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चमरी - चरण
["पारिणी] चागर बीजने या डीलानेवाली स्त्री (सुपा ३३ सुर १०, १५७)
चमरी श्री [चमरी] चमर-यशु की मादा, मुरही गाय से ७, ४८ स ४४१; श्रौपः महा) ।
चमस न [चमस] चमचा, कलछी दव ( श्रपः महा) ।
चमुक्कार पुं [चमत्कार ] १ आश्चर्य, विस्मयः 'पेच्छागयसुर किन्नर चित्तचमुक्कारकारयं (सुर १३. ε७) । २ बिजली का प्रकाशः 'ताव य विचारवंतर पंडो' (सुर २, ११०) ।
पाइअसद्दमद्दण्णवो
चम्मटुअ धक [ चर्मयष्टीय् ] धर्म-यष्टि | की तरह प्राचरण करना । वकृ. चम्मट्ठिअंत (कप्पू) 1
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चम्म
( परह १, १ )
[यम्मार २६८८ ) ।
[ चर्मास्थिल ] पति-विशेष
चम्मारय पुं [ चर्मकारक ] ऊपर देखो
( प्राप) 1
[चर्मकार ] चमार, मोची (विसे
चम्मियन [ चर्मित ] चर्म से बँधा धर्म-वेष्टित (श्रीप)।
चम्मे पुं [ चर्मेष्ट] प्रहरण-विशेष, चमड़े से वेष्टित पाषाणवाला आयुध ( परह १, १ ) 1
चमू श्री [ चमू] सेना, सैन्य, लश्कर (श्रावम)। २ सेना-विशेष, जिसमें ७२१
हाथी, ७२६ रथ, २१८७ घोड़े और ३६४५ पैदल हों ऐसा लश्कर (पउम ५६, ६) 1 चम्मन [ धर्मन् ] द्याल, त्वक्, चमड़ा, खाल (हे १, ३२ स्वप्न ७० प्रासू १७१ ) "किड व ["किट] चमड़े से सीमा हुआ (भग १२, ९) कोस, कोसय [कोश, । पुं ° ] १ चमड़े का बना हुआ थैला २ एक तरह का चमड़े का जूता (घोष ७२८ श्राचा २, २, ३) 'कोसिया श्री [" कोशिका ] चमड़े की बनी हुई थैली (म २२ डि[ खण्डिक] १ चमड़े का परिधानवाला । २ सब उपकरण चमड़े का ही रखनेवाला (खाया १, १५)
वि [क] चमड़े का बना हुआ चय (२२) पक्सि [पक्षिन ] चमड़े की पाखवाला पक्षी (ठा ४, ४ – पत्र २०१)। [] चमड़े का पट्टा व (विपा १, ६) पाय न ['पात्र ] चमड़े का पात्र ( आचा २, ६, १) । यर
चय पुं [ च्यव] व्यव, जन्मान्तर- गमन ( ठा ८ कप्प ) 1
[कर ] मोची, चमार ( स २०६६ दे २, ३७) रयण न ["रत्न] चक्रवर्ती का रत्न - विशेष, जिससे सुबह में बोये हुए शालि उसी दिन पक कर खाने योग्य हो जाते हैं पर २१२) क्ख पुं [वृक्ष] चयण न [चयन] इकट्ठा करना (पव २)। विशेष (भग ३)+ २ ग्रहण, उपादान (ठा २, ४) । चम्मट्ठि स्त्री [चर्मयष्टि ] चमं-मय यष्टि, चमं चयण न [त्यजन] त्याग, परित्याग (सट्ठि दण्ड, चमड़ा लगी हुई घड़ी (कम्यू
३)
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चम्मेगी [चर्मेष्टक] शख-विशेष (राय २१) स्त्री. गा (अरण १७५)
चय
चय सक [ त्यज् ] छोड़ना, त्याग करना । चयइ (पान हे ४, ८६ )। कर्म. चइज्जइ ( उव) । वकृ. चयंत (सुपा ३८८ ) । संकृ. चइअ, चइउं, चिश्चा, चइऊण, चइत्ता, पत्ताणं चन्तु (कुमा उत्त १० महा उवा उत्त १ ) । कृ. चइयव्व (सुपा ११६ ४०५; ५२१) । - चय सक [ शकू ] सकना, समर्थ होना । चयइ (हे ४, ८६ ) । वकृ. चयंत (सूत्र १, ३, ३ से ६, ५० ) 1
२) ।
चय प्रक [च्यु] मरना, एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना । चयइ (भवि ), चयंति (भग) । वक्क. चयमाण (कप्प) । चय पुं [चय ] १ शरीर, देह ( विपा १, १ उवा) । २ समूह, राशि, ढेर (विसे २२१६; सुपा ५७१६ कुमा) । ३ इकट्ठा होना (अणु) । ४ वृद्धि ( श्राचा)
[च] ईटों की रचना-विशेष (पिड
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चयणन [भववन] १ मरण जन्मान्तर-मन (ठा १ – पत्र १९ ) । २ पतन, गिर जाना । * कप पुं [कल्प ] १ पतन - प्रकार, चारित्र वगैरह से गिरने का प्रकार । २ शिथिल साधुयों का विहार (गच्छ १ ; पंचभा) M चयणन [च्यवन] युति, प्रश, क्षय (नंदु 88)1~
चरस [ चर्] १ गमन करना, चलना, जाना । २ भक्षरण करना। ३ सेवना । ४ जानना । चरइ ( उव महा) । भूका चरिंसु ( गउड ) । भवि चरिस्सं ( प १७३) । वकृ. चरंत, चरमाण ( उत्त २: भगः विपा १, १ ) । संह चरित्र, चरिऊन (नाट १० श्रावम) । हेक. चरिडं, चारए (श्रोध ६५० क) कृ. चरित्र (भाग १, ३३) प्रयो चारियन्त्र ( पण १७ – पत्र ४९७) । चर [चर] रामन गति २
(सा भाव दूत, जासूस (पाथ भवि चर [र] जंगम प्राणी (२४) । 'चर वि [°चर] चलनेवाला ( श्राचा) Iv चरती श्री [चरन्ती] जिस दिशा में भगवान् जिनदेव वगेरह ज्ञानी पुरुष विचरते हों वह (याव १)
चरग पुं [चरक] १ देखो चर = चर । २ संन्यासियों का भुड विशेष बंध घूमने वाले त्रिदण्डियों की एक जाति (भगः गच्छ २) । ३ भिक्षुकों की एक जाति (परण २०) । ४ दंशमशकादि जन्तु (राज) । V चरचरात्री [चरचरा ] 'चर-चर' श्रावाज ( स २५७) ।
चरड पुं [चरट] लुटेरे की एक जाति (धम्म १२ टी सुपा २३२३ ३३३) । चरण पुंग [चरण] १ संयम, पारिका 'सम्म धनाराचरणा पत्ते अटुमटुमेला' (संबोध २२) २ माचरण (सुमन १२४) । चरण न [ चरण] १ संयम, चारित्र, व्रत, नियम (ठा ३, १ श्रघ २३ विसे १) । २ चरना, पशुओं का तृणादि-भक्षरण (सुर २, ३) । ३ पद्य का चौथा हिस्सा (पिंग ) । ४ गमन, बिहार (दि १,१०,२५ सेवन, आदर ( जीव २) । ६ पाद, पाँव
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