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पञ्चइय-पञ्चप्पिण पाइअसहमहण्णवो
५०७ पञ्चइय वि [प्रत्ययिक] १ विश्वासी, विश्वास- पञ्चरखाणि वि [प्रत्याख्यानिन् त्याग की पञ्चणीय वि [प्रत्यनीक] विरोधी, प्रतिपक्षी, वाला (गाया १, १२) । २ ज्ञानवाला, प्रतिज्ञा करनेवाला (भग ६, ४)।
दुश्मन (उप १४६ टी; सुपा ३०७)। प्रत्ययवाला । ३ न. ध त-ज्ञान, प्रागम-ज्ञान पश्चक्खाणी स्त्री [प्रत्यख्यानी] भाषा-विशेष, पञ्चणुभव सक [प्रत्यनु + भू] अनुभव (विसे २१३६)। प्रतिषेधवचन (भग १०, ३)।
करना । वकृ. पञ्चणुभवमाण (णाया १, पञ्चइय वि [प्रत्ययित विश्वासवाला, विश्व
पञ्चक्खाय वि [प्रत्याख्यात] त्यक्त, छोड़ २)। स्त (महाः सुर १६, १६६)।
दिया हया (णाया १,१: भगः कप्प)। पञ्चणहो देखो पञ्चणुभव । पच्चाहोइ (उत्त
पञ्चक्खायय वि [प्रत्याख्यायक] त्याग पञ्चइय वि [प्रात्ययिक] प्रत्यय से उत्पन्न,
१३, २३)। करनेवाला, 'भत्तपच्चक्खायए' (भग १४, ७)। पञ्चत्त वि[प्रत्यक्त] जिसका त्याग करने का प्रतीति से संजात (ठा ३, ३-पत्र १५१)।
पञ्चक्खाव सक [प्रत्या + ख्यापय् ] पञ्चंग न [प्रत्यङ्ग] हर एक अवयव (गुण
प्रारम्भ किया गया हो वह (उप ८२८) । त्याग कराना किसी विषय का त्याग करने १५; कप्पू)।
पञ्चत्तर न दे] चाटु, खुशामद (दे ६, २१)।
की प्रतिज्ञा कराना । वकृ. पञ्चक्खाविंत पञ्चंगिरा स्त्री [प्रत्यङ्गिरा] विद्यादेवी-विशेष,
पञ्चत्थरण न [प्रत्यास्तरण] बिछौना (पि (प्राव ६)। 'ईसिवियसंतवयणा पभणइ पच्चंगिरा प्रह
२८५)। देखो पल्हत्थरण। | पञ्चक्खि वि [प्रत्यक्षिन् प्रत्यक्ष ज्ञानवाला विजा' (सुपा ३०६)। (वव १)।
पञ्चत्थि वि [प्रत्यर्थिन] प्रतिपक्षी, विरोधी, पञ्चंत पु [प्रत्यन्त] १ अनार्यदेश (प्रयो । पञ्चक्खिय देखो पञ्चक्खाय (सुपा ६२४)।
दुश्मन (उप १०३१ टी पामः कुप्र १४१)।
रमन १६) । २ वि. समीपस्थ देश, संनिकृष्ट प्रान्त
पञ्चक्खीकर सक [प्रत्यक्षी+] प्रत्यक्ष | पञ्चस्थिम वि [पाश्चात्य, पश्चिम] १ पश्चिम भाग (सुर २, २००)।
करना, साक्षात् करना। भवि. पञ्चक्खीक- दिशा तरफ का, पश्चिम का । २ न. पश्चिम पञ्चंतिग देखो पञ्चंतिय = प्रत्यन्तिक (प्राचा रिस्सं (अभि १८८)।
दिशाः 'पुरथिमेणं लवरणसमुद्दे जोयणसाह२, ३, १, ५)।
पञ्चक्खीकिद (शौ) वि[प्रत्यक्षीकृत] प्रत्यक्ष स्सियं खेत्तं जाणइ, पासइ एवं दक्खिणेणं, पञ्चंतिय वि [प्रत्यन्तिक] समीप-देश में किया हुमा, साक्षात् जाना हुमा (पि ४६)। | पच्चत्थिमेणं' (उवा भगः प्राचा, ठा २,३) । स्थित (उप २११ टी)।
पञ्चक्खीभू अक [प्रत्यक्षी + भू] प्रत्यक्ष पञ्चत्थिमा स्त्री [पश्चिमा] पश्चिम दिशा पञ्चंतिय वि [प्रात्यन्तिक] प्रत्यन्त देश से | होना, साक्षात् होना । संकृ. पञ्चक्खीभूय (ठा १०-पत्र ४७८ प्राचा)। प्राया हुआ (धम्म ६ टी)। (भावम)।
पञ्चस्थिमिल्ल वि [पाश्चात्य पश्चिम दिशा पञ्चक्ख न [प्रत्यक्ष १ इन्द्रिय प्रादि की पञ्चक्खेय देखो पञ्चक्खा।
का (विपा १, ७: पि ५६५, ६०२)। सहायता के बिना ही उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पञ्चग्ग वि [प्रत्यग्र] १ प्रधान, मुख्य (स पञ्चत्थिमुत्तरा स्त्री [पश्चिमोत्तरा] पश्चिमोत्तर (विसे ८९)। २ इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला २४)। २ श्रेष्ठ, सुन्दर (उप ६८६ टी; सुर दिशा, वायव्य कोण (ठा १०-पत्र ४७८)। ज्ञान (ठा ४, ३)। ३ वि. प्रत्यक्ष ज्ञान का १०, १५२) । ३ नवीन, नया (पाम)। | पञ्चत्थुय वि [प्रत्यास्तृत] माच्छादित, ढका विषयः ‘पञ्चक्खायो अणंगो एगो तरुणो पञ्चच्छिम देखो पञ्चत्थिम (राजा ठा २, हुमा (पठम ६४; ६६; जीव ३) । २ महाभागों (सुर ३, १७१)। ३-पत्र ७६)।
बिछाया हुआ (उप ६४८ टो)। मञ्चक्ख । सक [प्रत्या + ख्या] त्याग पञ्चच्छिमा देखो पञ्चत्थिमा (राज)।
पञ्चद्ध न [पश्चाध] पिछला आघा, उत्तराधं पञ्चक्खा करना, त्याग करने का नियम पञ्चच्छिमिल्ल वि [पाश्चात्य] पश्चिम दिशा | (गउड)। करना । पचक्खाइ (भग)। बक. पञ्चक्ख- में उत्पन्न, पश्चिम दिशा-सम्बन्धी (सम ६६; पञ्चद्धचक्कवट्टि [प्रत्यर्धचक्रवर्तिन] वासुमाण, पञ्चक्खाएमाण (पि ५६१, उवा । पि ३६५)।
देव का प्रतिपक्षी राजा, प्रतिवासुदेव (ती संकृ. पञ्चक्खाइत्ता (पि ५८२) । कृ. पञ्चच्छिमुत्तरा देखो पञ्चत्थिमुत्तरा (राज)। ३)। पञ्चक्खेय (प्राव ६)।
पञ्चड अक [क्षर ] झरना, टपकना । पञ्चडइ पञ्चप्पण न [प्रत्यर्पण] वापस देना, लौटा पञ्चक्खाण न [प्रत्याख्यान] १ परियाग | (हे ४, १७३) । वकृ. पञ्चडमाण (कुमा)। देना (विसे ३०५७)। करने की प्रतिज्ञा (भगः उवा)। २ जैन पञ्चड्डु सक [गम् ] जाना, गमन करना। पच्चप्पिण सक [प्रति + अर्पय] . ग्रन्थांश-विशेष, नववाँ पूर्व-ग्रन्थ (सम २६)।३ । पच्चडुइ (हे ४, १६२)।
वापस देना, लौटाना। २ सौंपे हुए कार्य को सर्व सावद्य-निद्य कर्मो से निवृत्ति (कम्म १, पञ्चड्डिअ वि [क्षरित] झरा हुमा, टपका | करके निवेदन करना । पच्चप्पिणइ (कप्प)। १७) । वरण पुं[वरण कषाय-विशेष, - हुमा (हे २, १७४)।
कम. पच्चप्पिणिजइ (पि ५५७)। वकृ. सावद्य-विरति का प्रतिबन्धक क्रोध-प्रादि पञ्चड्डिया स्त्री [दे. प्रत्यड्डिका] मल्लों का एक पच्चप्पिणमाण (ठा ५, २-पत्र ३११)। (कम्म १, १७)।
प्रकार का करण (विसे ३३५७) । संकृ. पच्चप्पिणित्ता (पि ५५७)।
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