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अप्पढिय - अपहिय
अप्पय [अल्पक] गोड़ी वाला, अल्प वैभववाला (सुपा ४३० ) । अप्पण न [अर्पण ] १ भेंट उपहार, दान (श्रा २७) । २ प्रधान रूप से प्रतिपादन (विसे १८४३) ।
अप्पण देखो अप्प = श्रात्मन् ( श्राचा; उत्त १३ महा; हे ४, ४२२) ।
अपण
[आत्मीय] स्वकीय, निजकाः 'नो अप्परगा पराया गुरुरगो कइयावि होंति सुद्धारणं' (सद्धि १०५) ।
अप्पणय वि [आत्मीय] स्वकीय, निजी (५०,१६ सुपा २७१ हे २,१५३) । अप्पणा अ [ स्वयम् ] स्वयं, आप, निज, खुद ( प ) । अप्पणिज वि [आत्मीय] स्वकीय, अप्पणिज्जिय । स्वीय (ठा १ श्रवम) । अपणो x [ स्वयम् ] आप खुद, निज 'विप्रसंति प्रणो चेव कमलसरा' (हे २, 202)1
अप्पण्ण देखो अक्कम = आ + क्रम् अप्परगइ (माह ७३) ।
अप्पण्णुअ देखो अप्पजाणुअ = आत्मज्ञ अल्पज्ञ ( प्राकृ १८ ) |
अप्पतक्किय वि [अतर्कित ] अवितर्कित (३०) 1
अप्पत्त पुंन [ अपात्र ] १ अयोग्य, नालायक, कुपात्र 'श्रवि हु प्रप्यंत्ता पररिद्धि नेय विसहृति' (सुर ३, ४५ मा १५७ ) । २ वि.
धार-रहित, भाजन- शून्य (सुर १३, ४५ ) । अप्पत व [अपत्र] [१] पता से रहित (वृक्ष) (सुर ३, ४५) २ पांच से रहित (पक्षी) (१,१४)। अप्पन्त वि [ अप्राप्त ] अलब्ध, अनवाप्त (सुर १३,४५३ श्रोध ८६) । कारि वि [कारिन्] वस्तु का बिना स्पर्श किये ही ( दूर से) ज्ञान उत्पन्न करनेवाला, 'अप्पत्तकारि यरणं' (विसे) |
अप्पति श्री [अप्राप्ति ] नहीं पाना (सुर ४, २१३) । अप्पत्तिव पुन [ अपस्वय] विधा (स ६६७; सुपा ११२) ।
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पाइअसद्दमहणवो
अप्पत्तियन [अप्रीति] १ प्रीति प्रेम का प्रभाव (ठा ४, ३) । २ क्रोध, गुस्सा ( सूत्र १, १, २ ) । ३ मानसिक पीड़ा ( आचा ) । ४ अपकार (निचू १) ।
पद्धति नाणं तह दिति दाएं, सव्वंपि तेसि कयमप्यमाणं ( सत्त २० ) । अप्पमाय [अप्रमाद ] प्रमाद का प्रभाव (Fig 2)
पत्तियवि [ अपात्रिक] पात्र-रहित, अप्पमेव वि [अप्रमेय ] १ जिसका मान आधार - वर्जित (भग १६, ३) । हो सके, अनन्त (पउम ७५, २३) । २ जिसका अपत्तियण न [ अप्रत्ययन] अविश्वास, ज्ञान न हो सके ( धर्म १ ) । ३ प्रमाण से अश्रद्धा (उप ३१२) । जिसका निश्चय न किया जा सके वह (परह १, ४) ।
अप्पय देखो अप्प ( उवः पि ४०१ ) । अपरिचत वि [अपरित्यक्त ] नहीं छोड़ा हुआ, मारियुक्त (गुफा ११० ) । अपरिवदि [अपरिपतत]
नष्ट
विद्यमान (श्रा ६) ।
अपत्य व [अ] १ प्रार्थना करने के अयोग्य । २ नहीं चाहने लायक (सुपा ३३६) । अप्पत्थ न [अप्रार्थन] १ धावा २ निन्द्रा प्रवाह (उत्त३२) । अप्पत्थिय वि [अप्रार्थित ] १ श्रयाचित । २ अनभिलषित, अवांछित (जं ३) । पत्थय, "पथिय[ि"प्रार्थक, "धिक] मरणार्थी, मौत को चाहनेवाला 'कीस गं एस प्रप्पत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे' (भग ३, २३ गाया १९७९) । अप्पर [िअप्रस्तुत] प्रसंग के अनुपयुक्त, यान्तर (सुपा १०२) । अप्पटु नि [अप्रद्विष्ट] जिसपर द्वेष न हो वह, प्रीतिकर (श्रोष ७४४) ।
अप्पदुस्समाण वह [अद्वयत्] द्वेष नहीं (१२)।
अपपत्र [अप्राप्य ] प्राप्त करने के अशक्य (विसे २६००) । अप्पभाय न [ अप्रभात ] १ बड़ी सबेर । २ बि. प्रकाश-रहित, कान्तिपु
भाए गय' (सुर ११, ११० ) । अप्पभुवि [अप्रभु] [धत (ग) २ पुं. मालिक से भिन्न, नौकर वगैरह (धर्म ३) । अप्पमजिय [अप्रमार्जित] साफ नहीं किया हुआ (उया)। अप्पमत्त वि [अप्रमत्त] प्रमाद-रहित, सावधान, उपयोगवाला (१रह २, ५३ हे १,२३१, अभि १८५) । संजय पुंस्त्री [संयत ] १ प्रमाद-रहित मुनि २ न. सातवां गुणस्थानक (भाग ३, ३) ।
अप्पमाण देखो अपमाण (बृह ३: परह २, ३ ); 'अमिता निरायमाणं सति विं
तवमप्यमाणं ।
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अप्पलहुअ अफ वि [ अप्रलघुक] महान, बड़ा (से १, १ ) 1
[अप्रोचमान] मायक्ति
अप्पलीण [अलीन] असंबद्ध सङ्ग (१४) अप्पलीयमाण नहीं करता हुआ (याचा अपवित्त वि[ अप्रवृत्त] प्रवृत्ति रहित (पंचा १४) ।
अप्पवित्ति श्री [अप्रवृति] प्रवृत्ति का अभाव ( धर्म १ ) । अप्पसंत वि[अप्रशान्त] प्रशान्त, कुपित (पंचा २) | अप्पसंसणिन व [अप्रशंसनीय] प्रशंसा के योग्य तंदु
अपस वि [असा] १ सहने के अशक्य । २ सहन करने के प्रयोग्य (वव ७) । अप्पसण्ण वि [अप्रसन्न] उदासीन (नाट)। अप्पसत्य व [ अप्रशस्त ] अचार, सुन्दर, खराब (ठा ३, ३ भगः श्रा ४) ।
अव्यसन्तिय [अल्पसस्विक] मत्य सरव बाला, 'मायाकीरति तया पुरिसा' (सूत्र १, ४, १ ) 1 अप्पसारिय वि [ अप्रसारिक] निर्जन, विजन (स्थान) (उअ १७० ) । अप्पयंत
[ अप्रभवत् ] समर्थ नहीं होता हुआ, नहीं पहुँच सकता हुआ (स ३०५) ।
अप्पय वि [ अप्रथित] १ अविस्तृत । २ अप्रसिद्ध ( गुफा १२५) ।
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