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ओसहि-ओहट्ट ओसहि, ही स्त्री [ओषधि] १ वनस्पति (पएरण १)। २ नगरी-विशेष (राज)। महिहर पुं [ महिधर] पर्वत-विशेष (अच्च
ओसहिअ वि [आवसथिक चन्द्रार्घ-दानादि व्रत को करनेवाला (गा ३४६) । ओसा स्त्री [दे] १ अोस, निशा जल (जी ५; प्राचा; विसे २५७६) । २ हिम, बरफ (दे १, १६४)। ओसाअ पुं[दे] प्रहार की पीड़ा (दे १, १५२)। ओसा अवश्याय] हिम, ओस (से १३, ५२ दे ८, ५३)। ओसाअंत वि [दे] १ जभाई खाता हुआ आलसी। २ बैठता । ३ वेदना-युक्त (दे १, १७०)। ओसाअण वि दे] १ महीशान, जमीन का मालिक । २ पापोशान (षड् )। ओसाण न अवसान] १ अन्त (ठा ४)। २ समीपता, सामीप्य (सूत्र १, ४)। ओसाग न [अवसान] गुरु के समीप स्थान, गुरु के पास निवास (सूअ १, १४, ४)। ओसाणिहाण वि [दे] विधि-पूर्वक अनुष्ठित (दे १, १६३)। ओसाय पुं [अवश्याय] प्रोस, निशा-जल (जीवस ३१)। ओसायण न [अवसादन] परिशाटन, नाश (विसे)। ओसार सक [अप + सारय ] दूर करना ।
ओसारेहि (स ४०८)। कर्म. ओसारिजंतु (स ४१०) । संकृ. ओसारिवि (भवि)। ओसार [दे] गो-वाट, गो-बाड़ा (दे १, १४६)। ओसार पुं[अपसार] अपसरण (से १३, १४)। ओसार देखो ऊसार = उत्सार (भवि)। ओसार पुं[अवसार] कवच, बस्तर (से १२, ५६)। ओसारिअ वि [अपसारित] दूर किया हुआ, अपनीत (गा ६६ पउम २३, ८)। ओसारिअ वि [अवसारित] अवलम्बित, लटकाया हुआ (प्रौप)।
पाइअसहमहण्णवो
२०५ ओसास (अप) देखो ओवास = अवकाश ओसुद्ध वि [दे] १ विनिपतित (दे १, (भवि)।
१५७) । २ विनाशित (से १३, २२)। ओसिअ वि [दे] १ अबल, बल-रहित (दे ओसुब्भंत देखो ओसुभ । १, १५०)। २ अपूर्व, असाधारण (षड्)। ओसुय न [औत्सुक्य] उत्सुकता, उत्कण्ठा ओसिअ वि [उषित] १ बसा हुअा, रहा हुमा (सूम १, १४, ४)। २ व्यवस्थित ओसोयणी स्त्री [अवस्थापनी 1 विद्या(सूम १, ४, १, २०)।
ओसोवणिया विशेष, जिसके प्रभाव से दूसरे ओसिअंत वकृ. [अवसीदत् ] पीड़ा पाता
ओसोवगी को गाढ़ निद्राधीन किया जा
सकता है (सुपा २२०; पाया १, १६ हुआ (हे १,१०१ से ३, ५१)।
कप्प)। ओसिंघिअ वि [दे] घात, सूंधा हुआ दे १, १६२ पास)।
ओस्सक पुं [अवष्वष्क] अपसर्पण, पीछे ओसिंचित्तु वि [अपसेचयित ] अपसेक
हटना (पत्र २)।
ओस्सकण देखो ओसक्कण (पिड २८५)। करनेवाला (सूत्र २, २)।
ओस्सा [दे] देखो ओसा (कस) । ओसिक्खिअ न [दे] १ गति-व्याघात । २ अरति-निहित (दे, १, १७३)।
ओस्साड पुं [अवशाट ] नाश, विनाश
(सण)। ओसित्त वि [अवसिक्त] भीजाया हुआ,
ओह देखो ओघ (पएह १, ४, गा ५१८ सिक्त (पाचा २,१, १, १)।
निचू १६; अोघ २: धम्म १० टी)। ५ सूत्र, ओसित्त वि [दे] उपलिप्त (दे १, १५८)।
शास्त्र-सम्बन्धी वाक्य (विसे ६५७)। ओसिय वि [अवसित] १ पर्यवसित । ३,
ओह सक [अव + तु] नीचे उतरना । उपशान्त (सूत्र १, १३)। २ जीत, पराभूत (विसे)।
अोहइ (हे ४, ८५)। ओसिरण न [दे] व्युत्सर्जन, परित्याग (षड्)।
।
आह पुन आध१ उत्सग, सामान
ओह पुन [ओघ] १ उत्सर्ग, सामान्य नियम; ओसीअ वि [दे] अधो-मुख, अवनत (दे:
न (णं दि ५२)। २ सामान्य, साधारण (वव १,१५८) ।
१)। ३ प्रवाह (राय ४७ टो)। ४ सलिलओसीर देखो उसीर (पएह २, ५)।
प्रवेश । ५ प्रास्त्रव-द्वार (पाचा २,१६, १०)। ओसीस अक [अप+ वृत्] १ पीछे ६ संसार (सूत्र १, ६, ६)। सूय न हटना। २ घूमना, फिरना। संकृ. ओसी- [श्रुत शास्त्र-विशेष (एंदि ५२)। सिऊण (दे १, १५२)।।
ओहंक पुं[दे] हास हँसी (दे १, १५३)। ओसीस वि [अप + वृत्त] अपवृत्त (दे १, ओहंजलिया स्त्री [दे] क्षुद्र जन्तु-विशेष, १५२)।
चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (जीव १)। ओसुअ वि [उत्सुक] उत्कण्ठित (प्राप्र)। ओहंतर वि [ओघतर] संसार पार करनेओसुंखिअ वि [दे] उत्प्रेक्षित, कल्पित (दे वाला (मुनि) : (प्राचा)। १६१)।
ओहंस पुं [दे] १ चन्दन। २ जिसपर असुंभ सक [अव+पातय् ] १ गिरा चन्दन घिसा जाता है वह शिला, चन्द्रौटा देना। २ नष्ट करना। कर्म. मोसुभति या होरसा (दे १, १६८)। (स ७, ६१)। वकृ. ओसुंभइ (से ४, ओहट्ट प्रक [अप + घट्ट ] १ कम होना, ५४) । कवकृ. ओसुब्भंत (पि ५३५)। ह्रास पाना। २ पीछे हटना। ३ सक. ओसुक्क सक [तिज्] तीक्षण करना, तेज हटाना, निवृत्त करना। श्रोहट्टइ (हे ४, करना। प्रोसुक्कइ (हे ५, १०४)।
४१६)। ६४. ओहटुंत (से ८, ६०० सुपा ओसुक्क बि [अवशुष्क सूखा हुमा (पउम २३३)। ५३, ७६, ५, १४)।
ओहट्ट [दे] १ अवगुण्ठन । २ नीवी, ओसुक्ख अक [अव+शुप] सूखना। कटि वस्त्र । ३ वि. अपसत, पीछे हटा हुआ वकृ. ओसुक्खं त (से ६,६३)।
(दे १, १६६, भवि)।
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