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पुरी-पुलाय
पाइअसहमहण्णवो
देव, अहंन (सम १, भग; पडि)। ३ चौथा संस्कृति पहले ही किया जाता जिमनवार १६०, सुर ११, १२०, १२, २०४७, त्रिखण्डाधिपति, चतुर्थ वासुदेव (सम ७० -भोजनोत्सवः (प्राचा २, १, २, ७२, १ २१२) । संकृ. पुलइअ (स ६८६) पउम ५, १५५) । ४ भगवान् अनन्तनाथ का ४, १) संथुय वि [संस्तुत] १ पूर्व- पुलअ पुं[पुलक] १ रोमाञ्च (कुमा)। २ प्रथम श्रावक (विचार ३७८)। ५ श्रीकृष्ण परिचित । २ स्व-पक्ष का सगा (माचा २,
रत्न-विशेष, मरिण की एक जाति (पएण १ (सम्मत्त २२६) १, ४, ५)
उत्त ३६, ७७ कप्प)। ३ जलचर जन्तुपरी स्त्रीपरी नगरी, शहर कमा) नाह पुरेस पुं| पुरेश नगर-स्वामी (भाव) विशेष. ग्राहका एक भेद, 'सीमागारपल(ल)पुं["नाथ] नगरी का अधिपति, राजा (उप पुरो देखो पुरं (मोह ४६, कुमा)। अ, 'ग
यसुंसुमार- (पएह १, १---पत्र ७) ७२८ टी) वि [ग] अग्रगामी, अग्रेसर (प्रति ४० विसे
कंड पुंन [°काण्ड] रत्नप्रभा नरक-पृथिवी पुरीस पुंन [पुरीष] विष्ठा (गाया १,८; २५४८) गम वि [गम] वही अर्थ
का एक काण्ड (ठा १०)। उप १३६ टी; ३२० टी; पान); 'मुत्तपुरीसे
(उप पृ ३५१)। भाइ वि [भागिन्] दोष को छोड़ कर गुण-मात्र को ग्रहण करने
| पुलअण वि [दर्शन] देखनेवाला, प्रेक्षक य पिक्खंति' (धर्मवि १६)।
(कुमा)। वाला (नाट-विक्र ६७)। पुरु पुं[पुरु] १ स्व-नाम-ख्यात एक राजा
पुलअणन [पुलकन पुलकित होना (कप्पू)।। पुरोकर सक [पुरस् + कृ] १ प्रागे करना । (मभि १७६) । २ वि. प्रचुर, प्रभूत । स्त्री.
पुलआअ अक [उत् + लस्] उल्लसित "ई (प्राकृ २८)।
पोका मा १६; सन १. होना, उल्लास पाना। पुलपाइ (हे ४, पुरुपुरिआ नी [दे] उत्कण्ठा, उत्सुकता
२०२) । वकृ. पुलआअमाण (कुमा)। पुरोत्तमपुर न [पुरोत्तमपुर] एक विद्याधर- पुलइअ वि [दृष्ट] देखा हुआ (गा ११८ सुर पुरुमिल्ल देखो पुरिमिल्ल (गउड)। नगर का नाम (इक)।
१४, ११ पाप्र)। पुरुव । देखो पुव्व = पूर्व; 'ण ईरिसो|
पुलइअ वि [पुलकित] रोमाञ्चित (पामा पुरुव्व । दिट्ठपुरुषो' (स्वप्न ५५), 'अमंदपुरोवग पुं[पुरोपक] वृक्ष-विशेष (प्रौप)
कुमा ४, १६; कप्प; महा: गा २०) पाणंदगुदलपुरुब्वं' (सुपा २२, नाट-मृच्छ पुरोह [पुरोधस् ] पुरोहित (अ ७२८
पुलइन्ज प्रक [पुलकाय ] रोमाश्चित होना। १२१; पि १२५)। टी; धर्मवि १४६)।
वकृ. पुलइज्जत (सण)। पुरोहड वि [दे] १ विषम, असम । २ पुरुस (शौ) देखो पुरिस (प्राकृ ८३; स्वप्न
पुलइल्ल वि [पुलकिन रोमाञ्च-युक्त, रोमापच्छोकड (?) (दे ६, १५) । ३ पुन. २६; अवि ८५; प्रयौ ९६)
ञ्चित (वजा १६४)। प्रावृत भूमि का वास्तु (दे ६, १५) । ४ पुलएंत देखो पुलअ = दृश् । पुरुसोत्तम (शौ) देखो पुरिसोत्तम (पि
अग्रद्वार, दरवाजा का अग्रभाग (मोघ ६२२)।
पुलंधअ [दे] भ्रमर, भौंरा (षड्)। १२४)।
५ बाडा, वाटक; संझासमए पत्ते मज्झ बलद्दा पुरुहूअ पुं[दे] घूक, उल्लू (दे ६, ५५)। |
पुलंपुल न [दे] अनवरत, निरन्तर (पएह १, पुरोहडस्संतो। मह दिट्ठीए दंसिवि ठाएयव्वा'
३–पत्र ४५; औप)।पुरुहूअ पुं[पुरुहूत] इन्द्र, देव-राज (गउड)। (सुपा ५४५ बृह २)।
पुलको देखो पुलअ = पुलक (पि २०३ टि: पुरूरव पुं [पुरूरवस ] एक चंद्र-वंशीय पुरोहिअ [पुरोहित पुरोधा, याजक, होम | पुलगवाया १, १ सम १०४ कप्प)। राजा (पि ४०८ ४०६)।
आदि से शान्ति-कर्म करनेवाला ब्राह्मण पुलय पुन [पुलक] कोट-विशेष (पाचा २, पुरे देखो पुरंः 'जस्स नत्थि पुरे पच्छा मज्झे (कुमाः काल)। तस्स कुओ सिया' (माचा)। कड वि [कृत] पुल पुंदे. पुल] छोटा फोड़ा, फुनसीः 'ते पुलाग पूंन [पुलाका १ प्रसार अन्न, 'धन्न
आगे किया हुआ, पूर्व में किया हुआ (प्रौपः पुला भिज्जति' (ठा १०-पत्र ५२१)। पुलायमसारं भन्नइ पुलायसद्देण' (संबोध सून १, ५, २, १; उत्त १०, ३) कम्म पुल वि[पुल समुच्छ्रित, उन्नतः 'पुलनिप्पुलाए' २८ पव ६३); 'निस्तारए होइ जहा पुलाए न [कर्मन्] पहले करने का काम पूर्व में (दस १०, १६)।
(सूत्र १, ७, २६)। २ चना आदि शुष्क की जाती क्रिया: 'पुरमो कयं जं तु तं पुरेकम्म' पुल प्रक[पुल ] उन्नत होना (दस १०, अन्न (उत्त ८, १२, सुख ८, १२)। ३ लह(मोघ ४८६; हे १, ५७)। कार पुं[कार] १६)।
सुन आदि दुर्गन्ध द्रव्य । ४ दुष्ट रसवाला सम्मान, प्रादर (उत्त २६, ७; सुख २६, ७) पुल । सक [दृश.] देखना। पुलइ, पुलाइ द्रव्यः 'तिविहं होइ पुलागं धरणे गंधे यरस
क्खड देखो कड (पएण ३६-पत्र ७६६; पुलअ (प्राकृ ७१; हे ४, १८१; प्राप्र ८, पुलाए य' (बृह ५)। ५ पुं. अपने संयम को पएह १, १) वाय पुं[°वात] १ सस्नेह ६६)। पुलएइ (गउड १०६३), पुलएमि निस्सार बनानेवाला मुनि, शिथिलाचारी वायु । २ पूर्व दिशा का पवन (णाया १, (गा ५३१) । वकृ. पुलंत, पुलअंत, पुलएंत साधुओं का एक भेद (ठा ३, २, ५, ३; ११-पत्र १७१) । संखडि स्त्री [दे. (कप्पू: नाट-मालवि ६ पउम ३, ७७८, संबोध २८ पव ६३)।
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