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६३२ पाइअसहमहण्णवो
बहि-बहुल (विपा १, १)दत्त पुं[दत्त देखो अंत वि ["देश्य कुछ ज्यादा, थोड़ा बहुत "विधिक विविध, अनेक तरह का (सूअनि के दो अर्थ (विपा १, ५)।
(प्राचा २, ५, १, २२) 'नड पुं["नट] ६४) संपत्त वि [संप्राप्त] कुछ कम बहिम [बहिस्] बाहरः 'अबहिलेसे परिव्वए' नट की तरह अनेक भेष को धारण करने- संप्राप्त (भग) सञ्च पुं[सत्य अहोरात्र (माचा), 'गामहिम्मि यतं ठाविऊण गामंतरे वाला (प्राचा). पडिपुण्ण, पडिपुन्न वि का दशवाँ मुहूर्त (सुज १०, १३) सो अ पविट्ठो सो' (उप ६ टी)। हुत्त वि [°दे] [परिपूर्ण] पूरा पूरा (ठा ६; भग) [शस् ] अनेक बार (उवः श्रा २७ प्रासू बहिमुख (गउड)
'पढिय वि [पठित] अति शिक्षित, ४२; १५९; स्वप्न ५६) स्सुय वि बहिअ वि [दे] मथित, विलोडित (षड् )।
अतिशय शिक्षित (णाया १, १४) [*त] शास्त्रज्ञ, शास्त्रों का अच्छा जानकार,
'पलावि वि [ प्रलापिन] बकवादी (उप पण्डित (भगः सम ५१, ठा ६-पत्र ३५२; बहिं देखो बहि (प्राचा; उव)।
पृ ३३६)-1 पुत्ति न [पुत्रिक] बहु- सुपा ५६४) , हा अ [धा] अनेकधा बहिणिआ। स्त्री [भगिनी] बहिन (अभि
पुत्रिका देवी का सिंहासन (निर १, ३)M (उव; भवि)। बहिणी । १३७; कप्पू: पामः पउम ६,
पुत्तिआ श्री ['पुत्रिका] १ पूर्णभद्र नामक बहुअ ] वि [बहु, क] ऊपर देखो (हे ६ हे २, १२६; कुमा)। २ सखी, वयस्या
यक्षेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ४.१: बहुअय) २,१६४० कुमाः श्रा २७) (संक्षि ४७), 'तणअ पुं["तनय] भगिनी
णाया २) । २ सौधर्म देवलोक की एक देवी बहुआरिआ । सो [द] बुहारो, झाड़ (दे पुत्र (दे) । वइ पुं[पति] बहनोई (दे)।
(निर १, ३) 'प्पएस वि [प्रदेश] बहुआरी ८,१७ टी)। देखो भइणी।
प्रचुर प्रदेश-कर्म-दल वाला (भग) । बहुई देखो बहु = ई बहित्ता अ[बहिस्तात् ] बाहर (सुज्ज ६)
°फोड वि [फोट] बहु-भक्षक (प्रोभा बहुखज्ज वि [बहुखाद्य] १ बहु-भक्ष्य, खूब बहिद्धा अ[दे] १ बाहर । २ मैथुन, स्त्री
१६१)। भंगिय न [भङ्गिक दृष्टिवाद खाने योग्य । २ पृथुक-चिउड़ा बनाने योग्य संभोग (हे २, १७४० ठा ४, १-पत्र
का सूत्र-विशेष (सम १२८) । मय वि (माचा २, ४, २, ३) । २०१)
[मत् ] १ अत्यन्त प्रभीष्ट (जीव १)।२ बहुग देखो बहुअ (पाचा ७)। बहिद्धा म [बहिर्धा] बाहर की तरफ (दस अनुमोदित, संमत, अनुमत (काप्र १७६; सुर
बहुजाण पुं [दे] १ चोर, तस्कर । २ धूर्त, ४, १८८) माइ वि ["मायिन् प्रति
ठग । ३ जार, उपपति (षड् )। बहिया प्र[बहिस , बहिस्तात् ] बाहर कपटी (प्राचा)माण पुं['मान] अति(विपा १, १ प्राचाः उवा; प्रौप)। शय पादर (भावम; पि ६०० नाट-विक्र
| बहुण पुं[दे] १ चोर, तस्कर । २ धूतं (दे
६,९७) बहिर वि [बाह्य बहिभूत, बाहर का (प्राक ५) माय वि [ माय] अति कपटी (आचा). "मुल्ल, मोल्ल वि [मूल्य
बहुणाय वि [बाहुनाद] बहुनाद-नगर का बहिर वि [बधिर] बहरा, जो सुन न सकता मूल्यवान्, कीमती (राजः षड्) । रय वि
(पउम ५५, ५३) हो वह (विपा १, १; हे १, १८७ प्रासू | [रत] १ अत्यन्त आसक्त (आचा)। २
बहुत्त वि [प्रभूत] बहुत, प्रचुर (हे १, १४३) जमालि का अनुयायो । ३ न. जमालि का
२३३) बहिरिय वि [बधिरित] बधिर किया हुआ चलाया हुआ एक मत-क्रिया की निष्पत्ति
बहुमुह पुं [दे. बहुमुख] दुर्जन, खल दि ६, (सुर २, ७५) अनेक समयों में ही माननेवाला मत (ठा १०%
१२)
बहुराणा स्त्री [दे] खड्ग-धारा, तलवार की बहु वि [बहु] १ प्रचुर, प्रभूत, अनेक, अनल्प औप)।रय न [रजस् ] खाद्य-विशेष,
धार (दे ६, ६१) (ठा ३, १; भगः प्रासू ४१, कुमा; श्रा २७)। चिउड़ा की तरह का एक प्रकार का खाद्य स्त्री.. हुई (षड् , प्राकृ २८)। २ क्रिवि. (आचा २, १, १, ३) व वि [व]
बहुरावा स्त्री [दे] शिवा, शृगाली (दे ६, अत्यन्त, अतिशय (कुमा ५, ६६, काल)M १ प्रभूत यशवाला, यशस्वी (सम ५१)। २
९१) °उदग पुं[उदक] वानप्रस्थ का एक भेद न. एक विद्याधर-नगर (इक)
का रूवा श्री बहुरियार
बहुरिया स्त्री [दे] बुहारी, झाडू (बृह १). (प्रौप)। चूड पुं['चूड] विद्याधर वंश [रूपा] सुरूप नामक भूतेन्द्र की एक अग्र- बहुल वि बहुल] १ प्रचुर, प्रभूत, अनेक का एक राजा (पउम ५, ४६) जपिर वि महिषी (ठा ४, १, रणाया २) लेव । (कुमा बा २८) । र बहुावध, अनक प्रकार [जल्पित] वाचाट, बकवादी (पास) [लेप] चावल प्रादि के चिकने माँड़ का का (भावम) । ३ व्याप्त (सुपा ६३०)। ४ जण पुं [जन] अनेक लोग (भग) । २ न. लेप (पडि), वयण न [ वचन] बहुत्व
पुं. कृष्ण पक्ष (पान) । ५ स्वनाम-ख्यात आलोचना का एक प्रकार (ठा १०) णड | बोधक प्रत्यय (प्राचा २, ४, १, ३)। 'विह एक ब्राह्मण (भग १५)। देखो नड (राज) णाय न [ नाद] वि ["विध] अनेक प्रकार का, नानाविध बहुल ([बहुल प्राचार्य महागिरि के शिष्य नगर-विशेष (पउम ५५, ५३)। "देसिअ (कुमाः उव)। "वियि वि [विध, I एक प्राचीन जैन मुनि (णंदि ४६)।
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