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कोहंडी-खइव
पाइअसहमहण्णवो
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देव-विमान-विशेष (ती ५६) । ३ पृ. न्यन्तर- तह मरणे कोहलिए, अज्ज
क्कूर देखो कूर = कूर । (वा २६)। श्रेणीय देव-जाति-विशेष (पव १९४)।
कल्लंपि फुट्टिहिसि (गा ७६८)। कर देखो केर (हे २, ६६)। कोहंडी स्त्री कूष्माण्डी] कोहँडे का गाछ कोहली देखो कोहंडी (हे २, ७३; दे २, । क्खंड देखो खंड (गउड)। (हे १, १२४; दे २, ५० टी)। ५० टी)।
क्खंभ देखो खंभ (से ३, ५६) । कोहण वि [क्रोधन] १ क्रोधी, गुस्साखोर | कोहल्ल देखो कोहल ( षड् )।
क्खम देखो खम (पापू २७)। (सम ३७ पउम ३५, ७) । २ पु. इस नाम कोहल्ली स्त्री [दे] तापिका, तवा, पचन-पात्र- क्खलण देखो खलण (गउड)। का रावण का एक सुभट (पउम ५६, ३२)। विशेष (दे २, ४६)।
"क्खिंसा देखो खिंसा (सुपा ५१०) । कोहल देखो कुऊहल (हे १, १७१)। कोहल्ली देखो कोहंडी ( षड् )।
क्खु देखो खु (कप्पू: अभि ३७ चारु १४) । कोहलिअ वि [कुतूहलिन् ] कुतूहली, कोहि विक्रोधिन् क्रोधी, क्रोधी-स्वभाव का क्खत्त देखो खुत्त (गउड)। कुतूहल-प्रेमी । स्त्री. °आ (गा ७६८)। कोहिल्ल) गुस्साखोर (कम्म ४,१४०; बृह २)।
| खेड्डु देखो खेड्डु (सुपा ५५२) । कोहलिआ स्त्री [कूष्माण्डिका] कोहड़ा का गाछ कौलव।
क्खेव देखो खेवः 'खारक्खेवं व खए' (उप 'जह लंघेसि परवई निययवई
"किसिय देखो किसिय = कृषित (उप ७२८ टी)। भरसहपि मोत्तूर्ण। ७२८ टी)।
| क्खोडी देखो खोडी (पराह १, ३)।
॥ इअ सिरिपाइअसद्दमहण्णवे कयाराइसहसंकलणो
दसमो तरंगो समत्तो॥
ख ( [ख] १ व्यंजन-वणं विशेष, इसका स्थान कण्ठ है (प्रामा; प्राप)। २ न. आकाश, गगनः 'गजंते खे मेहा' (हे १, १८७; कुमा; दे ६, १२१)। ३ इन्द्रिय (विसे ३४४३) । 'ग' [ग] १ पक्षी, खग (पाम दे २, ५०)। २ मनुष्य की एक जाति, जो विद्या के बल से आकाश में गमन करती है, विद्याधरलोक (मारा ५६)। देखो खय = खग। 'गइ स्त्री [गति] १ आकाश-गति । २ कर्मविशेष, जो आकाश-गति का कारण है (कम्म २,३; नव ११)। गामिणी स्त्री [गामिनी] विद्या-विशेष, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता है (पउम ७, १४५)।
पुप्फ न [पुष्प] आकाश-कुसुम, असंभावित वस्तु (कुमा)। खअ । सक [खव् ] संपत्ति-युक्त करना। खउर खाइ, खउरइ (प्राकृ ७३)। वह वि [क्षयिन्१क्षयवाला, नाशवाला।
२ क्षय रोगवाला, क्षय-रोगी (सुपा २३३; खइअ [क्षायिक] १ क्षय, विनाश, ५७६)।
खइग उन्मूलन; 'से कि तं खइए ? खइए खइअ वि [क्षपित] नाशित, उन्मूलित (प्रौप; अट्ठरह कम्मपयडीणं खइएणं' (अणु)। २ भवि)।
वि. क्षय से उत्पन्न, क्षय-संबन्धी, क्षय से खइअ वि खचित] १ व्याप्त, जटित । २ | संबन्ध रखनेवाला। ३ कर्म-नाश से उत्पन्न मण्डित, विभूषित (हे १, १६३; औप; स | 'कम्मक्खयसहावोखइओ' (विसे ३४६५; कम्म ११४)।
१,१५; ३,१६; ४,२२; सम्य २३; प्रौप)। खइअ वि [खादित] १ खाया हुआ, भुक्त, खइत्त न [क्षेत्र] खेतों का समूह, अनेक खेत ग्रस्त (पानः स २५०; उप पू ४९)। २ (पि ६१)। आक्रान्तः 'तह य होंति उ कसाया। खइयो खइया स्त्री [खदिका खाद्य-विशेष, सेका हुमा जेहिं मणुस्सो कजाकजाई न मुणेई' (
स व्रीहि-धान, लावा; 'दहिघयपायसखइया११४)। ३ न. भोजन, भक्षणः 'खइएण व | निग्रोएं' (भवि)। पीएण व न य एसो ताइयो हवइ अप्पा' | खहर पुं[खदिर] वृक्ष-विशेष, खैर का गाछ (पञ्च ६२ ठा ४,४-पत्र २७६)। (माचा; कुमा)। खइअ वि [क्षयित क्षय-प्राप्त, क्षीण; 'किमि-खइर वि [खादिर] खदिर-वृक्ष-संबन्धी (हे १, कायखइयदेहो' (सुर १६, १६१)।
६७ सुपा १५१)। खइअ पु[दे] हेवाक, स्वभाव (ठा ४, ४- खइव [दे] देखो खइअ (ठा ४,४-पत्र पत्र २७६)।
१७६ टी)।
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