________________
१२४
आवेढणन [आवेष्टन ] ऊपर देखो (गउड, पि ३०४) ।
वे
[आवेष्टित] १ चारों ओर से वेष्टित (भग १६, ६ उप पृ ३२७) । २ एक बारवेत (ठा आवेण न [आवेदन] निवेदन, मनो-भात्र का प्रकाश-करण (गउड दे ७, ८७) । आवेव वि [दे] १ विशेष आसक्त । २ प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ ( षड् )IV आवेस एक [ आ + देश] भूवाविष्ट करना । संकृ. आवेसिऊण (१४) IV आवेस [आवेश] अभिनिवेश २ जोश । ३ भूतग्रह । ४ प्रवेश (नाट) 1
आवेसण न [आवेशन] शून्यगृह, 'श्रावेसरसभापवायु परिणयाला एगवा बासो' (आचा
आस देखो अस्स = अन (प्राकृ २६) ।
[ आस् ] बैठना । वकृ. 'श्रजयं आसमाण व पाराबाई हिस' (४) । हेकृ.आसित्तए,आसइत्तए, आसइत्तु (पि ५७८, कस, दस ६, ५४ ) ।
|
आस [अश्व] १ अश्व, घोड़ा (गाया १, १७) । २ देव - विशेष, अश्विनी नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (जं) । ३ अश्विनी नक्षत्र (चंद २० ) । ४ मन, चित्त (पहा २) कृण्ण, कल [कर्ण] १ एक अन्तद्वीप। २ उसका निवासी (ठा ४, २ ) । ग्गीव [श्रीव] एक प्रसिद्ध राजा, पहला प्रतिवासुदेव (पउम ५, १५६) । तर पुं [तर] खच्चर (श्रा १८ ) । त्थाम वुं ['स्थामन्] द्रोणाचार्य का प्रख्यात पुत्र (कुमा) अ [ध्व] श का एक राजा (पउम ५. ४२) । "धम्म पुं ["धर्म] देखो पूर्वीक धर्म (५,४२) । "रवि [र] अश्वों को धारण करनेवाला (श्रीप) पुरव["पुर] नगर- विशेष (इक) 'पुरा, पुरी स्त्री ["पुरी ] नगरी विशेष (कस,
।
२, ३) । क्याी [मक्षिका] चतुरिन्द्रियजीव-विशेष (घोष १०७)। "महग, मदय ["मर्दक] अथ का मर्दन करनेवाला (गाया १, १०) मिस ["मित्र ] एक जैनाभास दार्शनिक, जो महागिरि के शिष्य कौण्डिन्य का शिष्य था और जिसने
Jain Education International
पाइअसहमहणवो
आवेढण - आसगलिअ
।
सामुद्वेदिक पंथ चलाया था (डा ७) मुद्द आसंघ पुं [दे] १ श्रद्धा, विश्वास (सुपा ५२६ [ख] १एक अन्तद्वीप । २ उसका षड्)। २ श्रध्यवसाय, परिणाम ( से १,१५ ) । निवासी (डा ४.२) *मेह [मेप] य ३ प्राशंसा, इच्छा, चाह (गउड) विशेष (११, ४२)रह [र] आसंघा श्री [दे] १ इच्छा वाडा (१, घोड़ा गाड़ी (वा ११) वार [वार] ६३) । २ प्रासक्ति (मैं २ ) 1 पुड़सवार पु-या (गुपा २१४) । वाह आसंचिअ वि [दे] १ मध्यमसित २घुड़-चढ़या । अवणिया स्त्री [वाहनिका ] घोड़े की सवारी, पारित १०६६) संभावित कुमा घोड़े पर सवार होकर फिरना ( विपा १, ६) 1 स १३७) "सेण ["सेन] १ भगवान पार्श्वनाथ के पिता ( कप ) । २ पाँचवें चक्रवर्ती का पिता (सम १५२ ) [रोह]] [ढ़-सवार, । रोह पुं (१२) ।
आस पुंस्त्री [आश] भोजन, 'सामासाए पायरासाऍ (सू २ १) IV
आस [अस] क्षेपण, फेंकना (विसे २०१५) IV
आस न [आस्व] मुख, ह (छाया १, ८) आसइ वि [श्रयिन् ] श्राश्रय-स्थित, 'थंभासही जाया सा देवी सालमंजिल' (धर्मवि १४७) 1/ आतंक सक [ आ + शक् ] १ संदेह [आ] १ संदेह करना, संशय करना । २ अक भयभीत होना। सासंद (३०) । वह. आसंकंत आसं कमाग (नाट, माल ८३) । आसंका स्त्री [आशङ्का ] शङ्का, भय, वहम, संशय (सुर ६, १२१; महा; नाट) आसंकि वि [आशङ्किन् ] श्राशङ्का करनेवाला (गा २०५ ) । V आसंकिय वि [आशङ्कित] १ संदिग्ध, संशयित । २ संभावित (महा) । आसंकिर वि [आशङ्किट ] आशंका करनेआसंग [] बम-गृहदे, याला मी (१४, १७: या २०६ ) ६६) ।
।
पुं
आसंग [आ] पासति भ पुं १ प्रासक्ति, । २३ रोग (बाबा) V
आसंगि वि [ आसङ्गिन] १ श्रसक्त २ संबन्धी, संयोगी (गउड)। स्त्री. णी (गउड) आसंघ सक[सं+ माचय ] १ संभावना करना। २ यवसाय करता स्थिर करना, निश्चय करना । आसंघइ ( से १५, ६० ) । वसंत (१५२
३
For Personal & Private Use Only
आसंजिअ वि [आसक्त ] पीछे लगा हुआ (सुर ८, ३०; उत्तर ε१) IV आसंदय न [आसन्दक] भासत-विशेष (धाचा महा) IV
आसंदय न [आसन्दक] धान-विशेष मंच (११)
आसंदाण न [आसन्दान ] भ श्रवरोध, रुकावट (गउड) 1 आसंदिया श्री [आसन्दिका ] छोटा मच (सूत्र १, ४, २, १५० गा ६६७ ) । आसंदी श्री [आसन्दी ] घासण-विशेष, म (सूत्र १, ६ दस ६, ५४) आसंधी श्री [अश्वगन्धी] वनस्पति-वशेष (३२४) ।
आसंबर वि [आशाम्बर ] १ दिगम्बर, नग्न ( प्रामा)। २ जैन का एक मुख्य भेद । ३ उसका धनुवायी ( २ ) IV आसंसइयवि [असंशयित ] संशय-रहित ( सू २,२, १६) |
आस न [आशंसन] इच्छा, अभिलाषा (भास २५)
आसंसा स्त्री [आशंसा ] अभिलाषा, इच्छा (भाषा)।
आसंसि पि [आशंसित] अभिलषित (वा आसंसि वि [आशंसिन] अभिलाषी, इच्छा करनेवाला (प्राचा) V 08) 11
आसक्खयपुं [दे] प्रशस्त पक्षि- विशेष, श्रीवद (दे १,६७) ।
आसग देखो आस = अश्व (खाया १,१२) । आसगलिअ वि [दे] श्राक्रान्त, 'प्रासगलिश्रो तिब्वकम्मपरिगईए' ( स ४०४ ) IV आसगलिअ वि [दे] प्राप्त एवं विविशुद्धचितणेण खविनो कम्मसंघाओ, घासगलियं बोधिनी' (६७६)।
-
www.jainelibrary.org