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(२७) करण [करण] संयम का न मूल और उत्तर गुण ( सून १, १ सम्म १४)*करण[करणानुयोग] संयम के मूल और उत्तर गुणों की व्याख्या (नि १५) कुसील [° कुशील] चारित्र को मलिन करनेवाला साधु, शिथिलाचारी
साधु (२)
[न] किया को
मुख्य माननेवाला मत (प्राचा) । मोह पुंन [ मोह ] चारित्र का प्रावारक कर्म-विशेष ( कम्म १ ) ।
चरम वि [चरम ] १ अन्तिम अन्त का, पर्यन्तवर्त्ती (ठा २, ४, भग ८, ३० कम्म ३, १७४, १६ १७ ) । २ अनन्तर भव में मुक्ति पानेवाला । ३ जिसका विद्यमान भव अन्तिम हो (वा २, २) काल [काल] मरणसमय (पंचव ४) । जलहि [ जलधि] अन्तिम समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्र ( लहु २ ) । चरमंत [चरमान्त] रूप से धन्तिम सम से प्रान्त वर्त्ती (सम ६६ ) ।
चरय देखो चरग (औप गाया १, १५) । चरि पुंस्त्री [चरि ] १ पशुओं को चरने की जगह । २ चारा, पशुओं को खाने की चीज, घास ( कु १७)
चरिगा देखी चरिया रिका (राज) 1 चरित न [ चरित्र ] १ चरित, आचरण । २ व्यवहार (भवि प्रासू ४० ) । ३ स्वभाव, प्रकृति (कुमा)
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चरितन [ चरित्र ] जीवन-कथा, जीवनी, [कहानी] (सम्म १२० ) -- चरित न [ चारित्र ] संयम, विरति, व्रत, नियम (ठा २, ४४, ४ भग) कप पुं [कल्प ] संयमानुष्ठान का प्रतिपादक ग्रन्थ (पंचभा) | मोहन [मोह ] कर्म-विशेष, संयम का प्रावारक कर्म (भग) | मोहणिज न [ मोहनीय] वही पूर्वोक्त श्रथ (ठा २, ४) ५ | चरित्त न [चारित्र] आंशिक संयम, धावक-धर्म (पडि भग, २) 1
यार [चार] संयम का अनुष्ठान (ड) रिय[] चारित्र से चार्थ विशुद्ध चारवाला, साधू, मुनि (पण १)
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पाइअसहमण्णवो
चरित्ति श्री [चारित्रिम]] संयमवावा, साधु, मुनि ( उप ६६९ पंचव १) । चरिम देखो चरम (१,१००
२४)
चरि
(सुपा ५२८ ) IV
परियन [चरित]
चेष्टित, प्राचरण
।
।
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( प प्रा ६) २ जीवनी, जीवन-चरित (सुपा २) ३ चरण-ग्रन्थ (सुवा ६५८) ४ सेवित, श्राश्रित (पह १, ३) चरिया स्त्री [चरिका] १ परिब्राजिका, संन्यासिनी ( ओघ ५८ ) । २ किला और नगर के बीच का मार्ग (सम १३७; पण १, १ ) घरिया श्री [चर्या] १ मार 'दुक्करपरिया विराम १४ १५२ ) । २ गमन, गति, विहार (सूत्र १,१, ४) ३ गाड़ी (माया० पत्र ११ वा. १८) चरीया देखो चरिया = चर्या; 'तरणफासो परीयाकार जोगमू' (पंच ४,२०) [च] पाली-विशेष पार-विशेष (श्रीपः भवि
[ चरक ] चर-पुरुष, जासूस, दूत
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चरुगण देखो चारुइणव (एक) - चरल्लेव ३, [[व] [] नाम माया (दे १६) चल सक [ चल् ] १ चलना, गमन करना । २ प्रक. काँपना, हिलना । चलइ ( महा; गउड)। वकृ. चलंत, चलमाण (गा ३५६६ र ३४० ) हे चलिडं (गा ४८४) । प्रयो, संकृ. चलइत्ता (दस ५, १ ) चल वि [चल] १ चंचल, अस्थिर ( स ४२० ; वजा ६६ ) । २ पुं. रावण का एक सुभट ( पउम ५६, ३९ ) 1 चच[च] १ चंचल, पस्विर वि[चलचल 'चलचलयको डिमोडणकराईं नयरलाई तरुगी' ( वज्जा ६० ) । २ पुं. घी में तली जाती हुई चीज का पहला तीन धान ( निचू ४) । चल
[चरण] पवि, पैर, पाद सौप से ६, १३) ५५ मालिया स्त्री [मालिका ] पैर का श्राभूषण-विशेष (पराह २, ५३ श्रीप) । "बंदण न [वन्दन] पैर पर सिर झुका कर प्रणाम, प्रणाम- विशेष (पउम २०६) ।
८,
चरम - चव
[चलन] चलना, गति, चाल, प्रथा, रिवाज ( से ६, १३) ।
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चलणा स्त्री [ चलना] १ चलन, गति । २ कम्प हिलन (भग १२, ९)
१ पुं
चलणाउह पुं [ चरणायुध] कुक्कुट, मुर्गा (दे ३, ७) ।
चळणाओ
(षड् ) ।
चलणिवा श्री [चलनिका] नीचे देखो घोष
६७६) ।
[दे चरणायुध] ऊपर देखी
चलगिया) स्त्री [चलनिका, 'नी] जैन चलणी साध्वियों को पहनने का कटि
वस्त्र (पव ६२ ) ।
चलणी स्त्री [ चलनी ] १ साध्वियों का एक उपकरण (प्रोध ३१५ भा) । २ पैर तक का कीच ( जीव ३ भग ७, ६) 1 चल १०२, ६) चलाचल
[दे] पटपटाई, पंचलता (पम
(पउम ११२, ९) । पलिंदिय[]
[चाच] पं परिवर
करने में श्रसमर्थ, जिसकी इन्द्रियां काबू में न हो वह (प्राचा २, ५, १ ) चलिअन [च] विकलता, घ १ स्थेयं, चंचलता ( पाच ) । २ वि. चला हुआ, कम्पित (धान)३ प्रवृत (पाम घोप) ४ विनष्ट ( धम्म २ ) । -
परि वि [चलित ] चलनेवाला परिवर चपल, चंचल चलिरभमराली' (उप १८६३ सुपा ७६६ २५७ स ४१ ) । चल्ल देखो चल = चल् । चल्लइ (हे ४, २३१; षड् )
चढण न [दे] जयनांशुक कटियन (प)। चल्लि स्त्री [दे] नाचते समय की एक प्रकार की गति (पू)
चल्लि स्त्री [दे] मदन - वेदना ( संक्षि ४७) । बहिअ देखो चलिज र २१ ५०) 1
चत्र सक [ कथय् ] कहना, बोलना । चवइ (हे ४, २) कर्म, पवित्र (कुमा) वह चवंत (भवि ) ।
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