (महा पि विसेस पुन [विशेष] १ प्रभेद, पार्थक्य, विसोह वि [विशोभ] शोभा-रहित (दे १, ३१३), विसुमरेहि (स २०४)।
भिन्नता; ‘ण संपरायसि विसेसमत्यि' (सूत्र ११०)। विसुमरिअ वि [विस्मृत] जिसका विस्मरण २, ६, ४६; भगः विसे १०५, उव)। २ भेद, विसोहण न [विशोधन शुद्धिकरण (कस)।हुआ हो वह (स २६५; सुख २, २६ सुर प्रकार: 'दसविहे विसेसे पन्नत्ते (ठा ,
विसोहणया स्त्री [विशोधना] ऊपर देखो १४, १७) । महा; उव)। ३ असाधारण, अमुक, व्यक्ति,
(ठा ८-पत्र ४४१)।विसुराविय वि [खेदित] खिन्न किया हुआ; खास (उव; जी ३६; महा अभि २१०)।
विसोहय वि [विशोधक] शुद्धि-कर्ता (सूम 'अरईविलासविसुरावियाण निव्वडइ सोहग्गं' ४ पर्याय, धर्म, गुण (विसे २६७)। ५ (गउड १११)।
अधिक, अतिशय, ज्यादा; 'तप्रो विसेसेण तं विसुवन विपत् ] रात और दिन की पुजं' (भगः प्रासू १७६; महा; जी ३६)। विसोहि स्त्री [विशोधि] १ विशद्धि. समानतावाला काल, वह समय जब दिन और । ६ तिलक । ७ साहित्यशास्त्र प्रसिद्ध अलंकार
निर्मलता, विशुद्धता (पउम १०२, १९६; रात दोनों बराबर होते हैं (दे ७, ५०) । विशेष । ८ वैशेषिक-प्रसिद्ध अन्त्य पदार्थ
उवः पिंड ६७१, सुपा १९२)। २ अपराध विसूइया स्त्री [निसूचिका] रोग-विशेषः हैजा (हे १, २६०)। न्नु [ज्ञ विशेष जानने
के योग्य प्रायश्चित्त (प्रोध २)। ३ आवश्यक, (उवः सुर १६, ७२: प्राचा २, २, १, ४)।वाला (सं ३२; महा)। ओ अ[तस ]
सामयिक आदि षट-कर्म (मण ३१)। ४
भिक्षा का एक दोष, जिस दोषवाले पाहार खास करके (महा)।विसूणिय वि [विशूनित] १ फुला हुआ,
का त्याग करने पर शेष भिक्षा या भिक्षा-पात्र सुजा हुमा (पएह १, १-पत्र १८)। २ विसेस [विश्लेष] पृथक्करण (वव १)।
विशुद्ध हो वह दोष (पिंड ३६५) कोडि काटा हुमा, उत्कृत्त (सूम १, ५, २, ६)। विसेसण न [विशेषण] दूसरे से भिन्नता स्त्री [कोटि] पूर्वोक्त विशोधि-दोष का विसूर देखो विसुमर । विसूरइ (प्राकृ ६३)। बतानेवाला गुण प्रादि (उप ४४४; भास प्रकार (पिंड ३६५) । विसूर अक [खिद्] खेद करना। विसुरइ ८६ पंच १, २२, विसे ११५)। विसोहिय वि [विशोधित] १ शुद्ध किया (हे ४, १३२ प्राप्र; उव)। वकृ. विसुरंत, विसेसणिज्ज देखो विसेस = वि + शेषम् ।- हुमा । २ पुं. मोक्ष-मार्ग (सूम १, १३, ३)।
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