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उच्चर सक [ उत् + चर ] १ पार जाना, उत्तीर्ण होना । २ कहना, बोलना । ३ प्रक. समर्थ होना, पहुँच सकना । ४ बाहर। निकलना । उचरए (सूक्त ४६ ); 'मूलदेवेण य निरूवियाई पासाई जाव दिट्ठ निसिया सिहत्थे हि वेदियमतारणयं मग्गसेहि । चितियं चः लाहमेएसि उच्चरामि कायव्वं च मए चइरनिज्जायण निराउहो संपयं, ता न परियासत चितिय भरिए (महा) |
वकृ.
'भरिउचरंत परिश्रपि संभरपि सुरणो वराईए । परवाना (गा ३७७) । उच्चरण न [उच्श्चरण] कथन, उच्चारण; 'सिद्धसमक्खं सोहि वय उच्चरणाइ काऊरण' (सुपा ३१७) TV
उच्चारयवि [उच्चरित] १ उत्तीर्ण, पार-प्राप्तः 'तीए हत्थिसंभमुच्चरियाए उज्झिऊरण भयं, जीवियदायगोत्ति मुरिणऊरण तुमं साहिलासं पलोइस्रो' (महा) । २ उच्चरित कथित उक्त (विसे १०८३) ।
उछन [उबलन] उन्मन उत्पीड़न (MA) I
उयियि [उचालित ] चलित, गत (भवि ) [ दे] १ प्यासि (प) IV
२
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विदारित
उच्च सक [ उत् + चल्_ ] १
जाना । २ समीप में जाना।
पुष्का ई गेरहंतो, अंतो
उच्च
[उचलित] १ गत गया हुआ २ समीप में आया हुआ 'जिरगभवदुवार ट्टिय उच्चल्लिय
फुल्लमालिनोहस्स ।
विहिरणा पविट्टो है'
चलना,
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(सुर ३, ७४) ।
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[उच्च [ उ] १ ऊँचा, 'तो तेरा हरिणा उच्चा हरिकरण लोय-पच्चक्खं । उबगीग्रो सो रणे (महा) । २ उत्तम, श्रेष्ठ (डा २, १) गोश, "गोवन [गोत्र] १ उत्तम गोत्र, श्र ेष्ठ - वंश । २ कर्म विशेष, जिसके प्रभाव से जीव उत्तम माने जाते कुल में उत्पन्न होता है (ठा २, ४, श्राचा) । वय
पाइअसदमद्दण्णवो
उत्तर- उचिजिर
न] ["व्रत] [१] महाव्रत (उत १२ वि. उचारिअ व [उच्चारित] १ कथित उत महाव्रतधारी (उस १५ ) V २ पाखाना गया हुआ (राज) IV उच्चाल सक [ उत् + चालय् ] १ ऊँचा फेंकना । २ दूर करना। संकृ. 'उच्चालइय निहारिणसु श्रवा श्रासरणाओ घासणाओ खलईसु' (भाषा)।
उच्चालयवि [उच्चालयितृ] दूर करनेवाला व्याननेवाला 'जाऐना उबालइयं से तं जाणेजा दुरालइयं (प्राचा)
उच्च
[] ९ श्रान्त, थका हुआ (प्रोघ १८) २. आलिंगन परिरम्भ (सुदा 288)
उच्चाइय वि [दे. उत्त्याजित] उत्थापित, उठाया हुधा 'उच्चाइया नंगरा ( स २०६ ) । उच्चाग पुं [उच्चाग] हिमाचल पर्वत । यवि [ज] हिमाचल में उत्पन्न; 'उच्चागयठाणलट्ठसंठिये' (कप्प ) । [२] विपुल, विशाल (दे १.
उद्या
20) 11 उच्चड सक [दे] १ रोकना, निवारना । २ क. अफसोस करना, दिलगीर होना ( हे २, १९३ टि) ।
[
[ उच्चाटन] १ एक स्थान से दूसरे स्थान में उठा ले प्राना, स्व-स्थान से भ्र करना । २ मन्त्र - विशेष, जिसके प्रभाव से श्रपने स्थान से उड़ायी जा सकती है; वस्तु 'उच्चारणयं भणमोहलाइ सव्र्व्वपि मह करगयं व' (सुपा ५६९ ) 1
उच्चाडणी स्त्री [उच्चाटनी ] विद्या-विशेष जिसके द्वारा वस्तु अपने स्थान से उड़ायी जा सकती है (सुर १३, ८१)
उच्चार [ दे ] १ रोकनेवाला, निवारण करनेवाला । २ अफसोस करनेवाला, दिलगीरः "कि उल्लाती, उम्र रतीए कि भीमा नु । चाहिए वेवेति तीए भनि दिहरिमो
"
(हे २. १९३ ) 1 उच्चार सक [ उत् + चारय् ] १ बोलना, उच्चारण करना । २ मलोत्सर्ग करना, पाखाना जाना । उच्चारेइ (उवा) । वकृ. उच्चारयंत ( स १०७) उच्चारेमाग (कम्प गाया है १) कु. उारेयथ्या
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उच्चार [ उच्चार] [१] उचारण २ विष्ठा, मलोत्सर्ग (सम १०; उवाः सुपा ६११) । उच्चार वि [दे] विमल, स्वच्छ (दे १, ९७) उच्चारण न [उच्चारण] रूथन, 'इसि हरस चारणढाए (घोष) 1
उच्चारिअ वि [दे] गृहीत, आत्त (दे १, ११४) ।
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उच्चालिय वि [उच्चालित ] उठाया हुआा, ऊँचा किया हुम्रा, उत्थापितः 'उच्चालियम्मि पाए इरियासमिस्स संकमट्टाएँ (श्रोघ ७४८ दनि ४५) ।
उच्चावसक [उच्चय् ] ऊँचा करना, उठाना। संकु. उच्चावइत्ताः 'दोवि पाए उच्चावइत्ता सम्म समेत समभिलोएवं (पण १७ ) 1उच्चावयवि [ उच्चावच ] १ ऊँचा और नीचा (गाया, १, १ पण ३४) । २ उत्तम और अधम (भग १५ ) । ३ अनुकूल और प्रतिकूल (भाग १, ९) । ४ श्रसमञ्जस, अव्यवस्थित (गाया १, १६) । ५ विविध नानाविष 'उच्चावयाहि सेाहि तस्सी भि भामरे (उत ) ६ उत्तर विशेष उत्तम; 'तए णं तस्स नारदस्स समरगोवासगस्स उचावहिं सीलव्त्रयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहवामेहिप भाषेमाणस्स (उ श्रीप) । उच्चापिय वि[उचित] ऊंचा किया हुआ ( वा १३२) । उच्च धक [उत् + स्था] खड़ा होना उ (काल) IV
उच्चिडिम वि [दे] मर्यादा- रहित, निर्लज्ज 'उमा' (पास)
उक्षिण तक [उत्+चि] फूलको तोड़ कर एकत्रित करना, इकट्ठा करना । उच्चिइ (हे ४,२४१) । वकृ. उच्चिणंत (भवि) उच्चण न [उच्श्चयन ] श्रवचयन, एकत्रीकरण (सुपा ४६९)
चिणिय [ख] इकट्ठा किया मा
श्रवचित (पा) । उच्चिणिर वि [ उच्चेट ] फूल वगैरह को चुननेवाला (कुमा)
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