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पाइअसहमहण्णवो
पंथाण-पकाव पंथाण देखो पंथ = पन्थ, पथिन्; 'पंथकाणे | पंसुली स्त्री [पांसुली] कुलटा, व्यभिचारिणी कल्प (पंचभा)। ६ एक महाग्रह, ज्योतिष पंथाणंझाणे (प्राउ ११)।
स्त्री (पामा सुर १५, २; हे २, १७६)। देव-विशेष (सुज २०)। गंथ पुं[प्रन्थ] पंथिअ पुं[पन्थिक, पथिक ] मुसाफिर, पकंथ देखो पगंथ (माचा १, ६, २)। एक प्राचीन जैन ग्रन्थ, 'निशीथ' सूत्र (जीव पान्थ; 'पंथिम णं एत्थ संथर' (काप्र १५८ | पकथग पुं[प्रकन्थक] प्रश्व-विशेष, एक प्रकार
१)। जइ पुं[यति] "निशीथ' अध्ययन महा: कुमाः णाया १,८ वजा १०; १५८)। | का घोड़ा (ठा ४, ३--पत्र २४८)।
का कानकार साधु; 'धम्मो जिणपन्नत्तो पंथुच्छुहणी स्त्री [दे] श्वशुर-गृह से पहली बार
पकप्पजइणा कहेयव्वों (धर्म १)। धर वि पकंप पुं[प्रकम्प] कम्प, कॉपना (आव ४)। मानीत स्त्री (दे ६, ३५)।
[धर] 'निशीथ' अध्ययन का जानकार पकंपण न [प्रकम्पन] ऊपर देखो (सुपा पंपुअ वि [दे दीर्घ, लम्बा (दे ६, १२)।
(निचू २०)। देखो पगप्प = प्रकल्प । ६५१)।
पकप्पणा स्त्री [प्रकल्पना] प्ररूपणा, व्याख्या पंफुल्ल वि [प्रफुल्ल] विकसित (पिंग)। पर्कपिअ वि [प्रकम्पित] प्रकम्प-युक्त, कॉपा
'परूवरण त्ति वा पकप्पण त्ति वा एगट्टा' पंफुल्लिअ वि[दे] गवेषित, जिसकी खोज की हुआ (आव २)।
(निचू १)। गई हो वह (दे ६, १७)। पकंपिर वि [प्रकम्पित] काँपनेवाला (उप पू
पकप्पणा स्त्री [प्रकल्पना] कल्पना (इय पंस सक [पांसय ] मलिन करना। पंसेई १३२) । स्त्री. री (रंभा)।
१४१, अज्झ १४२)। (विसे ३०५२)। पकड वि [प्रकृत] १ प्रस्तुत, प्रक्रान्त, उप
पकप्पधारि वि [प्रकल्पधारिन्] निशीथ
स्थित, असली, सच्चा (भग ७, १०-पत्र पंसण वि [पांसन] कलंकित करनेवाला,
३२४, १८, ७–पत्र ३५०)। २ कृत,
सूत्र का जानकार (क्व १)। दूषण लगानेवाला (हे १,७०, सुपा ३४२)।
पकप्पि वि [प्रकल्पिन्] ऊपर देखो (वव निर्मित (भग १८, ७)। पंसु ' [पांसु, पांशु धूली, रज, रेणु (हें २६७ पाम आचा)। कीलिय, कीलिय पकड देखो पगड = प्रकट (भग ७, १०)।
पकप्पिअ वि [प्रकल्पित काटा हुमा, ‘एसा वि [क्रीडित] जिसके साथ बचपन में पकड्ढ देखो पगडढ। कवकृ. पकड्ढिज्ज- परजुत्तिलया एएण पकंपि (? कप्पि)। पा पांशु-क्रीड़ा की गई हो वह, बचपन का दोस्त माण (औप)।
प्रा' (प्रज्झ १०२)। (महा; सण)। "पिसाय पुंस्त्री ["पिशाच पकडढ वि [प्रकृष्ट] १ प्रकर्ष-युक्त । २ खींचा पति विपल्पिती, मंका
पकप्पिअ वि [प्रकल्पित १ संकल्पित (द्र जो रेणु-लिप्त होने के कारण पिशाच के तुल्य हुआ (प्रौप)।
२)। २ निर्मित (महा)। ३ न. पूर्वोपार्जित मालूम पड़ता हो वह (उत्त १२)। "मूलिय पकड्ढण न [प्रकर्षण आकर्षण, खींचाव
द्रव्य 'ण णो अत्थि पकप्पियं' (सूत्र १, ३, पुं [मूलिक] विद्याधर, मनुष्य-विशेष (निचू २०)।
३, ४) । देखो पगप्पि । (राज)। पकत्थ सक[प्र+ कत्थ् ] श्वाषा करना,
पकय वि[प्रकृत] प्रवृत्त, कार्य में लगा हुमा पंसु [पशु] कुठार, फरसा (हे १, २६) । प्रशंसा करना । पकत्थइ (सूम १, ४, १,
(उप ६२०)। पंसु देखो पसु ( षड्)। १६, पि ५४३)।
पकर सक [प्र + कृ] १ करने का प्रारम्भ पंसुखार ( [पांशुक्षार] एक तरह का नोन, पकप्प प्रक [प्र+क्लूप्] १ काम में
करना । २ प्रकर्ष से करना। ३ करना । ऊपर लवण (दस ३, ८)। प्राना, उपयोग में पाना । २ काटना, छेदना।
पकरेइ, पकरंति, पकरेंति (भग पि ५०६)। पंसुल ( [दे] १ कोकिल, कोयल। २ जार, कृ. पकप्प (ठा ५, १-पत्र ३००)। देखो
वकृ. पकरेमाण (भग)। संकृ. पकरित्ता पगप्प =+ क्लूप । उपपति (द६,६६)। ३ वि. रुख, रोका
(भग)। हुआ (षड्)। पकप्प सक [प्र+कल्पय ] १ करना,
पकर देखो पयर = प्रकर (नाट–वेणी ७२)।
बनाना । २ संकल्प करना: 'वास वयं वित्ति पंसुल पुं [पांसुल] १ पुंश्चल, परस्त्री-लम्पट
पकप्पयामों' (सूम २, ६, ५२)।
पकरणया स्त्री [प्रकरणता] करण, कृति (गा ५१०; ५९६)। २ वि. धूलि-युक्त
(भग)। पकप्प पुं[प्रकल्प] १ उत्कृष्ट प्राचार, उत्तम (गउड)। माचरण (म ४, ३)। २ अपवाद, बाधक
पकहिअ वि [प्रकथित] जिसने कहने का पंसुला स्त्री [पांसुला] कुलटा, व्यभिचारिणी नियम (उप ६७७ टी निघू१)। ३ अध्ययन
प्रारम्भ किया हो वह (उप १०३१ टी वसु)। बी (कुमा)।
विशेष: 'पाचारांग सूत्र का एक अध्ययन । पकाम न [प्रकाम] १ प्रत्यर्थ, अत्यन्त (णाया पंसुलिस वि [पांसलित] धूलि-युक्त किया
४ व्यवस्थापन: 'अट्ठावीसविहे मायारपकप्पे १, १, महा; नाट-शकु २७)। २ पुं. हुमाः 'पंसुलिप्रकरण (गउड)।
(सम २८)। ५ कल्पना। ६ प्ररूपणा । ७ प्रकृष्ट प्रभिलाष (भग ७,७)। पंसुलिआ श्री [दे. पांशुलिका पात्र की विच्छेद, प्रकृष्ट छेदन (निचू १)। जैन पकाव (मप) सक [पच् ] पकाना । पकावउ हड्डी (पव २५३)।
साधुषों का एक प्रकार का माचार स्थविर- (पिंग: पि ४५४)।
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