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aste fo [द्वेष्य ] प्रीतिकर (उत्त ३२,
१०३) ।
[वैश्वदेव] वैश्वानर
प्रति
इस्सदेव (निर, १) - इस्सार पुं [वैश्वानर ] १ वह्नि नि । ३ चित्रक वृक्ष । ३ सामवेद का श्रवयवविशेष ( हे १, १५१ ) । -
वई देखो वइ = वाच् (प्राचा) । मय वि [य] वचनात्मक (दस १, ३, ६)
अवि [ व्यतीत ] श्रतीत, गुजरा हुआ । *सोग ! ["शोक] एक जैन मुनि (उम २०, २०) -
यसक [ व्यति + ब्रज्] जाना, गमन करना। वह 'कोल्लापत्स संनिवेस सामंत वईवयमाणे बहुलास निसामेद
(उवा) ।
ईवाय देशो वश्वाय (राज) 1 []
शरीर-कान्ति
श्रदूर
-
१० ) ।
बड न [ पुष्] शरीर देह (राज) 1 अवि [] ल-प्रोत (दे ७, ४४) वएमाण देखो वय = वद् 1 वओ देखो वय = वचस् ( श्राचा) । मय न [य] वाङमय, शास्त्र (विसे ५५१) । वो देवी वयव (पउम ४८, ११५) । ओफ [दे ] व समान ओवत्थ रात और दिनवाला काल (दे ७, ५० ) 1
=
-
वं° देखो वाया = वाच् । नियम पुं [नियम ] वाणी की मर्यादा (उप ७२८ टी) । [[[[[[य] १ बाट
(कुमा सुपा १७२० पि ७४) । २ नदी का बॉक (हे १, २६; प्रात्र) 1 चंपुं [दे] कलंक, दाग (दे ७, ३०) 'वक देखो पंक (से ६, २६ गउड) 1 चूल [प] एक प्रसिद्ध राजकुमार (धर्मवि ५२ ; पडि ) ।
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क ि []ि ऊपर देखो, तम्रो गया कलि ५२५६ (0) 1~
पाइअसद्दमहणव
किअ वि [वक्रित] बांका किया हुआ (से ६, ५६ )
किवि [पति] -युक्त ( ४.२६) किम श्री [ वक्रिमन् ] वक्ता कुटिलता (पि ७४; हे ४, ३४४ ४०१ ) । बंकुड ) देखो वंक = बँक 'विविहविसविड} कुण विनियकुडा रिसम्म य वर्णे' ( स २५६६ हे ४, ४१८६ भकिपि४)
बंग
दंग
कुम (शी) ऊपर देखो (प्राकृ १७) [दे] वृन्ताक, भंटा (दे ७, २६) [ व्यङ्ग] विकृत भंग ग वि लीपतियन्नवाचिकाओ
( प राह १, ४ – पत्र ७ ) ।
बंग
वंगेवडु थुं [दे] सूकर, सूअर (दे ७, ४२ ) । बंच एक [] उगना पंच (हे ४, [१२] प महा) कर्मभिवि संकृ. चिऊण (महा). पंचणीअ (प्राथ) प्रयो, वह तो सो पंचावितो कुमरपहारं मए पुरवाहि (सुपा ५७२)
वएइ । पंच (अ) देखो थाम्बइ (प्राह ११९) । संकृ. बंचिवि ( भवि ) ।
=
बंच सक [उद् + नमय्] ऊँचा उठाना चइ (?) (घावा १५१) । -
च वि [प] उगनेवाला, पूर्व कुटिल
च वकत्तणं च वंचज्ञणं श्रसच्चं च' ( वज्जा ११६ ४ ४१२) -
[पंचअ वंचग
[क]] ऊपर देखो (नाट मालविः श्रा २८ ) । बंचण न [वचन] १ प्रतारण, उई (सम्मत २१७।२वि उगनेवाला, ठग (संबोध ४१) चणवि [चण] हाने में चतुर (सम्मत २१७ ) ।
चणा [चना] प्रतारणा (व कप्पू ) । यंत्रण न [वकून, वण] मलीकरण, कुटिल बंचिअ वि [श्चित] प्रचारित (पास)। बनाना (ठा २, १ - पत्र ४० ) ।
२ रहित बजित (गड) |
[] प्रमय शिव का धनुवर विशेष
(दे ७, ३९) ।
वंगण न [ व्यङ्गन] क्षत (राज) 1बगियन [व्यङ्गित ] वित शरीराला (राज)
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वइस्स - वंजुल वंछा स्त्री [वाञ्छा] इच्छा, चाह (सुपा ४०४)
ज सक [वि + अअ ] व्यक्त करना, प्रकट करना । कर्म, वंजिजइ (विसे १९४ ४६३ धर्मसं ५३) ।
वंज देखो बंच = उद् + नमय् । वंजइ ( ? ) (१५१) ।
वंज देखो बंद = वन्द् ।
वंजग देखो वंजय (राज) 1
पंजण [अन] १ होज्ज वंजणक्खरथ्रो' होय जलसरों (विसे १७०), 'ती नत्थि अत्यभेो वंजणरयणा परं भिन्ना' (चेइय ८६६ ) । २ स्वर-भिन्न अक्षर के से ह तक वर्ण (विसे ४६१ ४६२ ) । ३ शब्द, पदः 'सो पुरा समासओ चित्र वंजणनिप्रभो प्रत्यनिनो अ' (सम्म ३० सूत्रनि ९; पडि विसे १७० ) । ४ तरकारी, कढ़ी आदि रसव्यञ्जक वस्तु (सुपा ६२३; प्रोघ ३५९ ) । ५ शुक्र, वीर्यं (विसे २२८ ) । ६ शरीर का मसा प्रादि चिह्न (पव २५७; औप) ७ मसा आदि शरीर चिह्नों के फल का उपदेशक शास्त्र (सम ४९ ) । ८ कक्षा आदि के बाल (राज) । ६ प्रकाशन, व्यक्तीकरण ( विसे ४६१ ) । १० श्रोत्रादि इन्द्रिय ११ शब्द आदि द्रव्य । १२ द्रव्य और इंद्रिय का संबन्ध (दि, विसे २०) बगाह ! [ह] ज्ञान- विशेष, चक्षु और मन को छोड़ कर अन्य इन्द्रियों से होनेवाला ज्ञान विशेष (कम्म १, ४, २१) वंजय व [क] व्य करनेवाला (भा २९)
वंजर पुं [ मार्जार] बिल्ला, बिलार (हे २, १३२ कुमा) 1
वंजर न [दे] नीवी, कटी-वस्त्र (दे ७, ४१) । बंजिअ [वि] [व्यञ्जित] व्यक्त किया मा प्रकटित (कुमा ११० २६ बंजुल [बजुल] १ अशोक ४२२; १११ ) २ वेतस वृक्ष (पान); 'वंजुलसंगेण विसं व पन्नगो मुयइ सो पावं' (घम्म ११ टी वज्जा ९६६ उप ७२८ टी) ।
(मा
३ पक्षि - विशेष (पराह १, १ – पत्र ८)
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