________________
खण-खमा पाइअसद्दमहण्णवो
२७१ खणेत्तु (भाचा)। कवकृ. खन्नमाण (पि | खण्णु देखो खाणु ( दे २, ६६ षड्)। (ोघ ३०७ ठा ३, ४)। ४ प्र. शीघ्र, ५४०)।
खण्णुअ ' [दे. स्थाणुक] कोलक, खोटी, | जल्दी (प्राचा २, १, ६)। दाणि वि. खण पुं [क्षण] काल-विशेष, बहुत थोड़ा खूटा (दे २, ६८ गा ६४; ४२२ अ)। [दानिक समृद्ध, ऋद्धि-संपन्न (प्रोध ८६)। समय (ठा २, ५; हे २, २०; गउड, प्रासू खत्त न दे] १ खात, खोदा हग्रा (दे २, खन्न दे] देखो खण्ण (पान)। १३४)। जोइ वि [योगिन] क्षणमात्र ६६, पान)। २ शस्त्र से तोड़ा हुआ (ोघ खन्नमाण देखो खण = खन् । रहनेवाला (सूअ १, १, १)। भंगुर वि ३४०)। ३ सेंध, चोरी करने के लिए दीवाल खन्नुअ [दे] देखो खग्णुअ (पास)। [भङ्गर] क्षण-विनश्वर, क्षणिक (पउम ८, में किया हुआ छेद (उप पृ ११६; गाया १, खपुसा स्त्री [दे] एक प्रकार का जूता १०५; गा ४२३; विवे ११४)। या स्त्री १८)। ४ खाद, गोबर (उप ५६७ टी)। (बृह ३)। [दा] रात्रि, रात (उप ७६८ टी।
खगग पुं [खनक सेंध लगाकर चोरी खप्पर पुं [कपर] १ मनुष्य-जाति-विशेष, खणखग अक[ख गख गाय खण- करनेवाला (णाया १,१८)। खगण न ‘पत्ते तम्मि दसएणगेसु पवलं जे खप्पराएं खणखगखग खरण' आवाज करना। वरण- [खनन] सेंध लगाना (णाया १, १८)।
बलं' (रंभा)। २ भिक्षा-पात्र, कपाल (सुपा खणंति (पउम ३६, ५३)। वकृ. खग- 'मेह पुं['मेघ] करोष के समान रसवाला
४६५)। ३ खोपड़ी, कपाल (हे १,१८१)। क्ख गंत (स ३८४)। मेघ (भग ७, ६)।
४ घट वगैरह का टुकड़ा (पउम २०, १६६) । खगग वि [खनक ] खोदनेवाला (रणाया
खप्पर) वि [दे] रूक्ष, रूखा, निष्ठुर खत्त पु[क्षत्र] क्षत्रिय, मनुष्य जाति-विशेष
खप्पुर) (दे २, ६६ पाम)। (सुपा १६७ उत्त १२)। खणण न [खनन] खोदना (पउम ८६, ६०;
खम सक [क्षम् ] १ क्षमा करना, माफ खत्त वि [क्षात्र] १ क्षत्रिय-संवन्धी, क्षत्रिय उप पृ २२१)।
करना । २ सहन करना । खमइ (उबर ८३; का। २ न. क्षत्रियत्व, क्षत्रियपन; 'प्रहह खगय देखो खग =क्षण (पाचा उवा)।
महा)। कर्म, खमिज्जइ ( भवि)। कृ. खगय कि [खनक] खोदनेवाला (दे १, ८५)।
अखत्तं करेइ कोइ इमो' (धम्म ८ टीः | खम्मियव्व (सुपा ३०७, उप ७२८ टी
नाट)। खणाविय वि [खानित खुदाया हुआ (सुपा
सुर ४, १६७)। प्रयो. खमावइ (भवि) । खत्तय पु[दे] १ खेत खोदनेवाला। २ ४५४० महा)।
संकृ. खमावइत्ता, खमावित्ता (पडि सेंध लगाकर चोरी करनेवाला । ३ ग्रह-विशेष, काल)। कृ. खमावियव्व (कप्प)। खणि स्त्री [खनि खान, प्राकर (सुपा ३५०)। राहु (भग १२, ६)।
खम वि [क्षम १ उचित, योग्य; 'सच्चित्तो खणिक ) देखो खणिय = क्षणिक; 'सद्दाइया
खत्ति पुं [दे] एक म्लेच्छ-जाति (मृच्छ खणिग । कामगुणा खणिक्का' (थु १५२;
आहारो न खमो मरणसा वि पत्थेउ' (पच्च १५२)। धर्मसं २२८)।
५४; पा)। २ समर्थ, शक्तिमान् (दे १, खत्ति पुंस्त्री [क्षत्रिन्] नीचे देखो, ‘खत्तीण खणित्त न [खनित्र] खोदने का अस्त्र, खन्ती
१७. उप ६५०; सुपा ३)। सेटे जह दंतवक्के' (सूत्र १, ६, २२) ।
खमग पुं [क्षमक, क्षपक] तपस्वी जैन साधु खगिय वि [क्षणिक] १ क्षण-विनश्वर, खत्तिअ ' स्त्री [क्षत्रिय मनुष्य की एक जाति,
(उप पृ ३६२ प्रोघ १४०० भत्त ४४)। क्षण-भंगुर (विसे १६७२)। २ वि. फुरसत
क्षत्री, राजन्य (पिंग; कुमाः हे २, १८५;
प्रासू ८०)। कुंडग्गाम पुं [कुण्डग्राम] वाला, काम-धंधा से रहितः 'नो तुम्हे विव
खमण न [क्षपण] तपश्चर्या, बेला, तेला
आदि तप (पिंड ३१२)। अम्हे खरिणया इय वुत्तु नीहरिओ' (धम्म
नगर-विशेष, जहाँ श्रीमहावीर देव का जन्म हुआ था (भग ६, ३३)। कुंडपुर न
खमण न [क्षपण, क्षमण] १ उपवास (बृह ८ टी)। वाइ वि ["वादिन] सर्व पदार्थ
[कुण्डपुर] पूर्वोक्त ही अर्थ (आचा २, १; निचू २०)। २ पुं. तपस्वी जैन साधु को क्षण-विनश्वर माननेवाला, बौद्धमत का
१५, ४)। "विजा स्त्री [°विद्या] धनु- (ठा १०-पत्र ५१४)। अनुयायी (राज)। विद्या (सूम २, २)।
खमय देखो खमग (ओघ ५६४, उप ४८६; खणिय वि [खनित] खुदा हुआ (सुपा
खत्तिणी । स्त्री [क्षत्रियाणी] क्षत्रिय जाति भत्त ४०)।
खत्तियाणी । की स्त्री (पिंग कप्प) । खमा स्त्री [क्षमा] १ पृथिवी, भूमिः ‘उव्वूढखणी देखो खणि (पास)।
खद्द न [दे] प्रभूत लाभ (पंचा १७, २१)। खमाभारो' (सुपा ३४८)। २ क्रोध का खणुसा स्त्री [दे] मन का दुःख, मानसिक खद्ध वि [दे] १ भुक्त, भक्षित (दे २, ६७ः | प्रभाव, क्षान्ति (हे २, १८)। वइ j पीड़ा (दे २, ६८)।
सुपा ६१०; उप पृ २५२; सण; भवि)। [पति] राजा, नृप, भूपति (धर्म १६)। खण्ण न [दे] खात, खोदा हुअा (दे २, ६६ २ प्रकुर, बहुत; 'खद्धे भवदुक्खजले तरइ समण ५ [श्रमण] साधु, ऋषि, मुनि बृह ३; वव १)।
विणा नेय सुगुरुतरि' (सार्थ. ११४ दे २, (पडि) । 'हर [धर] १ पर्वत, पहाड़ । खण्ण वि [खन्य खोदने योग्य (दे २, ३६)। ६७ पव २; बृह ४)। ३ विशाल, बड़ा | २ साधु, मुनि (सुपा ३२६) ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org