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३४४ पाइअसहमहण्णवो
जक्खरत्ति-जघण (पडि)। भद्द ' [भद्र] यक्षद्वीप का | जक्खुत्तम पु [यक्षोत्तम] यक्ष-देवों की एक कदर्थन, पीड़नः सिण चिय वम्महणायगस्स अधिपति देव-विशेष (चंद २०)। मंडलप- | अवान्तर जाति (पएण १)।
जगजगडणापसत्तस्स' (उप ५३० टी)। विभत्ति स्त्री [ मंण्डलप्रविभक्ति एक तरह
| जक्खेस पुं[यक्षेश] १ यक्षों का स्वामी । | जगडिअ वि [दे] विद्रावित, कथित (दे ३, का नात्य (राय)। मह ["मह] यक्ष
| २ भगवान् अभिनन्दन का शासन-यक्ष (संति | ४४; साधं ९७ उव) । .. के लिए किया जाता महोत्सव (पाचा २, १, ७)।
जगडिअ वि [दे] लड़ाया हुआ (धर्मवि २)। महाभद्द पुं[महभद्र] यक्ष द्वीप | जग न [यकृत् 1 पेट की दक्षिण-ग्रन्थि | ३१)। का अधिपति देव (चंद २०) महावर पुं.
जगर पुं[जगर] संनाह, कवच, वर्म (दे ३, [ महावर] यक्ष समुद्र का अधिष्ठाता देव
जग पुंदे] जन्तु, जीव, प्राणी; 'पुढो जगा विशेष (चंद २०)। राय पुं["राज १
परिसंखाय भिक्खू' (सूम १, ५, २०)। | जगल न [दे] १ पङ्कवाली मदिरा, मदिरा यक्षों का राजा, कुबेर । २ प्रधान यक्ष (सुपा
| जग पुन [जगत् ] प्राणी, जीवः 'पुढविजीवे ४६२)। ३ एक विद्याधर राजा (पउम ८,
का नीचला भाग (दे ३, ४१) । २ ईख की
मदिरा का नीचला भाग (दे ३, ४१; पान)। हिसिना जे प्रतनिस्सिया जगें (दस ५, १, १२४) । घर पुं [वर] यक्ष-समुद्र का अधिपति देव-विशेष (चंद २०) । इट्ट वि |
६८. सूत्र १, ७, २० १, ११, ३३)। |जगार पुं[दे] राब, यवागू (पव ४)। [विष्ट] यक्ष का प्रावेशवाला, यक्षाधिष्ठित जग न [जगत् ] जग, संसार, दुनियाँ (स | जगार पु[जकार] 'ज' अक्षर, 'ज' वर्ण (ठा ५, १, वव २)। दित्तय, लित्तय २४६; सुर २, १३१) । गुरु पुं[गुरु (निचू १)। न [दिप्तक] १ कभी-कभी किसी दिशा में १ जगत् में सर्व-श्रेष्ठ पुरुष। २ जगत् का | जगार पुं[यत्कार] 'यत्' शब्द 'जगारुद्दिट्टाणं बिजली के समान जो प्रकाश होता है वह, पूज्य । ३ जिन-देव, तीर्थंकर (सं २१ पंचा| तगारेण निद्देसो कीरई' (निचू १)। प्राकाश में व्यन्तर-कृत अग्नि-दीपन (भग ३,
४)। जीवण वि [ जीवन] १ जगत् को | जगारी स्त्री [जगारी] अन्न-विशेष, एक प्रकार ६; वव ७)। २ आकाश में दीखता अग्नि- जीलानवाला । २ पु. जिन-दव (राज) का क्षुद्र अन्न; 'असणं मोयरणसत्तगमुग्गजयुक्त पिशाच (जीव ३) । वेस [वेश] 'णाह [नाथ] जगत् का पालक, परमेश्वर, |
गारीई' (पंचा ५)। यक्ष-कृत आवेश, यक्ष का मनुष्य-शरीर में
जिन-देव (पंदि)। पियामह पिता- | जगत्तम वि जगदुत्तम जगत्-श्रेष्ठ, जगत् प्रवेश (ठा २,१) हिव पुं[धिप] मह] १ ब्रह्मा, विधाता। २ जिनदेव (णंदि)।
में प्रधान (पएह २, ४)। १ वैश्रमण, कुबेर, यक्ष राज । २ एक विद्या. पगास वि [प्रकाश जगत् का प्रकाश
करनेवाला, जगत्प्रकाशक (पउम २२, ४७)। धर राजा (पउम ८, ११३)। हिवइ पुं
| जग्ग अक [जाग] १ जागना, नींद से उठना।
२ सचेत होना, सावधान होना । जग्गइ, [धिपति देखो पूर्वोक्त अर्थ (पात्र; पउम
पहाण न [प्रधान] जगत् में श्रेष्ठ
जग्गि (हे ४, ८० षड् प्रासू ६८)। वकृ. (गउड)।
जग्गंत (सुपा १८५)। प्रयो. जग्गावइ (पि जक्खरत्ति स्त्री [दे. यक्षरात्रि] दीपालिका, जगई स्त्री [जगती] १ प्राकार, किला, दुर्ग दीवाली, कात्तिक वदि अमास का पर्व (दे ३, (सम १३; चैत्य ६१)। २ पृथिवो (उत्त १)
जग्गण न [जागरण] जागना, निद्रा-त्याग ४३)। | जगईपव्यय पुं [जगतीपर्वत] पर्वत-विशेष |
(मोघ १०६)। जक्खा स्त्री [यक्षा] एक प्रसिद्ध जैन साध्वी, | (राय ७५)।
जग्गविअ वि [जागरित जगाया हुमा, नोंद जो महर्षि स्थूलभद्र की बहिन थी (पडि)। जगजग अक [चकास्] चमकना, दीपना ।
से उठाया हुआ (सुपा ३३१)। जक्खिंद ' [यक्षेन्द्र] १ यक्षों की स्वामी,
वकृ. जगजगंत, जगजगेंत (पउम ७७, |
| जग्गह पुं[यग्रह] जो प्राप्त हो उसे ग्रहण यक्षों का राजा (ठा ४,१)। २ भगवान् २३, १४, १३४)।
करने की राजाज्ञा, 'रएगा जरगहो घोसियो परनाथ का शासनाधिष्ठायक देव (पव २६; | जगड सक [दे] १ झगड़ना, झगड़ा करना,
। (प्रावम)। संति ८)। कलह करना। २ कदर्थन करना, पीड़ना ।
जग्गाविअ देखो जग्गविअ (से १०, ५६)। जविखणी स्त्री [यक्षिणी] १ यक्ष-योनिक स्त्री, | ३ उठाना, जागृत करना । वकृ. जगडंत
जग्गाह देखो जग्गह (प्राक)। देवियों की एक जाति (प्रावम) । २ भगवान् (भवि) । कवकृ.जगडिज्जंत (पउम ८२, ६;
जग्गिअ वि [जागृत] जगा हुआ, त्यक्त-निद्र श्रीनेमिनाथ की प्रथम शिष्या (सम १५२)। | राज)।
(गा ३८५, कुमाः सुपा ५६३)। जक्खिणी स्त्री [यक्षिणी] देखो जक्खा जगडण न [दे] नीचे देखो (उव)।
जग्गिर वि [जागरित] १ जागनेवाला। २ (मंगल २३)।
जगडण वि [दे] १ झगड़ा करानेवाला ।२ सावचेत रहनेवाला (सुपा २१८)। जक्खी स्त्री [याक्षी] लिपि-विशेष (विसे कदर्थना करानेवाला (धर्मवि ८६ कुप्र४२६) जघणन [जघन] कमर के नीचे का भाग, ४६४ टो)।
जगडणा स्त्री [दे] १ झगड़ा, कलह । २, ऊरुस्थल (कप्पा औप)।
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