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पउज्ज
देखो पउंज।
पइसार-पउम पाइअसहमहण्णवो
४६५ पइसार सक [प्र + वेशय् ] प्रवेश कराना। पउंजग वि [प्रयोजक] प्रेरक, प्रेरणा करने- सच्चरणविहाणं जायइ परिणदियाणंपि' (सुपा पइसारइ (भवि)। वाला (पंचव १)।
४७२; महा) । २ तैयार, तय्यार (दंस ३)। पइसारिय वि [प्रवेशित] जिसका प्रवेश पउंजग वि [प्रयोजन प्रयोग करनेवाला | पउणाड पुं [प्रपुनाट] वृक्ष-विशेष, पमाड कराया गया हो वह, 'पइसारियो य नरि' । (पउम १४, १०)। देखो पओअण। का पेड़, चकवड़ (दे ५, ५ टि)। (महा: भवि)। पउंजणया)नी [प्रयोजना] प्रयोग (प्रोष
पउत्त प्रक[प्र+ वृत् ] प्रवृत्ति करना । कृ. पइहंत पुं दे] जयन्त, इन्द्र का एक पुत्र | पउंजणा ११४); 'दुक्खं कीरह कवं' । पात्तदव्य (शो) (नाट-शकू ८७)।
कब्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं' (वज्जा २)। पउत्त वि [प्रयुक्त] जिसका प्रयोग किया पइहा सक [प्रति + हा त्याग करना। पउंजिअ विप्रयुक्त जिसका प्रयोग किया
| गया हो वह (महाः भवि)। २ न. प्रयोग संकृ. पइहिऊण (उव)।
(णाया १. १)। गया हो वह (सुपा १४०; ४४७) । पई देखो पइ = पति (षड्; हे १, ४ सुर पउंजित्त वि[प्रयोक्त] प्रवृत्ति करनेवाला !
पउत्त पु[पौत्र] लड़के का लड़का, पोता १,१७६)।
(प्राकृ १० श्रु ११७)। (ठा ५, १)। पईअ वि [प्रतीत] १ विज्ञात । २ विश्वस्त।
पउत्त न [प्रतोत्र] प्रतोद, प्राजन, चाक, पैना पउंजित्तु वि [प्रयोजयितु] प्रवृत्ति करनेवाला
(दसा १०)। ३ प्रसिद्ध, विख्यात (विसे ७०६)। (ठा ५, १)।
पउत्त वि [प्रवृत्त जिसने प्रवृत्ति को हो वह पईअ न [प्रतीक] अंग, अवयव (रंभा)।
(उवा)। पईइ स्त्री [प्रतीति] १ विश्वास । २ प्रसिद्धि पउज्जमाण ।
पउत्ति श्री [प्रवृत्ति] १ प्रवर्तन (भग १५)। (राज)। पउट्ट प्र[परिवृत्य मार कर । परिहार |
२ समाचार, वृत्तान्त (पानः सुर २, ४८ पईव देखो पलीव । पईवेइ (कस)। [परिहार] मर कर फिर उसी शरीर में
३, ८४) । ३ कार्य, काज, काम । वाउय वि पईव पुं [प्रदीप] दीपक, दिया (पामः उत्पन्न होकर उस शरीर का परिभोग करना,
[°व्यापृत कार्य में लगा हुमा (प्रौप)। जी १)। ‘एवं खलु गोसाला ! वरणस्सइ-काइयानो पउट्ट
पउत्ति स्त्री प्रियुक्ति बात, हकीकत (उप परिहारं परिहरति' (भग १५---पत्र ६६७)। पईव वि [प्रतीप] १ प्रतिकूल (हे १,
पृ २२८ राज)। २०६) । २ पुं. शत्रु, दुश्मन (उप ६४८ टी; पउट्ट वि [परिवर्त] १ परिवर्त, मर कर
पउत्तिदश्य देखो पउत्त -प्र+वृत् । हे १, २३१)। फिर उसी शरीर में उत्पन्न होना । २ परिवतं
पउत्तु [प्रयोक्त] १ प्रयोगकर्ता । २ प्रेरणा पईस (अप) देखो पइस । पईसइ (भवि)। वाद; 'एस ण गोयमा ! गोसालस्स मंखलि
कर्ता । ३ कर्ता, निर्माता। स्त्रीत्ती (तंदु पउ (अप) वि [पतित] गिरा हुआ (पिंग)। पुत्तस्स पउट्टे' (भग १५–पत्र ६६७)।।
४५)। पउअ देखो पागय = प्राकृत (प्राकृ ५)। पउ? वि [प्रवृष्ट ] बरसा हुआ (हे १,
पउत्थ न [दे] १ गृह, घर (दे ६, ६६)। पाउअ [दे] दिन, दिवस (दे६, ५)। १३१)।
२ वि. प्रोषित, प्रवास में गया हुआ; 'एहिइ पउअ न [प्रयुत] मख्या-विशेष, ‘प्रयुताङ्ग पउट्ट [प्रकोष्ठ] हाथ का पहुँचा, कलाई और |
सोवि पउत्थो अहं अ कुप्पेज्ज सोवि अणुणेज'. को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या केहुनी के बीच का भाग (पएह १, ४-पत्र
(गा १७ ६६७ हेका ३०, पउम १७, ३; लब्ध हो वह (इका ठा २, ४)। ७८ कप्पः कुमा)।
वजा ७६, विवे १३२, उवः दे ६, ६६; पउअंग न [प्रयुताङ्ग] संख्या-विशेष, 'प्रयुत' पउट्ठ वि [प्रजुष्ट] १ विशेष सेवित । २ न.
भवि)। वइया स्त्री [पतिका] जिसका को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या अति उच्छिष्ट (चंड)।
पति देशान्तर गया हो वह स्त्रो (मोघ ४१३; लब्ध हो वह (ठा २, ४)। पउ? वि [प्रद्विष्ट] द्वेष-युक्त 'तो सो पउट्ठ
सुपा ५०८)। चित्तो (सुपा ४७५)। पउंज सक [प्र+ युज्] १ जोड़ना, युक्त
पउद्दव्य देखो पउंज। पउढन [दे] १ गृह, घर। २ पुं. घर का करना। २ उच्चारण करना। ३ प्रवृत्त
पउप्पय देखो पओप्पय (भग ११, ११ टी)। करना। ४ प्रेरणा करना। ५ व्यवहार पश्चिम प्रदेश (दे ६, ४)।
पउप्पय देखो पओप्पय-प्रपौत्रिक (भग करना । ६ करना । पउंजइ (महा; भविः पि
पउण अक [प्रगुणय] तन्दुरुस्त होना, ११, ११ टी)। ५०७)। पति (कप्प)। वकृ. पउंजंत,
नीरोग होनाः 'अन्नस्स चिगिक्छाए पउणइ | पउम न [पद्म] १ सूर्य-विकासी कमल (हे पउंजमाण (प्रौप; पउम ३५, ३६) । कवकृ. प्रन्नो न लोगम्मि' (धर्मसं ११८४)।
२, ११३; पएह १, ३; कप्प; औपः प्रासू पउज्जमाण (प्रयौ २३)। कृ. पउंजिअव्त्र, पउण पु[दे] १ व्रण-प्ररोह । २ नियम- | ११३)। २ देव-विमान-विशेष (सम ३३ पउज्ज (पएह २, ३, उप ७२८ टी विसे विशेष (दे ६, ६५)।
३५) । ३ संख्या-विशेष; 'पद्मांग को चौरासी ३३८४), पउद्दव्य (अप) (कुमा)। पउण वि [प्रगुण] १ पटु, निर्दोष; 'कह लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह
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