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पाइअसहमहण्णवो
पुराअण-पुरिसोत्तम पुराअण वि [पुरातन] पुराना, प्राचीन । पुरिल्ल देखो पुरिल्ला = पुरा, पुरस् : 'पुरिल्लो' एक सामुद्रिक कला (जं २) । °लिंग, न श्री. 'णी (नाट–चैत १३१)। (हे २, १६४ टिः षड् )।
[लिङ्ग] पुरुष-चिह्न १ लिंगसिद्ध पुं पुराकर सक [पुरा + कृ] मागे करना। पुरिल्लदेव पुं [दे] असुर, दानव (दे ६,५५)
[लिङ्गसिद्ध] पुरुष-शरीर से जो मुक्त हुआ पुराकरंति (सूत्र १, ५, २, ५)।
हो वह (णंदि) वयण न [वचन] पुरिल्लपहाणा स्त्री [दे] साँप की दाढ (दे ६, पुराण वि [पुराण] १ पुराना, पुरातन
पुलिंग शब्द (माच। २, ४, १, ३) वर पुं ५६)। (गउड; उत्त ८, १२)। २ न. व्यासादि
[°वर] श्रेष्ठ पुरुष (प्रौप)५°वरगंधहत्थि पुं पुरिल्ला अ[पुरा] १ निरन्तर क्रिया-करण, मुनि-प्रणीत ग्रन्थ-विशेष, पुरातन इतिहास के
[वरगन्धहस्तिन्] १ पुरुषों में श्रेष्ठ विच्छेद-रहित क्रिया करना । २ प्राचीन, द्वारा जिसमें धर्म-तत्त्व निरूपित किया जाता
गन्धहस्ती के तुल्य । २ जिन-देव (भग; पडि)। पुराना । ३ पुराने समय में। ४ भावी । ५ हो वह शास्त्र (धर्मवि ३८, भवि) पुरिस
वरपुंडरीय पुं[वरपुण्डरीक] १ पुरुषों निकट, सन्निहित। ६ इतिहास, पुरावृत्त (हे [पुरुष] श्रीकृष्ण (वजा १२२)।
में श्रेष्ठ पद्म के समान । २ जिन-देव, अहंन् २, १६४)।
(भग; पडि)-1 "विजय ' [विचय, पुरिकोबेर पुं. ब. [पुरीकौबेर] देश-विशेष | पुरिल्ला अ [पुरस ] आगे, अग्रतः (हे २,
"विजय ज्ञान-विशेष (सूत्र २, २, २७)।' (पउम १८, ६७)।
१६४)। पुरिस्थिमा देखो पुरस्थिमा (सूम २, १, ६)।
'वेय पुं ["वेद] १ कर्म-विशेष, जिसके पुरिस पुंन [पुरुष १ पुमान्, नर, मर्द (हे
उदय से पुरुष को स्त्री-संभोग की इच्छा होती पुरिम देखो पुव्व = पूर्व (हे २, १३५, प्राकृ १, १२४. भगः कुमाः प्रासू १२६); 'इत्याणि
है वह कर्म । २ पुरुष को स्त्री-भोग की अभि२८ भगः कुमा); 'पंचवनो खलु धम्मो वा पुरिसारिण वा (पाचा २, ११, १८)।
लाषा (पएण २३, सम १५०)। सिंह, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिरणस्स' (पव २ जीव, जीवात्मा (विसे २०१०; सूम २,
सीह पुं [सिंह] १ पुरुषों में सिंह के ७४ पंचा १७, १) । ड्ढे पुन [ ] १, २६)। ३ ईश्वर (सूम २, १, २६)।
समान, श्रेष्ठ पुरुष । २ पुं. जिनदेव, जिन १ पूर्वाध। २ प्रत्याख्यान-विशेष (पंचा ५ ४ शङ कु, छाया नापने का काष्ठादि-निर्मित
भगवान (भगः पडि)। ३ भगवान् धर्मनाथ पडि) । ३ तप-विशेष, निविकृतिक तप कीलक । ५ पुरुष-शरीर (णं दि)-1 कार,
के प्रथम श्रावक का नाम (विचार ३७८)। (संबोध ५७) ड्ढिय वि [धिक कार, गारपुं [ कार] १ पौरुष, पुरुषपन,
४ इस अवसर्पिणी काल में उत्पन्न पाँचवाँ 'पुरिमड्ढ' प्रत्याख्यान करनेवाला (पएह २, पुरुष-चेष्टा, पुरुष-प्रयत्न (प्रासू ४३; उवा; सुर
वासुदेव (सम १०५; पउम ५, १५५, पव १.ठा ५,१)। २, ३५; उवर ४७) । २ पुरुषत्व का
२१०) । °सेण पुं [सेन] १ भगवान् पुरिम वि [पौरस्त्य] अन-भव, अग्रेतन, प्रागे अभिमान (प्रौप)। जाय पुं [जात] १
नेमिनाय के पास दीक्षा लेकर मोक्ष जानेवाला का; 'इय पुव्वुत्तचउक्के झारणेसु पढमदुगि खु पुरुष । २ पुरुष-जातीय (सूत्र २, १, ६७
एक अन्तकृद् महर्षि, जो वासुदेव के अन्यतम मिच्छत्तं । पुरिमदुगे सम्मत्तं' (संबोध ५२)। ठा ३, १, २, ४, १) । जुग न [युग]
पुत्र थे (अंत १४) । २ भगवान महावीर के पुरिम [दे] प्रस्फोटन, प्रतिलेखन की क्रिया- क्रम-स्थित पुरुष (सम ६८)। जेट्ट पुं
पास दीक्षा लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न विशेष, 'छ प्पुरिमा नव खोडा' (ोघ २६५)।- [ज्येष्ठ] प्रशस्त पुरुष (पंचा १७, १०)।
होनेवाले एक मुनि, जो राजा श्रेणिक के पुरिमताल न [पुरिमताल] नगर-विशेष °त्त, 'त्तण न [व] पौरुष, पुरुषपन; 'नहि
पुत्र थे (प्रनु १) पदाणिअ, दाणीय j (विपा १, ३; प्रौप)।
नियजुवइसलहिया पुरिसा पुरिसत्तणमुविति' । दानीय उपादेय पुरुष, प्राप्त पुरुष (सम पुरिमिल्ल वि [पूर्वीय] पहले का, पुरातन,
(सुर २, २४, महा: सुपा ८४)1'त्थ पुं प्राचीन; 'प्रासि नरा पुरिमिल्ला, ता कि [Tथै धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुष
पुरिसकारिआ स्त्री [पुरुषकारिका, ता] अम्हेवि तह होमो' (इय ११५)। प्रयोजना 'सयलपुरिसत्थकारणमइदुलहो
पुरुषार्थ, प्रयत्न (दस, ५, २, ६)। माणुसो भवो एसो' (धर्मवि ८२, कुमाः पुरिल पुं[दे] दैत्य, दानव (षड् )।
सुपा १२६), 'पुंडरीअ पुं [पुण्डरीक]
पुरिसाअ अक [ पुरुषाय ] विपरीत मैथुन पुरिल्ल वि [पुरातन] पुरा-भव, पहले का, इस अवसर्पिणी काल में उत्पन्न षष्ठ वासुदेव
करना । वकृ.पुरिसाअंत (गा १६६:३६१)। पूर्ववर्ती (विसे १३२६ हे २, १६३)।
(पव २१०)प्पणीय वि [प्रणीत] १ पुरिसाइअ न [पुरुषायित] विपरीत मैथुन पुरिल्ल वि [पौरस्त्य] पुरो-भव, पुरो-वर्ती, ईश्वर-निर्मित । २ जीव-रचित (सूम २, १, (दे १, ४२) अग्र-गामी (से १३, २, हे २, १६३; प्रामा २६)4'मेह मेध यज्ञ-विशेष, जिसमें पुरिसाइर वि [पुरुषायित] विपरीत रत
पुरुष का होम किया जाय वह यज्ञ (राज) करनेवाला, 'दरपुरिसाइरि विसमिरि सुजाण पुरिल्ल वि [पौर] पुर-भव, नागरिक (प्राकृ 'यार देखो कार (गउड सुर २, १६, सुपा पुरिसाण जं दुक्खं (गा ५२; ४४६)। ३५ हे २, १६३)
२७१)। लक्खण न [ लक्षण] कला- पुरिसुत्तम । पुं [पुरुषोत्तम] १ उत्तम पुरिल्ल वि [दे] प्रवर, श्रेष्ठ (दे ६, ५३)। विशेष, पुरुष के शुभाशुभ चिह पहचानने की पुरिसोत्तम पुरुष, श्रेष्ठ पुमान् । २ जिन
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