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इक)।
पाइअसद्दमहण्णवो
खउड-खंडावत्त खउड पु[खपुट] स्वनाम-प्रसिद्ध एक जैना- तुरियं तुरयं मा खंच मुंच मुकलयं' (सुपा पृथक्करण, पटके हुए घड़े की तरह पृथग्भाव चार्य (प्रावम; आचू)। १९८)।
(भग ५, ४)। मल्लय पुंन [ मल्लक भिक्षाखर प्रक[क्षुभ् ] १ क्षुब्ध होना, डर से खंचिंय वि [कृष्ट] १ खींचा हुआ (स ५७४)। पात्र (पाया १, १६) । सो प्र[शस् ] विह्वल होना। २ सक. कलुषित करना । | २ वश में किया हुआ (भवि)।
टुकड़ा-टुकड़ा, खण्ड-खण्ड (पि ५१६) । खउरइ (हे ४, १५५ कुमा); 'खउरेंति खंज प्रक[ख] लंगड़ा होना (कप्पू)। "भेिय देखो भेय (ठा १०)। धिइग्गहणं' (से ५, ३)।
खंज वि [ख] लंगड़ा, पंगु, लूला (सुपा खंड न [दे] १ मुण्ड, शिर, मस्तक । २ ख उर वि [दे] कलुषित, 'दरदडविवरणविद्दु२७६)।
दारू का बरतन, मद्य-पात्र (दे २,६८)। मरप्रक्खउरा' (से ५, ४७; स ५७८)। खंजन [खा] गाड़ी में लोहे के डंडे के पास
खंडई स्त्री [दे] असती, कुलटा (दे २, ६७) । बांधा जाता सण आदि का गोल कपड़ाखउर न [क्षौर] क्षौर-कर्म, हजामत (हेका
खंडग पुन [खण्डक] चौथा हिस्सा (पव जो तेल आदि से भीजाया हुआ रहता है, बि१८६)।
डाः 'खजंजरणनयरगनिभा' (उत्त ३४,४)। खउर पुन [खपुर] खैर वगैरह का चिकना रस, गोंद (बृह ३; निचू १६) । कढिणय खंजण पु [खञ्जन] राहु का कृष्ण पुद्गल
खंडग न [खण्टक] शिखर-विशेष (ठा है; विशेष (सुज्ज २०)। न [कठिनक] तापसों का एक प्रकार का खंजण पु[खञ्जन] १ पक्षि-विशेष, खजरीट
खंडण न [खण्डन] १ विच्छेद, भजन, नाश पात्र (विसे १४६५)।
(गाया १, ८)। २ कण्डन, धान्य वगैरह का (दे २,७०)। २ वृक्ष-विशेष; 'ताडवडखजखंखउरिअ वि [क्षुब्ध] कलुषित (पाअ; बृह जरणसुक्खयरगहीरदुक्खसंचारे' (स २५६)।
छिलका अलग करनाः 'खंडणदलणाई गिह
कम्मे (सुपा १४)। ३ वि. नाश करनेवाला, खरिअ विक्षौरित] मुण्डित, लुश्चित, केशखंजण पु[दे] १ कदम, कीचड़ (दे २,६६
नाशक (सुपा ४३२)। रहित किया हुआ (से १०, ४३) । पाप्र)। २ कजल, काजल, मषी (ठा ४,२)।
खंडणा स्त्री [खण्डना] विच्छेद, विनाश
३ गाड़ी के पहिए के भीतर का काला कीच ख उरिअ वि [खपुरित खरण्टित, चिपकाया
(कप्पू; निचू १)। (पएण १७-पत्र ५२५) । हुआ (निचू ५)।
खंडपट्ट खण्डपट्ट] १ द्यूतकार, जूमारी खरीकय वि [खपुरीकृत] गोंद वगैरह की खंजर पु[दे] सूखा हुप्रा पेड़ (दे २, ६८)।
। (विपा १, ३) । २ घूर्त, ठग । ३ अन्याय से तरह चिकना किया हुआ खंजा स्त्री [खा] छन्द-विशेष (पिंग)।
व्यवहार करनेवाला (विपा १,३) । 'कलुसीको य किट्टीको य
खंजिअ वि [खञ्जित] जो लंगड़ा हुआ हो, खंडरक्ख ' खण्डरक्ष] १ दाण्डपाशिक, खउरीको य मलिरिणयो। पंगूभूत (कप्पू)।
कोतवाल (गाया १, १, पएह १, ३, प्रौप)। कम्मेहि एस जीवो, नाऊरणवि खंड सक [खण्डय ] तोड़ना, टुकड़ा करना,
२ शुल्कपाल, चुंगी वसूल करनेवाला (गाया मुज्झई जेरण' (उव)। विच्छेद करना । खंडइ (हे ४, ३६७) । कवकृ
१, १; विसे २३६०; प्रौप)। खओवसम पुक्षयोपशम] कुछ भाग का
खंडिज्जत (से १३, ३२; सुपा १३४) । हेकृ.
खंडव न [खाण्डव] इन्द्र का वन-विशेष, विनाश और कुछ का दबना (भग)। खंडित्तए (उवा)। कृ. खंडियव्य (उप
जिसको अर्जुन ने जलाया था (नाट–वेणी खओवसमिय वि [क्षयोपशमिक] १ क्षयो६२८ टी)।
११४)। खंड [खण्ड] एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६)। पशम से उत्पन्न, क्षयोपशम-संबन्धी (सम कब न ["काव्य] खोटा काव्यग्रन्थ
खंडा स्त्री [खण्ड] मिस्री, चीनी, शकर, खांड़ १४५, ठा २, १; भग)। २ पुंन. क्षयोपशम (सम्मत्त ८४)।
(ोघ ३७३)। (भगः विसे २१७५)। खंड (अप) देखो खग्ग; 'सुंडीरहं खंडइ वसइ
खंडा स्त्री [खण्डा] इस नाम की एक विद्याधरखंखर पुं [] पलाश-वृक्ष (ती ५३)। लच्छी (भवि)।
कन्या (महा)। खंगार खङ्गार] राजा खेगार, विक्रम की खंड पुंन [खण्ड] १ टुकड़ा, अंश, हिस्सा
खंडाखंडि प्रखण्डशस् ] टुकड़ा-टुकड़ा। बारहवीं शताब्दी का सौराष्ट्र देश का एक (हे २, ६७ कुमा)। २ चीनी, मिस्री (उर
खण्डखण्ड (उवा; णाया १,६)। डीकय भूपति, जिसको गुजरात के राजा सिद्धराज
वि [कृत] टुकड़ा-टुकड़ा किया हुआ (सुर ने मारा था (ती ५)। गढ पुं [गढ] 'छक्खंड-' (सण)। घडग पु[ घटक] १६, ५६)। नगर विशेष, सौराष्ट्र का एक नगर, जो आज
भिक्षुक का जल-पात्र (णाया १, १६)। खंडामणिकंचण न [खण्डामणिकाञ्चन] कल 'जूनागढ़' के नाम से प्रसिद्ध है (ती २)। पवाया स्त्री [प्रपाता] वैताब्य पर्वत की। इस नाम का एक विद्याधर-नगर (इक)। खंच सक[कृष् ] १ खींचना । २ वश में एक गुफा (ठा २, ३)। भेय पु[ भेद] खंडावत्त न [खण्डावर्त इस नाम का एक करना। खंचइ (भवि); 'ता गच्छ तुरिय- विच्छेद-विशेष, पदार्थ का एक तरह का , विद्याधरनगर (इक)।
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