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ओहासिय-कइअ
पाइअसद्दमण्णवो
ओहासिय वि [अवभापित] याचित (पंचा ओहिण्ण वि [अपभिन्न] रोका हुआ, अट- १३, १०)।
काया हुप्रा (मे १३, २४) ।
ओहित्थ न दे] १ विषाद, खेद । २ रभस, ओहि पुंस्त्री [अवधि] १ मर्यादा, सीमा, हद |
| वेग। ३ वि. विचारित (दे १, १६८)। (गा १७०,२०६)। २ रूपि-पदार्थ का प्रती
ओहिर देखो ओहीर । प्रोहिरइ (षड्)। न्द्रिय ज्ञान-विशेष (उवाः महा)। जिण पुं
ओहिर देखो ओहर = अप + हु । कर्म, प्रोहि- ["जिन] अवधिज्ञानवाला साधु (परह २, रियामि (पि ६८)। १)। णाण न [ज्ञान अवधिज्ञान (वव
ओहीअंत वि [अबहीयमान] क्रमशः कम १)। °णाणावरण न [ज्ञानावरण] अवधि
होता हुअा (से १२, ४२) । ज्ञान का प्रतिबन्धक कर्म (कम्म १)। दंसण
ओहीण वि [अवहीन] १ पीछे रहा हुआ न [°दर्शन] रूपी वस्तु का प्रतीन्द्रिय सामान्य
(अभि ५६)। २ अपगत, गुजरा हुअा (से ज्ञान (सम १५)। °दसणावरण न [°दर्शना- १२,६७)। यरण] अवधिदर्शन का प्रावारक कर्म (ठा ओहीर अक [नि+दा] सो जाना, निद्रा लेना है)। नाण देन्यो णाण (प्रारू)। मरण (हे", १२) । वकृ. ओहीरमाण (णाया १, न ["मरण] मरण-विशेष (भग १३, ७)। १ विपा २, १; कप्प)।
| ओहीर प्रक [स] खिन्न होना। वकृ. ओहिअ वि [अवतीर्ण] उतरा हुआ (कुमा)।
ओहीरंतं च सीमंत' (पान)। आव [आधिक] प्रात्सागक, सामान्य | ओहीरिअ वि[अवधीरित] तिरस्कृत. परि- रूप से उक्त (अणु १६६ २००)। | भूत (पाचा २, १)।
ओहीरिअ वि [दे] १ उद्गीत । २ अबसन्न, खिन्न (दे १, १६३)। ओह विदे] अभिभूत, पराभूत (दे १. १५८)। ओहुंज देखो उवहुंज। प्रोहुंजइ (भवि)। ओहड बि [दे] विफल, निष्फल (दे १, १५७)। ओहुप्पंत बि [आक्रम्यमाग] जिसपर आक्रमरण किया जाता हो वह (से ३, १८)। ओहुर वि [दे] १ अवनत, अवाङ मुख (गउड)। २ खिन्न, वेद-प्राप्त । ३ स्रस्त, ध्वस्त
ओहुल्ल वि [दे] १ खिन्न । १ अवनत, नीचे झुका हुआ (भवि)। ओहूणग न [अवधूनन] १ कम्प। २ उल्लङ्घन । ३ अपूर्व करण से भिन्न ग्रन्थि का भद करना (प्राचा १, ६, १)। ओहूय वि [अवधूत] उल्लवित (बृह १)।
।। इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवे ओपाराइसहसंकलणो णवमो तरंगो समत्तो।
तस्समत्तीए असरविहाअोवि समत्तो।।
क
क[क] १ प्राकृत वर्ण-माला का प्रथम । ६१७) । वइय. वय, वाह वि [पय] १ वानर-द्वीप के एक राजा का नाम (पउम व्यजनाक्षर, जिसका उच्चारण-स्थान कराठ है कईएक (पउम ६१, १६, उवा, षड्; कुमाः ६,८३)। २ अर्जुन (हे २,६०)। हसिअ (प्रापः प्रमा) । २ ब्रह्मा (दे ५, २६)। ३ हे १, २५०) । य अ [अपि] कईएक न [हसित] १ स्वच्छ आकाश में अचानक किए हुए पाप का स्वीकार; 'कत्ति कडं मे (काल; महा) । विह वि [विध] कितने बोजली का दर्शन । २ वानर के समान विकृत पाप' (आवम)। ४ न. पानी, जल (स ६११)। प्रकार का (भग)।
मुँह का हँसना (भग ३,६)। ५ सुख (सुर १६,५५)। देखो अक। कइ वि [कृतिन्] १ विद्वान्, पण्डित । २ | कइ देखो कवि = कवि (गउड सुर १, २७) । क देखो किम् (गउड, महा)। पुण्यवान् (सूम २, १, ६०)।
°अर (अप) पुं[कवि श्रेष्ठ कवि (पिंग)। कअवंत देखो क्य-व = कृतवत् (प्राकृ ३५)। कइ अ [क्कचित्] कहीं, किसी जगह में मा स्त्री [व] कवित्व, कविपन (षड्) । कइ वि. ब.[कति कितना, 'तं भंते! कइदिसं (दसचू २, १४)।
राय पुं[ राज] १ श्रेष्ठ कवि (पिंग) । २ प्रोभासेई' (भग)। अ वि [क] कतिपय, कइ अ [कदा] कब, किस समय ?; 'एआई 'गउडवहाँ' नामक प्राकृत काव्य के कर्ता कईएक; 'मोएमि जाव तुझं, पियरं कइएसु | उण मज्झो थणभारं कइ णु उव्वहइ ?'
वाक्पतिराज-नानक कविः 'प्रासि कइराय इंधो दियहेसु' (पउम ३४,२७)। अव वि [°पय] रण। अव विपय] (गा ८०३)।
वप्पइरामो त्ति पणइलो (गउड ७६७)। कतिपय, कईएक (हे १, २५०) । इस कइ पुं [कपि] बन्दर, वानर (पाप)। कइअ वि [क्रयिक] खरीदनेवाला, ग्राहक [चित ] कईएक (उप पृ ३) । 'त्य वि दीव पुं [द्वीप] द्वीप-विशेष, वानर-द्वीप किणंतो कइयो होइ, विक्किणंतो य वाणियो' [2] कितनावाँ, कौन संख्या का ? (विसे (पउम ५५,१६) । द्धय, धय पुं[ध्वज (उत्त ३५, १४)।
य-व- कृतवत् (प्रा
(दसचू २, १४)
समय ?; 'एआई
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