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२ स्त्री-लक्षण (स्त्री के शुभाशुभ
२३१)। २ मयूर-पिच्छ (एकल जाते हैं (
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कलाइया-कल्ल पाइअसद्दमहण्णवो
२३१ की रीति) । ३२ स्त्री-लक्षण (स्त्री के शुभाशुम कलाव ( [कलाप १ समूह, जत्था (हे १, प्रासू ६०) । २ कलिंग देश का राजा (पिंग)। चिन्हों का परिज्ञान) । ३३ पुरुष लक्षण । ३४ २३१)। २ मयूर-पिच्छ (सुपा ४८)। ३ कलिंग पुं [कलिङ्ग] भगवान् शादिनाथ अश्व-लक्षण । ३५ गज-लक्षण । ३६ गो- शरधि, तूण, जिसमें बारण रक्खे जाते हैं (दे का एक पुन (तो १४)। लक्षण । ३७ कुक्कुट-लक्षण । ३८ छत्र. २, १५)। ४ कण्ठ का प्राभूषण (प्रौप)। कलिंच देखो किलिंच (गा ७७०)। लक्षण । ३६ दण्ड-लक्षण । ४० असि लक्षण। कलावगन [कलापक]? चार श्लोकों को कलिज ५ किलिस] कट, चटाई (निचू १७)। ४१ मणि-लक्षरण (रत्न-परीक्षा) । ४२ एक वाक्यता। २ ग्रीवा का एक आभरण कलिंज न [दे] छोटी लकड़ी (द २, ११) । काकणि-लक्षण (रत्न विशेष की परीक्षा)। (पएह २, ५)।
कलिंब पुन [कलिम्ब] १ बाँस का पात्र४३ वास्तुविद्या (गृह बनाने और सजाने की कलावय न [कलापक] चार पद्यों की एक विशेष, 'कलिंबो वंसकप्परो' (गच्छ २)। २ रीति) । ४४ स्कन्धावार-मान (सैन्य परि- वाक्यता (सम्मत्त १८७)।
। सूखी लकडी (भग ८,३)। माण) । ४५ नगर-मान । ४६ चार (ग्रह-चार कलावि पुंस्त्री [कलापिन्] मयूर, मोर (उप कलित्त न [कटित्र] कमर पर पहना जाता का परिज्ञान)। ४७ प्रतिचार (ग्रहों के वक्र- । ७२८ टी)।
एक प्रकार का चर्म मय कवच (पाया १, गमन वगैरह का ज्ञान, अथवा रोगप्रतीकार- कलि पंकलि] एक नरकावास (देवेन्द्र २६)।। १; औप)। ज्ञान) । ४८ ब्यूह (सैन्य रचना)। ४६ प्रतिव्यूह कलि कलि१ कलह, झगड़ा (कुमा; कलिम न [दे] कमल, पद्म (हे २, ६)। (प्रतिद्वन्द्वि व्यूह)। ५० चक्र व्यूह । ५१ गरुड- प्रासू ६४)। २ युग-विशेष, कलि युग (उप कलिमल देखो कलमल = कलकल (तंदु ४१)। व्यूह । ५२ शकट व्यूह । ५३ युद्ध (मल्ल-युद्ध) ८३३)। ३ पर्वत विशेष (ती ५४)। ४ । कलिल वि [कलिल] गहन, घना, दुर्भद्य ५४ निशुद्ध । ५५ युद्धातियुद्ध (खड्गादि । प्रथम भेद (निचू १५)। ५ एक, अकेला । (पान)। शस्त्र से युद्ध)। ५६ दृष्टि-युद्ध । ५७ मुष्टि- (सूत्र १, २, २; भग १८, ४) । ६ दुइ पुरुष; कलुण वि [करुण] १ दोन, दया-जनक, युद्ध । ५८ बाहु युद्ध। ५६ लता-युद्ध । ६० 'दुट्ठो कली' (पान)। ओग, ओय ' | कृपा-पात्र (हे १, २५४ प्रासू १२६: सुर इषु-शास्त्र (दिव्यान-सूचक शास्त्र)। ६१ [°ओज युग्म-राशि विशेष (भग १८, ४; । २, २२६)। २ पुं. साहित्य शास्त्र-प्रसिद्ध त्सर-प्रपात (बड्ग-शिक्षा शास्त्र)। ६२
ठा ४, ३)। ओयकडजुम्म पुं[ ओज- | नव रसों में एक रस (अणु)। धनुर्वेद । ६३ हिरण्य-पाक (चाँदी बनाने की
कृतयुग्म युग्म-राशि-विशेष (भग ३४, कलुणा देखो करुणा (राज)। रीति)। ६४ सुदर्ण-पाक । ६५ सूत्रक्रीड़ा
१) °ओयकलिओय [°ओजकल्योज] कलुस वि [कलुष] १ मलिन, अस्वच्छ (एक ही सूत को अनेक प्रकार कर दिखाना)।
युग्म-राशि विशेष (भग ३४, १) । °ओजते- 'कलिकलुस' (विपा १, १, पाप) । २ न. ६६ वस्त्र-क्रोड़ा। ६७ नालिका खेल (युत
ओय पुं [ ओजत्र्योज] युग्म-राशि विशेष पाप, दोष, मैल (स १३२पाम)। विशेष)। ६८ पत्र-च्छेद्य ( अनेक पत्रों में
(भग ३४, १)। आयदावरजुम्म पुं कलुसिअ विकलुषित] पाप-प्रस्त, मलिन अमुक पत्र का छेदन, हस्त-लाघव)। ६६
आजद्वापरयुग्म पुग्मन्गाशलवशष! (से १०,५; गउड)। कट-च्छेद्य (कट की तरह क्रम से छेद करने
(भग ३४, १)। कुंड न [कुण्ड] तीर्थका ज्ञान)। ७० सजीव (मरी हुई धातु को
तीय कलुसीकय वि [कलुषीकृत मलिन किया
विशेष (ती १५)। "जुग न [युग] कलिफिर असल बनाना)। ७१ निर्जीव (धातु
हुआ (उव)। युग (ती २१)। मारण, रसायण)। ७२ शकुन-रुत (शकुन
| कलेर पुं[दे] १ कंकाल, अस्थि-पञ्जर । २ शास्त्र); (ज २ टी; सम ८३)। गुरु पुं कलि पु[दे] शत्रु, दुश्मन (दे २, २)।
वि. कराल, भयानक (दे २, ५३)।। r°गमा कलाचार्य. विद्याध्यापक. शिक्षक कालअवि [कालन] १ युक्त, साहत (परह। कलेवर नकलेवर शरीर. देड (प्राउ ४८ (सुपा २५)। यरिय पुं [चार्य देखो १, २)। २ प्राप्त, गृहीत । ३ ज्ञात, विदित
पिंग)। पूर्वोक्त अर्थ (णाया १,१)। वई स्त्री (दे २. ५६; पात्र)।
। कलेसुय न [कलेसुक] तृण-विशेष (सूम [°वती] १ कलावाली स्त्री । २ एक पतिव्रता लिअ देखो कल = कलय।
२, २)। स्त्री (उप ७३६; पडि) ! सवण्ण न[सवर्ण] कलिअ पं दे]१ नकुल, न्यौला, नेवल। ।२ कलोवाइ स्त्री [दे पात्र-विशेष (माचा २, १, संख्या-विशेष (ठा १०)। _
वि. गर्वित, गर्व-युक्त (दे २,५६)। २, १)। कलाइआ स्त्री [कलाचिका] प्रकोष्ठ, कोनी से कलिआ स्त्री [दे] सखो, सहेली (द २, ५६)। कल्ल न [कल्य] १ कल, गया हुआ या
लेकर मरिणबन्ध तक का हस्तावयव (पास)। कलिआ स्त्री [कलिका] अविकसित पुष्प, आगामी दिन (पानः गाया १, १; दे८, कलाय '[कलाद सोनार, सुवर्णकार (पएह । कली (पाम; गा ४४२) ।
६७) । २ शब्द, आवाज । ३ संख्या; गिनती १, २, णाया) १,८)।
कलिंग [कलिङ्ग] १ देश-विशेष, यह देश (विसे ३४४२)। ४ प्रारोग्य, निरोगताः कलाय [कलाय] धान्य विशेष, गोल चना, उड़ीसा से दक्षिण की अोर गोदावरी के मुहाने 'कल्लं किलारुगं (बिसे ३४३६)। ५ प्रभात, मटर (ठा ३, ५, अनु ५)।
पर है (पउम १८, ६७; अोघ ३० भा। सुबह (प्रण)। ६ वि. निरोग, रोग रहित
गुरु पुं कलि पु [दे] शव. ,
। कलाचार्य, विद्याध्या
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