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उभिडण-उम्मत्तय पाइअसहमहण्णवो
१६७ उभिडण ४ [उभेदन] लग कर अलग उब्भूइआ स्त्री [औद्भतिकी] श्रीकृष्ण वासु- उम्मंड पुं[दे] १ हठ । वि. उद्वृत्त (दे १, होना, प्राघात कर पीछे हटनाः
देव की एक भेरी जो किसी आगन्तुक प्रयो- १२४) 'जेसुं चिय कुंठिजइ,
जन के उपस्थित होने पर बजाई जाती थी | उम्मंथिय विदे] दग्ध, जला हुआ (वज्जा रहसुब्भिडणमुहलो महिहरेसु । (विसे १४७६) ।
५२) । तेसुं चेय रिणसिज्जइ,
उन्भेअ [उभेद] उद्गम, उत्पत्तिः 'उम्हा- | उम्मग्ग वि [उन्मन] १ पानी के ऊपर पाया पहिरोहंदोलिरो कुलिसो॥ अंतगिरियडसीमाणिवडियकंदलुब्भेयं' (गउड); हुआ, तीर्ण (राज)। २ न. उन्मजन, तैरना,
(गउड)। 'अभिरणवजोब्बरणउन्भेयसुन्दरा सयलमगहरा- जल के ऊपर पाना (प्राचा)। जला स्त्री उब्भिण्ण वि [उभिन्न] १ अंकुरित राधा' (सुर ११, ११६) -
[°जला] नदी-विशेष, जिसमें पत्थर वगैरह उब्भिन्न (प्रोष ११३); उन्भिन्ने पारिणयं उन्भेइम वि [उभेदिम स्वयं उत्पन्न होने | पडिय' (सुर ७, ११४) । २ उद्घाटित, खोला
वाला, उन्भइम पुण सयरुह जहा सामुई | उम्मग्ग पुं[उन्मार्ग] १ कुपथ, उलटा रास्ता,
वाला, उन्भेइमं पुण सयरुहं जहा सामुदं । हुप्रा । ३ न. जैन साधुओं के लिए भिक्षा का लोणं (निचू ११) ।
विपरीत मार्ग (सुर १, २४३, सुपा ६५) । एक दोष, मिट्टी वगैरह से लिप्त पात्र को उभ पुं[उभ] उभय, दोनों (पंच ६,५८) २ छिद्र, रन्ध्र (पाचा) ३ प्रकार्य करना खोलकर उसमें से दी जाती भिक्षा; 'छगणाह- उभओ अ [उभयतस् ] द्विधा, दोनों तरह
(प्राचा)। गोवउत्तं उभिदिय जं तमुब्भिरणं' (पंचा| से, दोनों प्रोर से (उवः औप)
उम्मग्गणा स्त्री [उन्मार्गणा] छिद्र, विवर १३; ठा ३, ४)। ४ वि. ऊँचा हुमा, खड़ा उभज्जायण देखो ओमज्जायण (सुज्ज १०,
(आचा)। हुआ; 'हरिसवसुभिन्नरोमंचा' (महा)
उम्मच्छ न [दे] १ क्रोध, गुस्सा (दे १, उब्भिय वि [उद्भिद्] पृथ्वी को फाड़कर उभय वि [उभय] युगल, दो, दोनों (ठा ४,
१२५ से ११, १६; २०)। २ वि. असंबद्धः उगनेवाली वनस्पति (पएह १, ४)। ४)। "त्थ प्र[त्र] दोनों जगह (सुपा
३ प्रकारान्तर से कथित (दे १, १२५) ।। उब्भिय वि [ऊवित] ऊँचा किया हुआ, ६४८)। लेग पुं[लोक] यह और पर
उम्मच्छर वि [उन्मत्सर] १ ईर्ष्यालु, द्वेषी खड़ा किया हुआ (सुपा ८६; महा: वज्जा जन्म (पंचा ११)। हा अ [था] दोनों
(से ११, १४)। २ उद्भट (गा १२७६७५)। तरफ से, द्विधा (सम्म ३८)। ८८)IV
उम्मच्छविअ वि[दे] उद्भट (दे १,११६)। उमच्छ सक [वञ्च ] ठगना, धूर्तना । उब्भिय न [उद्भिद्] १ लवण-विशेष, समुद्र के किनारे पर क्षार जलके संसर्ग से होनेउमच्छइ (हे ४, ६३ )। वकृ. उमच्छंत
उम्मच्छिअ वि [दे] १ रुषित, रुष्टः २ वाला नोन (पाचा २, १, ६, ५)। २ पुंन.
प्राकुल, व्याकुल (दे १, १३७ )। (कुमा)। खंजरीट, शलभ प्रादि प्राणी (संबोध २०
| उमच्छ सक [अभ्या + गम् ] सामने पाना। उम्मज न [उन्मजन] तरण, तैरना। धर्मसं ७२ सूत्र १, ६, ८)iv उमच्छइ ( षड्)।
"णिमन्जिया स्त्री ["निमज्जिका] उभचुभ उमा स्त्री [उमा गौरी, पार्वती (पान) । २ करनाः पानी में ऊँचा-नीचा होना (छ। उब्भीकय वि [ऊ/कृत] ऊँचा किया
द्वितीय वासुदेव की माता (सम १५२) । ३ ३, ४) हुआ, 'उब्भीकयबाहुजुओ' (उप ५६७ टो)।
देव-गणिका-विशेष (प्राचू)। ४ स्त्री-विशेष उम्मज्जग वि [उन्मजक] १ उन्मजन करनेउब्भुअ अक [ उद् + भू] उत्पन्न होना।।
(कुमा)। साइ [स्वाति] स्वनाम धन्य वाला, गोता लगाने वाला। २ उन्मजन से उन्भुप्रइ (हे ४, ६०)।
एक प्राचीन जैनाचार्य और विख्यात ग्रन्थकार ही स्नान करनेवाले तापसों की एक जाति उब्भुआग वि [दे] १ उबलता हुआ, अग्नि (साधं ५०) ।
(और; भग ११, ६) से तप्त जो दूध वगैरह उछलता है वह (
दे उमाण नाप्रवेश (आचा २.१.१) उम्मड्डा स्त्री [दे] १ बलात्कार, जबरदस्ती १, १०५, ७, ८१)। "उमार देखो कुमार (मच्छ २९)
(द १,६७)। २ निषेध, अस्वीकार (उप उन्भग्ग विदे]चल, अस्थिर (दे १, १०२)। उमीस विउन्मिश्र] मिश्रित, 'पलिलसिरउब्भुत्त सक [उत् + क्षिप्] ऊंचा फेंकना। | पलिमपीवलकरणघुसणुमीसराहवणजलं'(कुमा)
उम्मण वि [उन्मनस् ] उत्कण्ठित, उत्सुक उब्भुत्तइ (हे ४, १४४)।
(उप पृ५८) । उमुय सक [उद्+मुच् ] छोड़ना। वकृ. |
उम्मत्त पुं [दे] १ धतूरा, वृक्ष-विशेष । २ उन्भुत्तिअ वि [उत्क्षिप्त ऊँचा फेंका हुआ | __ उमुयंत (उत्त ३०, २३)
एरण्ड, वृक्ष-विशेष (दे १, ८६) (कुमा)।
| उम्मइअ वि [द] १ मूढ, मूर्ख (दे १, १०२)। उम्मत्त वि [उन्मत्त] १ उद्धत, उन्माद-युक्त उन्भुत्तिअ वि[द] उद्दीपित, प्रदीपित (पान)।। २ उन्मत्त (गा ४६८; वज्जा ४२)।
(बृह १) । २ पागल, भूताविष्ट (पिंड ३८०)। उन्भूअ वि [उद्भूत] १ उत्पन्न (सुर ३, | उम्मऊह वि [उन्मयूख ] प्रभाशाली जला स्त्री [जला] नदी-विशेष (ठा २, ३)। २३६) । २ आगन्तुक कारण (विसे १४७६) (गउड)।।
उम्मत्तय न द धतूरे का फल; “उम्मत्तय
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