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पाइअसहमहण्णवो
वंसा-वग्ग वंसा स्त्री [वंशा] द्वितीय नरक-पृथिवी (ठा वक्कडबंध न [दे] कर्णाभरण, कान का वक्खाणि वि [व्याख्यानिन व्याख्यान-कर्ता ७--पत्र ३८८ इक)प्राभूषण (दे ७, ५१)।
(धर्मसं १२६१) पंसि देखो वंसी = वंश (कम्म १, २०) वक्कम अक [अव + क्रम् ] उत्पन्न होना। वक्खाणिय वि [व्याख्यानित] व्याख्यात वंसिअ वि [वांशिक] वंश-वाद्य बजानेवाला वकमइ (भगः कप्प) । भूका. वमिसु (कप्प)। (विसे १०८७)। (हे १,७०; कुमा)
भवि. वक्कमिस्संति (कप्प) वकृ. वक्कममाण | वक्खाणीअ (अप) ऊपर देखो (पिंग ५०६) वंसिअ वि [व्यंसित] छलित, प्रतारित (भगः पाया १,१-पत्र २०)।
वक्खाय वि [व्याख्यात] १ विवृत, वर्णित (राज)। वकर (अप) देखो वक्क = वंक (भवि)
(स १३२, चेइय ७७१)। २ पुं. मोक्ष, बंसी स्त्री [वांशी] १ सुरा-विशेष (बृह २)। वकल न [बलकल] वृक्ष की छाल (प्रापः सुपा
मुक्ति (पाचा १, ५, ६, ८)। २ बाँस की जाली (ठा ३, १-- पत्र १२१) २५२ हे ४, ३४१, ४११: प्रति ५) कलंका स्त्री [कलङ्का बाँस की जाली की चीरि पुं [ चीरिन] एक महर्षि, जो राजा
वक्खार पुं [दे] बखार, अन्न आदि रखने का बनी हुई बाड़ (विपा १, ३-पत्र ३८) प्रसन्नचन्द्र के छोटे भाई थे (कुप्र २८६)।
मकान, गोदाम (उप १०३१ टी)। पत्तिया स्त्री [पत्रिका] योनि-विशेष, वलि । वि [वल्कलिन] वृक्ष की छाल
वक्खार [वक्षार, वक्षस्कार] १ पर्वतवंशजाली के पत्र के आकार की योनि (ठा वक्कलिग पहननेवाला (तापस), (कुमाः
विशेष, गज-दन्त के प्राकार का पर्वत (सम भत्त १०० संबोध २१; पउम ३६, ८४)।
१०१ इक)। २ भू-भाग, भू-प्रदेश (पउम वंसी स्त्री [वंशी] वाद्य-विशेष, मुरली (बृह वक्कल्लय वि [दे] पुरस्कृत, प्रागे किया हुआ
२, ५४५५, ५६, ५८)२) । णहिया स्त्री ['नखिका] वनस्पति
वक्खारय न [दे] १ रति-गृह । २ अन्तःपुर विशेष (परण १--पत्र ३८), 'मुह पुं
वक्कस न [दे] १ पुराना धान का चावल । [°मुख] द्वीन्द्रिय जीव-विशेष (जीव १ टी
वक्खाव सक [व्या +ख्यापय् ] व्याख्यान २ पुरातन सक्तु-पिण्ड । ३ बहुत दिनों का
कराना । वक्खावइ (प्राकृ ६१) पत्र ३१)।
बासी गोरस । ४ गेहूँ का माँड (प्राचा १, वंसी स्त्री [वंश] बाँस । 'मूल न [ मूल]
६, ४, १३)~
वक्खित्त वि [व्याक्षिप्त] १ व्यग्र, व्याकुल बाँस की जड़ (कस)। वक्किद (शौ) देखो पंकिअ (पि ७४) ।
(मोघ १३, कुन २७)। २ किसी कार्य में बंसी स्त्री [दे] मस्तक पर स्थित माला (दे ७, वक्ख देखो वच्छ = वृक्ष (चंड उप ८८५)
व्यापृत (पद २) वक्ख देखो वच्छ = वक्षस् (संक्षि १५, प्राकृ
वक्खेय देखो वक्खा = व्या + ख्या ।। वक्क न [वाक्य] पद-समुदाय, शब्द-समूह
२२. नाट--मृच्छ १३३)।
वक्खेव पुं[व्याक्षेप १ व्यग्रता, व्याकुलता (उव; उप ८३३; ८५६)। वक्ख देखो पक्ख (गा ४४२ से ३, ४२;
(उवाः उप १३६ टी: १४०)। २ कार्यवक्क न [वल्क] त्वचा, छाल (उप ८३६; ४, २३; स ६५१) ।
बाहुल्य (सुख ३, १)।औप) बंध पुं[वन्ध वल्क-बन्धन (विपा
वक्खेव पुं[अवक्षेप] प्रतिषेध, खण्डन वक्खमाण देखो वय = व् । १,८)वक्खल वि [द] आच्छादित, ढका हुआ |
(गा २४२ अ) वक्क देखो वंक = वंक (णाया १, ८-पत्र (षड्)।
| वक्खो देखो वच्छ = वक्षस् । रुह पुं १३३ स ६११: धर्मसं ३४८, ३४६) वक्खा सका व्याख्या विवरमा करना।[रुद्द स्तन, थन (सुपा ३८९) 1 वक्त न [वक्त्र] मुख, मुंह (पउम १११, २ कहना । कृ. वक्खेय (विसे १३७०)।
वक्नु (शौ) देखो वंक = वङ्क (प्राकृ ६७).
वखाग (अप) देखो वक्खाण = व्याख्यानम् । १७ गा १६४)। वक्खा स्त्री व्याख्या] विवरण, विशद रूप
बखाण (पिंग)। वक न [दे] पिष्ट, पिसान, पाटा (षड् )। से अर्थ प्ररूपण (विसे ६६४)।
वखाणिअ (अप) देखो वक्खाणिय (पिंग)। वत पुन [वक्रान्त प्रथम नरक-भूमि का
an.sमि का वक्खाण न व्याख्यान १ ऊपर देखो (चेइय वगडा स्त्री दे] बाड, परिक्षेप (कस: ववहार दसवाँ नरकेन्द्रक-नरकावास-विशेष (देवेन्द्र | २७१; विसे ६६५) ।२ कथन (हे २,६०)
वग्ग सक [वला] १ जाना, गति करना। वक्खाण सक[व्याख्यानय] १ विवरण २ कूदना। ३ बहु-भाषण करना। ४ वकंत वि [अवक्रान्त] उत्पन्न (कप्पा पि करना। २ कहना । वक्खाइ (भवि)। अभिमान-सूचक शब्द करना, खूखारना । १४२)।
भवि. वक्खाणइस्सं ( शौ) (पि २७६)। वग्गइ (भविः सण पि २६६), वग्गंति वक्कंति स्त्री [अवक्रान्ति] उत्पत्ति (कप्प; सम | कम. वक्खाणिजइ (विसे ६८४ )। वकृ. (सुपा २८८)। कर्म, वग्गीप्रदि (शौ) २. भग)
वक्खाणयंत ( उवर ६८, रयण २१)। (किरात १७)। वकृ. वग्गंत (स ३८३; वक्कड न [दे] १ दुर्दिन । २ निरन्तर वृष्टि (दे संकृ. वक्खाणेउं (विसे ११)। कृ. वक्खाणे- सुपा ४६३; भवि)। संकृ. वग्गित्ता (पि
अव्व (राज)
। २६६)।
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