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विवइण्ण-विवर पाइअसहमहण्णवो
८०१ विवइण्ण वि [विप्रकीर्ण] बिखरा हुआ (पउम विवज्जग वि [विवर्जक वर्जन करनेवाला विवण्ण वि [विवर्ण] १ कुरूप, कुडौल (से ७८, २६ से ५, ५२, १३, ८६)।- (सूम २, ६, ५)
५, ४७; दे ६७९)। २ फीका, निस्तेज, विवंक वि [ विवक ] विशेष बाँका, टेढा (स | विवजण न [विवर्जन] परित्याग (रत्न | म्लान (गाया १, १-पत्र २८; से ८,८७)। २५१)।२२)।
विवण विद्विपर्ण १ दो पत्रवाला। २ विवंचिआ स्त्री [विपश्चिका] वाद्य-विशेष, विवज्जया) स्त्री विवर्जना] परित्याग, पुं. वृक्ष, पेड़ (राज)। वीणा (पान)।
विवजणा । परिहार, वर्जन (सम ४४ विवत्त पुं[विवर्त] एक महाग्रह, ज्योतिष्क विवक्क वि [विपक्व १ अच्छी तरह पूर्ण | उत्त ३२, २; दसचू २, ५) ।
देव-विशेष (सुज २०)।किया हुआ। २ प्रकर्ष को प्राप्त, अत्यन्त | विवजत्थ वि [विपर्यस्त] विपरीत, उलटा | विवत्ति स्त्री विपत्ति]१ विनाश (णाया पका हुआ । ३ उदय में प्रागत, पलाभिमुख, । (पंचा ११, ३७ कम्म १, ५१)।।
१,६-पत्र १५७; विपा १,२-पत्र ३२ 'विवक्कतवबंभचेराणं देवारणं प्रवन्नं बदमाणे
विवजय ' [विपर्यय] विपर्यास, व्यत्यास, सुपा २३५, उव)। २ मरण, मौत (सुर (ठा ५, २-पत्र ३२१)।
| वैपरीत्य (पापा उप १४२ टीः पव १३३; २, ५१, स ११६)। ३ कार्य की प्रसिद्धि विवक्ख पुं[विपक्ष] १ दुश्मन, रिपु, विरोधी - पंचा६, ३०; कम्म १, ५५)।
(सुपा २३५; उवः बृह १)। ४ आपदा, "विवक्खदेवीहि (गउडा स ५६४ अच्चु विवज्जास[विपर्यास] १ विपर्यय, व्यत्यय
का (सुपा २३५)। ३१)। २ न्याय-शास्त्र प्रसिद्ध विरुद्ध पक्ष,
(पान पंचा ८, ११)। २ भ्रम, मिथ्याज्ञान विवत्तिअ वि [विवर्तित] फिराया हुआ, वह वस्तु जहाँ साध्य आदि का प्रभाव हो (सुर ६, १५४)।
घुमाया हुमा (से ६, ८०)। (दसनि १---गाथा १४२)। ३ विपरीत धर्म
विवजिअ वि [विजित] रहित, वजित, | विवत्थ पुं[विवस्त्र] एक महाग्रह (सुज्ज (अण)। ४ वैधम्यं, विसदृशता (ठा १
परित्यक्त (उव; द ३६; सुर ३, १५५; २०)। टी-पत्र १३)।
रंभा भवि)।
| विवदि स्त्री [विवृति] १ विवरण, टीका । विवक्खा स्त्री [विवक्षा] कहने की इच्छा
| विवट्ट प्रक [वि + वृत् ] बरतना, रहना । । २ विस्तार (संक्षि) (पंच १, १० भास ३१; दसनि १, ७१)।
| विवट्टइ (हे ४, ११८)। वकृ. विवट्टमाण विवद्धण न [विवर्धन] वृद्धि, बढ़ाव (कप्प)। विवग्घ वि [विव्याघ्र] व्याघ्र के चमड़े से (कुमा ६, ८० रंभा)
देखो विवड्ढण। मढ़ा हुआ, व्याघ्र-चर्म-युक्त (आचा २, ५, विवडिय वि विपतित] गिरा हा (पउम | विवद्धणा स्त्री [विवर्धना] वृद्धि, बढ़ाव
। १६, २२; भग ७, ६ टी-पत्र ३१८) ।। | (उप ६७५)। विवच्चास पु [विपर्यास] विपर्यय, विपविवडढ अक [वि + वृध् ] बढ़ना। वकृ.
विवद्धि पुं [विवर्धि] देव-विशेष (अ) रीतता, व्यत्यास, उलटा (उत्त ३०, ४; सुख विवड़ढमाण (गाया १, १० टी-पत्र
| १४५)। ३०, ४, मोघ २६८) १७१)।
विवन्न देखो विवण्ण = विवणं (सुपा ३१६)। विवच्छा स्त्री [विवत्सा] १ एक महानदी विवड्ढण वि [विवर्धन] बढ़ानेवाला;
विवन्न वि [विपन्न] १ नाश-प्राप्त, विनष्ट (ठा १०-पत्र ४७७)। २ वत्स-रहित |
(णाया १, -पत्र १५७: स ३४५, 'मयविवड्डणे' (उत्त १६, ७) + श्री. °णी | स्त्री (राज)।
सुपा ५०६)। २ मृत, मरा हुआ (पउम (उत्त १६, २) । देखो विवद्धण । विवज्ज अक [वि + पद्] मरना, नष्ट होना।
४४, १०० उत्त १०, ४४ स ७५६; सूअनि विवज्जइ, विवज्जामि (स ११६; पच्च १४; विवढि स्त्री [विवृद्धि] बढ़ाव, वृद्धि (पंचा
१६२; धर्मवि १४४) सुख २, ४५)। भवि. विवज्जिही (कुप्र
विवय प्रक [वि + वद्] झगड़ा करना, वक विवत नाट-
नाविवडिढअ वि [विवृद्ध] बढ़ा हुमा (नाट- विवाद करना। वकृ. विवयंत (सुपा ५४६; विवज सक [वि + वर्जय 1 परित्याग पिंग)।
सम्मत्त २१५)। करना। विवज्जेड (उव)। वक्र विवजयंत. विवणि पुंस्त्री [विपणि १ बाजार (सुपा विवय विदे1 विस्तीर्ण (षड़)विवज्जमाण (उवः धर्मसं १०३२)। कु.
५३०)। २ हाट, दूकान'विवणी तह विवया स्त्री [विपद] कष्ट, दुःख (उप विवजणिज्ज, विवजणीअ (उप ५६७ प्रावणो हट्टो (पान)।
७२८ टी)। टी: अभि १८३)।
विवणीय वि [व्यपनीत] दूर किया हुआ, | विवर सक [वि + वृ] १ बाल संवारना । विवज वि [विवर्ज] १ रहित, वजितः हटाया हुआ (कप्प)।
२ विस्तारना। ३ व्याख्या करना। विवरइ 'मउडविवज्जाहरणं सव्वं से देइ भट्टस्स' (सुपा विवण्ण देखो विवन्न विपन्न (उत्त २०, (भवि), विवरेहि (स ७१७)। वकृ. 'केसे २७१) । २ परित्याग, परिहार (पिंड १२६) ४४; गा ५५० प्र)।
! निवस्स विवरन्ती' (कुप्र २८५)।" १०१
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