________________
६४
पाइअसद्दमण्णवो
अभिणिव्वट्ट-अभिनिवेसिय अभिणिव्वट्ट सक [अभिनि + वृत्] को ठगने के लिए लड़के जिसको रास्ता पर दुःख उपजाना, हैरान करना; 'नुदंति वायाहि रोकना, प्रतिषेध करनाः 'से मेहावी अभि- रख देते हैं (दे १, ४४)।
अभिद्दवं गरा' (पाचा २, १६, २)। रिणव्वट्टज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं | अभिण्णाण न [अभिज्ञान] निशानी, चिह्न अभिदविय वि [अभिद्र त] उपद्रुत, हैरानः च पेज्जं च दोसं च मोहं च गभं च जम्मं (था १४)।
किया हुआ (सुर १२, ६७)। च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च' अभिण्णाय वि [अभिज्ञात] जाना हुआ, अभिद्य देखो अभिद्दविय (गाया १, (प्राचा)। विदित (आचा)।
स ५६)। अभिणिव्वट्ट सक [अनिर + वृत्] १ अभतज सक [ अभि + तर्ज ] तिरस्कार अभिधाइ वि [अभिधायिन् ] वाचक, संपादित करना, निष्पन्न करना। २ उत्पन्न करना, ताड़न करना । वकृ. अभितजेमाण कहनेवाला (विसे ३४७२)। करना। संकृ-अभिणिव्वदित्ता, (भग। (गाया १,१८)।
अभिधार सक [अभि + धारय् ] १ चिन्तन | अभितत्त वि [अभितप्त] १ तपाया हुआ, | करना । २ स्पष्ट करना । अभिधारए (दस ५, अभिणिव्यदृ वि [अभिनिवृत्त] १ गरम किया हुआ (सूत्र १, ४, १, २७)। २, २५; उत्त २, २१); अभिधारयामो (सूम निष्पन्न । २ उत्पन्न, 'इह खलु अत्तत्ताए तेहि अभितव सक [अभि + तप्] १ तपाना । २, ६, १६) । वकृ. अभिधारयंत (उत्तनि तेहि कुलेहि अभिसेएण अभिसंभूषा अभि- २ पीड़ा करना, 'चत्तारि अगरिणो समारसंजाया अभिरिणव्वट्टा अभिसंबुड्ढा अभिसंबुद्धा भित्ता जेहि कूरकम्मा भितविति, बालं' (सूत्र
अभिधारण न [ अभिधारण ] धारणा, अभिनिक्खंता अणुपुवेण महामुणी' (आचा)। १, ५, १, १३)। कवकृ. अभितप्पमाण;
चिन्तन (बृह ३)। अभिणिव्वुड वि [अभिनिर्वत्त] १ मुक्त, 'ते तत्थ चिट्ठतिभितप्पमारणा मच्छा व जीवं
अभिधेज [अभिधेय] अर्थ, वाच्य,
अभिधेय पदार्थ (विसे १ टी)। मोक्ष-प्राप्त (सूअ १, २, १)। २ शान्त, तुवजोतिपत्ता' (सूत्र १, ५, १, १३)। अकुपित (प्राचा)। ३ पाप से निवृत्त (सूत्र
अभिनंद देखो अभिणंद । वकृ. अभिनंदअभिताव सक [अभि + तापय्] १ तपाना, १, २, १)।
माण (कप्प)। कवकृ. अभिनंदिजमाण गरम करना । २ पीडित करना । अभितावयंति
(महा)। अभिणिसज्जा स्त्री [अभिनिषद्या] जैन (सूअ १, ५, १, २१, २२) ।
अभिनंदण देखो अभिणंदण (कप्प)। साधुओं के रहने का स्थान-विशेष (वव १)। अभिताव पुं[अभिताप] १ दाह । २ पीड़ा अभिनंदि स्त्री [अभिनंदि] आनन्द, खुशी; अभिणिसटू देखो अभिणिसिद्ध (सुज्ज ६)। (सूत्र १, ५, १, २, ६) ।
'पावेउ अनंदिसेगमभिनंदि' (अजि ३७)। अर्भािणसिट्र वि [अभिनिसृष्ट] बाहर अभितास सक [ अभि + त्रासय् ] पास | अभिनिवखत देखो अभिणिक्खंत (प्राचा)। निकला हुआ (जीव ३ । उपजाना, भयभीत करना । वकृ. अभितासे
अभिनिक्खम अक [अभिनिर + क्रम्] अभिणिसेहिया स्त्री [अभिनषेधिकी] जैन माण (णाया १, १८)।
दीक्षा (संन्यास) लेना, दीक्षा लेने की इच्छा साधुनों के स्वाध्याय करने का स्थान-विशेष | अभित्थु सक [अभि + स्तु] स्तुति करना,
करना, गृहवास से बाहर निकलना। वकृ. (वव १)। श्लाघा करना, वर्णन करना। अभित्थुणंति,
अभिनिक्खमंत (पि ३६७)। अभिणिस्सव अक [अभिनिर् + स्र]
अभित्थुणामि (पि ४६४ विसे १०५४)। वकृ. अभित्थुणमाण (कप) । कवकृ.
अभिनिगिण्ह देखा अभिणिगिण्ह (प्राचा)। निकलना । अभिरिणस्सर्वति (राय ७४)। अभिणी सक अभि + नी] अभिनय करना,
अभित्थुव्वमाण (रयण ९८)।
| अभिनिबुज्झ देखो अभिणिबुज्झ । अभिनिनास्थ करना। वकृ. अभिणअंत (मै अभित्थुय वि [अभिष्टुत] स्तुत, श्लाधित
बुज्झइ (विसे ६८)। ७५)।
अभिनिबट्ट देखो अभिणिवट्ट । संकृ. अभि। (संथा)। कवकृ. अभिणइज्जत (सुपा ३५६)।
अभिथु देखो अभित्थु । वकृ. अभिथुणंत निर्वाट्टत्ताणं (पि ५८३)। अभिणूम न [अभिनूम] माया, कपट (सुम
अभिनिविट्ठ देखो अभिणिविट्ठ (भग)। १, २, १)। (कप्प; ठा ६)।
अभिनिवेस सक [अभिनि + वेशय् ] अभिण्ण वि [अभिज्ञ] जानकार, निपुण अभिदुग्ग वि [अभिदुर्ग] १ दुःखोत्पादक १ स्थापन करना । २ करना। अभिनिवेसए (उप ५८०)।
स्थान । २ अतिविषम स्थान (सूत्र १, ५, १, (दस ८, ५६)। अभिण्ण वि [अभिन्न] १ अत्रुटित, अवि१७)।
अभिनिवेसिय न [अभिनिवेशिक] मिथ्या-. दारित, अखण्डित (उवा; पंचा ११)। | अभिदो (शौ) अ [अभितः] चारों ओर से त्व का एक प्रकार, सत्य वस्तु का ज्ञान होने २ भेदरहित, अपृथग्भूत (बृह ३)। (स्वप्न ४२)।
पर भी उसे नहीं मानने का दुराग्रह (श्रा ६. अभिण्णपुड पुं [दे] खाली पुड़िया, लोगों । अभिद्दव सक [ अभि + दु] पीड़ा करना, | कम्म ४, ५१)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org