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पाइअसहमहण्णवो
पव्वहणा-पसण्ण
कवकृ. पव्याहि जमाण (गाया १,१६- वेऊण (पंचव २)। हेक. पञ्चावित्तए, पसंत वि [प्रशान्त] १ प्रकृष्ट शान्त, शमपत्र १६६)।
पव्वावेत्तए, पव्वावेउं (ठा २, १ कस; । प्राप्त (कप्पः स ४०३; कुप्र)। २ साहित्यपबहणा स्त्री [प्रव्यथना] व्यथा, पीड़ा पंचभा)।
शास्त्र प्रसिद्ध रस-विशेष, शान्त रस (अणु)। (औप)।
पवावण न [प्रव्राजन] दीक्षा देना (उवः । पसंति स्त्री [प्रशान्ति] नाश, विनाश; 'सव्वपहिय वि [प्रव्यथित] अति दुःखित प्रोघ ४४२ टी)।
दुक्खप्पसंतीणं' (अजि ३)। (पाचा १, २, ६, १)।
पव्यावण न [दे] प्रयोजन (पिंड ५१)। पसंधण न [प्रसन्धान] सतत प्रवर्तन (पिंड पव्वा स्त्री [पर्वा] लोकपालों की एक बार
पव्वावणा स्त्री प्रव्राजना] दीक्षा देना (प्रोध ४६०)। परिषद् (ठा ३, २-पत्र १२७)।
४४३; पव २५; सूअनि १२७) । पसंस सक [प्रशंस ] श्लाघा करना । पसंपव्याअं देखो व्याव = म्लै ।
वाविय वि [प्रव्राजित] दीक्षित, साधु सइ (महा. भवि) । वकृ. पसंत, पसंसपव्वाइअ वि [प्रवाजित] १ जिसको दीक्षा बनाया हुआ (णाया १,१-पत्र ६०)। माण (पउम २८, १५, २२, ६८)। कवकृ. दी गई हो यह (सुपा ५६६)। २ न. दोक्षा व्वाद सक +का बहाना, प्रवाह पसंसिजमाण (वसु) । संकृ. पसंसिऊण देना (राज)।
में डालना । वकृ. पव्वाहमाण (भग ५,४)। (महा) । कृ. पसंसणिज्ज, पसस्स, पसंपञ्चाइ विमजान] विनछाय, शुष्क (कुमा पव्विद्ध वि [दे] प्रेरित (दे ६, ११)।
सियव्व (सुपा ४७; ६४५सुर १, २१६ ६, १२)। पब्बिद्ध वि [प्रवृद्ध] महान्, बड़ा (से १४,
पउम ७५, ८), देखो पसंस । पत्र्याइआ स्त्री [प्रब्राजिका] परिवाजिका,
पसंस वि [प्रशस्य] १ प्रशंसा-योग्य । २ संन्यासिनी (महा)। 'पविद्ध न [प्रविद्ध गुरु-वन्दन का एक दोष,
पुं. लोभ (सूप १, २, २, २६) । पवाडि देखो पव्यालिअ = प्लावित (से वन्दन को समाप्त किये बिना ही भागना ।
पसंसण न [प्रशंमन] प्रशंसा, श्लाघा (उप (पब २)।
१४२ टी; सुपा २०६, उप पं१७)। पव्याण वि [म्लान] शुष्क, सूखा (प्रोष पव्वीसग न [दे. पब्बीसग] वाद्य-विशेष
सोना पसंसय वि [प्रशंसक] प्रशंसा करनेवाला ४८८)। (पएह १, ४–पत्र ६८) ।
(श्रा ६, भवि)। पव्याय देखो पवाय प्र+वा। पब्वाइ पसइस्त्री [प्रसूति]१ नाप-विशेष, दो प्रकृति
पदवीप्रमतिनावित होत पसंसा स्त्री [प्रशंसा] श्लाघा, स्तुति, वर्णन (प्राकृ ७६)। पसर का एक परिमाण (तंदु २६)। २ पूर्ण ।
(प्रासू १६७; कुमा)। पवाय सक [प्र + ब्राजय ] दीक्षित करना मजलि, दो हस्त-तल-पँजुरो मिला कर
पसंसिअ वि [प्रशंसित] श्लाषित (उत्त १४, (सुपा ५६६)।
! ३८)।
भरी हुई चीज ( कुप्र ३७४) । पव्याय अकम्लेि सूखना । पब्वायड (हे ४, पसंग पूंन [प्रसङ्गा १ परिचय, उपलक्ष (स।
पसज्ज देखो पसंज। १८) । व. पव्वाअंत (से ७, ६७)। ३०५) । २ संगति, संबन्धः 'लोए पलीवणं
पसज्म । अ[प्रसह्य १ खुले तौर से, प्रकट
पसझ रीति से (सूत्र १, २, २, १६)। पवाय वि [म्लान, प्रवाण] शुष्क, सूखा पिव पलालपूलप्पसंगण' (ठा ४, ४, कुप्र
२ हठात्, बलात्कार से (स ३१)। हुआ (पानः ओघ ३६३; स २०३; से ४८ ६. ६३: पिंड ४४)।
'वरं दिट्टिविसो सप्पो बरं हालाहल विसं। पसज्झचयन प्रसह्यचतस्] धम-निरपेक्ष
हीणायारागीयत्यवयण संग खु णो भई' पव्याय पू[वात] प्रकृष्ट पवन (गा ६२३) ।
चित्त, कदाग्रही मन (दसचू १, १४)। पत्र्याल सक [छादय ] ढकना, पाच्छादन
(संबोध ३६)। ३ प्रापत्ति, अनिष्ट-प्राप्ति पसढ वि [प्रसह्य] अनेक दिन रखकर खुला
(स १७४)। ४ मैथुन, काम-क्रीडा (पएह १, किया हुअा (दस ५, १, ७२)। करना । पव्वालइ (हे ४, २१)।
४)। ५ पासक्ति। ६ प्रस्ताव, अधिकार पसढ वि [प्रशठ] अत्यन्त शठ (सूम २, पव्वाल सक [प्लावय ] खूब भिजाना,
(गउड; भविः पंचा ६, २६)। तराबोर करना। पव्वालइ (हे ४, ४१)।
पसंगि वि [प्रसङ्गिन प्रसंग करनेवाला, पसढं देखो पसज्झ (दस ५, १, ७२)। पव्यालण न [प्लावन] तराबोर करना (से आसक्तः 'जूयप्पसंगी' (महा: णाया १, २)। पसढिल वि [प्रशिथिल] विशेष ढीला (हे
पसंज अक [प्र+सञ्ज.१ प्रासक्ति करना। १,८६)। पव्वालिअ वि [प्लावित] जल-व्याप्त, सरा
२ आपत्ति होना, अनिट-प्राप्ति होना । पसजइ पसण्ण वि [प्रसन्न] १ खुश, स्वस्थ (से ५, बोर किया हुमा (पाप: कुमा) से ६, १०)। (उव); 'प्रणिच्चे जीवलोगम्मि कि हिसाए ४१, गा ४६५)। २ स्वच्छ, निर्मल (प्रौपः पव्वालिअ वि [छादित ढका हुमा (कुमा)। पसजसि (उत्त १८, ११, १२)। पसजेजा। मोघ ३४५) । °चंद पुं ['चन्द्र] भगवान् पवाव सक [प्र+वाजय ] दीक्षित करना, (विसे २६६)।
महावीर के समय का एक राजर्षि (उवा संन्यास देना । पध्वावेइ (भग) । संक. पवा- पसंडि न [दे] कनक, सुवर्ण (दे ६, १०)। पडि)।
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