________________
पर-परक्कम्मि
पाइअसहमहण्णवो बड़ा पेड़ (श्रा २३)। वाय वि[पात् ] ३४ उप पू १८२, महा)। हीण वि 'प्रणंतरोववरणगा चेव परंपरोववरणगा प्रकृष्ट पैरवाला (श्रा २३)। वाय वि [ वाच] [धीन] परतन्त्र, परायत्त (नाट-मालवि चेव' (ठा २, २; भग १३, १)। फलित शालि (श्रा २३)। वाय वि[वाप] २०)।
परंभार वि [परम्भरि दूसरे का पेट भरने१ विशेष भाव से शत्रु की चिन्ता करनेवाला। पर देखो परामप्र (श्रा २३; पउम ६१,८)। वाला (ठा ४, ३-पत्र २४७) । २ पुं. मन्त्री, अमात्य । ३ सुभट, योद्धा (श्रा
परंप [परम्] १ परन्तु, किन्तु; 'जं तुम परंमुह वि [पराङ्मुख मुंह-फिरा, विमुख २३)। "वाय वि [पात] आपात-सुन्दर,
पाणवेसित्ति, परं तुह दूरे नयरं' (महा)। (पि २६७)। जो प्रारम्भ में ही सुन्दर हो वह (श्रा २३)।
२ उपरान्त; 'नो से कप्पइ एत्तो बाहि; तेण परकीअ) वि [परकीय अन्य-सम्बन्धी, इतर 'वाय वि [व्राय] श्रेष्ठ विवाहवाला |
पर, जत्थ नाणदसणचरित्ताई उस्सप्पति ति परकेर से सम्बन्ध रखनेवाला (विसे ४१: (श्रा २३)। वाय वि [पाय] श्रेष्ठ बेमि' (कस १,५१,२,४-७४,१२-२६)।
परक्क । सुपा ३४६; अभि १५१, षड्; रक्षावाला, जिसकी रक्षा का उत्तम प्रबन्ध ३ केवल, फक्तः 'एस मह संतावो, परं
स्वप्न ४०; स २०७: षड् ), 'न सेवियव्वा हो वह । २ अत्यन्त प्यासा । ३ पुं. राजा,
माणससरमज्जणेण जइ अवगच्छइत्ति' (महा)। पमया परक्का' (गोय १३)। नरेश (श्रा २३)। "वाय वि [°व्यात]
| परंप [परुन् । आगामी वर्ष, प्रज्जं कल्लं । परक न [दे] छोटा प्रवाह (दे ६, ८)। १ इतर के पास विशेष वमन करनेवाल।।
परं परारि' (वै २), 'प्रज्जं परं परारि | परकंत वि [पराक्रान्त] १ जिसने पराक्रम २ पुं. भिक्षुक, याचक (श्रा २३)। वाय
पुरिसा चितंति अत्थसंपत्ति' (प्रासू ११०)। किया हो वह । २ अन्य से आक्रान्त; 'गामावि [ पायस् ] १ दूसरे की रक्षा के लिए हथियार रखनेवाला। २ पुं. सुभट, योद्धा
णुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परक्तं | परंग सक [परि + अङ्ग] चलना, गति
भवई' (प्राचा)। ३ न. पराक्रम, बल। ४ | करना । कवकृ. परंगिजमाण (औप)। (श्रा २३)। वाया स्त्री [°व्याजा] वेश्या, वारांगना (श्रा २३)। वाया स्त्री ["व्यागस्] | परंगमण न [पर्यङ्गन] पाँव से चलना,
उद्यम, प्रयत्न । ५ अनुठानः 'जे प्रबुद्धा चंक्रमण (औप)।
महाभागा वीरा असम्मतदंसिणो, असुद्धं असती, कुलटा (श्रा २३)। वाया स्त्री | परंगामण न [पर्यङ्गन चलाना, चंक्रमण
तेसि परक्कतं' (सूम १, ८, २२)। [ व्यापा] अन्तिम समृद्र की स्थिति (श्रा कराना (भग ११, ११–पत्र ५४४)।
परक्कम अक [परा + क्रम् ] पराक्रम २३)। वाया स्त्री [पाता] धूर्त-मैत्री
करना । परक्कमे, परकमेज्जा, परकमेज्जासि (श्रा २३)। वाया स्त्री ["वाया] नृपपरंतम वि [परतम] अन्य को हैरान करने
(प्राचा)। वकृ. परक्कमंत, परकममाण कन्या (श्रा २३)। वाया स्त्री ["पागा] वाला (ठा ४, २–पत्र २१६) ।
(प्राचा)। कृ. परक्कमियव्व, परक्कम्म मरु-भूमि (श्रा २३) । "वाया स्त्री परंतम वि [परतमस्] १ अन्य पर क्रोध
(णाया १, १, सूप १, १, १)। [वाच् ] कश्मीर-भूमि (श्रा २३)। करनेवाला । २ अन्य-विषयक अज्ञान रखने
परक्कम सक [परा + क्रम् ] १ जाना। 'वाया स्त्री [°वाज ] नृप-स्थिति (श्रा वाला (ठा ४, २-पत्र २१६) ।
२ प्रासेवन करना। ३ प्रक. प्रवृत्ति करना। २३)। बाया स्त्री [पात् ] शतपदी, | परंतु अ [परन्तु] किन्तु (सुपा ४६६)। परक्कमे (दस ५, १, ६)। परक्कमिज्जा जन्तु-विशेष (श्रा २३)। वाया स्त्री | परंदम वि [परन्दम] १ अन्य को पीड़ा | (दस ८, ४१)। संकृ. परकम्म (दस [°व्यावा] भेरी, वाद्य-विशेष (श्रा २३)।
पहुँचाने वाला (उत्त ७,६)। २ अन्य को | ८, ३२)। विएस पुं [विदेश] परदेश, विदेश
शान्त करनेवाला। ३ अश्व आदि को | परकम पूं [पराक्रम] गतं आदि से भिन्न (पउम ३२, ३६)। "व्वस देखो वस सिखानेवाला (ठा ४.२--पत्र २१३)। माग (दस ५, १, ४)। (षड्। गा २६५, भवि)। 'संतिग वि परंपर 1 वि [परम्पर] १ भिन्न-भिन्न
परक्कम पूंन [पराक्रम] १ वीर्य, बल, शक्ति, [सत्क] पर-संबन्धी, परकीय (पण्ह १ | परंपरग (णंदि)। २ व्यवहितः 'परंपर- सामर्थ्य (विसे १०४६; ठा ३, १; कुमा), ३)। समय पुं [°समय इतर दर्शन
| परंपरय | सिद्ध-(परण १ ठा २,१; 'तस्स परक्कम गीयमाणं न तए सुर्य' का सिद्धान्तः 'जावडया नयवाया तावइया । १०)। ३ पुन, परम्परा, अविच्छिन्न धारा (सम्मत्त १७६)। २ उत्साह। ३ चेगा. चेव परसमया' (सम्म १४४)। हुअ वि (उप ७३३), 'पुरिसपरंपरएण तेहिं इट्ठगा। प्रयत्न (प्राचू १, प्रासू ६३; प्राचा)। ४ [भृत ] १ दूसरे से पुष्ट, अन्य से पालित प्राणिया', 'एस दव्वपरंपरगो' (प्राव १), शत्रु का नाश करने की शक्ति (जं ३)। ५ (प्राप्र)। २ पुंस्त्री. कोयल, पिक पक्षी 'परंपरेणं' (कप्प; धर्मसं ५३१, १३०६) । पर-आक्रमण, पर-पराजय (ठा ४, १७ (कप्प)। स्त्री. °आ (सुर ३, ५४, पान)। परंपरा स्त्री [परम्परा] १ अनुक्रम, परिपाटी श्रावम)। ६ गमन, गति (सूम २, १, ६)। घाय देखो घाय (प्रासू १०४ सम ६७)। (भग; औप, पाम)। २ अविच्छिन्न धारा,
७ मार्ग (दश० अ० चू० सू० ८६)। "धीण देखो हीण (धर्मवि १३६)। यत्त प्रवाह (णाया १,१)। ३ निरन्तरता, म- परक्कमि वि [पराक्रमिन] पराक्रम-संपन्न वि [यत्त पराधीन, परतन्त्र (पउम ६४, व्यवधान (भग ६, १)। ४ व्यवधान, अन्तरः । (धर्मवि १६; १२०)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org