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पाइअसद्दमहण्णवो
पसाह-पसेविआ
पसाह सक [प्र+ साधय ] १ बस में पसिज्जण न [प्रसदन प्रसन्न होना, 'अत्य- | पसू सक [प्र + सू] जन्म देना, प्रसव करना । २ सिद्ध करना। पसाहेइ (नाट करूसणं खणपसिजरणं अलिअवमणरिणब्बंधो करना। वकृ. पसूअमाण (गा १२३) । भवि) । व. पसाहेमाण (प्रौप)। (गा ६७५) ।
संकृ. पसूइत्ता (राज)। पसाहग वि | प्रसाधक | साधक, सिद्ध पसिदिल देखो पसदिल १. ८६ गा पसू वि [प्रसू] प्रसव-कता, जन्मदाता करनेवाला (धर्मसं २६) । तम वि [तम] १३३: गउड)।
(मोह २६)। १ उत्कृष्ट साधक । २ न. व्याकरण-प्रसिद्ध | पसिण पुंन [प्रश्न १ पृच्छा, प्रश्न (सुपा
पसूअ न [दे] पुष्प, फूल (दे ६, पामा कारक-विशेष; करण-कारक (विसे २११२)। ११, ४५३)। २ दर्पण आदि में देवता का
भवि)। देखो पसाहय।
आह्वान, मन्त्रविद्या-विशेष (सम १२३
पसूवि [प्रसूत] १ उत्पन्न, जो पैदा हुआ पसाण न [प्रमाधन] १ सिद्ध करना,
हो (रणाया १,७, उवः प्रासू १५९)। २ बृह १)। विजानी [विद्या मन्त्रविद्यासाधना विज्जापसाहरणज्जयविज्जाहर
देखो पसविय (महा)। विशेष (ठा १०)। पिसिण न [प्रश्न] संनिरुद्धएगतो' (सुर ३, १२)। २ उत्कृष्ट मन्त्रविद्या के बल से स्वप्न आदि में देवता
पसूअण न [प्रसवन ] जन्म-दान (सुपा साधना 'सव्वुत्तम मारणसत्तं दुल्लहं भवसमुद्दे
४०३)। के प्राह्वान द्वारा जाना हुआ शुभाशुभ फल पसाहणं मेवाणस्स न निउजेंति धम्मे' (स
का कथन (पव २: बृह १)।
पसूइ स्त्री [प्रसूति] १ प्रसव, जन्म, उत्पत्ति ७४४)। ३ अलंकार, भूषण (णाया १, ३,
(पउम २१, ३४ प्रासू १२८)। २ एक से ३, ४४)। ४ भूषण आदि की सजावट
पसिणिय वि [प्रश्नित पूछा हुआ (सुपा पार
प्रकार का कुष्ठ रोग, नखादि से विदारण करने भूसरगपसाहरगाउंबरेहि (वज्जा ११४. सपा १६, ६२५)।
पर भी दुःख का असंवेदन, चमड़ी का मर पसिद्ध वि [प्रसिद्ध] १ विख्यात, विश्रुत
जाना (पिड ६००)। 'रोग' [रोग] पसाहय क्षेखो पसाङ्ग (काल)। २ सजाने- (महा)। २ प्रकर्ष से मुक्ति को प्राप्त, मुक्त
रोग-विशेष (सम्मत्त ५८)। वाला (भग ११, ११)। (सिरि ५६५)।
पसूइय पुं[प्रसूतिक] वातरोग-विशेष (सिरि पसाहा श्री [प्रशाखा] शाखा की शाखा, पसिद्धिली प्रसिद्धि] १ ख्याति (हे १, ११७)। छोटी शाखा (गाया १,१० प्रौप महा)।
४४)। २ शंका का समाधान, आक्षेप का पसण न [प्रसना फल, पष्प (कमा: सण)। पसाहाबिर दिसाधित] विभूषित कराया परिहार (प्रण; चेइय ४६)।
पसेअ पुं[प्रस्वेद] पसीना (दे ६, १)। गया, गाजवाया हुआ (भवि)। पसिस्स देखो पसीस (विसे १४)।
पसेढि स्त्री प्रश्रेणि] श्रवान्तर श्रेणि-पंक्ति पसाहि वि [प्रसाधिन] सिद्ध करनेवाला, पसीअ देखो पसिअ = प्र + सद् । पसीयइ, (पि ६६, राय)।
'प्रभुदयपसाहिणी' (संबोध ८; ५४)। पसीयउ (कुप्र१)। संकृ. पसाऊण (सण)। पसेण प्रिसेन] भगवान् पार्श्वनाथ के पसाहिल दि प्रसाधित] अलंकृत किया पसीस पुं[प्रशिष्य] शिष्य का शिष्य (पउम प्रथम श्रावक का नाम (विचार ३७८)। हुमा, सजाया हुअा (से ४, ६१; पाम)।
४.८६)।
पसेणइ पुं[प्रसेनजित् ] १ कुलकर-पुरुषपसाहिल वि [प्रशाखिन् ] प्रशाखा-युत पसु [पशु] १ जन्तु-विशेष, सोंग पूँछवाला विशेष (पउम ३, ५५; सम १५०) । २ (सुर ८, १०८)।
प्राणी, चतुष्पाद प्राणि-मात्र (कुमाः प्रौप)। यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि का एक पुत्र पसिअ अक [प्र + सद्] प्रसन्न होना । २ प्रज, बकरा (अणु) । भूय वि [भूत] (अंत ३)। पसिन (गा ३८४; ४६६; हे १,१०१)। पशु-तुल्य (सूप १, ४, २)। "मेह पुं पसेणि स्त्री [प्रश्रेणि] भवान्तर जाति, पसियद (साग)। संकृ. पसिऊण, पसिऊणं मेध] जिसमें पशु का भोग दिया जाता। 'भद्रारससेरिणप्पसेणीमो सद्दावेई (गाया १, (सणः सुपा ७)।
हो वह यज्ञ (पउम ११, १२)। वइ पुं १-पत्र ३७)। पसिअवि प्रसृत] फैला हुआ, विस्तीर्ण; [पति] महादेव, शिव (गा १, सुपा ३१)। पसेयग देखो पसेवय (राज)।
पसिअच्छि !' (गा १२०% ६२३)। पसुत्त वि [प्रसुप्त] सोया हुआ (हे १, ४४ पसेव सक[+ सेव् ] विशेष सेवा करना। पसिअ न [दे] पूग-फल, सुपारी (दे ६, ६)।। प्राप्र; णाया १, १६)।
वकृ. पसेवमाण (श्रु ५५)। पसिंच सक[प्र+ सिच्] सेचन करना । पसत्ति स्त्री [प्रसुप्ति ] कुष्ठ रोग विशेष, पसेवय प्रसेवका कोथला, थैलाः 'एहाविवकृ. पसिंचमाण (सुर १२, १७२)। नखादि-विदारण होने पर भी अचेतनता
। यपसेवयोव्व उरंसि लंबंति दोवि तस्स थणया' पसिंडि (दे) देखो पसंडि (पान)। (राज) । देखो पसूइ।
(उवा)। पसिक्खअ वि [प्रशिक्षक] सीखनेवाला (गा पसुव (अप) देखो पसु (भवि)। 'पसेविआ स्त्री [प्रसेविका] थैली, कोथली ६२६ प्र)।
पसुहत्त [दे] वृक्ष, पेड़ (दे ६, २९)। (दे ५, २५) ।
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