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रंजण-रच्छा पाइअसहमहण्णवो
७०३ टी संवे ५) । ३ पुं. छन्द-विशेष (पिंग)। रयण ५)। ३ वैरोचन नामक बलीन्द्र की द्वीप (पउम ५, १२६), 'नाह देखो गाह ४ वि. खुशी करनेवाला, रागजनक (कुमा) । एक अग्र-महिषी (ठा ५, १-पत्र ३०२, (पउम ६, ३६) वइ पुं[पति] राक्षसों रंजण पुं [दे] १ घड़ा, कुम्भ (दे ७, ३)।
णाया २-पत्र २५१)। ४ रावण को एक | का मुखिया (पउम ५, १२३ मे १?, १)।। २ कुण्डा, पात्र-विशेष (दे ७, ३, पाम)। पत्नी (पउम ७४, ८)
हिव [धिप वही अर्थ (से १५, ८७; रंजविय। वि [रञ्जित] राग-युक्त किया
रक्ख सक [रक्ष ] रक्षण करना, पालन रजिअ , हुमा (सण से ६ ४८; गउडा करना । रक्खइ (उव; महा)। भूका. रक्खोन | रक्खसिंद राक्षसेन्द्र] राक्षसों का राजा महाः हेका २७२) ।
(कुमा)। वकृ. रक्खंत (गा ३८ औप मा (पउम १२, ४)। रंडा नो [रण्डा राँड, विधवा (उपपृ ३१३,
३७) । कवकृ. रक्खीअमाण (नाट-मालती रक्खसी स्त्री [राक्षसी] १ राक्षस की स्रो वज्जा ४४, कप्पू. पिंग)।
२८) । कृ. रक्ख, रक्खणिज,रक्खियब्ध, (नाट-मृच्छ २३८)। २ लिपि-विशेष (विसे
रक्खेयव्य (से ३, ५, साधं १०० गउड; रंदुअन [] रज, रस्सी; गुजराती में
४६४ टी)। 'राढवु" (दे ७, ३) सुपा २४०)।
रक्खसेंद देखो रक्खसिंद (से १२, ७७) । रंध सक [र५ , राधय ] धना, पकाना ।
रक्ख पुंन [रक्षस ] राक्षस (पान; कुप्र रक्खा स्त्री [रक्षा] १ रक्षण, पालन (श्रा १०; 'रंधो राधयतेः स्मृतः' रंधइ (प्राकृ ७०),
११३; सुपा १३०, सट्ठि टी संबोध ४४) सूपा १०३, ११३)। २ राख, भस्मः 'सो रंधेहि (स २४६) । वकृ. रंधंत (णाया १,
रक्ख वि [रक्ष] १ रक्षक, रक्षा करनेवाला चंदणं रक्खकए दहिजा' (सत्त २८ सुपा ७–पत्र ११७) । संकृ. रंधिऊण (कुत्र
(उप पृ ३६८; कप्प) । २ पुं. एक जैन मुनि ६५७) २०५)। (कप्प)
रक्खिअ वि [रक्षित] १ पालित (गउड गा रंध न [रन्ध्र] छिद्र, विवर (गा ६५२; रंभाः | रक्ख देखो रक्ख = रक्ष । -
३३३)। २ पृ. एक प्रसिद्ध जैन महर्षि (कप्प; भवि)।
रक्खअ) विरक्षक] रक्षण-कर्ता (नाट- विसे २२८८)
रक्खग मालवि ५३, रंभा; कुप्र २३३ रंधण न [रन्धन, राधन] रांधना; पचन,
रक्खिआ देखो रक्खसी (रंभा १७) ।। साधं ६६) पाक (गा १४, पब ३८ सूअनि १२१ टी,
रक्खी स्त्री [रक्षी] भगवान् अरनाथ की मुख्य सुपा १२, ४०१) घर न [गृह] पाकरक्खण न [रक्षण] रक्षा, पालन (सुर १३,
साध्वी (सम १५२, पव ८)। १६७ गउड; प्रासू २३)। गृह (रयण ३१)।
रक्खोवग वि [रक्षोपग] रक्षण में तत्पर रंधण न [रन्धन] पाक-गृह, रसोईघर (प्राचा रक्खणा स्त्री [रक्षणा] ऊपर देखो (उप ८५०)
(राय ११३)। २, १०, १४)।
स६९) रक्खणिया स्त्री [दे रखी हुई स्त्री, रखेलिन,
| रगिल्ल [दे] देखो रइगेल्ल (षड् )। रंप सक [तस् ] छिलना, पतला करना। रखनी, रखात (सुपा ३८३)।
रग्ग देखो रत्त = रक्त (हे २, १०; ८६ रंपइ (हे ४, १६४ प्राकृ ६५; षड्)। रक्खवाल वि [दे] रखवाला, रक्षा करनेवाला
षड्) रंपण न [तक्षण] तनू-करण, पतला करना
(महा) ।
रग्गय न [दे] कुसुम्भ-वन (दे ७, ३, पाम; (कुमा)।
गउड)। रंफ देखो रंप । रफइ, रंफए (हे ४, १९४;
रक्खस ' [राक्षस] १ देवों की एक जाति (पएह १,४-पत्र ६८)। २ विद्याधर-मनुष्यों
| रघुस पु [रघुष] हरिवंश का एक राजा षड्) का एक वंश (पउम ५, २५२)। ३ वंश
(पउम २२, ६६)। रंफण देखो रंपण (कुमा)
विशेष में उत्पन्न मनुष्य, एक विद्याधरजातिः रञ्च प्रक [दे. रञ्] राचना, मासक्त होना, रंभ सक [गम् ] जाना, गति करना । रंभइ
तेणं चिय खयराणं रक्खसनामं कयं लोए'
। अनुराग करना । रचइ, रच्चंति, रच्चेह (कुमा; (हे ४, १६२), रंभंति (कुमा)।
(पउम ५, २५७)। ४ निशाचर, क्रव्याद से वजा ११२) । कर्म, 'रत्ते रच्चिजए जम्हा रंभ देखो रंफ । रंभइ (धात्वा १४६)। १५. १७ नाट-मच्छ १३२) । ५ अहोरात्र (कुप्र १३२) । वकृ. रश्चंत (भवि)। प्रयो. रंभ सक [आ + र] प्रारम्भ करना। की तीसवाँ महूर्त (सम ५१, सुज १०,१३)।- रचावंति (वजा ११२) रंभइ (षड्)
°उरी स्त्री [पुरी लंका नगरी (से १२, रश्चण न [दे. रञ्जन] २ अनुराग। २ वि. रंभ पुं [दे] अन्दोलन-फलक, हिंडोले का ८४) । "अरी स्त्री [नगरी] वही अनुराग करनेवाला, राचनेवाला (कुमा)तख्ता (दे ७, १)।
अर्थ (से १२, ७८) गाह पुं ['नाथ] रश्चिर वि [दे. रञ्जित] राचनेवाला (कुमा)। रंभा स्त्री [रम्भा] १ कदली, केला का गाछ राक्षसों का राजा (से ८, १०४) । रच्छा देखो रक्खा (रंभा १६) । (सुपा २५४, ६०५; कुप्र ११७ पात्र) । २ त्थ न [स्त्र] अन्न-विशेष (पउम रच्छा स्त्री [रथ्यामुहल्ला (गा ११९ औप; देवांगना-विशेष, एक अप्सरा (सुपा २५४ १ ७१, ६३) । दीव पु [द्वीप] सिंहल कस)।
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