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श की उत्पत्ति स्वाकु वंश की शाखा का ।
१०२ पाइअसद्दमहण्णवो
आइग्घ-आईणग आइग्घ सक [आ + प्रा] सूंघना । प्राइग्घइ, | आइत्तु वि [आदात] ग्रहण करने वाला | आइल्ल वि [आदिम] प्रथम, पहला प्राइग्घाइ ( षड् )। हेकृ. आइग्घि (कुमा) (ठा ७)
आइल्लिय) (सम १२६% भग)। 'माइल्लियासु आइच अ [दे] कदाचित्, कोईबार (पएण | आइत्तूण देखो आइ = प्रा+दा।V तिसु लेसासु' (पएण १७; विसे २६२४) । १७–पत्र ४८५)
आइत्थ न [आतिथ्य] अतिथि सत्कार (प्राकृ आइवाहिअ पुंआतिवाहिक] देव-विशेष, आइञ्च पुं [आदित्य] १ सूर्य, सूरज, रवि | २१)।
जो मृत जीव को दूसरे जन्म में ले जाने के (सम ५६)। २ लोकान्तिक देव-विशेष (णाया आइदि स्त्री [आकृति] आकार (प्रातः स्वप्न | लिए नियुक्त है। १,८)। ३ न. देवविमान-विशेष । ४ पुं. २०)।
'काहे अमारणवंता अग्गिमुहा, तन्निवासी देव (पव)। ५ वि. आद्य, प्रथम आइद्ध वि [आविद्ध] १ प्रेरित (से७,१०)।
आइवाहिमा तव पुरिसा। (सुज २०)। ६ सूर्य-संबन्धीः 'प्राइचे एं
अइलंघेहिति ममं अच्चुया ! मासे' (सम ५६) । गइ पुं[गति] राक्षस | हुमा, परिहित (प्राक ३८) ।
तमगहणनिउणयरकंतार' | वंश के एक राजा का नाम (पउम ५,२६१)। आइद्ध वि [आदिग्ध] व्याप्त (गाया १,
(अच्नु ८५) जस पुं[°यशस् ] भरत चक्रवर्ती का १)
आइवाहिग पु [आतिवाहिक मार्गदर्शक एक पुत्र, जिससे इक्ष्वाकु वंश की शाखारूप आइन्न वि [आकीर्ण] १ व्याप्त, भरा हुआ (वासुदेवहिंडी पत्र १५)। सूर्यवंश की उत्पत्ति हुई थी (पउम ५,३; सुर (सुर १, ४६; ३, ७१) । २ पुं. वस्त्र दायक | आइस सक [आ + दिश् ] आदेश करना, २, १३४)। पभ न [प्रभ] इस नाम का कल्पवृक्ष (ठा १०)V
हुकुम करना, फरमाना। प्राइसह (पि ४७१)। एक नगर (पउम ५,८२)। पीढ न [पीठ]
आइन्न वि [आचीर्ण ] आचरित, विहित | वकृ. आइसंत (सुर १६, १३) ।। भगवान ऋषभदेव का एक स्मृतिचिह्न--पाद(प्राचा; चैत्य ४६)।
आइसण वि [दे] उज्झित, परित्यक्त (दे १, पीठ (प्रावम)। रक्ख पुं [रक्ष इस नाम |
आइन्न वि [आदीर्ण] उद्विग्न, खिन्नः 'पाइ- ७१) IV का लङ्का का एक राजपुत्र (पउम ५,१६६) ।
नाई पियराई तीए पुच्छंति दिव्व-देवन्न' आईण वि [आदीन] १ अतिदीन, बहत 'रय पुं [रजस् ] वानर वंश का एक (सुपा ५६७)।
गरीब (सून १, ५)। २ न. दूषित भिक्षा विद्याधर राजा (पउम ८, २३४) । आइज्ज देखो आएज्ज (नव १५) । आइन्न पुं[दे] जात्यश्व, कुलीन घोड़ा (पएह
(सूम १, १०)
आईण पुं [दे] जातिमान् अश्व, कुलीन घोड़ा आइजमाण वकृ [आर्दीक्रियमाण] पाद्र' किया जाता, भीजाया जाता (आचा)। आइप्पण न [दे] १ आटा (गा १६६: दे
(णाया १, १७)V आइजमाण देखो आढा = आ + ६
१,७८) २ घर की शोभा के लिए जो चूना
| आईण । न[आजिन, क] १ चमड़े का बना आइट्ट वि [आदिष्ट] १ उक्त, उपदिष्ट (सुर | आदि का सफदा दी जाती है वह । ३ चावल
आईणग) हुआ वस्त्र (णाया १, १; प्राचा)। ४, १०१) । २ विवक्षित (सम्म ३८)। के प्राटा का दूध । ४ घर का मण्डन-भूषण
१ पुं. द्वीप-विशेष । २ समुद्र विशेष (जीव ३)।
भद्द [भद्र] प्राजिन-द्वीप का अधिष्ठाता आइट्रवि [आविष्ट अधिष्ठित, पाश्रित (कस)N (दे १,७८)। आइट्टि स्त्री [आदिष्टि] धारणा (ठा ७)। आइय (अप) वि [ आयात ] आया हुआ |
देव (जीव ३) । महाभद्द पुं[°महाभद्र] आइढि स्त्री [आत्मद्धि] प्रात्मा की शक्ति, (भवि) ।
देखो पूर्वोक्त अर्थ ( जीव ३)। महावर पुं आत्मीय सामर्थ्य (भग १०, ३)।
[महावर] आजिन और प्राजिनवर नामक आइय वि [आचित] १ संचित, एकत्रीकृत।
समुद्र का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। वर पुं आइड्ढिय वि [आत्मद्धिक] प्रात्मीय शक्ति- २ व्याप्त , पाकीणं। ३ प्रथित, गुम्फित
[वर] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र-विशेष । संपन्न (भग १०, ३)।। (कप्प; औप)V
३ आजिन और अजिनवर समुद्र का अधिष्ठाता आइढिय वि आकृष्ट] खींचा हुआ (हम्मीर | आइय वि [आहत आदरप्राप्त (कप्प)। देव (जीव ३)। वरभद्द पु[°वरभद्र]
आइयण न [आदान] ग्रहण, उपादान (पण्ह प्राजिनवरद्वीप का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। आइण्ण देखो आइन्न = (दे) (तंदु २०)। १, ३) ।
वरमहाभह पुं[वरमहाभद्र ] देखो आइण्ण देखो आइन्न (प्रौप; भग ७,८ हे
आइग्रणया स्त्री [आदान] ग्रहण, उपादान अनन्तर उक्त प्रथं (जीव ३)। 'वरोभास पुं ३, १३४)। (ठा २, १) V
[°वरावभास] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्रआइत्त वि [आदीप्त थोड़ा प्रकाशित-ज्व
आइरिय देखो आयरिय = प्राचार्य (हे १, विशेष (जीव ३) । वरोभासभ६ पुं लित (गाया १, १)।
[°वरावभासभद्र] उक्त द्वीप का अधिष्ठायक आइत्त वि [आयत्त] अधीन, वशीभूत; 'तुज्झ आइल वि [आविल] मलिन, कलुष, अस्वच्छ देव (जीव ३)। वरोभासमहाभद्द पुं सिरी जा परस्स आइत्ता' (जीवा १०)IV (पएह १, ३)।
[वरावभासमहाभद्र] देखो पूर्वोक्त अर्थ
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