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किं
पुं [दे] शिरीष वृक्ष, सिरस का पेड़ (२, ३१) |
किं (शो) [किमिदम् किमेतत्] अ यह क्या ? (षड् कुमा) ।
किंतु अ [ किन्तु ] परन्तु लेकिन (सुर ४, २७) ।
किंथुग्ध देखो किंसुग्घ (राज) । किंदिय न [केन्द्र ] १ वर्तुल का मध्य-स्थल । २ ज्योतिष में इष्ट लग्न से पहला, चौथा, सातव और दसवां स्थानः 'किदियठारपट्टिय गुरुम' (सुपा ३९ ) ।
किंदुअ [कन्दुक] कन्दुक, गेंद (भवि ) । किंचर [] छोटी मनी (२, ३२) । किंनर [किन्नर ] १ व्यन्तर देवों की एक जाति (पह १, ४) । २ भगवान् धर्मनाथ
जी के शासनदेव का नाम (संति ८ ) । ३ मद्र की रचना का अधिपति देव (हा ५, १) । ४ एक इन्द्र (ठा २, ३) । ५ देवगन्धर्वं, देव-गायक (कुमा) । कंठ पुं ['कण्ठ ] किन्नर के कण्ठ जितना बड़ा एक मरिण ( जीव ३) ।
किंनरी स्त्री [ किन्नरी ] किन्नर देव की स्त्री (कुमा)
किंतु अ [किंनु ] पूर्वपक्ष, प्राक्षेप, आशंका का सूचक अव्यय ( १ ) ।
किंपि [किमपि] कुछ भी ( प्रासू ६० ) । किंपुरिस [किंपुरुष] १ व्यातारदेवों की एक जाति (परह १, ४) २ एक इन्द्र, किन्नर निकाय के उत्तर दिशा का इन्द्र ( ठा २. ३) । ३ वैरोचन बलोन्द्र की रथसेना का श्रधिपति देव (ठा ५, १ -पत्र ३०२ ) । " [क] मणि की एक जाति, जो किंपुरुष के कठ जितना बड़ा होता है। ( जीव २ ) ।
पाइअसहमह
किंचोड वि [दें] स्खलित, गिरा हुआ, भुला pur (3.9) 1
फिर वि [[म] असार निःसार ( पराह २, ४ ) । किंवयंती स्त्री [किंवदन्ती] जनश्रुति, ( हम्मीर ३६ ) ।
जनरव
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किसारु [किंग्रारू] सस्य-कराया ती अग्र भाग (दे २, ६ ) । किंसुग्घ न [किंस्तुन्न] ज्योतिष प्रसिद्ध एक स्थिर करण (बिसे ३३५०) । किसुअ [किंशुक] १ पलाश का पेड़, यू, ढाक (सुर ३४६) । २ न. पलाश का पुष्प (हे १, २६३ ८६) । किकिंड [] स २३२) पु किक्किंधा स्त्री [किष्किन्धा ] नगरो-विशेष (से १४, ५५) ।
किकिंचि . [] १ पर्वत-विशेष ( पउम ६, ४५) । २ इस नाम का एक राजा ( पउम ६, १५४ १०, २० ) । पुर न ["पुर] नगर विशेष (पउन ६४२) । किया वि [कृत्य]] करने योग्य, कर्तव्य, फरज (सुपा ४६५ कुमा) । २ वन्दनीय,
पूजनीयः ‘न पिटुओ न पुरस्रौ नेव किच्चारण पिट्ठग्र' (उत्त ३) । ३ पु. गृहस्थ (सूत्र १, १, ४) । ४ न. शास्त्रोक्त अनुष्ठान, क्रिया, कृति ( आचा २. २, २० सूत्र १, १, ४) ।
किच्चा देखो कर = कृ । किदि स्त्री [कृति]
नवरीर काम २ चमड़े का वस्त्र । ३ भूर्जपत्र, भोजपत्र ४ कृत्तिका नक्षत्र (हे २, १२ = पड् ) ।
किंजक्ख - किट्टीकय
पारण [प्रावरण] महादेव, शिव (कुमा) | "हर पुं [र] महादेव, शिव (षड् ) । किंचिरं [ कियचिरम् ] कितने समय अ तक, कब तक ? (उप १२८ टी) । किच्छ न [ कृच्छ ] १ दुःख कष्ट (ठा ५, १) । २ त्रि. कष्ट - साध्य, कट-युक्त (हे १, १२) दुःख से मुश्किल से (सुर, १४८) |
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किज्ज वि [क्रेय] खरीदने योग्य, 'किल् किज्जमेव वा' (दस ७ ) । कित देखो कि कृ
कंप व [] कृपण, कंजूस (दे २, ३१) |
किंपाग [किम्पाक]-विशेष भू[िकृत्यमान] चित्र किया जाता, कट्टिय
हि थिय महरा विसया कपा
काटा जाता । २ पीड़ित किया जाता, सताया जाता (राज) ।
( पुष्फ ३६२: प्रोप) २ न. उसका फल, जो देखने में और स्वाद में सुन्दर, परन्तु खाने किश्ञ्चण न [दे] प्रक्षालन, धोना; 'हरिश्रच्छेपण किट्टिया स्त्री [कीटिका ] वनस्पति-विशेष
( सू २६) २ प्रतिपादित २ः ठा ७) ।
से प्रारण का नाश करता है; किपागफलोवमा सिया' (सुर १२, १३८ ) ।
धन्यच च च पोता' (घोष १६८–पत्र ७२) ।
किच्चा स्त्री [कृत्या ] १ काटना, कर्त्तन (उप पृ ३५६ ) । २ क्रिया, काम, कर्म । ३ देव वगैरह की मूर्ति का एक भेद । ४ जादूगरी, जादू रोग-विशेष महामारी का रोग (हे १, १२० ) ।
( पण १ भग ७, २) । फिट्टिल [किट्टिस] १ ली, सरसों, तिल श्रादि का तेल रहित चूर्ण (अणु) । २ एक किट्टिस न [किट्टिस] १ ऊन आदि का वाक प्रकार का सूत, सूता (गु आवम ) ।
बचा हुआ अंश । २ उससे बना हुआ सूता । ३ ऊन, ऊँट के बाल आदि की मिलावट का सूता (३४) । किट्टीकट्ट = किट्ट । किट्टीकय वि [ किट्टीकृत ] हुमा एकाकार जैसे सुज
किज्जअ वि [कृत ] किया गया, निर्मित (पिंग)।
किट्ट एक [ कीर्त्तव्] १ वाया करना, स्तुति करना । २ वर्णन करना । ३ कहना, बोलना । किट्टइ, किट्टेइ ( श्राचा भग) । वकृ. किट्टमाण ( पि २८९ ) । संकृ. कित्ता, किट्टित्ता (उत्त २६ कप्प ) । हेकृ. किट्टित्तए (कस) ।
किट्ट स्त्रीन [कि] १ धातु का मलमेल (उप ५३२) २ रंग-विशेष (उर ६, ५) ३ तेल, घी वगेरह का मैस स्त्री. ही किट्टण देखो कित्तण (बृह ३) । ( पभा ३३) । किट्टि स्त्री [किट्टि] १ अल्पीकरण-विशेष, विभाग- विशेष; 'प्रपुब्वविसोहीए अणुभागो - विभय किट्टी' (पंच १२ आवम ) । [कीर्तित] वति, प्रशंसित
(सू २,
प्रापस में मिला आदि का वि
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