________________
वग्ग-वञ्च
पाइअसहमहण्णवो
वग्ग [वर्ग] १ सजातीय समूह (एंदिः सुर वग्गिर वि [वल्गित] १ खूखार आवाज जाती एक प्रकार की नावाजा 'अप्पेगइया ३, ४; कुमा)। २ गणित-विशेष, दो समान करनेवाला। २ गति-विशेषवाला (सुर ११, वग्घाडीअो करेंति' (गाया १, ८-पत्र संख्या का परस्पर गुणन (ठा १०–पत्र १७१)। ४६६)। ३ ग्रन्थ-परिच्छेद, अध्ययन, सगं वग्गु देखो वाया = वाच् ; 'वरमूहि' (प्रौपः वग्धारिअ वि [व्याघारित] १ बधारा हुआ, (हे १, १७७, २, ७९) मूल न [ मूल] कप्प; सम ५०; कुम्मा १६)
छौंका हुआ (नाट–मुन्छ २२१) । २ व्याप्त; गणित-विशेष, वह अंक जिसका वर्ग किया
वग्गु देखो वग्ग - वर्गः 'वग्गूहि' (प्रौप) 'सीतोदयवियडबग्घारियपाणिणा' (सम ३६)। गया हो, जैसे ४ का वर्ग करने से १६ होता है, १६ का वर्गमूल ४ होता है (जीवस | वग्गु वि [वल्गु] १ सुन्दर, शोभन (सूप
३ पिघला हुमा (दश० वै० वृ० चू० प्र०
३ नि० गा० १६७) १५७) वग्ग [वर्ग] गणित-विशेष,
। १, ४, २, ४)। २ कल, मधुर (पाप)। ३ पुं. विजय-क्षेत्र-विशेष, प्रान्त-विशेष (ठा २,
वग्धारिअ वि [दे] प्रलम्बित 'पडिबद्धसरीरवर्ग से वर्ग का गुणन, जैसे २ का वर्ग ४,
३–पत्र ८०)। ४ पुंन. एक देव-विमान, वग्धारियसोरिणसुत्तगमल्लदामकलावे' (सूप २, ४का वर्ग १६, यह २ का वर्गवर्ग कहलाता वैश्रमण लोकपाल का विमान (देवेन्द्र १३१,
२, ५५); 'वग्धारियपाणी' (णाया १,८है (ठा १०)। २७०)।
पत्र १५४, कप्पा औप: महा) वग्ग सक [ वर्गय ] वर्ग करना, किसी अंक वग्गुरा न [वागुरा] १ मृग-बन्धन, पशु
वग्घावञ्च न [व्याघ्रापत्य एक गोत्र, जो को समान अंक से गुणना। वग्गसु (कम्म
फंसाने का जाल, फन्दा (पण्ह १, १, विपा वाशिष्ठ गोत्र की एक शाखा है (ठा ७-पत्र ४, ८४)
१, २--पत्र ३५)। २ समूह, समुदाय
| ३६०; सुज १०, १६, कप्पा इक)। वग्ग वि [व्यग्र] व्याकुल (उत्त १५, ४,
'मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते (उवा, प्राप)। वग्धी स्त्री [व्याघ्री] १ बाघ की मादा रयण ८०)
वग्गुरिय वि [वागुरिक] १ मृग-जाल से | (कुमा)। २ एक विद्या (विसे २४५४) ।। वग्ग देखो यक्क = वल्क (विसे १५४) । वग्ग देखो वक्त = वाक्य, 'मुद्धा भणंति अहलं
जीविका निर्वाह करनेवाला, व्याध, पारधि | वघाय देखो वाघायः 'माउस्स कालाइचरं
(प्रोघ ७६६) । २ पुं. नर्तक-विशेष (राज)। बहु वग्गजाल' (रंभा) ।
वघाए, लद्धाणुमाणे य परस्स अट्ठ' (सूत्र १,
१३, २०)। वग्ग वि वाल्क] वृक्ष त्वचा-छाल का बना वग्गुंलि पुत्री [बल्गुलि] १ पक्षि-विशेष हमा (णाया १. टी-पत्र ४३)
(पएह १, १-पत्र ८)। २ रोग-विशेष | वचा स्त्री[वचा] १पृथिवी, धरती (से २. वग्गंसिअ न दे युद्ध, लड़ाई (दे७, ४६) (ोघभा २७७, श्रावक ६१ टी)
११)। २ पोषधि-विशेष, बच (मृच्छ वग्गचूलिआ स्त्री [वर्गचूलिका] एक प्राचीन |
| वग्गेज्ज वि [दे] प्रचुर, प्रभूत (दे ७, ३८) | १७०) । देखो वया = वचा ।। जैन ग्रन्थ (दि २०२) ।
वग्गो [दे] नकुल. न्यौला (दे ७, ४०) वञ्च सक [व्र ] जाना, गमन करना । वग्गण न [वल्गन] कूदना (प्रौपः कुप्र १०७
वग्गोरमय वि [दे] रूक्ष, लूखा (दे ७,५२) वच्चइ (हे ४, २२५; महा)। भवि. वच्चिकप्पा गाया १, १-पत्र १९ प्राप)।
वग्गोल सक [ रोमन्थय] पगुराना, चबी हिसि (महा)। दकृ. वच्चंत, वञ्चमाण (सुर वग्गण न वल्गन] बकवाद (रंभा) - हुई वस्तु का पुनः चबानाः गुजराती में | २, ७२, महा: या १६)। वग्गणा स्त्री [वर्गणा] सजातीय समूह (ठा
| 'वागोळवु' । वग्गोलइ (हे ४, ४३)। | वञ्च सक [ काङ्क्ष ] चाहना, अभिलाष १-पत्र २७)।
वग्गोलिर वि [रोमन्थयित] पगुरानेवाला करना । वच्चइ, वच्चउ (हे ४, १६२; कुमा)। वग्गय न [दे] वार्ता, बात (दे ७, ३८)। (कुमा) ।
| वञ्च देखो वय = वच् । वग्ध वि [वैयाघ्र] व्याव-चर्म का बना हुमा वग्गा स्त्री [वल्गा] लगाम (उप ७६८ टो)।
वच पुन [ वर्चस् ]१ पुरीष, विष्ठा (पाय (प्राचा २, ५, १, ५) ।
मोघ १६७; सुपा १७६; तंदु १४)। २ वग्गावग्गि प्र. वर्ग रूप से (प्रौप) ।
वग्ध पुं[व्याघ्र १ बाघ, शेर (पाम स्वप्न | कूड़ा-करकट; 'भोगो तंबोलाइ कुर्णतो जिणवग्गि वि [वाग्मिन्] १ प्रशस्त वाक्य
| ७०; सुपा ४६३)। २ रक्त एरण्ड का पेड़ । गिहे कुणइ वच्च' (संबोध ४)। ३ चौथा बोलनेवाला। २ पुं. बृहस्पति (प्राप्रा पि
३ करज वृक्ष (हे २, १०) "मुह पुं नरक का चौथा नरकेन्द्रक-नरकस्थान२७७)
[मुख] १ एक अन्तर्वीप । २ उसमें रहने- विशेष (देवेन्द्र १०)। ४ तेज, प्रभाव (णाया वग्गिअ वि [वर्गित] वर्ग किया हुआ (कम्म वाली मनुष्य-जाति (ठा ४, २–पत्र २२६; १,१-पत्र ६)५ °घर, हर न [गृह] इक)
पाखाना, टट्टी (सूत्र १, ४, २, १३, स वग्गिअन [वल्गित १ बहु भाषण, बकवाद वग्घा पुंदे] १ साहाय्य, मदद । २ वि. ७४१) 1. (सम्मत्त २२७)। २ बड़ाई की भावाज | विकसित, खिला हुमा (दे ७, ८६)
वञ्च देखो वय = वचस् (णाया १,१-पत्र (मोह ८७) । ३ गति, चाल (सण) | वग्घाडी स्त्री [दे] उपहास के लिये की। ६)।
६३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org