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ज सिमामालाजणकाप मंतिण
६६४ पाइअसहमहण्णवो
मंडुग-मंथु मंडुग पुं [मण्डूक] १ मेंढक, दादुरः मंतण न [मन्त्रण] १ गुप्त पालोचना, गुप्त मंथ पुं [मन्थ] १ दही विलोने-महने का मंडूअ 'मंडुगगइसरिसो खलु अहिगारो होइ मसलहत (पउम ५, ६६, ८२, ४६)। २ दण्ड, मथनी (पिसे ३८४)। २ केवलि-समुद्धात मंडूक | सुत्तस्स' (वव ७ कुमा)। २ वृक्ष- मसलहत, परामर्श, सलाह: 'मंतरणत्थं हक्का- के समय मन्थाकार किया जाता जीव-प्रदेशमंडूर / विशेष, श्योनाक, सोनापाठा । ३ रिप्रो प्रणेण जिणदत्तसेट्टो (कुप्र ११६)। समूह (ठा ६; प्रौप)। बन्ध विशेष (संक्षि १७); 'मंडूरो' (प्राप्र)। ३ जाप; 'पुणो पुणो मंतमंतणं सुयं (चेइय मंथ (अप) देखो मत्थ = मस्त (पिंग)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। प्पुअ न [प्लुत] ७६३)।
मंथण न [मन्थन] १ विलोडन, विलोने की भेक की चाल । २ पुं. ज्योषि-प्रसिद्ध योगमंतर देखो वंतर (कप्प)।
क्रिया; 'खीरोअमंथणुच्छलिअदुद्धसित्तो व्व विशेष, भेक की गति की तरह होनेवाला मंता अ [मत्वा] जानकार (सूम १, १०, ६; महुमहणो' (गा ११७)। २ घर्षण; 'मंथरणयोग (सुज्ज १२-पत्र २३३)।
प्राचा १, १, ५, १, १, ३, १, ३, पि जोए अग्गो' (संबोध १)। ३ पुंन. मथनी, ५८२)
दही प्रादि मथने की लकड़ी (प्राकृ १४)। मंडोवर न [मण्डोवर] नगर विशेष (ती |
मंति पुं[मन्त्रिन्] १ मन्त्री, अमात्य, दीवान मंथणिआ स्त्री [मन्थनिका] १ मंथनी, १५)।
(कप्प; औप; पाप)। २ वि मन्त्रों का जान- महानी, दही मथने की छोटी लकड़ी (राज)। मंत सक [मत्रन्य] १ गुप्त परामर्श करना, कार (गु १२) ।
२ मथानी, दधि-कलशी, दही महने की हँडिया मसलहत करना। २ आमंत्रण करना । मंतइ
मंति [दे] विवाह-गणक, जोशी, ज्योतिवित् (दे २, ६५)। (महाः भवि)। भवि. मंतही (अप) (पिंग)। (दे ६, १११)।
मंथणी स्त्री [मन्थनी] ऊपर देखो (दे २, वकृ. मंतंत, मंतयंत (सुपा ५३५, ३०७)
मंतिअ वि [मन्त्रित गुप्त रीति से पालोअभि १२०)। सकृ. मंतिअ, मंतिऊण, चित (महा)।
मंथर वि [मन्थर] १ मन्द, धीमा (से १, मंतेऊण (अभि १२४महा)। मंतिअ देखो मंत = मन्त्रय ।।
३८; गउड, पान; सुपा १)। २ विलम्ब से मंत पुन [मन्त्र] १ गुप्त बात, गुप्त आलो
होनेवाला (पंचा ६, २२)। ३ पुं. मन्थनमंतिअ वि [मान्त्रिक ] मन्त्र का ज्ञाता; चना: 'न कहिज्जइ एसिमेरिसं मंत' (सिरि
दण्ड; 'वीसाममंथरायमाणसेलवोच्छिएणदूर__ मंतेण मंतियस्स व वाणीए ताडिमो तुझ ६२५); 'फुट्टिस्सइ बोहित्यं महिलाजणकहिय
वडणाओ' (गउड)।(धर्मवि ६ मन ११)। मंतं व' (धर्मवि १३; कुमा)। २ जप्य, जाप मंतिण देखो मंति = मन्त्रिन्; निगहिरो मंति
मंथर वि [दे. मन्थर] १ कुटिल, वक्र, टेढ़ा करने योग्य प्रणवादिक अक्षर-पद्धति (रणाया णेहि कुसलेहि' (पउम २१,६०, ६५, ८
(दै ६, १४५; भवि) । २ स्त्रीन. कुसुम्भ, १, १४; ठा ३, ४ टी-पत्र १५६ कुमाः भवि)।
वृक्ष-विशेष, कुसूम का पेड़ (दे ६, १४५) । प्रासू १४), जंभग पु["जृम्भक] एक मंतु वि [मन्त] १ ज्ञाता, जानकार । २ पुं.
स्त्री. रा; 'मंथरा कुसुंभों (पाप) देव-जाति (भग १४, ८ टी--पत्र ६५४) जीव, प्राणी (विसे ३५२५)
मंथर वि [दे] बहु, प्रचुर, प्रभूत (दे ६, दवया नावता मन्त्राधिष्ठायक देव | मंतु देखो मण्णु (हे २, ४४; षड् ; निचू २) १४५; भवि)।(श्रा १)4°न्नु वि [ज्ञ] मन्त्र का जानकार | (सुपा ६०३)। वाइ वि [वादिन् स्त्री. मई (कुमा)।
(गउड) मान्त्रिक, मन्त्र को ही श्रेष्ठ माननेवाला (सुपा ५६७) + 'सिद्ध वि [सिद्ध] १ सब मन्त्र विप्पियं' (पान)।
'तत्तो विसुद्धपरिणाममेरुमंथाणमहियभवजजिसके स्वाधीन हों वह । २ बहु-मन्त्र । ३ मतुआ श्री [दे] लजा, शरम (दे६, ११६; लही' (धर्मवि १०७ दे ६, १४१, वज्जा प्रधान मन्त्रवाला; 'साहोणसव्वमंतो बहुमंतो भवि)।
४. पाना समु १५०) । २ छन्द-विशेष वा पहाणमंतो वा, नेनो स मंतसिद्धो | मंतेल्लि स्त्री [दे] सारिका, मैना (दे ६, (पिग) (प्रावम) ११६)।
मंथिअ वि [मथित] विलोडित (दे २,५८० मंत वि [मान्त्र] मन्त्र-सम्बन्धी, मान्त्रिक । मंथ सक [ मन्थ् ] १ विलोडन करना । २ पान) स्त्री 'मंती ठकारपंतिव्व' (धर्मवि २०)। मारना, हिंसा करना । ३ अक. क्केश पाना। मंथु पुन [दे] १ बदरादि-चूर्ण (पण्ह २, ५;
मंथइ (हे ४, १२१, प्राकृ. ३३; षड् )। उत्त ८, १२; सुख ८, १२; दस ५, १,६८ मंत देखो मा = मा।
कवकृ. मंथिजत, मंथिजमाण, मच्छंत । ५, २, २४, प्राचा) । २ चूर्ण, चूर, बुकनी मंतक्ख न [दे] १ लज्जा, शरम । २ दुःख (पउम ११३, ३३; सुपा २५१, १६५; परह (प्राचा २, १,८०८)। ३ दूध का विकार(दे ६, १४१)। ३ अपराधः 'न लेइ गरुयंपि १, ३-पत्र ५३)। संकृ. मंथित्तु (सम्मत्त । विशेष, मट्ठा और माखन के बीच की अवस्था णाम मंतक्वं' (गउड) २२६)।
वाला पदार्थ (पिंड २८२)।
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मंतु पुंन
। १ सब म
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