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यशोविजयजी कृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास'
': एक दार्शनिक अध्ययन लभारती विश्वद्यिालय
जनविश्वभा
जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्मदर्शन विभाग
पी-एच.डी. उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध सत्र 2011-12
सभाभी
शोध-निर्देशक डॉ. सागरमल जैन
संस्थापक, निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
शोधार्थी साध्वी प्रियस्नेहांजना श्री
जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय
लाडनूं, (राजस्थान) ३४१३०६
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प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
प्रमाण-पत्र
प्रमाणित किया जाता है कि साध्वी श्री प्रियस्नेहांजनाश्रीजी द्वारा प्रस्तुत "यशोविजयजी कृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' : एक दार्शनिक अध्ययन" नामक शोध-प्रबन्ध मेरे निर्देशन में तैयार किया गया है। उन्होंने यह कार्य लगभग 12 माह मेरे सानिध्य में रहकर पूर्ण किया है। मेरी दृष्टि में यह शोधकार्य मौलिक है और इसे किसी अन्य विश्वविद्यालय में पी-एच.डी की उपाधि हेतु प्रस्तुत नहीं किया गया
मैं इस शोध-प्रबन्ध को जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं की पी-एच.डी. की उपाधि हेतु परीक्षणार्थ अग्रसारित करता हूँ।
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प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन
संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
...
पाय
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प्राककथन
जैनदर्शन के क्षेत्र में जो प्रमुख दार्शनिक हुए हैं, उनमें उपाध्याय यशोविजयजी एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्होंने जैनदर्शन से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनके निम्नलिखित दार्शनिक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं :
अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम्, नयोपदेश, नयरहस्य, नयप्रदीप, न्यायालोक, अनेकान्तवादमहत्म्यविंशिका, आत्मख्याति, द्रव्यगुणपर्यायनोरास इत्यादि। उन्होंने न केवल स्वतंत्र दार्शनिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, अपितु अनेक दार्शनिक ग्रन्थों पर व्याख्याएँ भी लिखी हैं। जैन दार्शनिकों में उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने जहाँ नव्य न्याय शैली का जैन दर्शन में सर्वप्रथम प्रयोग किया, वहीं हरिभद्र के समान उदार और समन्वयात्मक दृष्टि का परिचय दिया। दर्शन के क्षेत्र में उनके ग्रन्थ ज्ञान मीमांसा, तत्त्वमीमांसा और जैन साधनाविधि सभी पर उपलब्ध होते हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि उन्होंने मुख्य रूप से जैन ज्ञानमीमांसा को एवं जैन भाषा-दर्शन को विशेष महत्त्व दिया था। यही कारण है कि उन्होंने इस सम्बन्ध में न्योपदेश, नयरहस्य, नयप्रदीप, जैन तर्कभाषा, भाषारहस्य आदि ग्रन्थों की रचना की और इन ग्रन्थों में जैनों के अनेकान्तवाद को न केवल पुष्ट करने का काम किया, अपितु नयवाद आदि के माध्यम से विभिन्न दार्शनिक मतवादों को कैसे समन्वित किया जा सकता है, इसकी भी विस्तृत चर्चा की है।
जैन तत्त्वमीमांसा पर वैसे तो उनके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनका प्राचीन मरूगुर्जर भाषा में रचित 'द्रव्यगुणपयथिनोरास' एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय के सहसम्बन्ध को जैनों की अनेकान्तदृष्टि के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। यही कारण है कि उनके इस ग्रन्थ में जैन तत्त्वमीमांसा के साथ-साथ नय, निक्षेप और अनेकान्त की भी विस्तृत चर्चा हुई है। इस ग्रन्थ पर उनका स्वोपज्ञ टब्बा भी है, जो प्राचीन मरूगुर्जर भाषा में ही रचित है। इस मरूगुर्जर भाषा का विकास महाराष्ट्री प्राकृत एवं
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मरहट्ट अपभ्रंश से ही हुआ है। आज तक इस ग्रन्थ का न तो हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में कोई अनुवाद हुआ है और न व्याख्या ही लिखी गई है। मात्र गुर्जर भाषा में ही इसकी दो व्याख्याएँ मिलती हैं। उनमें भी एक व्याख्या धीरजलाल डायालाल महेता की है जो दो भागों में प्रकाशित है। दूसरी व्याख्या अभयशेखर सूरि ने लिखी है । किन्तु अभी तक उसका एक ही भाग प्रकाशित हुआ है। 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' पर दिगम्बर विद्वान भोजसागर कवि ने 'द्रव्यानुयोगतर्कणा' नामक संस्कृत टीका बनाई है ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ जैन ज्ञानमीमांसा और तत्त्व - मीमांसा के विकास की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि हमने उपाध्याय यशोविजय जी के इस ग्रन्थ के दार्शनिक अध्ययन को अपने शोध विषय के रूप में चयनित किया ।
यद्यपि जैन दर्शन के क्षेत्र में द्रव्य, गुण, पर्याय की सामान्य चर्चा अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध हो जाती है, किन्तु द्रव्य, गुण पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध और द्रव्य, गुण पर्याय के विशिष्ट प्रारूपों और प्रकारों की विस्तृत चर्चा सामान्यतया जैन ग्रन्थों में प्रायः कम ही उपलब्ध होती है। द्रव्य, गुण, पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध सदा ही जैन दार्शनिकों के लिए गंभीर चिंतन का विषय रहा। किन्तु किसी ने भी इस विषय पर विस्तृत चर्चा की अपेक्षा से कलम नहीं चलाई। जहाँ तक मेरी जानकारी है, यशोविजयजी ही ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने इस विषय पर गंभीर चर्चा की।
मूलग्रन्थ अपेक्षाकृत छोटा है, फिर भी इसमें 17 ढालें और लगभग 284 दोहे हैं । किन्तु इस पर उपाध्याय यशोविजयजी ने जो व्याख्या लिखी है वह लगभग 400 पृष्ठों से अधिक की ही है। इससे शोध विषय का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है ।
प्रस्तुत कृति में उपाध्याय यशोविजयजी ने न केवल अपने अनेक पूर्ववर्ती दार्शनिकों और उनके ग्रन्थों एवं मतों का उल्लेख किया है, अपितु अनेक आगम ग्रन्थों एवं आगमिक व्याख्याओं का भी उल्लेख किया है। इसमें उन्होंने न केवल श्वेताम्बर परंपरा के दार्शनिकों एवं उनकी कृतियों का निर्देश किया है, अपितु दिगम्बर और जैनेतर परम्पराओं के ग्रन्थों और उनके मन्तव्यों का भी उल्लेख किया
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है और जहाँ आवश्यकता हुई वहाँ उनकी समीक्षा भी प्रस्तुत की है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने द्रव्य, गुण, पर्याय के स्वरूप, प्रकार और सह सम्बन्ध को लेकर न केवल जैन मन्तव्यों की पुष्टि की है, अपितु उनका अन्य दार्शनिकों की क्या मत - वैभिन्य रहा है, उसको भी स्पष्ट किया है। मैने उसकी भी चर्चा एवं समीक्षा प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में की है।
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इस दृष्टि से यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ में अनेक जैन और जैनेतर ग्रन्थों का पर्यावलोचन कर उनके मन्तव्यों से या तो अपने मत की पुष्टि की है या तो फिर उन मन्तव्यों की समीक्षा की है जो इस शोध का महत्त्वपूर्ण पक्ष है । इस चर्चा में उनका मुख्य विवेच्य विषय द्रव्य, गुण एवं पर्याय का पारस्परिक भेदाभेद सम्बन्ध ही रहा है और हमने भी प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में उसे ही उभारने का प्रयत्न किया है ।
जैसा हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि जैन दर्शन जगत के परवर्ती मध्ययुग के यशस्वी चिन्तकों में उपाध्याय यशोविजयजी एक महत्त्वपूर्ण नक्षत्र के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। जैनविद्या के क्षेत्र में अभी तक जो भी शोध कार्य हुए हैं, उनमें उपाध्याय यशोविजयजी की उपेक्षा ही देखी जा रही है। उनके अनेक प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ होने पर भी उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का दार्शनिक दृष्टि से अध्ययन उपेक्षित ही रहा है । उपाध्याय यशोविजयजी न केवल जैन दर्शन के गंभीर अध्येता रहे हैं, अपितु वे अन्य भारतीय दर्शनों एवं साधना विधियों के भी गंभीर अध्येता माने जा सकते हैं। उनके अध्यात्मोपनिषद्, अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि आध्यात्म क्षेत्र की बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । इसी प्रकार नयप्रवेश, नयप्रदीप, नयरहस्य आदि ग्रन्थ अनेकान्तवाद के पोषक प्रमुख ग्रन्थ हैं। उनका प्रस्तुत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' भी द्रव्य, गुण और पर्याय के सहसम्बन्ध को लेकर अनेकान्त दृष्टि से जैन तत्त्वमीमांसा पर लिखा गया महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है ।
अभी तक उपाध्याय यशोविजयजी के अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानसार और अध्यात्मसार के अतिरिक्त किसी भी ग्रन्थ पर समीक्षात्मक दृष्टि से कोई कार्य नहीं हुआ है। उपाध्याय यशोविजयजी की यह विशेषता है कि उन्होंने न केवल जैन
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श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों पर ही टीकाएँ या व्याख्याएं लिखी, अपितु दिगम्बर परंपरा के कुन्दकुन्दाचार्य के 'समयसार', सर्वमान्य जैन दार्शनिक उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र तथा पतंजली के 'योगसूत्र' पर भी तथा कुछ बौद्ध ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी का जैन दर्शन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान होते हुए भी वे और उनके ग्रन्थ प्रायः उपेक्षित ही रहे। इस दृष्टि से प्रस्तुत शोध कार्य का महत्त्व और औचित्य सिद्ध हो जाता है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' एक ऐसी कृति है जिसमें शताधिक जैन और जैनेतर ग्रन्थों और दार्शनिकों का उल्लेख है। सामान्यतया मेरी जानकारी में संदर्भ सहित विविध दार्शनिक मन्तव्यों, उनके ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उल्लेख प्रस्तुत कृति को भी एक शोध ग्रन्थ ही बना देती है। जैन दर्शन में ऐसा ग्रन्थ दुर्लभ ही है और यही बात हमारी शोध के औचित्य को स्पष्ट कर देती है।
उपाध्याय यशोविजयजी के 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य इस कृति को और इस कृति के विवेच्य विषय को दार्शनिक जगत के समक्ष प्रस्तुत करना ही है। जैसा कि हमने पूर्व में भी निर्देश किया है कि यह कृति मूलतः प्राचीन मरूगुर्जर में लिखित होने के साथ-साथ भारतीय दार्शनिकों और जैन दार्शनिक विद्वानों के लिए प्रायः अपरिचित ही रही है। वे इस कृति से परिचित हों और इसके दार्शनिक विषयों को समझें यही प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है।
दर्शन के क्षेत्र में यद्यपि वैशेषिक दर्शन ने द्रव्य, गुण और कर्म की चर्चा की है। किन्तु वह चर्चा भी संक्षेप ही रही। पर्याय की अवधारणा जैनों की अपनी विशेष अवधारणा रही है। उसकी कुछ संगति वैशेषिक दर्शन के कर्म से बिठाई जा सकती है, किन्तु जैनों की पर्याय की अवधारणा उनकी अपनी मौलिक अवधारणा है। यह भारतीय दर्शन के क्षेत्र में एक मौलिक चिन्तन प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार यह बौद्धों के तत्त्व-स्वरूप के निकट होकर भी, उससे भी भिन्न ही है। जैन दर्शन जहाँ पर्याय की अवधारणा को लेकर अपने को बौद्ध दर्शन के समीप खड़ा पाता है, वहीं वह द्रव्य की अवधारणा को लेकर वेदान्त के निकट भी अपने को खड़ा पाता है।
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प्रस्तुत शोधकार्य का एक उद्देश्य यह भी था कि जैनदर्शन ने बौद्धदर्शन और वेदान्तदर्शन, जो दो विरोधी छोर हैं, उनके मध्य कैसे समन्वय प्रस्तुत किया गया है।
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इसी प्रकार प्रस्तुत अध्ययन का एक उद्देश्य यह भी था कि अनेकांत दृष्टि से जैनों ने दर्शन के क्षेत्र में परस्पर विरोधी मतवादों को कैसे समन्वित किया है। भारतीय चिन्तन में अनेकान्त और नयवाद के माध्यम से विरोधी दार्शनिकों के मन्तव्यों के समाहार और समन्वय का, जो प्रयत्न जैन दर्शन में किया गया है, उसको प्रस्तुत करना भी हमारी प्रस्तुत शोध का एक उद्देश्य था ।
प्रस्तुत गवेषणा का मुख्य प्रश्न तो जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणाओं का विकास कैसे और किस क्रम में हुआ और कालक्रम में उनकी व्याख्याओं में क्या परिवर्तन आया, यह दिखाना था। इसके साथ ही प्रस्तुत गवेषणा में दूसरा मुख्य विवेच्य बिन्दु द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को अनेकांतिक दृष्टि से स्पष्ट करना था । यद्यपि जैनदर्शन के अतिरिक्त न्यायदर्शन में द्रव्य, गुण और कर्म की अवधारणा प्रस्तुत है । किन्तु जहाँ न्यायदर्शन द्रव्य, गुण और कर्म को एक दूसरे से भिन्न मानता है, वहाँ जैनदर्शन उन्हें अपेक्षा विशेष के आधार पर कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानता है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में द्रव्य, गुण और पर्याय की और उनके सहसम्बन्ध की विस्तृत चर्चा हमें उपलब्ध होती है। जहाँ जैनदर्शन में सत्ता को द्रव्य के रूप में नित्य और पर्याय के रूप में अनित्य माना गया है, वहाँ बौद्धदर्शन सत्ता को एकान्ततः परिवर्तनशील मानकर पर्याय रूप ही मानता है, इसके ठीक विपरीत वेदान्तदर्शन सत्ता को द्रव्य रूप मानकर एकान्ततः कूटस्थ नित्य मान लेता है। प्रस्तुत शोध की इस परिकल्पना में इस एकान्त भेदवाद और एकान्त अभेदवाद के मध्य उपाध्याय यशोविजयजी ने तथा उनके पूर्ववर्ती और परवर्ती जैन दार्शनिकों ने किस प्रकार समन्वय किया है, यह दिखाना था ।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनदर्शन के नयसिद्धान्त और अनेकान्तवाद को माध्यम बनाकर इन विरोधी
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अवधारणाओं के मध्य समन्वय करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य विषय द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणाओं में ऐतिहासिक विकासक्रम तथा तद्सम्बन्धी अन्य दार्शनिक मान्यताओं से उनकी विभिन्नता दिखाकर विरोधी अवधारणाओं के मध्य समन्वय दिखाना ही रहा है।
प्रस्तुत गवेषणा में हमने प्रथम अध्याय में ग्रन्थ, और ग्रन्थ की विषयवस्तु तथा ग्रन्थकार और उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की चर्चा की है।
ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में हमने जैनदर्शन में अनेकान्तवाद एवं नयसिद्धान्त की चर्चा की है। प्रस्तुत अध्ययन में इस चर्चा के साथ-साथ विभिन्न नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के पांचवी, छठी एवं सप्तमी ढालों में नयों की और उनके उप-प्रकारों की विस्तृत चर्चा की है। यद्यपि इस संदर्भ में उन्होंने देवसेन के नयचक्र को आधार बनाया है। किन्तु आवश्यकता होने पर उनके नय विभाजनों की समीचीन समीक्षा भी की है। श्वेताम्बर परम्परा में नयों की इतनी विस्तृत और तार्किक चर्चा उपाध्याय यशोविजयजी के अतिरिक्त अन्य किसी ने नहीं की है।
___शोधग्रन्थ का तीसरा अध्याय मुख्य रूप से द्रव्य की अवधारणा से सम्बन्धित है। इसमें यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि पंचास्तिकाय की अवधारणा से षद्रव्य की अवधारणा किस रूप से और कैसे विकसित हुई ? इसी अध्याय में समालोच्य ग्रन्थ एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर विभिन्न द्रव्यों के स्वरूप आदि की भी चर्चा की गई है।
चतुर्थ अध्याय में जैनदर्शन की गुणों की अवधारणा की चर्चा की गई है। इसमें गुण की परिभाषा, जैनदर्शन में गुण शब्द के विभिन्न अर्थों का विकास, गुणों की संख्या तथा उनके प्रकार आदि की चर्चा की है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, गुणों के संदर्भ में जितनी सुव्यस्थित व्याख्या उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में दी है, उतनी अन्यत्र अनुपलब्ध है। इसी अध्याय में जैनदर्शन
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में गुणों की अवधारणा से अन्य दर्शनों, विशेष रूप से न्यायदर्शन की गुणों की अवधारणा से उसका कितना साम्य और कितना वैषम्य है, यह भी स्पष्ट किया गया है। जहाँ द्रव्य की अवधारणा में हमारी दृष्टि मुख्य रूप से समीक्षात्मक रही, वहीं गुणों की अवधारणा के संदर्भ में समीक्षा के साथ-साथ तुलना की गई है।
इस शोधग्रन्थ का पंचम अध्याय मुख्य रूप से पर्याय की अवधारणा से सम्बन्धित है। पर्याय की अवधारणा जैनदर्शन की मुख्य अवधारणा है। इसकी चर्चा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में प्रायः अनुपलब्ध ही है। अतः इस अध्याय में पर्याय का अर्थ, परिभाषा और स्वरूप की चर्चा है, किन्तु इसके साथ यह देखने का प्रयत्न भी किया गया है कि पर्याय की अवधारणा की क्या आवश्यकता थी और जैनदर्शन ने इस अवधारणा को क्यों स्वीकार किया ? वैसे तो जैनदर्शन इस बात को मानकर चलता है कि जहाँ द्रव्यों की संख्या सीमित है, वहाँ पर्याय की संख्या अनन्त है। यशोविजयजी ने समीक्ष्य ग्रन्थ में सामान्य और विशेष गुणों की दृष्टि से न केवल गुणों के प्रकारों को बताने का प्रयत्न किया, अपितु उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ की 14 वीं ढाल में पर्यायों के विभिन्न प्रकारों की विस्तृत चर्चा की है, जिसका उल्लेख प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में किया है।
शोधप्रबन्ध का छठाँ अध्याय द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करता है। यह द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक भिन्नत्व और अभिन्नत्व की अवधारणा जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त और नयसिद्धान्त के आधार पर खड़ी हुई है। यशोविजयजी ने इसे अनेकान्तवाद और नयवाद के आधार पर ही स्पष्ट किया है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने इस शोधग्रन्थ में की है।
शोधप्रबन्ध का अन्तिम अध्याय उपसंहार रूप है। जिसमें विभिन्न अध्यायों के चर्चा के सार के साथ-साथ इस सम्बन्ध में हमने अपने मंतव्यों को भी प्रस्तुत किया
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कृतज्ञता ज्ञापन
"यशोविजयजीकृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' : एक दार्शनिक अध्ययन" नामक इस शोध-प्रबन्ध के गुरू-गंभीर कार्य की पूर्णाहुति प्रसंग पर प्रत्यक्ष–परोक्ष रूप से सहयोगी जनों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मेरे हृदय में जितने सघन भाव हैं, उतने शब्द नहीं है। फिर भी मैं सर्वप्रथम उन परम वीतरागी, शुद्धात्मस्वरूपी, अनंत उपकारी तीर्थंकर परमात्मा पार्श्वमणि पार्श्वनाथ के चरणों में श्रद्धाप्रणत हूँ जिनकी पावन वाणी श्रुत रूप में उपकारी बनकर आज भी प्राणी मात्र के लिए निःश्रेयस का पथ प्रदर्शित कर रही है।
मैं उन शासन उपकारी, युगप्रभावी चारों दादा गुरूदेवों के पाद-पद्मों में श्रद्धायुक्त नमन करती हूँ जिनकी निरन्तर बरसती हुई कृपादृष्टि ने इस गुरूत्तर कार्य को संपन्न करने में मुझे ऊर्जा प्रदान की है।
जिनकी अदृश्य प्रेरणा ने मेरी चेतना को जागृत करके मेरे मस्तिष्क के तरंगों को तरंगित किया है, जिनके प्रत्येक शब्द ने जिज्ञासा को जागृत करके द्रव्यानुयोग के प्रति आन्तरिक रूचि उत्पन्न की है, जिनकी ग्रन्थ-रचना की शैली ने समन्वय का पाठ पढ़ाया है, ऐसे जिनशासन के बहुश्रुत दार्शनिक, काव्य-मीमांसक, प्रतिभा संपन्न, युग प्रभावक उपाध्याय यशोविजयजी के प्रति अपनी कृतज्ञता को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती हूँ। उनके चरणों के अनंत-आस्था का अर्घ्य ही समर्पित करके कृतार्थता का अनुभव कर रही हूँ।
खरतरगच्छ नभोमणि गणनायक प.पू. सुखसागरजी म.सा. के दिव्याशीष के आलोक में ही प्रस्तुत शोध कार्य निर्विघ्न और सानंद सम्पन्न हुआ है।
जिनकी दिव्यकृपा व तेजस्वी शक्ति से मुझे शोध कार्य निष्पादन की पात्रता प्राप्त हुई, उन असीम आस्था केन्द्र प्रज्ञापुरूष प.पू. श्रीमजिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी म.सा. को मैं असीम आस्था के साथ अभिवंदन करती हूँ।
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इस शोध कार्य की सानंद सम्पन्नता में आचार्य भगवंत प.पू. कैलाशसागरसूरि जी म.सा. की प्रत्यक्ष कृपा रही है। अतः ग्रन्थ की पूर्णाहुति की पावन बेला में उनके चरणों में सादर सविनय नमन करती हूँ।
जिन्होंने अध्ययन के प्रति सदैव जागरूक रहने एवं प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर पाथेय प्रदान किया तथा जिनकी प्रेरणा इस शोध प्रबन्ध का निमित्त कारण बनी, ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, ज्योतिर्विद, मरूधर मणि गुरूदेव, उपाध्यायप्रवर मणिप्रभसागरजी म.सा. के चरणों में भी अन्तश्चेतनापूर्वक नमन करती
प्रातःस्मरणीया, प.पू.प्र. महोदया प्रेमश्रीजी म.सा. की असीम कृपामृत रूप सुप्रसाद से ही प्रस्तुत शोध कार्य यथोचित रूप से सम्पन्न हुआ है। उनके चरणों में भी मेरे श्रद्धा के सुमन सादर समर्पित हैं।
इस शोध-प्रबन्ध के प्रणयन में जिनका आशीर्वाद अहम् स्थान रखता है, जिनके वरदहस्त का स्पर्श पाकर मैं इस शोधकार्य में संलग्न हो पाई, जिनकी पावन प्रेरणा इस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए प्रेरक रही है, जिनके सम्यक् सुझावों के परिणामस्वरूप इस कलेवर को तैयार करने में मैं सक्षम बन सकी उन संयमप्रदात्री, महाकृपादात्री, स्नेहगंगोत्री द्वय गुरूवर्या पार्श्वमणि तीर्थप्रेरिका प.पू. सुलोचनाश्रीजी म. सा. एवं वर्धमान तपाराधिका प.पू. सुलक्षणाश्रीजी म.सा. के पाद-प्रसूनों में कृतज्ञता के पुष्प लिए सदैव नतमस्तक हूँ। आपने न केवल मेरे हृदय में श्रुतसाधना का बीजारोपण किया, अपितु श्रुतोपासना के लिए मुझे सामाजिक एवं सामुदायिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखकर समय व स्थान की सम्पूर्ण सुविधा प्रदान की। अतः वे ही इस समग्र कृतित्व की प्राण हैं।
ग्रन्थ की पूर्णाहुति के इन क्षणों में पू.प्रीतिसुधाश्रीजी, पू.प्रीतियशाश्रीजी, पू.प्रियस्मिताश्रीजी, पू.प्रियलताश्रीजी, पू.प्रियवंदनाश्रीजी, पू.प्रियकल्पनाश्रीजी, पू.प्रियरंजनाश्रीजी, पू.प्रियश्रद्धांजनाश्रीजी, प्रियसौम्यांजनाश्रीजी, प्रियदिव्यांजनाश्रीजी, प्रियस्वर्णांजनाश्रीजी, प्रियप्रेक्षांजनाश्रीजी, प्रियश्रुतांजनाश्रीजी, प्रियशुभांजनाश्रीजी,
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प्रियदर्शांजनाश्रीजी,
प्रियज्ञानांजनाश्रीजी, प्रियदक्षांजनाश्रीजी, प्रियश्रेष्ठांजनाश्रीजी,
प्रियवर्षांजनाश्रीजी, प्रियमेघांजनाश्रीजी, प्रियविनयांजनाश्रीजी, प्रियकृतांजनाश्रीजी आदि सभी गुरूभगिनियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा एवं स्नेह निरन्तर संप्राप्त होता रहा ।
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मैं विशेष रूप से आभारी हूँ सरलमना साध्वी प्रियमेघांजनाश्रीजी के प्रति जिन्होंने इस ग्रन्थ के लेखन काल में व्यवहारिक औपचारिकताओं से मुक्त रखकर मुझे हर तरह की सेवाएं प्रदान करने में विशिष्ट भूमिका निभाई है।
मैं सर्वात्मना भावेन कृतज्ञता अभिव्यक्त करती हूँ जैनविद्या के निष्णात विद्वान, मूर्धन्य मनीषी, प्राच्य विद्यापीठ के संस्थापक माननीय डॉ. सागरमलजी जैन के प्रति जिनका इस शोध-प्रबन्ध को मूर्तरूप देने में अमूल्य योगदान रहा है। उन्होंने अपनी शारीरिक अस्वस्थता और अत्यन्त व्यस्तता के बावजूद भी न केवल इस शोधकार्य को अथ से इति तक पहुंचाने में कुशल निर्देशन एवं मार्गदर्शन के साथ-साथ गहन दार्शनिक विषयों को स्पष्ट करके इस शोधकार्य को सरल और सुगम बनाया है, अपितु आपने पितृतुल्य वात्सल्य रखते हुए 'प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर में ग्रन्थालय आदि की सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान की है। यदि मैं यह कहूं कि इस शोधग्रन्थ के निर्माण का संपूर्ण श्रेय उन्हीं को है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। सरल, सहज और उदारमना डॉ. सागरमलजी जैन का मार्गदर्शन और सहयोग सदैव अविस्मरणीय रहेगा ।
मैं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ धीरजलाल डाह्यालाल महेता के प्रति जिन्होंने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का गुजराती विवेचन लिखकर टब्बे के एक-एक शब्द का रहस्योद्घाटन करके उपाध्याय यशोविजयजी के भावों को आत्मसात करवाया । आपके द्वारा लिखित गुजराती भाषा का यह विवेचन शोधकार्य को गति देने में अत्यन्त सहायक रहा । द्रव्यानुयोग के गहन विषयों के स्पष्टीकरण में सतीशजी कासीवाल से प्राप्त सहयोग भी अविस्मरणीय है।
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इसके अतिरिक्त उन सभी महापुरूषों, जैन-जैनेतर ग्रंथकारों, विचारकों, लेखकों, गुरूजनों के प्रति भी हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ जिनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन और मनन करके मैंने अपने शोध ग्रन्थ को नवीन आकार दिया है।
____ मैं इन सुखद क्षणों में मीनाक्षी बरडिया का श्रद्धासमर्पण और समय-समय पर दिया गया अपूर्व सहयोग को भी विस्मरण नहीं कर सकती हूँ।
राजा 'जी'. ग्राफिक्स, शाजापुर के श्री शिरीष सोनी के प्रति भी आभार ज्ञापित करती हूँ, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ का कम्प्यूटराईज्ड टंकण कर इसे पूर्णता प्रदान करने में सहयोग प्रदान किया।
अन्त में इस शोध-ग्रन्थ प्रणयन में जिनका भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग प्राप्त हुआ है, उन सभी आत्माओं के प्रति मंगलकामना ज्ञापित करती हूँ।
जिगर नहोजना -साध्वी प्रियस्नेहांजना श्री
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विषय सूची
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प्रथम अध्याय – विषय प्रवेश
1. ग्रन्थ का स्वरूप 2. द्रव्यगुणपर्यायनोरास का दार्शनिक स्वरूप 3. जैन दार्शनिक साहित्य में प्रस्तुत ग्रन्थ का स्थान और महत्त्व 4. ग्रन्थ की विषयवस्तु और उसकी उपादेयता 5. ग्रन्थकार उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्व 6. ग्रन्थकार उपाध्याय यशोविजयजी का कृतित्व 7. यशोविजयजी के दार्शनिक कृतियों में प्रस्तुत कृति की विशेषता
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द्वितीय अध्याय - वस्तु तत्त्व के विवेचन की जैन शैली – अनेकांतवाद और नयवाद (अ) जैनदर्शन का आधार अनेकांतवाद
अनेकान्तवाद का विकास वेद और उपनिषदों में अनेकान्तदृष्टि के संकेत बौद्ध साहित्य में अनेकान्तदृष्टि जैनागम में अनेकान्तदृष्टि वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता वस्तु अनेकान्तिक है ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमितता भाषा की सीमितता और सापेक्षता अनेकान्त की अपरिहार्यता
(ब) स्याद्वाद और सप्तभंगी -
1. प्रथम भंग : स्याद् अस्ति 2. द्वितीय भंग : स्याद् नास्ति
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3. तृतीय भंग स्यादवक्तव्य : स्याद् अवक्तव्यो घट: 4. चतुर्थ भंग : स्याद् अस्ति नास्ति 5. पंचम् भंग : स्याद् अस्ति अवक्तव्य 6. षष्टम् भंग : स्याद् नास्ति अवक्तव्य 7. सप्तम् भंग : स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य
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(स) अनेकान्तवाद और नय वाद
अनेकान्तवाद और नयवाद का सहसम्बन्ध
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(द) जैनदर्शन में नय-स्वरूप और नय-विभाजन
(1) नय का स्वरूप नय की निरूक्तिपरक व्याख्या 1. नय प्रमाण परिगृहीत वस्तु का एक अंश 2. श्रुतज्ञान का विकल्प नय 3. ज्ञाता या वक्ता का अभिप्राय नय 4. नय एकदेशवस्तुग्राही
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(2) नयविभाजन आगमकाल में नय विभाजन दार्शनिक युग में नय का विभाजन
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(3) नयों के प्रकारों का विवेचन
द्रव्यार्थिक नय के भेद 1. कर्मोपाधि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय 2. उत्पाद-व्यय-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय 3. भेदकल्पना-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय
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4. कर्मोपाधि-सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 5. उत्पाद-व्यय-सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 6. भेदकल्पना–सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 7. अन्वय द्रव्यार्थिकनय 8. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय 10.परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय
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पर्यायार्थिकनय के भेद 1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय 2. सादि नित्य पर्यायार्थिकनय 3. अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय 4. नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय 5. कर्मोपाधिरहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय 6. कर्मोपाधि-सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय
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नैगमादि सप्तनय 1. नैगमनय द्वैतग्राही नैगमनय संकल्पग्राही नैगमनय लोकार्थ का बोधग्राही नैगमनय 1. भूतनैगमनय 2. भाविनैगमनय 3. वर्तमाननैगमनय
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2. संग्रहनय 1. ओघसंग्रहनय 2. विशेषसंग्रहनय
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3. व्यवहारनय 4. ऋजुसूत्रनय
सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय और स्थूल ऋजुसूत्रनय 5. शब्दनय
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(1) कालभेद (2) कारकभेद (3) लिंगभेद (4) संख्याभेद (5) पुरूषभेद (6) उपसर्गभेद
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6. समभिरूढ़नय 7. एवंभूतनय
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उपनय
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(1) सद्भूत व्यवहार उपनय
(अ) शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय
(ब) अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय (2) असद्भूत व्यवहार उपनय (1) द्रव्य में द्रव्य का उपचार (2) गुण में गुण का उपचार
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(3) पर्याय में पर्याय का उपचार
(4) द्रव्य में गुण का उपचार
(5) द्रव्य में पर्याय का उपचार
(6) गुण में द्रव्य का उपचार
(7) पर्याय में द्रव्य का उपचार
(8) गुण में पर्याय का उपचार
( 9 ) पर्याय में गुण का उपचार
1. स्वजाति असद्भूत व्यवहार उपनय
2. विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय
3. स्वजाति विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय
3. उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय
अ. स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय
ब. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय
स. स्वजाति - विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय
निश्चयनय और व्यवहारनय
1. शुद्धनिश्चयनय
2. अशुद्ध निश्चयनय
1. सद्भूत व्यवहारनय
2. असद्भूत व्यवहारनय
नयसिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम
यशोविजयजी द्वारा देवसेनकृत नय विभागों की समीक्षा नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय का सहसम्बन्ध
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तृतीय अध्याय - जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास
1. द्रव्य की विभिन्न परिभाषाएँ 2. यशोविजयजी की दृष्टि में द्रव्य का स्वरूप 3. द्रव्य के गुण 4. द्रव्य की पर्याय 5. द्रव्य के प्रकार 6. पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की अवधारणा का पारस्परिक सम्बन्ध 7. षड्द्रव्यों का पारस्परिक सहसम्बन्ध या उपकार 8. अन्य दर्शनों से जैनदर्शन के द्रव्य की समानता और विषमता
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चतुर्थ अध्याय – गुण की अवधारणा एवं प्रकार 1. गुण शब्द के विभिन्न अर्थ 2. प्राचीन ग्रन्थों में गुण शब्द का अर्थ 3. परवर्ती ग्रन्थों में गुण शब्द का अर्थ 4. यशोविजयजी की दृष्टि में गुण का स्वरूप 5. गुण के प्रकार - सामान्य गुण और विशेष गुण 6. यशोविजयजी के अनुसार सामान्य गुणों के प्रकार 7. यशोविजयजी के अनुसार विशेष गुणों के प्रकार 8. सभी द्रव्यों के सामान्य गुण और किसी एक द्रव्य के विशेष गुण 9. स्वभाव 10. सामान्य स्वभाव 11.विशेष स्वभाव 12. नयों के आधार पर सामान्य-विशेष स्वभाव
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पंचम अध्याय – पर्याय की अवधारणा एवं प्रकार
1. जैनदर्शन में पर्याय की अवधारणा 2. पर्याय की अवधारणा की आवश्यकता 3. यशोविजयजी की दृष्टि में पर्याय का स्वरूप 4. पर्याय के प्रकार : व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय
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षष्टम अध्याय – द्रव्य, गुण और पर्यायों का पारस्परिक सम्बन्ध अ) 1. एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से सम्बन्ध
2. द्रव्य का गुण से सम्बन्ध 3. द्रव्य और गुण में भेदाभेद रूप पारस्परिक सम्बन्ध 4. गुण के सम्बन्ध में नैयाकि और जैनमत का अन्तर
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ब)
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1. द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद 2. द्रव्य का पर्याय से भेद और अभेद की मान्यता की आवश्यकता 3. क्या गुणों की भी पर्यायें होती है ? 4. द्रव्य, गुण और पर्यायों के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर
अन्य दर्शनों की दृष्टि और जैनदृष्टि में अन्तर 5. उपाध्याय यशोविजयजी द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक
सम्बन्ध को कैसे स्पष्ट करते हैं ?
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सप्तम अध्याय -
503-524
उपसंहार
सन्दर्भ ग्रंथ सूची -
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प्रथम अध्याय
ग्रन्थ का स्वरूप :
केवलज्ञान के निर्मल प्रकाश में षड्द्रव्यात्मक लोक के स्वरूप को जान करके तीर्थकर परमात्मा ने गणधरभगवंतों को “उपनेई वा, विगमेइ वा, धुवेई वा” रूप इस त्रिपदी का उपदेश देकर उन्हें षड्द्रव्यात्मक लोक के यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराते हैं। गणधरभगवंत परमात्मा प्रदत्त इस त्रिपदी के माध्यम से मात्र अन्तर्मुहूर्त में ही चौदहपूर्व सहित समस्त द्वादशांगी की रचना करते हैं। इस संपूर्ण श्रुतसागर के चार अनुयोग या विभाग हैं। - 1. द्रव्यानुयोग, 2. चरणकरणानुयोग, 3. गणितानुयोग और 4.धर्मकथानुयोग । अनुयोग से तात्पर्य है – व्याख्यान पद्धति या विषय विवेचन करने की शैलीविशेष। प्रथम द्रव्यानुयोग में पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, नवतत्त्व, लोक का स्वरूप, कर्म, योग, लेश्या ध्यान, आदि-आदि विषयों का समावेश होता है। जिस अनुयोग में मुख्य रूप से आचारमार्ग या क्रियामार्ग की चर्चा होती है, वह चरणकरणानुयोग कहलाता है। गणितानुयोग में क्षेत्र आदि का माप, संख्या, काल का स्वरूप आदि गणित से सम्बन्धित विषयों की जानकारी होती है। धर्मकथानुयोग में कथाओं, प्रसंगों, उदाहरणों, उपमाओं आदि के माध्यम से धर्मोपदेश किया जाता है।
इन चारों अनुयोगों में द्रव्यानुयोग महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ दुरूह भी है। न्यायविशारद महोपाध्याय यशोविजयजी प्रणीत–'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' द्रव्यानुयोग का अद्भुत ग्रन्थ रत्न है, जो द्रव्यानुयोग में प्रवेश करने के लिए द्वार समान है। यशोविजयजी संस्कृत-प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी प्रस्तुत ग्रन्थ को जनभोग्य बनाने के लिए अपनी मातृभाषा गुजराती (मरूगुर्जर) में गेयस्वरूप में अर्थात रास के रूप में रचना की है। रास के रूप में होते हुए भी इस ग्रन्थ में किसी चरित्रनायक का गुणगान न होकर द्रव्य, गुण, पर्याय जैसे गहन पदार्थों का गुर्जर काव्य में सचोट और सरल निरूपण है। न्यून से न्यून शब्दों में अधिक से अधिक बोध हो, इस दृष्टि से द्रव्य, गुण और पर्याय की इस दार्शनिक चर्चा को ढाल में
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ढालने का अनुपम प्रयास किया गया है। इस ग्रन्थ के रचनाकाल के विषय में 'उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय स्मृति ग्रन्थ में दलसुख मालवणिया ने लिखा है कि इस ग्रन्थ की प्राचीनतम हस्तप्रति वि.सं. 1729 (ई. सन् 1673) की उपलब्ध हुई है। इस दृष्टि से वि.सं. 1729 के पूर्व ही यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ की रचना की होगी। धीरजभाई डाह्यालाल के अनुसार वि.सं. 1709/1710 के आसपास 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की रचना हुई है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' 17 ढालों और 284 दोहे / गाथाओं में वर्णित है। इसका मुख्य विवेच्य विषय द्रव्य, गुण, और पर्याय हैं। इसमें त्रिपदी का रहस्य, षड्द्रव्यों के स्वरूप, लक्षण आदि का तथा उनके सामान्य गुण, विशेष गुण, सामान्य स्वभाव, विशेष स्वभाव एवं व्यंजनपर्याय, अर्थपर्याय आदि का विस्तार से वर्णन है। द्रव्य से गुण और पर्याय कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न है अर्थात् भिन्नाभिन्न हैं। इस बात को अनेक युक्तियों और तर्कसंगत दलीलों से सिद्ध किया गया है। द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक संबन्ध को अनेकांतवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी, नयवाद के आधार पर समझाया गया है।
इसमें नयों की चर्चा के प्रसंग में दिगम्बर आचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' ग्रन्थ की समीचीन समीक्षा की गई है। इसमें देवसेन आचार्य के द्वारा नय, उपनय और अध्यात्म नय के विभाजन के अनुचित अंशों की तर्कयुक्तियों से समीक्षा की गई है।
अन्त में आत्मस्वरूप को प्रगट करने के लिए द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का अध्ययन, चिंतन, मनन, परिशीलन ही मुख्य मार्ग है ऐसा बलपूर्वक निर्देश किया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में यशोविजयजी ने द्रव्य-गुण-पर्याय के विशद विवेचन के साथ-साथ सर्वनयात्मक, प्रमाण पुरस्कृत श्वेताम्बर जैन मत मान्य सिद्धान्तों के मंडन का पूर्णरूप से प्रयास किया है। इसके लिए श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों, आगमिक व्याख्या ग्रन्थों, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित
। उपाध्याय यशोविजय स्मृति ग्रन्थ, पृ. 284 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, पृ. 26
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सम्मतितर्क, प्रमाणनयतत्त्वालोक, विशेषावश्यकभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र आदि को आधार बनाया है। स्वमत मंडन और परमत खंडन के लिए नय, निक्षेप न्याय की प्राचीन शैली और नव्यन्याय की आधुनिक शैली का प्रचुर उपयोग किया गया है। प्रस्तुत रास विविध दर्शनों के पदार्थ के स्वरूप और उदाहरणों से भी सभर है। ___उपाध्याय यशोविजयजी की प्रस्तुत रासात्मक कृति भाषा की दृष्टि से सरल होते हुए भी विषय वस्तु की दृष्टि से कठिन भी है। अतः स्वयं यशोविजयजी ने गहन पदार्थों के रहस्यार्थ को उद्घाटित करने के लिए इस पर स्वोपज्ञ टबा की रचना भी की है। इस ग्रन्थ पर दिगम्बर विद्वान भोजसागर कवि ने 'द्रव्यानुयोग तर्कणा' नामक संस्कृत टीका की रचना भी की है।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की भिन्न-भिन्न ढालों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से द्रव्य-गुण और पर्याय का सुन्दर निरूपण है।
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द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास का दार्शनिक स्वरूप -
सरस्वती के वरदपुत्र न्याय विशारद महोपाध्याय यशोविजयजी प्रणीत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास एक श्रेष्ठ दार्शनिक रचना है। इस कृति को मरूगुर्जर भाषा में रचित एक विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थ का गौरव प्राप्त है। सभी दार्शनिक ग्रन्थों की तरह प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्य विवेच्य विषय भी 'सत्' है जिसे जैन पारिभाषिक शब्द में 'द्रव्य' कहा जाता है। यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान महावीर से लेकर 17 वीं शताब्दी तक के द्रव्य विषयक सभी विचारधाराओं की सूक्ष्मदृष्टि से समीक्षा करके उन विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय करने का प्रयत्न किया है। इस हेतु से उपाध्यायजी ने जिन-जिन दार्शनिक बिन्दुओं पर मुख्यरूप से विशद चर्चा की है, वे मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं :
1. द्रव्य, गुण, पर्याय का लक्षण व स्वरूप
2. सत् का स्वरूप (उत्पाद–व्यय-धोव्यात्मक) 3. द्रव्य-गुण-पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
4. दिगम्बराचार्य देवसेन कृत नयविभाजन का समीक्षात्मक विवेचन
1. द्रव्य, गुण पर्याय का लक्षण व स्वरूप :
प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु को देखकर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की रचना का मुख्य उद्देश्य द्रव्य, गुण, पर्याय का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करना है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को द्रव्य (सत्) का लक्षण माना है। गुण
और पर्याय का अस्तित्व द्रव्य से भिन्न नहीं है। गुण, द्रव्य का सहभावी धर्म है, जबकि पर्याय द्रव्य का क्रमभावी धर्म है। जैनदर्शन मान्य पंचास्तिकाय के स्वरूप के वर्णन के साथ पंचास्तिकाय की अवधारणा को मानने के पीछे निहित कारणों को भी यशोविजयजी ने सुन्दर तर्कों के साथ स्पष्ट किया है। षड्द्रव्य की अवधारणा कब से और कैसे प्रारम्भ हुई ? तथा काल विषयक दिगम्बर और श्वेताम्बर परंपरा के विभिन्न
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मन्तव्यों को समझाकर उनकी आगमिक उल्लेखों के आधार पर समीक्षा की है। तत्पश्चात् सामान्य और विशेष गुणों को और व्यंजन और अर्थ पर्याय आदि को भी सूक्ष्म रूप से विश्लेषित किया है।
2. उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् का स्वरूप -
विश्व का मूलभूत घटक सत् के विषय में विभिन्न दार्शनिक परंपराओं में परस्पर मतभेद रहे हैं। वेदान्त दर्शन में सत् को एक, नित्य, निर्विकार, अपरिवर्तशील निरपेक्ष तत्व के रूप में माना है। उनके अनुसार सत् वही है जिसमें त्रिकाल में कोई परिवर्तन घटित नहीं होता हो। जिसमें उत्पाद एवं व्यय की प्रक्रिया हो तथा जो अवस्थान्तर को प्राप्त होता हो, वह कदापि सत् नहीं हो सकता है। इस प्रकार वेदान्तियों ने एकान्त नित्यवाद को पुष्ट किया है। इस मान्यता के ठीक विरोध में बौद्धदर्शन ने सत् को परिवर्तनशील के रूप में स्वीकार किया। उनके मतानुसार सत् का लक्षण ही अर्थक्रियाकारित्व अर्थात् परिणमनशीलता है। सत् में सतत रूप से उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया चलती रहती है। उत्पत्ति और विनाश से अतिरिक्त सत् का कोई अस्तित्व नहीं है। बौद्ध दार्शनिकों की इस मान्यता ने क्षणिकवाद को जन्म दिया।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यशोविजयजी ने इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए प्रयास किए हैं। सत् को एकान्त नित्य मानने पर अनुभव सिद्ध जगत की परिवर्तनशीलता मिथ्या हो जाएगी। इसी प्रकार सत् को एकान्त अनित्य मानने पर प्रश्न खड़ा होता है कि वह परिवर्तन किसमें घटित होता है? अतः जैन दार्शनिकों ने सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के रूप में दिया है। द्रव्य की पूर्व अवस्था का विनाश होना व्यय है और द्रव्य में नवीन अवस्था का उद्भव होना उत्पाद है। इन उत्पत्ति और विनाश के मध्य भी द्रव्य का वही का वही बना रहना ध्रौव्य है।
उत्पत्ति-व्यय-ध्रौव्य को यशोविजयजी ने हेमघट, हेममुकुट और हेम के उदाहरण से स्पष्ट किया है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति
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संभव नहीं हो सकती है । पुनः इन दोनों को घटित होने के लिए कोई स्थायी तत्त्व चाहिए और वही ध्रौव्य है । द्रव्य की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती है । मूलद्रव्य ध्रुव ही रहता है। पूर्व अवस्था नष्ट होती है और उत्तर अवस्था उत्पन्न होती है। परन्तु मूलद्रव्य के मूल गुणों और स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आता है । अतः इस प्रकार परिवर्तनशील अवस्थाओं की अपेक्षा से सत् अनित्य है और अपने मूल स्वभाव की अपेक्षा से नित्य है। इस प्रकार यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनदर्शन के द्वारा स्वीकृत परिणामीनित्यवाद की स्थापना की है।
3. द्रव्य - गुण - पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर दार्शनिक जगत में सदैव ही मतभेद रहे हैं। वेदान्तदर्शन का झुकाव अभेदवाद की ओर रहा है। उनके अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् है । वह दिक्, देश, काल, गुण गति, आदि सर्व से परे है। ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष और भेदशून्य है। उसमें स्वजातीय, विजातीय और स्वगत किसी प्रकार का भेद नहीं है। दूसरी ओर वैशेषिक और नैयायिकों ने भेदभाव का समर्थन करते हुए द्रव्य से गुण को एकान्त भिन्न मानकर इन दोनों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिए 'समवाय' नामक तृतीय पदार्थ को स्वीकार किया है ।
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यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रव्य - गुण - पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न अर्थात् भिन्नाभिन्न माना है और स्याद्वाद के आलोक में इस भिन्नाभिन्न सम्बन्ध को अनेक युक्तियों से सिद्ध करके दर्शाया है। लक्षण, संज्ञा, संख्या, आधार - आधेय सम्बन्ध आदि की दृष्टि से द्रव्य-गुण- पर्याय परस्पर भिन्न है । किन्तु इन्हें सर्वथा अभिन्न मानने पर गुण - गुणीभाव का उच्छेद हो जायेगा ; अवयव–अवयवी के भिन्न होने पर दुगुणी गुरूता का दोष उत्पन्न हो जायेगा ; समवाय सम्बन्ध स्वीकार करने पर अनवस्था का दोष उत्पन्न होता है । द्रव्य को गुणों से समवाय के आधार पर जोड़ने के लिए किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार करना पड़ता है । द्रव्य से पर्याय को अभिन्न नहीं मानने पर पर्यायात्मक कार्य असत् हो जायेंगे। गुण द्रव्य का व्यावर्तक लक्षण होने से द्रव्य का स्वभाव है।
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इसलिए गुण द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं है। फिर भी गुण को इसलिए भिन्न माना गया है कि द्रव्य ध्रुवशील है। और गुण परिवर्तनशील है। गुण और पर्याय पारमार्थिक दृष्टि से एक ही हैं। गुण द्रव्य का सहभावी धर्म है और पर्याय क्रमभावी धर्म है। अतः किसी अपेक्षा से द्रव्य-गुण-पर्याय परस्पर अभिन्न भी है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इस भिन्नाभिन्न सम्बन्ध को समझाने के संदर्भ में स्यादवाद, सप्तभंगी और नयवाद आदि की विस्तृत चर्चा की है। . ___द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कार्य-कारणवाद की भी संक्षेप में चर्चा की है। नैयायिकों ने कारण में कार्य को सर्वथा अविद्यमान मानकर असत्कार्यवाद को और सांख्य आदि अभेदवादी दर्शनों ने कारण में कार्य को विद्यमान मानकर सत्कार्यवाद को स्वीकार किया है। उपाध्यायजी ने द्रव्य में पर्याय की उत्पत्ति असत्कार्य है या सत्कार्य है ? इस प्रश्न के उत्तर में सतासत् कार्यवाद की स्थापना की है। कारण में कार्य अव्यक्त रूप से विद्यमान होने से सत् है तथा कारण में कार्य व्यक्त रूप से विद्यमान नहीं है, इस अपेक्षा से असत् है। 4. दिगम्बर आचार्य देवसेनकृत नयविभाजन की समीक्षा -
नयवाद जैनदर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है। वर्तमान काल में नैगम आदि सात नय दिगम्बर और श्वेताम्बर आदि दोनों ही परंपरा में प्रचलित है। परन्तु प्राचीन समय में सात सौ नयों की परंपरा भी प्रचलित थी, ऐसा उल्लेख आवश्यक नियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य में मिलता है। द्वादशारनयचक्र में विधि नियम आदि 12 नयों की अन्य परंपरा का भी उल्लेख मिलता है। परन्तु दिगम्बर आचार्य देवसेन ने प्रचलित परंपरा से भिन्न स्वकल्पना से नवीन परंपरा को खड़ी की है। तर्कशास्त्र की दृष्टि से द्रव्यार्थिक आदि नौ नय एवं तीन उपनय तथा अध्यात्मदृष्टि से निश्चय और व्यवहारनय, ऐसे देवसेनकृत नय के विभाजन का तार्किक समालोचना करके दिगम्बर सम्मत नयविभाजन को सापेक्ष रूप में अस्वीकार किया है।
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जैन दार्शनिक साहित्य में प्रस्तुत ग्रन्थ का स्थान और महत्त्व :
__ किसी भी धर्म के आचार का आधार उसकी तत्त्वमीमांसा होती है। यह सत्य है कि कभी तात्विक मान्यताओं के आधार पर आचार मार्ग का प्रस्थापन किया जाता है तो कभी आचार मार्ग के अनुकूल तत्त्वमीमांसा को प्रस्तुत करने का प्रयत्न होता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा आचारशास्त्र पर खड़ी है। यही कारण था कि जैनों ने कूटस्थ नित्य आत्मवाद और आत्मोच्छेदवाद दोनों को अस्वीकार करके अपनी मूलभूत मान्यता उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् को आधार बनाकर तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में परिणामीनित्यतावाद की स्थापना की और इसके आधार पर सत्ता की द्रव्य रूप अपरिणमनशीलता और पर्यायरूप परिणमनशीलता को महत्त्व दिया।
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक इस कृति में भी परिणामी नित्यवाद को स्थान दिया और उन्होंने यह माना कि द्रव्य कभी भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता है। फिर भी पर्यायरूप परिवर्तन को प्राप्त होता रहता है। संक्षेप में कहें तो प्रस्तुत कृति भी इसी तत्त्व को स्थापित करती है कि सत् परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। सत्ता द्रव्य के रूप में वही रहती है, किन्तु पर्याय के रूप में परिवर्तित होती रहती है। द्रव्य सत्ता का शाश्वत पक्ष है और पर्याय अशाश्वत पक्ष है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति सत्ता के अपरिवर्तनशील और परिवर्तनशील दोनों पक्षों को स्वीकार करती है। संक्षेप में कहें तो प्रस्तुत कृति के लेखन का मुख्य आधार भी यही रहा है कि द्रव्य बदलकर भी वही रहता है। पर्याय पलटती है और द्रव्य इन पलटती हुई पर्यायों में भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता है। यही इस ग्रन्थ की मूलभूत स्थापना है।
इस प्रकार प्रस्तुत कृति दर्शन के क्षेत्र में कूटस्थ नित्यतावाद और सतत परिवर्तनशील सत्तावाद के मध्य समन्वय स्थापित करती है। जैनदर्शन सम्मत परिणामी नित्यतावाद को प्रस्तुत करती है। इस कृति में जैनदर्शन की मूलभूत
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मान्यता के अनुरूप ही अनेकान्तिक दृष्टि से सत्ता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील पक्ष को समन्वित किया गया है। यही कारण है कि प्रस्तुत कृति दर्शन और विशेष रूप से जैनदर्शन के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं उसकी उपादेयता
प्रथम ढाल -
महोपाध्याय यशोविजयजीकृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के प्रथम ढाल में चार प्रकार के अनुयोगों का कथन करने के पश्चात् चरणकरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग को मुख्य अनुयोगों के रूप में महत्व दिया गया है। इन दोनों अनुयोगों में भी द्रव्यानुयोग, जो मोह और अज्ञान को विनष्ट करने में रामबाण औषधि के समान हैसको अतिशय मुख्यता दी गई है। इस हेतु से यशोविजयजी ने द्रव्यानुयोग के अभ्यास को परमावश्यक बताया है। इस योग के अभ्यास के अभाव में चरणकरणनुयोग भी विशेष लाभकारी सिद्ध नहीं होता है।
__अतः द्रव्यानुयोग के ज्ञान की प्राप्ति हेतु चरणकरणानुयोग को गौण करना पड़े अर्थात् आधाकर्मी आहार आदि दोषों का सेवन करना भी पड़े तो भी तत्त्वतः दोष नहीं लगता हैं, क्योंकि द्रव्यानुयोग श्रेष्ठ है, साध्य है, जबकि चरणकरणानुयोग द्रव्यानुयोग को साधने के लिए साधन है। इस प्रकार द्रव्यानुयोग की महत्ता पर प्रकाश डालकर सतत द्रव्यानुयोग के अभ्यास के लिए प्रेरणा दी है।
द्रव्यानुयोग का अभ्यास शुक्लध्यान के द्वारा केवल ज्ञान को प्रदान करने वाला होने से साधक को चाहिए कि वह स्वयं द्रव्यानुयोग के अध्ययन के माध्यम से गीतार्थ बने और ऐसा संभव नहीं होने पर गीतार्थगुरू की निश्रा में विचरण करे। द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन की परमावश्यकता को सूचित करने के लिए यशोविजयजी ने सन्मतितर्क, उपदेशपद, पंचकल्पभाष्य आदि ग्रन्थों के साक्षी पाठ भी
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दिये हैं। इस प्रकार यशोविजयजी ने प्रथम ढाल में द्रव्यानुयोग के अभ्यास हेतु विशेष बल दिया है।
द्वितीय ढाल -
उपाध्याय यशोविजयजी ने दूसरी ढाल में द्रव्य, गुण, पर्याय की परिभाषा को समझाकर रास के विषयवस्तु की ओर संकेत किया है कि प्रस्तुत रास में - 1.द्रव्य-गुण–पर्याय का कथंचित्भेद, 2. द्रव्य-गुण-पर्याय का कथंचित अभेद, 3. द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप की विविधता, 4. उत्पाद-व्यय-ध्रुव रूप तीन लक्षण
और उनके भेद, 5. द्रव्य के भेद, 6. गुण के भेद, 7. पर्याय के भेद, आदि की विस्तृत चर्चा की है। मोती, मोती की माला और उसकी उज्ज्वलता के दृष्टान्त से द्रव्य-गुण-पर्याय के. कथंचित भिन्नत्व और कथंचित् अभिन्नत्व को समझाया गया है। ऊर्ध्वसामान्य और तिर्यक् सामान्य को स्पष्ट करके ऊर्ध्वसामान्य के ओघशक्ति और समुच्चित शक्ति ऐसे दो भेद भी किये गये हैं। तृण एवं अचरमावर्त और चरमावर्तवर्ती भव्यजीव के माध्यम से ओघशक्ति और समुच्चितशक्ति का विवेचन प्रस्तुत किया है। दिगम्बर परम्परा की इस मान्यता कि 'गुण में पर्याय को प्राप्त करने की शक्ति है, इसकी सुन्दर समीक्षा भी इसी ढाल के अन्त में की गई। गुण पर्याय से भिन्न कोई वस्तु नहीं है। द्रव्य में गुणों के आश्रय से परिवर्तन होता है। गुण यदि तीसरा पदार्थ रूप मान्य होता तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय की तरह गुणार्थिक नय भी होता। परन्तु ऐसा नहीं होता है। ढाल के अन्तिम गाथाओं में पाँच युक्तियों के द्वारा द्रव्य-गुण-पर्याय में कथंचित् भेद दर्शाया गया है।
तृतीय ढाल -
तृतीय ढाल में मुख्य रूप से द्रव्य-गुण-पर्याय के कथंचित् अभेदता को समझाया गया है। अभेदता को सिद्ध करने के लिए कुछ युक्तियाँ भी दी हैं, जैसे - अभेद सम्बन्ध को न मायने पर गुण-गुणीभाव ही नहीं रहेगा। ‘सुवर्ण का कुंडल'
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आदि व्यवहार भी अभेद को माने बिना नहीं हो सकता है। द्रव्य और गुण में समवायसम्बन्ध को मानने पर अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाता है । अवयव - अवयवी में अभेद को नहीं स्वीकार करने पर गुरूता दुगुणी हो जायेगी। द्रव्य - पर्याय में अभेद को नहीं स्वीकार करने पर पर्यायात्मक कार्य शशशृंगवत् असत् हो जायेगें इत्यादि। इस संदर्भ में नैयायिकों के इस मत की, कि 'भूतकालीन पदार्थ असत् हैं और असत् का स्मरण होता है, अतः असत् से कार्य उत्पत्ति भी हो सकती है' समीक्षा की गई है । भूतकालीन पदार्थ सर्वथा असत् नहीं होता है। पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से असत् होने परभीद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सत् है । सर्वथा असत् वस्तु ज्ञान में प्रतिभासित
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होती है, ऐसा मानने पर बौद्धों का (योगाचार ) यह मत ही सिद्ध होगा कि संपूर्ण संसार के पदार्थ ज्ञानाकार रूप हैं । प्रत्येक पदार्थ ज्ञान में मात्र आकार के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। उससे भिन्न पदार्थ की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। घटपटादि कोई भी ज्ञेय पदार्थ ज्ञान से भिन्न नहीं है। अतीत काल के घट का ज्ञान भी सर्वथा असत् का ज्ञान नहीं है । पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से घट असत् होने पर द्रव्यार्थिक दृष्टि से सत् है, इत्यादि को समझाकर नैयायिकों के एकान्त भेदभाव और सांख्य के एकान्त अभेदवाद को अयुक्तिसंगत बताया है। जैनों का भेदाभेदवाद ही तर्कसंगत है, ऐसा प्रतिपादन किया गया है I
4. चतुर्थ
चतुर्थ ढाल में उपाध्यायजी ने द्रव्य - गुण - पर्याय की भेदाभेदता को स्पष्ट करने के लिए प्रयास किए हैं। जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते हैं, उसी प्रकार भेद और अभेद भी दो परस्पर विरोधी धर्म होने से एक ही स्थान में कैसे रह सकते हैं ? इस प्रकार शंका उठाकर उसके समाधान में कहा है कि पुद्गलद्रव्य के वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श का ग्रहन अलग इन्द्रियों के द्वारा होने से भिन्न-भिन्न है और एक ही क्षेत्रावगाही होने से अभिन्न है। इसी प्रकार द्रव्य-गुण- पर्याय किसी विशेष अपेक्षा से भिन्न और किसी अपेक्षा से अभिन्न, दोनों
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ही हो सकते हैं। कच्चा घड़ा और पक्का घड़ा श्याम और लाल वर्ण की अपेक्षा से भिन्न हैं परन्तु घटत्व की अपेक्षा से अभिन्न है। देवदत्त नाम का पुरूष, बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न है, परन्तु देवदत्त नामक व्यक्ति की अपेक्षा से अभिन्न है। इस प्रकार अविरोध रूप उभय स्वरूप की विद्यमानता सर्वत्र देखी जा सकती है। प्रत्येक कथन अपेक्षा विशेष पर आधारित होने से उनमें परस्पर विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है। अतः हृदय में स्याद्वाद सिद्धान्त को स्थापित करके कथन करना चाहिए। इसी द्रव्य-गुण-पर्याय के भिन्नाभिन्नता को समझाने के लिए यशोविजयजी ने प्रथम सप्तभंगी के स्वरूप को समझाकर बाद में उसी सप्तभंगी के आधार पर द्रव्य-गुण-पर्याय की भिन्नाभिन्नता को सिद्ध करके बताया है।
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप को समझाने वाले विभिन्न विकल्प होने पर भी भाषायी अभिव्यक्ति की दृष्टि से सप्तभंगी ही कही जाती है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से यशोविजयजी ने द्रव्य-गुण–पर्याय की भिन्नाभिन्नता के विषय में निम्न सप्तभंगी निर्मित की है :
1. स्याद्भिन्नमेव
2. स्याद् अभिन्नमेव
3. स्याद् भिन्नाभिन्नमेव
4. स्याद् अवक्तव्यमेव
5. स्याद् भिन्नमवक्तव्यमेव 6. स्याद् अभिन्नमवक्तव्यमेव 7. स्याद् भिन्नाभिन्नम् अवक्तव्यमेव
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5. पांचवी ढाल -
इस ढाल में यशोविजयजी ने मुख्य रूप से वस्तु स्वरूप को जानने के लिए प्रमुख साधन प्रमाण और नय का गहराई से विश्लेषण किया है। वस्तु के परिपूर्ण स्वरूप को समझानेवाली ज्ञानदृष्टि प्रमाण है और नय उसी ज्ञान का एक अंशरूप कथन है। प्रमाण और नय दोनों ही द्रव्य-गुण-पर्याय के भेदाभेदात्मक स्वरूप को समझाते हैं। परन्तु अन्तर इतना है कि जहां प्रमाण सर्वांश रूप से समझाता है वहाँ नय वस्तु के एक स्वरूप को मुख्य वृत्ति से दूसरे स्वरूप को गौण रूप से समझाता है। इसलिए नय प्रमाण का एक अंग है। उदाहरणार्थ द्रव्यार्थिकनय मुख्यवृत्ति से अभेद को और गौणवृत्ति से भेद को अपने दृष्टिकोण में लेता है, जबकि पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति से भेद को और गौण रूप से अभेद को ग्रहण करता है। इस प्रकार नयदृष्टि भी मुख्य और गौणवृत्ति से वस्तु के संपूर्ण स्वरूप को ग्रहण करती है। प्रत्येक नय अपने विषय के अतिरिक्त अन्य नयों के विषय को गौण रूप से ग्रहण करता ही है। अन्यथा वह नय, सुनय न होकर दुनर्य बन जायेगा। क्योंकि अन्य नयों के प्रतिपाद्य विषयों को अस्वीकार करने पर विवक्षित नय एकान्त कथन का आग्रही बनकर मिथ्या हो जाता है। इस संदर्भ में यशोविजयजी ने विशेषवाश्यकभाष्य, सन्मति प्रकरण आदि के साक्षी पाठ इस ढाल में दिये हैं।
इस प्रकार मुख्य रूप से दो नय हैं - द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । इनके उत्तर भेदों के रूप में नैगम आदि सात नय हैं। नय वर्गीकरण की यह शास्त्रसिद्ध प्रणाली है।
उपाध्यायजी ने इसी ढाल में दिगम्बर आचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' के वर्गीकरण को शास्त्र और युक्ति के विरूद्ध दर्शाया है। 'नयचक्र' में तर्कशास्त्र की दृष्टि से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के साथ में नैगम आदि सात नयों को जोड़कर कुल नौ नय और तीन उपनय का वर्णन है। अध्यात्मदृष्टि से निश्चयनय
और व्यवहारनय के रूप में दो नयों की भी विस्तृत चर्चा है। इस ढाल में यशोविजयजी ने बताया है कि देवसेन आचार्य ने शास्त्रीय मार्ग को छोड़कर स्वमति
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की कल्पना से नयों का जो नवीन वर्गीकरण किया है, वह उचित नहीं है। यशोविजयजी ने सर्वप्रथम देवसेन आचार्य के मतानुसार नयों के लक्षण, स्वरूप, भेद आदि की व्याख्या करके पश्चात् उनके नय वर्गीकरण के औचित्य की समीक्षा की है।
यशोविजयजी ने इस ढाल में 'नयचक्र' के अनुसार द्रव्यार्थिक नय के दस भेदों का अर्थ, उदाहरण, आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला है। वे दस भेद इस प्रकार
1. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय 3. भेद कल्पना रहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय 5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 7. अन्वय द्रव्यार्थिकनय 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय
2. उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय 4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय 8. स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय 10. परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय
6. छठी ढाल -
देवसेन आचार्य द्वारा रचित 'नयचक्र' नामक ग्रन्थ के अनुसार नय के 28 भेदों की चर्चा प्रस्तुत ढाल में की गई है। द्रव्यार्थिक नय के 10 भेदों की व्याख्या पांचवी ढाल में करने के पश्चात् इस छठी ढाल के प्रारम्भ में पर्यायार्थिक नय के निम्न छह भेदों का प्रतिपादन किया गया है :1. अनादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय 2. सादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय 3. अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय
4. नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय 5. कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय 6. कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्यशुद्ध पर्यायार्थिकनय
तत्पश्चात् नैगमनय के तीन भेद, संग्रहनय के दो भेद, व्यवहारनय के दो भेद, ऋजुसूत्रनय के दो भेद, शब्द, सममिरूढ़ और एवंभूतनय इन 12 भेदों की विस्तारयुक्त चर्चा उदाहरण सहित की गई है।
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7. सातवीं ढाल
प्रस्तुत ढाल का प्रतिपाद्य विषय देवसेनाचार्य मान्य तीन उपनय और उनके भेद, प्रभेद हैं । सद्भूतव्यवहार उपनय के दो भेद असद्भूत व्यवहार उपनय के एक विवक्षा से तीन भेद और दूसरी विवक्षा से नौ भेद, उपचरित असद्भूतव्यवहार उपनय के तीन भेदों के स्वरूप आदि का विश्लेषण दिगम्बरशास्त्र 'नयचक्र' और 'आलापपद्धति' के अनुसार उदाहरण के साथ किया गया है।
8. आठवीं ढाल
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इस ढाल के प्रारम्भ में उपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेन के नयचक्र के आधार पर निश्चयनय और व्यवहारनय को व्याख्यायित किया है। इस ढाल की आठवीं वीं गाथा से नौ नय, तीन उपनय, निश्चयनय और व्यवहारनय की समीचीन समीक्षा की है । यशोविजयजी ने अपनी सूक्ष्म तर्कशक्ति और तीक्ष्ण बुद्धि की शक्ति से अनेक युक्तियों और प्रयुक्तियों से देवसेनकृत नय वर्गीकरण के सत्यांश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। जैसे यशोविजयजी ने प्रथम तर्क यह रखा है कि नैगम आदि 7 या 5 नयों के प्रत्येक के 100-100 भेद करने पर शास्त्रों में 700 या 500 नयों की बात ही कही गई है। यदि नौ नय होते तो 900 नयों की बात होती । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय को मिलाकर नय की संख्या नौ की गई है तो अर्पित और अर्पित को मिलाकर नयों की संख्या 11 क्यों नहीं की गई ? नैगम आदि सात नय, द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय इन मूल नय के ही उत्तरभेद होने से (2+7= 9) नौ नय करने में विभक्त का विभाजन नामक दोष लगता है । आगमशास्त्र में जीव के संसारी और मुक्त, ये दो भेद करने के पश्चात् पुनः जीव को मिलाकर संसारी, मुक्त और जीव ऐसे तीन भेदों का उल्लेख कहीं पर भी नहीं मिलता है । प्रदेशार्थिक नय और नैगमनय के शुद्ध आदि तीन भेदों का समावेश नहीं होने के कारण देवसेनकृत द्रव्यार्थिकनय के 10 भेद अपूर्ण और अधूरे हैं ।
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व्यवहार नय में उपचार का समावेश होने से तथा निश्चय नय में गौणवृत्ति से उपचार का ग्रहण होने से उपनयों की कल्पना अनावश्यक है। इस प्रकार समीक्षा करने के बाद अन्त में निश्चयनय और व्यवहारनय के शास्त्रसिद्ध अर्थों की व्याख्या करके देवसेनकृत निश्चयनय और व्यवहारनय के अर्थों का निरसन किया गया है।
9. नवमीं ढाल -
प्रस्तुत ढाल में उपाध्याय यशोविजयजी ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन लक्षणों का विस्तार से प्रतिपादन किया है। प्रत्येक द्रव्य या पदार्थ, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों से युक्त है। सभी पदार्थ प्रतिसमय पूर्व पर्याय की अपेक्षा नष्ट होता रहता है, उत्तर पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता रहता है और द्रव्य की अपेक्षा से सदा ध्रुव रहता है। षड्द्रव्य में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जो किसी समय उत्पाद–व्यय-ध्रोव्य से रहित होता हो। हेमघट नाश, हेममुकुट उत्पाद और हेम से उत्पन्न शोक, हर्ष और मध्यस्थ भावों के आधार पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी को विस्तार से समझाया है। इसी संदर्भ में बौद्ध और नैयायिकों के एकान्तवाद की उदाहरणों के माध्यम से समीक्षा करके पदार्थ को विलक्षणों से युक्त सिद्ध किया है।
व्यवहारनय भेदग्राही होने से पूर्व समय में व्यय और उत्तर समय में उत्पाद को मानता है। उदाहरण के लिए व्यवहारनय की दृष्टि से बारहवें गुणस्थानक के अन्तिम समय में घातिकर्मों का क्षय होने से और तेरहवें गुणस्थानक के प्रथम समय में केवलज्ञान की उपलब्धि होती है। परन्तु निश्चयनय अभेदग्राही होने से उत्पाद-व्यय का समय एक ही मानता है। बारहवें गुणस्थानक का अन्तिम समय ही तेरहवें गुणस्थानक का प्रथम समय है। अतः ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय और केवलज्ञान की उत्पत्ति एक ही समय में होती है। जिस समय में वस्तु का व्यय होता है, उसी समय में वस्तु नष्ट, नश्यमान और नक्ष्यते भी कहलाती है। उसी प्रकार जिस समय में वस्तु उत्पन्न होती है, उसी समय में वस्तु उत्पन्न, उत्पद्यमान, और
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उत्पत्स्यते भी कहलाती है। इस प्रकार एकैक समय में अनन्त - अनन्त पर्यायों के आधार पर अनन्त व्यय, अनन्त उत्पाद और अनन्त ध्रौव्यता को समझाया है ।
तत्पश्चात् उत्पाद के प्रयत्नजन्य और विश्रसा ऐसे दो प्रकारों को, व्यय के रूपान्तरनाश और अर्थातान्तरनाश ऐसे दो प्रकारों के और ध्रुवत्व के परिमितकाल का ध्रुवत्व और त्रेकालिकधुवत्व ऐसे दो भेदों को सम्यग् रूप से समझाया है ।
10. दसवीं ढाल
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दसवीं ढाल में षड्द्रव्यों के स्वरूप, लक्षण आदि को विभिन्न युक्तियों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल इन छह द्रव्यों में प्रथम तीन द्रव्य एक और निष्क्रिय हैं जिसको अस्वीकृत करने पर सिद्धजीवों की गति विरमित नहीं हो सकेगी। क्योंकि लोकाग्र के बाहर धर्मद्रव्य का अस्तित्व नहीं होने से सिद्धजीव लोकाग्र पर स्थित हो जाता है । अधर्म द्रव्य के, जो स्थिति में सहायता करता है, अस्तित्व को नकारने पर जीव और पुद्गल की गति निरन्तर होती ही रहेगी। वे कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं हो सकते हैं और अधर्मद्रव्य के अभाव में भी स्थिति होती है तो अलोकाश में भी जीव और पुद्गल की नित्य स्थिति होनी चाहिए ।
आकाशद्रव्य के दो भेद किये हैं । जहाँ जीव और पुद्गल आदि हैं, वह लोकाश है। इससे भिन्न जहाँ जीव और पुद्गल आदि का अस्तित्व नहीं है, वह अलोकाश है। अलोकाकाश अपरिमित और असीम है। यदि उसको सीमित मानेंगे तो अलोकाकाश के अन्त में पुनः कोई आकाश होना चाहिए, यह मानना होगा, जो कि शास्त्र विरूद्ध है, क्योंकि इसमें अनवस्थादोष आवेगा ।
यशोविजयजी ने काल के वर्णन में श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपराओं के मतों की चर्चा करने के पश्चात् दिगम्बर मत की समीचीन समीक्षा की है। श्वेताम्बर परंपरा में भी कालद्रव्य के विषय में दो विचारधाराएं रही हैं । प्रथम विचारधारा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है अपितु औपचारिक द्रव्य है । काल जीव, पुद्गल
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द्रव्यों के वर्तना, परिणाम, रूप पर्याय मात्र ही है। अतः काल जीव एवं पुद्गल की पर्याय रूप है। दूसरी विचारधारा यह है कि काल अढाईद्वीप व्यापी है, क्योंकि यह वर्ष, मास, दिवस आदि काल गणना का आधार है, किन्तु यह व्यवहार काल है। अढाईद्वीप प्रमाण मनुष्य लोक के सूर्य, चन्द्र आदि मेरूपर्वत के चारों ओर घूमते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप रात, दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल के विभाग बनते हैं। यशोविजयजी ने इस संदर्भ में भगवतीसूत्र, तत्वार्थसूत्र, सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिका आदि ग्रन्थों के साक्षी पाठ भी दिये हैं।
__ दिगम्बर मतानुसार लोकाश के एक-एक प्रदेश पर एकैक कालाणु है, जो किसी डिब्बे में भरे रेत के दानों के समान है। ये कालाणु परस्पर पिंडीभूत नहीं हो सकते हैं। इस कारण से काल अस्तिकाय नहीं है। दोनों मतों को प्रस्तुत करने के पश्चात् उन्होंने दिगम्बर मत की समीक्षा की है।
ढाल के अन्त में जीव और पुद्गलद्रव्य का संक्षेप मे वर्णन है।
11. ग्यारहवीं ढाल -
इस ढाल में यशोविजयजी ने छहों द्रव्यों के गुण और स्वभावों की विशद चर्चा की है। गुण सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकारों के होते हैं। जो गुण छहों द्रव्यों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं वे सामान्य गुण कहलाते हैं और जो गुण विशेष-विशेष द्रव्यों में ही पाये जाते हैं, वे विशेष गुण कहलाते हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्त्तत्व और अमूर्तत्व, ये 10 गुण सामान्य गुण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गतिहेतुता, स्थिति हेतुता, अवगाहनहेतुता, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ये कुल 16 गुण विशेष गुण हैं।
परमार्थदृष्टि से स्वभाव और गुण दोनों एक ही हैं जब अनुवृति और व्यावृति संबंध के द्वारा धर्म-धर्मीभाव की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है, तब वह स्वभाव कहलाता है। जब स्व-स्व स्वरूप की प्रधानता की जाती है, तब वह गुण कहलाता
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है। अस्तित्व, आदि ग्यारह सामान्य स्वभाव है और चेतनता आदि दस विशेष स्वभाव हैं। चेतनता गुण सभी जीवों में पाये जाने के कारण सामान्य है तथा पुद्गल आदि में नहीं पाये जाने के कारण विशेषगुण हैं।
अन्त में अस्तित्व आदि ग्यारह सामान्य स्वभावों में किसी एक स्वभाव को नहीं मानने पर कौन-कौन से दोष उत्पन्न हो सकते हैं ? इत्यादि बातों को समझाया गया है।
12. बारहवीं ढाल -
प्रस्तुत ढाल में चेतना आदि दस विशेष स्वभावों या गुणों पर पूर्ण रूप से प्रकाश डाला गया है। धर्मस्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय में 16-16 गुण है तथा जीव-पुद्गल में 21-21 गुण हैं एवं काल में 15 सामान्य गुणों को विवेचित करने के पश्चात् चेतनता आदि 10 विशेष गुणों को स्वीकार नहीं करने पर कौन से दोष उत्पन्न होते हैं ? इसकी समीक्षा की है।
13. तेरहवीं ढाल -
यशोविजयजी ने प्रस्तुत ढाल में ग्यारह सामान्य गुणों व दस विशेष गुणों पर नयों को घटाया है। एक गुण कौन से नय की अपेक्षा से संभव हो सकता है, इस प्रकार सामान्य रूप से नयों की विवक्षा करके ढाल को समाप्त किया गया है।
14. चौदहवीं ढाल -
इस ढाल में मुख्य रूप से पर्याय के लक्षण, स्वरूप और भेद, प्रभेदों पर प्रकाश डाला गया हैं मूलभूत द्रव्यों में जो परिवर्तन, रूपान्तरण, अवस्थान्तरण होता है, उसे पर्याय के नाम से अभिव्यंजित किया गया हैं पर्याय के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं – व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय । जो पर्याय दीर्घकालवर्ती है वह व्यंजनपर्याय
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कहलाती है। इस पर्याय को शब्दों में उद्घोषित किया जा सकता है, जैसे जीव की मनुष्य पर्याय । इसके विपरीत जो पर्याय वर्तमानकाल स्पर्शी है, अर्थात् प्रति क्षण एक समयवर्ती है, वह अर्थपर्याय है । यह पर्याय शब्दों द्वारा ग्रहण नहीं होती है। व्यंजनपर्याय स्थूल ऋजुसूत्र नय का विषय है जबकि अर्थपर्याय सूक्ष्मऋजुसूत्रनय का विषय है।
इन दोनों अर्थात् व्यंजन और अर्थ पर्याय के पुनः दो-दो भेद किए गए हैं द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय । द्रव्य और गुण पर्याय के भी शुद्ध एवं अशुद्ध रूप से दो-दो भेद हैं। उदाहरणार्थ 'सिद्धत्व' शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है और मनुष्यत्व आदि अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय है । क्षायिकभावजन्य केवलज्ञानादि गुणात्मक पर्याय शुद्धव्यंजनपर्याय है और क्षयोपशम या उपशमभावजन्य मतिज्ञान आदि गुणात्मक पर्याय अशुद्ध गुण व्यंजनपर्याय है। व्यंजन पर्याय के उक्त चारों उदाहरण को सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से विचार करने पर एक समयवर्ती सिद्धत्व पर्याय, मनुष्यत्व पर्याय, केवलज्ञान पर्याय और मतिज्ञान पर्याय चारों अर्थपर्याय के उदाहरण बन जाते
हैं।
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व्यवहारनय की दृष्टि से धर्म-अधर्म - आकाश ये तीनों द्रव्य व्यवहार की अपेक्षा अपरिणामी माने जाते हैं । परन्तु निश्चयनय की दृष्टि से तो ये तीनों ही द्रव्य परिणामी नित्य हैं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य त्रिपदी ( उत्पाद - द्रव्य - ध्रौव्य) से युक्त होने से परिणामी नित्य है और इसी कारण से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी अष्टविध पर्यायों से युक्त है । इनमें भी स्वप्रत्ययजन्य और परप्रत्ययजन्य शुद्धाशुद्ध व्यंजनपर्यायाएं और अर्थपर्यायाएं हैं। धर्मास्तिकाय आदि तीनों द्रव्यों की स्वयं की जो आकृतिविशेष है वह शुद्धव्यंजन पर्याय है। लोकाशवर्ती जीव पुद्गल के संयोग से बनी जो आकृतिविशेष है, वह अशुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय है। गति, स्थिति, अवगाहना में जीव - पुद्गल को सहयोग करने से भी ये तीनों द्रव्य परिणामी है ।
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यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय द्रव्य के पर्यायों को सिद्ध करने के लिए उत्तराध्ययनसूत्र, सन्मतिप्रकरण आदि के साक्षी पाठ दिये हैं। इसी संदर्भ में दिगम्बर परंपरा के मन्तव्यों की समीक्षा भी की है ।
15. पन्द्रहवीं ढाल
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प्रस्तुत ढाल में यशोविजयजी ने ज्ञान की अद्वितीय महिमा का वर्णन किया है। ढाल के प्रारम्भ में गुरूउपदेश, शास्त्राभ्यास और अभ्यास से प्राप्त सामर्थ्ययोग (अनुभव) के आधार पर प्रस्तुत द्रव्यानुयोग को समझाया है, ऐसा लिखा है। इस द्रव्यानुयोग के अभ्यास में जो पुरूष सततरत रहता है, वही पंडितपुरूष है । बालबुद्धिवाला बाह्यलिंग में तथा मध्यमबुद्धिवाला क्रिया में रत रहते हैं, परन्तु पंडित पुरूष तो ज्ञान में लीन रहते हैं । ज्ञान बिना की क्रिया जुगनु के प्रकाश के समान है। और क्रिया बिना का ज्ञान सूर्य के समान है। इस प्रकार दोनों में अत्यधिक अन्तर बताया है । क्रिया के द्वारा जो कर्मक्षय होता है, वह मेंडक के चूर्ण के समान होने से पुनः आश्रव प्रारम्भ हो जाता है। दूसरी ओर ज्ञानकृत कर्मक्षय मेंडक की राख के समान होने से पुनः आश्रव नहीं होता है । महानिशिथसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र का साक्षी पाठ देकर यशोविजयजी ने ज्ञानगुण की महिमा को समझाते हुए कहा है कि ज्ञानी सम्यग्दर्शन रहित होने पर भी मिथ्यात्व आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करता है। वृहत्कल्पभाष्य में श्रुतज्ञानी को भी व्यवहार से केवलज्ञानी के समान बताया है । अतः ज्ञान मिथ्यात्वरूप तम को नष्ट करने के लिए प्रकाश है एवं भवसागर में जहाज के समान है।
इसलिए ज्ञानगुणयुक्त क्रिया संपन्न मुनिवर ही धन्यता के पात्र हैं । परन्तु जो मुनि निकाचित ज्ञानावरणीय कर्मोदय के कारण ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होने पर भी यदि गीतार्थ भगवंतों के निश्रा में विचरण करते हैं तो वे भी आराधक ही हैं । परन्तु जो ज्ञानमार्ग की उपेक्षा करके अज्ञान दशा में मात्र मायापूर्वक क्रिया करके अपने अहंकार का वर्धन करते हैं, वे निर्दोष मार्ग के पथिक नहीं है। यशोविजयजी ने
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ज्ञानदशा की उपेक्षा करके बाह्यभावों में मग्न रहने वाले मुनियों को इस ढाल में बहुत उपालम्ब दिये हैं।
16. सोलहवीं ढाल -
इस ढाल में निष्कर्ष के रूप में द्रव्यानुयोग की अमुल्यवता, उसके अध्ययन का फल, ग्रन्थ के महत्त्व और उसकी उपयोगिता की चर्चा की है। 'द्रव्यानुयोग' का ज्ञान कोई सामान्य ज्ञान नहीं है, अपितु जिनेश्वर परमात्मा की साक्षात् पवित्र वाणी है। आध्यात्मिक तत्त्व रूपरत्नों की खदान है , शुद्ध और सद्बुद्धि को जन्म देने वाली मातातुल्य , दुर्मतिरूपी लता को भेदने के लिए कुल्हाड़ी के समान है। शिवसुख रूपी कल्पवृक्ष के फलों के आस्वादन के समान है। ऐसी वाणी की कृपा जिस पर होती है, उसके चरणों में सुरनर आदि सभी नतमस्तक हो जाते हैं और उसकी सम्यक्त्व रूपी लता भी नवपल्लवित हो जाती है। अतः ऐसे अमुल्य और दुर्बोध द्रव्यानुयोग के ज्ञान का अभ्यास तपानुष्ठाणपूर्वक विनय-विवेकादि गुणों से युक्त होकर गीतार्थ गुरूओं के सान्निध्य में ही करना चाहिए। गीतार्थ गुरूओं को भी तुच्छबुद्धिवाले, कदाग्रही व्यक्ति को ऐसे गंभीर द्रव्यानुयोग का ज्ञान नहीं देना चाहिए, ऐसा निर्देश किया है। द्रव्यानुयोग के ज्ञान के लिए उत्तम पात्रता की आवश्यकता है। अन्यथा जैसे सामान्य व्यक्ति को मूल्यवान वस्तु देने पर उसकी मूल्यवत्ता क्षीण हो जाती है, उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को द्रव्यानुयोग का ज्ञान देने पर ज्ञान की मूल्यवत्ता भी समाप्त हो जाती है।
गंभीर अर्थवाले द्रव्यानुयोग के संपूर्ण भावों का तो केवलीज्ञानी ही साक्षात्कार कर सकते हैं। फिर भी संक्षेप में बहुत से भावों को इस रास में गुरूगम और अनुभवबल के आधार पर वर्णन करने के लिए प्रयत्न किया गया है। ऐसे ग्रन्थ के अध्ययन और अभ्यास से पापों का नाश होता है। दुर्जन व्यक्तियों के द्वारा टीका-टिप्पणी करने पर भी ज्ञान की अभिरूचि वाले सज्जन व्यक्तियों के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ (द्रव्यगुणपर्यायानोरास) जिनशासन में अवश्यमेव प्रतिष्ठा को प्राप्त
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करेगा। इस प्रकार यशोविजयजी ने द्रव्यानुयोग के महत्त्व को समझाकर प्रस्तुत ढाल को समाप्त की है।
17. सत्रहवीं ढाल -
उपाध्याय यशोविजयजी ने इस अन्तिम ढाल में अपनी यशस्वी गुरू परंपरा का उल्लेख किया है। 16 वीं शताब्दी के अक्बर प्रतिबोधक जगद्गुरू श्री हीरसूरीश्वरजी और उनके शिष्यों में हुए आचार्यों का नामोल्लेख करके पूज्य श्री कल्याणविजयजी से लेकर उपाध्यायों की नामावली भी बताई है। इन्हीं उपाध्यायों की परंपरा में हुए जीतविजयजी के लघु गुरूबन्धु नयविजयजी के विनीत शिष्य यशोविजयजी वाचक ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस प्रकार गुरूपरंपरा के परिचय के पश्चात् यह उल्लेख किया है कि गुरूकृपा से ही काशी में न्यायशास्त्र का अध्ययन एवं न्यायचिंतामणि जैसे दुर्बोध ग्रंथ का अभ्यास संभव हो पाया ऐसा कहकर गुरू पंरपरा के उपकार को स्मरण करते हुए इस 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है।
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास की उपादेयता -
अनादि-अनन्तकाल से संसार में परिभ्रमण करने वाले जीव को पुण्ययोग से अतिदुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है। इस दुर्लभ मानव जीवन में आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए ही संपूर्ण पुरूषार्थ होना चाहिए। पुरूषार्थ के संदर्भ में प्रथम चरण है – ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न। क्योंकि ज्ञान के प्रकाश में ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप और अशुद्ध स्वरूप का स्पष्ट अन्तर को समझा जा सकता है। आत्म प्रदेशों में क्षीरनीरवत् सम्मिलित परद्रव्य (कर्म) से अवगत हुआ जा सकता है। व्यवहार दृष्टि से भी कूड़े-कचरे के उपस्थिति की जानकारी प्रकाश की विद्यमानता में ही होती है। प्रकाश के द्वारा कचरे को देखने के पश्चात् ही उसकी सफाई के लिए प्रयत्न किया जाता है। इसी प्रकार परद्रव्य के संयोगजन्य विभाव दशा को दूर करके शुद्ध-स्वभाव को प्राप्त करने के लिए ज्ञान की परमावश्यकता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए विशेष बल देते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है –'पढमं णाणं तओ दया', तात्पर्य यही है कि ज्ञान से युक्त क्रिया ही सार्थक होती है।
जैनशासन में तत्त्व प्राप्ति के लिए द्रव्यानुयोग आदि चार अनुयोग बताये गये हैं। ये चारों ही अनुयोग उपकारी होने पर भी द्रव्यानुयोग द्रव्य के ज्ञान के लिए और चरणकरणानुयोग क्रिया के लिए विशेष उपयोगी हैं। इन दोनों में भी बहिर्मुखदशा से अन्तरमुखदशा को प्राप्त करने के लिए विभाव से स्वभाव में आने के लिए, स्व और पर के भेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए द्रव्यानुयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
द्रव्यानुयोग से सम्यग्दर्शन की विशिष्ट रूप से शुद्धि होती है। द्रव्यानुयोग में जगत के समस्त पदार्थों (द्रव्यों) का नय, निक्षेप और प्रमाण के परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग यथार्थ और पूर्ण ज्ञान होता है जो स्व–पर के भेदविज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अन्य द्रव्यों के लक्षण, स्वरूप और भेद आदि के चिन्तन से स्वस्वरूप की प्रतीति सरल हो जाती है।स्व-स्वरूप के भान के बिना, पर को पर के रूप में पहचाने बिना चाहे कितनी ही निर्मल क्रियाओं का संपादन क्यों न कर ले वे कर्मक्षय का कारण नहीं बन सकती है। सिद्धसेन दिवाकर का कथन है -
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"चरण करणप्पहाणा, ससमय-परसमयमुक्कवारा चरण करणस्स सारं, निच्छयसुद्धं न जाणति । ।”
तत्त्व चिन्तन की उपेक्षा करके केवल महाव्रत आदि धर्मक्रियाओं से व्यक्ति शिवपथ का राही नहीं बन सकता है । द्रव्यानुयोग के चिन्तन और मनन के बिना वास्तविक तत्त्वरूचि नहीं हो सकती है । तत्त्वरूचि के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन के अभाव में शुद्धात्मस्वरूप की अनुभूति संभव नहीं है।
प्रस्तुत न्यायविशारद महोपाध्याय यशोविजयजीकृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' द्रव्यानुयोग का अनमोल ग्रन्थ बतलाया गया है और इसी कारण से इस ग्रन्थ की उपयोगिता अत्यधिक है। इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण और पर्याय के यथार्थ स्वरूप के विषय में गहरी मीमांसा की गई है । द्रव्य क्या है ? द्रव्य का लक्षण, द्रव्य का स्वरूप, कौन-कौन से द्रव्य हैं ? आदि का तथा द्रव्य-गुण- पर्याय के पारस्परिक संबन्ध आदि का आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य एवं अनेक अन्य ग्रन्थों के उल्लेखों और साक्षीपाठों के आधार पर तर्कसंगत युक्तियों के साथ विशद विवेचन किया गया है। ऐसे विवेचन के अभ्यास से द्रव्य, गुण, पर्याय का वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होकर आत्म-अनात्म का विवेक जागृत हो सकता है। जगत के वास्तविक परिवर्तनशील स्वरूप को जानकर जगत और जगत के विषयों के प्रति वैराग्य जागृत होकर स्व में केन्द्रित हुआ जा सकता है।
स्वयं यशोविजयजी ने नवपद की पूजा के ढाल में कहा
"अरिहंत पद ध्यातो थको, द्रव्वह-गुण-पज्जायो रे भेद - छेद करी आत्मा, अरिहंतरूपी थायो रे । "
3 सन्मतिप्रकरण, गा. 3 / 67
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इसमें द्रव्य - गुण - पर्याय के ध्यान और चिन्तन की उपयोगिता को स्पष्ट किया है। अरिहंत में द्रव्य क्या है ? उनके गुण कौनसे हैं ? कौन - कौनसी पर्यायाएं होती हैं ? आदि का ध्यान एवं चिन्तन से अरिहंत की आत्मा के भेद को जानकर, उस भेद को छेदकर आत्मा स्वयं अरिहंत स्वरूप को प्राप्त कर लेती है ।
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द्रव्य-गुण-पर्यायनोरास की दूसरी विशेष उपयोगिता यह है कि इस ग्रन्थ का सांगोपांग अध्ययन करने वालों के लिए सन्मतितर्क जैसे दुरूह दार्शनिक ग्रन्थों के द्वार उद्घाटित हो जाते हैं। क्योंकि यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों का स्पष्टीकरण स्याद्वाद और नयवाद के आधार पर ही किया है। स्याद्वाद और नयवाद अनेकान्तवाद के दो स्तम्भ है और अनेकान्तवाद संपूर्ण जैनदर्शन की आधारशिला है। जैनदर्शन का एक भी सिद्धान्त अनेकान्तवाद के बिना अपना अस्तित्व नहीं रखता है। अतः अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद को समझे बिना जैनदर्शन जगत में प्रवेश नहीं हो सकता है। यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, नयवाद और सप्तभंगी आदि का बहुत ही सुन्दर, सरल और स्पष्ट विवेचन किया है, जिसके अभ्यास से दार्शनिक ग्रन्थों का अभ्यास सरल एवं सुगम बन जाता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की सर्वाधिक उपयोगिता इस दृष्टि से है कि यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ की रचना मरूगुर्जर भाषा में गेयस्वरूप में की है। इस कारण से संस्कृत और प्राकृत भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति भी इस रास का अभ्यास करके अपने द्रव्यानुयोग के ज्ञान में अभिवृद्धि कर सकता है।
इस ग्रन्थ की उपयोगिता को देखते हुए इस ग्रन्थ को बहूमूल्य तत्त्व रूपी रत्नों की मंजूषा की उपमा से अलंकृत किया गया है।
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उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्व
भारत की भूमि सदैव ही संत पुरुषों एवं योगी महात्माओं की चरण-रज से पावन होने के कारण पवित्र भूमि रही है और हमेशा रहेगी। यही वह पुनीत भूमि है, जहाँ धर्म-मार्ग को बताने वाले एवं जन्म-जरा-मरण रूप संसार से तारनेवाले तीर्थंकरों ने जन्म लिया, जिनकी कल्याणकारी देशना से अनेक भव्यात्माओं ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चरित्र की सम्यक् साधना कर अपने आत्म कल्याण को साधा है। ऐसे तीर्थकरों के विरहकाल में उन्हीं की पावन वाणी से प्रतिबोध को प्राप्त हुए गणधर भगवंतों, श्रुतकेवली भगवंतों चौदह पूर्वधर मुनि भगवंतों एवं बहुश्रुत आचार्यों ने ज्ञान की गंगा निरन्तर प्रवाहित कर जिनशासन की अपूर्व सेवा की है। पूर्व मनीषियों ने इन आचार्यों की पावन वाणी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसे संस्कृत और प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध करके अनेक ग्रन्थों का सृजन किया। इनमें कुन्दकुन्द जिनभद्र, उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभ्रद हेमचन्द्र आदि प्रमुख रहे हैं। इसी धारा में 17 वीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजयजी हुए जो एक विलक्षण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, तथा जिन्होने अपने समस्त जीवन को शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन और सृजन के लिए समर्पित कर दिया |
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जैन परंपरा के इतिहास में उपाध्याय यशोविजयजी की छाप एक प्रखर नैयायिक, बहुश्रुत शास्त्रज्ञ, समर्थ साहित्यकार और प्रतिभा संपन्न समन्वयकार के रूप में रही है। सर्वशास्त्र पारंगत एवं सूक्ष्मद्रष्टा महोपाध्याय यशोविजयजी ही एक ऐसे अन्तिम विद्वान हुए हैं, जिन्हें हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य जैसे अलौकिक प्रज्ञापुरूषों की पंक्ति में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यशोविजयजी जिनशासन के उन महान प्रभावक महापुरूषों में एक हैं जिनके वचनों को प्रमाणभूत माना जाता है, क्योंकि इनमें तार्किक शिरोमणि सिद्धसेन दिवाकर जैसी तर्कशक्ति थी तो हरिभद्रसूरि जैसी तीक्ष्ण प्रज्ञा और सर्वग्राही समन्वयात्मक दृष्टि भी थी। यही कारण है कि यशोविजयजी को 'हरिभद्रसूरि का लघुबांधव' भी कहा जाता है।
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सूरिपुरन्दर हरिभद्रसूरि के लगभग 900 वर्ष पश्चात् हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने दार्शनिक विरोधियों का आक्रमण तथा चैत्यवासियों का शिथिलाचार आदि अपने युग की समस्याओं का दृढ़ता से सामना करके शास्त्रीय और सत्यमार्ग का प्ररूपण किया।
जैनदर्शन के क्षेत्र में यशोविजयजी प्रथम दार्शनिक हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम जैनदर्शन में नव्य न्यायशैली का प्रयोग करके जैनदर्शन को न्याय के क्षेत्र में शिखर पर विराजमान करने का यशस्वी कार्य किया। पं. सुखलालजी लिखते हैं - "मात्र हमारी दृष्टि से ही नहीं परन्तु हर किसी तटस्थ विद्वान की दृष्टि से जैन संप्रदाय में उपाध्याय जी का स्थान वैदिक परंपरा में शंकराचार्य के समान है।"
हम सर्वप्रथम उनके जीवन वृतान्तों एवं व्यक्तित्व को प्रस्तुत करेंगे।
गृहस्थ जीवन -
पूर्व साहित्यकार यश, कीर्ति एवं नाम से दूर रहकर निर्लिप्त भावना से लोक कल्याण के लिए शास्त्र-सर्जन किया करते थे। फलतः उनकी रचनाओं में उनके जीवन सम्बन्धी तथ्यों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। उपाध्याय यशोविजयजी भी यश और कीर्ति की आकांक्षा से रहित निर्मल साधु जीवन जीने वाले योगी पुरूष थे। इसी कारण से उनके स्वरचित शताधिक ग्रन्थों के होने पर भी कहीं पर भी उनके जीवन सम्बन्धी जानकारी दृष्टिगोचर नहीं होती है। कहीं-कहीं गुरू परंपरा का उल्लेख अवश्य देखने में आता है। उनके समकालीन एवं निकटवर्ती जैन लेखकों ने उनके विषय में जो ग्रन्थ एवं प्रशस्तियाँ लिखी है, वे इस प्रकार हैं -
1. समकालीन मुनि कान्तिविजयजी कृत 'सुजसवेलीभास' | 2. वि.स. 1663 में वस्त्र पर आलेखित मेरूपर्वत के चित्रपट की प्रशस्ति। 3. हेमधातुपाठ की प्रतिलिपि की प्रशस्ति ।
+उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, पृ. 38
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जन्मस्थल
भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में शत्रुंजय, गिरनार, शंखेश्वर आदि तीर्थों से सुशोभित, हेमचन्द्र जैसे जिन शासन प्रभावक और विद्वान आचार्यों के चरणरज से पावन एवं 18 देशों में अहिंसा का प्रवर्तन कराने वाले कुमारपाल जैसे राजेश्वरों से शासित गुजरात प्रदेश है। इसी गुजरात की धर्मभूमि पर गगनचुम्बी जिनालयों से सुसज्जित पाटण नामक शहर है। इसी पाटन नगर के समीप धीणोज नाम का गांव है, वहाँ से कुछ दूर 'कनोडा' नाम का छोटा सा गांव है, जहाँ आज जैनों की बस्ती नहींवत् है। संभवतः 16 वीं एवं 17 वीं सदी में यहाँ जैनों की बस्ती अधिक रही होगी। उपासकदशांगसूत्र की एक प्रति (पाटण हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर क्रमांक 133) में इस प्रकार की पुष्पिका मिलती है
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"श्री अंचल गच्छे श्री श्री भवसागरसूरि सक्ष वा जिनवर्धनगणि श्री उपासकदशांगसूत्रं श्री कणुडा ग्रामे संवत 1600 वर्षे भाद्रवा सुदि 6 श्वौ लक्षतं ।
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अतः इस पुष्पिका से यह फलित होता है कि सं. 1600 में 'कनोडा' जैन साधु-साध्वी के चातुर्मास योग्य जैन बस्तीवाला समृद्ध गांव था । इसी कनोडा गांव में धर्मनिष्ठ नारायण नाम के एक जैन वणिक और उनकी धर्मपत्नी सौभाग्यदेवी रहते थे। सौभाग्यदेवी ने यथासमय यशस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। बालक का नाम 'जसवंतकुमार' रखा गया जो आगे जाकर जिनशासन में उपाध्याय पद से अलंकृत होकर न्याय विशारद महोपाध्याय यशोविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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सुजसवेलीभास में यशोविजयजी का जन्मस्थान कनोडा गांव था, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । परन्तु नयविजयजी कुणगेर में चातुर्मास पूर्ण करके सं. 1688 में कनोडा पधारे थे। इसी समय बालक जसवंत ने अपनी माता के साथ नयविजयजी
उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ, सं. प्रद्युम्नविजयगणि, जयन्त कोठारी, कान्तिभाई बी. शाह, पृ. 2
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का सर्वप्रथमबार दर्शन किया था। ऐसा विवरण प्राप्त होता है । अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यशोविजयजी के माता-पिता कनोडा के रहवासी थे और यहीं यशोविजयजी का जन्म हुआ होगा और आपका बचपन भी यहीं व्यतीत हुआ होगा ।
जन्मकाल
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'सुजसवेलीभास' में यशोविजयजी का जन्म वर्ष निश्चित रूप से नहीं दिया गया है । परन्तु दीक्षा वर्ष सं. 1688 दिया गया है ।' यशोविजयजी बच्चपन में दीक्षित होकर बालमुनि बने थे। इस बात की पुष्टि तो सुजसवेलीभास से होती है । यथा "लघुता पण बुद्धि आगलोजी नामे कुंवर जयवंत' इस पंक्ति से ज्ञात होता है कि दीक्षा के समय इनकी उम्र कम से कम 8 वर्ष या 9 वर्ष होनी चाहिए। इस आधार पर इनका जन्म सं. 1679-80 में होना चाहिए। इनका कालधर्म सं. 1743-44 में डभोई में हुआ था। इस तथ्य के आधार पर यशोविजयजी का पूर्ण आयुष्य 64-65 वर्ष का होना चाहिए ।
यशोविजयजी के जन्मवर्ष से अवगत होने के लिए हमारे पास दूसरा आधार ऐतिहासिक चित्रपट है । इस चित्रपट की पुष्पिका के अनुसार नयविजयजी ने आचार्य विजयसेनसूरि के कणसागर नामक गांव में रहकर सं. 1663 में अपने शिष्य जयविजयजी (यशोविजयजी) के लिए इस चित्रपट का आलेखन किया । पुष्पिका के अनुसार कल्याणविजयजी के शिष्य नयविजयजी उस समय पन्यास पद पर थे और यशोविजयजी को भी उसमें गणि बताया गया है।
अब ऐतिहासिक चित्रपटानुसार सं. 1663 में यशोविजयजी गणि थे । सामान्य रूप से गणि पदवी दीक्षा के कम से कम पांच से दस वर्ष पश्चात् दी जाती है। अतः
' संवत सोल अठयासियेजी, रही कुणगेर चौमासी श्री नयविजय पंडित वरजी, आव्या कन्होडे उल्लासी मात पुत्र स्युं साधुनाजी, वांदिचरण सविलास सुगुरू- धर्म - उपदेशथीजी पामी वयराग प्रकाश
" विजयदेव गुरू हाथनीजी बड दीक्षा हुई खास बिहुने सोल अठयासियेजी, करता योग अभ्यास
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सुजसवेलीभास, गा. 1 / 9,10
सुजसवेली भास, गा. 1 / 13
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हम ऐसा मान सकते हैं कि सं. 1663 में यशोविजयजी को गणिपद से अलंकृत किया गया होगा तो उनकी दीक्षा सं. 1653 में हुई होगी। यशोविजयजी लघुवय में दीक्षित होने से दीक्षा के समय इनकी उम्र 8-9 वर्ष की रही होगी। इन तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि यशोविजयजी का जन्म सं. 1645 के आसपास हुआ होगा। इनका स्वर्गवास सं. 1743-44 में हुआ था। अतः सं. 1645 से 1744 तक का लगभग सौ वर्ष का आयुष्य होना चाहिए।
अब समस्या यह खड़ी होती है कि इन दो प्रमाणों में से किस प्रमाण को महत्त्व दिया जाय। प्रद्युम्नविजयगणि, जयंत कोठारी और कान्तिभाई बी शाह द्वारा संयुक्त रूप से संपादित 'उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ' में चित्रपट के लेख को यथावत उद्धृत करके तथा अन्य तथ्यों का उल्लेख करके चित्रपट में उल्लेखित नयविजयजी और यशोविजयजी को अन्य कोई नयविजयजी और यशोविजयजी ठहराया है। इसमें सं. 1645 को यशोविजयजी का जन्मवर्ष नहीं मानने के लिए एक और ठोस आधार दिया गया है कि जब 'सुजसवेलीभास' में दिये गये आठ अवधान वर्ष सं. 1699, उपाध्यायपदवी वर्ष सं. 1718 एवं स्वर्गवास वर्ष 1743 आदि का समर्थन करके स्वीकार किया गया है तो मात्र दीक्षा वर्ष सं. 1688 के प्रति ही अश्रद्धा दर्शाने के लिए हमारे पास क्या आधार है। इस दृष्टि से 'सुजसवेलीभास' की माहितियाँ अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती हैं।
जहाँ तक चित्रपट के संवत का प्रश्न है, डॉ. सागरमल जैन के अनुसार वह 1663 न होकर 1693 होना चाहिए। क्योंकि उस काल के हस्तलेखन में 6 तथा ६ में बहुत कम अन्तर होता था। इस दृष्टि से उनकी दीक्षा 1688 में तथा गणिपद 1693 में हुआ होगा। अतः उनका जन्म 1660-1679 के मध्य हुआ होगा। ऐसा मानने पर दोनों में संगति बैठ जाती है।
उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ, सं. प्रद्युम्नविजयगणि, जयन्त कोठारी, कान्तिभाई बी. शाह, पृ. 5 ' वही, पृ. 6 10 डॉ. सागरमल जैन से वैयक्तिक चर्चा के आधार पर।
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दीक्षा
बालक जसवंतकुमार का समग्र परिवार ही तब त्याग, वैराग्य और स्वाध्याय के रंगों से रंगा हुआ था । पूज्य श्री नयविजयजी कुणगेर (कुमारगिरि) गांव में चातुर्मास सम्पन्न करके वि.सं. 1688 में कनोडा पधारे। सौभाग्यदेवी अपने पुत्र के जीवन को धर्म संस्कारों से सिंचित करने की भावना से प्रतिदिन पुत्र जसवंत को साथ लेकर देवदर्शन और गुरूवंदनार्थ जाती थी । गुरूमुख से 'भक्तामर स्तोत्र' का श्रवण करना सौभाग्यदेवी का नियम बन गया था । यहाँ तक कि 'भक्तामर स्तोत्र' को श्रवण किए बिना कुछ खाना-पीना नहीं करती थी। एक बार श्रावण माह में लगातार तीन दिन तक वर्षा होती रही और उपाश्रय तक नहीं पहुंच पाने के कारण सौभाग्यदेवी ने अपने नियमानुसार अट्ठम की तपश्चर्या कर ली। जब चौथे दिन सुबह भी सौभाग्यदेवी ने कुछ न खाया तो जसवंत ने न खाने का कारण पूछा। माता ने अपने नियम की बात बताई। माता के नियम को जानकर जसवंत कहने लगा कि – “माँ मुझे 'भक्तामरस्तोत्र' आता है ।" "मैं आपको सुनाऊँ", इतना कहकर 'भक्तामर स्तोत्र' सुनाने लग गया। अपने पुत्र के मुख से शुद्ध 'भक्तामर स्तोत्र' का पाठ सुनकर सौभाग्यदेवी के हर्ष की सीमा नहीं रही। जब गुरू महाराज इस बात से अवगत हुए तो वे भी बालक की अद्भुत स्मरण शक्ति से आश्चर्यचकित और आनंदित हुए ।
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श्री नयविजयजी ने अपनी पारखी दृष्टि से जसवंत की बुद्धिमत्ता, चतुरता और विनयशीलता आदि उत्तम गुणों को देखकर बालक में छिपे महान शासन प्रभावक गुण को पहचान लिया । यथा अवसर देखकर सौभाग्यदेवी और जसवंत को वैराग्यवर्धक धर्मोपदेश दिया तथा माता से बालक जसवंत को जिनशासन के चरणों में समर्पित करने के लिए आग्रह किया । "मेरा पुत्र कुलदीपक बनेगा तो केवल मेरे घर की चार दीवारों को ही प्रकाशित करेगा और यदि पुत्र को जिनशासन के लिए समर्पित कर दूं तो मेरे पुत्र की अलौकिक ज्ञान - आभा से संपूर्ण जैनाकाश प्रकाशित होगा', ऐसे धार्मिक विचारों से प्रेरित होकर सौभाग्यदेवी ने अपने पुत्र जसवंत को नयविजयजी के चरणों में अर्पित कर दिया। बालक जसवंत ने भी पूर्वभव के
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संस्कारों, माता के धर्ममय संस्कारों एवं नयविजयजी की वैराग्यमयी वाणी से वैराग्यवासित होकर अणहिलपुर पाटण में गुरू नयविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली।" बालमुनि का नाम – 'जशविजय' रखा गया। सौभाग्यदेवी के दूसरे पुत्र पद्मसिंह ने भी दीक्षा ली। उनका नामकरण 'पद्मविजय' किया गया। दोनों मुनियों की बड़ी दीक्षा सं. 1688 में तपागच्छाचार्य विजयदेवसूरि के करकमलों से सम्पन्न हुई। यथा -
पदमसीह बीजो वलीजी, तस बांधव गुणवंत तेह प्रसंगे प्रेरियोजी, ते पणि थयो व्रतवंत - 12 विजयदेव-गुरू-हाथनीजी, वली दीक्षा हुई खास बिहुने सोल अठयासियेजी, करता योग अभ्यास - 13
विद्याभ्यास -
श्री नयविजयजी यशोविजयजी के दीक्षागुरू ही नहीं अपितु शिक्षागुरू भी थे। स्वयं यशोविजयजी ने नयविजयजी को 'प्राज्ञ' और 'विद्याप्रदा' कहा है। दीक्षा के पश्चात् यशोविजयजी ने अपने गुरू नयविजयजीगणि के सान्निध्य में ग्यारह वर्ष तक धार्मिक शिक्षण के साथ-साथ संस्कृत, प्राकृत भाषा के व्याकरण, छंद, अलंकार तथा कोश ग्रन्थों का भी सतत् अभ्यास किया। यशोविजयजी अपनी तीव्र बुद्धि और अजोड़ स्मरण शक्ति से अल्प समय में ही अनेक शास्त्रों में पारंगत बन गये। इन्होने स्वरचित उपदेशरहस्यप्रकरण, ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका आदि ग्रन्थ में नयविजयजी के गुरूभ्राता जीतविजयजी को भी विद्यागुरू के रूप में उल्लेख किया है। यशोविजयजी के विद्याभ्यास में गच्छनायक विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि की वात्सल्यमयी प्रेरणा रही तथा उनकी ही हितशिक्षा एवं सतत् प्रयत्नों से इनका ज्ञानयोग का
॥ अणहिलपुर पाटणि जइजी, ल्यो गुरू पासे चारित्र
यशोविजय अहवी करीजी., थापना नामनी तत्र ....................... सुजसवेलीभास, गा. 1/11 12 'यशोदोहन' में इस दीक्षा का समय वि.सं. 1688 दिया है तथा यह दीक्षा हीरविजयजी के प्रशिष्य एवं विजयसेन सूरिजी के शिष्य विजयदेवसूरि ने दी थी, ऐसा उल्लेख है। .......
....... पृ.7 13 भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदा - जैनतर्कभाषा की प्रशस्ति
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अभ्यास पूर्ण हुआ। इस बात का उल्लेख 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में स्वयं यशोविजयजी ने आदरपूर्वक किया है। यथा -
तास पाटि विजय देवसूरीस्वर महिमावंत निरीहो तास पाटि विजय सिंह सूरीसर, सकल सूरिमां लीहो
ते गुरूना उत्तम उद्यमयी, गीतारथ गुण वाध्यो रे तस हित सीखतणइ अनुसारइ, ज्ञानयोग से साध्यो रे।। 17.4 इससे यह प्रतीत होता है कि यशोविजयजी की प्रखर प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके गुरूओं ने उनके विद्याभ्यास में गहरा रस लिया तथा यशोविजयजी भी अपने गुरूओं की सान्निध्यता एवं प्रेरणा से अल्प समय में ही अनेक विद्याओं में प्रवीणता प्राप्त की।
वि.सं. 1699 में यशोविजयजी ने अहमदाबाद संघ के समक्ष एवं अपने गुरू नयविजयजी की उपस्थिति में आठ बड़े अवधानों का प्रयोग करके दिखाया। इन्होंने आठ सभाजनों द्वारा कही हुई आठ-आठ वस्तुओं को याद रखकर फिर क्रम से उन 64 वस्तुओं को कहकर बताया। इस अद्भुत प्रयोग के माध्यम से यशोविजयजी की अनूठी धारणाशक्ति एवं प्रखर बुद्धि को देखकर संपूर्ण अहमदाबाद संघ मंत्रमुग्ध बन गया। श्रीसंघ ने बालमुनि जसविजय में ओझल भविष्य की महान साधुता और विद्वता को देखकर खूब प्रशंसा की। इनकी बुद्धि चातुर्यता और उत्तर देने की विलक्षणता से प्रभावित होकर धनजी-सूरा नाम के श्रेष्ठी ने नयविजयजी से प्रार्थना करते हुए कहा- “गुरूदेव ! यशोविजयजी ज्ञान के लिए सुयोग्य पात्र हैं। परन्तु यहाँ उत्तम पण्डितों की व्यवस्था नहीं है। यदि आपश्री इनको विद्याधाम काशी ले जाकर षडदर्शनों का अभ्यास करायेंगे तो ये भविष्य में जिनशासन के महान प्रभावक बन सकते हैं।" इतना निवेदन करके श्रेष्ठी ने इस विद्याभ्यास हेतु होने वाले समस्त व्यय और पण्डितों का सत्कार करने की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली। 'शुभस्य
14 संवत सोल नवाणुओजी, राजनगरमा सुग्यान
साधि साखी संघनीजी, अष्ठ महा अवधान ....................... सुजसवेलीभास, गा. 1/15
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शीघ्रम' की कहावत के अनुसार धनजी सूरा ने शीघ्र ही दो हजार चांदी के दीनारों की हुण्डी लिखकर काशी भेज दी।15
काशीगमन और न्यायविशारद की विरुद -
नयविजयजी यशोविजयजी को लेकर उग्र विहार करके काशी पहुंचे। काशी में षड्दर्शनों के सर्वोच्च पंडित और नव्यन्याय के प्रकाण्ड विद्वान एक मट्टाचार्य रहते थे। उनके पास यशोविजयजी अध्ययन करने लगे। वैसे तो न्याय-मीमांसा और षड्दर्शनों का अध्ययन करने के लिए आठ वर्ष चाहिए। परन्तु यशोविजयजीनेअद्भुत अपनी ग्रहणशक्ति तथा आश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण मात्र तीन वर्षों में ही व्याकरण, तर्क, न्याय, षड्दर्शन आदि के साथ-साथ अन्यान्य शास्त्रों में पारंगत विद्वान बन गये। विद्यागुरू भट्टाचार्य से नव्यन्याय जैसे गंभीर विषय एवं 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक दुर्बोध ग्रन्थ का भी गहरा अभ्यास करके नव्यन्याय के बेजोड़ विद्वान बने तथा षड्दर्शन वेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। यशोविजयजी की वाद-विवाद की शक्ति भी अकाट्य और अद्वितीय थी।
उन दिनों में कश्मीर भी काशी के समान विद्याधाम था। ऐसे कश्मीर का एक सन्यासी अन्य स्थानों पर वाद-विवाद में विजय प्राप्त करके काशी में आया और काशीवासियों से वाद के लिए घोषणा करने लगा। दुर्भाग्य से काशी जैसी नगरी से कोई भी पंडित, उस कश्मीर के पंडित से वाद-विवाद करने के लिए साहस नहीं दिखा पाया। क्योंकि वाद-विवाद में केवल पांडित्य से ही कार्यसिद्धि नहीं होती अपितु स्मृति, तर्कशक्ति और प्रत्युत्पन्नमति आदि की भी आवश्यकता रहती है। काशी की प्रतिष्ठा पर आँच आते देखकर भट्टाचार्य के युवा शिष्य यशोविजयजी, कश्मीर के पंडित से वाद-विवाद करने के लिए आगे आये। वादसभा का आयोजन किया गया। वाद-विवाद में यशोविजयजी के तर्कसंगत अकाट्य उत्तरों को सुनकर कश्मीर
15 धनजी सूरा साह, वचन गुरूनुं सुणी हो लाल
आणी मन उच्छाह, कहै इन ते गुणी हो लाल दोई सहस दीनार, रजतना खरचस्युं हो लाल
.............. सुजसवेलीभास, गा. 2/1
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पंडितजी के पैरों तले जमीन खिसकने लग गई। यशोविजयजी के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर भी वादी पंडित न दे पाया। अंत में पराजय स्वीकार करके काशी से भाग गया। इस प्रकार उपाध्याय जी ने अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी वर्ग के समक्ष कश्मीर के पंडित जी से शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी । हिन्दू पंडितों ने एवं काशी नरेश ने इनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर 'न्यायविशारद' और तार्किक शिरोमणि ऐसी दो पदवियों से अलंकृत किया और इनकी शोभायात्रा निकाली । इसका उल्लेख स्वयं उपाध्यायजी ने 'प्रतिमाशतक' नामक ग्रन्थ में किया है । "
16
सरस्वती मंत्र साधना
काशी में गंगा नदी के किनारे यशोविजयजी ने ऐड-कार मन्त्र का जाप करके माँ शारदा को प्रसन्न कर उनसे वरदान प्राप्त किया। इस वरदान के प्रभाव से यशोविजयजी की प्रज्ञा न्याय, तर्क, काव्य और भाषा आदि के क्षेत्र में कल्पवृक्ष की तरह फलवती बनती गई । सरस्वती मंत्र साधना और उनसे प्राप्त वरदान के सम्बन्ध में स्वयं यशोविजयजी ने स्वरचित जंबूस्वामीरास में उल्लेख किया है। 17 शारदादेवी की कृपा से ही यशोविजयजी सिद्धसेन दिवाकर आदि के सकलनय पूर्ण शास्त्रों का स्वयं आलोडन करके उन पर टीका आदि का निर्माण तथा शताधिक ग्रन्थों का प्रणयन कर सके ।
16
'पूर्व न्यायविशारदत्व विरूद काश्यां प्रदत्तं बुधैः न्यायचार्य पदं ततः कृत शतग्रन्थस्य यस्यार्पितम् यशोविजयजी कृत 'प्रतिमाशतक' ग्रन्थ, पृ. 1
36
श्लोक - 2
17 शारदा सार दया करो, आपी वचन सुरंग तू तुटी मुझ ऊपरे, जाप करत उपगंग
तर्क काव्यों ते सदा, दीधो वर अभिराम
भाषा पण करी कल्पतरू शाखसम परिणाम - जंबूस्वामीरास
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आगरा में विशिष्ट अध्ययन -
तीन वर्ष काशी में रहकर तार्किक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करके यशोविजयजी आगरा पधारे। वहां न्यायाचार्य के पास चार वर्ष तक अभ्यास करके कठिन तर्क सिद्धान्त और प्रमाण आदि विषय में निपुणता प्राप्त की। इन्होंने आगरा तथा अन्य स्थानों पर आयोजित वादसभाओं में शास्त्रार्थ करके विजयश्री का वरण किया। यशोविजयजी के आगरा गमन की बात 'सुजसवेलीभास' के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पर भी देखने में नहीं आती है। परन्तु काशीवास का उल्लेख तो स्वयं यशोविजयजी ने बहुत बार किया है।
अहमदाबाद में अठारह अवधानों का प्रयोग -
नयविजयजी यशोविजयजी आदि शिष्यमंडल के साथ आगरा से विहार करके अहमदाबाद पधारे। उस समय अहमदाबाद में मोहब्बतखान का शासन चल रहा था। यशोविजयजी की कीर्ति मोहब्बतखान के कानों तक पहुंची। उनकी प्रखर विद्वता के विषय में सुनकर मोहब्बतखान के मन में यशोविजयजी से मिलने की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई। उसने जैनसंघ द्वारा यशोविजयजी को राजसभा में पधारने के लिए आमंत्रण भेजा। सूबे की प्रार्थना स्वीकार कर यशोविजयजी गुरूमहाराज, अन्य साधुओं और अग्रगण्य श्रावकों के साथ राजसभा में पधारे और वहाँ विशाल सभा के समक्ष अठारह अवधान का प्रयोग करके दिखाया। इसमें अलग-अलग अठारह व्यक्तियों द्वारा कही बात को सुनकर बाद में उसी क्रमानुसार कहना, पादपूर्ति करना, शब्दों का जमाकर वाक्य बनाना तथा तुरंत संस्कृत में श्लोक रचना करनी होती है। यशोविजयजी की आश्चर्यकारी स्मरणशक्ति और कवित्वशक्ति से खूब आकर्षित होकर मोहब्बतखान ने यशोविजयजी का भव्य सम्मान किया, जिससे जिनशासन की बहुत प्रभावना हुई।
18 काशीयी बुधराय, त्रिहु वरषांतरे हो लाल
तार्किक नाम धराय, आव्या पुर आगरे हो लाल - सुजसवेलीभास, गा. 2/8 19 उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद, लेखिका - डॉ. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ. 28
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उपाध्याय पद की प्राप्ति -
हीरविजयजी के समुदाय में गच्छाधिपति विजयदेवसूरि के पश्चात् गच्छ का भार विजयप्रभसूरि पर आया। उस समय अगाध पांडित्य, अनेक वादों में विजय प्राप्त करना, अठारह अवधान का प्रयोग आदि से यशोविजयजी की ख्याति वटवृक्ष की तरह चारों ओर फैल चुकी थी। यशोविजयजी के इन महान शासन प्रभावक कार्यों से प्रभावित होकर अहमदाबाद श्रीसंघ ने विजयप्रभसूरि से प्रार्थना की -"यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान होने के साथ उपाध्याय पद के लिए सर्वदा सुयोग्य पात्र हैं। अतः उन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया जाय।" संघ की आग्रह भरी विनती और यशोविजयजी की योग्यता को देखकर विजयप्रभसूरि ने संवत् 1718 में उनको उपाध्याय पद से सुशोभित किया। आचार्य पदवी के लिए सर्वथा योग्य यशोविजयजी जैसे प्रकाण्ड विद्वान और गीतार्थ पुरूष को आचार्य पदवी क्यों नहीं प्रदान की गई और उपाध्याय पदवी भी बहुत विलम्ब से क्यों मिली ? यह एक मननीय और चिन्तनीय प्रश्न है। पंचपरमेष्ठियों में चतुर्थ स्थान पर विराजित होकर यशोविजयजी ने प्राप्त उपाध्याय पद के गौरव को इस प्रकार बढ़ाया कि उपाध्याय पदवी उनके नाम की पर्याय बन गयी। महोपाध्यायजी अर्थात् यशोविजयजी ऐसा प्रचलन हो गया। जैनसंघ में आप महोपाध्यायजी के नाम से ही प्रसिद्ध है।
गुरू परंपरा -
महोपाध्याय यशोविजयजी ने स्वोपज्ञ प्रतिमाशतक, अध्यात्मोपनिषद वृत्ति एवं द्रव्यगुणपर्यायनोरास में अपनी गुरू परंपरा का परिचय दिया है।
20 ओली तप आराध्य विधि थकीजी, तस फल करतलि कीध वाचक पदवी सत्तर अठारमांजी, श्री विजयप्रभ दीध ......
सुजसवेलीभास, गा. 3/12
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'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की 17 वीं ढाल के अनुसार आपकी गुरू पंरपरा इस प्रकार है।
तपागच्छ में जगद्गुरू विरूद के धारक एवं अकबर प्रतिबोधक हीरसूरिजी के पाट पर पट्टप्रभावक विजयसेनसूरीश्वरजी नामक आचार्य हुए। उनके पाट पर अतिशयमहिमा वाले एवं निःस्पृह विजयदेवसूरीश्वरजी हुए और उनके पाट पर अग्रगण्य श्री विजयसिंहसूरीश्वर हुए। इस प्रकार यशस्वी आचार्यों की पाटपरंपरा बताने के बाद उपाध्यायजी ने हीरविजयसूरीश्वरजी से क्रमशः हुए उपाध्यायों की पाट परंपरा बताई है।
हीरविजयसूरीश्वर जी के शिष्यरत्न महोपाध्याय पदवी से विभूषित कल्याणविजयगणि हुए। आपके शिष्य महापंडित एवं सौभाग्यशाली लाभविजयगणि हुए। आपके शिष्य पंडित शिरोमणि जितविजयजी गणि हुए। उनके गुरूभ्राता ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों युक्त पंडित नयविजयजी थे। उन्हीं नयविजयजी की चरणसेवा और कृपा से स्वपर शास्त्रों में पारंगत महोपाध्याय यशोविजयजी हुए।
आनंदघनजी और यशोविजयजी का मिलन -
जैनशासन में आनंद धनजी का नाम योगीराज के रूप में विख्यात है। आनंदघनजी का मूल नाम लाभानंदजी था और संभवतः आप राजस्थान के हो सकते हैं। मस्त अवधूत के रूप में विचरनेवाले इस जैन साधु के विषय में अन्य कोई जानकारी नहीं मिलती है। हम ऐसा अनुमान लगा सकते हैं कि आनंद धनजी सं. 1650 से 1710 तक अवश्य विद्यमान रहे होंगे। इन्होंने 24 तीर्थंकरों के आत्मानुभूति
21 तपगच्छनंदन सुरतरू, प्रकटिओ हीरविजय सूरिंदो। सकल सूरिमां जे सोभागी, जिम तारामां चंदो रे || 17/1
तास पांटि विजयसेनसूरीसर, ज्ञान रयणनो दरियो। साहि सभामा जे जस पामिओ, विजवंत गुण भरियो।। 17/2 तास पाटि विजयदेवसूरीसर, महिमावंत निरीहो। तास पाटि विजयसिंहसूरीसर, सकलसूरियां लीहो।। 17/3 श्री कल्याणविजय बडवाचक, हीरविजय गुरू सीखो। उदयो जस गुण संतति गावइ, सुरकिन्नर निशदिशो रे।। 17/6 गुरूश्री लाभविजय वड पंडित, तास सीस सोभागी। श्रुत व्याकरणदिक बहुग्रन्थी, निव्यइ जस मति लागी।। 17/7 श्रीगुरू जितविजय तस सीसो, महिमावंत महंतो। श्रीनयविजय विबुध गुरूभ्राता, तास महा गुणवंतो रे।। 17/8 जस सेवा सुपसायइं सहणिं, चिंतामणि में लहिउं। तस गुण गाई शकुं किम सघला, गावानई गह गहियो रे।। 17/20
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से युक्त एवं भक्तिरस से ओतप्रोत स्तवनों की रचना की है जो आज भी जैनसंघ में परम भक्तिभाव से गाये जाते हैं। आपके कुछ पदरचनाएँ भी उपलब्ध हैं जिनमें अनुभवनिष्ठ आध्यात्मिक विचारों के दर्शन होते हैं।
योगीराज आनंदघनजी से यशोविजयजी कब और कैसे मिले ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु इन दोनों के मिलने का निर्देश स्वयं यशोविजयजी ने 'आनंदधन अष्टपदी' में स्पष्ट रूप से किया है। यथा -
"जशविजय कहे सुनो हो आनंदधन, हम तुम मिले हुजुर
ओ री आज आनंद भयो, मेरे तेरो मुख नीरख नीरख आनंदधन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनंद सम भयो सुजस" इसी प्रकार आनंदघनजी के एक पद में भी यशोविजयजी का संबोधन मिलता
आनंदधन कहे, जस सुनो भ्रात
यही मिले तो मेरा फेरा टले ......... यशोविजयजी ने 'आनंदघन अष्टपदी' में आनंदधनजी के प्रति गाढ़ प्रीति अभिव्यक्त की है। लोकनिंदा के प्रसंगों में आनंदधनजी तो अपने मस्ती में रहते ही थे। परन्तु यशोविजयजी भी उनके पक्ष में रहकर आनंदघनजी के प्रति अपने स्नेहभाव दर्शाते थे। आनंदधनजी के इस मस्ती का प्रभाव यशोविजयजी पर भी पड़ा और उनके संपर्क से यशोविजयजी को अध्यात्म साधना का अद्भुत मार्ग मिला। यशोविजयजी के पदों में परिलक्षित आत्मानुभाव आनंदधनजी के मिलन का ही परिणाम हो सकता है। स्वयं यशोविजय कहते हैं कि मेरे लिए आनंदघनजी पारसमणि के समान थे, जिनके स्पर्श से मैं लोहे से कंचन बना।
22 कोई आनंदघन छिद्र ही पेखत, जसराय संग चडी जाय
आनंदधन आनंदरस झीलत, देखत ही जस गुण गाय ...... आनंदघन अष्टपदी V आनंदधन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनंद सम भयो सुजस पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ताके कस ................. आनंदधन अष्टपदी
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यशोविजयजी का अन्य समकालीन मुनियों के साथ सम्बन्ध -
1. उपाध्याय विनयविजयजी :
विनयविजयजी, हीरविजयसूरि के प्रशिष्य एवं कीर्तिविजयजी के शिष्यरत्न थे। विनयविजयजी तर्क और काव्य के सुदृढ़ अभ्यासी थे। संस्कृत तथा गुजराती भाषा में शान्तसुधारस, श्रीपालरास आदि अनेक कृतियों की रचना की है। 'विनयविलास' कबीर आदि के परंपरा के हिन्दी पदों का संचय है। सं. 1738 में आपका देवलोकगमन हो जाने से 'श्रीपालरास' अधूरा ही रह गया था। यशोविजयजी ने इस श्रीपालरास को पूर्ण किया और इस रास के कलश में अपने साथ विनयविजयजी के स्नेह सम्बन्ध का भावपूर्ण उल्लेख किया है। विनयविजयजी की सहायता से ही 'धर्मपरीक्षाप्रकरण' में निखार और उत्कृष्टता आई, ऐसा उल्लेख भी किया है। 2. जयसोमगणि :
यशोविजयजी ने जब बीसस्थानक पदों की ओली की थी, उस समय जयसोमगणि ने आपकी तन और मन से सेवाशुश्रुषा की थी।24 जयसोमगणि ने 'नयचक्रवृत्ति के लेखन में भी यशोविजयजी की सहायता की थी। आपने कर्मग्रन्थों पर बालावबोधों की और नेमिनाथ लेख आदि गुजराती कृतियों की भी रचना की। इनकी कृतियों में सं. 1703 से 1723 तक का रचनावर्ष मिलता है।
3. मानविजयगणि :
मानविजयजी, शान्तिविजयजी के मेधावी शिष्यरत्न थे, जिन्होंने संस्कृत भाषा में 'धर्मसंग्रह' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। इन्होंने गुजराती भाषा में भी कुछ बालावबोधों, स्तवनों आदि की रचना की। उपाध्यायजी ने आपके 'धर्मसंग्रह' ग्रन्थ का सूक्ष्मदृष्टि से संशोधन करके ग्रन्थ की प्रामाणिकता में वृद्धि की, ऐसा स्वयं
24 पंडितजी थानकतप विधिस्य आदरेजी, च्छदेन भवसंताप भीना मारग शुद्ध संवेगनेजी, चाँढे संयम चाषे जय सोमारिक पंडित मंडलीजी. सेवे चरण अदोष ..........
सुजसवेलीभास, गा. 3/10, 11
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मानविजयजी ने उल्लेख किया है। मानविजयजी, यशोविजयजी की बहुश्रुतता से
प्रभावित होकर लिखते हैं कि
तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः चक्रुर्यश विजयवाचकराजिमुख्या ग्रन्थेत्र मथ्युपकृति परिशोधनाद्यैः ।। 25
मानविजयजी कहते हैं कि यशोविजयजी आगम के अनुपम ज्ञाता तथा कुमति के उत्थापक श्रुतकेवली थे । तर्क और प्रमाण - नय ग्रन्थों के मुख्य विवेचक थे। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रद्धेय उपाध्याय यशोविजयजी का ज्ञान कितना परिष्कृत और तलस्पर्शी था ।
25
4. सत्यविजयगणि :
विजयसिंहसूरि के शिष्य सत्यविजयगणि का जीवनकाल संवत 1680 से 1756 है । क्रियोद्धारक के रूप में प्रसिद्ध सत्यविजयगणि ने आचार्य पद को अस्वीकार करके छट्ठ-छट्ट की तपश्चर्यापूर्वक मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों में एकाकी विहार करते थे। विजयप्रभसूरि द्वारा प्रारम्भ की हुई यति परंपरा से संवेगी साधुओं की पृथक् पहचान के लिए आपने पीले वस्त्रों की परंपरा शुरू की । शिथिलाचारों को दूर करने के लिए आपने जो अथक प्रयास किया था उसमें यशोविजयजी ने भी अपना योगदान और सहायता प्रदान की थी ।
42
-
5. वृद्धिविजयगणि
आप सत्यविजयगणि के शिष्य थे। इन्होने सं. 1733 में जो 'उपदेशमाला बालावबोध' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उसमें उपाध्याय यशोविजयजी की प्रेरणा मार्गदर्शन एवं मदद प्राप्त हुई, ऐसा स्वयं वृद्धिविजयगणि ने उल्लेख किया है।
:
उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, संपादक प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 39
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उपरोक्त मुनिवरों के अतिरिक्त ऋद्धिविमलगणि, वीरविजयऋषि और मणिचंद्र ऋषि भी यशोविजयजी के समकालीन थे। इनके विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। परन्तु यशोविजयजी ने जो संवेगी साधुओं के लिए व्यवहार मर्यादा के 42 बोल का एक लेख लिखा था, उनमें हस्ताक्षर करने वाले जयसोमगणि, सत्यविजयगणि के साथ ऋद्धिविमलगणि, वीरविजयऋषि और मणिचंद्रऋषि भी थे, ऐसा उल्लेख अवश्य मिलता है। कालधर्म (स्वर्गवास) -
शासन समर्पित महोपाध्याय यशोविजयजी सं. 1743 में बड़ोदरा के समीपवर्ती गांव डभोई में 11 दिवस के अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्गगामी बने।” अग्निसंस्कार के स्थान पर स्मारक निर्मित करके चरण–पादुका स्थापित की गई है। पादुकाओं में वि.सं. 1745 का उल्लेख मिलता है। पहले इस उल्लेख के आधार पर स्वर्गवास की तिथि सं. 1745 मार्गशीर्ष शुक्ला 11 (मौन एकादशी) ही मानी जाती थी। परन्तु यह तिथि स्वर्गवास की नहीं होकर चरण-पादुका की प्रतिष्ठा तिथि है। पादुका पर लेख स्पष्ट है –"संवत 1745 वर्षे प्रवर्तमाने मागशीर्षमासे शुक्लपक्षे एकादशी तिथौ श्री जसविजयगणिनां पादुका कारापिता प्रतिष्ठितऽत्रेयं, तत्त्वरणसेवक ....... विजयगणिना राजनगरे"28 इस प्रकार पादुका के निर्माण और उसके प्रतिष्ठा में समय तो लगा ही होगा।
उपाध्याय यशोविजयजी की सबसे अंतिम रचना वर्ष 1739 वाली कृति 'जंबूस्वामीरास' है जो खंभात भण्डार से प्राप्त हुई है। सुरत चातुर्मास में रचित प्रतिक्रमण हेतु सारगर्भित सज्झाय, और ग्यारह अंग के सज्झाय में रचना वर्ष “युग युग मुनि विधुवत सराई" इस प्रकार सूचित किया है। इसमें 'युग' शब्द का अर्थ दो
26 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ. संपादक प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 18 27 सतर त्रयाली चोमासु रहया, पाठक नगर डमोई रे । तिहां सुरपदवी अणुसरी, अणसण करि पातक धोई रे
सुजसवेली, गा. 4/5 28 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, पृ. 29
संपादकों - प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी.शाह
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न लेकर चार लेते हैं तो सं. 1744 होता है और यही सं. 1744 सुसंगत लगता है, क्योंकि वे 1739 तक ग्रन्थ रचना करते रहे और सुजसवेलीभास के अनुसार यशोविजयजी का अन्तिम चातुर्मास संवत् 1743 में डभोई गांव में था। यहीं पर उन्होंने सं. 1744 में अपने पार्थिव देह को छोड़ा था। संवत् निश्चित होने पर भी यशोविजयजी के स्वर्गवास की निश्चित माह और तिथि जानने को नहीं मिलती है।
उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण -
महामहिम महोपाध्याय यशोविजयजी जिनशासन के ऐसे अनुपम स्वर्णहार थे जो त्याग, वैराग्य, सरलता, लघुता, गुणानुराग, धीर-गंभीरता, तर्कशीलता, दार्शनिकता, शासनभक्ति, गुरुभक्ति, तीर्थभक्ति, श्रुतभक्ति आदि अनेक गुण रूपी अमूल्य रत्नों से मंडित थे ।
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1. त्याग - वैराग्य :
'सुजसवेलीभास' के आधार पर यह बात सुनिश्चित है कि यशोविजयजी ने अल्पवय में दीक्षा ली थी। बचपन की हंसी-ठिठोली की उम्र में संयम - साधना के पथ पर आरूढ़ होना कोई सामान्य बात नहीं है । माँ के उत्तम संस्कार और गुरू नयविजयजी का पावन सान्निध्य तो प्राप्त हुआ ही था । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आपने पूर्व भव की अधूरी योग साधना को पूर्ण करने हेतु ही जन्म लिया । अन्यथा भोग की उम्र में त्याग के प्रति आत्मिक रूचि हो पाना बहुत ही मुश्किल है । आगे भी आपने शिथिलाचार का विरोध करके कठोर साध्वाचार पर बल दिया | ज्ञान योग के प्रबल समर्थक होने पर भी इन्होंने अपने जीवन में त्याग और वैराग्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है ।
2. विनयशीलता और गुरू समर्पण
'विनयं ददाति विद्या' यह उक्ति उपाध्यायजी के जीवन में पूर्ण रूप से चरितार्थ हुई है। इनमें जितना उच्च कोटी का पाण्डित्य था, उतनी ही उच्च कोटी की
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विनयशीलता और समर्पण भाव भी थे। इनकी प्रत्येक छोटी से छोटी कृति में भी गुरू नयविजयजी का नाम परमादर के साथ सूचित किया गया है। यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' के सज्जनस्तुति अधिकार में जिस भक्तिभाव और मनोहर कल्पना के साथ नयविजयजी का गुणगान किया है, वह अनुपम और अद्वितीय है। 29 इससे आपकी पराकाष्ठा की गुरूभक्ति परिलक्षित होती है । यशोविजयजी को अपने गुरू के प्रति संपूर्ण समर्पण भाव था तो नयविजयजी को भी अपने सुयोग्य शिष्यरत्न के प्रति पूर्ण वात्सल्य भाव था। यही कारण है कि यशोविजयजी ने अपने जीवन काल में शताधिक महान ग्रन्थों की रचना करके जैन साहित्य के इतिहास में अपने नाम को स्वर्णाक्षरों में अंकित कर पाये । शिष्य के हृदय में गुरू का वास होना स्वाभाविक है । परन्तु गुरू के हृदय में शिष्य के लिए स्थान होना, शिष्य के लिए बहुत गौरव की बात है। नयविजयजी को यशोविजयजी के प्रति इतना अगाध वात्सल्य था कि स्वयं इन्होनें यशोविजयजी की कितनी ही कृतियों की हस्तप्रतियाँ तैयार की। ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं पर भी नहीं मिल सकता है, जहाँ शिष्य की कृतियों की हस्तप्रतियाँ गुरू ने तैयार की हों । उत्कृष्ट गुरुभक्ति के कारण ही यशोविजयजी अपने ज्ञान को पचा पाये, ऐसा यशोविजयजी ने उल्लेख किया है | 30
परमश्रुभक्
उपाध्यायजी की श्रुतसाधना को देखते हुए ऐसा लगता है कि इन्होंने अपने संपूर्ण जीवन को ही विभिन्न साहित्यों के अध्ययन और सर्जन के लिए समर्पित कर दिया। आप निरन्तर श्रुतसागर की अथाह गहराई में गोते लगाते रहे और अमूल्य
29 यत्कीर्तिस्फूर्तिगाना बहितसुरवधुवृन्द कोलाहलेन । प्रक्षुब्धस्वर्गसिंधोः पतित जल भरैः क्षालितः शेत्यमेति । । अश्रान्त भ्रान्तकान्त ग्रहगण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो । भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधा सज्जन व्रातधुर्याः | 15 ||
30 यत्कीर्तिस्फूर्तिगाना बहितसुरवधुवृन्द कोलाहलेन । प्रक्षुब्धस्वर्गसिंधोः पतित जल भरैः क्षालितः शेत्यमेति । । अश्रान्त भ्रान्तकान्त ग्रहगण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो । भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधा सज्जन व्रातधुर्याः ।।5।।
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रत्नों को प्राप्त करते रहे। यशोविजयजी के समय में मल्लवादीसूरि कृत 'द्वादशारनयचक्र' जैसा ग्रन्थ मिल पाना तो दुर्लभ था ही, साथ में नयचक्रवृत्ति की प्रति भी विरल ही थी । सं. 1710 में यशोविजयजी जब पाटण नगर में थे, उस समय नयचक्र पर 18000 श्लोकों प्रमाण सिंहवादीगण द्वारा लिखी टीका की एक हस्तप्रति आपके हाथ लगी। यशोविजयजी को यह प्रति भी प्रायः जीर्ण-शीर्ण हालत में और थोड़े दिनों के लिए ही मिली थी । यशोविजयजी ने मूल ग्रन्थ की दुर्लभता और टीका की जीर्ण-शीर्ण हालत को देखकर नई प्रति तैयार कर लेना चाहिए, ऐसा सोचकर अन्य समय में 18000 श्लोक प्रमाण इस महाकाय ग्रन्थ की 309 पृष्ठों की नई नकल तैयार कर ली। सं. 1710 के पौषबद 10 को नयचक्रवृत्ति की नई प्रति तैयार हो गई। इस कार्य में नयविजयजी, जयसोमगणि, लाभविजयगणि, कीर्तिरत्न, तत्त्वविजय और रविविजय का सहयोग तो प्राप्त हुआ था ही । परन्तु 4800 श्लोक प्रमाण 73 पृष्ठों को स्वयं यशोविजयजी ने तैयार किया। इससे यशोविजयजी का गहरा विद्याप्रेम और श्रुतभक्ति परिज्ञात होती है ।
यशोविजयजी महाराज के ग्रन्थों की हस्तलिखित तीस से भी अधिक हस्तप्रतियाँ अलग-अलग भण्डारों से प्राप्त हुई हैं। इतनी बड़ी संख्या में स्वहस्तलिखित प्रतियाँ अन्य किसी साहित्यकार की अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यशोविजयजी का जीवन निष्प्रमादी और श्रुतसाधना में तल्लीन था ।
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. दार्शनिक प्रतिभा
यशोविजयजी की कृतियों के सूक्ष्म विश्लेषणों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है कि आप सुंदर, सचोट और सतर्क दार्शनिक विश्लेषणों का प्रतिपादन करने वाले प्रखर दार्शनिक प्रतिभा के धनी थे। उपाध्यायजी की यह विशेषता रही कि आप संपूर्ण जीवन के सर्जनकाल में आगम परंपरा का अनुसरण करने वाले तथा अनेकान्तवाद दृष्टि के प्रबल पोषक, एक प्रखर सुसंगत जैन चिन्तक
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के रूप में उभर कर आये। जैनदर्शन वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है। जैनदर्शन की यह अनेकान्त दृष्टि उसके स्याद्वाद और नयवाद के सिद्धान्तों से ही स्पष्ट हो सकती है। इस अनेकान्त दृष्टि की पुष्टि के लिए यशोविजयजी ने जैनतर्कभाषा, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश, न्यायालोक, स्याद्वादकल्पलताआदि अनेक जैन न्याय ग्रन्थों की रचना करके जैन दार्शनिक साहित्य को समृद्ध किया। परस्पर विरोधी मन्तव्यों में अनेकान्तवाद के आधार पर समन्वय करना यशोविजयजी की विशेष शैली रही। जैसे- जैन परंपरा में ज्ञान, दर्शन की उत्पत्ति को लेकर क्रमवाद, सहवाद और अभेदवाद ऐसे तीन मतभेद हैं। यशोविजयजी ने अपने 'ज्ञानबिन्दु' नामक ग्रन्थ में इस समस्या का समाधान समन्वयात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से क्रमवाद का व्यवहारनय की अपेक्षा से सहवाद का, और संग्रहनय की अपेक्षा से अभेदवाद का प्रतिपादन किया है। अतः नयभेद की अपेक्षा से इन तीनों मतों में कोई परस्पर विरोध नहीं है, ऐसा कहकर अपनी तार्किक और समन्वयशक्ति का परिचय दिया है।
इस प्रकार यशोविजयजी में एक दार्शनिक के रूप में अद्भुत समन्वयशक्ति, सुन्दर समीक्षिकरण, निर्भयता, विद्वतापूर्ण अर्थघटन, नव्यन्याय की शैली में जैन सिद्धान्तों का निरूपण आदि प्रमुख विशेषताएँ रही हैं। "श्रीमद् यशोविजयजी के अतिरिक्त अन्य किसी विद्वान द्वारा नव्यन्याय शैली में जैन दार्शनिक तत्वों का विस्तृत विवेचन देखने में नहीं आता है। जैनदर्शन के क्षेत्र में अभेदवाद, निक्षेप, नव्यन्याय आदि यशोविजयजी के विशिष्ट योगदानों से उनकी प्रखर दार्शनिक प्रज्ञा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
उदार दृष्टि -
उपाध्याय यशोविजयजी कदाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर सदैव ही सत्य के उपासक रहे। इस सत्यनिष्ठता के कारण उनका दृष्टिकोण उदारवादी रहा।
31 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रन्थ, पृ. 47 32 जैन तर्कभाषा, सं. ईश्वरचन्द्र शर्मा (हिन्दी) पृ. 12
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इनकी श्रुतसाधना पंथ और संप्रदायों से परे थी। यही कारण है कि इन्होंने दिगम्बराचार्य समंतभद्रकृत अष्टसहस्त्री, पतंजलीकृत योगसूत्र, मम्मटकृत काव्यप्रकाश, जानकीनाथशर्मा कृत न्यायसिद्धान्त मंजरी इत्यादि ग्रन्थों पर वृत्तियाँ लिखी तथा उनमें उपनिषदों, योगवसष्ठि, भगवतगीता आदि के उद्धरण दिए हैं। इससे यशोविजयजी की उदारता का परिचय मिलता है।
तर्कशीलता -
यशोविजयजी की कृतियों में सूक्ष्म तर्कशीलता का दर्शन होता है। इन्होंने अपनी तार्किक समर्थता का उपयोग मुख्य रूप से श्वेताम्बर परंपरा की मान्यताओं को दृढ़रूप से प्रतिष्ठित करने में किया है। श्वेताम्बर परंपरा से विपरीत मान्यता रखने वाले दिगम्बर मत के समक्ष 'अध्यात्मपरीक्षा' और 'ज्ञानार्णव' नामक संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन किया। मूर्तिपूजन का निषेध करने वाली मतों का प्रतिकार करके उनको हितशिक्षा देने के लिए 'प्रतिमाशतक' नामक ग्रन्थ की रचना की। दिगम्बराचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' में जैनदर्शन में प्रचलित सात नयों की परंपरा से अलग स्वमति कल्पना से सप्ताधिक नयों का विभाजन करके दिखाया है। यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में सन्मतितर्क प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का आधार लेकर अकाट्य युक्तिसंगत तर्कों द्वारा दिगम्बर सम्मत नय विभाजन की समालोचना करके उसे दोषपूर्ण ठहराया है।
अध्यात्मवादी -
आनंदधनजी जैसे योगनिष्ठ अनुभवी के समागम से यशोविजयजी ने अध्यात्मवाद में अधिक रस लेना प्रारम्भ किया और उत्तरोत्तर इनकी अध्यात्म भावना प्रबल बनती गई। अध्यात्म की साक्षात् अनुभूति के बिना अध्यात्मसार', 'अध्यात्मोपनिषद' और 'ज्ञानसार' जैसे अध्यात्मसारगर्भित ग्रन्थों की रचना संभव नहीं
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हो सकती थी। इनकी अध्यात्म भावना इतनी प्रबल थी कि –“एक जैन साधु से अपेक्षित संपूर्ण आचार का पालन करने में मैं असमर्थ हूं।" ऐसा साहसपूर्वक स्वीकार किया है। अध्यात्मसार के अनुभव अधिकार में आपने स्पष्ट रूप से लिखा है कि -
अवलंब्येच्छायोगं पूर्णाचरासहिष्णुवश्च वयम् भक्त्या परममुनिनां तदीय पदवीमनुसरायः (29)
गुणानुरागता -
आनंदधनजी और यशोविजयजी दोनों समकालीन थे। परन्तु प्रारम्भ के वर्षों में वे एक-दूसरे से मिल नहीं पाये। महान अध्यात्मयोगी और ज्ञानवृद्ध आनंदधनजी से मिलने के लिए यशोविजयजी बहुत ही उत्सुक और आतुर थे। इनको जब आनंदधनजी के दर्शन हुए तब अपार हर्षानुभूति हुई और आनंद की सीमा नहीं रही। यशोविजयजी के शब्दों में -
ऐ ही आज आनंद भयो मेरे
तेरो मुख निरख, रोम रोम शीतल भयो अंगो अंग इससे यह भी प्रतीत होता है कि यशोविजयजी प्रचण्ड तेजस्वी विद्वान होते हुए स्वयं से गुणाधिकों के प्रति तीव्र गुणानुराग रखते थे। आनंदधनजी के प्रति इतना अधिक गुणानुरागता और बहुमान के भाव थे कि इनकी स्तुति रूप में 'अष्टपदी नामक कृति ही रच डाली।
_इस प्रकार प्रचण्ड पांडित्य के साथ तीव्र गुणानुरागता के दर्शन हो पाना परम दुर्लभ संयोग है।
-----000-----
33 माहरे तो गुरूचरणपसाये अनुभव दिलमांही पेठो ऋद्धिवृद्धि प्रगटी घरमाहे आतमरति हुई बैठो रे.
श्रीपालरास
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उपाध्याय यशोविजय जी का कृतित्व
यशोविजयजी जैन परंपरा में बहुश्रुत दार्शनिक, प्रखर न्यायाचार्य, काव्यमीमांसक और सर्जककवि आदि शतमुख प्रतिभा संपन्न युग प्रभावक उपाध्याय हुए हैं। जिस प्रकार किसान वर्षाऋतु के आगमन के पूर्व भूमि को कोमल करके बीजों का वपन करता है और वर्षाकाल के समाप्ति के पश्चात् लहलहाती फसल को प्राप्त करता है, उसी प्रकार यशोविजयजी ने बालवय में गुरूमहाराज से, काशी के भट्टाचार्य से एवं आगरा के न्यायाचार्य से जो विद्या सीखी थी, उसके फलस्वरूप संस्कृत, प्राकृत, गुजराती मिश्रित राजस्थानी भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन करके जैन वाङ्मय को न केवल समृद्ध किया,अपितु उसे तार्किक सुदृढ़ता भी प्रदान की।
दर्शन, न्याय, अध्यात्म और साहित्य से सम्बन्धित कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर उपाध्याय यशोविजयजी की कलम नहीं चली हो। तर्क, न्याय, प्रमाण, नव्यन्याय, अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, आचार, काव्य, कथा, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर उन्होनें मूल एवं टीका ग्रन्थों की रचना करके अपने मौलिक गंभीर चिन्तन को प्रस्तुत किया है। इनकी कृतियों में सूक्ष्मता, स्पष्टता और समन्वयशीलता के संयोजन के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इनकी रचनाओं में सामान्य व्यक्ति भी सरलता से समझ सके और अध्यात्म भक्तिरस में डूब सके, ऐसा सामर्थ्य है। कथाप्रधान रास, स्तवन, सज्झाय आदि सामान्य जनोपयोगी उनकी सरस रचनाएँ हैं, तो दूसरी ओर प्रखर विद्वानों की विद्वता को भी चुनौती दे, ऐसे तर्कशास्त्र के कठिन ग्रन्थों का प्रणयन भी उन्होंने किया है। यह यशोविजयजी की अनूठी विशेषता है कि जहाँ एक ओर उन्होंने स्वयं को तार्किक, दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरी ओर एक सहृदय कवि के रूप में भी स्वयं को प्रस्तुत किया है।
‘उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ में जितेन्द्र देसाई के मन्तव्यानुसार यदि हम यशोविजयजी को सांप्रदायिक दुराग्रहों से मुक्त समन्वयवादी तत्त्वान्वेषी कहें, तो
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अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि यशोविजयजी ने जैनयोग के सूक्ष्म और रोचक निरूपण के साथ उन संदर्भो में भगवद्गीता और पतंजली के योगसूत्र का उपयोग करके जैनयोग और ध्यान विषयक विचारों में दोनों धाराओं का समन्वय किया है।
यशोविजयजी की अनेक कृतियाँ स्वतन्त्र रूप से रचित हैं तो अनेक कृतियाँ प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की व्याख्या या टीका रूप भी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है, कि उपाध्यायजी द्वारा प्रणीत संपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं होता है। फिर भी जो साहित्य उपलब्ध है, उनमें यशोविजयजी का प्रखर पाण्डित्य, मौलिकता, तर्कशीलता, दार्शनिकता और चिन्तन की गहराई का दिग्दर्शन होता है। ‘उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद' नामक शोध-प्रबन्ध के आधार पर यशोविजयजी के द्वारा रचित ग्रन्थों का सामान्य परिचय इस प्रकार है।
यशोविजयजी के विपुल साहित्य रचनाओं को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
__ शास्त्राभ्यास एवं गुरू परंपरा से प्राप्त अनुभव के आधार पर स्वरचित
संस्कृत और प्राकृत भाषा के स्वोपज्ञटीका सहित तथा स्वोपज्ञ टीका रहित ग्रन्थ। पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों पर संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ ।
गुजराती भाषा में सरल और रसप्रद काव्यमय रचनाएँ
स्वोपज्ञ टीका सहित प्राकृत तथा संस्कृत के मौलिक ग्रन्थ -
1. अध्यात्ममतपरीक्षा :
अध्यात्ममत परीक्षा 184 गाथा परिमाण प्राकृत भाषा में रचित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ पर हजार श्लोक परिमाण टीका भी रची गई है। मूल ग्रन्थ तथा टीका में यशोविजयजी ने मुख्य रूप से दिगम्बर आचार्यों द्वारा केवलीभुक्ति, स्त्रीमुक्ति के
34 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रंथ, संपादको-प्रद्युम्नविजय, जयंत कोठार, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 42 35 उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद, डॉ. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ. 34
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खण्डन तथा करपात्र भोजन और नाग्न्य धारण के समर्थन में जो युक्तियाँ प्रस्तुत की गई है, उनकी समीक्षा की गई है। श्वेताम्बर परंपरा के विपरीत दिगम्बरों की दूसरी मान्यता यह है कि तीर्थकरों का परमौदारिक शरीर रक्त, मांस, मलमूत्र आदि से रहित होता है। इसका भी खण्डन किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में दिगम्बर मान्यताओं का खण्डन करके श्वेताम्बर मान्यताओं की पुष्टि की गई है।
2. गुरूतत्त्वविनिश्चय :
प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत भाषा में 905 गाथाओं से रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए स्वयं यशोविजयजी ने 7000 श्लोक परिमाण संस्कृत भाषा में गद्यात्मक टीका लिखी हैं इस ग्रन्थ के चार उल्लासों में गुरूतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है।
3. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका :
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 1024 श्लोक प्रमाण पद्यमय काव्य है। वस्तुतः यह 32-32 श्लोकों में 32 बत्तीस विषयों पर लिखे गये 32 लघुग्रन्थों का संग्रह है। इनमें दान, देशना, मार्ग, जिनमहत्त्व, भक्ति, साधुसामग्य, धर्मव्यवस्था, वादकथा, योगलक्षण, पातंजलयोगलक्षण, पूर्वसेवा, मुक्ति अद्वेषप्राधान्य, अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, ईशानग्रह, दैवपुरूषकार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रा, तारादित्रय, कुतर्कग्रहनिवृति, सदृष्टि, क्लेशहानोपाय, योग महात्मय, भिक्षु, दीक्षा, विनय, केवलीभुक्तिव्यवस्थापन, मुक्ति, सज्जनस्तुति इत्यादि 32 विषयों का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करने के लिए 32 विभाग करके प्रत्येक विभाग में 32-32 श्लोकों की रचना की गई है। मुख्यरूप से हरिभद्र के अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु एवं उपदेशपद एवं पातंजल योगदर्शन इन ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपादन किया गया है और इन विषयों को स्पष्ट किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की यह विशेषता है कि प्रत्येक बत्तीसी के अंतिम श्लोक में ‘परमानंद' शब्द आया है।
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इस ग्रन्थ पर उपाध्यायजी ने 'तत्त्वार्थदीपिका' नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति का नाम तत्त्वार्थदीपिका है ऐसा प्रशस्ति के श्लोक से ज्ञात होता है, यथा -
"यशोविजयनाम्ना तच्चरणांभोजसेविना द्वात्रिंशिकानां विवृतिश्चक्रे तत्त्वार्थदीपिका।।"
4. नयोपदेश :
इस ग्रन्थ में यशोविजयजी ने सात नयों का स्वरूप समझाया है और प्रस्थक-प्रदेश आदि का उदाहरण दिया है। इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय के स्पष्टीकरण के लिए टीका की भी रचना की गई है जिसका नाम तरंगिणी है।
5. प्रतिमाशतक :
उपाध्याय यशोविजयजी ने मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले स्थानकवासी परंपरा की समीक्षा करने हेतु एवं उन्हें मूलभूत जैन सिद्धान्तों से अवगत कराने हेतु 'प्रतिमाशतक' नामक काव्यमय ग्रन्थ की रचना की। मूल ग्रन्थ में श्लोक संख्या 100 हैं। इस ग्रन्थ में मुख्य चार वादस्थान है - 1. प्रतिमा की पूज्यता, 2. क्या विधि कारित प्रतिमाकीही पूज्यता है ?, 3. क्या द्रव्यस्तव में शुभाशुभ मिश्रता है ? 4. द्रव्यस्तव पुण्यस्वरूप है या धर्मरूप हैं। यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी है।
इस ग्रन्थ में प्रतिमालोपकों की मान्यता के विपरीत द्रव्यपूजा और स्तव को प्रमाणित करने के लिए आगम एवं प्रकरण ग्रन्थों के पाठों के प्रमाण दिए गए हैं। जैसे महानिशीथ का पाठ, भगवतीसूत्रगत चमर उत्पाद का पाठ, ज्ञातासूत्रगत सुधर्मासभा विषयक पाठ, आवश्यकनियुक्तिगत अरिहंत चेइयाणं का पाठ, आचारांग सूत्रगत परिवंदन विषयक पाठ, प्रश्नव्याकरणगत सुवर्णगुलिका का उदाहरण, ज्ञाताधर्म
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कथा का द्रोपदीचरित्र का पाठ, जीवाभिगम सूत्रगत शाश्वत प्रतिमा का पाठ, आवश्यकनियुक्तिगत प्रतिमा और द्रव्यलिंगी का पाठ, सूत्रकृतांग सूत्रगत पुरूषविजय विषयक पाठ तथा आगम पाठों के अतिरिक्त लगभग सौ ग्रन्थों से चार सौ से भी अधिक साक्षीपाठ दिए गए हैं।
6. आराधक विराधक चतुर्भगी :
प्रस्तुत ग्रन्थ में यशोविजयजी ने देशतः आराधक और देशतः विराधक तथा सर्वतः आराधक और सर्वतः विराधक इन चार विषयों पर प्रकाश डाला है।
7. उपदेश रहस्य :
___1444 ग्रन्थ प्रणेता श्री हरिभद्रसूरिकृत 'उपदेशपद' नामक ग्रन्थ के आधार पर उपाध्यायजी ने प्राकृत भाषा में 'उपदेशरहस्य' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ उपदेशपद का अनुवाद न होकर उपाध्यायजी का स्वतंत्र सर्जन हैं। इस ग्रन्थ के विषय में प.पू.पं.श्री प्रद्युम्नविजयजी ने लिखा है -"पूज्यपाद उपाध्यायजी ने 'उपदेशपद' के विषयों को अधिक सुवाच्य शैली में इस ग्रन्थ को प्रस्तुत किया है। 'उपदेशरहस्य' उपदेशपद के सारोद्धार के रूप में प्रतीत होने पर भी इस ग्रन्थ निरूपण की दृष्टि से मौलिक और स्वतंत्र है। इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि मात्र 203 गाथाओं में द्रव्यचरित्र, द्रव्याज्ञापालन, देशविरति, सर्वविरति तथा इनके प्रभेदों द्रव्यस्तव, भावस्तव की आवश्यकता, विनय के बावन भेदों, वैयावच्च आदि 450 से भी अधिक विषयों की मीमांसा की गई है। सामान्यतया इस बात को समझ पाना कठिन हो जाता है कि 406 पंक्तियों में 450 से भी अधिक विषयों का प्रतिपादन कैसे संभव हो सकता है। यह उपाध्यायजी की लाघव शैली का विशिष्ट गुण है। यशोविजयजी ने प्रत्येक पंक्ति को उचित शब्द चयन द्वारा अर्थसभर बनाया है और उसका अर्थविस्तार टीका में किया है।
36 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ, संपादको – प्रद्युम्नविजयगणि, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 121
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8. ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका :
यह ग्रन्थ न्यायशास्त्र निष्णात उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा प्रणीत एक रसप्रद स्वोपज्ञ वृत्ति सहित भक्ति काव्यग्रन्थ है । प्रस्तुत काव्य में अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थपति ऋषभदेव प्रभु से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी पर्यन्त 24 तीर्थंकर देवों की सद्गुणसंकीर्तन, वंदना, प्रशंसा और संस्तुति की गई है। प्रथम श्लोक में अधिकृत जिन की स्तुति, दूसरे श्लोक में सर्वजिन की स्तुति, तीसरे श्लोक में श्रुतज्ञान की स्तुति, चतुर्थ श्लोक में अधिकृत तीर्थंकर के अधिष्ठायक शासन देव - देवी की स्तुति की गई है।
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इस 'स्तुतिचतुर्विंशतिका' का प्रारम्भ 'ऐन्द्रवात नतः इस पद से होने से इस ग्रन्थ का नाम 'ऐन्द्रस्तुति ऐसा प्रचलित हो गया । यशोविजयजी ने श्री शोभनमुनि द्वारा रचित 'स्तुतिचतुर्विंशतिका' के अनुकरणरूप इन स्तुतियों की रचना की है। एक महाकवि की रचना में जिन-जिन साहित्य गुणों की अपेक्षा की जाती है, वे सभी गुण इस स्तुतिचतुर्विंशतिका में देखे जा सकते हैं। 96 श्लोक में रचित इस कृति में यमक—– अनुप्रास आदि विविध अलंकारों का प्रयोग इतने सुन्दर रूप से किया गया है कि कोई भी सहृदय व्यक्ति आकर्षित हो जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार के 7 छन्दों का उपयोग किया गया है।
9. कूपदृष्टान्त विशदीकरण :
इस ग्रन्थ में कूप दृष्टान्त के माध्यम से गृहस्थों के लिए विहित द्रव्यपूजा की निर्दोषिता पर प्रकार डाला गया है।
10. ज्ञानार्णव :
ज्ञानार्णव उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा नव्यन्याय शैली में रची गई महत्त्वपूर्ण कृति है । यह शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव से भिन्न है। इसमें जैन मतानुसार मतिज्ञान,
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श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों की सूक्ष्मता, गहनता और जटिलता के साथ मीमांसा की गई है। ग्रन्थ के तर्क-वितर्क की गहनता, अगाधता और अर्थगंभीरता आदि का ध्यान रखते हुए स्वयं उपाध्यायजी ने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ विवरण भी लिखा था, ऐसा उल्लेख मिलता है।
11. धर्मपरीक्षा :
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'धर्मपरीक्षा में उत्सूत्रप्ररूपण का निराकरण किया है। स्वपक्ष के प्रबल तर्कों के साथ स्वपक्षमान्य सूत्रों के अर्थों का जिस गहराई से चिन्तन और चर्चा की गई, इस दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी द्वारा चर्चित विषय प्रायः अपूर्व है और इसमें इन्होंने विषयों के स्पष्टीकरण के लिए अनेक ग्रन्थों के संदर्भ दिये हैं।
12. महावीरस्तव :
इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से बौद्ध और नैयायिक के एकान्तवाद का खण्डन किया गया है।
13. भाषारहस्य :
'भाषारहस्य' यशोविजयजी द्वारा रचित प्रकरण ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचित है और इस पर उपाध्यायजी ने संस्कृत भाषा में स्वोपज्ञ विवरण भी लिखा हैं। इसमें प्रज्ञापना आदि सूत्र में प्रतिपादित भाषा के अनेक भेद और प्रभेदों पर विशेष प्रकाश डाला गया है। भाषा को मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त किया गया है। - . नामभाषा, 2. स्थापना भाषा, 3. द्रव्यभाषा और 4. भावभाषा। ये भेद दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में वर्णित सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और न सत्य न असत्य भाषा से भिन्न है।
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14. समाचारीप्रकरण :
इस ग्रन्थ में इच्छा, मिथ्यादि दश प्रकार की साधु समाचारी का तार्किक रूप में प्रतिपादन किया गया है।
स्वरचित किन्तु स्वोपज्ञ टीका रहित ग्रन्थ -
1. ज्ञानसार :
ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजयजी की एक प्रौढ़ आध्यात्मिक कृति है। इस ग्रन्थ की रचना पू. उपाध्यायजी ने सं. 1711 में सिद्धपुर के चातुर्मास के समय में की थी। मूल संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में 32 अष्टक हैं और प्रत्येक अष्टक में अनुष्टुप छन्द में रचित आठ-आठ श्लोक हैं। इसके बाद उपसंहार के 12 श्लोक, ग्रन्थ के प्रशस्ति के पांच श्लोक और बालावबोध के तीन श्लोक हैं। इस प्रकार कुल 276 श्लोकों में प्रणीत इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने न केवल गंभीर चिन्तन को प्रस्तुत किया है, अपितु कवि सुलभ कल्पनाओं, काव्यालंकारों, लौकिक दृष्टान्तों आदि से ग्रन्थ को रोचक भी बनाया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्ण मगन, स्थिरता, मोहत्याग, ज्ञान, शम, इन्द्रियजय, त्याग, क्रिया, तृप्ति, निर्लेप, निःस्पृह, मौन, विद्या, विवेक, मध्यस्थ, निर्भय, अनात्मप्रशंसा, तत्त्वदृष्टि, सर्वसमृद्धि, कर्मविपाक चिन्तन, भवोद्वेग, लोकसंज्ञात्याग, शास्त्रदृष्टि, परिग्रह, अनुभव, योग, नियाग, पूजा, ध्यान, तप और सर्वनयाश्रय इत्यादि 32 अष्टकों में आत्मस्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक साधक को परमार्थदृष्टि से जिन-जिन गुणों की आवश्यकता है, उनका विशद प्रतिपादन किया है। दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि 'ज्ञानसार' जीवन में उच्चस्थिति को प्राप्त करने हेतु उत्सुक साधक के लिए मार्गदर्शिका के समान है। कुछ समर्थ विद्वानों ने 'ज्ञानसार' को 'जैनधर्म की गीता'
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ऐसा उपनाम भी दिया है। इस ग्रन्थ पर पूज्य देवचंद्रजी और पूज्य गंभीरविजयजी ने संस्कृत टीका लिखी है।
2. अध्यात्मसार :
अध्यात्मसार ग्रन्थ यशोविजयजी का अनुष्टुप छंदों मे बद्ध 949 श्लोक परिमाण महत्त्वपूर्ण अध्यात्मिक कृति है। संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में 7 प्रबन्ध और अध्यात्म प्रशंसा, अध्यात्मस्वरुप, दंभत्याग, भवस्वरूप, वैराग्यसंभव, वैराग्यभेद, वैराग्य विषय, ममतात्याग, समता, सदानुष्ठान, मनःशुद्धि, समयक्त्व, मिथ्यात्वत्याग, कदाग्रहत्याग, योग, ध्यान, ध्यानस्तुति, आत्मनिश्चय, जैनमतस्तुति, अनुभव और सज्जतस्तुति इत्यादि 21 अधिकार हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ योग और ध्यान साधना की दृष्टि से भी जैन वांग्मय का अमूल्य ग्रन्थ है।
3. अध्यात्मोपनिषद् :
अध्यात्मोपनिषद् जैन साहित्य का अमूल्य ग्रन्थ रत्न है। संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में 231 अनुष्टुप छंद के श्लोक हैं। ग्रन्थ प्रणेता ने इस ग्रन्थ को मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त किया है। 1. शास्त्रयोगशुद्धि अधिकार – इस अधिकार में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से
अध्यात्म की विभिन्न व्याख्याएं की गई हैं। 2. ज्ञानयोगशुद्धि अधिकार - इस में आत्मतत्त्व की विशेषोपलब्धि के लिए
ज्ञान योग पर विशेष प्रकाश डाला गया है। 3. क्रियायोगशुद्धि अधिकार - प्रस्तुत अधिकार में क्रिया पर बल देते हुए
उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जो ज्ञान का अभिमान करके क्रिया को छोड़ देते
हैं, वे ज्ञान क्रिया उभय से भ्रष्ट नास्तिक हैं। 4. सम्यग्योगशुद्धि – इस विभाग में समतारस में झिलने वाले साधक की
उच्च दशा का हृदयंगम वर्णन किया है।
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इस प्रकार उपाध्यायजी ने अध्यात्मप्रेमियों के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में बहुत सुन्दर सामग्रियों को परोसा है।
4. देवधर्म परीक्षा :
यह ग्रन्थ 425 श्लोकों में रचा गया है। भिन्न-भिन्न 17 मुद्राओं द्वारा देवों को धर्मी, समकितधारी आदि बताकर देव-देवी द्वारा की जाने वाली प्रभुप्रतिमा की पूजा का विशेष प्रतिपादन करके प्रभु-पूजा को शास्त्र सम्मत ठहराया है। इस प्रकार इसमें प्रतिमा पूजा का खण्डन करने वाली स्थानकवासी मान्यता की समीक्षा की गई है। 5. जैनतर्कभाषा :
यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ की रचना नव्यन्याय शैली में की है। संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में कुल 800 श्लोक हैं। ग्रन्थ को परिमाण, नय, और निक्षेप इन तीन परिच्छेदों में विभाजित करके प्रमाण, नय और निक्षेप का युक्तिसंगत निरूपण किया गया है।
6. यतिलक्षणसमुच्च्य :
यह ग्रन्थ प्राकृतभाषा की पद्यरचना है, जिसमें कुल 263 गंभीर हैं। इस ग्रन्थ में साधु महात्माओं के सात लक्षणों का सविस्तार विवेचन किया गया है।
7. नयरहस्य :
इस ग्रन्थ में यशोविजयजी ने नय के नैगमादि सप्त भेदों का निरूपण, नयों का उतरोत्तर सूक्ष्मत्व, विभिन्न नयों के लक्षण एवं स्वरूप आदि का दार्शनिक शैली में विशद विवेचन किया है और साथ में कौन-कौन से नय के एकान्तवाद से कौन-कौन से दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ इत्यादि का भी वर्णन किया है। 8. नयप्रदीप :
यह ग्रन्थ 800 श्लोक परिमाण संस्कृत-गद्यात्मक रचना है। ग्रन्थ को सप्तभंगी समर्थन और नयसमर्थन ऐसे दो सर्गों में विभक्त किया गया है।
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8. ज्ञानबिन्दु :
इस गन्थ की श्लोक संख्या 1250 है। इसमें ज्ञान का सामान्य लक्षण, ज्ञान की पूर्ण और अपूर्ण अबस्थाओं, ज्ञानावरणीय कर्म का स्वरूप, आवृतत्व, अनावृतत्व के विरोध का परिहार, परन्तु अद्वैत वेदान्त में आवृतत्व-अनावृतत्व की अनुत्पत्ति, अपूर्ण ज्ञानों का तारतम्य एवं उनके क्षयोपशम की प्रक्रिया आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है।
10. न्यायखण्डनखण्ड खाद्य :
यह नव्यन्याय शैली में प्रणीत विशिष्ट ग्रन्थ है। 5500 श्लोक परिणाम यह ग्रन्थ बहुत जटिल और अर्थगांभीर्य से युक्त है। इसमें उपाध्यायजी के प्रखर पांडित्य का दिग्दर्शन होता है। इस ग्रन्थ पर नेमिसूरिजी तथा विजयदर्शनसूरिजी ने टीका लिखी है।
11. न्यायालोक :
'न्याय' शब्द का अर्थ है, प्रमाणों के द्वारा प्रमेय का परीक्षण करना और 'आलोक' शब्द का अर्थ है प्रकाश। इस प्रकार न्यायालोक का अर्थ प्रमेयों को प्रकाशित करने वाला ग्रन्थ। विवरणात्मक या प्रकरणात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ में तीन प्रकाश हैं। प्रथम प्रकाश में मुक्तिवाद, आत्मवाद, ज्ञानवाद की चर्चा हैं द्वितीय प्रकाश में बौद्ध (योगाचार) सम्मत बाह्यार्थ के अभाव के खण्डन के साथ-साथ समवाय सम्बन्ध, चक्षु के प्राप्यकारित्व, भेदाभेद और अभाववाद की समीक्षा की गई है। तृतीय प्रकाश में षड्द्रव्यों का विस्तृत विवेचन है। इस ग्रन्थ में मुख्यतया गौतमी न्यायशास्त्र तथा बौद्ध न्यायशास्त्र के सर्वथा एकान्त सिद्धान्तों की आलोचना और समीक्षा भी की गई है। कुल श्लोकों की संख्या 1200 है।
12. वादमाला :
वादमाला ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है -
प्रथमवादमाला में स्वत्ववाद, सन्निकर्षवाद, विषयतावाद आदि का प्रतिपादन है।
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द्वितीय वादमाला में वस्तुलक्षण, सामान्यवाद, विशेषवाद, इन्द्रियवाद, शक्तिपदार्थवाद, अदृष्ट सिद्धिवाद, इन छह वादस्थलों का निरूपण है।
तृतीय वादमाला में चित्ररूपवाद, लिंगोपहित-लैंगिक-भानवाद, द्रव्यन्यायहेतुता-विचारवाद, सुवर्णतैजसत्वातैजसवाद, अंधकारभाववाद, वायुस्पर्शन–प्रत्यक्षवाद और शब्दनित्यत्वानित्यत्ववाद - इन सात वादस्थलों का समावेश है।
13. अनेकान्त व्यवस्था :
इस ग्रन्थ में नैगम आदि सात नयों के तर्कसंगत प्रतिपादन के साथ-साथ वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप का निरूपण किया गया है।
14. अस्पृशद्गतिवाद :
। इसमें मुक्तात्मा का तिर्यग्लोक से लोकान्त पर्यन्त के मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों के स्पर्श बिना कैसे गमन होता है, इसका स्पष्टीकरण है। 15. आत्मख्याति :
इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने आत्मा के विभु और अणु परिमाण का निराकरण किया है।
16. आर्षमीय चारित्र :
यह उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा रचित आर्षमीय चारित्र शान्तरस प्रधान महाकाव्य है। वर्तमान में इस काव्य के मात्र चार सर्ग ही उपलब्ध हुए हैं। संभवतः ऐसा हो सकता है कि उपाध्यायजी ने ऋषभदेव भगवान के चरित्र का आधार बनाकर इस काव्य को लिखने का पुरूषार्थ प्रारम्भ किया हो और किसी अपरिहार्य कारण से महाकाव्य की रचना अधूरी रह गई हो। इस महाकाव्य में चित्रित वृतान्तों से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने महाकाव्य की विषयवस्तु और प्रस्तुति दोनों के लिए 'त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र' को मुख्य आधार बनाया है। इस महाकाव्य के नायक ऋषभदेव है। प्राप्त चार सर्गों के 459 श्लोकों में अविशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास,
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अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उदात्ता, उपमा, एकावली, रूपक, यमक, श्लेष, दृष्टान्त, निदर्शना, प्रदीप, परिणाम आदि अनेक अलंकारों का सुन्दर और सटीक प्रयोग किया गया है। 17. तिङन्वयोक्ति :
इस ग्रन्थ में तिड.न्तपदों के शब्दबोध का स्पष्टीकरण है।
18. सप्तभंगीनयप्रदीप :
इसमें सप्तभंगी और नयों का प्रतिपादन है।
19. निशाभुक्तिप्रकरण :
इस ग्रन्थ में रात्रिभोजन को अधर्म बताया गया है। 20. परमज्योति पंचविंशिका :
__ इसमें परमात्मा की स्तुति की गई है। 21. परमात्म पंचविंशिका :
इसमें भी परमात्मा की स्तुति की गई है।
22. प्रतिमास्थापनान्याय :
इस ग्रन्थ में प्रतिमा पूज्यत्व के औचित्य का प्रतिपादन है।
23. प्रमेयमाला :
इस ग्रन्थ में विविध वादों का संग्रह किया गया है। 24. मार्गपरिशुद्धि :
इस ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि के पंचवस्तु शास्त्र के आधार पर मोक्षमार्ग की विशुद्धता का सुन्दर निरूपण है।
25. यतिदिनचर्या :
इस ग्रन्थ में जैन मुनियों के दैनिक कृत्यों का निरूपण है।
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26. विजयप्रभसूरिस्वाध्याय :
इसमें गच्छनायक विजयप्रभसूरिजी की स्तुति की गई है।
27. विषयतावाद :
इस ग्रन्थ में विषयता, उद्देश्यता, उपाद्यता आदि का प्रतिपादन है।
28. सिद्धसहस्त्रनाम कोश :
परमात्मा के 1008 नामों का संग्रह इस ग्रन्थ में किया गया है।
29. स्याद्वादरहस्य :
खंभात नगर के पण्डितों के लिए प्रेषित पत्रों का संग्रह है जिसमें स्याद्वाद की समर्थक युक्तियों का प्रतिपादन है। 30. स्तोत्रावली :
स्तोत्रावली में ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी के आठ स्तोत्रों का संग्रह है।
उपाध्याय यशोविजयजीकृत टीकाग्रन्थ - 1. अष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरण :
इस विवरण का मूल ग्रन्थ दिगम्बराचार्य समंतभद्र रचित 'आप्तमीमांसा' है। इस आप्तमीमांसा ग्रन्थ पर अकलंक ने भाष्य लिखा था और उस पर विद्यानंदी ने अष्टसहस्त्री नामक टीका की रचना की। इस टीका पर यशोविजयजी ने 8000 श्लोक परिमाण विवरण लिखकर अनेक दार्शनिक विषयों पर विशद चर्चा की है।
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2. कम्मपयडीबृहट्टीका :
प्राकृत भाषा की पद्यात्मक शैली में रचित मूल ग्रन्थ कम्मपयडी के कर्ता श्री शिवशर्मसूरीश्वरजी है। इस कम्मपयडी पर उपाध्यायजी ने 13000 श्लोक परिमाण गद्यशैली में न्याय की परिभाषाओं से युक्त कठिन टीका लिखी है ।
3. कम्मपयडी लघुटीका :
यह जैनकर्म सिद्धान्त का मूल ग्रन्थ कम्मपयडी पर रचित यशोविजयजी की अधूरी कृति है । इस टीका का प्रारम्भिकपत्र मात्र उपलब्ध हुआ है ।
4. तत्त्वार्थवृत्ति
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सर्वमान्य दार्शनिक उमास्वातिजी द्वारा संस्कृत भाषा में प्रणीत 'तत्त्वार्थसूत्र' पर यशोविजयजी ने एक टीका लिखी थी, जिसकी मात्र प्रथम अध्याय की टीका ही मिली है।
5. धर्मसंग्रह टिप्पण :
उपाध्याय यशोविजयजी के समकालीन मानविजयजी द्वारा प्रणीत 'धर्मसंग्रह' ग्रन्थ पर पूज्य उपाध्यायजी ने टिप्पण लिखे ।
6. उत्पादादिसिद्धि :–
चन्द्रसूरिकृत ‘उत्पादादिसिद्धि' ग्रन्थ में जैनदर्शन के अनुसार सत् के उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक' लक्षण पर विशेष विवेचन किया गया है। इस पर यशोविजयजी ने एक टीका लिखी थी जो पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है ।
7. पातंजलयोगसूत्रवृत्ति
पतंजलिऋषि के योगसूत्र के सूत्रों पर जैनदृष्टि से विवेचन और समीक्षा की
गई है।
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8. काव्यप्रकाशटीका :
मम्मट द्वारा रचित 'काव्यप्रकाश' पर उपाध्यायजी ने टीका लिखी जो केवल उल्लास 2 और 3 पर ही उपलब्ध है।
9. न्यायसिद्धान्त मंजरी :
प्रस्तुत टीका श्री मल्लिषेणसूरिकृत स्याद्वादमंजरी ग्रन्थ पर रची गई है। 10. योगविंशिकाप्रकरण :
श्री हरिभद्रसूरि ने योगविंशिका नामक योग विषयक सुन्दर कृति की रचना की। इस ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि ने मात्र 20 श्लोकों में योग के भेद, प्रभेद, अधिकारी, क्रिया की आवश्यकता आदि विभिन्न विषयों का बिंदु में सिंधु के समान प्रतिपादन किया है। यशोविजयजी ने इस लघुग्रन्थ पर स्वयं वृत्ति लिखकर योग-विषयक तथ्यों को उद्घाटित किया है।
11. स्याद्वादकल्पलता :
मूलग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रणेता याकिनीमहत्तरासूनु हरिभद्रसूरि हैं। शंकरभाष्य पर वाचस्पति की टीका के समान यशोविजयजी ने इस दार्शनिक ग्रन्थ पर प्रौढ़ टीका लिखी है, जिसका नाम स्याद्वादकल्पलता है। 13000 श्लोक परिमाण इस टीका ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने मूल ग्रन्थ को 11 विभागों में विभाजित करके प्रत्येक विभाग में अलग-अलग दर्शनों को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करके अकाट्य युक्तियों और तर्कों से उनके उत्तरपक्ष को रखा है।
प्रथम स्तवक में भूतचतुष्यात्मवादी (चार्वाक) का खण्डन; दूसरे स्तवक में काल, स्वभाव नियति और कर्म, इन कारण चतुष्टयों के एकान्त-कारणता का खण्डन; तीसरे स्तवक में न्याय–वैशेषिक के ईश्वरकर्तृत्व और सांख्य के प्रकृति-पुरूषवाद का खण्डन; चतुर्थ स्तवक में बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन; पांचवें स्तवक में योगाचार के क्षणिक विज्ञानवाद का खण्डन; छठे में क्षणिकत्व के हेतुओं का खण्डन; सातवें में जैनदर्शन के स्याद्वाद का निरूपण; आठवें में अद्वैतवेदान्त के अद्वैतवाद का खण्डन;
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नवें में जैनागम प्ररूपित मोक्षमार्ग की चर्चा; दसवें में सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन और ग्यारहवें में शास्त्रप्रमाण को स्थिर करने हेतु शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध नहीं माननेवाले बौद्धमत का खण्डन किया गया है 1
इस प्रकार जैनेतर दर्शनों के मतों की गहरी समीक्षा के साथ स्त्रीमुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर मत की भी कटु आलोचना की है । दार्शनिक मतों की नव्यन्याय शैली में की गई विस्तृत चर्चा को देखते हुए इस व्याख्या ग्रन्थ को स्वतन्त्र ग्रन्थ की संज्ञा भी दी जा सकती है।
12. षोडशकवृत्ति
हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित ' षोडशकप्रकरण' ग्रन्थ में धर्मसाधना के प्रारम्भ से लेकर मोक्षप्राप्ति तक का साधना मार्ग बताया गया है। इस में 16 अधिकार हैं और प्रत्येक अधिकार में 16-16 श्लोक हैं। इस ग्रन्थ पर यशोविजयजी ने 1600 श्लोक प्रमाण संस्कृत में टीका रचकर श्लोकों में छिपे गूढ़ार्थों को खोलकर ग्रन्थ की उपयोगिता को तो बढ़ाया ही है, साथ में ग्रन्थ को सरल और सर्वग्राही भी बनाया
है।
है ।
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:
सद्धर्भपरीक्षक नामक अधिकार में बाल, मध्यम और पंडित, ऐसी साधक की तीन अवस्था बताई है।
धर्मलक्षण अधिकार में प्रणिधान आदि पांच आशयों का वर्णन है ।
धर्मलिंग अधिकार में शम, संवेग आदि सम्यक्त्व के पांच लक्षणों का निरूपण
लोकोत्तर तत्त्व प्राप्ति अधिकार में सम्यक्त्व की सिद्धि से लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति का उल्लेख है ।
जिनभवन अधिकार में मंदिर की भूमि, लकड़ी आदि सामग्री तथा मंदिर बनानेवाला व्यक्ति आदि कैसे होने चाहिए, इत्यादि का प्रतिपादन है ।
जिनबिम्ब अधिकार में बिम्ब भराने की विधि, फलादि की चर्चा है ।
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प्रतिष्ठा अधिकार में परमात्मा की पूजाविधि, पंचोपचार, अष्टोपचार आदि का विवेचन किया गया है ।
सदनुष्ठान अधिकार में प्रीति, भक्ति, वचन और असंग इन चार अनुष्ठानों की व्याख्या की गई है।
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ग्यारवें अधिकार में श्रुताज्ञान का लिंग, शुश्रुषा, चिन्ता, भावना, ज्ञान का स्वरूप आदि बताया गया है ।
बारहवें अधिकार में दीक्षा अधिकारी, नामन्यास आदि विषयों को समझाया गया
है।
तेरहवें अधिकार में गुरूविनय आदि साध क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। चौदहवें अधिकार में सालम्बन और निरालंबन ध्यान योगी का महत्त्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया गया है I
पन्द्रहवें अधिकार में ध्येय का यथार्थ स्वरूप चित्रित किया गया है 1
सोलवें अधिकार में अद्वैतवाद की समीक्षा की गई है।
गुजराती भाषा की रचनाएँ -
1. जंबूस्वामी का रास :
'जंबूस्वामीकारास' यशोविजयजी की गुजराती भाषा में रचित महत्त्वपूर्ण कृति उपाध्यायजी ने इस रास की रचना खंभात नगर में वि.सं. 1739 में की। इसमें पांच अधिकार और 37 ढाल हैं। संपूर्ण जंबूस्वामी कथा को विविध ढाल, देशी, दुहा और चौपाइयों मे सुन्दर रूप से ढाली है। इस प्रकार कथा का निर्माण और अभिव्यक्ति, तर्कपूर्ण दलीलों, दृष्टान्तकथाओं का दृष्टिपूत विनियोग, कथनकला, पात्रों का अलंकारयुक्त सटीक मार्मिक निरूपण आदि जंबूस्वामी रास को रासकृतियों में महत्त्वपूर्ण रास के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं।
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2. द्रव्यगुणपर्यायनोरास :
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक कृति रासरूप होने पर भी अत्यन्त गूढ़ और कठिन दार्शनिक ग्रंथ है। इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. 1709-10 के आसपास हुई होगी। इसकी वि.सं. 1711 में सिद्धपुर में लिखी हुई नयविजयजी के हाथ की एक हस्तप्रति मिली है। इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने जैन तत्त्वज्ञान को लोकभाषा गुजराती में रास के रूप में ढालने का अद्भुत कार्य किया है। यह एकमात्र गुजराती भाषा में प्रणीत दार्शनिक ग्रन्थ है, जिसमें 17 ढाल और 284 गाथाएँ हैं। इसमें द्रव्य, गुण, पर्याय के लक्षण, स्वरूप, प्रकार और इनके पारस्परिक सम्बन्ध, सप्तभंगी, नयवाद आदि का तर्कसंगत युक्तियों और दृष्टान्तों से विवेचन किया गया है। उपाध्यायजी ने अपने पक्ष की पुष्टि के लिए अनेक मतमतान्तर और आधारग्रन्थों का उल्लेख किया है। दिगम्बर मान्य नय, उपनय, अध्यात्म नयों तथा दिगम्बराचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' ग्रन्थ की समिचीन समीक्षा की है। गुजराती भाषा में रचित इस रास पर दिगम्बर कवि भोजसागरजी ने 'द्रव्यानुयोगतर्कणा' नामक संस्कृत टीका लिखी है, जिससे इस रासकृति का महत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। 3. श्रीपालरास :
विनयविजयजी कृत 'श्रीपालरास' को पूर्ण करने में यशोविजयजी ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वि.सं. 1738 के चातुर्मास को विनयविजयजी ने रांदेर नगर में किया। रांदेर संघ ने वयोवृद्ध विनयविजयजी से 'श्रीपालराजा' का रास रचने के लिए आग्रह भरी विनती की। विनयविजयजी ने अपनी शारीरिक स्थिति और अवस्था को देखकर श्रीसंघ से कहा कि यदि रास अधूरा रह जाय और अधूरे रास को पूर्ण करने के लिए यशोविजयजी सम्मति प्रदान करते हों, तो मैं रास की रचना प्रारम्भ कर सकता हूं। रांदेर संघ की विनती पर उपाध्यायजी ने अधूरे रास को पूर्ण करने का दायित्व अपने ऊपर लेकर सहमति प्रदान की। विनयविजयजी ने श्रीपालराजा का रास लिखना प्रारम्भ किया। चतुर्थ खण्ड के कुछ भाग को अर्थात् लगभग 750 गाथाएँ रचकर कालधर्म को प्राप्त हो गये। यशोविजयजी ने श्रीपालरास की शेष 551 गाथाएँ
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लिखकर उसे पूर्ण किया। यह रास मध्यकालीन जैन साहित्य में समर्थ दो कवियों द्वारा रचित एकमात्र कृति है।
4. सवासौ गाथा का स्तवन :
यशोविजयजी ने सवासौ गाथाओं में सीमंधर स्वामी का स्तवन रचा है, जिसमें सीमंधर स्वामी से विनंती करके कुगुरू के आचरणों का तिरस्कार किया है। आत्मा के शुद्धस्वरूप, सत्यज्ञान का महत्त्व, निश्चय और व्यवहार की आवश्यकता आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। द्रव्य और भाव स्तवना और जिनपूजा के महत्त्व को समझाकर स्तवन को पूर्ण किया है। 5. डेढ़सौ गाथा का स्तवन :
वीरस्तुतिरूप हुंडीस्तवन में जिनप्रतिमापूजन का निषेध करने वालों पर प्रबल प्रहार करके जिनप्रतिमा की पूजा को शास्त्र सम्मत बताने के लिए अनेक प्राचीन समर्थ दृष्टान्त दिये हैं। अहमदाबाद (इंगलपुर) चातुर्मास में दोशी मूला का पुत्र दोशीमेथा को उपदेश देने के लिए (स्थानकवासी से मूर्तिपूजक बनाने के लिए) वि.सं. 1733 में इस स्तवन की रचना की।
6. साढ़ेतीनसौ गाथा का स्तवन :
यशोविजयजी ने इस स्तवन की 350 गाथाओं में सीमंधर स्वामी से शुद्धमार्ग बताने के लिए विनती की है। क्योंकि इस कलियुग में लोग अंधश्रद्धा के जाल में फंसकर सूत्र से विरूद्ध आचरण कर रहे हैं और मात्र कष्ट सहन करने वालों को साधु मान रहे हैं। इस प्रकार कुगुरू और उनका अनुसरण करने वालों पर प्रहार
37 संवत सत्तर अडतीस वरसे, रही रांदेर चौमासेजी संघतणा आग्रहथी भाइयो, रास अधिक उल्लासेजी (9) सार्धसप्तशत गाथा विरची, ते पहोंच्या सुरलोकजी तेहना गुण गावे छे गोरी, मिली-मिली थोके-थोकेजी (10) तास विश्वास भाजन तस पूरण, प्रेम पवित्र कहायाजी श्री नयविजय विबुध पथसेवक, सुजस विनय उवज्झायाजी (11) भाग थाकतो पूरण कीधो, तास वचन संकेतजी वली सम्यग दृष्टि जो नर, तास तणे हित हितेजी (12)
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किया है। इस स्तवन में साधु जीवन और श्रावक जीवन के उपयोगी भावों को भी समझाया गया है।
7. मौनएकादशी का स्तवन :
यह मृगसर सुदी एकादशी के दिन हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र के परमात्माओं के 150 कल्याणकों का स्तवन है, जिसके 12 ढाल और 63 गाथाएँ है। 8. तीन चौबीसी :
यशोविजयजी ने जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतिरूप स्तवनों की रचना की है।
प्रथम चौबीसी में 24 तीर्थंकरों के माता, पिता, नगर, लांछन, आयुष्य का वर्णन है। द्वितीय चौबीसी में और तृतीय चौबीसी में तीर्थंकरों के गुणों को उपमा आदि अलंकारों से वर्णित किया है और उनसे कृपादृष्टि रखने के लिए विनती की है। इन भक्तिसभर स्तवनों में तीर्थंकरों की महिमा और स्तुति ही नहीं है, परन्तु उल्लास, मर्म, नम्रता, भक्ति की मस्ती, धन्यता और कल्पनाशीलता भी है।
9. विहरमान जिन वीशी :
इसमें महाविदेह क्षेत्र में विचरण करने वाले सीमंधर, युगमंधर आदि तीर्थंकरों (विहरमानों) के प्रति भक्तिभावों का आलेखन किया गया है। अल्प से अल्प पांच कड़ियां और अधिकतम सात कड़ियों वाले इन लघु स्तवनों के प्रारम्भ या अन्त में विहरमानों का परिचय देते हुए जन्मस्थान, नगर, माता-पिता लांछन आदि की चर्चा की गई है। इन स्तवनों में यशोविजयजी ने उत्कृष्ट भक्ति के भावों को प्रगट किया है। यथा -
तुज शुं मुज मन नेहलो रे, चंदन गंध समान ___ मेल हुआ ये मूलगो रे सहज स्वभाव निदान रे (स्तवन-2)
इनके अतिरिक्त उन्होंने आवश्यक स्तवन, कुमतिखंडन स्तवन, श्री शान्तिनाथ जिन स्तवन, पार्श्वनाथ के दो स्तवन, महावीर स्वामी का स्तवन की भी रचना की है।
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10. सज्झाय :
यशोविजयजी ने सामान्य लोगों के लिए सारगर्भित, तत्त्वज्ञानयुक्त, गंभीर चिन्तनशील सज्झायों की सुन्दर रचना की है। इस विषय में यह दंतकथा प्रचलित है कियशोविजयजी अभ्यास पूर्ण होने के पश्चात् अपने गुरू नयविजयजी के साथ काशी से विहार करके एक गांव में आए। वहाँ संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय में गांव के किसी श्रावक ने यशोविजयजी से सज्झाय बोलने के लिए कहा। यशोविजयजी ने कहा कि - अभी उन्हें कोई सज्झाय याद नहीं है। यह सुनकर उत्तेजित हुए उस श्रावक ने यशोविजयजी को उपालम्ब देते हुए कहा कि काशी में तीन-तीन वर्ष रहकर क्या घास काटा ? उस समय तो यशोविजयजी मौन रहे परन्तु बाद में उन्होंने विचार किया कि सामान्य लोग संस्कृत और प्राकृत भाषा में रचित ग्रन्थों को समझ नहीं सकते हैं। जैन तत्त्वज्ञान को लोकभाषा गुजराती में सजाकर परोसा जाय जो साधारण लोग लाभान्वित हो सकते हैं और उन्हें बोध प्राप्त हो सकता है। तुरन्त समकित के 67 बोलों की सज्झाय रचकर, उसे कंठस्थ करके दूसरे दिन प्रतिक्रमण में बोलने लगे। सज्झाय बहुत लम्बी होने से श्रावकों ने अधीर होकर पूछा - सज्झाय और कितनी शेष है ? तब यशोविजयजी ने कहा कि तीन वर्ष तक काशी में रहकर जो घास काटा था, उसके पूले बांध रहा हूँ। इतने पूले बांधने में समय तो लगेगा ही। श्रावक बात को समझ गये और यशोविजयजी से क्षमा याचना की।
गुर्जर साहित्य संग्रह के अनुसार निम्नलिखित सज्झायों की रचना यशोविजयजी ने की है -
1. अठार पापस्थानक की सज्झाय 3. ग्यारह उपांग की सज्झाय 5. आत्मप्रबोध की सज्झाय 7. चडता पडता की सज्झाय 9. प्रतिक्रमणगर्भहेतु की सज्झाय 11. प्रतिमा स्थापना की सज्झाय
2. ग्यारह अंग की सज्झाय 4. आठ दृष्टि की सज्झाय 6. उपशम श्रेणी की सज्झाय 8. चार प्रकार के आहार की सज्झाय 10. पांच महाव्रत की सज्झाय 12. यतिधर्म बत्रीशी की सज्झाय
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13. स्थापना कल्प की सज्झाय 15. ज्ञान-क्रिया की सज्झाय 17. सुगुरू की सज्झाय 19. हरियाली की सज्झाय
14. समकित के 67 बोल की सज्झाय 16. पांच कुगुरू की सज्झाय 18. संयमश्रेणी की सज्झाय 20. हितशिक्षा की सज्झाय
गुजराती भाषा में गद्य और पद्य में लिखित अन्य कृतियाँ - 1. समुद्र-वाह संवाद :
यह संवाद यशोविजयजी की दीर्घ रसप्रद रूपकात्मक कृति है। मूल संवाद तो सागर और वाहन के मध्य है। परन्तु शिक्षा मानव को दी गई है। काव्यकुशलता, तर्कशीलता और वाक्पटुता के कारण वादी-प्रतिवादी के बीच जिन दलीलों की कल्पना कवि ने की है, वे बहुत ही सुन्दर और सचोट हैं। इस में 17 खण्ड और कुल 700 काव्य पंक्तियाँ हैं। यशोविजयजी ने सं. 1717 में घोघा बंदर में इस संवाद की रचना की थी।
2. समताशतक :
कषायों और विषय वासनाओं को जीत करके समता की साधना किस प्रकार की जा सकती है, इसका वर्णन 105 दोहों में किया गया है। 3. समाधिशतक :
इस कृति में 104 दोहे हैं। संसार की माया जीवात्माओं कैसे नचाती है, आत्मज्ञानी उस माया से कैसे मुक्त रहता है, आत्मज्ञानी की उदासीनता, आत्मज्ञानी की अन्तरदृष्टि, समाधि आदि साधना परक विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
इस प्रकार यशोविजयजी ने 1444 ग्रन्थप्रणेता हरिभद्रसूरि आदि पूर्वाचार्यों द्वारा रचित संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों को लोकभाषा गुजराती में काव्य का रूप देकर न केवल उन ग्रन्थों को विद्वदभोग्य से जनयोग्य बनाया, अपितु बाल जीवों पर महान उपकार भी किया है। 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उनकी मातृभाषा गुजराती के प्रति
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अत्यधिक प्रेम और भक्ति व्यक्त करते हुए लिखा है कि शिष्ट पुरूषों की संस्कारवाली संस्कृत भाषा होने पर भी, मैं तो गुजराती भाषा के रस में ही आनंद लेता हूं। जिस प्रकार देव अमृतपान को छोड़कर देवांगनाओं के अधरपान में अधिकानंद का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार मुझे गुजराती भाषा में साहित्य सर्जन करने में अधिक आनंद की अनुभूति होती है।38
इस प्रकार यशोविजयजी के साहित्य सर्जन के उक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि महोपाध्याय यशोविजयजी का संपूर्ण जीवन श्रुतज्ञान की उपासना के गहरे रंग से रंगा हुआ था। उपाध्यायजी के साहित्य-सर्जन की सुदीर्घ यात्रा को देखकर यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि उन्होंने समस्त सुख-सुविधाओं को त्यागकर जीवन के अंतिम क्षण तक श्रुतसाधना के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। वि.सं. 1743 में सुरतनगर में रचित ग्यारह अंगों की सज्झाय में स्वयं उपाध्यायजी कहते हैं -
"खांड गली, साकर गली, अमृत गल्युं कहेवाय
माहरे तो मनश्रुत आगले ते कोई न आवे दाय" इससे यह परिलक्षित होता है कि यशोविजयजी को श्रुत उपासना के प्रति अगाध प्रेम और तीव्र रूचि थी। अन्यथा आयुष्य की सीमा, साधुजीवन के कठोर साधना के नियम, त्याग-तपमय-उदात्त चारित्र और सामाजिक बंधन इत्यादि के कारण विपुल ग्रंथ रचना संभव ही नहीं हो सकती।
उपाध्याय यशोविजयजी ने जैन और जेनेतर धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र और दर्शन शास्त्रो के गहन और तलस्पर्शी अध्ययन में सूक्ष्म और तीक्ष्ण बनी बुद्धि का सदुपयोग करके न केवल दर्शन, तर्क, न्याय, योग, आचार, अध्यात्म आदि विभिन्न विषयों पर विभिन्न भाषाओं में मौलिक ग्रन्थ रचना और टीकाएं लिखी, अपितु स्वपक्ष का मंडन और परपक्ष के खण्डन के साथ-साथ परपक्ष में रहे हुए अच्छाइयों का उदारदृष्टि से
38 गीर्वाणभाषासु विशेषबुद्धिहस्थापि भाषारसलम्पटोऽहम् यथा सुरणाममतूं प्रधानं दिव्यांनानामधरासवे रूचि : .......
............... द्रव्यगुणपयोयनोरास का म्बा, गा. 16/1 3° द्रव्यगुणपर्यायनोरास, प्रस्तावना, विवेचक, धीरजलाल, डाह्यालाल महेता, पृ. 21
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समन्वय भी किया है। विविध दार्शनिक पक्षों के मध्य समन्वय करने के लिए उन्होंने अनेकान्तदृष्टि को आधार बनाया। वस्तुतः अनेकान्तवाद पर उपाध्यायजी की गहरी निष्ठा थी और यही कारण है कि हमें उनकी प्रत्येक कृति में अनेकान्तवाद का दर्शन होता है। पंडित सुखलाजी के शब्दों में :
"यशोविजय जैसे समन्वयशक्ति रखने वाले, जैन-जैनतर मौलिक ग्रन्थों का गहराई से दोहन करनेवाले, प्रत्येक विषय के अन्त तक पहुंचकर उस पर समभावपूर्वक अपने स्पष्ट मन्तव्य को प्रकाशित करने वाले, शास्त्रीय और लौकिक भाषा में विविध साहित्य रचकर अपने विचारों को सर्व जिज्ञासुओं तक पंहुचाने की चेष्टा करनेवाले और संप्रदाय में रहकर भी संप्रदाय के बंधनों की परवाह नहीं करनेवाले, जो भी उचित लगा उसे निर्भयता पूर्वक लिखनेवाले, केवल श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में ही नहीं, अपितु जैनेतर समाज में भी उनके जैसा कोई विशिष्ट विद्वान अभी तक हमारे ध्यान में नहीं आता है। उपाध्यायजी के जैन होने के कारण जैनशास्त्रों का गहरा ज्ञान तो उनके लिए सहज था ही, परन्तु उपनिषदों, गीता, बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थों आदि का भी उन्हें ज्ञान था। यह सब उनकी अपूर्व प्रतिभा और काशी यात्रा का परिणाम था।१०
यशोविजयजी ने नव्यन्याय शैली में न्याय विषयक अद्वितीय ग्रन्थों की रचना करके जैन दर्शन को 'नव्यन्यायशैली' की अनुपम भेंट दी है।
यशोविजयजी के तत्त्वज्ञान, योगसाधना, अध्यात्म, भाषा, अलंकार, छंद आदि विषयों को अनदेखा करके मात्र न्यायविषयक ग्रन्थों पर ही दृष्टिपात करें तो हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, अकलंकदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि ने तर्कग्रन्थों का प्रणयन करके जिस जैन न्याय को पल्लवित हौर पुष्पित किया था, उसी जैन न्याय में यशोविजयजी ने तर्कग्रन्थों की रचना करके फलदर्शन करवाया। “प्रथम तीन युग के दोनों (दिगम्बर और श्वेताम्बर) संप्रदाय के जैन न्याय विषयक साहित्य कदाचित न भी हों और उपाध्याय
40 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रन्थ से उदधृत, पृ. 40
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यशोविजयजी के जैन न्याय विषयक संपूर्ण साहित्य उपलब्ध हों तो भी जैन वाङ्मय
कृतकृत्य है।"41
यशोविजयजी के उपलब्ध रचनाओं के विश्लेषण से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि वे केवल दार्शनिक और तार्किक ही न होकर आगम के वेत्ता और आगमिक परंपरा के संवाहक भी थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रत्येक विषय का समर्थन और पुष्टि के लिये आगमों का उल्लेख किया। पू. मुनि जंबूविजयजी ने लिखा है -"यशोविजयजी ने सैंकड़ों वर्षों से नहीं उकरित अनेक जटिल प्रश्नों को उकेर करके समाधान किया है। समस्त आगमिक साहित्य उनके जिव्हान पर खेलता है। उनकी चर्चाएं इतनी तलस्पर्शी और युक्ति, उपपत्ति से परिपूर्ण थी कि अध्ययन करने वालों का वर्षों पुराने भ्रमों और संशयों क्षण में ही दूर हो जाते हैं।"42
यशोविजयजी के अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् और ज्ञानसार आदि ग्रन्थ इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यशोविजयजी बुद्धिवादी और तर्कवादी ही नहीं थे, परन्तु अध्यात्मवादी बनकर अध्यात्म अनुभूतियों को प्रगट करने का सफल प्रयास भी किया है। इन अध्यात्मिक ग्रन्थों में लिखित एकैक शब्द स्वानुभुति के अग्नि में तपकर, स्वानुभूति के मार्ग से गुजरकर प्राप्त सत्यों को प्रकट करते हैं जो साधना मार्ग के पथिक के लिए पथप्रदर्शक बनते हैं।
तदुपरान्त बाल जीवों को तत्त्व का बोध सरलता से हो सके इस भावना से लोकभाषा गुजराती में भी रास-चउपाई-स्तवन-पद-सज्झाय आदि काव्य साहित्य की रचना करके महत्तम उपकार किया है। "जग जीवन जग वाल हो', “अब मोहे ऐसी आय बनी," आदि भक्तों के जिह्वा पर नृत्य करने वाले ऐसे स्तवनों ने यशोविजयजी को अमर बना दिया है। इस प्रकार प्रकाण्ड विद्वान बनकर भी यशोविजयजी प्रभुभक्तों के समक्ष सहृदय भक्त कवि के रूप में भी आए हैं।
" पंडित सुखलालजी, 'जैन न्यायनो कृमिक विकास', (उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रंथ से उद्धृत, पृ. 158) 4. जंबूविजयजी, 'श्रुतांजली' ( उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रंथ से उधृत, पृ. 250)
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इस प्रकार यशोविजयजी की अद्भुत ग्रन्थरचना शक्ति, स्मरण शक्ति, धारणाशक्ति, कवित्वशक्ति और तर्कशक्ति आदि को देखकर जैन समाज ने उन्हें तार्किकशिरोमणि, लघुहरिभद्रसूरि, द्वितीय हेमचन्द्र, योगविशारद, सत्यगवेषक, समयविचारक, कुर्चालीशारद, महान समन्वयकारक, प्रखर नैयायिक, वादिमानभंजक, शुद्धाचार–क्रियापालक आदि अनेक विरूदों से अलंकृत किया है।43
उनके समान नामधारक वर्तमान कालिक मुनि यशोविजयजी लिखते हैं कि -"अन्तिम वर्ष तक साहित्यसर्जन, शासनसेवा और धर्मरक्षा के लिए श्वास लेने वाले इस वीर पुरूष ने हमारे समक्ष सेवा, समर्पण और पुरूषार्थ का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है।"44
जिनशासन की गोद में अनेक बुद्धिमान पुरूषों ने जन्म लिया है, परन्तु नव्यसर्जक, क्रान्तिकारी और कर्तव्यपरायण यशोविजयजी के जैसे तो विरले ही होते
-000----
। 43 "द्रव्यगुणपर्यायनोरास' भाग-1 की प्रस्तावना, लेखक धीरजलाल डायालाल महेता, पृ. 25
" श्री यशोविजयजी, श्री यशोविजयजी स्मृति ग्रंथ (उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रंथ से उद्धृत, पृ. 254)
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यशोविजयजी के दार्शनिक कृतियों में प्रस्तुत कृति की विशेषता –
सामान्यतया जैन आगमों में जैनदर्शन के विविध पक्षों का प्रस्तुतिकरण हुआ है। अतः जैनदर्शन के मूलभूत आधार तो जैनागम ही हैं, किन्तु जहाँ तक आगमों का प्रश्न है, उनमें जैन तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं का सामान्यतया ही प्रतिपादन हुआ है। जैसे लोक की चर्चा करते हुए लोक को पंचास्तिकायरूप बताया गया है अथवा कहीं-कहीं षद्रव्यों का भी विवेचन किया गया है। अस्तिकाय और षद्रव्यों के इस विवेचन में मुख्य रूप से उनके सामान्य स्वरूप और उनके सामान्य प्रकारों की ही चर्चा हुई है। दार्शनिक और तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से उनका विवेचन दर्शनयुग के ग्रन्थों में ही पाया जाता है। इस दृष्टि से जैन दार्शनिक ग्रन्थों के क्षेत्र में 'सन्मतितर्कप्रकरण' एक ऐसा ग्रन्थ है जो अनेकान्तिक दृष्टि से तत्त्व के स्वरूप को प्रस्तुत करता है। यद्यपि जैन दार्शनिक साहित्य के क्षेत्र में 'सन्मतितर्कप्रकरण' और 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना के पश्चात् द्रव्य के दार्शनिक या तत्त्वमीमांसीय स्वरूप का प्रतिपादन किया जाने लगा था और सत्ता के इस अनेकान्तिक स्वरूप को प्रकट करने के लिए इन दोनों ग्रन्थों के पश्चात् भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये। उन ग्रन्थों में तत्त्वमीमांसीय चर्चा विस्तार से प्राप्त होने पर भी वे सभी ग्रन्थ मूलतः या तो प्राकृत में या संस्कृत में ही लिखे गये।
सिद्धसेन दिवाकर के काल से लेकर यशोविजयजी के काल तक लगभग 1300 वर्ष की दीर्घ अवधि में जैनदर्शन सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का लेखन हुआ और इन ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में विभिन्न दार्शनिकों के उदाहरणों या मतवादों की समीक्षा करके वस्तु के अनेकान्तिक और तात्विक स्वरूप को प्रकट करने का प्रयत्न भी हुआ है। यद्यपि दर्शनयुग के विभिन्न ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसीय और आचार मीमांसीय पक्षों को अधिक उभारा गया है। इन ग्रन्थों में जैन तत्त्वमीमांसा की चर्चा अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा के रूप में ही अधिक हुई है। सिद्धसेन से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी तक जो जो अनेक दार्शनिक ग्रन्थ लिखे गये हैं वे वस्तुतः
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परपक्ष के खण्डन एवं स्वपक्ष के मण्डन के रूप में ही लिखे गये। जबकि यशोविजयजी का प्रस्तुत ग्रन्थ जैनतत्त्वमीमांसा के प्रतिपादन के रूप में ही है। इस ग्रन्थ की विशेषताएं निम्न प्रकार हैं :
जहाँ तक मेरी जानकारी है, जैन तत्त्वमीमांसा पर स्वतन्त्र रूप से लोकभाषा में अर्थात् मरूगुर्जर भाषा में लिखे गये ग्रन्थों में उपाध्याय यशोविजयजी का 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का प्रथम स्थान है। इस ग्रन्थ की दूसरी विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ विद्वानों के लिए न लिखा जाकर जन-साधारण को जैन तत्त्वमीमांसीय का बोध कराने के लिए लिखा गया है।
इस ग्रन्थ की शैली अन्य मतों की खण्डनमण्डनरूप न होकर जैनदृष्टि से स्वरूप के प्रतिपादनात्मक ही है। इस ग्रन्थ के पूर्व जैन दार्शनिक साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ मूलतः परपक्ष के खण्डन और स्वपक्ष के मण्डन के रूप में ही लिखे गये। जबकि यह ग्रन्थ मुख्य रूप से द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप प्रतिपादन के लिए ही लिखा गया है। यद्यपि कहीं-कहीं परपक्ष की तत्त्व सम्बन्धी मान्यताओं की समीक्षा मिल जाती है, फिर भी यहाँ लेखक का उद्देश्य परपक्ष की समीक्षा नहीं रही है। जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और 'सम्मतितर्कप्रकरण' जैन तत्त्वमीमांसा के प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं, वहाँ यह ग्रन्थ दर्शनयुग के ग्रन्थों में अन्तिम ग्रन्थ कहा जा सकता है।
जहाँ तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थों में द्रव्य, गुण और पर्याय की चर्चा हुई है, वहाँ वह दार्शनिक गुत्थियों में उलझती हुई नजर आती है। जबकि यशोविजयजी के इस 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य, गुण और
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पर्याय के प्रतिपादन को दार्शनिक उलझनों से बचाकर सहज और सरल ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
संक्षेप में कहें तो यशोविजयजी की नव्यन्याय की शैली में लिखी गई दार्शनिक कृतियों से यह कृति बिल्कुल भिन्न है। इस कृति में दार्शनिक मतवादों की गहराई में जाकर उनकी समीक्षा का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया है। जैनदर्शन के क्षेत्र में नव्यन्याय की शैली में यशोविजयजी द्वारा रचित दार्शनिक कृतियों से यह कृति बिल्कुल भिन्न है। इसकी प्रतिपादन शैली इतनी सरल और सुबोध है कि सामान्यजन भी इसकी बात को सहजता से समझ सकता है। जैनदर्शन की और विशेष रूप से यशोविजयजी की दार्शनिक कृतियों में प्रस्तुत कृति की मुख्य विशेषता यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं को सरल और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है।
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द्वितीय अध्याय
वस्तु तत्त्व के विवेचन की जैन शैली – अनेकान्तवाद और नयवाद
(अ) जैनदर्शन का आधार अनेकांतवाद
संसार के समस्त दर्शनों का मुख्य उद्देश्य वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन रहा है । वस्तु के पूर्ण और यथार्थ स्वरूप को जान पाना इतना सरल कार्य नहीं । यदि किसी सर्वज्ञ को वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो भी जाये तो, उसके यथार्थ स्वरूप को शब्दों में व्यक्त कर पाना बहुत कठिन कार्य है। 15 वस्तु का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार है कि व्यक्त रूप से जितना दिखाई देता है, उसकी अपेक्षा बहुत कुछ अव्यक्त ही रहता है। इस कारण से विभिन्न दर्शनों ने वस्तु को विभिन्न दृष्टियों से प्रतिपादन करने के लिए प्रयास किए हैं। किसी ने भेदवादी दृष्टि से तो किसी ने अभेदवादी दृष्टि से वस्तु को परिभाषित किया । वस्तु के यथार्थ स्वरूप के निरूपण के लिए किसी दर्शन ने द्वैतवाद का आलम्बन लिया तो किसी अन्य दर्शन ने अद्वैतवाद का । कुछ दर्शनों ने एकान्तवाद के आधार पर तो कुछ दर्शनों ने अनेकान्तवाद के आधार पर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझाया।
जैनदर्शन वस्तुवादी और बहुतत्त्ववादी दर्शन होने से न केवल जगत में अनेक वस्तुओं (द्रव्यों) की सत्ता को स्वीकार करता है, अपितु प्रत्येक वस्तु को अनन्तधर्मों, अनन्तगुणों और अनन्तपर्यायों से युक्त भी मानता है। इसलिए जैनदर्शन के अनुसार सत्ता या वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। 7 ऐसी अनन्तधर्मात्मक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं । प्रत्येक गुण या धर्म अपने विरोधी गुण या धर्म से जुड़ा हुआ होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने भी इस बात की पुष्टि की है कि समूची प्रकृति में विरोधी युगलों की सत्ता है। जन्म है तो मरण भी है, शुभ है तो अशुभ भी
45 दर्शन और चिन्तन, पं. सुखलालजी, पृ. 151
46
स्याद्वाद और सप्तभंगीनय, भिखारीराम यादव, पृ. 42
47 "अनन्त धर्मात्मकं वस्तु" - स्याद्वाद मंजरी, श्लोक 22 की टीका
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है, ऊँचा है तो नीचा भी है। यदि जीवन में ऐसे विरोधी युगल नहीं रहे तो जीवन की संभावना ही खतरे में पड़ जायेगी।18
इसी प्रकार वस्तु का स्वरूप भावात्मक (सद्भूत) एवं अभावात्मक (असद्भूत) धर्मों से युक्त है। ऐसी अनेक विरोधी और अविरोधी धर्मात्मक वस्तु चाहे चेतन हो या अचेतन, उसके यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अनेकान्तदृष्टि ही आवश्यक है। अनेकान्तदृष्टि के बिना अनन्त धर्मात्मक वस्तु का स्वरूप-निरूपण संभव नहीं हो सकता है। एकान्त दृष्टि से किसी एक धर्म के आधार पर वस्तु का निर्णय किया जायेगा तो अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अनेक प्रतिद्वन्दी या परस्पर विरोधी धर्मों का निषेध हो जाने से वस्तु का वह स्वरूप प्रतिपादन अपूर्ण और अयथार्थ ही रहेगा। क्योंकि वस्तु में कुछ गुण धर्म अस्ति रूप में होते हैं तो कुछ गुण धर्म नास्ति रूप में भी होते हैं। घट में घटरूपता का अस्तित्व है, किन्तु पटरूपता का नास्तित्व भी है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता है। वस्तु के अनेक पक्ष और पहलू होते हैं। उदाहरणार्थ अलग-अलग पर्वतारोही हिमालय पर्वत पर अलग-अलग दिशा से चढ़ेगे तो प्रत्येक पर्वतारोही को हिमालय का अलग-अलग दृष्य दिखाई देगा। अपने-अपने दृष्टिकोण के आधार पर चारों पर्वतारोही यदि ऐसा कहें कि “मैनें जैसा देखा है वैसा ही हिमालय है" तो वह हिमालय का पूर्ण स्वरूप नहीं हो सकता है। हिमालय का पूर्ण स्वरूप चारों दिशाओं का सम्मिलित रूप है। यह स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से ही देखा जा सकता है। इस प्रकार पूर्ण सत्यता और यथार्थता का द्वारोद्घाटन अनेकान्तवाद ही कर सकता है। अनेकान्तवाद का मुख्य उद्देश्य यथार्थता को भिन्न-भिन्न पहलुओं से देखना, समझना एवं समझाने का प्रयास करना है। अतः यह एक ऐसी व्यावहारिक पद्धति है जो सत्य की विभिन्न दृष्टियों से खोज करती है।50
अनेकान्त शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ हैअनेक अन्ताः धर्माः यस्यासौ अनेकान्तः । जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म पाये जाते हैं
48 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 12 49 जीवन पाथेय, साध्वी युगल निधि-कृपा, पृ. 32 50 अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ.1
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उसे अनेकान्त कहा जाता है। 1 धवला 2 में अनेकान्त शब्द का अर्थ 'जात्यन्तर' बतलाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि अनेक धर्मों को मिलाने पर ज्ञप्त होता है, वह अनेकान्त है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि वस्तु में जो अनेक सामान्य और विशेष गुण और पर्यायें हैं, उनको स्वीकार करना अनेकान्त है । ” सुरेश मुनि के अनुसार पदार्थ में अनेक परस्पर विरोधी विशेषताएँ होने के कारण पदार्थ अनेकान्त रूप है। जो पदार्थ की इस अनेकरूपता को प्रतिपादन करता है, वही अनेकान्तवाद है | 54
अनेकान्तवाद का विकास
अनेकान्तवाद या स्याद्वाद शब्द को सुनकर बड़े-बड़े विद्वान भी यही समझते हैं कि अनेकान्तवाद जैनों का वाद है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैन विद्वानों ने इस पर न केवल अनेक ग्रन्थों की रचना करके अनेकान्तवाद की पुष्टि की, अपितु संपूर्ण शक्ति से अनेकान्तवाद का समर्थन किया और अनेकान्तवादरूपी शस्त्र को धारण करके ही अन्य दार्शनिकों का सामना किया है। पं. सुखलालजी कहते हैं कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान महावीर से भी पुराना है । यह ठीक है कि महावीर के पूर्ववर्ती जैन और जैनेतर ग्रन्थों में अनेकान्त का व्यवस्थित और विकसित रूप नहीं मिलता है, परन्तु महावीर के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य और समकालीन बौद्ध साहित्य में अनेकान्त दृष्टि के पोषक विचार मिल ही जाते हैं। इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने भी लिखा है कि अनेकान्तदृष्टि केवल जैन दार्शनिकों की एकमात्र बपौती नहीं है । अनेकान्त दृष्टि के संकेत वैदिक और
51 जैन तत्त्वमीमांसा, पं. फूलचन्द्र शास्त्री, पृ. 339
52 धवला, 15/25/1
53 अनेके अन्ताः धर्माः सामान्य विशेष पर्याय । गुणा सस्येति सिद्धेऽनेकान्तः, सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. 30
54 मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ. 350
55 दर्शन और चिन्तन, पं. सुखलाल जी, पृ. 149
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ओपनिषदिक साहित्य में भी उपलब्ध होते हैं। ऐसा कहकर उन्होंने वेद और उपनिषदों के अनेक उद्धरण भी दिये हैं।
वेद और उपनिषदों में अनेकान्तदृष्टि के संकेत -
वेदों और उपनिषदों में तत्कालीन विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं में समन्वय के प्रयास दृष्टिगोचर होते हैं। प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद" में कहा गया है कि सत् एक ही है किन्तु मनीषीगण उसको अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता में कहा गया है कि अनादिमान ब्रह्म न सत् हैं और न असत् है। ईशावास्योपनिषद में सर्वत्र अनेकान्त जीवन दृष्टि के संकेत मिलते हैं। इसमें भी परमेश्वर को सत् और असत् दोनों कहा गया है। परम तत्त्व चलता भी है, नहीं भी चलता है, वह दूर और समीप दोनो है। वह समस्त जगत के भीतर भी है और बाहर भी है। उपनिषद्कारों ने परम तत्त्व की व्याख्या में न केवल एकान्त का निषेध किया, परन्तु विरोधी धर्म को स्वीकार भी किया है, गीता में परमतत्त्व को चराचर भूतों के बाहर और भीतर दोनों माना गया है। इससे उपनिषदों और गीता में अनेकान्त की शैली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उपरोक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि समन्वयवादी व्यावहारिक जीवन दृष्टि के बीज बुद्ध और महावीर से पूर्व भी थे, जो कालान्तर में अनेकान्तवाद का आधार बन गये हों।
बौद्ध साहित्य में अनेकान्त दृष्टि -
संयुक्तनिकाय में कहा गया है कि 'जीव और शरीर एक है' या 'यह दोनों अलग-अलग हैं ऐसा कहना मिथ्यादृष्टि है। इसलिए इन दोनों को छोड़कर बुद्ध
56 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ.3 57 एक सद विप्रा बहुधा वदन्ति - ऋग्वेद, 1/164/46 58 अनादिमत्वरं ब्रह्म न सत्तान्नासदुच्यते - भगवद्गीता, 13/12 " तदेजति तन्नजति तदूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्ययतः।। -ईशावास्योपनिषद, 5 ७० बहिस्तश्च भूतानामचरं चरमेव च - भगवद्गीता, 13/16
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मध्यममार्ग से उपदेश करते हैं,61 "क्योंकि ये दोनों विचार एकान्त रूप होने से मात्र सत्यांश हैं, पूर्ण सत्य नहीं है। आत्मा शरीर से न तो एकान्तः भिन्न है और नहीं अभिन्न ही हैं बुद्ध ने तत्कालीन सभी शाश्वतवादी-उच्छेदवादी, आत्मवादी-अनात्मवादी आदि मन्तव्यों को एकांगी होने के कारण त्याज्य माना है। बुद्ध, यही सत्य है, ऐसा नहीं कहते थे। उन्होंने कहा कि 'सब कुछ विद्यमान है' और 'सब कुछ शून्य है ये दोनों ही अन्त हैं। इसलिए वे मध्यम मार्ग का उपदेश देते थे। बुद्ध सभी प्रश्नों का उत्तर लगभग निषेध रूप से ही देते थे। उनको भय था कि विधेय रूप से कहने पर निश्चित ही किसी मतवाद में उलझ जायेंगे। एकान्तिक मान्यताओं से बचने के लिए तत्त्ममीमांसा सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में या तो मौन रहते या उन्हें अव्याकृत कहकर टाल देते थे। जैसे उनसे पूछा गया कि- मरणोत्तर तथागत की सत्ता रहती है या नहीं ? बुद्ध ने कहा जैसे गंगा की बालू और समुद्र की गहराई को नहीं नापा जा सकता है। उसी प्रकार मरणोत्तर तथागत भी अप्रमेय और गंभीर है। इसलिए अव्याकृत है।
बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित एकान्त उच्छेदवादी और शाश्वतवादियों के मन्तव्यों का निषेधकर अशाश्वतनुच्छेदवाद का समर्थन किया। इससे यही परिलक्षित होता है कि बुद्ध ने सदैव ही एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए प्रयत्न किया और इसके लिए विभज्यवाद का सहारा लिया। शुभ माणवक के यह पूछने पर कि -ब्राह्मण गृहस्थ को ही आराधक मानते हैं तो इस विषय में आपका क्या मत है? बुद्ध ने कहा-मैं यहाँ एकांशवादी नहीं, विभज्यवादी हूँ। मिथ्यात्व से ग्रसित गृहस्थ भी निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं हो सकता और उसी प्रकार मिथ्यात्वी त्यागी भी आराधक नहीं हो सकता है।
6 तं जीवं तं शरीरं ........... संयुक्तनिकाय पालिभाग- 2, 12-36 62 न चाहमेतं तथियऽन्ति ब्रूमि .............. सुत्रनिपात ......... 50, 5 63 सब्बमत्थी ति खो, कच्चान अयमेको अन्तो, ................ संयुक्तनिकाय, भाग-2, 12:15 64 संयुत निकाय पालि भाग-3 44.1(अव्याकृत संयुत्त) 65 मज्झिमनिकाय भाग-2, 49.1 (सुमसुत्त)
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जैनागम में अनेकान्त दृष्टि -
जैन परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग है। इस आगम में भी अनेकान्त दृष्टि के संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ –“जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा ऐसा कहा गया है। इस पंक्ति का अर्थ है कि जिन कारणों से आश्रव हो जाता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा भी हो जाती है और जिन कारणों से निर्जरा होती है, उन्हीं कारणों से आश्रव भी हो जाता है। आश्रव और निर्जरा भावों पर निर्भर रहते हैं। भाव निर्जरा के हैं तो आश्रव की क्रिया भी निर्जरा का कारण बन सकती है तथा भाव आश्रव के हैं तो निर्जरा की क्रिया भी आश्रव का कारण बन सकती है। यहाँ एक ही क्रिया से आश्रव और निर्जरा दोनों हो सकते हैं, ऐसा कहकर अनेकान्त दृष्टि का ही परिचय दिया है। सूत्रकृतांगसूत्र" में श्रमणों को किस प्रकार की भाषा को उपयोग में लानी चाहिए ? इस संदर्भ में भगवान महावीर ने कहा कि श्रमणों को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का अर्थ है – किसी भी प्रश्न का समाधान भिन्न-भिन्न दृष्टियों से भिन्न-भिन्न रूप से देना। भगवान महावीर ने अपने समय में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि के परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समन्वय अनेकान्तवाद के आधार पर ही किया। भगवतीसूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर संकलित हैं।
तथागत बुद्ध ने लोक की शाश्वतता अशाश्वतता, जीव की नित्यानित्यता, जीव और शरीर के भिन्नाभिन्नता आदि तत्त्व सम्बन्धी सभी प्रश्नों को अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर उन प्रश्नों का उत्तर देने की अपेक्षा मौन धारण किया। किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि बुद्ध ने भी वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को स्वीकारा है। जब विरोधी धर्मयुगल जैसे- नित्यानित्यता, सान्तता-अनन्तता इत्यादि वस्तु में सापेक्ष रूप से विद्यमान हैं तो एकान्तवाद से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन संभव नहीं हो सकता है। एकान्तवाद से किया गया वस्तु का प्रतिपादन असत्य हो जायेगा। ऐसा
66 आचारांग, 1/4/2 67 भिक्खु विभज्ज्वायं च वियागरेज्जां, सूत्रकृतांगसूत्र, 1/1/14/22 68 अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 21
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सोचकर ही तथागत बुद्ध ने इन प्रश्नों के उत्तर में मौन धारण करना अधिक उचित समझा। यदि उत्तर देना भी पड़ा तो निषेधात्मक रूप से उत्तर दिया ।
परन्तु भगवान महावीर की शैली इनसे भिन्न थी। उन्होंने प्रत्येक प्रश्न को व्याकृत बताकर उसका उत्तर देने के लिए प्रयास किया। महावीर ने अनेकान्तिक वस्तु का एक पक्षीय प्रतिपादन नहीं किया, अपितु समस्त परस्पर विरोधी धर्मयुगलों को स्वीकार करके समन्वयात्मक रूप से वस्तु का प्रतिपादन किया। भगवान महावीर का कहना था कि जब वस्तु के स्वरूप में ही नित्यता, अनित्यता, एकता अनेकता, भेद अभेद आदि अनेक परस्पर विरोधी पक्ष विद्यमान हैं, तो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अनेकान्त दृष्टि से उपयुक्त हो सकती है। इसी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया जिनको बुद्ध ने अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर टाल दिया था। जैसे - जमाली ने जब यह प्रश्न किया – “भगवन! लोक शाश्वत है या अशाश्वत् ?" भगवान ने कहा - "लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है" क्योंकि लोक कभी नहीं था, नहीं है, और नहीं रहेगा, ऐसा नहीं है । इसलिए लोक ध्रुव और शाश्वत है। लोक अशाश्वत भी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में लोक का विकास और ह्रास होता रहता है । इस दृष्टि से लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। 9 जीव के शाश्वत या अशाश्वत के विषय भगवती सूत्र में कहा गया है कि जीव शाश्वत है। क्योंकि जीव कभी नहीं था, जीव कभी नहीं है, और कभी नहीं रहेगा - ऐसा संभव नहीं है। इसलिए जीव शाश्वत है। जीव अशाश्वत भी है, क्योंकि जीव नैरयिक से तिर्यंच, तिर्यंच से मनुष्य और मनुष्य से देव हो जाता है।" इस प्रकार जीव या आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। 71
जीव और शरीर परस्पर भिन्न है, या अभिन्न ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि काया आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, काया सचित भी है और अचित भी है, काया
69 भगवती सूत्र, भाग 4,
70 भगवती सूत्र, भाग 4, 71 भगवती सूत्र, भाग 3,
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9/33/34 9/33/34 7/3/5
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जीव रूप भी है और अजीव रूप भी है। 72 इस प्रकार जैनदर्शन में शरीर और आत्मा को भिन्नाभिन्न के रूप में माना गया है। आत्मा शरीर से भिन्न इसलिए है कि वह अपने प्रयासों से शरीर से मुक्त हो जाती है। आत्मा शरीर से अभिन्न इसलिए है कि इन्द्रिय, कषाय, योग, उपयोग आदि परिणाम शरीरयुक्त जीव के ही होते हैं।
इस प्रकार जैनागम, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापना और अनुयोगद्वारसूत्र आदि में अनेकान्तवाद की प्राथमिकता देखी जाती है। परन्तु अनेकान्तवाद को दार्शनिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी को जाता है। इनके बाद में आप्तमीमांसा के प्रणेता आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंक और विद्यानंदी ने विवरण लिखकर उसे सरल बनाने के लिए प्रयत्न किया है। 1444 ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'अनेकान्तजयपताका' आदि अनेक ग्रंथों की रचना करके अनेकान्तवाद के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगावच्छेदक द्वात्रिंशिका आदि ग्रन्थों में एवं उपाध्याय यशोविजयजी ने 'अनेकान्तव्यवस्था' प्रभृति ग्रन्थों में अनेकान्तवाद की पुष्टि के लिए श्लाघनीय प्रयास किये हैं।
वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता :
जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु के अनन्तधर्म, अनन्तगुण और अनन्त पर्यायें होती है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के कुछ गुण धर्म ही हमारे अनुभूति में आते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तु में उतने ही गुण धर्म है, जितने हमारे अनुभूति के विषय बनते हैं। परन्तु वस्तु में ऐसे अनेक गुण धर्म है जो हमारी सामान्य अनुभूति के परे हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं, – वस्तु में अनन्त पर्याय हैं। कुछ व्यक्त पर्याय हैं तो बहुत कुछ अव्यक्त पर्याय हैं। व्यक्त या स्थूल पर्यायों का जगत बहुत संकीर्ण है, जबकि सूक्ष्म या अव्यक्त पर्यायों का जगत बहुत
72 भगवती सूत्र, भाग, 5 13/7/13, 14 73 "जैन दर्शन में नय की अवधारणा" की प्रस्तावना, सुव्रतमुनि शास्त्री
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अधिक विस्तृत है। व्यक्ति अव्यक्त पर्यायों के जगत में प्रवेश किए बिना ही अर्थात केवल व्यक्त पर्यायों के आधार पर ही वस्तु स्वरूप का निर्णय कर लेता है, तो उसका वह निर्णय एकांगी और अपूर्ण होता है। कच्चे आम्रफल में व्यक्त रूप से खट्टा स्वाद (रस) होता है। परन्तु अव्यक्त रूप से उसमें अम्ल, मधुर कषैला, आदि सभी रस विद्यमान होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर उसके पकने पर भी मधुरता आदि गुणों की कोई संभावना नहीं रहती। हमारे भीतर राग, द्वेष, आदि व्यक्त पर्यायाएं हैं तो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख आदि की अव्यक्त पर्यायाएं भी हैं। अन्यथा ध्यान, साधना आदि उपक्रम का कोई अर्थ नहीं रहता। इस प्रकार वस्तु में व्यक्ताव्यक्त रूप से अनन्तधर्म है। जैसे- कच्चा आम्रफल वर्ण की दृष्टि से हरा या एकाधिक वर्षों से युक्त है, गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, रस की दृष्टि से अम्ल, मधुर आदि रसों से युक्त है; स्पर्श की दृष्टि से भीतर से कोमल है तो बाहर से कठोर है, आदि। पुनः वस्तु में भावात्मक धर्म ही नहीं, अनन्त अभावात्मक धर्म भी हैं। आम्रफल को आम्रफल होने के लिए आम्रफलत्व धर्म तो चाहिए ही, साथ-साथ द्राक्षत्व, कदलीत्व आदि की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। 'यह आम्रफल है', ऐसा निश्चय तभी होगा जब उसमें द्राक्ष, कदली आदि के गुण धर्मों का अभाव होगा।
वस्तु के स्वरूप निर्धारण में विधि और निषेध दोनों की अपेक्षा रहती है। किसी एक के अभाव में वस्तु का स्वरूप नहीं बन पाता है। स्वयंभूस्तोत्र में लिखा गया है कि विधि और निषेध दोनो कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षा में उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है। व्यक्ति जब चलता है तब दोनों पैर एक साथ नहीं उठते हैं। दोनों एक साथ उठें तो चलना संभव नहीं हो सकता है। चलते समय एक पैर आगे बढ़ता है तो दूसरा पैर पीछे खिसक जाता है। इसी प्रकार विवक्षित समय में वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक धर्म मुख्य होता है, शेष सारे धर्म गौण हो जाते हैं। डॉ. सागरमलजी जैन कहते हैं -वस्तु में अनेक भावात्मक
74 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, महाप्रज्ञजी, पृ. 66 75 विधिनिषेधश्च कथंचितदिष्दौ। विवक्षया मुख्य गुण व्यवस्था।। ....................... स्वयंभूस्तोत्र, का. 25
16 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ.46
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धर्म हैं तो उससे कई गुना अधिक अभावात्मक धर्म है। भावात्मक और अभावात्मक दोनों धर्म मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते हैं। 'वस्तु क्या है और 'क्या - क्या नही है', इसी से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है ।” अतः वस्तु के निर्णय के लिए विधेयात्मक पक्ष के साथ निषेधात्मक पक्ष को भी स्वीकारना पड़ता है, अन्यथा वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी। 78
वस्तु अनेकान्तिक है
ज्ञातव्य है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु में न केवल विभिन्न गुण धर्म होते हैं, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ एक ही आम्रफल जब कच्चा रहता है, तब हरा और पकने के बाद पीला हो जाता है । वही आम्रफल कालान्तर में सड़कर काला भी हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जो तत् है वही अतत् भी है; जो एकान्त है वह अनेकान्त भी है; जो सत् है वह असत् भी है । " एक ही वस्तु में अस्तित्व-नासित्व, एकत्व - अनेकत्व, नित्यता - अनित्यता आदि अनेक पक्ष अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं । कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं होती है। इसी प्रकार वस्तु सर्वथा एक या अनेक भी नहीं है। नित्यता, अनित्यता आदि परस्पर निरपेक्ष नहीं है। नित्यता के बिना अनित्यता और अनित्यता के बिना नित्यता अर्थहीन हो जाती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं। एकता और अनेकता परस्पर अनुस्यूत रहते हैं। उत्पत्ति और विनाश भी एक दूसरे के बिना संभव नहीं है। 1 पंचास्तिकाय में भी कहा गया है कि भाव (सत्त्व) का कभी अभाव नहीं होता और
”” अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 8
78
स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 36,37
• 79 तत्र यदेव तत्त्वातत् यदैवैकं तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासवयदेव नित्यंतदेवानित्यमित्येववस्तु ।
80
स्यादवाद और सप्तभंगी नय, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 38
1 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 11
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समयसार, गा. 247 की टीका
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अभाव (असत्त्व) का कभी सद्भाव नहीं होता है। 2 यद्यपि ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नित्यता और अनित्यता दोनों परस्पर विरोधी धर्म होने से एक ही वस्तु में एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ? वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम परस्पर सर्वथा विरोधी धर्म मानते हैं, वे सर्वथा विरोधी धर्म नहीं होते हैं। दो विरोधी धर्म अपेक्षा भेद से वस्तु में एक साथ विद्यमान रह सकते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते हैं कि एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी की अपेक्षा से पति है तो बहन की अपेक्षा से भाई है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति पति और भाई दोनों है । एक ही भोजन स्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा से पथ्य है तो अस्वस्थ अथवा रूग्ण व्यक्ति के लिए अपथ्य बन जाता है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु छोटी-बड़ी, शीत-उष्ण, कोमल-कठोर बन जाती है। इस प्रकार सामान्यतया मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुणधर्म मान लेती है, वे भी एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से पाये जाते हैं । 3
इसी कारण से जैनाचार्यों ने सत्ता को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य न कहकर परिणामी नित्य माना है । सत्ता प्रतिसमय निमित्तों के आधार पर परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं करती है। जैसे - एक ही व्यक्ति बालक, युवा और वृद्ध के रूप में बदलता रहता है। इस बदलाव के परिणामस्वरूप उसके शरीर, बुद्धि, शक्ति आदि भी बदलते रहते हैं । फिर भी व्यक्ति 'वही रहता है।' इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाएं बदलती रहती हैं, परन्तु व्यक्ति तो वही रहता है। व्यक्ति बदलकर भी नहीं बदलता है। 84 दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यायें बदलती रहती हैं। व्यक्ति अर्थात दृष्टा नहीं बदलता है । बाल्यावस्था नष्ट होकर युवावस्था प्रकट होती है, परन्तु इन दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति नहीं बदलता है। व्यक्ति तो 'वही' रहता है । इस प्रकार एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और धौव्य, ये तीनों युगपत् रहते हैं। उत्पाद एवं नाशरूप पर्यायों के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता है और द्रव्य (ध्रुवांश) के बिना पर्यायें नहीं होती है। अतः द्रव्य उत्पाद, व्यय
82 'भावस्स णत्थि णासो णात्थि भावस्स चैव उत्पादो । गुणपज्जयेसु भावा उतपादवए पकुव्वंति ।। 83 कीदृश वस्तु ? नाना धर्मेयुक्तं विविधस्वभावै 84 अनेकान्तवाद, स्यादवाद और सप्तभंगी,
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पंचास्तिकाय, गा. 15
स्वामी कार्तिकेयनुप्रेक्षा टीका, गा. 253 डॉ. सागरमल जैन, पृ. 10
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और ध्रौव्य से युक्त है। इस प्रकार द्रव्य की दृष्टि से सत्ता नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। भगवान महावीर से पूछा गया कि जीव नित्य है, या अनित्य ? भगवान का उत्तर था -जीव अपेक्षा से भेद से नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य और पर्याय दृष्टि से जीव अनित्य है। नित्य और अनित्य के समान ऐसे अनन्त परस्पर विरोधी धर्म वस्तु में सापेक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं। अतः वस्तु में स्वीकारात्मक, निषेधात्मक, परस्पर विरोधी, परस्पर-अविरोधी आदि अनेक गुणधर्म होने से वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मात्मक और अनैकान्तिक है।
ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमितता -
जब प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होती है तब वस्तु के अनेक गुणधर्मों की ओर दृष्टि को ओझल करके किसी एक गुण धर्म का सर्वथा विधान करना एकान्तिक कथन है, जो असत्य का प्रतिपादक हो जायेगा। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी भी धर्म का निषेध नहीं करते हुए सभी धर्मों का विधायक कथन ही वस्तुतत्त्व का सत्य प्रतिपादन कर सकता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो अनन्त धर्मात्मक वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करना सहज नहीं है। हर वस्तु में इतने अधिक धर्म, गुण, पर्याय आदि मौजूद रहते हैं कि उनको बता पाना असंभव नहीं होने पर भी कठिन अवश्य हो जाता है।
एक ओर वस्तु का स्वरूप विराट है, तो दूसरी ओर इस विराट स्वरूप को जानने के हमारे साधन सीमित हैं। मानव के पास सत्यगवेषणा के लिए दो ही साधन हैं - इन्द्रियाँ और तर्क बुद्धि । इन्द्रियाँ वस्तु के पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने के लिए असक्षम है। इसका मुख्य कारण है इन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से व्यक्त गुणधर्म को ही जान पाती है। अव्यक्त गुणधर्मों को जानने के लिए इन्द्रियाँ असमर्थ है। दूसरा कारण यह है कि इन्द्रियों की क्षमता व्यक्ति के क्षयोपशम पर भी निर्भर रहती हैं। दूर स्थित
85 दवं पज्जविउयं दव्व विउता या पज्जवाणत्थि
अप्पाय-ट्टिइ-भंगा हंदि दवियलक्कखणं एवं ................ सन्मतिप्रकरण, 1/12 86 गोयमा। जीवा सिय सासया सिय असासया
दब्याए सासया भावट्टयाए असासया ।.. ................ भगवतीसूत्र, 7/3/273
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किसी सूखे वृक्ष को देखकर एक व्यक्ति उसे ढूंठ कहता है और दूसरे व्यक्ति को वही ढूंठ मनुष्य के रूप में दिखाई देता है। इस कारण से हम वस्तु को वस्तु के यथार्थ स्वरूप से नहीं जानकर, वस्तु को उस रूप में जानते हैं, जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष वस्तु को उपस्थित करती हैं। अतः हमारा ज्ञान स्वतन्त्र न होकर इन्द्रियाँ सापेक्ष है।
डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि हमारा ज्ञान इन्द्रियाँ सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जिस कोण से वस्तु देखी जाती है। दूर से वस्तु छोटी और समीप से बड़ी दिखाई देती है। भिन्न-भिन्न कोण से लिया गया टेबल का फोटो भिन्न-भिन्न दिखाई देगा। अतः इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त अनुभविक ज्ञान दिशा, काल और व्यक्ति सापेक्ष होता है।
मानव अपने इन्द्रियानुभूत ज्ञान की सत्यता की प्रमाणिकता को जानने के लिए अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है, परन्तु तर्कबुद्धि भी कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति–नास्ति आदि विचारों से घिरी हुई होने से बौद्धिक ज्ञान भी सापेक्ष ही होता है। मनुष्य इन अपूर्ण इन्द्रियाँ और तर्कबुद्धि पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु उतनी नहीं है, जितनी व्यक्ति उसे जान पाता है। इसलिए व्यक्ति अपने आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान से निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। वस्तु का स्वरूप इतना गुह्य है कि साधारण मनुष्य के लिए उसका पूर्णतः ज्ञान प्राप्त करना असंभव है।
भाषा की सीमितता और सापेक्षता :
यदि कोई पूर्ण ज्ञानी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर भी ले तो भी सत्य को निरपेक्ष रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। सत्य को निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है, परन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता हैं क्योंकि
7 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 12-13 वही, पृ. 13
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अभिव्यक्ति के लिए भाषा ही एकमात्र साधन है, जो अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। एक ओर वस्तु के धर्मों की संख्या अनन्त है और दूसरी ओर भाषा के शब्दों की संख्या सीमित है। इस कारण से वस्तु के अनेक धर्म अकथित ही रह जाते हैं। भाषा में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो वस्तु के पूर्ण स्वरूप को प्रकट कर सके। एक शब्द वस्तु के एक निश्चित धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। पुनः वस्तु में ऐसे अनन्त धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिए भाषा के पास कोई शब्द नहीं है। उदाहरण के लिए- कोयला, कोयल और भंवरा सभी काले होने पर भी उनके कालेपन में भिन्नता है। परन्तु भाषा के माध्यम से इनके अलग-अलग कालेपन को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। इतना ही कहा जा सकता है कि 'काला है। 90 मानव की भिन्न-भिन्न अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा में भिन्न-भिन्न शब्द नहीं है।
_ जिनभद्रगणि ने कहा है कि संसार के अनन्त वस्तुएँ अनभिलप्य है, जिनका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता है। जो अभिलप्य पदार्थ है, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय है और जो प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही सूत्रबद्ध है। इसलिए वस्तु के संदर्भ में सापेक्ष कथन ही उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन कर सकता है। क्योंकि निरपेक्ष कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त रह जाने के कारण या उन धर्मों का निषेध हो जाने से वह कथन असत्य हो जाता है। इसलिए कथन की पूर्ण सत्यता को बनाये रखने के लिए एवं वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिए सापेक्ष कथन पद्धति ही समीचीन हो सकती है।
अनेकान्त की अपरिहार्यता -
सामान्य रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक दर्शन यही दावा करते हैं कि उनके मान्य विचार, मार्ग और सिद्धान्त ही सत्य
" अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 63 स्यावाद और सप्तभंगीनय, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 63 "पण्णवणिज्जा भावा, अनंतभागो तु अण्णभिलप्पणं। पण्णवणिज्जाणं पण, अनंतभागो सुदविबद्धों। ... ................. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 35
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हैं। परिणामस्वरूप विरोधी प्रवृत्तियों और विरोधी मतभेदों का जन्म होता है। इन विरोधी या एकान्तिक मतभेदों ने जीवन को सुलझाने के अपेक्षा और अधिक उलझाकर संघर्ष और निराशाओं को उत्पन्न करने का ही काम किया ।
जब कोई जिज्ञासु जगत, जीवन और जीवन सम्बन्धी प्रश्नों के समाधान के लिए संसार के विभिन्न दार्शनिक परंपराओं का अध्ययन करता है तो घोर निराशा में पड़ जाता है और उसकी दृष्टि और अधिक उलझ जाती है। इसका कारण यह है कि विभिन्न दार्शनिक परंपराओं में जीव, जगत और जीवन के विषयक इतने परस्पर विरोधी विचारों को प्रस्तुत किया गया है जिससे उनमें आकाश-पाताल का अन्तर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ आत्मतत्त्व के विषय में ही विभिन्न परस्पर विरोधी विचारों को रखा गया है। कोई दर्शन आत्मा को नित्य मानता है, कोई उसे अनित्य मानता है । कोई आत्मा को एक कहता है तो कोई अनेक कहता है। किसी दर्शन के अनुसार आत्मा विभु है तो अन्य किसी दर्शन के अनुसार आत्मा अणु है। आत्मा जैसे विषय पर भी दार्शनिक एकमत नहीं हो पाये। ऐसी स्थिति में जिज्ञासु को निराश होना स्वाभाविक ही है कि आखिर सत्य क्या है ?
I
92 अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी,
जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के आधार पर इस समस्या का समाधान किया है। अनेकान्तिक दृष्टि के माध्यम से परस्पर विरोधी दार्शनिक अवधारणाओं के विरोधों का परिहार करके समन्वय स्थापित करने के प्रयास किये गये हैं। 2 अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं और उलझनों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है । समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, यशोविजयजी आदि अनेक दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के बल पर ही नित्य - अनित्य, भेद - अभेद, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व-नासित्व आदि विरोधी विचारों का युक्तिसंगत समन्वय किया है। 'शास्त्रवार्ता- समुच्चय' नामक ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि ने विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। देवेन्द्रमुनि के शब्दों में अनेकान्तवाद रूपी
94
-
पृ. 8
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न्यायाधीश परस्पर विरोधी दावेदारों का निर्णय बहुत ही समीचीन रूप से करता है और उसमें वादी और प्रतिवादी दोनों के साथ न्याय किया जाता है।
अनेकान्तवाद के आधार पर अपेक्षा भेद से पिता को पुत्र और पुत्र को पिता कहा जा सकता है । आत्मा को भी अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों कहा जा सकता है। आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं। निश्चयदृष्टि या तत्त्वदृष्टि से आत्मा एक है, परन्तु व्यवहार दृष्टि से आत्मा अनेक है। इस प्रकार दार्शनिकों के समस्तवाद (द्वैत्वाद, अद्वैतवाद, भेदवाद, अभेदवाद आदि) अनेकान्तवाद में उसी प्रकार मिल जाते हैं जिस प्रकार सभी नदियाँ महासागर में मिलकर तद्रूप हो जाती हैं। 4 वस्तु के स्वरूप का विवेचन करने वाला कोई भी एकांगी मत तब तक ही अपूर्ण और असत्य होता है, जब तक वह अनैकान्तिक दृष्टि से नहीं देखा जाता है अर्थात् जब तक वह निरपेक्ष कथन करता है। जैसे किसी घड़ी के विभिन्न पुर्जे अलग-अलग बिखरे पड़ें हैं तो उन अलग-अलग पुर्जों को घड़ी नही कहा जाता है। परन्तु वही पुर्जे जब एक साथ मिल जाते हैं तब वे घड़ी बनकर उपयोगी सिद्ध हो जाते हैं। उसी प्रकार जब अलग-अलग बिखरे एकान्तवाद मिलकर एक हो जाते हैं या परस्पर सापेक्ष बन जाते हैं तब वे अनेकान्तवाद बनकर वस्तु स्वरूप के सर्वांश के बोधक बन जाते हैं। 5
आचार्य महाप्रज्ञजी के कथनानुसार जिस व्यक्ति की अनेकान्त रूपी तीसरी आँख खुल जाती है उसके लिए कोई भी मत मिथ्या नहीं होता है। वह व्यक्ति सापेक्षता की कसौटी पर ही सत्य और असत्य की परीक्षा करता है। उसके लिए जो कथन सापेक्ष है, वह सत्य है और जो कथन निरपेक्ष है, वह असत्य है । हरिभद्रसूरि ने कहा- महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिलादि के प्रति मेरा द्वेष भी नहीं है। जिनका वचन युक्तिसंगत है, वे ही मुझे मान्य हैं। ऐसी बात अनेकान्त के
93 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, देवेन्द्रमुनि, पृ. 234
94 उदधाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयिद्रष्टयः ।
न च तासु भगवन् प्रदृश्यते अविभक्तासु सरित्सिववादेधिः । ।
95
सिद्धसेन
जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, देवेन्द्रमुनि, पृ. 234 से उद्धृत
95 धर्मदर्शन मनन और मूल्यांकन, देवेन्द्रमुनि, पृ. 163 96 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, महाप्रज्ञजी, पृ. 82
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आलोक में ही कही जा सकती है। क्योंकि जो एकान्त के प्रति आग्रहशील होता है वह अन्य सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता है और ऐसी स्थिति में पूर्ण सत्य से अनभिज्ञ ही रहता है। पूर्ण सत्य की प्राप्ति अनेकान्त से ही होती है। गोपी को नवनीत की प्राप्ति तभी होती है, जब वह मथानी की एक रस्सी के छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। इसी प्रकार एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को मुख्य बनाने पर ही सत्य का अमृत हाथ लगता
अनेकान्तवाद रूपी सूर्य के उदित होने पर सारे एकान्तवाद के घनघोर बादल तितर-बितर होकर अस्तित्वहीन हो जाते हैं। अनेकान्त की उपस्थिति में सारे संघर्ष, मतभेद और वैमनस्य का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। एकांगी और दुराग्रही दृष्टिकोण की पकड़ कमजोर पड़ते ही संघर्ष समाप्त हो जाता है। समस्या चाहे व्यवहार की हो या अध्यात्म की, दर्शन की हो या राजनीति की, सारी समस्याएँ अनेकान्त के आधार पर सुलझाई जा सकती हैं। संसार के स्थूल और सूक्ष्म दोनों पर्यायों (परिवर्तनों) को जानने के लिए अनेकान्त श्रेष्ठ दार्शनिक पद्धति है। इससे संघर्ष की चिंगारियां स्वतः समाप्त हो जायेंगी और अन्ततः विश्वशान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।99 डॉ. सागरमल जैन ने भी अनेकान्त को दार्शनिक सिद्धान्त की अपेक्षा एक व्यावहारिक पद्धति ही अधिक कहा है।99
इस प्रकार अनेकान्तवाद सब दर्शनों की धुरी के रूप में है। दार्शनिक समस्याओं की बात तो दूर रही दैनिक जीवन का व्यवहार, अर्थात् समाज और परिवार के सम्बन्धों का निर्वाह भी अनेकान्त के बिना नहीं होता है। आचार्य सिद्धसेन का कथन है कि जिसके बिना लोक-व्यवहार का निर्वाह भी नहीं होता, उस जगत के एकमात्र गुरू अनेकान्तवाद को नमस्कार है।100
97 एकेनाकर्षन्ति श्लययन्ति वस्तुतत्त्वमितरेण
अन्तेन जयति जैनी नितिर्मन्थाननेत्रमीव गोपी .. .............. पुरूषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 225 9 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आ. महाप्रज्ञ, प्रस्तुति 99 अनेकान्त, स्यावाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 1 100 जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिवडइ
तस्स भुवणेक्क गुरूणों णमो अणेगंत वायस्स .... .............. सन्मति तर्क प्रकरण, 3/70
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स्याद्वाद और सप्तभंगी :
अनेकान्तवाद जैनदर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। संपूर्ण जैनदर्शन रूपी इमारत अनेकान्तवाद की नींव पर ही आधारित है। देवेन्द्र मुनि का कथन है कि "अनेकान्तवाद जैनदर्शन का हृदय है। जैन वाड्.मय के प्रत्येक शब्द में अनेकान्तवाद का प्राणतत्त्व समाहित है।101" इस अनेकान्तवाद की व्याख्या जैनाचार्यों ने इस प्रकार की है –“वस्तु में निहित परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणधर्मों को स्पष्ट करना अनेकान्त है।102." यह अनेकान्त दृष्टि जब सिद्धान्त का रूप ले लेती है तब उसे अनेकान्तवाद कहा जाता है।
जैनदृष्टि के अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म हैं। इन भावात्मक और अभावात्मक अनन्त गुण धर्मों से कुछ धर्म व्यक्त और अन्य कुछ धर्म अव्यक्त होते हैं। साधारण मनुष्य का ज्ञान इन्द्रिय और बुद्धि सापेक्ष होने के कारण सीमित और अपूर्ण है। इस सीमित ज्ञान से वस्तु के अव्यक्त गुण धर्मों को जानना असंभव हो जाता है। दूसरी ओर जो कुछ जाना गया है, उसे समग्ररूप से एक ही कथन में अभिव्यक्त करना भी असंभव है, क्योंकि भाषा की सीमा, ज्ञान की सीमा से भी न्यून है। उदाहरणार्थ किसी पुस्तक को देखते ही उसके रूप, रंग, मोटाई, लम्बाई, चौड़ाई, वजन, नाम आदि अनेक पहलुओं का ज्ञान तो हो जाता है, परन्तु इन समस्त पहलुओं को एक वाक्य में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है।03 ज्ञान और भाषा की सीमा को अनदेखा करके अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन किया जाय तो वस्तु के किसी एक गुण धर्म का विधान और अन्य गुणधर्मों का निषेध हो जाने से वह एकान्तिक कथन मिथ्या
हो जाएगा। क्योंकि वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है। न सर्वथा नित्य । है और न सर्वथा अनित्य है, न अपने गुणधर्मों से सर्वथा भिन्न है और न ही सर्वथा अभिन्न है। किन्तु अपने भावात्मक गुण धर्मों की दृष्टि से जो सत् है, वही तो अपने
101 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 252
102 न्यायदीपिका ' श्लो. 3/76 100 स्याद्वाद और सप्तभंगीनय, पृ. 50
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अपने अभावात्मक गुणधर्मों की दृष्टि से असत् है। जो किसी दृष्टि से नित्य है, वही तो किसी अन्य दृष्टि से अनित्य है। अतः भाषा की कोई ऐसी पद्धति चाहिए जो वस्तु के समग्र गुण धर्मों को अभिव्यक्त कर सके और साथ ही किसी भी गुणधर्म का निषेध न करे। ऐसी भाषा पद्धति ही स्याद्वाद है जो अनन्त धर्मात्मक और अनेकान्तिक वस्तु का यथार्थ स्वरूप को प्रतिपादन करती है। सर्वथा सत् और असत्, सर्वथा नित्य और अनित्य इत्यादि एकान्त कथनों का निराकरण करके वस्तु को कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि कहना अनेकान्तवाद है और इस अनेकान्तात्मक स्वरूप को प्रकाशित करने की विधि स्याद्वाद है।104 अनेकान्तवाद सत्ता के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करता है और स्याद्वाद अनेकान्तात्मक वस्तु के प्रतिपादन का सिद्धान्त है।105 अनेकान्तवाद की भाषात्मक अभिव्यक्ति के प्रारूप ही स्याद्वाद और सप्तभंगी है।06 स्याद्वाद भिन्न-भिन्न अपेक्षा से वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्मों का सापेक्ष रूप से निरूपण करता है। स्यात का अभिप्राय है – कथंचित् या विवक्षित दृष्टि से अनेकान्त रूप से कथन करना, प्रतिपादन करना ही स्याद्वाद है।
आप्तमीमांसा'08 के अनुसार जो किंचित् कथंचित्, कथंचन, आदि शब्दों के द्वारा एकान्त का निराकरण करके सप्तभंगीनय के माध्यम से विवेक्षित का विधान और अविवेक्षित का निषेध करता है, वह स्याद्वाद है।
डॉ. सागरमलजी का कथन है कि –“स्याद्वाद सिद्धान्त वस्तु को विभिन्न दृष्टियों से विश्लेषित करके उन विश्लेषित निर्णयों को एक ऐसी भाषा में प्रस्तुत करता है, जो अपने पक्ष का प्रतिपादन करते हुए भी वस्तु के अन्य अनेकानेक अनुक्त
104 अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वाद :- लघीयस्त्रय टीका - न्यायकुमुदचन्द्र,
तृतीयः प्रवचनं प्रवेशः, श्लो. 62 की टीका 105 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण - पृ. 231 106 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी – पृ. 22 107 स.सा./ता.व. स्याद्वाद अधिकार/513/17 स्यात्कथंचित विवक्षित प्रकारेणानेकान्त रूपेण वदनं वादो
जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वादः। - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृ. 498 108 स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् निवृत्तचिद्विधिः – आप्तमीमांसा, श्लो. 104
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धर्मों एवं पर्यायों का निषेध नहीं करता है। 109" स्याद्वाद सापेक्ष सिद्धान्त है जो वस्तु तत्त्व में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले नित्यानित्यता, सतासत्, भेदाभेद इत्यादि धर्मों का सापेक्षिक प्रतिपादन करके उनमें समन्वय प्रस्तुत करता है। संक्षेप में स्याद्वाद वस्तु के अन्य धर्मों का विधान या निषेध नहीं करते हुए वस्तु के किसी एक धर्म विशेष का विधान करता है।
स्याद्वाद में दो शब्द हैं – स्यात् और वाद । स्यात् शब्द तिङन्त पद न होकर अव्यय है। जिसका अर्थ है – कथंचित्, अपेक्षा विशेष, दृष्टि विशेष। वाद का अर्थ है सिद्धान्त, प्रतिपादन या मत। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा - स्यात्पूर्वक वाद करना या सापेक्षिक रूप से प्रतिपादन करना। जैनदर्शन के अनुसार वही कथन सत्य है जो सापेक्ष होता है। आधुनिक सापेक्षवाद के जनक प्रो. अलबर्ट आइंस्टीन का भी यह मन्तव्य था कि हम सिर्फ आपेक्षिक सत्य को ही ज्ञात कर सकते हैं, संपूर्ण सत्य को तो सर्वज्ञ ही जान सक्ता है।110 आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार स्यात् शब्द अपेक्षा की ओर संकेत करता है। जो कुछ कहा गया है और जो कुछ कहा जा रहा है, वह किसी अपेक्षा से ही कहा जाता है। अपेक्षा को नहीं समझने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है।111
इस विवेचन से यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद में निहित 'स्यात' शब्द, एक ओर वस्तु में विद्यमान अनेक गुणधर्मों का अपेक्षाविशेष से बोधक बनकर अनेकान्त का द्योतन करता है तो दूसरी ओर वस्तु के सभी गुण धर्मों के अपेक्षित विवक्षाओं का वाचक बन जाता है। 12 स्याद्वाद मंजरी के अनुसार स्यात् एक अव्यय है जो एकान्त का निराकरण और अनेकान्त का प्रतिपादन करता है। 13 इस प्रकार ‘स्यात्' शब्द का
109 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, प्र. 23 110 We can only know the relative truth. The obsolute truth is known only to the universal observer. -
Cosmology: Old and New. P. 201 ॥ अनेकान्त है तीसरा नेत्र – पृ. 44 im आप्तमीमांसा, का. 14 113 स्यादित्यव्ययअनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादः – स्याद्वादमंजरी, श्लो. 25 की टीका
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अर्थ शायद, संभवतः, कदाचित् नहीं है। ‘स्यात' शब्द सुनिश्चित सापेक्ष दृष्टिकोण का द्योतक है।
अतएव अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन के लिए और अन्य को वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध कराने के लिए स्याद्वाद ही श्रेष्ठ भाषा प्रणाली है। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है और स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की शैली है। अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। वस्तुतत्त्व के संपूर्ण धर्मों का युगपत् कथन संभव नहीं होने के कारण वक्ता अपनी विवक्षा के अनुसार किसी विशेष धर्म को मुख्य बनाकर तथा अन्य सभी धर्मों को गौण बनाकर कथन करता है। परन्तु श्रोता को मुख्य धर्म के साथ अन्य गौण धर्मों का भी बोध हो, इस दृष्टि से 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करके ही अनेकान्तवादी अपना कथन प्रस्तुत करता है। 14 इस दृष्टि से ही डॉ. पद्मराजे ने कहा है कि –'अनेकान्तवाद का स्थान जैनदर्श में हृदय का है तो नयवाद और स्याद्वाद का स्थान उसके रक्तवाहिनी धमनियों का है। अनेकान्तवाद रूपी पक्षी नयवाद और स्याद्वाद रूपी पंखों से उड़ता
है।115
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक भेदाभेद सम्बन्ध को सप्तभंगी और नयवाद के आधार पर ही सिद्ध किया है। रास की चतुर्थ ढाल में द्रव्य, गुण, पर्याय के भेदाभेद सम्बन्ध को सप्तभंगी के आधार पर समझाया है और 5, 6, 7, 8 ढालों में नयवाद की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है। जिसकी चर्चा हम षष्ठम् अध्याय में करेंगे।
114 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृ. 497
115 Anekanta is the heart of Jain Metaphysics and Nayavada and Syadvada (or Saptbhangi) are its main arteries. or to use a happier metaphor, the bird of Anekantavada flies on tis two wings of Nayavada and Syadavada. - late Dr. Y.J. Padmarajiah - A comparative study of the Jain Theories of Reality and Knowledge. P. 273
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सप्तभंगी
वस्तु अनेकान्तात्मक है और उसके इस अनेकान्तिक स्वरूप को प्रकाशित करने वाली निर्दोष भाषा पद्धति स्याद्वाद है । भाषायी अभिव्यक्ति के 'हैं', 'नहीं है', 'कुछ कहा नहीं जा सकता है' आदि मुख्य तीन विकल्पों को प्रस्तुत करने वाली सप्तभंगी है। वस्तु के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की सुनिश्चित संगति बिठाने के लिए विधि, निषेध आदि की विवक्षा से जो सात भंग होते हैं, वही सप्तभंगी है । 116 अनेकान्तवादी के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु के समग्र स्वरूप को एक साथ स्पष्ट कैसे करें ? जिससे वस्तु के अनंत धर्मों का प्रतिपादन हो सके। ऐसा संभव नहीं होने के कारण सारे धर्मों का क्रमिक विवेचन ही किया जाता है। इन क्रमिक विवेचनों में परस्पर समन्वय बनाये रखने के लिए 'स्यात्' ( अपेक्षा विशेष) शब्द को जोड़कर ही कथन किया जाता है। यह कथन भी किसी न किसी विधि या निषेध रूप में ही किया जा सकता है। इस प्रकार सप्तभंगी का मुख्य लक्ष्य है विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्मों का विधि निषेध करके, किसी एक अपेक्षित धर्म का विधान करना । 117
आचार्य अकलंक के अनुसार सप्तभंगी की परिभाषा इस प्रकार है 'प्रश्न के आधार पर वस्तु में अविरूद्ध रूप से जो विधि और निषेध की परिकल्पना की जाती है, वह सप्तभंगी है | 118
101
―
डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार सप्तभंगी अनंतधर्मात्मक वस्तु के पूर्ण स्वरूप को दृष्टि में रखकर, उसके अनुक्त धर्मों की संभावना का निषेध न करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक रूप से वस्तु तत्त्व के किसी एक धर्म का मुख्य रूप से
116 सप्तभिः प्रकारैर्वचन - विन्यासः सप्तभंगीतिगीयते । स्यादवादमंजरी का. 23 की टीका
117 धर्मदर्शनः मनन और मूल्यांकन, पृ. 182
18 प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि - प्रतिषेध विकल्पना सप्तभंगी । तत्त्वार्थराजवार्तिक 1/6/5
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102
प्रतिपादन करने वाली कथन पद्धति है।19 वस्तु के किसी भी धर्म के स्वरूप सम्बन्धी सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाना ही सप्तभंगी है।120
अनन्तभंगी नहीं हो सकती है :
भंग सात ही हो सकते हैं। न सात से अधिक भंग की संभावना है और न ही सात से न्यून भंग ही हो सकते हैं। एक तत्त्व पिपासु व्यक्ति तत्त्वस्वरूप को जानने की अभिलाषा से अपनी जिज्ञासा, शंका को अधिक से अधिक सात प्रश्नों के द्वारा ही प्रकट कर सकता है। क्योंकि वस्तु के एक धर्म-स्वरूप सम्बन्धी जिज्ञासाएं अथवा शंकाएं सात ही हो सकती है। इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने सात प्रकार के प्रश्नों के समाधान हेतु सात भंगों की परिकल्पना की है। अतः सप्तभंगी, तत्त्वजिज्ञासु के प्रश्नों के उत्तर के रूप में है।121
गणित शास्त्र के अनुसार भी तीन मूल वचनों के संयोगी, असंयोगी और अपुनरूक्त ये सात ही भंग हो सकते हैं। इसी नियम के आधार पर विधि, निषेध और अव्यक्तता से सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, यही सप्तभंगी है।122 सामान्य रूप से वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में विधिपूर्वक 'है' कहा जा सकता है या निषेधपूर्वक 'नहीं' कहा जा सकता है और कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित होती है कि 'है' और 'नहीं' दोनों को ही स्पष्टतया नहीं कहा जाता है। ऐसी स्थिति में कुछ कहा नहीं जा सकता है' ऐसा वाक्य का प्रयोग होता है। क्योंकि इस मध्यम अनुभूति को व्यक्त करने के लिए भाषा के पास कोई शब्दावली नहीं है। इस कारण से मूल भंग तीन हैं। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य ये प्रथम तीन भंग मौलिक भंग है; स्यात् अस्ति–नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात्
119 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, पृ. 23 120 सप्तानां – भंङ्गानां-वाक्यानां, समाहारः समूहः सप्तभंगीति – सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. 1 2 धर्मदर्शनः मनन और मूल्यांकन, पृ. 170 122 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, पृ. 24
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नास्ति - अवक्तव्य
अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य ये त्रिसंयोगी भंग हैं (3+3+1=7) | 123
ये तीन द्विसंयोगी भंग है और अन्तिम स्यात्
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की चतुर्थ ढाल में सप्तभंगी का विवेचन करते हुए लिखा है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के संयोग से करोड़ों भंग बन सकते हैं। 124 इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु के किसी एक धर्म की स्वद्रव्यादि चतुष्क के विधान या पर द्रव्यादि चतुष्क के निषेध में से किसी एक की अपेक्षा से तो एक सप्तभंगी ही बन सकती है। जैसे मिट्टी का घड़ा स्वद्रव्य (मिट्टी) की अपेक्षा से अस्ति रूप है । परद्रव्य सुवर्ण की अपेक्षा से नहीं है (नास्ति ) । क्योंकि उसमें स्वर्णत्त्व का अभाव है। दोनों के युगपत् कथन की अपेक्षा से अवक्तव्य है, इत्यादि घट के अस्तित्व धर्म के सात भंग ही बन सकते हैं। घट के इस एक अस्तित्व धर्म के अनन्त भंग नहीं बन सकते हैं । वस्तु में केवल अस्तित्व धर्म ही नहीं है, अपितु अनन्त धर्म हैं । अतः जिस प्रकार स्वद्रव्य की अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म की एक सप्तभंगी बनती है, उसी प्रकार वस्तु के स्व पर चतुष्क की अपेक्षा से या अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगियां बन सकती हैं। 125 वस्तु के अनन्तधर्मात्मक होने के कारण स्वद्रव्य, स्वकाल, स्वक्षेत्र, स्वभाव तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से अनंत सप्तभंगियां निर्मित होती हैं। डॉ. सागरमलजी जैन के शब्दों में जैसे वस्तु के एक गुणधर्म की अपेक्षा से एक सप्तभंगी निर्मित होती है उसी प्रकार वस्तु के अनन्त गुण धर्मों की अपेक्षा से अनन्त सप्तभंगियां बन सकती हैं। इस दृष्टि से ही यशोविजयजी ने करोड़ों भंगों की बात कही है। इस बात को समझाने के लिए उन्होंने घट में सप्तभंगी को घटाया है । घट एक वस्तु होने से अनन्तधर्मात्मक है । घट के इन अनन्त धर्मों में से अस्तित्व भी एक गुणधर्म है। घट में अस्तित्व धर्म के स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा से विधि और निषेध के आधार पर निर्मित सप्तभंगी को यशोविजयजी ने इस प्रकार समझाया है -
123 अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी, पृ. 24
124 क्षेत्र काल भावादिक योगइ, थाई भंगनी कोड़ी रे
संखेपइ अ ठामि कहिइ, सप्तभंगनी जोड़ी रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/9
125 तिम क्षेत्रादिक विशेषणइं पणि अनेक भंग थाई - द्रव्यगुणपयार्यनोरास का टबा गा. 4/9
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1. प्रथम भंग : स्याद् अस्ति -
प्रथम भंग का आशय है, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तुविशेष अस्तित्वयुक्त है। यहां स्वचतुष्टय की अपेक्षा से विधि की विवक्षा की गई है।126 जैसे- स्याद् अस्ति घटः । विवक्षित मिट्टी का घट अपने द्रव्य की अपेक्षा से मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से शाजापुर का है, काल की अपेक्षा से शरद ऋतु का है, भाव की अपेक्षा से, वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है। इस प्रकार वस्तु के स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक गुणों का विधान करना प्रथम भंग का कार्य है। ‘स्यात्' शब्द का अर्थ है 'विवक्षित द्रव्यादि की अपेक्षा से', अतः प्रथम भंग का तात्पर्य यह हुआ कि कथंचित् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट का अस्तित्व।127
2. द्वितीय भंग : स्याद् नास्ति -
द्वितीय भंग का तात्पर्य है, पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का अभाव। यहां परचतुष्टय के निषेध की विवक्षा है।128 जैसे- स्याद् नास्ति घट। विवक्षित मिट्टी का घट परद्रव्यकी अपेक्षा से सुवर्ण का नहीं है। पर क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर का बना हुआ नहीं है, पर काल की अपेक्षा से ग्रीष्म ऋतु का नहीं है, पर भाव की अपेक्षा से श्याम वर्ण का नहीं है। इस प्रकार परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के अभावात्मक गुणों का निषेध करना द्वितीय भंग का कार्य है।
प्रत्येक वस्तु में विधि-निषेध दोनों होते हैं। अस्तित्व धर्म के साथ नास्तित्व भी रहता है। इस भंग में घट के नास्तित्व धर्म का विधान प्रधान रूप से होने पर भी वह नास्तित्व एकान्तरूप से नहीं है। गौण रूप से अस्तित्व को समझाने के लिए 'स्यात्'
126 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 263 127 स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपेक्षाई घट छाइ ज। द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9 128 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 263
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शब्द रखा गया है अर्थात् नास्तित्व धर्म पर द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से है । इस प्रकार द्वितीय भंग का आशय है कि कथंचित् परचतुष्टय की अपेक्षा से घट का नास्तित्व है । '
129
3. स्यादवक्तव्य :- स्याद् अवक्तव्यो घटः
इस सप्तभंगी के तृतीय भंग में स्वचतुष्टय और परचतुष्टय, दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म की अभिव्यक्ति की असमर्थता बताई गई है।
-
शब्दशक्ति की सीमितता के कारण वस्तु के किसी एक धर्म के विधि उल्लेख में उसका निषेध रह जाता है और निषेध के उल्लेख में विधि रह जाती है। विधि निषेध की युगपद् वक्तव्यता संभव नहीं है । 130 पदार्थ में स्वद्रव्य आदि से अस्तित्व धर्म और परद्रव्य आदि से नास्तित्व धर्म दोनों एक साथ ही विद्यमान रहते हैं । परन्तु इन दोनों धर्मों को एक साथ और एक ही शब्द द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए भाषा में ऐसा कोई पारिभाषिक शब्द नहीं है । अस्तित्व, नास्तित्व रूप घट की दोनों पर्यायों की युगपद् अभिव्यक्ति संभव नहीं होने से घट कथंचित् अवक्तव्य है । 131 अर्थात् घट की वक्तव्यता युगपद् में नहीं है। तृतीय भंग इस बात का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है कि अस्तित्व - नास्तित्व का युगपद् वाचक शब्द नहीं होने से विधि-निषेध का युगपत्व अवक्तव्य है । 132 एकान्त अवक्तव्यता का निराकरण के लिए स्यात् - गया है, क्योंकि क्रमशः कथन तो संभव है ।
- शब्द रखा
129
परद्रव्य क्षेत्र काल भावा पेक्षाइं नथी जा ।
130 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 264
131 एकवारइं – उभयविवक्षाइं अवक्तव्य ज, 2 पर्याय एक शब्दइ मुख्यरूपइ नकहवाइज
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4 / 9
132 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9
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4. स्याद् अस्ति–नास्तिः स्याद् अस्तिनास्ति च घट :
चतुर्थ भंग यह सूचित करता है कि स्वद्रव्यादि चतुष्टय और परद्रव्यादि चतुष्टय, इन दोनों की क्रमिक अपेक्षा से वस्तुविशेष में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म है। इस भंग में पहले विधि और बाद में निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है।33 जैसे– स्याद् अस्ति नास्ति च घटः। यशोविजयजी के कथनानुसार विवक्षित मिट्टी के घट का स्वरूप स्वद्रव्यादिचतुष्क की दृष्टि से अस्तित्वात्मक है एवं परद्रव्यादिचतुष्क की दृष्टि से नास्तित्वात्मक है। परन्तु क्रमशः विचार करने पर घट का स्वरूप कथंचित् अस्ति–नास्ति उभयरूप है।34 स्यात् शब्द इस बात को स्पष्ट करता है कि वस्तु एकान्तः अस्ति–नास्ति रूप नहीं परन्तु पृथक्-पृथक् रूप से अस्ति, नास्ति आदि रूप में भी है।
5. स्याद् अस्ति–अवक्तव्य :- स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घट: -
इसमें प्रथम और तृतीय भंग (स्याद् अस्ति और स्यादवक्तव्य) की क्रमिक अपेक्षा से वस्तुविशेष का युगपत् विवेचन है। यहां प्रथम विधि और बाद में युगपत् विधि-निषेध की विवक्षा है।35 जैसे - स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घटः। प्रथम स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से घट है, ऐसा विचार किया जाता है और बाद में स्वचतुष्टय और परचतुष्टय -दोनों की युगपद् अपेक्षा से घट का युगपत् अस्तित्व
और नास्तित्व अवक्तव्य है, ऐसा विचार किया जाता है।136 अतः पंचम भंग का तात्पर्य है – कथंचित् घट है और अवक्तव्य भी है।
133 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 264 134 एक अंश स्वरूपई, एक अंश पररूपइं, विवक्षइं, तिवारइं "छइ नई नथी -
- द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9 135 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265 136 एक अंश स्वरूपइ, एक अंश युगपत् उभय रूपइ विवक्षीइ, तिवारइ, "छइ अनदं अवाच्य -
- द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.4/9
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6. स्याद् नास्ति अवक्तव्यः स्याद् नास्ति अवक्तव्यो घट :
इस भंग में द्वितीय और तृतीय भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत विवेचन है। यहां प्रथम निषेध करके बाद में युगपत् विधि-निषेध की विवक्षा की गई है।137 जैसे – स्याद् नास्ति अवक्तव्यो घटः। प्रथम परद्रव्य आदि से घट के नास्तित्व धर्म की विवक्षा करके पश्चात् युगपत अस्तित्व–नास्तित्व धर्म के कथन की अपेक्षा से घट की अवक्तव्यता की विवक्षा की गई है। इस भंग का तात्पर्य है कि कथंचित् घट नहीं है और कथंचित् अवक्तव्य भी है।138
7. स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्यः – स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो घट:
इस अन्तिम भंग में तृतीय और चतुर्थ भंग की युगपत् अपेक्षा से वस्तुविशेष को विवेचित किया है। यहां पर पहले विधि, दूसरे निषेध और तीसरे युगपत् विधि निषेध की विवक्षा की गई है।139 जैसे –स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः। घट के स्वद्रव्यादि चतुष्क अपेक्षा से अस्तित्वस्वरूप की, परद्रव्यादि की अपेक्षा से नास्तित्व स्वरूप की और दोनों की युगपत् कथन की अपेक्षा से अवाच्यात्मक स्वरूप की विवक्षा करने पर कथंचित् घट है, घट नहीं है, घट अवक्तव्य है, इस प्रकार कहा जाता है। 140
यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के चतुर्थ ढाल की 9 वी गाथा के टबे में सप्तभंगी को समझाने के उपक्रम में तीसरे भंग के रूप में स्याद् अवक्तव्य और चतुर्थ भंग के रूप में स्याद् अस्ति–नास्ति को माना है जबकि इसी ढाल की आगे के गाथाओं में द्रव्य, गुण, पर्याय के भेदाभेद सम्बन्ध को समझाने के संदर्भ में तीसरे भंग के रूप में स्याद्भिन्नाभिन्नमेव को और चतुर्थ भंग के रूप में स्याद्अवक्तव्य को माना है।
137 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265 138 एक अंश पररूपइ, एक अंश युगपत् उभयरूपइ विवक्षीइ, ति वारइं "नथीनई अवाच्य" 139 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265 140 एक अंश स्वरूपई, एक (अंश) पररूपई, एक (अंश) युगपत्, उभय रूपइ विवक्षीइ तिवारइ "छइ, नथी, नई अवाच्य" -
..............द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टबा, गा. 4/9
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2. अनेकान्तवाद और नयवाद :
जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों में अनेकान्तवाद और नयवाद प्रमुख हैं। जैनदर्शन में वस्तु तत्त्व के विवेचन की शैली मूलतः अनेकान्तवाद और नयवाद पर आधारित है। वस्तु की अनंतधर्मात्मकता की स्थापना अनेकान्तवाद है और वस्तु तत्त्व के स्वरूप का विवेचन किस आधार पर किया गया है, वह दृष्टि नयवाद कहलाती है। अनंत धर्मात्मक वस्तु को अपेक्षा भेद से जिस आधार पर समझा जाता है, उसे नयवाद कहा जाता है। वक्ता के कथन को उसकी विवक्षा सहित समझने की जो शैली है, उसे ही जैन दार्शनिकों ने नय के रूप में विवेचित किया है। वस्तुतः सत्ता के विवेचन की दो शैली रही हुई है। एक संश्लेषणात्मक और दूसरी विश्लेषणात्मक है। वस्तु तत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न एकान्तवादों का निराकरण करके उनको समन्वित करते हुए जो संश्लेषणात्मक विवेचन होता है, उसे अनेकान्तवाद कहते हैं। इसके विपरीत वस्तु तत्त्व के एक पक्ष को प्रमुख करके जो दृष्टिविशेष पर आधारित विवेचन शैली होती है, उसे नयवाद कहा जाता है।
अनेकान्तवाद वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्षों को संश्लेषित करके प्रतिपादन करता है, जबकि नयवाद वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्षों में किसी एक पक्ष को मुख्य और अन्य पक्ष को गौण करके विश्लेषणपूर्वक विवेचन करता है। अनेकान्तवाद और नयवाद दोनों ही वस्तु तत्त्व के विवेचन की शैली है। अनेकान्तवाद समग्रग्राही और नयवाद अंशग्राही है। जैन दार्शनिकों ने वस्तु तत्त्व के विवेचन में इन्हीं दो शैली का आश्रय लिया है। संश्लेषणात्मक शैली को अनेकान्तवाद और विश्लेषणात्मक शैली को नयवाद कहा गया है। आगे हम इन दोनों ही शैलियों का विस्तार से विवेचन करेंगे।
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अनेकान्तवाद और नयवाद का सहसम्बन्ध :
यदि अनेकान्तवाद के आधार पर यह माना जाता है कि वस्तु अनंत धर्मात्मक है तो भाषाशास्त्र की दृष्टि से वस्तु के उन अनंत धर्मों का कथन एक साथ संभव नहीं है। क्योंकि किसी वस्तु के संदर्भ में कोई भी कथन किसी एक गुण-धर्म को लेकर ही संभव है, चाहे उस गुण-धर्म का विधान या निषेध किया जाय। न तो अनंत धर्मों का कथन, न किसी एक गुण-धर्म का विधि और निषेध का कथन युगपत् रूप से संभव है। कोई भी कथन निरपेक्ष नहीं होता है। जिस प्रकार यदि हम किसी वस्तु का फोटो खींचना चाहे और यह कहें कि हम किसी भी एंगल से फोटो नहीं लेंगे तो फोटो खींच पाना ही संभव नहीं होगा। इसी प्रकार कोई भी कथन किसी न किसी विवक्षा से ही होता है। विवक्षा के आधार पर किसी गुण धर्म को मुख्य बनाकर कथन किया जाता है। शेष गुण-धर्मों को गौण मानकर उनकी विवक्षा नहीं रखी जाती है। अतः अनेकान्तवाद को स्वीकार करने पर नयवाद को स्वीकार करना ही पड़ता है।
नयवाद इस बात को स्वीकार करता है कि अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक गुण-धर्म का विधान या निषेध किस अपेक्षा से किया गया है। नयवाद का मुख्य उद्देश्य वस्तु तत्त्व के किसी एक गुण-धर्म विशेष का किसी अपेक्षा विशेष के आधार पर प्रतिपादन या निषेध करना होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकान्तवाद और नयवाद दोनों एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। अनंत धर्मात्मक वस्तु के धर्मविशेष का प्रतिपादन नय-विशेष के आधार पर ही होता है।
एक अन्य दृष्टि से देखें तो वस्तु सामान्य–विशेषात्मक है। अनेकान्तिकदृष्टि वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखती है, किन्तु उस अनुभूत वस्तु के विविध पक्षों का युगपत् रूप से प्रतिपादन तो संभव नहीं होता है। अतः उसे कहने के लिए नय का आश्रय लेना ही पड़ता है। यदि अनंत धर्मात्मक वस्तु के संदर्भ में नयवाद को स्वीकार नहीं करें तो वह वस्तु अनुक्त ही रह जाएगी। जिस प्रकार फोटो खींचने में एंगल आवश्यक है, उसी प्रकार वस्तु के प्रतिपादन के संदर्भ में नयवाद आवश्यक है।
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जैनदर्शन में कहा गया है कि सर्वज्ञ सब कुछ जानने पर भी, उसे कहना चाहे तो सापेक्ष रूप से, नयवाद से ही कह सकता है। अनेकान्तवाद मूक है और नयवाद उसे वाणी प्रदान करता है।
सत्ता अनंत धर्मात्मक होते हुए भी नयदृष्टि के अभाव में वह अलुप्त या अवाच्य ही रह जाती है, क्योंकि बिना नयवाद का सहारा लिए अनेकान्तवाद को समझना भी मुश्किल होता है। अनेकान्वाद वस्तु के तात्त्विक स्वरूप का प्रतिपादन करता है। किन्तु यह प्रतिपादन नयवाद के बिना संभव नहीं हो पाता है। वस्तुतः अनेकान्तवाद और नयवाद एक दूसरे के पूरक हैं। इसीलिए वस्तु के सम्यक् स्वरूप के प्रतिपादन में दोनों की अहम भूमिका रही हुई है। अनेकान्तवाद प्रतिपाद्य है जबकि नयवाद प्रतिपादन है। अनेकान्तवाद के बिना वस्तु तत्त्व को सम्यक् रूप से नहीं जाना जा सकता है, ठीक इसी प्रकार बिना नयवाद के वस्तु स्वरूप को भी नहीं बताया जा सकता है।
जैनदर्शन में नय-स्वरूप और नय-विभाजन नय-स्वरूप :
जैनदर्शन अनेकान्तवाद का पोषक दर्शन होने से वस्तु को अनन्तधर्मात्मक मानता है। उसके अनुसार दो विरोधी गुण धर्म यदि वे एक दूसरे के व्याघातक न हो जैसे जीव में चेतन अचेतन गुण तो वस्तु में एक साथ या सहभावी होकर रहते हैं। जैसे - आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है, शुद्ध भी है, अशुद्ध भी है, एक भी है, अनेक भी है, मूर्त भी है, अमूर्त भी है। वस्तु के अनेक धर्म होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से ही वस्तु का कथन करता है। जैसे- व्यक्ति में अनेक सम्बन्धों के होते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति (सम्बन्धी) उसे अपनी दृष्टि से ही सम्बोधित करता है। उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है, तो उसका पिता उसे पुत्र कहकर पुकारता है। किन्तु व्यक्ति न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है, । अपितु अन्य अनेक सम्बन्ध भी व्यक्ति के साथ लगे हुए रहते हैं। ऐसी
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अनन्तधर्मात्मक वस्तु को जाना तो जा सकता है, परन्तु उसे निरपेक्ष रूप से वाणी के द्वारा कहा जाना अथवा उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। वस्तु के किस धर्म को पहले कहा जाए और उसके कौन से धर्म को बाद में कहा जाए, इसका कोई पौर्वापर्य नियम भी नहीं बन पाता है। इसलिये जैनदर्शन में वस्तु के एक-एक धर्म को क्रमपूर्वक निरूपण किया जाता है। वस्तु के इस सापेक्ष निरूपण की प्रक्रिया ही नय अथवा नयमार्ग है।141 संक्षेप में किसी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहते
जो दर्शन एकान्वादी हैं, वे वस्तु को एक धर्मात्मक ही मानते हैं। इसलिए उनमें प्रमाण के सिवाय अंशग्राही के ज्ञान के रूप में नय की कोई चर्चा ही नहीं है। किन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन का काम नय के बिना नहीं चल सकता है, क्योंकि अनेकान्त का मूल नय है। कहा भी है - णयमूलो अणेयंतो42 अर्थात् अनेकान्त नयमूलक है।
नय का सिद्धान्त जैनदर्शन का अपना विशिष्ट सिद्धान्त है। जड़ और चेतन के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए यह सिद्धान्त एक सर्वांगीण दृष्टि प्रस्तुत करता है। यह सिद्धान्त विभिन्न एकांगी दृष्टियों में सुन्दर व साधार समन्वय स्थापित करता है। नय किसी वस्तु को समझने के लिए दृष्टिकोण विशेष है। किसी एक ही वस्तु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। जैसे- उद्यान में जाने के अनेक मार्ग होते हैं। कोई पूर्व से जाता है तो कोई पश्चिम से जाता है, तो कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण मार्ग से जाता है। किन्तु अन्दर जाकर वे सभी मार्ग परस्पर मिल जाते हैं। इसी प्रकार एक ही वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं और उन सबका परस्पर समन्वय भी होता है। यह विभिन्न दृष्टिकोणों के समन्वय का मार्ग ही नयमार्ग है। 143
14। जैनदर्शन में नय की अवधारणा, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ.1 12जस सत्थाणं माई ................... नयचक्र, गा. 175 13 नयवाद, मुनि फूलचन्द्र, पृ. 15
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नय प्रमाता का एक दृष्टिाकोण विशेष है जिसमें किसी वस्तु के अन्य पक्षों को छोड़कर एक विशेष पक्ष को समझाने का संकल्प छिपा रहता है।44 आगम में नय को नेत्र की उपमा दी गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि नय वस्तु के पक्ष विशेष को जानने का साधन है। आचार्य माइल्लधवल का कथन है -"अपने-अपने प्रतिनियत स्वभाव से युक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को नय और प्रमाण रूपी नेत्रों से देखना चाहिए।145 उन्होने यह भी कहा है कि – जो नयरूपी दृष्टि से रहित हैं उन्हें वस्तु के स्वरूप का सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तुस्वरूप के सम्यग्ज्ञान से रहित जीव सम्यग् दृष्टि नहीं हो सकता है।
भगवान महावीर के पश्चात् विभिन्न युगों में होने वाले जैन आचार्यों ने समय-समय पर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद की युगानुकूल व्याख्या करके उसे पल्लवित और पुष्पित किया है। इस क्षेत्र में सबसे अधिक और सबसे पहले अनेकान्तवाद और नयवाद को विशद रूप देने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा आचार्य समन्तभद्र ने किया। आचार्य सिद्धसेन ने अपने ‘सन्मतितर्क प्रकरण नामक ग्रंथ में नयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया हैं मध्ययुग में इस कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढ़ाया। नव्यन्याय युग में वाचक यशोविजयजी ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद को नव्यन्याय की शैली में नयरहस्य, नयोपदेशादि तर्क ग्रन्थ लिखकर इन सिद्धान्तों को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया।
भारतीय दर्शन, यदुनाथ सिन्हा, पृ. 51 5 जीवा पुग्गलकालो .............. नयचक्र, गा. 3
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नय की निरूक्तिपरक व्याख्या :
णीन् प्रापणे धातु में अच् प्रत्यय लगने पर नय पद सिद्ध होता है। इसका एकमात्र अर्थ है – ले जाना या प्राप्त करना। ज्ञान के क्षेत्र में वस्तु का बोध करना व कराना ही नय है। जो वस्तु के ज्ञान की ओर ले जाता है अर्थात् उसका सम्यक् बोध कराता है वह नय है – नयन्ति गमयन्ति प्राप्नुवन्ति वस्तु ये ते नयः146 उमास्वातिजी की दृष्टि में जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बताते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।147 इसका तात्पर्य है, वस्तु के नाना स्वभावों या गुणों को हटाकर वस्तु के एक स्वभाव या गुण को जो प्राप्त कराये वह नय है।148 संसार में व्यवस्थित पदार्थों का जैसा स्वरूप है, उसका
वैसा ही बोध अथवा ज्ञान जिससे कराया जाता है, वह नय है।149 'स्यादवादमंजरी' में जिस नीति के द्वारा एकदेश से अर्थात् आंशिक रूप से वस्तु के विशिष्ट गुणधर्म को लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहा गया है।
__ नय जैनदर्शन का एक दृढ़तम आधार स्तम्भ रहा है। अनुयोगद्वारसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, तत्वार्थाधिगमसूत्र, सन्मतितर्क, नयचक्र आप्तमीमांसा, आलापपद्धति, अनेकान्तजयपताका, न्यायावतार, नयरहस्य, नयोपदेश, द्रव्य-गुण-पर्यायनोरास आदि अनेक ग्रन्थों में नय का विशद वर्णन उपलब्ध है। इन ग्रन्थों में आगमिक परंपरा का अनुसरण करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोण से नय को परिभाषित किया गया है। इन सभी ग्रन्थों के लेखकों ने नय के स्वरूप पर चार प्रकार से प्रकाश डाला है -
1. प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना नय है।
1% उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. 138 17 जीवादीन् पदार्थान् .............. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, 1/35
नानास्वभावेभ्यो .............. आलाप पद्धति, सू. 181 नयचक्र परिशिष्ट, पृ. 224
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2. श्रुतज्ञान का विकल्प विशेष नय है।
3. ज्ञाता का अभिप्राय नय है।
4. वस्तु के नाना स्वभावों अर्थात् गुणों को गौण करके किसी एक स्वभाव या गुण
के द्वारा वस्तु का कथन करना नय है।
1. नयप्रमाण परिगृहीत वस्तु का एक अंश :
जिससे वस्तु तत्त्व का निर्णय किया जाता है, उसे सम्यक्रूप से जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण वस्तु के संपूर्ण अंशों को ग्रहण करता है। अनेक धर्मों से विशिष्ट वस्तु प्रमाण रूप ज्ञान का विषय है और किसी एक धर्म से विशिष्ट उस वस्तु का ज्ञान नय का विषय है।150 वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अपेक्षा विशेष द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है।51 समन्तभद्राचार्य ने अपनी आप्तमीमांसा में नय के हेतुपरक स्वरूप को दिखलाते हुए कहा है कि साध्य का सधर्मा होने से जो बिना किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वादरूप नीति से विभक्त अर्थ विशेष का व्यंजक होता है, वह नय कहलाता है।152 प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ की विशेष प्ररूपणा करनेवाला नय है।153 प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के ज्ञान या कथन के एक अंश को नय कहते हैं।154 नय वक्ता का वह अभिप्राय है जो श्रुतज्ञान प्रमाण से ज्ञात पदार्थ के एक अंश को जानकर अन्य अंशों के प्रति उदासीन रहता है।155 नय उस वस्तु का एकांश ज्ञान है जो प्रमाण से निश्चित है। अर्थात् प्रमाण द्वारा निश्चय हो जाने पर उसके उत्तरकालभावी परामर्श ही नय हैं।157
150 अनेकान्तात्मकवस्तु गोचर ................ न्यायवतार, कारिका, 29 151 एवं हयुक्तं प्रग्रह्य प्रमाणतः तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, 1/6 152 सधर्मणैव साध्यस्य .................... आप्तमीमांसा, श्लो. 106 153 प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको नयः .... ... राजवार्तिक, 1/33 154 प्रमाणेन वस्तु संगृहीतार्थेकांशो नयः ................. आलापपद्धति, सू. 181 155 नीयते येन श्रुतारत्थानप्रमाण ................
प्रमाणनयतत्त्वालंकार, 7/1 156 प्रमाणप्रतिपन्नायैकदेशपरामर्शो नयः ............
.. स्याद्वादमंजरी, श्लो. 28 157 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 514
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प्रमाण परिगृहीत वस्तु का एकांश नय किस प्रकार है, इस बात को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैं – प्रमाण अनन्त धर्मात्मक समस्त वस्तु का ग्राहक होता है, जबकि नय केवल उसके एक धर्म को ग्रहण करता है। इस कारण नय, प्रमाण का एक अंश हैं यही प्रमाण और नय में अन्तर है। जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र ही। इसी प्रकार नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है। वह प्रमाण का एक अंश है।158
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में वस्तु के त्रयात्मक स्वरूप को समझाते हुए नय को एकांशग्राही बताया है।159 घट-पटादि लौकिक पदार्थ तथा जीव, अजीव आदि लोकोत्तर पदार्थ द्रव्य, गुण, पर्याय रूप से त्रयात्मक हैं। घट मिट्टी से अभिन्न होने से द्रव्यात्मक, घटरूप मिट्टी की अवस्था विशेष होने से पर्यायात्मक तथा श्यामादि रूप-रंगादि गुणों से अभिन्न होने से गुणात्मक है। जीव भी जीवरूप से द्रव्यात्मक, मनुष्यादि रूप से पर्यायात्मक ज्ञानादि रूप से गुणात्मक
आगे यशोविजयजी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में लिखते हैं - त्रयात्मक पदार्थ का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है। प्रमाण द्रव्यादि त्रयात्मक (द्रव्य, गुण, पर्याय) वस्तु को मुख्यवृत्ति से जानता है। 60 प्रमाण पदार्थ का सर्वांशग्राही बोध है। जैसे प्रमाण घट को गुण पर्याय से अभिन्न मृदद्रव्य मानता है। नय अनन्त पर्यायों और गुण से युक्त पदार्थ के किसी एक धर्म का निश्चय करता है या अनेक दृष्टिकोणों से परिष्कृत वस्तु तत्त्व के एकांश को ग्रहण करता है। जैसे – द्रव्यार्थिक नय पदार्थ को द्रव्यात्मक मानता है तो पर्यायार्थिक नय वस्तु को पर्यायात्मक मानता है। परन्तु ये
158 प्रमाणैकदेशत्वात् ...........
जैनतर्कभाषा, पृ. 59 159 नयवादी जे एकांशवादी ..................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 5/1 160 एक अरथ त्रयरूप छाई, देखयो भलइ प्रमाणइ रे मुख्यवृत्ति उपचारथी, नयवादी पण जाणइ रे .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/1
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दोनों ही नय वस्तु के इतर अंश को गौणरूप से स्वीकार करते हैं। नयवादी वस्तु के द्रव्य, गुण, पर्याय में से एक को मुख्यवृत्ति से मानते हैं तो शेष दो को लक्ष्णारूप उपचार से मानते हैं।161
2. श्रुतज्ञान का विकल्प नय :
आचार्य पूज्यपाद ने प्रमाण के दो भेद किए हैं – एक स्वार्थ प्रमाण और दूसरा परार्थ प्रमाण। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं।162 सर्वार्थसिद्धि में श्रुतज्ञान के भी दो भेद किये गये हैं – एक स्वार्थश्रुतज्ञान और दूसरा परार्थश्रुतज्ञान । स्वार्थश्रुतज्ञान ज्ञानात्मक होता है और वचनात्मक श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाणरूप है तथा इसी श्रुतज्ञान का विकल्प भेद नय कहलाता है। 183 श्रुतप्रमाण के द्वारा जाने गए अर्थ के किसी एक धर्म का कथन करना नय है।164
नय सर्वदेश और कालवर्ती पदार्थों को जानने में समर्थ है। जबकि मतिज्ञान आदि ज्ञानों का विषय परिमित है।165 केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है। किन्तु नय परोक्ष होने से उन्हें परोक्षरूप से जानता है। अतः श्रुतज्ञान के बिना मति आदि चारों ज्ञानों में नय का अभाव ही है। श्रुतज्ञान में ही नयों का समवतार हो सकता है। श्रुतज्ञान को ज्ञान का मूलकारण मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है। श्रुतज्ञान का आश्रय लिये हुए
वही
161 यद्यपि नयवादी नई एकांश वचनई ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 5/1 162 तत्र प्रमाणं द्विविध ............ .......... . तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, 1/6 13 श्रुतं पुनः स्वार्थ
.............. - नीयते गम्यते येन श्रुतायो नयो हि सः .... तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/88/6 hts जैनदर्शन में नय की अवधारणा, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 7 9 नयवाद, मुनि फूलचन्द्र, पृ. 13 7 श्रुतमूला नया सिद्धो
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 2/1/6
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ज्ञान का, जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है, वही नय कहलाता है । '
169
इसलिए श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं । '
3. ज्ञाता या वक्ता का अभिप्राय नय :
प्रमाण का विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है । प्रमाण वस्तु के संपूर्ण अंगों के समस्त धर्मों को ग्रहण करता है। किन्तु अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म की मुख्यता से जब वक्ता अपने अभिप्राय के अनुसार कथन करता है, तब वह नय का विषय बन जाता है। जैसे एक ही स्त्री किसी की पत्नी है तो किसी की माता भी है । अनेक सम्बन्धों की अपेक्षा से उसके अनेक सम्बन्धी भी है । किन्तु मातृत्व धर्म की विवक्षा से पुत्र उसे माँ कहेगा तथा पत्नीत्व धर्म की विवक्षा से पति उसे अपनी पत्नी बतायेगा। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। 170 लगभग यही अभिप्राय आलापपद्धति 171 में निर्दिष्ट नय के लक्षण में देखा जाता है ।
172
आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एकांश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय बताया है । 17 इस व्याख्या में अनिराकृत प्रतिपक्ष पद रखकर गौण शब्द को स्पष्ट किया है। जिन धर्मों को प्रतिपक्ष मानकर गौण किया गया है, उनका निराकरण या निषेध नहीं किया गया है। अपितु उन धर्मों के विषय में मौन रखा गया है। यही गौणता है। अतएव मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा से नहीं, बल्कि वक्ता या ज्ञाता के अभिप्राय के अनुसार होती है । 173 इस प्रकार अन्य धर्मों को गौण करके जिस अभिप्राय से
168 जं णाणीणवियप्पं
169 श्रुतविकल्पो वा
170 ज्ञानं प्रमाणमादेरूपाया
71 ज्ञातुभिप्राय वा नयः
12 तत्राऽनिराकृतप्रतिपक्षो
173 जैनदर्शन में नय की अवधारणा
117
नयचक्र, गा. 173
आलापपद्धति, सू. 181
लघीयस्त्रय, का.52
आलापपद्धति, सू. 181
प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 657
डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 10
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जाना जाता है, वक्ता का वह अभिप्राय नय कहलाता है।74 अभिप्राय से तात्पर्य है - वक्ता की वह इच्छा जो अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य बनाकर अन्य धर्मों को गौण बनाती है। आचार्य जयसेन की दृष्टि में प्रमाण से परिगृहीत वस्तु के एकदेश में वस्तु का निश्चय किया जाना ही नय के विषय का अभिप्राय है।175
4. नय एकदेश वस्तुग्राही :
__ वस्तु में नित्यता, अनित्यता आदि परस्पर विरूद्ध प्रतीत होने वाले अनन्तधर्म होते हैं। इन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म विशेष को ग्रहण करके कथन करना नय का विषय है। अनेकान्त वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं।76 तत्वार्थश्लोकवार्तिक'7 में प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के एक देश के निर्णय को नय का लक्षण बताया गया है।
परस्पर विरूद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों में से एक धर्म को ही जो विषय करता है या दो विरूद्ध धर्म वाले तत्त्वों में से जो किसी एक धर्म का वाचक है, वह नय कहलाता है।78 इस तरह नय वस्तु के एक धर्म को ही अपना विषय बनाता है, क्योंकि उस समय उसे उस धर्म की ही विवक्षा अपेक्षित रहती है, अन्य धर्मों की नहीं79 इस प्रकार नय लोक व्यवहार को वस्तु के एक धर्म की विवक्षा से सिद्ध करता है।180 ज्ञातव्य है कि नय एक धर्म/पर्याय को विवक्षा भेद से ग्रहण करने पर
174 प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषोनयः ....
स्याद्वादमंजरी, 28 175 जैनदर्शन में नय की अवधारणा ..................... डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 10 176 तावदृस्तुन्यनेकान्तात्म
तत्त्वार्थ-सर्वाथसिद्धि, 1/33 177 स्वार्थेकदेशव्यवसायात्मकत्वादित्यक्तं श्लोकवार्तिक, 1/33/2 17 विरूद्ध धर्म द्वयात्मके तत्वे ....
............... पंचाध्यायी, पूर्वार्द्धश्लोक, 504 Wणाणाधम्मजुदंपिय ....................................... कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 264 लोयाणं ववहारं ...........
वही, गा. 263
युक्त
...............
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भी वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता है। नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध किये बिना एक धर्म की प्ररूपणा करता है।181
उपाध्याय यशोविजयजी ने भी लगभग इसी बात का समर्थन अपने ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में किया है। नय अनंत धर्मात्मक वस्तु को जानता है। परन्तु उन अनन्त धर्मों को मुख्य और अमुख्य रूप से जानता है।12 जब नित्यता धर्म की विवक्षा से वस्तु के नित्य धर्म को मुख्य रूप से जानता है तब अनित्यता आदि अनन्त धर्मों को अमुख्य रूप से (उपचार से) जानता है।
181 एगेण वथुणोऽणेग धम्मुणो .............. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2180 182 इहां पणि मुख्य अमुख्यपाई, अनंत धर्मात्मक वस्तु ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा गा. 5/1
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नय-विभाजन
जैनदर्शन के अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म निहित हैं। इन सभी धर्मों का एक साथ एक ही वाक्य में कथन करना असंभव है। कोई भी व्यक्ति एक वाक्य में वस्तु के किसी एक ही धर्म का ही कथन कर सकता है, किन्तु जब व्यक्ति एकान्त रूप से वस्तु के किसी एक धर्म का कथन करता है तो अन्य गुणधर्मों का निषेध हो जाता है। अतः अनन्त धर्मात्मक वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए इस प्रकार के वाक्य के प्रयोग की आवश्यकता होती है, जो वस्तु के विवक्षित गुणधर्म को कथन करने पर भी अन्य अविवक्षित गुणधर्मों का निषेध या निराकरण नहीं करे। इस प्रकार वस्तुतत्त्व के किसी विशेष गुणधर्म के सम्बन्ध में वक्ता के निहित अभिप्राय विशेष ही नय है।
वस्तु के विभिन्न पक्षों को विभिन्न दृष्टियों से अभिव्यक्त किया जा सकता है। विभिन्न दृष्टिकोण या विभिन्न नयों का आधार वस्तु तत्त्व की बहुआयामिता है। सर्वार्थसिद्धि में नय को अनन्त प्रकार का बताया गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की अनन्त शक्तियाँ हैं।183 सिद्धसेन दिवाकर के मत में वस्तुगत धर्मों की अभिव्यक्ति के लिए कथन के जितने प्रकार हो सकते हैं उतने ही नयवाद हैं तथा जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय है। 84 अतः स्पष्ट है कि कथन के जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय होते हैं और उस कथन को निरपेक्ष से सत्य मानने वाले उतने ही पर समय अर्थात् दार्शनिक सिद्धान्त हो सकते हैं।
प्राचीन आगम ग्रन्थों में मुख्य रूप से द्रव्यार्थिकनय एवं पर्यायार्थिक नय या निश्चयनय एवं व्यवहार नय, इन्हीं दो प्रकार के नयों की चर्चा उपलब्ध है। जैन दार्शनिक ग्रन्थों में नय के एक, संक्षेप में दो, विस्तार से सात और अतिविस्तार से संख्यात भेद भी किये गये हैं।185
द्रव्यस्थानन्तशक्तै प्रतिशक्ति विभद्यमाना बहुविकल्पा जायन्ते ......... तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि 1/33 जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया।। ..........
. सन्मतिसूत्र, गा. 3/47 "सामान्य देशतस्ताचदेक एव नयस्थितिः .................
श्लोकवार्तिक, 1/33/2
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आगम काल में नय विभाजन -
प्राचीन अर्धमागधी आगम साहित्य में नयों की चर्चा सर्वप्रथम भगवतीसूत्र में हुई है। भगवतीसूत्र में स्पष्ट रूप से द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके स्थान पर द्रव्यादेश, भावादेश के आधार पर विवेचन किया गया है। यह विवेचन भगवतीसूत्र के पांचवे शतक के अष्टम उद्देशक के 202 से 205 तक के सूत्रों में मिलता है। वहां द्रव्यादेश, क्षेत्रादेश, कालादेश, भावादेश इन चार आदेशों से चर्चा की गई है।186 इसी प्रकार भगवतीसूत्र के 25 वें शतक में भी द्रव्य की अपेक्षा और प्रदेश की अपेक्षा से चर्चा मिलती है।187 परन्तु कहीं भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का उल्लेख नहीं है। अभिधान राजेन्द्रकोष में भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों की चर्चा सन्मतिसूत्र के आधार पर ही की गई है। इससे ऐसा लगता है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की चर्चा आगमिक नहीं है। संभवतः यह चर्चा सर्वप्रथम सन्मतिसूत्र से ही प्रारम्भ होती है। सन्मतिसूत्र के अनुसार द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य या नित्य पक्ष को अपना विषय बनाता है,188 जबकि पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष या अनित्य पक्ष को अपना विषय बनाता है।189 संक्षेप में द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य है एवं पर्यायार्थिक नय का विषय पर्याय अर्थात् द्रव्य का परिवर्तनशील पक्ष है।
भगवतीसूत्र में निश्चयनय और व्यवहारनय के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता है।190 द्रव्य के आधार पर वस्तुस्वरूप का विवेचन करनेवाली ज्ञाता की दृष्टि को निश्चयनय तथा पर्याय के आधार पर विवेचन करने वाली दृष्टि को व्यवहार नय की
186 भगवतीसूत्र - 5/8/202 से 205 187 भगवतीसूत्र – 25/3/34, 35 188 दव्वट्ठियणयपयडी सुद्धा .........
सन्मतिसूत्र, गा. 1/3 189 मूलणिभेणं पण्णवणस्स
........... वही, गा. 1/4 190 गोयमा एत्थ दो नया भवंति तं जहा–नेच्छइयनए य वावहारियाएय.......... भगवतीसूत्र, भाग 2 पृ.814
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122 संज्ञा दी गई है।191 निश्चयनय वस्तु के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करता है, जबकि व्यवहार नय उसके सोपाधिक स्वरूप को ग्रहण करता है। भगवतीसूत्र में इन दोनों नय का उदाहरण मिलता है – गौतम के द्वारा यह पूछने पर कि भगवन्! प्रवाही गुड़ का स्वाद कैसा होता है ? भगवान ने उत्तर दिया – प्रवाही गुड़ व्यवहार से मीठा कहा जाता है, किन्तु निश्चयनय से पांचों प्रकार के स्वाद वाला है। 192 उत्तराध्ययनसूत्र में नयों का उल्लेख तो किया गया है, परन्तु वहां भेदों की कोई चर्चा नहीं मिलती है। स्थानांगसूत्र'3 तथा अनुयोगद्वारसूत्र'94 में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत इन सात नयों का उल्लेख मिलता
दार्शनिक युग में नय का विभाजन :
जैन दार्शनिक ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है। इस सूत्र के प्रथम अध्याय के अन्तिम दो सूत्रों में नयों के भेद-प्रभेद की चर्चा की गई है। प्रथम
सूत्र में नयों के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्द, ऐसे पांच भेद किये गये हैं।195 उसके अगले सूत्र में नैगमनय के दो भेदों तथा शब्द नय के तीन भेदों का भी उल्लेख मिलता है।196 जबकि उसके सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों का ही उल्लेख है। सिद्धसेन दिवाकर ने मूल रूप से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का
...........
VTT1
7
191 निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात ..
व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रित वाज्जीवस्य .............. समयसार/आत्मख्याति/गा. 56 192 वावहारियनयस्स गोड्डे, फालियगुलो नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे, पंचरसे, अट्ठफासेपन्नतो,
.............. भगवतीसूत्र भाग 2 पृ. 813 193 सत्त मूल नया पन्नता, तं जहा णेगमे, संगहे ववहारे उज्जुसुत्ते, सद्दे, समभिरूढे एवंभूते ।
. स्थानांगसूत्र/पृ. 582 194 सत्त मूल नया पन्नता, तं जहा णेगमे, संगहे ववहारे उज्जुसुत्ते, सद्दे, समभिरूढे एवंभूते। ....
अनुयोगद्वार/पृ. 167 195 नैगम संग्रह ..............
तत्त्वार्थसूत्र, 1/34 19 आद्यशब्दौद्वित्रिभेदौ ...
तत्त्वार्थसूत्र 1/35
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ही प्रतिपादन करके संग्रह आदि नयों को, इन दो नयों में समावेश किया है।197 ज्ञातव्य है कि सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय का निषेध करके छह नयों को ही स्वीकार करते हैं। क्योंकि नैगम नय सामान्य ग्राहक है तो संग्रहनय में तथा विशेषग्राहक है, तो व्यवहारनय में अन्तर्निहित हो जाता है। द्वादशारनयचक्र में मूल दो नयों और दर्शनयुग के सात नयों के साथ-साथ अन्यत्र अनुपलब्ध -ऐसे विधि, नियम आदि बारह नयों का उल्लेख किया गया है।198 इन बारह नयों का द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनय तथा सात नयों में समावेश हो जाता है, यथा99विधि
- व्यवहार नय
2.
विधि विधिः
- संग्रह नय
-
- द्रव्यार्थिकनय
विद्युभयम् विधि नियमः
उमयम
- नैगम नय
उमयविधिः
उभयोभयम्
- ऋजुसूत्रनय
उभयनियमः
नियमः
- शब्दनय
- पर्यायार्थिकनय
नियमविधि
- समभिरूढनय
नियमोभयम्
12.
नियमनियमः
- एवंभूतनय
197 दव्वद्वियणयपयडी
सन्मतिसूत्र 1/3 मूलणिभेणं
सन्मतिसूत्र 1/4 198 तयोर्भड्.गा ................................ द्वादशारंनयचक्र, पृ. 10 199 द्वादशार नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन .............. जितेन्द्र बाबुलाल शाह, पृ. 222
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आगमिक परंपरा को मान्यता देते हुए यशोविजयजी उनके समीक्ष्य ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में मूल रूप से द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय को ही स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जो नय द्रव्य, गुण, पर्याय के परस्पर अभेद को मुख्य रूप से ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है।200 जैसे- 'घट' को मृद्रव्य, रक्तवर्णादि गुण, कंबुग्रीवादि पर्याय से अभिन्न मानना। द्रव्यार्थिकनय अभेदग्राही है। इसके विपरीत पर्यायार्थिक नय मृदादिद्रव्य, रूपादिगुण तथा घटादि पर्याय के परस्पर भेद को मुख्य रूप से स्वीकार करता है।201 पर्यायार्थिक नय भेदग्राही है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय द्रव्यगुणपर्याय के परस्पर अभेद को मुख्यतः और भेद को उपचार से ग्रहण करता है, जबकि पर्यायार्थिक नय भेद को मुख्यतः और अभेद को उपचार से ग्रहण करता है। यदि ये दोनों ही नय स्वमान्य मुख्यार्थ से भिन्न विषय या अन्य नय मान्य मुख्यार्थ को उपचार से स्वीकार नहीं करते हैं तो सुनय न होकर दुर्नय बन जाते हैं।202 दूसरे शब्दों में एकान्त पक्ष को ग्रहण करने से मिथ्यात्व के पोषक बन जाते हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने सुनय, दुर्नय सम्बन्धी इस विचार का समर्थन विशेषावश्यकभाष्य03 और सन्मतितर्क के आधार पर किया है। सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार वही नय सुनय है जो अन्य नयों के मन्तव्य का निषेध नहीं करता है। इसके विपरीत जो नय अपने अतिरिक्त अन्य नयों के मन्तव्य को मिथ्या मानता है वह दुर्नय है।204
200 मुख्यवृत्तिं द्रव्यारथो, तास अभेद वखाणइ
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/2 201 मुख्यवृत्तिं सवि लेखवई, पर्यायरथ भेदई ........ ...... वही, गा. 5/3 202 भिन्न विषय नयज्ञानमा जो सर्वथा न भासई .............. .... वही, गा. 5/5 203 दोहि वि ण्येहिं णीअं, सत्थमूलएण तह विमिच्छतं ..................... विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2/95 204 णिययवयणिज्जसच्चा सत्वणया पर वियालणेमोहा ................... सन्मतिसूत्र, गा. 1/28
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यशोविजयजी ने जैनतर्कभाषा ग्रन्थ में नय के ज्ञाननय और क्रियानय के रूप में भी भेद किया है। ज्ञान की प्रधानता स्वीकार करनेवाला ज्ञाननय एवं क्रिया की प्रधानता स्वीकार करने वाला क्रियानय है।205
_ दिगम्बर मत के देवसेनकृत 'नयचक्र' आदि ग्रन्थों में तर्कशास्त्र के अनुसार द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिकनय, नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय ये नौ नय एवं सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार ये तीन उपनय तथा अध्यात्मदृष्टि के अनुसार निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो उपनय माने गये हैं जिसका विस्तृत वर्णन यशोविजयजी के द्रव्य-गुण-पर्यायनोरास में उपलब्ध होता है।206
नयों के प्रकारों का विवेचन -
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की पांचवी ढाल में उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यार्थिक नय और उसके दस भेदों का वर्णन विस्तार से किया है।
प्रत्येक वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक या सामान्यविशेषात्मक होती है। एक ही वस्तु एक अपेक्षा से सामान्य रूप है तो वही वस्तु दूसरी अपेक्षा से विशेषरूप है। वस्तु के सामान्य और विशेषरूप को अथवा द्रव्य और पर्याय को देखनेवाली दो आँखे हैं - द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय। वस्तु के विशेष रूप को या पर्यायरूप को गौण करके सामान्य या द्रव्यरूप को मुख्यता से देखनेवाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है। द्रव्य ही जिसका विषय या अर्थ है वह द्रव्यार्थिक नय है।207 इस नय का विषय द्रव्य ही
होता है।208
205 ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः
क्रियामात्रप्राधान्यभ्युपगमपराश्चय क्रिया नयाः 206 नवनय, उपनय तीन छाई 207 द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः -
जैनतर्कभाषा, पृ. 64 द्रव्य-गुण-पर्यायनोरास, गा. 8/8
आलापपद्धति, सूत्र 184 नयचक्र, गा. 189
208 पज्जय गउणं किच्चा दव्वंपि य जो ह गिहणइ लोए. ...
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वस्तु के विशेष पक्ष में अनुस्यूत सामान्य पक्ष को अनेक युक्तियों से सिद्ध करना ही द्रव्यार्थिकनय का विषय है।09 यह नय वस्तु के द्रव्य पक्ष को ही देखता है। परिवर्तनशील गुणों एवं पर्यायों को महत्त्व नहीं देने से यह मुख्यतः अभेदग्राही है।210 इस नय के अनुसार मिट्टी का घटरूप में परिणमन होने पर भी घट मिट्टी से अलग नहीं है। यह नय मिट्टी के घट और मिट्टी में अभेद सम्बन्ध को स्वीकार करता है। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय में सामान्य अथवा अभेद मूलक सभी दृष्टियों का समावेश हो जाता है।
यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में 'नयचक्र', 'आलापपद्धति' प्रभृति दिगम्बर ग्रन्थों में वर्णित 'द्रव्यार्थिकनय' के दस भेदों की चर्चा विस्तार से की
द्रव्यार्थिक नय के दस भेद इस प्रकार हैं :
1. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय। 2. उत्पादव्यय निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय । 3. भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय। 4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय। 5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । 6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । 7. अन्वयरूप द्रव्यार्थिक नय। 8. स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय। 9. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय। 10. परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय।
209 जो साहेदि सामण्णं अविणांद, विसेसरूवेहि णाणाजुत्तिवलादो, दव्वथो सो णओ होदी
........... कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 269 210 ते तास कहतां द्रव्य-गुण-पर्यायनइ अभेद वखाणइ ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा गा. 5/2
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1. कर्मोपाधि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :
अपने नामानुसार जो नय कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष जीव (आत्मा) के शुद्ध स्वरूप को अपना विषय बनाता है, वह कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है । 211 जैसे संसारी जीव भी सिद्ध-भगवान के समान शुद्ध है। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों में जन्ममरण करना संसार है। जिन जीवों के पूर्वोक्त चारों गतियों में से किसी एक गति का उदय है वे संसारी जीव हैं। इन संसारी जीवों के मनुष्यादि पर्याय को गौण करके सहजभावरूप शुद्ध आत्मस्वरूप को आगे करना कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । 212
संसारी जीव कर्मोपाधि से मुक्त नहीं है। प्रत्येक संसारी जीव के साथ ज्ञानावरणीयादि आठों कर्म लगे हुए हैं । किन्तु द्रव्य से या पारमार्थिक दृष्टि से संसारी जीव भी सिद्धों के जीव के समान परमशुद्ध ही है। क्योंकि उनका एक भी आत्मप्रदेश कर्मपुद्गल रूप नहीं हुआ है। इस प्रकार द्रव्य की वर्तमान पर्याय को भी गौण करके शुद्ध द्रव्य मात्र को ग्रहण करना इस द्रव्यार्थिक नय का विषय होने से यह नय कर्मों के मध्य में स्थित संसारी जीव को सिद्ध के समान शुद्ध रूप से ग्रहण करता है 213
यशोविजयजी के ‘द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अनुसार भव पर्याय को गौण करके जीव के कर्मोपाधि रहित सहज स्वरूप को ग्रहण करने वाला नय कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । 214 यह नय कर्मों की उपाधि और उनके विभिन्न प्रभाव होने पर भी उन सबकी उपेक्षा करके संसारी जीव के अन्तरंग शुद्ध स्वरूप को ही देखता है । जैसे X-Ray की मशीन वस्त्र, वस्त्र का मैल, चमड़ी आदि को बींध करके सीधे
211 कर्मोपाधि निरपेक्षः शुद्ध द्रव्यार्थिकः
यथा संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्धात्मा
212 यथा संसारिणः सन्ति प्राणिनः सिद्धसभा
5/10
213 कम्माणं मज्झगदं जीवं जो
214 जिम संसारी प्राणीया, सिद्ध समो वडी गणीइ
127
आलापपद्धति, सू. 47 द्रव्यानुयोगतर्कणा,
नयचक्र, गा. 190
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5 / 10
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हड्डियों का ही फोटो लेती है, उसी प्रकार यह नय कर्मजन्य संसारी भावों जैसेदेव, मनुष्य, क्रोधी, मानी, सुन्दर, असुन्दर आदि को बींध करके सीधे शुद्धात्म स्वरूप को ही देखता है15 और संसारी जीव को भी सिद्ध समान ग्रहण करता है। ___ अशुद्ध नय की दृष्टि से जीव, मार्गणास्थान और गुणस्थान के आधार पर चौदह भेदवाला होता है। परन्तु शुद्ध नय की दृष्टि से तो सर्वजीव शुद्ध ही है।16 आत्मतत्त्व जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान से रहित है। द्रव्यसंग्रह का यह कथन कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय दृष्टि से किया गया है।
2. उत्पादव्यय निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :
द्रव्यार्थिक नय के दूसरे भेद में उत्पाद-व्यय की गौणता और सत्ता के ध्रौव्य पक्ष की मुख्यता होती है। जैसे- द्रव्य नित्य है। पर्यायों की उत्पत्ति एवं विनाश को गौण करके ध्रुव सत्ता की मुख्यता से विवक्षा करना उत्पाद व्ययनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है।217 इसमें द्रव्य के नित्य स्वरूप का ग्रहण होता है।
उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य सत् का लक्षण है। उत्पाद-व्यय पर्यायार्थिकनय का विषय है तथा ध्रौव्यता द्रव्यार्थिकनय का विषय है। उत्पाद-व्यय को गौण करके मात्र सत्ता को ग्रहण करनेवाला नय सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।18 देवसेनाचार्य ने इस नय को सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय कहा है। जीव, पुदगल आदि की पर्याये तो क्षण-क्षण बदलती रहती है। परन्तु सत्ता त्रिकाल में अविचलित रहती है। ऐसी अविचलित सत्ता ही जिसका विषय है, उसे सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय कहते
हैं।19
215 द्रव्यगुणपर्यानोरास भाग-2, विवेचन- अभयशेखरसूरि, पृ. 190 216 मग्गण गुण ठाणेहिं य चउ दसहिं.
.... द्रव्यसंग्रह, गा. 1/13 217 उत्पादव्ययगौण सत्तामुख्यतया परः ......
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/11 218 उत्पादवयं गउणो किच्चा जो गहइ केवलं सत्ता ............. नयचक्र, गा. 191 219 उत्पाद-व्यय गौणत्वेन सत्ता ग्राहकः ..
आलापपद्धति, सू. 48
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उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अपनी प्रस्तुत कृति में उत्पाद-व्यय को गौण करके सत्ता को ग्रहण करने वाले नय को ही उत्पाद व्ययनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा है।220 यह नय पिंड-स्थास-कोश-घट आदि पर्याय के रूप में होने वाले उत्पाद और विनाश की ओर दृष्टि न रखकर मात्र मृद्रव्य को ही देखता है। मृद्रव्य भी पुद्गलद्रव्य की एक अवस्था विशेष होने से, उसको भी गौण करके मात्र पुद्गलद्रव्य को ही ग्रहण करता है। जीव को मनुष्य रूप मे, पंचेन्द्रिय रूप मे, त्रसरूप में, संसारी रूप में देखने की अपेक्षा 'जीव' रूप में देखने वाली दृष्टि उत्पाद व्ययनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। संक्षेप में द्रव्य का अविचलित अस्तित्व ही इस नय का विषय है।
उत्पाद-व्यय निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय में जो 'शुद्ध' विशेषण है, वह द्रव्यार्थिक नय का विशेषण है न कि द्रव्य का। क्योंकि यह नय अभेदग्राहक है।21
3. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :
भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय वह है जो अपने गुण एवं पर्यायों से पृथक् द्रव्य को नहीं देखता है।22
यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ की चतुर्थ ढाल में लिखा है कि प्रत्येक द्रव्य अपने गुण–पर्यायों से भिन्नाभिन्न होता है।23 इसमें भेदांश को गौण करके अभेदांश को मुख्यता देनेवाली दृष्टि भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।24 ज्ञानादि गुणों से एवं मनुष्यादि पर्यायों से अभिन्न जीव को तथा रूपादि से अभिन्न पुद्गल को मानना इस नय का विषय है।
220 उत्पाद व्यय गौणता, सत्ता मुख्य ज बीजइ ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/4 221 द्रव्यगुणपर्यायनोरास भाग 1 - विवेचन, अभयशेखरसूरि , पृ. 193। 222 भेद कल्पना निरपेक्षः शुद्धोद्रव्यार्थिको
आलापपद्धति, सू. 49 223 भेदाभेदा तिहां पण कहतां, विजय जइन मत पावई ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/7 224 त्रिजो शुद्ध द्रव्यारथो, भेदकल्पना हीनो रे ....................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/12
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जो नय गुण और गुणी को, स्वभाव और स्वभाववान को, पर्याय और पर्यायी को अथवा धर्म और धर्मी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।25 यह नय द्रव्य-गुण–पर्याय में भेद की कल्पना नहीं करता है, अपितु यह द्रव्य को अपने गुण और पर्यायों से तथा गुण–पर्याय को अपने द्रव्य से अभिन्न मानता है। आत्मा न ज्ञान स्वरूप है, न दर्शनस्वरूप है और न ही चारित्र स्वरूप है, अपितु आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है।226
4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :
जो नय कर्मों की उपाधि से युक्त अशुद्ध द्रव्य को अपना विषय करता है, वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।227
संसारी जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच कारणों से कर्मों को ग्रहण करता है।28 जीव की योगशक्ति से आकृष्ट होकर तथा रागद्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर कर्मपुद्गल आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् एकमेव होकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में परिणत हो आत्मा से बद्ध हो जाते हैं। जब ये कर्म अपना काल परिपक्व होने पर उदय में आते है तब जीव उस कर्म के स्वभावानुसार व्यवहार करने लग जाता है। क्रोधादि कर्मों के उदय से अपने उपशम स्वभाव को विस्मृत कर क्रोधादि करता है। दूसरे शब्दों में क्रोधादि के उदय में तन्मय होकर तद्रूप आचरण करने लग जाता है। इस प्रकार क्रोध के उदय से जीव को क्रोधी, मान के उदय में मानी इत्यादि कहा जाता है।
नयचक्र, गा. 192
225 गुणगुणियाइचउक्के ................. 226 ववहारेणुवदिस्सदि ................ 227 भेद-कल्पना-सापेक्षः अशुद्ध द्रव्यार्थिको 228 मिथ्यादर्शना-विरति-प्रमाद ........
.......................... आला
समयसार, गा. 7
आलापपद्धति, सू. 50 .......... तत्त्वार्थसूत्र, 8/1
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कर्मोपाधि सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय कर्म प्रकृतियों के उदय से अशुद्ध बने जीव को महत्त्व देकर उसे क्रोधी, मानी आदि कहता है।29 जो नय कर्मजन्य सभी भावों को जीव कहता है, वह कर्मोपाधि सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय है।230
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास में यशोविजयजी ने कर्मोपाधि से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय को द्रव्यार्थिक नय का चतुर्थ भेद बताया है। जैसे – कर्मभावमय आत्मा को क्रोधात्मा कहना।31 जो द्रव्य जिस समय जिस रूप में परिणत होता है तब उसे उस रूप में (तन्मय) जानने वाली दृष्टि कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। उदाहरण के लिए जब लोहखण्ड अग्निरूप में परिणत होता है, तब उसे अग्नि का गोला कहा जाता है। उसी प्रकार यह नय मोहनीय आदि कर्मोदय में तन्मय बनी आत्मा को क्रोधात्मा आदि कहता है।32 भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ प्रकार बताये गये हैं -द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा।33 इनमें से जो कषायात्मा और योगात्मा है, वे कर्मोपाधि सापेक्ष द्रव्यार्थिकनय का विषय हैं।
5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय :
उत्पत्ति और नाश की अपेक्षा रखनेवाला नय उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।234 जैसे प्रतिसमय द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। अतः सत्ता को
29 कर्मोपाधि शुद्धाख्यश्चतुर्थो भेद ईरितः ... 230 भावेसरायमादि सव्वे 23 अशुद्धकर्मोपाधि थी चोथो अहनो भेदो रे .... 232 जिम लोह अग्निपणई
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/13 ..... नयचक्र, गा. 193
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/13 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/13 का
पण
.....
टब्बा 233 भगवतीसूत्र, 12/10/200 234 उत्पादव्यय सापेक्षो अशुद्ध द्रव्यार्थिको .
आलापपद्धति, सू. 51
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उत्पाद-व्यय से युक्त ग्रहण करके द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक मानना, इस नय का विषय है।235 देवसेन आचार्य36 ने भी ऐसी ही परिभाषा दी है।
यशोविजयजी के अनुसार जो द्रव्यार्थिकनय उत्पत्ति-व्यय सापेक्ष पदार्थ को देखता है, वह उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।237 यह नय द्रव्य को युगपद रूप से उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक मानता है। जो समय सुवर्णमुकुटनाश का है वही समय सुवर्णघट की उत्पाद का है तथा वही समय सत्ता की विद्यमानता का है।238 विवक्षित समय में यह नय सुवर्णद्रव्य को मुकुटनाश रूप घट उत्पत्ति रूप तथा सुवर्णसत्तारूप मानता है।
यहाँ द्रव्यार्थिक नय के अशुद्धता के दो ही कारण हैं। प्रथम कारण है द्रव्य को अशुद्ध रूप से ग्रहण करना। जैसे जीव की कर्ममलयुक्त अवस्था को ग्रहण करना। दूसरा कारण है अखण्ड वस्तु में भेद की कल्पना करना। क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि अभेदग्राही है।
उत्पाद-व्यय की अपेक्षा रखने से सापेक्ष तथा एक समय में द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पक्ष को भेददृष्टि से ग्रहण करने से अशुद्ध है। इस प्रकार का नय उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होता है।
6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय :
जो नय भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्य को अपना विषय करता है वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।239 जैसे आत्मा के दर्शन, ज्ञानादि गुण रूप मानना।
235 उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्ध द्रव्यार्थिकोऽग्रिम 236 उत्पादवयविमिस्सा सत्ता 237 ते अशुद्ध वली पाँचमो व्यय उत्पत्ति सापेखो रे. 238 जिम एक समयई .... 239 भेदकल्पना सापेक्ष : अशुद्ध द्रव्यार्थिको ....
.....
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/4 नयचक्र, गा. 194 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/14
वही, टब्बा, ....... आलापपद्धति, सू. 52
..
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द्रव्य और गुण परस्पर अभिन्न है। द्रव्य गुणमय है और गुण द्रव्यमय है। गुणों से भिन्न न तो द्रव्य का अस्तित्व है और न ही द्रव्य से भिन्न गुणों का अस्तित्व सिद्ध होता है। द्रव्य गुणों का अखण्ड पिण्ड या समुदाय है।240 द्रव्य में से सभी गुणों को अलग कर दिया जाय तो द्रव्य के नाम पर कुछ भी नहीं बचेगा। द्रव्य का कथन गुणों के माध्यम से ही संभव है। जैसे- जो ज्ञानादि गुणों से युक्त है, वह आत्मद्रव्य है। गुणी आत्मद्रव्य और उसके ज्ञानादि गुणे में वस्तुतः भेद नहीं होने पर भी भेद कथन करना द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से अशुद्ध है तथा यह भेद कथन स्वाभाविक नहीं होने से काल्पनिक भी है, क्योंकि गुण, गुणी से भिन्न नहीं होता है।
इस प्रकार जो नय द्रव्य में गुण-गुणी के भेद की कल्पना करता है, वह भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।41 भेदकल्पना को ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यार्थिकनय का छठा भेद है। जैसे आत्मा के ज्ञानादि शुद्ध गुणों की कल्पना करना भेद की ही कल्पना है।242
महोपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार भेदकल्पना को ग्रहण करनेवाली द्रव्यार्थिक दृष्टि भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। जैसे आत्मा के ज्ञानादि गुण हैं। 243 आत्मा और गुण के बीच जो षष्ठि विभक्ति का प्रयोग है वह 'भिक्षु का पात्र' के समान भेद सम्बन्ध को ही दर्शाता है। परन्तु आत्मा और ज्ञान, भिक्षु और उसके पात्र के समान सर्वथा भिन्न नहीं है| आत्मा और ज्ञान में मुख्यवृत्ति से भेद नहीं होने से यह भेद कल्पना सापेक्ष द्रव्यार्थिकनय है।244 इस नय में भेदकल्पना की अपेक्षा जरूर है, परन्तु मुख्य रूप से तो यह अभेदग्राहक है। क्योंकि मुख्य रूप से
240 गुण-गुणी आदि अभेदस्वभात्वात् .........
वही, सूत्र 113 241 भए सादि संबंध गुणगुणियाइहिं कुणई जो दव्वे
... नयचक्र, गा. 195 242 भेदस्य कल्पनां ग्रहणन्नशुद्ध षष्ठ इष्यते .. ......... .............. . द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/5 243 गहत भेदनी कल्पना, छट्ठो तेह अशुद्धो .. ......................................... द्रव्य
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/15
गुपचाप 244 इहां षष्ठी विभक्ति भेद कहिइ छ।
.............. वही, टब्बा
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भेदग्राहक तो पर्यायार्थिकनय है। इस नय का उदाहरण ऐसा होना चाहिए - आत्मा के शुद्ध ज्ञानादि गुणों से आत्मा अभिन्न है।245
7. अन्वय द्रव्यार्थिक नय :
संपूर्णतः गुण–पर्याय स्वभाववाले सापेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला अन्वय सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है| जैसे-द्रव्य, गुण पर्याय स्वभाववान हैं46 यहाँ द्रव्य, गुण और पर्याय में अन्वय देखा गया है।
द्रव्य, गुण–पर्याय स्वभाववाला है। अतः गुण, पर्याय और स्वभाव में 'यह द्रव्य है', 'यह द्रव्य है ऐसा बोध कराने वाला नय अन्वय द्रव्यार्थिक नय है। अन्वय का अर्थ है - यह 'यह' है। इस प्रकार की अनूस्यूत प्रवृत्ति जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।47 गुण तथा पर्यायों का द्रव्य से अन्वय (सहअस्तित्व) मानना अन्वय द्रव्यार्थिकनय है।248
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अनुसार यह नय द्रव्य को अन्वित स्वभाववाला अर्थात् गुण–पर्याययुक्त स्वभाववाले के रूप में ग्रहण करता है।249 स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपाल आदि अवस्थायें बदलती रहती है। परन्तु इन सभी अवस्थाओं में मृद्रव्य अनुस्यूत रहता है। गुण–पर्यायों के बदलने पर भी उनमें द्रव्य अन्वित रहता है। द्रव्य का गुण पर्यायों में अन्वय (सह-अस्तित्व) होने के कारण गुण–पर्यायों का भी द्रव्य के रूप में उल्लेख करना इस नय का विषय है। उदाहरण के लिए -बालक मिट्टी की विविध वस्तुओं का बनाकर उनसे खेलता है। उस समय ऐसा कहना कि बालक
245 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचन भाग-1, अभयशेखरसूरि, पृ. 202 246 अन्वयसापेक्ष द्रव्यार्थिको
आलापपद्धति, सू. 53 247 नयचक्र का विशेष विवेचन, सं.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ. 108 248 अन्वयी सप्तमश्चै ....
..... द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/16 249 अन्वय द्रव्यार्थिक कहिओ
.............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/16
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मिट्टी से खेलता है।250 संपूर्ण द्रव्य का गुण - पर्यायों में अन्वय या सह-अस्तित्व है । जब व्यक्ति द्रव्यस्वरूप को जानता है तब द्रव्यार्थ के आदेश से उस द्रव्य के साथ जितने गुण और पर्याय अनुगत है उनको भी जानता है। जैसे- सामान्य की प्रत्यास्ति से किसी एक का ज्ञान होने पर भी उस जाति के सभी व्यक्तियों का ज्ञान होता है। 251
8. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय :
स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव की अपेक्षा से द्रव्य के अस्तित्व को ग्रहण करने वाला नय स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । 252 जो स्व द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव में रहनेवाले द्रव्य को अपना विषय बनाता है, वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । 253 द्रव्यानुयोगतर्कणा 254 में भी इसी प्रकार की व्याख्या दी गई है ।
प्रत्येक घटादि पदार्थ स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से सत् है । स्वयं द्रव्य स्वद्रव्य है, उस स्वद्रव्य के जो अखण्ड प्रदेश हैं, वही उसका स्वक्षेत्र है । प्रत्येक द्रव्य में रहने वाले गुण, उसका स्वभाव है, क्योंकि काल का मतलब है, समय, प्रवाह । गुण भी प्रवाही होते हैं।255 अतः वे स्वकाल है और स्वभाव तो वस्तु का पर्यायरूप स्वभाव ही
है ।
यशोविजयजी ने स्वद्रव्यादि के ग्राहक को द्रव्यार्थिकनय का आठवां प्रकार बताया है। जैसे— पदार्थ स्वचतुष्टय से सत् है । घटादि पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र,
250 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग - 1 विवेचन, अभयशेखरसूरि, पृ. 203
251 जिम सामान्य प्रत्यास्ति
252 स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिको
253 सदत्वादि चक्के सतं दव्वं
254 स्वद्रव्यादि संग्राही
255 नयचक्र -
135
पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, पृ. 108
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5 / 16 का टब्बा
कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत छाया, पृ. 270
नयचक्र, गा. 197
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 5/17
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स्वकाल और स्वभाव, इन चारों की अपेक्षा से विद्यमान (सत्) है। स्वद्रव्य से घट मिट्टीरूप है। स्वक्षेत्र से पाटलीपुत्रादि में निर्मित है। स्वकाल से विवक्षितकाल अर्थात् शीतऋतु में बना हुआ है। स्वभाव से रक्तता आदि भाव है।256 इस प्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय से ही उस घट की सत्ता सिद्ध होती है।
9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय :
वस्तु में परद्रव्यादि चतुष्टय के नास्तित्व को ग्रहण करनेवाला नय परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। नयचक्र और द्रव्यानुयोगतर्कणा'59 में भी इसी परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहा है – जो परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव रूप असत् पक्ष का द्रव्य में ग्रहण करता है, वह परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने भी दिगम्बर परम्परा के अनुसार वस्तु में परद्रव्यादि के अभाव के ग्राहक को द्रव्यार्थिकनय का नौवां भेद कहा है। जैसे वस्तु में परद्रव्यादि चतुष्टय का अभाव है।260 प्रत्येक घटादि पदार्थ में स्वद्रव्यादि चतुष्ट्य का सद्भाव तथा परद्रव्यादि चतुष्टय का अभाव होता है। घट में परद्रव्य तंतु का, परक्षेत्र-काशी आदि में निर्मित होने का, परकाल–अतीत, अनागतकाल की पर्यायों का, परभाव-श्यामत्व आदि का अभाव (असत्) कहना इस नय का विषय है।261
256 स्वद्रव्यथी-मृत्तिकाई, स्वक्षेत्रथी
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/17 का टब्बा 257 परद्रव्यादि-ग्राहक द्रव्यार्थिको
आलापपद्धति, सू. 54 258 सदव्वादिचउक्के संतं
नयचक्र. गा. 197 259 परद्रव्यादिक ग्राही नवमो भेद ..
... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/18 260 परद्रव्यादिग्राहको नवम भेद तेमाही रे ................................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/18 261 परद्रव्य - तंतु प्रमुख ..
.................... वही, टब्बा
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10. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय :
परमभाव को ग्रहण करनेवाला नय परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। जैसे ज्ञानस्वरूप आत्मा।262
जीव के पांच भाव होते हैं - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणमिक हैं।263 औपशमिक आदि चार भाव कर्मजन्य या कर्मक्षयजन्य है। पारिणामिकभाव जीव का सहज-शुद्धभाव है। इस शुद्ध-सहज पारिणामिकभाव को अपना विषय बनानेवाला नय परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय है।
जो द्रव्य के अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभाव को छोड़कर परम स्वभाव को ही ग्रहण करता है, वह परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।284 द्रव्यानुयोगतर्कणा85 में भी परमभाव संग्राही को द्रव्यार्थिक नय का दसवां भेद बताया गया है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी ने परमभाव के ग्राहक को परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहा है। जैसे- ज्ञान स्वरूपी आत्मा। आत्मा में अनंतगुणधर्म हैं। जैसे- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य लेश्यादि ...... | परन्तु इन सभी गुणों में ज्ञान गुण उत्कृष्ट-सारभूत असाधारण गुण है। क्योंकि ज्ञान गुण ही जीव को अन्य द्रव्यों से पृथक् करता है।267 अक्षर का अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञानगुण तो अनावृत रहता ही है। इस प्रकार ज्ञानगुण आत्मा का परमभावगुण होने से आत्मा को ज्ञान स्वरूपी कहना इस नय का विषय है। यह नय द्रव्यों के परमभाव को ग्रहण करता है। ये द्रव्य, गुण और पर्याय के सम्बन्ध में द्रव्यार्थिक नय के दस भेद हुए हैं।
आलापपद्धति, सू. 56
262 परम-भावग्राहक-द्रव्यार्थिको .. 263 तत्त्वार्थ सूत्र, 2/1 264 गेण्हइ दव्वसहाव असुद्धसुद्धोवयारपरिचतं . 265 परमभाव संग्राही असुद्ध सुद्धोवयारपरिचतं 266 परमभावग्राहक कहिओ, दशमो भेद
.......
........
नयचक्र, गा. 198 द्रव्यानुयोग तर्कणा, श्लो. 5/19 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/19
वही, टब्बा।
267 दर्शन, चारित्र, वीर्य ............
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पर्यायार्थिक नय -
ग्रन्थकार महोपाध्याय यशोविजयजी ने दिगम्बर परंपरानुसार पर्यायार्थिक नय के छह भेदों का वर्णन अपने ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की छठी ढाल में विस्तार से किया है।
पर्याय ही जिसका प्रयोजन है, वह पर्यायार्थिक नय है। दूसरे शब्दों में पर्यायार्थिकनय का विषय पर्याय है।269 वस्तु उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता से युक्त होने से त्रयात्मक है। पर्यायार्थिकनय वस्तु के उत्पाद एवं विनाशरूप पर्यायों को प्रधानरूप से कथन करके उसके ध्रुवता के कथन को गौण कर देता है।270
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में पर्यायार्थिकनय को भेदग्राही बताया है। वस्तु के विशेष पक्षों को उनके साधक लिंग (हेतु) से सिद्ध करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय है। जिसमें विशेष या भेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश हो जाता है, वह पर्यायार्थिकनय है। 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास में उल्लिखित पर्यायार्थिक नय के छह भेदों के नाम में तथा आलापपद्धति और नयचक्र में वर्णित नामों में किंचित अन्तर भी है। यथा -
द्रव्यगुणपर्यायनोरास
नयचक्र | 1. | अनादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय | अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय | 2. सादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय सादि नित्य पर्यायार्थिक नय | 3. | अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय
अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय | अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय
| नित्य शुद्ध (कर्मोपाधि रहित) पर्यायार्थिक नय कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय | 6. | अनित्य अशुद्ध (कर्मोपाधि सहित) पर्यायार्थिकनय | कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय
............
268 पर्याया एवार्थः प्रयोजनमस्येति
..........................
.... आलापपद्धति, सू. 191
आला. 269 दव्वत्थिएसु दवं पज्जायं पज्जयत्थिएविसयं ....... .... नयचक्र, गा. 188 270 पज्जय गउण किच्चा दव्वपि ......
..................................... वही, गा. 189 271 मुख्यवृत्तिं सवि लेखवई पर्यायारथ भेदइ रे .......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.5/3
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1. अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय
-
जिनेश्वर भगवान ने परम्परा से चन्द्र, सूर्य आदि की अनिधन और अनादि प्रवाहरूप पर्यायों को विषय करने वाले नय को अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय कहा है। 272
पुद्गल द्रव्य के अनादि - नित्य पर्यायों को ग्रहण करनेवाला नय अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है।273 जिसका आदि नहीं होता, उसे अनादि कहा जाता है तथा जो सदा बना रहता है, उसे नित्य कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य के अनन्त पर्यायों में जो अनादि-नित्य पर्यायें हैं, उनको ही अपना विषय बनानेवाला नय अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है, जैसे मेरूपर्वत | 274
पुद्गल द्रव्य में चय - अपचय निरन्तर चलता रहता है। कोई भी पुद्गल अधिक से अधिक असंख्यातकाल में तो अवस्थान्तर को प्राप्त करता ही है । मेरूपर्वत भी पुद्गलद्रव्य की ही एक पर्याय विशेष होने से बदलता रहता है । उसमें भी कुछ पुद्गलों का व्यय तो कुछ पुद्गलों का आगमन निरन्तर चलता रहता है। इस प्रक्रिया के मध्य भी मेरूपर्वत का संस्थान तो वही है । स्थान, वर्ण, परिमाण आदि ज्यों का त्यों रहने से मेरूपर्वत अनादि नित्य पर्वत है ।
139
निरन्तर बदलती पर्यायें क्षणिक होने से छद्मस्थ दृष्टि में एक समान प्रतीत होती है| परन्तु वस्तुतः वे एक समान नहीं होती हैं। पर्यायों का प्रवाह सतत् गतिशील रहता है। इस प्रकार मेरूपर्वत भी प्रवाह की अपेक्षा से ही अनादि-नित्य के रूप में पहचाना जाता है। अतः रत्नप्रभादि पृथ्वी शाश्वत जिन प्रतिमाएं आदि जो कुछ भी शाश्वत् है उनको अपना विषय बनाने वाला नय अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है । 275
272 अक्किट्टिमा अणिहणा ससिसूराइय पज्जयागाही
273 अनादि नित्य-पर्यायार्थिको यथा पुद्गल पर्यायो नित्यः मेवदिः
274 पर्यायार्थिक षड़भेदस्तत्राद्या
275 जिम पुद्गलो मेरू प्रमुख, प्रवाह थी
नयचक्र, गा. 199 आलापपद्धति, सू. 58
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6 / 2 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/1 का ब्
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प्रस्तुत ग्रन्थ में भी पुद्गल के अनादि नित्य पर्यायों को विषय बनानेवाली दृष्टि को अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय कहा गया है।276
यहाँ एक बात दृष्टव्य है कि नयचक्र, आलापपद्धति या द्रव्यगुणपर्यायनोरास में 'शुद्ध' शब्द नहीं है। परन्तु यशोविजयजी कृत स्वोपज्ञ टब्बे में 'शुद्ध' शब्द पाया जाता है। स्वोपज्ञ टब्बाकार पूज्य उपाध्यायजी ने 'शुद्ध' शब्द का प्रयोग इस नय के विशेषण के रूप में ही किया होगा। क्योंकि शुद्ध पर्यायार्थिक नय तो वही हो सकता है जो मात्र क्षणिकत्व को ग्रहण करता है और नित्यांश को गौण करता है। अतः यशोविजयजी के अनुसार क्षण-क्षण मेरू आदि के रूप में परिणत क्षणिक पुद्गल पर्यायों को अपना विषय बनाने से पर्यायार्थिक नय का प्रथम भेद अनादि-नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। यह नय क्षणिक पर्यायग्राही होने पर भी प्रवाह की दृष्टि से अनादि नित्य पुद्गल पर्यायों को भी ग्रहण करता है।
- यह नय प्रतिक्षण परिवर्तनशील, किन्तु समान प्रकार की निरन्तर चलने वाली पर्यायों को ग्रहण करता है। अनादिकाल से चलते रहने के कारण ये अनादि और निरन्तर प्रवाहरूप चलती रहने से नित्य कही जाती है। जैसे- गंगा नदी अनादिकाल से प्रवाहशील है। अतः अनादि है तथा अपनी निरन्तर बहती रहनेवाली अविच्छिन्न धारा की अपेक्षा नित्य कही जाती है।
2. सादि नित्य पर्यायार्थिक नय -
सादि नित्य पर्याय ही जिसका विषय है, वह सादि नित्य पर्यायार्थिक नय है। जैसे सिद्ध पर्याय । सिद्ध पर्याय कर्मक्षय से उत्पन्न होने से सादि तथा कभी विनष्ट
276 षड़ भेद नय पर्याय अरथो पहिलो अनादिक नित्य रे, ........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/1 277 तिहां पहिलो अनादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, ............. वही, टब्बा 278 सादि-नित्य-पर्यायार्थिको यथा सिद्धपर्यायो नित्यः ...................... आलापपद्धति, सू. 59
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न होने के कारण अविनाशी कही जाती है। ऐसी सादि - नित्य पर्याय को ग्रहण करनेवाला नय सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है । 279
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में सादि नित्य पर्याय को अपना विषय बनाने वाली दृष्टि को पर्यायार्थिक नय का तीसरा भेद बताया गया है । जैसे सिद्धावस्था 280 द्रव्यानुयोगतर्कणा281 में भी इस नय का विषय सिद्धावस्था ही बताई गई है। जीव की सिद्धपर्याय की आदि है, किन्तु अन्त नहीं है । जब जीव सर्व कर्मों को क्षय करता है, तब सिद्धावस्था प्रारम्भ होती है। अतः सादि है और तत्पश्चात् सदाकाल अवस्थित रहने से नित्य है। क्योंकि मुक्तजीव अन्तरंग और बहिरंग कर्मकलंक से मुक्त होते हैं। उनमें पुनः विकार उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं होता है। जैसे - राजकुमार एक बार राजा बन जाने के बाद, फिर से राजकुमार कभी नहीं बन सकता। उसी प्रकार संसारी जीव एकबार सिद्ध बन जाने के बाद पुनः कभी संसारी नहीं बन सकता है। 282 सिद्धावस्था जीव की सादि नित्य पर्याय है, अन्य किसी द्रव्य की कोई भी पर्याय इस नय का विषय नहीं हो सकती है। क्योंकि अन्य द्रव्यों की कोई भी अवस्था सादिनित्य नहीं हो सकती है। या तो वे अनादिनित्य होती हैं या सादिसान्त होती हैं। 283
इस दूसरे पर्यायार्थिकनय में भी मात्र स्वोपज्ञ टब्बा में ही 'शुद्ध' शब्द रखा गया है । अन्यत्र कहीं भी शुद्ध शब्द का उल्लेख नहीं है। सिद्धावस्था जीव की शुद्धावस्था होने से यशोविजयजी ने 'शुद्ध' शब्द को पर्याय का विशेषण बनाया होगा । यहाँ शुद्ध शब्द पर्यायार्थिक नय का विशेषण तो कदापि नहीं हो सकता है । पर्यायार्थिक नय नित्यता की ओर दृष्टि करता ही नहीं है। अतः पर्याय ही शुद्ध और
1279 कम्मखयादुप्पो अविणासी जो हु कारणभावे
280 सादि नित्य पर्याय अरथो जिम सिद्धनो पज्जाउ रे
281 पर्यायार्थिकः सादिनित्यः सिद्धस्वरूपवत्
1282 जे राजपर्याय सरखो सिद्धपर्याय भाववो
283 द्रव्यगुणपर्यायनोरास- भाग 1
141
अभयशेखरसूरि, पृ. 214
नयचक्र, गा. 200
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6 / 3 द्रव्यानुयोगतर्कणा, पृ. 79 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/3 का टब्बा
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अशुद्ध दोनों प्रकार की होने से यहाँ शुद्ध पर्याय यही अर्थ करना होगा। क्योंकि सिद्धों की पर्याय शुद्ध होती है।
3. अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय -
___सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करने वाला नय अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। जैसे प्रतिसमय पर्याय का परिवर्तन होता है।284
जो भी वस्तु है, वह प्रतिसमय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव भी रहती है। क्योंकि सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है। इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में से उत्पाद और व्यय को प्रधानता से और ध्रौव्य को गौण रूप से ग्रहण करने वाला नय अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।285
यशोविजयजी ने भी उत्पाद-व्यय को मुख्य रूप से तथा सत्ता को गौण रूप से ग्रहण करने वाले नय को ही पर्यायार्थिक नय का तीसरा भेद बताया है।286 एक पर्याय प्रतिसमय नाश भी होती है तथा दूसरी पर्याय उसी समय उत्पन्न भी होती है। ऐसी उत्पाद-विनाशशील पर्यायें इस नय का विषय है। मेरू या सिद्धावस्था में भी यह नय सूक्ष्म-सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम परिवर्तनों को अपने दृष्टिकोण में लेता है। संस्थानादि बाह्य पक्ष को जो मुख्यरूप से विषय बनाता है, वह पहला व दूसरा पर्यायार्थिक नय है।287
द्रव्य में प्रतिसमय घटित होने वाले उत्पाद-व्यय को ही ग्रहण करना पर्यायार्थिक नय का मुख्य दृष्टिकोण है। क्षणिक या अनित्य को अपना विषय बनाने से यह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। संक्षेप में प्रतिक्षण पूर्व पर्यायनाश, उत्तरपर्याय
284 अ) सत्ता-गौणत्वेन उत्पाद-व्यय-ग्राहक
ब) सत्ता अमुक्खेरूवे उत्पादवयं हि गिण्हए जो हु ..... 25 सत्ता गौणतयोत्पाद व्यययुक् सदनित्यकः 286 सादि नित्य पर्याय अरथो ............. ............... 27 द्रव्यगुणपर्यायनोरास-भाग 1 - अभयशेखरसूरि, पृ. 216
आलापपद्धति, सूत्र.60 नयचक्र, गा.201
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो.6/3 ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/3
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उत्पाद को अपनी दृष्टि में लेकर सत्ता की ओर दृष्टि नहीं करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय का तीसरा भेद है।
4. नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय – { अनित्य अशुद्ध पयार्याथिक नय]
जो एक समय में ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त पर्याय को ग्रहण करता है, वह अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है।288 आलापपद्धति में उत्पाद और व्यय के साथ ध्रौव्ययुक्त पर्याय को ग्रहण करनेवाले नय को सत्ता सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।289
यशोविजयजी ने सत्ता को भी उत्पाद-व्यय के साथ ग्रहण करने वाले नय को नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है। जैसे कि प्रतिसमय पर्याय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, इन तीनो लक्षण से युक्त है।90 यह नय उस-उस समय में रही हुई पर्यायों को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त देखता है।
यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि आलापपद्धति और नयचक्र में पर्यायार्थिक नय के चतुर्थ प्रकार को अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है। उत्पाद-व्यय रूप पर्याय को ग्रहण करने से अनित्य है तथा ध्रौव्य युक्त सत्ता से युक्त पर्याय को ग्रहण करने से वह अशुद्ध है। अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय का यही स्वरूप है। अनित्य मानकर भी ध्रौव्य मानना यही इस नय की अशुद्धता है। इसी कारण से इसे अनित्य अशुद्ध पयार्यार्थिक नय कहते हैं।
यशोविजयजी ने इस नय को नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।291 जिसका समर्थन द्रव्यानुयोगतर्कणा292 से भी होता है। ध्रौव्यांश को ग्रहण करने से
288 जो गेहइ एक समये उप्पादवयधुवत्तसंजुत्तं ..
नयचक्र, गा. 202 289 सत्ता सापेक्ष स्वभावोऽनित्य-अशुद्धपर्यायार्थिको ...
आलापपद्धति, सू.61 290 जिम समयमइ पर्याय नाशी छतिं गहत नित्य अशुद्ध रे. ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/4 291 वही, गा. 6/4 192 सत्तां गृहणन् चतुर्थाख्यो नित्योऽशुद्ध उदीस्वः ...................... द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/4
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नित्य तथा यह ध्रौव्यता पर्यायार्थिक नय का विषय नहीं होने पर भी ध्रौव्यता को विषय बनाने से यह अशुद्ध है। यही कारण है कि इसे नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा गया है। 5. कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय [कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने पर्यायार्थिक नय के पांचवे भेद को नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।293 जबकि आलापपद्धति और नयचक्र में इसे अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।
(सिद्धात्माओं की शुद्ध पर्यायों के समान ही) संसारी जीवों की पर्यायों को भी शुद्ध मानना, कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।294
यशोविजयजी ने संसारी जीवों के पर्यायों को सिद्ध के पर्यायों के समान देखने वाली दृष्टि को नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।295 द्रव्यानुयोगतर्कणा में भी लगभग यही परिभाषा दी गई है तथा इस नय को नित्य-शुद्ध ही माना गया है।296
कर्मों की उपाधियों से युक्त होने से संसारी जीव की पर्याय अशुद्ध है। कर्मोपाधियों से मुक्त हुए बिना संसारी जीव की पर्याय शुद्ध नहीं हो सकती है। किन्तु यह नय कर्मजन्य उपाधियों की उपेक्षा करके संसारी जीव की आत्मा में रही हुई केवलज्ञान, दर्शन–चारित्र आदि की पर्यायों को, जो कि सिद्धों की पर्यायों के समान है, उनका ही विवक्षा करता है। अतः इस नय को कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।297 जीव की कर्मोपाधि रहित शुद्ध अवस्था को मानने के कारण ही इसे कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा है।
293 पर्याय अरथो नित्य शुद्धो रहित कर्मोपाधि
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/5 294 अ) कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभावोऽनित्य शुद्ध पर्यायार्थिको .................. आलापपद्धति, सू.62
ब) देहीण पज्जाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारिच्छा ...................... नयचक्र, गा. 203 295 पर्याय अरथो नित्य शुद्धो ...... .........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/5 296 कर्मोपाधि विनिर्मुक्तो नित्यः शुद्धः प्रकीर्तित ............................. द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/6 297 कर्मोपाधि भाव छतां छइ .
पायनोरास, गा.6/5 का टब्बा
...........................................
............... द्रव्यगणपयायगारात, ना.0/. पण
म
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चूंकि जीव की संसारी अवस्था अनित्य होने से संसारी अवस्था की कर्मोपाधि रहित शुद्ध पर्याय को अपना विषय करने वाले इस नय को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है।
6. कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय -
चारों गतियों के जीवों की अनित्य अशुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला नय कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।298 जैसे संसारी प्राणी का जन्म-मरण । आलापपद्धति और द्रव्यानुयोगतर्कणा में भी यही परिभाषा दी है।299
उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करने वाले नय को ही पर्यायार्थिक नय के छठे भेद के रूप में स्वीकार किया है। जैसे संसारवासी जीवों को जन्म-मरण रूप व्याधि लगी हुई है।300
जन्म-मरण रूप व्याधि से युक्त जीव की पर्यायें कर्मसंयोगजनित होने से कर्मोपाधि सापेक्ष और अशुद्ध है। कर्मों का उदय प्रतिक्षण बदलता रहने से तज्जन्य पर्यायें भी बदलती रहती हैं। इस कारण से संसारी पर्यायें क्षणिक (अनित्य) हैं। एतदर्थ कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध संसारिक पर्यायों को अपना विषय बनानेवाला नय पर्यायार्थिक नय का अन्तिम भेद है।
यहाँ भी 'अशुद्ध' शब्द नय का विशेषण न होकर पर्याय का विशेषण है। क्योंकि यह पर्यायार्थिक नय स्वयं तो क्षणिक संसारिक पर्यायों को अपने दृष्टिकोण में लेने से शुद्ध है। किन्तु इस नय के विषयभूत पर्यायें क्षणिक–अनित्य-विभावरूप होने से अशुद्ध है।
298 भणइ अणिच्चासुद्धा चउगइ जीवाण......
नयचक्र, गा. 204 299 अ) कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभावोऽनित्य-अशुद्ध पर्यायार्थिक ........ आलापपद्धति, सूत्र 63 ब) अशुद्धस्य तथा नित्य पर्यायार्थिकऽन्तिम .
द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/7 ___300 पर्याय अर्थो अनित्य अशुद्धो .......
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/6 301 इहां जन्मादिक पर्याय जीवना ...
.................. वही, गा. 6/6 का टब्बा
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नैगमादि सप्तनय -
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास के कर्ता न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजयजी का नय सम्बन्धी ज्ञान अतिसूक्ष्म और अत्यन्त गहरा था। उन्होंने अपने स्वरचित ग्रन्थों यथा नयरहस्य, नयप्रदीप, नयोपदेश आदि में नयों की तलस्पर्शी चर्चा की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी दिगम्बराचार्य देवसेन आदि को मान्य नौ नयों के विवेचन के क्रम में नैगमनय आदि को इस प्रकार परिभाषित किया है। नैगमनय -
अनुयोगद्वार सूत्र में नैगमनय की निरूक्ति की गई है। उसके अनुसार जो अनेक रूपों अर्थात् प्रकारों से वस्तु तत्त्व का निश्चय करता है, अनेक भावों से वस्तु स्वरूप का निर्णय करता है, वह नैगमनय है।02 निगम का अर्थ है विकल्प। जिसमें विकल्प हो वह नैगम कहलाता है। आवश्यकनियुक्ति में अनेक निगमों से पदार्थ का मान (ज्ञान) करने वाले नय को नैगमनय कहा है।303 अनेक जैन आचार्यों ने नैगमनय को विभिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है। यथा -
द्वैतग्राही -
जिसके द्वारा सामान्य एवं विशेष-ग्राहक विकल्पों से वस्तु के स्वरूप को जाना जाता है, वह नैगमनय कहलाता है।04 पदार्थ को सामान्य, विशेष और उभयात्मक मानकर, अनेक विकल्पों के द्वारा वस्तुस्वरूप को समझाने वाला नय नैगमनय है।05 जो एक को विषय नहीं करता है तथा मुख्य-गौणरूप से दो धर्मों को दो धर्मियों को
302 णेगेहिं माणेहिं मिणइ त्ति णेगमस्स य निरूक्ति ......... अनुयोगद्वारसूत्र-श्रीमधुकरमुनि, सू.136, पृ.467 303 णेगेहिं माणेहिं मिणति त्ती नेगमस्स नेरूत्ति ............... आवश्यकनियुक्ति, गा. 468 3304 नैनं गच्छतीतिः निगमो विकल्पस्तत्र भवो नैगमः .............. आलापपद्धति, सू. 196 305 णेगाई माणाइं सामन्नोमय विसेसनाणाई ............ ..... विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2186
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अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है, वह नैगमनय है।06 नैगमनय महासामान्य सत्ता, अवान्तर सामान्य सत्ता द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व को असाधारण विशेष तथा सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेष को जानता है।307 यह नय सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करता है।
उदाहरण - शास्त्रों में नैगमनय का दृष्टान्त 'निलयन' दिया गया है। 'निलयन' शब्द का अर्थ है निवासस्थान। जैसे किसी ने किसी से पूछा आप कहाँ रहते हो ? जवाब मिला कि मैं लोक में रहता हूँ। लोक में भी जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्र–मध्यखण्ड-अमुकदेश-अमुकनगर–अमुकघर में रहता हूँ। नैगमनय इन सब विकल्पों को ग्रहण करता है।308
संकल्पग्राही -
जो निगम को विषय करे, वह नैगमनय है। निगम का एक अर्थ संकल्प भी है। जैसे कोई व्यक्ति बातचीत के प्रसंग में कहता है कि 'मैं चैन्नै जा रहा हूं' अर्थात् उसने चलना प्रारम्भ नहीं किया, मात्र जाने का संकल्प ही किया है। फिर भी वह व्यक्ति कहता है, 'चैन्नै जा रहा हूं।' इसी आधार पर नैगमनय को संकल्पग्राही कहा गया है।
सर्वार्थसिद्धि09 और श्लोकवार्तिक 10 में नैगमनय को अनिष्पन्न अर्थ में भी संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला कहा है और अनेक उदाहरणों से समझाया गया है। जैसे कोई व्यक्ति हाथ में कुठार लेकर वन की ओर जाता है। उसे देखकर कोई अन्य व्यक्ति पूछता है- आप किस कार्य के लिए जा रहे हो ? वह उत्तर देता है -
906 श्लोकवार्तिक, 1/33/21, जैनतर्कभाषा, पृ. 59 107 तत्र नैगमः सतालक्षण महासामान्यम .... .................... स्यादवादमंजरी, श्लो. 28 पृ. 243 108 प्रवचनप्रसिद्ध निलयन प्रस्थदृष्टान्त द्वय .... 309 अनभिनिर्वृत्तार्थ संकल्प मात्रग्राही नैगमः ............. सर्वाथसिद्धि, 1/33 iii तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः ................... श्लोकवार्तिक, 1/33/17
वही.
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प्रस्थ (अनाज मापने के लिए लकड़ी का पात्र) लेने जा रहा हूँ। उस समय प्रस्थ बना नहीं है। प्रस्थ बनाने का संकल्प होने से उसमें प्रस्थ का व्यवहार किया गया गया है। इसलिए अतीत और अनागत काल की पर्यायों में वर्तमान की तरह एवं वर्तमान की अनिष्पन्न पर्यायों में निष्पन्न की तरह संकल्प करने वाला नैगम नय है।311
लोकार्थ का बोधग्राही -
लोकार्थ बोध भी 'निगम' शब्द का एक अर्थ है। लोक से आशय लौकिक है। लौकिक दर्शनकारों ने जीवादि पदार्थों के सम्बन्ध में अपनी-अपनी मान्यतानुसार जो विचार व्यक्त किये हैं, उसे निगम कहते हैं। उसको समझाने में जो कुशल है वह नैगम नय है।312 इस तरह जो विचार लौकिकरूढ़ि या संस्कार के अनुसरण करने में उत्पन्न होता है, वह नैगमनय है।13 जैसे -
1. कलम लेने जा रहा हूं। 2. गांव आ गया है। 3. हिन्दुस्तान लड़ रहा है।
तत्त्वार्थधिगमसूत्र में उमास्वातिजी ने निगम का अर्थ जनपद या देश किया है। देश में जिन शब्दों का प्रयोग होता है, वे शब्द, उनका अर्थ तथा शब्दार्थ का परिज्ञान नैगमनय है। वह देश और समग्रग्राही है।314
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी ने नैगमनय को बहुमानग्राही कहा है, जिसका तात्पर्य है सामान्य-विशेष ज्ञानरूप अनेक प्रमाणों से जो वस्तु को अपने दृष्टिकोण में लेता है, वह नैगमनय है।15 यशोविजयजी की यह परिभाषा
...........
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा.271 विशेषवश्यकभाष्य, गा. 2187
31| जो साहेदि अदीदं वियप्प 312 लोगत्थनिवोहा वा निगमा .. 13 तत्त्वार्थसूत्र-पं. सुखलालजी, पृ.40 11 निगमेषुयोऽभिहिताः शब्दास्तेषामर्था 315 बहुमानग्राही कहियो नैगम .............
...........
तत्वार्थधिगमसूत्र, 1/35 पर भाष्य द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/7
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अनुयोगद्वारसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य आदि का अनुसरण करती है। आगे उन्होंने नैगमनय के तीन भेद बताये हैं। यथा
1. भूतनैगमनय 2. भाविनैगमनय, और 3. वर्तमाननैगमनय
1. भूतनैगमनय -
जो नय भूतकाल में वर्तमान का आरोप कर 'आज अर्थात् दीपावली को महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए। ऐसा कथन करता है, वह भूतनैगमनय है।16 यहाँ भूतकाल में वर्तमान का आरोपण किया गया है। जो पर्याय व्यतीत हो चुकी है, उसमें वर्तमानकाल का संकल्प करना भूतनैगमनय है। जैसे- आज के दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। यह कथन वर्तमानकाल में अतीत का आरोपण करता है।17
यशोविजयजी ने भी भूतकालीन घटनाओं में वर्तमान की तरह व्यवहार करने वाले नय को भूतनैगमनय कहा है।18 आज से लगभग 2535 वर्ष पूर्व जो दीपावली का दिन था, उस दिन प्रभु महावीर का निर्वाण हुआ था। इस वास्तविकता से सभी अवगत होने पर भी 'आज भगवान महावीर का निर्वाण दिन है ऐसा कहने पर सभी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। कोई इस वाक्य को असत्य नहीं ठहराता है। अतः स्पष्ट है वर्तमान दीपावली के दिन में भूतकालीन दीपावली का आरोपण किया गया है।
महोपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास के स्वोपज्ञ टबा में अतीत में वर्तमान का और वर्तमान में अतीत का आरोप दोनों का उल्लेख किया है।19 यथा1. अतीत में वर्तमान का आरोप - प्रभु महावीर आज दीपोत्सव के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। 2. वर्तमान में अतीत का आरोप – आज वर्धमानस्वामी का निर्वाण कल्याणक है।
316 अतीते वर्तमान आरोपणं 317 णित्वत अत्थकिरिया वदृणकाले 318 बहुमानग्राही कहिओ नैगम 319 इहां-अतीत दीवाली दिननइ
आलापपद्धति, सू. 65
नयचक्र, गा. 206 ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/7
वही, टबा, गा. 6/7
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इस प्रकार भूतनैगमनय भूतकालीन घटनाओं में वर्तमान का आरोप करने के लिए तत्पर है।
2. भाविनैगमनय -
___ भावि पर्याय में भूतकालीन पर्याय के समान व्यवहार करना भाविनैगमनय है। जैसे वर्तमान में रहे हुए अरिहंत परमात्मा को सिद्ध कहना।20 इस नय में भविष्य में संपन्न होने वाली क्रिया को आज की मानकर व्यवहार किया जाता है। जैसे जो प्रस्थ बना ही नहीं है, लकड़ी में प्रस्थ का व्यवहार करते हुए 'मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूँ' ऐसा कहना भावी नैगमनय का विषय है। अतः अनिष्पन्न को निष्पन्न की तरह मानना भी नैगमनय है।21 अध्यात्म कल्पद्रुम में जिस मुनि का मन विषय कषायों से विरक्त हो गया है, वह मुनि भवसागर से तिर गया है, ऐसा जो उल्लेख किया है वह भाविनैगमनय का ही विषय है।322
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में भावि घटना को भूतकालीन घटना की तरह कथन करनेवाले नय को भावि नैगम नय कहा है। जैसे कि भविष्य में सिद्ध होने वाले केवली को अर्थात् भवस्थ केवली को सिद्ध कहना। 23 वर्तमान में जिन्होंने घातिकर्मों को ही क्षय किया है, परन्तु इसी भव में अघातिकर्मचतुष्क को भी क्षय करके सिद्धावस्था को प्राप्त करेंगे, ऐसे भवस्थकेवली को सिद्ध कहना भावि नैगमनय का विषय है। क्योंकि जो चरम हैं, वे अर्हन् है और जो अर्हन् है वे सिद्ध ही हैं।
320 अ) भाविनि भूतवत् कथनं यत्र स .....
आलापपद्धति, सू. 66 ब) भूतवन्नैगमो भावि जिनःसिद्धो यथोच्यते ........................ द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/10 321 णिप्पणमिव पयंपदि भाविपदत्थं
नयचक्र, गा. 205 32 ते तीर्णा भववारिधिं मुनिवरास्तेभ्यो नमस्कुर्महे,
येषां नो विषयेषु गृथ्यति मनो नो वा कषायैः प्लुतम् । ......... अध्यात्मकल्पद्रुम, श्लो. 13/1 का पूर्वार्ध 9 भूतवत् कहई भाविनैगम
............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/9
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3. वर्तमाननैगमनय -
किसी अधूरे कार्य को जो आगे निष्पन्न होनेवाला हो उसे वर्तमान में निष्पन्न कहना वर्तमाननैगमनय है।24 प्रारम्भ की गई किसी क्रिया को निष्पन्न नहीं होने पर भी निष्पन्न सा व्यवहार करना वर्तमाननैगमनय है।25 कुछ अंश में पूर्ण तथा कुछ अंश में अपूर्ण क्रिया में वर्तमान का उल्लेख करने वाले नय को यशोविजयजी ने वर्तमान नैगमनय कहा है। जैसे भात पका रहा हूँ।26
जैसे कोई पुरूष चावल को पकाने की क्रिया कर रहा हो, उस समय किसी अन्य पुरूष के द्वारा यह पूछने पर कि क्या कर रहे हो ? तो वह व्यक्ति उत्तर देता है- भात पकाता हूँ। उस समय भात बना नहीं है, क्योंकि चावल पूर्ण रूप से पक जाने पर ही भात कहे जाते हैं। अभी तो भात के कुछ अवयव ही (हिस्से) सीझे हैं और शेष अवयवों का सीझना बाकी है। परन्तु उल्लेख तो ऐसा ही किया जाता है कि 'भात पकाता हूँ ओदनं पचति न कि 'भात पकाया है, ऐसा उल्लेख।27 यह वर्तमान नैगमनय का विषय है।
कारण को कार्यरूप में परिणत करने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ हो जाने पर उस अपूर्ण कार्य को पूर्ण ही कहा जाता है। फिर भले कार्य पूर्ण होने में विलम्ब हो।328 उदाहरण के लिए भृगु पुरोहित के दोनों पुत्रों ने दीक्षा का दृढ़ संकल्प ही किया था। किन्तु दीक्षित नहीं हुए थे, फिर भी पुरोहित ने उन्हें मुनि कहा।29 इसी प्रकार दीक्षा के पूर्व ही नमिराज को राजर्षि कहा गया। यह वर्तमान नैगमनय के अनुसार कहा गया है।
324 कर्तुमारब्धं, ईषत् निष्पन्न
आलापपद्धति, सूत्र 67 325 अ) पारद्दा जा किरिया पचणविहाणादि .........
नयचक्र, गा. 207 ब) आरोपाद्धर्तमानश्च यथाभक्तं पचत्यसौ
........................... .... द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/11 326 भूतवत् कहइ भावि नैगम ....
.. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/9 327 ए आरोप सामग्री
.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/9 का टब्बा 328 नयवाद, मुनि फूलचन्द्र, पृ. 53 329 अह तायगो तत्थे मुणीण तेसिं
उत्तराध्ययन सूत्र, 14/8
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__152
वस्तु द्रव्य, गुण, पर्यायों से युक्त होती है। नैगमनय जब किसी वस्तु को अपना विषय बनाता है तब उस वस्तु के द्रव्य-गुण-पर्याय भी नैगमनय के विषय बन जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय को अपना विषय बनानेवाले इस नैगमनय के मुख्य रूप से तीन भेदों का तथा उनके प्रभेदों का उल्लेख तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के नय विवरण में किया गया है।330 जैसे -
1. द्रव्यनैगमनय 2. पर्यायनैगमनय 3. द्रव्य–पर्याय नैगमनय
द्रव्यनैगमनय के दो भेद । पर्यायनैगमनय के तीन भेद द्रव्य–पर्याय नैगमनय के चार भेद शुद्धद्रव्यनैगमनय 1. अर्थपर्यायनैगमनय
शुद्धद्रव्यअर्थपर्यायनैगमनय अशुद्धद्रव्यनैगमनय | 2. व्यंजनपर्यायनैगमनय
2. शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमनय 3. अर्थ-व्यंजनपर्यायनैगमनय
3. अशुद्धद्रव्यअर्थपर्यायनैगमनय
| 4. अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमनय द्रव्यगुणपर्यायनोरास में भूत, भावि और वर्तमान इन तीन नैगमनय का ही उल्लेख है।
संग्रहनय -
पुरानी गुजराती भाषा में रचित द्रव्यगुणपर्यायनोरास में ग्रन्थकार यशोविजयजी ने नौ नयों के क्रम में सर्वग्राही संग्रहनय की व्याख्या भी भेदों के साथ प्रस्तुत की
है।
जो ‘सभी (सर्व) को सम्यक् रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है। जिस नय का विषय सम्यक् प्रकार से गृहीत जाति है, वह संग्रहनय कहलाता है।331 जो
330 त्रिविधस्तावन्नैगमः पर्यायनैगमः, द्रव्यनैगमः, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति । ............ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, नयविवरण, पृ.270 331 संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ विति ........... ........... अनुयोगद्वार, गा.137, पृ. 467
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( अनेकों का एकीभाव करके पिंडितार्थ का संक्षेप कथन करता है, वह संग्रहनय है | 332 पिण्डित का अर्थ है - सामान्य - विशेष । इस नय की दृष्टि में सभी पदार्थ परस्पर अभिन्न है। क्योंकि सामान्य धर्म सभी में विद्यमान रहता है । सामान्य धर्म सर्व व्यापी है । जैसे कि द्रव्यत्व, अस्तित्व, प्रमेयत्व, आदि धर्म सभी पदार्थों में समान रूप से विद्यमान है। अतः इस आधार पर यह कहना कि 'सर्व सत्' या वेदान्त का यह कथन 'सर्व खलु इदं ब्रह्म' संग्रहनय का विषय है ।
'सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया संगृहयतेऽनेनेति संग्रह' - जिसके द्वारा सभी भेद और उभभेदों का संग्रह किया जाए वह संग्रहनय कहलाता है । 333 यह नय विभिन्न प्रकार के वस्तुओं या व्यक्तियों को किसी एक सामान्य तत्त्व के आधार पर संग्रहित कर लेता है।
स्वजाति के भेदरहित सभी पर्यायों को एक मानकर सामान्यतया सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है। जैसे सत् द्रव्य आदि । 334 सत् कहने पर अस्तित्ववान सभी पदार्थों का ग्रहण हो जाता है । द्रव्य शब्द से धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों के द्रव्यत्वनामक सामान्य धर्म से युक्त सभी द्रव्यों का ग्रहण भेद - प्रभेदों सहित हो जाता है। इस प्रकार संग्रहनय का अभिप्राय पदार्थ के संपूर्ण विशेषों के प्रति उदासीन होकर सत्तामात्र शुद्ध द्रव्य को स्वीकार करना है। 335 अतः यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय
,336
है
पदार्थों के सामान्य और विशेष धर्मो को ग्रहण करके सामान्य को ही दृष्टिकोण में लेना संग्रहनय का अभिप्राय है । सामान्य से भिन्न विशेष का अस्तित्व आकाशपुष्प की तरह नहीं होने से संग्रहनय वस्तु के सामान्य मात्र को ही ग्रहण
1332 संगहतिपिंडितत्थं संगहवयणं समासओ बिंति
333 नयवाद - मुनि फूलचन्द्र, पृ. 62 से उद्धृत
334 अ) स्वजात्यविरोधनैकध्यमुपानीय
ब) स्वजात्यविरोधनैकध्यमुपानीययार्थानाक्रान्तभेदात्
335 'शुद्ध द्रव्यमभिप्रेति सन्मात्रं संग्रहः
336 दव्वदिठयनय पयडी सुद्धासंगहय - रूवणा विसओ
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आवश्यक निर्युक्ति, गा. 469
सर्वार्थसिद्धि, 1/33
प्रमेयकमलमार्तण्ड, 6/74 पर भाष्य भाग - 3
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/33/51
सन्मतिप्रकरण, गा. 1/4
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करता है।37 निश्चित रूप से संग्रहनय सामान्य ग्राहक है। जहाँ-जहाँ सामान्य है, वहाँ-वहाँ संग्रहनय का विषय है।
यशोविजयजी ने एक समान धर्मवाले पदार्थों को संग्रहित करने वाले नय को संग्रहनय कहा है।38 सर्व पदार्थों को यदि सामान्य दृष्टि से देखा जाय तो वे सभी समान रूप से दिखाई देंगे। प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई सादृश्य, समानधर्म या समानता अवश्यमेव होती है। कोई भी पदार्थ अन्य पदार्थ से सर्वथा विलक्षण नहीं होता है। इसी सामान्य धर्म के आधार पर सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है। जैसे पुष्प जाति में गुलाब, चमेली, चंपा, कमल, सूर्यमुखी आदि सभी पुष्पों का संग्रह हो जाता है। यशोविजयजी ने संग्रहनय के दो भेदों का निर्देश किया है -
1. ओघ संग्रहनय (सामान्य संग्रहनय) 2. विशेष संग्रहनय
1. ओघसंग्रहनय :
'ओघ' से तात्पर्य है सामान्य। द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अनुसार सर्व द्रव्यों को सत्-सामान्य की अपेक्षा से संग्रहित करने वाला ओघसंग्रहनय है। जैसे- सर्वद्रव्य परस्पर अविरोधी हैं।39 सभी द्रव्यों में द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अस्तित्व आदि सामान्य गुण समानरूप से पाये जाते हैं। इस उदाहरण से सत् रूप सामान्य में सभी द्रव्यों को संग्रहित किया गया है।
337 अ) अर्थानां सर्वैकदेशसंग्रहणं संग्रहः ..........
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र,1/35 पर भाष्य ब) सामान्यसंग्रह भेदक व्यवहार
द्रव्यानुयोगतर्कणा, 6/13 पर भाष्य स) सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह
जैनतर्कभाषा, पृ.60 द) सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संगह .
प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/13 स) संग्रहो मन्यते वस्तु सामान्यात्मकमेवहि ..........
नयकर्णिका, श्लो. 6 338 संग्रहइ नय संग्रहो ते
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/11 339 संग्रहइ नय संग्रहो ते .....
........................ द्रव्य
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/11
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यशोविजयजी ने 'जैनतर्कभाषा' में सामान्य संग्रहनय को पर - सामान्य भी कहा है। जो संग्रहनय समस्त विशेषों के प्रति उदासीन होकर सत्ता मात्र को स्वीकार करता है, वह परसंग्रहनय है। जैसे विश्व एक रूप है, क्योंकि सर्वपदार्थ सत् है। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' आदि ग्रन्थों में भी संग्रहनय के पर और अपर रूप से दो भेद किये गये हैं । 341 नयचक्र में शुद्ध और अशुद्ध रूप से संग्रहनय के दो भेद किये गये है।
पदार्थों के परस्पर विरोध को गौण करके सत् रूप से सबको संग्रहित करना परसंग्रहनय का विषय है । 342 परसंग्रहनय शुद्ध सत्तामात्र को विषय बनाकर समस्त विशेषों के प्रति उदासीन रहता है। यह नय पर - सामान्य को ही विषय बनाता है । 343 इस प्रकार अभेदग्राही और शुद्ध सन्मात्र को अपनी दृष्टि में लेने वाले संग्रहनय को सामान्य या पर या शुद्ध संग्रहनय कहा है ।
2. विशेष संग्रहनय :
संग्रहनय सभी पदार्थों को एवं उनके भेदों को तथा द्रव्य को गुण एवं पर्याय सहित संग्रहित करता है। 344 किसी एक के अन्तर्गत भेदों का संग्रह करनेवाला विशेष संग्रहनय कहलाता है । सामान्यसंग्रहनय सत्ता या महासामान्य को अपना विषय बनाता है। किन्तु उसकी एक जाति विशेष को ग्रहण करनेवाला अशुद्धसंग्रहनय है । 345
340 सद्वेधा परोऽपरश्च
341 स च परोऽपरश्च
342 अपरोप्परमविरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्ध संगह 343 अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्ध द्रव्यं
344 जो संगहदि दव्वं, देसं वा विविह दव्वपज्जायं 345 अवरोप्परमविरोहे सव्वं अत्थित्ति
155
जैनतर्कभाषा, पृ. 60
प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग - 3, सू. 6 / 74 पर भाष्य
नयचक्र, गा. 208
प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/15 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 270
नयचक्र, गा. 208
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अपर संग्रहनय द्रव्यत्व, पर्यायत्व आदि अपर सामान्य को ग्रहण करके उनके भेदों के प्रति उदासीनता रखता है। 346 इस नय के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीवद्रव्य सब एक हैं। क्योंकि सबमे द्रव्यत्व रूप सामान्य विद्यमान है। छहों द्रव्यों में द्रव्यत्व का सद्भाव है। परसंग्रहनय में सत् रूप से समस्त पदार्थों का संग्रह किया जाता है तथा अपरसंग्रहनय द्रव्यरूप से समस्त द्रव्यों का, गुणरूप से समस्त गुणों का, गौत्व रूप से समस्त गौओं का संग्रह करता है | 347
द्रव्यगुणपर्यायनोरास में जीवत्व सामान्य की दृष्टि से समस्त जीवों को संग्रहित करने वाले नय को विशेषसंग्रहनय या अपरसंग्रहनय कहा है। 348 द्रव्य विशेष 'जीव' का संग्रह करने से विशेष संग्रहनय है। जीवद्रव्य के भेद है। जैसे संसारी और मुक्त | मुक्त के भी 15 भेद हैं तो संसारी के देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच ये चार भेद हैं। तिर्यंच के ऐन्द्रियादि पांच भेद हैं। इस प्रकार जीवों में परस्पर भेद होने पर भी जीवत्व या जीवनधारण करने में कोई भेद नहीं है। जीव के सहचारी भावप्राण सभी जीवों में होते हैं। अतः द्रव्यविशेष 'जीव' का संग्रह करने से यह नय विशेषसंग्रहनय है। इसमें जिसको पहले सामान्य द्रव्य के रूप से ग्रहण किया गया था, उसी का अवान्तर भेद जीवरूप से ग्रहण किया गया है।
3. व्यवहारनय
महोपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में सर्वग्राही संग्रहनय के पश्चात् विशेषग्राही व्यवहारनय की व्याख्या सूक्ष्मदृष्टि से की है। जो व्यवहार करता है या जो सामान्य का तिरस्कार करता है, वह व्यवहारनय है । 349
156
• 346 द्रव्यत्वादीनि अवान्तर सामान्यानि
347 अकलंकग्रन्थत्रयम् सं. पं. महेन्द्रकुमार शास्त्री, प्रस्तावना, पृ. 96
1348 संग्रहइ नय संग्रहो ते, द्विविध ओघ विशेष रे
349 ववहरणं ववहरए स तेण वऽवहीराए व सामन्नं
प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/19
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6 / 11 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2212
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व्यवहार का अर्थ है –भेदक या भेद करने वाला। संग्रहनय के द्वारा संग्रहित शुद्ध-अशुद्ध अर्थ में जो भेद करता है, वही व्यवहारनय है।50 जैसे –सद्वस्तु के दो 'भेद हैं- चेतन और अचेतन । अचेतन तत्त्व के धर्मास्तिकाय आदि पांच भेद हैं। इनके भी रूपी और अरूपी रूप से दो भेद हैं। चेतन तत्त्व के संसारी और सिद्ध रूप से दो भेद है। पुनः संसारी के पांच सौ तरेसठ भेद हैं तो सिद्ध के भी पन्द्रह भेद है।
केवल जीव और अजीव कहने से व्यवहार नय नहीं चल सकता है। व्यवहार के लिए सदैव भेद-बुद्धि का आलम्बन लेना पड़ता है। वस्त्र कहने मात्र से भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों का अलग-अलग बोध नहीं होता है। जो केवल खादी ही चाहता है, वह वस्त्रों का विभाग किये बिना खादी नहीं पा सकता हैं अतः खादी का कपड़ा, मिल का कपड़ा इत्यादि भेद भी करने पड़ते हैं।51 व्यवहारनय यहाँ तक भेद करता जाता है जिसके आगे भेद की कल्पना संभव ही नहीं हो।
... इसलिए व्यवहारनय संग्रहनय के द्वारा संकलित पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करता है।52 सत् तो मात्र सत्ता है। सामान्य से भिन्न विशेष का आकाश पुष्प के समान कोई व्यवहार नहीं हो सकता है तथा विशेष से अतिरिक्त सामान्य का भी कोई अस्तित्व नहीं होता है।53 घट-पट आदि विशेषों से ही व्यवहार होता है। क्योंकि जल - धारण करना, तन-आवरण आदि क्रिया विशेष घट-पट से ही होती है। संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ का विशेष बोध करने के लिए उसका पृथक्करण व्यवहारनय ही करता है।354 किसी वैद्य के द्वारा 'कषायरस' को औषध के रूप में बताने मात्र से औषध ग्रहण नहीं हो सकता हैं आँवला आदि किसी विशेष कषायले
350 जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धसुद्धं वा
नयचक्र, गा. 209 351 तत्त्वार्थसूत्र- सुखलालजी, पृ. 41 352 अ) संग्रहनयक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ............. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि 1/33 ब) संग्रहगृहीतार्थानां विधिपूर्वकमवहरणं ................... .............. प्रमेयकमलमार्तण्ड, 6/74 पर भाष्य स) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वक .. ............... जैनतर्कभाषा, पृ. 61 द) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां ..
प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/23 353 उवलंभव्यवहाराभावाओ नित्विसेसभावाओ
विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2214 354 विधिपूर्वकमवहरणं
...... तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1/33
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फल के रस का भेद करना ही पड़ता है। अन्यथा संसार के समस्त कषायरसों का संग्रहण करना सम्राट के लिए भी संभव नहीं है।355 अतः सर्वसंग्रहनय के द्वारा गृहीत वस्तु अपने उत्तर भेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है। इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है।
अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्यों में विशेष भेद करने के लिए जो प्रवृत्त होता है, उसे व्यवहारनय कहा है। जिस वस्तु को संग्रहनय ने अभेदरूप से अपना विषय बनाया था, उसी वस्तु का व्यवहारनय परमाणु पर्यन्त निरन्तर भेद करता है।57 वस्तुओं को एक रूप से संग्रहित करने के बाद उनका अलग-अलग बोध कराने के लिए या उनका लोक-व्यवहार में उपयोग करने के लिए विशेष रूप से भेद करनेवाली दृष्टि व्यवहारनय है।58 ।
लोक प्रसिद्ध और प्रायः अधिकतर उपचार के आश्रयीभूत अर्थ को विस्तार करनेवाला व्यवहारनय है।359 जैसे कि लोक व्यवहार में भ्रमर तथा कोयल काली है, तोता हरा है, हंस श्वेत है। किन्तु निश्चयदृष्टि से इनमें पांचों ही वर्ण है।360 यह नय लोक व्यवहार में जो जैसा प्रसिद्ध है, उसे उसी रूप में स्वीकार करता है। जैसा कि 'रास्ता चलता है' वस्तुतः व्यक्ति चलता है, न कि रास्ता। किन्तु व्यवहार में यही कहा जाता है कि रास्ता चलता है। घड़ा चूता है, पर्वत जलता है, इत्यादि। व्यवहारनय लोक व्यवहार का अनुसरण करने से औपचारिक रूप से भेद का कथन करता है।361
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में संग्रहनय के विषयभूत पदार्थों में भेद करने वाली दृष्टि को व्यवहारनय कहा है। संग्रहनय के समान ही
.............
355 कषायो भैषज्यम् .....
तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1/33 356 वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्व दव्वेसु ............................ अनुयोगद्वारसूत्र, गा. 137 357 जो संगहेण गहिद, विसेसरहिदं
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 273 358 लोक-व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात् इति व्यवहार. ....... नयरहस्य नियवाद-मुनि फूलचंद, पृ.73 से उद्धृत 359 लौकिक-सम उपचार प्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार: ..................... तत्त्वार्थभाषा, 1/35 360 नयवाद- मुनि फूलचंद 'श्रमण', पृ. 75 361 भेदोपचारतथा वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार:
आलापपद्धति, सू. 205
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व्यवहारनय के भी सामान्य और विशेष रूप से दो भेद किये हैं।362 प्रत्येक वस्तु जैसे सामान्यरूप है, वैसे ही विशेष रूप भी है। सामान्य रूपता वस्तु को समान बनाती है। जबकि विशेषरूपता वस्तु को विशेष या असमान बनाती है अर्थात् परस्पर भेद करती है। संग्रहनय की दृष्टि सामान्य होने से कोई भेद नहीं करती है। परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि विशेष की ओर होने से भेद करती है।383
'सभी द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं इस सामान्य संग्रहनय के विषय का भेदक प्रथम व्यवहारनय है। जैसे द्रव्य दो प्रकार का है – जीव और अजीव 64
'सभी जीव समान हैं इस दूसरे संग्रहनय के विषय का भेदक दूसरा व्यवहारनय अर्थात् विशेष संग्रहनय का भेदक विशेष व्यवहारनय है। जैसे- जीव के दो प्रकार हैं – संसारी और सिद्ध65
द्रव्यानुयोगतर्कणा66 में भी उपरोक्त सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रह भेदक रूप से व्यवहारनय के दो भेद किये गये हैं। परन्तु नयचक्र 67 में संग्रहनय के द्वारा गृहित शुद्ध अर्थ के भेदक को शुद्ध व्यवहारनय और अशुद्ध अर्थ के भेदक को अशुद्ध व्यवहारनय कहा गया है।
इस प्रकार व्यवहारनय का मुख्य प्रयोजन है लोक व्यवहार । सामान्य संग्रह से लोक व्यवहार नहीं चलता है। 'द्रव्य लाओ ऐसा कहने से प्रश्न उठता है – कौनसा द्रव्य जीव या अजीव ? जीवद्रव्य में कौनसा जीव ? संसारी या मुक्त ? संसारी जीव
362 व्यवहार संग्रह विषय भेदक
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/12 36 द्रव्यगुणपर्यायनोरास -भाग 1 विवेचन, अभयशेखरसूरि, पृ. 232 364 द्रव्यं जीवाजीवौ ............
......... .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/12 का टब्बा 365 जीवाः संसारीणः सिद्धाश्च ......... ............ ... वही 366 संग्रह भेदक व्यवहारोऽपि द्विविधः स्मृतः ........... द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/13 367 जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धं सुद्धं वा .................... नयचक्र, गा. 209
.........
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में कौनसा संसारी ? मनुष्य या तिर्यंच ? अतः सभी स्थानों पर व्यवहार करने के लिए विशेष की आवश्यकता होती है | 368
4. ऋजुसूत्रनय
प्रस्तुत ‘द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में ग्रन्थकार ने ऋजुसूत्रनय एवं उसके भेदों की चर्चा की है। ऋजु का अर्थ है सहजतम अर्थात् वर्तमानकालीन पर्याय अनुलक्षी; सूत्र का अर्थ है श्रुतज्ञान। जो श्रुतज्ञान वर्तमान पर्याय अनुलक्षी है, उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। 309 यह नय पूर्व और पश्चातवर्ती कालों के विषयों को अपने दृष्टिकोण में न लेकर वर्तमान काल की पर्याय के विषयभूत पदार्थों को ही ग्रहण करता है 370
भूतकालिक और भविष्यकालीन पर्यायों के आधार पर वचन व्यवहार करने हेतु यह नय तैयार नहीं है । क्योंकि पदार्थ की भूत - पर्याय नष्ट हो गई और भावीपर्याय अभी उत्पन्न नहीं है। अतः भूत और भावी से काम नहीं चल सकता है। वस्तुतः वर्तमान काल की पर्याय से ही कार्य होता है । जैसे - वर्तमान समृद्धि ही सुख का साधन होने से समृद्धि कही जा सकती है। भूत कालिक समृद्धि का स्मरण या भावीसमृद्धि की कल्पना वर्तमान में सुखदायक न होने से समृद्धि नहीं कही जा सकती है। इसी तरह पुत्र मौजूद हो और वह माता - पिता की सेवा करे तब तो वह पुत्र है । किन्तु जो पुत्र अतीत हो या भावी हो, या वर्तमान में मौजूद नहीं है, वह पुत्र ही नहीं है। 371 इसलिए ऋजुसूत्रनय अतीत और अनागत की अपेक्षा न रखकर वर्तमानकालीन पर्याय मात्र को ही ग्रहण करता है। 372 एक व्यक्ति जो अभी तक निरक्षर है। परन्तु भविष्य में विद्वान बनेगा और दूसरा व्यक्ति अनभ्यास के कारण कण्ठस्थ विद्या को बिल्कुल भूल गया। वर्तमान में दोनों से कार्य - सिद्धि नहीं हो
368 द्रव्यानुयोगतर्कणा – ठाकुर प्रसाद शर्मा, पृ. 92
369 जैनदर्शन में नय की अवधारणा, - डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 76
370 ऋजु प्रगुणं सूत्रयति
371 तत्त्वार्थसूत्र - सुखलालजी, पृ. 42
372 सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधान परिज्ञानं ऋजुसूत्रः
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सर्वार्थसिद्धि, 1/33
तत्त्वार्थभाष्य, 1/35 पर भाष्य
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सकती है। फलतः उन्हें विद्वान नहीं कहा जा सकता है। जिसके मस्तिष्क में दृष्टव्य विषय रेडियम की तरह वर्तमान में प्रतिभासित हो रहा हो, उसे ही विद्वान कहा जाता है।373 इसलिए ऋजुसूत्रनय प्रत्युत्पन्नग्राही है।74 जो अध्यवसाय भूत और भविष्यत् की उपेक्षा करके वर्तमान को ही ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्रनय कहलाता है।75
वस्तुतः जो वर्तमानकालीन पर्याय है, वही वस्तु है। भूत और भविष्यकालीन पर्याय क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् है और असत् को स्वीकार करना कुटिलता है। जो श्रुतज्ञान विशेष सीधे ढंग से वस्तु को मुक्ताफल की तरह एक सूत्र में पिरोए, वह ऋजुसूत्रनय है। भग्न मोती या अविद्ध मोतीपिरोया नहीं जा सकता है। विद्ध मोती ही वर्तमान क्षण में एक लड़ी में पिरोये जा सकते हैं। अतीत और अनागत पर्यायभग्न और अविद्ध मोती के सदृश होने से अग्राह्य है। वर्तमान पर्याय विद्ध मोती की भांति ग्राह्य है। अतः वर्तमान पर्याय ही ऋजुसूत्रनय का ग्राह्य विषय है।
___ ऋजुसूत्रनय क्षणिकवाद का समर्थन करता है। प्रत्येक पर्याय अपने-अपने क्षण तक ही सीमित है। इस नय के अनुसार 'काला कौआ ऐसा वाक्य प्रयोग नहीं हो सकता है। काला, काला है और कौआ, कौआ है। क्योंकि काला और कौआ दोनों भिन्न-भिन्न दो अवस्थाएं हैं। यदि काला काक रूप हो जाये तो कोयल आदि समस्त काले पक्षी काक हो जायेंगे और यदि सभी काले काक हो जाये तो काक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। अतः ऋजुसूत्रनय वर्तमानकाल में अर्थपर्याय के रूप में परिणत वस्तु को ही सत् रूप में सिद्ध करता है, अन्य को नहीं।78
" नयवाद, – मुनि फूलचंद 'श्रमण', पृ.91 * पच्चुत्पन्नग्राही उज्जुसुओ णयविहि मुणेयव्वो ..... ... अनुयोगद्वार, गा. 138
आवश्यकनियुक्ति, गा. 470, विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2223, जैनतर्कभाषा, पृ. 61 Fऋजु अवक्रं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः –नयप्रदीप, नयवाद-मुनि फूलचंद्र, पृ.88 से उद्धृत न कृष्णः काकः उभयोरूपि स्वात्मकत्वात् ........................ तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33/7 जो वट्टमाणे काले, अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं ................... कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 274
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महोपाध्याय यशोविजयजी के 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में विद्यमान (वर्तमान) और अपने वर्तमान अर्थ को ही पदार्थ के रूप में स्वीकार करने वाले नय को ऋजुसूत्रनय कहा है।79 यह नय भूतकाल और भाविकाल का विचार नहीं करके मुख्यरूप से वर्तमानकाल का ही विचार करता है। क्योंकि अतीत और अनागत पदार्थ अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है। अर्थक्रियाहीन पदार्थ से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होने से, उसे पदार्थ के रूप में नहीं माना जा सकता है।380 यशोविजयजी ने छठी ढाल में ऋजुसूत्रनय की व्याख्या में 'वर्तता' के साथ 'निज अनुकूल' विशेषण भी दिया है। यथा
वर्ततो ऋजुसूत्र भासई, अर्थ निज अनुकूल रे' ऋजुसूत्रनय वर्तमानकाल के साथ अपने अनुकूल अर्थात् जिससे अपने कार्य सिद्ध हो, उसे ही पदार्थ के रूप में स्वीकार करता है। जैसे कि अपने पिता, भाई या पुत्र की संपत्ति के आधार पर स्वयं को धनवान नहीं माना जाता है। क्योंकि उस संपत्ति का उपयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता है| परवस्तु अपने कार्यसाधक में उपयोगी नहीं होने से मिथ्या है। अपनी इच्छानुसार जिस वस्तु का उपयोग किया जा सके, उसी वस्तु की अपने लिए सत्ता है। इसलिए ऋजुसूत्रनय वर्तमान काल में भी निजानुकूल अर्थात् अपने कार्य की साधक वस्तु को ही वास्तविक मानता है।91
ऋजुसूत्रनय द्रव्य निक्षेप में वर्तमानकालिक पर्याय या अंश को स्वीकार करता है। भूत, भावी पर्याय को स्वीकार नहीं करता है। वस्तुतः यह नय द्रव्यार्थिक है, पर्यायार्थिक तो कथंचित् ही है। अनुयोगद्वारसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य का अनुसरण करने वाले विद्वान द्रव्यार्थिकनय के चार भेद मानते हैं। वे नैगम से लेकर ऋजुसूत्र नय तक के चार नयों को द्रव्यार्थिक मानते हैं। चाहे ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालिक पर्याय को ग्रहण करता हो, किन्तु पर्याय द्रव्य से न तो अलग या भिन्न है और न
379 वर्ततो ऋजुसूत्र भासई अर्थ जिन अनुकूल रे .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/13 380 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, -भाग 1 - अभयशेखर सूरि, पृ. 234 381 द्रव्य-गुण-पर्यायनोरास-भाग 1 - धीरजलाल डाह्यालाल मेहता, पृ. 270
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द्रव्य के अभाव में उसकी कोई सत्ता है। पर्यायार्थिक नय केवल भावनिक्षेप को स्वीकार करता है। जबकि द्रव्यार्थिकनय चारों ही निक्षेप को मानता है। परन्तु सिद्धसेन दिवाकर आदि द्रव्यार्थिक के तीन और पर्यायार्थिकनय के चार भेद मानते हैं और ऋजुसूत्रनय को पर्यायार्थिक मानते हैं।
ऋजुसूत्रनय वर्तमानकाल में होने वाली पर्याय को ही मानता है और बौद्धदर्शन भी क्षणिकवाद का ही समर्थन करता है। परन्तु दोनों में अन्तर है। क्षणिकवादी बौद्धदर्शन द्रव्य की सत्ता को बिल्कुल नहीं मानकर केवल पर्याय को ही महत्त्व देता है। जबकि प्रस्तुत नय वस्तु की सत्ता को नकारता नहीं है। अपितु उसे गौण रूप से स्वीकार करके पर्याय को मुख्यता प्रदान करता है।
नयचक्र और आलापपद्धति का अनुसरण करके प्रस्तुत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में ऋजुसूत्रनय के सूक्ष्म और स्थूल रूप से दो भेद किये गये हैं।
सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय और स्थूल ऋजुसूत्रनय -
जो द्रव्य की एक समयवर्ती क्षणिक पर्याय को ग्रहण करता है वह सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है और जो अपनी आयुपर्यन्त रहनेवाली मनुष्य आदि पर्याय को उतने समय तक मनुष्य रूप में स्वीकार करता है,382 वह स्थूल ऋजुसूत्रनय है। सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय क्षणिक विषयों को अपना विषय करताहै। जैसे- शब्द क्षणिक है, वैषयिक सुख क्षणिक है, दीपक की शिक्षा क्षणिक है आदि| जबकि स्थूल ऋजुसूत्रनय असंख्यात समयों में भी विद्यमान रहने वाली पर्याय को ग्रहण करता है। जैसे -युवावस्था, वृद्धावस्था आदि।
.......................
382 अ) जो एयसमयवट्टी गेण्हइ दवे धुवत्तपज्जायं। ___ सो रिउसुत्तो सुहुमो सव्वंपिसदं जहा खणियं ।।
..नयचक्र, गा. 210 ब) सूक्ष्म ऋजुसूत्रो यथा एकसमयवस्थायी पर्यायः
स्थूल ऋजुसूत्रो यथा मनुष्यादि पर्यायाः तदानुः प्रमाणकाल तिष्ठन्ति .... आलापपद्धति, सूत्र 74,75 स) स्वानुकूलं वर्तमान ऋजुसूत्रो ही भाषते
.............. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 6/14
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वस्तु परिणमनशील होने से सतत परिवर्तन चलता रहता है। एक पर्याय एक समय तक ही रहती है। दूसरे समय में वह पर्याय नष्ट हो जाती है और दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है। इस एक समयवर्ती पर्याय को अर्थपर्याय कहा जाता है। अतः जो अर्थपर्याय को ही अपने दृष्टिकोण में लेता है, वह नय सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है। परन्तु लोक व्यवहार में कोई भी पर्याय (अवस्था) जब तक चलती रहती है, तब तक उसे वर्तमान पर्याय ही कहा जाता है| जैसे-मनुष्य पर्याय आयु पर्यन्त रहती है। ऐसी असंख्य समयवाली स्थूलपर्याय स्थूल ऋजुसूत्रनय का विषय है।
महोपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति में क्षणिक पर्याय को ग्रहण करनेवाली दृष्टि को सूक्ष्मऋजुसूत्रनय तथा मनुष्य आदि दीर्घकालीन पर्याय को स्वीकार करने वाली दृष्टि को स्थूल ऋजुसूत्रनय कहा है।83 सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय ‘एक समय' को ही वर्तमान के रूप में स्वीकार करता है। क्योंकि पूर्वसमय नष्ट हो जाने से अतीत और परवर्ती समय उत्पन्न नहीं होने से अनागत है। स्थूल ऋजुसूत्रनय दीर्घ वर्तमान काल को भी वर्तमान पर्याय के रूप में स्वीकार कर लेता है।
5. शब्दनय -
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की छठी ढाल में यशोविजयजी ने शब्दनय को परिभाषित किया है। जिसके द्वारा वस्तु-तत्त्व का कथन किया जाए, उसे शब्द कहते हैं।84 अतिशयज्ञानी अतिसूक्ष्म और अतिदूरस्थ पदार्थों को भी हस्तामलवत् प्रत्यक्ष ही जानते हैं, किन्तु अल्पज्ञ जीव को पदार्थों का बोध शब्द के द्वारा ही हो सकता है। दूसरी ओर शब्द ही एक ऐसा साधन है जिससे प्राणी अपने विचारों, चिन्तनों एवं अनुभवों को अभिव्यक्ति दे सकता है। वस्तु शब्द के द्वारा ही कही जाती है और बुद्धि उसी अर्थ को मुख्यरूप से मान लेती है। इस प्रकार जिस नय में शब्द मुख्य हो और
383 क्षणिक पर्याय कहइं सूषिम, मनुष्यादिक थूल रे ..................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/13 384 शपतीति शब्दो नयः शब्दप्रधाननत्वात्
....... प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 663
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अर्थ गौण हो, वही शब्द नय है। शब्द के आधार पर अर्थग्रहण करनेवाला नय शब्द नय है। यह नय शब्द पर निर्भर रहता है।
वस्तु-तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का शब्द से प्रतिपादन करना तथा कर्ता, कर्म आदि कारकों की अपेक्षा से अर्थ का निरूपन करना शब्दनय है।385 शब्दों में काल आदि के भेद से अर्थ भेद का प्रतिपादन करनेवाला नय शब्दनय है।386 काल आदि से तात्पर्य है, काल के अतिरिक्त कारक, लिंग, संख्या और उपसर्ग हैं।387 यह नय काल, कारक आदि के भेद से शब्दों के अर्थ में भेद करता है, किन्तु पर्यायवाची शब्दों को एक अर्थ का वाचक मानता है।
1. कालभेद :
परिवर्तन काल का स्वभाव होने से प्रत्येक द्रव्य की पर्याय प्रतिपल बदलती रहती है। भूत, भविष्य और वर्तमान काल के भेद से पदार्थों में भी परिवर्तन आता है। तीनों काल में पदार्थ की स्थिति एक समान नहीं होती है। इसलिए यह नय कालभेद से अर्थभेद करता है। जैसे 'सुमेरू था', 'सुमेरू है' और 'सुमेरू होगा। तीनों कालों की अपेक्षा से यह नय सुमेरू को भिन्न-भिन्न मानता है।388
"तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं नामं नयरी होत्था।" आगमों में ऐसे उल्लेख आते हैं। इसका स्थूलार्थ है राजगृह नाम की नगरी भूतकाल में थी और वर्तमानकाल में नहीं है। जबकि लेखक के समय में भी राजगृह नगरी थी। अब प्रश्न यह उठता है कि लेखक के समय में राजगृह नगरी विद्यमान थी तो लेखक ने 'थी' ऐसा प्रयोग क्यों किया ? इसका उत्तर शब्दनय से मिलता है। वर्तमान (लेखक के
385 यथार्थाभिधाना शब्दः ............
386 अ) कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपाद्यमानः शब्दनयः ब) कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपाद्यमानः शब्दः
स) कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपाद्यमानः शब्दः ......... 387 कालकारक लिंग संख्यापुरूषोपसर्गाः कालादयः 38 तत्र बभूव भवति भविष्यति सुमेरूरित्यत्रा
तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, 1/35
प्रमाणनयतत्त्वालोक, 7/32 जैनतर्कभाषा, पृ. 61 स्याद्वादमंजरी, पृ. 249 जैनतर्कभाषा, पृ. 61
..........
वही, पृ.61
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समय) में विद्यमान राजगृह नगरी से भूतकाल की राजगृह नगरी भिन्न है । अतः उसी का वर्णन प्रस्तुत होने से 'राजगृह नगरी थी' ऐसा कहा गया है। 389 यहाँ पर कालभेद से अर्थभेद किया गया है।
2. कारक भेद :
कर्त्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान एवं अधिकरण ये छह कारक हैं। शब्दनय
390
इन कारकों के भेद से शब्दों में अर्थभेद करता है । यथा - 3
कर्त्ताकारक
धर्म जीव को सद्गति में पहुंचा देता है
धर्म को उपलब्ध जीव सुखी होता है धर्म के माध्यम से ही कर्मों का नाश होता है
धर्म के लिए प्रयत्न करना चाहिए
धर्म से विमुख जीव दुःखी होता है स्वधर्म में दृढ़ होना चाहिए - अधिकरण कारक
कर्मकारक
=
सम्प्रदान कारक
करणकारक
अपादानकारक
यहाँ सभी कारकों में धर्म शब्द का प्रयोग है, किन्तु उसका अर्थ अलग-अलग
प्रतिफलित होता है ।
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3. लिंगभेद
लिंग तीन प्रकार के होते हैं - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग । शब्दनय इन तीन लिंग के भेद से वाच्यार्थ में भेद करता है । स्त्रीलिंग के साथ पुल्लिंग का प्रयोग करना जैसे 'तारका स्वातिः' पुल्लिंग के साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग जैसे 'अवगमो विद्या, स्त्रीलिंग के साथ नपुंसकलिंग का प्रयोग जैसे - वीणा आतोद्यम्' शब्दनय इस प्रकार एक लिंग के स्थान पर दूसरे लिंग के प्रयोग को व्याभिचार
389 तत्त्वार्थसूत्र - पं. सुखलालजी, पृ. 43 मुनि फूलचन्द 'श्रमण, पृ. 129
390 नयवाद
391 तद्यथा लिंगव्याभिचारस्तावत् स्त्रीलिंगो पुल्लिंगाधिस्थानं
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391
तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33/15
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मानता है। तट, तटी में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के भेद से भेद मानता है। 392 'कमल' यह मृग का वाचक है; कमला का अर्थ लक्ष्मीदेवी है, कमलं से तात्पर्य कमल का फूल है। सुमनः (नपुंसकलिंगी) सुन्दर मन का वाचक है।, सुमनस् (पुल्लिंगी) देवपद का पर्यायवाची है । सुमनस् (स्त्रीलिंगी) से तात्पर्य पुष्प से है । 393
4. संख्याभेद :
शब्दनय शब्दों में वचनान्त से वाच्यार्थ में भेद करता है । जलं आप; वर्षाः ऋतुः आम्राः वनम् आदि में एकवचन के स्थान पर बहुवचन या बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग करना अथवा विशेषण - विशेष्य के रूप में प्रयोग करना शब्द नय को मान्य नहीं है । 394 शब्दनय की दृष्टि में यह संख्या व्याभिचार है । यह नय एकार्थ वाचक पर्यायवाची शब्दों में वचन के आधार पर भेद करता है। जैसे जलं और आपः । जलं यह नपुंसकलिंग में एकवचनान्त पद है। जबकि आपः स्त्रीलिंग में बहुवचनान्त पद है। अतः जल के एक बूंद के लिए आपः शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार बालकः का अर्थ है एक बालक ; बालकौ का अर्थ है दो बालक; बालकाः का अर्थ है बहुत से बालक । दारा और कलत्र क्रमशः बहुवचनान्त और एकवचनान्त है। यद्यपि दोनो शब्द पत्नी के ही वाचक हैं | परन्तु वचनभेद से दोनों का अर्थ भिन्न-भिन्न है | 395
5. पुरूषभेद
पुरूष तीन प्रकार के होते हैं - प्रथमपुरूष, मध्यमपुरूष और उत्तमपुरूष । शब्दनय पुरूषभेद से भी वाच्यार्थ में भेद करता है । 'एहि, मन्ये रथेन यास्यसि नाहि
जैनतर्कभाषा, पृ. 61
-
1392 तटस्तटीतटमित्यादौ लिंग भेदेन
मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण, पृ. 130 131
393 नयवाद 394 संख्याभिचारः – जलमापः वर्षाऋतुः आम्रावनम्
395
दाराः कलत्रमित्यादौ संख्या भेदेन
:–
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सर्वार्थसिद्धि, 1/33
जैनतर्कभाषा, पृ. 61
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यास्यसि यातस्ते पिता' यह पुरूष या साधन व्याभिचार है।96 यथार्थ में ‘त्वम् एहि, त्वंमन्यसे यत् अहं रथेन यास्यामि त्वं नहि यास्यसिते पिता अगे यातः' ऐसा प्रयोग होना चाहिए। यह नय पाठं पठति; पाठं पठसि; पाठं पठामि- इन तीनों में पुरूष भेद के कारण वाच्यार्थ में भेद करता है। .
6. उपसर्गभेद :
उपसर्ग का अर्थ है उपग्रहण परा, प्र, अप, समादिशब्दनय उपसर्ग के प्रयोग के आधार पर वाच्यार्थ में भेद करता है। जैसे संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति में परस्मैपद और आत्मनेपद का प्रयोग उपग्रहण व्याभिचार है।397 संतिष्ठते, अवतिष्ठते में मूल धातु (स्था) एक होने पर भी 'सम' और 'अव' उपसर्ग के आधार पर वाच्यार्थ में भेद किया जाता है। इसी प्रकार प्रहार, उपहार, संहार, विहार, निहार, परिहार, आहार, अपहार, व्यवहार आदि के वाच्यार्थ में भी भेद है। इस प्रकार लिंग, संख्या, और साधन आदि के व्यभिचार का निराकरण करनेवाला शब्दनय है।398 इसी बात को नयचक्र में इस प्रकार समझाया गया है - शब्दनय एकार्थ भिन्न लिंगादि वाले शब्दों की प्रवृति को स्वीकार नहीं करता है।99 शब्दनय ऐसे शुद्ध शब्दों को ही स्वीकार करता है जो शुद्ध व्याकरण से प्रकृति, प्रत्यय के द्वारा सिद्ध हों।100 शब्दनय लिंग आदि से शब्दों के अर्थ में भेद करने पर भी अनेक पर्यायवाची शब्दों द्वारा
396 साधन व्यभिचारः एहि मन्ये रथेनयास्यसि ........
तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33/20 397 अ) संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार
वही, 1/33/20 ब) सन्तिष्ठते, अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्गभेदेन .....
जैनतर्कभाषा, पृ.61 398 अ) लिंग, संख्यासाधनादिव्यभिचार निवृतिपरः शब्दनयः
सर्वार्थसिद्धि, 1/33 ब) सव्वेसि वत्थूणं संखालिंगादि बहुपयादेहिं .
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा.275 399 जो वट्टणं ण मण्णई एयत्थे भिन्नलिंगाइणं ...........
नयचक्र, गा. 212 400 शब्दात् व्याकरणात् प्रकृति प्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः .................. आलापपद्धति, सू. 200
...........
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सूचित वाच्यार्थ को एक ही पदार्थ मानता है। जैसे कुम्भ, कलश और घट आदि एक ही पदार्थ के वाचक हैं।101
यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास में शब्दनय को इस प्रकार परिभाषित किया है -प्रकृति, प्रत्यय आदि व्याकरण के नियमों से व्युत्पत्ति सिद्ध शब्दों को ही स्वीकार करनेवाला तथा लिंग और वचनभेद से, अर्थभेद को मान्यता देने वाला नय, शब्दनय कहलाता है।402
शब्दनय मूल धातु कौनसी है ? कौनसा प्रत्यय किस अर्थ में लगा है ? कौन सा काल व कारक लगा है? इत्यादि का निरीक्षण करके ही शब्द के वाच्यार्थ को मानता है। जैसे पाचक और पाचिका। इसमें पच् प्रकृति है जिसका अर्थ है पकाना। 'अक्' प्रत्यय है जिसका अर्थ है कर्ता। अतः पाचक शब्द से पाक् कर्तृत्व-पुल्लिंग का ज्ञान होता है। क्योंकि यदि पाक् कर्तृत्व-स्त्रीलिंग होता तो उसका वाचक शब्द 'पाचिका' बनता जो 'इन' प्रत्यय लगकर बनता है।03 इस प्रकार प्रकृति-प्रत्यय आदि व्याकरण नियमों से सिद्ध शब्दों का ही एक निश्चितार्थ होता है। परन्तु जो शब्द व्याकरण नियमों का उल्लंघन करके बनता है, उसका सटीक अर्थ दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है।
यशोविजयजी के अनुसार शब्दनय व्याकरण सिद्ध शब्दों में भी लिंग और वचन आदि भेद से अर्थ के भेद को स्वीकार करता है।404 जैसे तट, तटी, तटम् । इन तीनों शब्दों का अर्थ तो 'किनारा' ही है। परन्तु लिंग भेद से तटं, तटी, तटम् का अर्थ भिन्न-भिन्न है। समुद्र का किनारा तट: है। तटी नदी का किनारा है और सामान्य रूप से बहने वाले जल झरणादि) के किनारे को तटम् कहा जाता है। इस प्रकार
401 अर्थशब्दनयोनैके पर्यायैकेमेव च .
नयकर्णिका, श्लो.14 402 शब्द प्रकृति प्रत्ययादिक, सिद्ध मणइ शब्द रे ........................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/14 4403 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, - अभयशेखरसूरि, पृ. 236 404 पणि लिंग वचनादि
............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/14 का टब्बा 405 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 - धीरजलाल डाह्यालाल मेहता, पृ. 274
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शब्दनय जिन-जिन शब्दों के लिंगादि भिन्न-भिन्न होते हैं, उन-उन शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ करता है।
6. समभिरूढ़नय :
यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास में दिगम्बर जैनाचार्यों के मन्तव्य के अनुसार द्रव्यार्थिक आदि नौ नयों के क्रम में समभिरूढ़नय का भी प्रतिपादन किया है। यहाँ यशोविजयजी के पहले अन्य जैनाचार्यों ने अपनी रचनाओं में समभिरूढ़नय को किस प्रकार परिभाषित किया है, इसका अवलोकन कर लेना भी आवश्यक है I
लिंग, वचन, काल आदि के आधार पर शब्दों के अर्थ में भेद करनेवाली भेदग्राही बुद्धि जब और गहराई में उतरकर झांकने लग जाती है तब पर्यायवाची शब्दों में भी उनकी व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थभेद करने के लिए तैयार हो जाती है। इसी सूक्ष्म भेदग्राही बुद्धि से समभिरूढ़ नय का अवतरण होता है। समभिरूढ़ नय कहता है केवल लिंग आदि के भेद से अर्थ का भेद स्वीकार करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु व्युत्पत्ति मूलक शब्दों के भेद से भी अर्थभेद मानना चाहिए ।
-
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शब्द के पर्यायवाची शब्दों में व्युत्पत्ति की दृष्टि से अर्थभेद का आरोपण करने वाला नय समभिरूढ़ नय है। 406 पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद करना इस नय का मुख्य विषय है । यह नय शब्दों में उनकी व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थभेद मानकर प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न ही करता है । घट शब्द भिन्न अर्थवाचक है और कुम्भ शब्द भिन्नार्थवाचक है। जैसे घटनात् घट इति विशिष्ट चेष्टावान्" वाच्यार्थ को घट कहते हैं। कूटकौटिल्ये कूटनात् कौटिल्ययोगात् कूटः यह व्युत्पत्ति कूटः शब्द की है। उभ-उभ पूरणो कुम्भनात् कुत्सितपूर्णात् कुम्भः यह व्युत्पत्ति कुम्भः शब्द की है । घट, कूट और कुम्भ में शब्द भेद से अर्थभेद किया गया है | 407
406 पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् नय समभिरूढ़
नयवाद - मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 138
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/33/76
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इस प्रकार पर्यायवाची शब्दों में निरूक्ति (व्युत्पत्ति) के भेद से अर्थभेद को आरूढ़ करनेवाल नय समभिरूढ़ नय है।408
यह नय काल आदि भेद नहीं होने पर भी मात्र पर्यायवाची शब्दों के भेद से ही पदार्थ में भेद मान लेता है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शक्र । ये तीनों शब्द स्वर्ग के स्वामी 'इन्द्र' के वाचक हैं और एक ही लिंग और वचन के हैं। किन्तु समभिरूढ़ नय के अनुसार ये तीनों शब्द इन्द्र के भिन्न धर्मों को कहते हैं। इन्द्रनात इन्द्रः -यह इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति है, जिसका अर्थ है परम ऐश्वर्यमान । पुदरिणात् पुरन्दरः-यह पुरन्दर शब्द की व्युत्पत्ति है। पुरन्दर का अर्थ है नगरों का विदारण करनेवाला। 'शकनात् शक्रः -यह शक्र शब्द की व्युत्पत्ति है, जिसका अर्थ है सामर्थ्यवान् ।09 जिन शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है, वे शब्द भिन्न अर्थों के द्योतक होते हैं। अतः इन्द्र न तो शक हो सकता है और नहीं शक्र पुरन्दर हो सकता है। इसी प्रकार पुरन्दर भी शक्र या इन्द्र नहीं हो सकता है। प्रस्तुत नय जिस शब्द का जो व्युत्पत्तिलभ्य अर्थयोग्य हो, उस शब्द का वही अर्थ स्वीकार करता है। इस नय के मत से 'इन्द्र' शब्द से 'शक्र' शब्द उतना ही भिन्न है, जितना घट से पट शब्द पृथक् है। यह नय घटादि सत् पदार्थों के विषय में संक्रमण को अंगीकार नहीं करता है। दूसरे शब्दों में सत् अर्थों में संक्रमण न होना ही समभिरूढ़नय है।410
समभिरूढ़ नयानुसार लिंग, वचन आदि के प्रयोग से जैसे वस्तु में भिन्नता आती है, वैसे ही संज्ञा–भेद से भी विभिन्नता आती है। एक अर्थ के वाचक अनेक संज्ञा शब्द नहीं हो सकते हैं और एक ही संज्ञा शब्द अनेक वस्तुओं का वाच्य नहीं हो सकता है। जो जिस वाच्य का वाचक होता है, उसका पर्यायवाची दूसरा नहीं हो
408 अ) पर्यायशब्देषु निरूक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन् समभिरूढ़ ............ प्रमाणनयतत्त्वालोक, 7/36 ब) पर्यायशब्देषु निरूक्तिभेदेने भिन्नमर्थ ....
............................. जैनतर्कभाषा, पृ. 62 स) भिन्नं समभिरूढाख्य शब्दार्थ तथैव च
द्रव्यानुयोगतर्कणा, 6/15 द) समिभरूढस्त पर्यायशब्दानां प्रविभक्तमेवार्थमभिमन्यते
स्याद्वादमंजरी, पृ. 246 च) परस्परेणाभिरूढः समभिरूढ़: ..
आलापपद्धति, सू. 201 409 तद्यथा इन्द्रनात् इन्द्रः ...........
स्याद्वादमंजरी, पृ.246 410 सत्स्वर्थेष्वसंक्रमः समभिरूढः
तत्त्वार्थभाष्य, 1/33 पर भाष्य
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सकता है।11 इस प्रकार जहाँ शब्दनय इन्द्र, पुरन्दर और शक्र में एकार्थ स्वीकार करता है वहाँ समभिरूढ़ नय उनके पृथक्-पृथक् अर्थ को महत्त्व देता है।
नन्दीसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र13 में मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को मतिज्ञान के पर्यायवाचक शब्द माने गये हैं। शब्दनय के अनुसार पूर्वोक्त मति आदि शब्द एक लिंगी होने से एकार्थ के बोधक हो सकते हैं परन्तु समभिरूढ़ नय संज्ञा भेद से मति आदि शब्दों के अर्थभेद को मान्यता देता है। इस तरह एक वस्तु के वाच्य शब्द का अन्य वस्तु के वाच्यार्थ के रूप में संक्रमण शक्य नहीं हो सकता है। यदि एक वस्तु में अन्य शब्द का आरोप किया जाए तो वह अवस्तु रूप हो जाती है।414
कहने वाले के शब्द का जो अर्थ और अभिप्राय होता है, उसे 'वस्तु' माना जाता है और अन्य को 'अवस्तु'। जैसे धर्म शब्द का वाच्यार्थ धर्मास्तिकाय, श्रुतधर्म और चारित्रधर्म आदि हैं। समभिरूढ़नय बोलनेवाले के अभिप्राय को मुख्यता देकर प्रसंग अनुसार जो अर्थ उचित लगता है, केवल उसे ही धर्म शब्द का अर्थ मानता
है।415
सर्वार्थसिद्धि में समभिरूढ़नय की व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई है। जो शब्द के विभिन्न वाच्यार्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ को प्रधानता से अंगीकार करता है, वह समभिरूढ़ नय कहलाता है।16 'गौ' शब्द के वाणी, पृथ्वी आदि 11 अर्थ होते हैं। परन्तु समभिरूढ़नय सास्नादिवाली 'गाय' इस एक अर्थ में ही 'गौ' शब्द को रूढ़
411 अ) जं जं सण्णं भासइ तं तं ......
समापन
सत्यापित ..............
412 ईहा अपोह वीमांसा मग्गणा 413 मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता ... 414 अ) वत्थुओ संकमणं होई अवत्थु णये समभिरूढ़े
ब) वत्थुओ संकमणं होति अवत्थु नए समभिरूढ़े ... 415 नयवाद, -मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 146 416 नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढ़
...........
विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2236 ............ स्याद्वाद मंजरी, श्लोक संग्रह, पृ. 247
नंदीसूत्र, सू 79 तत्त्वार्थसूत्र, 1/13 अनुयोगद्वार गा. 139 आवश्यकनिर्यक्ति या
युक्ति , गा. 471
सर्वार्थसिद्धि, 1/33
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करके, शेष ग्यारह अर्थों को छोड़ देता है।417 आलापपद्धति में भी लगभग इसी का अनुसरण करके कहा गया - जो एकार्थ पर आरूढ़ होकर अन्य अर्थों को गौण कर देता है, वही समभिरूढ़ नय है। 18 माइल्लधवल ने समभिरूढ़ नय के दो अर्थ किये हैं। यथा -
___ 1. अनेकार्थ को छोड़कर किसी एक अर्थ में प्रधानता से रूढ़ हो जाना जैसे 'गौ' शब्द गाय के अर्थ में रूढ़ है।
2. शब्दभेद से अर्थभेद को मान्यता देना – जैसे, इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ।419
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी ने भिन्न-भिन्न शब्दों के अर्थ को भी भिन्न-भिन्न माननेवाले नय को समभिरूढ़ नय कहा है। उन्होंने भी पूर्वाचार्यों के कथन को महत्त्व देते हुए शब्द भेद से अर्थ भेद करनेवाले नय को ही समभिरूढ़ कहा है।120 जैसे 'घट' शब्द और ‘पट' शब्द पृथक्-पृथक् होने से घट शब्द का वाच्यार्थ और पट शब्द के वाच्यार्थ पृथक्-पृथक् हैं। उसी प्रकार 'कुम्भ' शब्द भी घट शब्द से भिन्न होने से कुम्भ का वाच्यार्थ और घट का वाच्यार्थ भी एक नहीं हो सकता है। 'कुम्भ' कुम्भ है और 'घट' घट है। शब्दों में भेद होने पर अनेक वाच्यार्थ भेद होना निश्चित है- इसे ही समभिरूढ़ नय कहते हैं।
लोक व्यवहार में घट और कुम्भ शब्द को एकार्थ के माना जाता है। यशोविजयजी इस एकार्थक प्रतीति का कारण शब्दनयादि की वासना मानते हैं।421 क्योंकि शब्दनय, ऋजुसूत्रनय, व्यवहारनय के द्वारा घट, कुम्भ आदि शब्दों को एकार्थक मानने से लोगों के मन में यही अर्थ रूढ़ हो जाता है।
417 यतो नानार्थान् समतीत्यैकमर्थमाभि ......
तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33 पर वृत्ति, 30 418 समभिरूढ़ो यथा – गौः पशुः ........
.. आलापपद्धति, सू. 78 41 सद्दारूढ़ो अत्थो अत्थारूढ़ो तहेव पुन सद्दो ....
नयचक्र, गा. 214 (माइल्लधवलकृत) 420-समभिरूढ़ विभिन्न अर्थक, कहइ भिन्न ज शब्द रे ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/14 421 एकार्थपणुं प्रसिद्ध छई
............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/14 का टब्बा
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7. एवंभूतनय :
न्यायविशारद यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में नयों के वर्णन के क्रम में एवंभूतनय को जिसका विषय अत्यन्त गंभीर और कठिन है, सरल मरूगुर्जर भाषा में विश्लेषित करने का प्रयत्न किया है। एवं-इस प्रकार, भूत-तुल्य। जो पदार्थ अपनी व्युत्पत्ति के अर्थ के समान तुल्य क्रिया करता है, उसी क्रिया में उसके परिणाम हो, उसी में लगा हो, उसे एवंभूत कहते हैं। इस एवंभूत रूप पदार्थ को ही प्रधानता देनेवाली दृष्टि एवंभूतनय है। जैसे घट पानी से भरा हो, घट-घट शब्द कर रहा हो, उसी समय एवंभूतनय उसे घट कहेगा। घर में पड़े रिक्त घट को घट नहीं कहेगा।422
वस्तु स्वरूप के तल तक पहुंचने वाली बुद्धि विचार करती है कि जब कालभेद से, व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद हो सकता है, तो व्युत्पत्ति सिद्ध क्रिया के भेद से भी अर्थभेद मानना चाहिए। समभिरूढ़नय व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद तक ही सीमित रहता है। जबकि एवंभूतनय व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ जब उस वस्तु में घटित होता है, तभी उस शब्द का वह अर्थ मानता है।
जो वस्तु जिस पर्याय से युक्त हो, उस वस्तु का उस पर्याय के रूप में परिणमितार्थ को ही निश्चित करनेवाला एवंभूतनय है।23 आशय यह है कि जिस शब्द का जो क्रियार्थ है, उस क्रिया के परिणमनकाल में ही उसके लिए उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूतनय का मुख्य लक्ष्य है। जैसे 'इन्द्र' का अर्थ है शोभित होना। इस व्युत्पत्ति सिद्धक्रिया के अर्थ के अनुसार जिस समय इन्द्र इन्द्रासन पर शोभित हो रहे हों, उसी समय उन्हें 'इन्द्र' के नाम से सम्बोधित करना चाहिए। परन्तु जिस
422 नयवाद, – मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 263 429 अ) येनात्मा भतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूतः ................................... तत्त्वार्थसूत्र, सवाथासाद्ध, 1/33 ब) एकस्थापि ध्वनेवचियं सदा तन्नोपपद्यते
............ स्याद्वादमंजरी, पृ. 247
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समय पूजा करते हो, अभिषेक करते हों, उस समय उन्हें 'इन्द्र' कहना उचित नहीं है।124 शक्ति का प्रयोग करते समये उन्हें 'शक्र' कहना चाहिए, इन्द्र नहीं।
एवंभूतनय शब्द से ध्वनित होने वाली क्रिया का अर्थ घटित होने पर ही उस वस्तु को उस रूप में मानता है। अन्यकाल में उसके लिए उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूतनय की दृष्टि में उचित नहीं है। जैसे गच्छतीति गौ' – जो चले उसे गौ कहते हैं। जब वह खड़ी हो या बैठी हो तो उसे 'गौ' नहीं कह सकते है। दीपन-क्रियाहीन दीप को दीप नहीं कहा जा सकता है। इस नय में उपयोगयुक्त क्रिया की ही प्रधानता है। जैसे तप करते हुए को ही तपस्वी, मनन करते हुए को ही मुनि, भिक्षा लेते समय ही भिक्षु, साधना में रत को ही साधु और श्रम करनेवाले को ही श्रमण कहना चाहिए। प्रस्तुत नय के मत से साधु, मुनि नहीं हो सकता और मुनि, भिक्षु नहीं हो सकता है। जो शब्द जिस क्रियारूप अर्थ का द्योतक है, वह अन्य क्रियारूप अर्थ का वाचक नहीं हो सकता है।425
जिस समय में जो क्रिया हो रही है, उस समय में उस क्रिया से सम्बद्ध विशेषण का या विशेष्य के नाम का व्यवहार कराने वाला अभिप्राय एवंभूतनय कहलाता है।426 एवंभूतनय क्रिया अर्थ को शब्द से और शब्द को क्रिया–अर्थ से विशेषित करता है। जैसे घट शब्द का अर्थ है जो जलधारण करके घट-घट शब्द करता है। अतः इस नय के अनुसार जो जलधारण कर घट-घट क्रिया की चेष्टा करता है, वह घट है। जलधारण कर घट-घट शब्द करना, घट विशेष्य का विशेषण है।427
सर्वार्थसिद्धि, 1/33
श्लोकवार्तिक, 1/33/78
424 यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेको न पूजक इति .................. 42 तत् क्रिया परिणामोर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् .. 426 अ) क्रिया परिणतार्थ चेदेवंभूतो नयो वदेत् ...
ब) एवंभूतत्सु सर्वत्रं व्यंजनार्थ विशेषणः ... 427नयवाद, – मुनि फूलचन्द्र, पृ. 161
द्रव्यानुयोगतर्कणा, 6/16 नयोपदेश, का. 39
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अनुयोगद्वार 28 और आवश्यकनियुक्ति 29 में व्यंजित-अर्थ को विशेष रूप से प्रतिष्ठित करनेवाले नय को एवंभूतनय के नाम से अभिहित किया गया है। जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं। वह व्यंजन जिस अभिधेय वस्तु को बतलाता है, उसे अर्थ कहते हैं। शब्दार्थ को तदुभय कहते हैं। अतः जो शब्द अर्थ को विशेषित करता है, वही एवंभूतनय है।430
प्रस्तुत नय व्यंजन (शब्द) और अभिधेय (अर्थ) का वास्तविक रूप से कथन करता है। इस शब्द का यह वाच्यार्थ है और इस वाच्यार्थ का प्रतिपादक यह शब्द है। इस प्रकार वाचक तथा वाच्य के सम्बन्ध की कसौटी पर खरी उतरने वाली वस्तु को ग्रहण करना ही एवंभूतनय का मुख्य ध्येय है। किसी व्यक्ति के लिए राजा या नृप शब्द का प्रयोग करना तभी ठीक है जब उसमें उस शब्द की व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित हो रहा हो।31 राजा जब राजदण्ड को धारण करता है, उसी समय वह 'राजा' होता है और जब वह प्रजा का पालन करता है उस समय नृप होता है। जब अध्यापक पढ़ा रहा हो, तभी उसे अध्यापक कहा जा सकता है। जब रसोईया, रसोई बनाता हो तभी वह रसोईया कहा जा सकता है। इस प्रकार एवंभूतनय संपूर्ण गुणों से युक्त वस्तु को ही उस शब्द से वाच्य वस्तु मानता है। व्यक्ति मन, वचन और काया से जो-जो क्रिया करता है, उस-उस नाम से युक्त होता है। यही एवंभूतनय का अभिप्राय है।432
428 वंजन-अत्थ-तदुभयं-एवंभूओ विसेसेइ
................
अनुयोगद्वार, गा. 139 आवश्यकनियुक्ति, गा. 471 तत्त्वार्थभाष्य, 1/34 पर भाष्य विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2252
429 अ) वंजन-अत्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ
ब) व्यंजनार्थयोरेवम्भूत इति स) वंजनमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसइ ............
................... 43° नयवाद, – मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 163 431 तत्त्वार्थसूत्र – पं. सुखलाल जी, पृ. 44 432 जं न करेइ कम्मं देही मणपयणकायचेट्टादो
नयचक्र, गा. 215
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आचार्य पूज्यपाद ने जिस ज्ञान रूप में आत्मा परिणत होती है, उसी रूप में आत्मा का निश्चय करनेवाले नय को भी एवंभूतनय कहा है। जैसे इन्द्ररूप में परिणत आत्मा इन्द्र है। अग्निरूप में परिणत आत्मा अग्नि है।433
यशोविजयजी के अनुसार एवंभूतनय क्रिया परिणत अर्थ को अर्थ के रूप में अंगीकार करता है।434 जिस शब्द का जो क्रियारूप वाच्यार्थ है, उस क्रियारूप में परिणित पदार्थ को ही उस शब्द का वाच्यार्थ माननेवाला अभिप्राय एवंभूतनय है।
कोई भी सार्थक शब्द किसी न किसी क्रिया को ध्वनित अवश्य करता है। पदार्थ का अपने वाचक शब्द के द्वारा ध्वनित क्रिया के रूप में परिणत होने पर ही एवंभूतनय उस शब्द का जो वाच्यार्थ है उसे ही उस पदार्थ अर्थ स्वीकार करता है। अन्यथा नहीं। जैसे 'राजा' शब्द है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जो छत्र, चामर आदि से शोभता है, वह राजा है। एवंभूतनय के मन्तव्यानुसार जब राजा सभा में बैठा हुआ छत्र, चामर आदि से युक्त हो, उसी समय वह राजा है। स्नानादि करते समय राजा नहीं है।435 क्योंकि छत्र, चामर आदि के अभाव में भी किसी को राजा मान लिया जाये तो किसी सामान्य व्यक्ति को भी 'राजा' कहने की आपत्ति आ सकती है। अतः यह निश्चित है कि क्रिया परिणत काल में ही पदार्थ अपने शब्द का वाच्यार्थ होता है अन्य समय में कदापि नहीं।
433 येनात्मा येन ज्ञानेन भतः परिणतः तेनेवाध्यवसाययतोति
सर्वार्थसिद्धि, 1/33 434 क्रिया परिणत अर्थ मानइ सर्व एवंभूत रे ............................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/15 433 जिम राजइ - छत्रचामरादि कई शोमइं ते राजा ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/15 का टब्बा
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उपनय
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेनाचार्य कृत आलापपद्धति के अनुसार नय के विवरण के बाद उपनयों की चर्चा उनके भेद-प्रभेदों के साथ विस्तृत रूप से की है।
माइल्लधवल विरचित णयचक्को (नयचक्र) के संपादक सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि - समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की 107 वीं कारिका में नय के साथ उपनय का उल्लेख किया है।36 अकलंकदेव ने अष्टशति में संग्रह आदि नयों के भेद और प्रभेदों को उपनय के रूप में उल्लेखित किया है। आलापपद्धति के कर्ता देवसेन ने नय के निकटवर्ती को उपनय कहा और उसके तीन भेद भी किये हैं। देवसेन के पूर्व उपनयों की चर्चा देखने में नहीं आती है। उपनय का उल्लेख देवसेन के समकालीन अमृतचन्द्र के ग्रन्थों में नहीं है, किन्तु देवसेन के परवर्ती जयसेनाचार्य ने अपनी समयसार आदि ग्रन्थों की टीकाओं में उपनयों की चर्चा की है।437
उपनयः नयानां समीपे उपनयाः
जिस प्रकार नगर के समीपवर्ती क्षेत्र को उपनगर कहा जाता है, वन के निकटवर्ती क्षेत्र को उपवन कहा जाता है, नगर आदि के अन्त के समीपवर्ती स्थान को उपान्त कहा जाता है, उसी प्रकार नयों से समीपता रखनेवाले तथा नयों के समान ही एक की मुख्यता और एक की गौणता करके व्यवहार करने को उपनय कहा जाता है।438
436 नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्च्य
आप्तमीमांसा, का. 107 437 णयचक्को – संपादक सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 105 438 नयानांमुपनयास्त्रस्त्रियसंख्याकाः
................ द्रव्यानुयोगतर्कणा, व्याख्या, पृ. 98
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उपनय के मुख्यतः तीन भेद होते हैं -
1. सद्भूत व्यवहार उपनय
2. असद्भूत व्यवहार उपनय
3. उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय
1. सद्भूत व्यवहार उपनय :
यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास में सद्भूत व्यवहार को इस प्रकार परिभाषित किया है – वस्तु में विद्यमान वास्तविक गुण या धर्म, असद्भूत गुणधर्म कहलाते हैं। जो गुणधर्म एक द्रव्याश्रित हैं जिसमें अन्य द्रव्य के संयोग की अपेक्षा नहीं रहती है वे सद्भूत गुणधर्म कहलाते हैं।439 इस प्रकार गुण-गुणी में और पर्याय–पर्यायी में भेद करना सद्भूत व्यवहार उपनय है।40 धर्म और धर्मी इन दोनों में जो असाधारण कारण है, उसे धर्म कहते हैं तथा वह असाधारण धर्म जिसमें विद्यमान है वह धर्मी कहलाता है। अतः जो धर्म और धर्मी के मध्य भेद दिखाता है, वह सद्भूत व्यवहार उपनय है।41 धर्म धर्मी में कथंचिद् भेद और कथंचिद् अभेद दोनों होने पर भी भेदाभेद की उपेक्षा करके सद्भूत व्यवहार उपनय मात्र भेद की ओर ही दृष्टिपात करता है।142
सद्भूत व्यवहार उपनय के दो भेद हैं43 -
1. शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय 2. अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय
439 सद्भूत ते माटिं, जे-एक द्रव्य ज छइ . .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/1 का टब्बा 440 नयचक्र, परिशिष्ट, पृ. 217 441 ते धर्म अनइं धर्मी तेहना भेद देखाडवाथी होई . ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा, गा. 7/1 442 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचन - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 281 443 सद्भूतव्यवहारो द्विधा - आलापपद्धति, सू. 81
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शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय :
जो गुणधर्म द्रव्य के मूलभूत स्वाभाविक गुण है तथा जो अनादि-अनन्त काल तक द्रव्य में सहज रूप से निहित रहते हैं, वे गुण-धर्म द्रव्य के शुद्ध गुणधर्म होते हैं। जैसे आत्मद्रव्य का ज्ञान गुण। उपाधि रहित शुद्ध स्वाभाविक गुण और शुद्ध गुणी एवं उपाधि रहित शुद्ध पर्याय और शुद्ध पर्यायवान् में अभेद होते हुए भी संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के आधार पर भेद करनेवाला उपनय सद्भूत व्यवहार उपनय
है।445
उपाध्याय यशोविजयजी ने शुद्ध धर्मों एवं शुद्ध धर्मियों में भेद दर्शाने वाले उपनय की ही सद्भूत व्यवहार उपनय कहा है। जैसे आत्मद्रव्य में केवलज्ञान का होना। इसमें षष्टी विभक्ति द्वारा भेद बताया गया है। केवलज्ञान आत्मद्रव्य के साथ अनादिकाल से होने से मूलगुण है और क्षायिक भाव का गुण होने से शुद्धगुण है। केवलज्ञानी की आत्मा भी कर्मोपाधिरहित होने से शुद्ध है। इस प्रकार यह उदाहरण शुद्ध गुण और गुणी में भेद करनेवाला शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय का है। इसी प्रकार रसादि पुद्गल द्रव्य के गुण है, गति सहायकता, स्थिति सहायकता, अवगाह सहायकता और वर्तना सहायकता इत्यादि गुणधर्म धर्मास्तिकाय आदि शेष चार द्रव्यों के है। इस प्रकार कहना भी शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय के उदाहरण हैं।
अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय :
जो गुणधर्म द्रव्यों के उत्तरभेद रूप हो और क्षयोपशमादि के कारण निश्चित काल स्थिति वाले हैं,वे अशुद्ध गुणधर्म कहलाते हैं।447
...............
4444 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचन – धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 282 445 शुद्ध सद्भूत व्यवहारो यथा शुद्धगुण गुणिनो
आलापपद्धति, सू. 82 446 शुद्ध धर्म-धर्मीना भेदधी ..
... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा, गा.7/2 447 टागगनोगस लेखक-शीगनलाल टाहाालाल महेता 220
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सौपाधिक, वैभाविक अशुद्ध गुण और सौपाधिक गुणी (अशुद्ध) में एवं अशुद्ध पर्याय और अशुद्ध पर्यायवान् में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादि की दृष्टि से भेद करना अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय है । 448
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार अशुद्ध धर्म और अशुद्ध धर्मी में भेद करना अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय है। 449 जैसे मतिज्ञानादि आत्म द्रव्य का गुण है । मतिज्ञान क्षयोपशमिक ज्ञान होने से अशुद्ध गुण है और मतिज्ञान को धारण करने वाली आत्मा भी कर्मोपाधि सापेक्ष होने से अशुद्ध द्रव्य है । इस प्रकार इस उदाहरण में अशुद्ध धर्म और अशुद्ध धर्मी के मध्य भेद किया गया है।
इस प्रकार जीवद्रव्य के क्षयोपशमिक मतिज्ञानादि गुण, पुद्गल के कृष्णनीलादि गुण, धर्मास्तिकायादि के अन्य द्रव्यों के आश्रय से होने वाले गति सहायकतादि सद्भूत अशुद्ध गुण है, उन्हें इस प्रकार कहना अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय का विषय है । व्यवहारनय और उपनय में निहित अन्तर को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैं जो पदार्थ- पदार्थ के मध्य जो भेद करता है वह व्यवहार नय है और जो एक द्रव्यानुगत गुण-गुणी, पर्याय और पर्यायवंत, स्वभाव और स्वभाववंत और कारक - कर्त्ता में जो भेद करता है वह उपनय है । 450 जैसे- घटस्थ गुण और गुणवान् के मध्य भेद बताया गया है। घटस्य रक्ततापर्याय और पर्यायवान् के बीच भेद किया गया है। घटस्य स्वभाव स्वभाववान के मध्य भेद दर्शाया है। मृदा घटो निष्पादितः
रूपम्
स्वभाव और
कारक और कर्ता में भेद
किया है।
448
अशुद्ध सद्भूत व्यवहारो यथा
449
'अशुद्ध धर्म धर्मीना भेदची अशुद्ध सद्भूत व्यवहार,
450
० गुण - गुणीने, पर्याय- पर्यायवन्त
—
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. आलापपद्धति, सू. 83 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा, 7/2
वही, 7/4
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असद्भूत व्यवहार उपनय :
अन्य प्रसिद्ध गुणधर्म को अन्यत्र आरोपित करना असद्भूत व्यवहार उपनय है।451
__कोई भी द्रव्य और उसके गुण-पर्याय स्व की अपेक्षा से सद्भूत होते हैं। परन्तु अन्य द्रव्य में वे गुण-पर्याय असद्भूत होते हैं। फिर भी एक द्रव्य और उसके गुण पर्याय का अन्य द्रव्य और उनके गुण पर्याय में समारोपण करने का व्यवहार किया जाता है। ऐसे आरोपण को ही असद्भूत व्यवहार उपनय कहा जाता है।
पर द्रव्य, गुण,पर्याय के परिणति (स्वरूप) का विवक्षित द्रव्य गुण और पर्याय में मिल जाने से मूल द्रव्य, गुण और पर्याय अन्य द्रव्यादि के रूप में प्रतीत होने लग जाता है, इसे यशोविजयजी ने असद्भूत व्यवहार उपनय कहा है।152 उदाहरण के लिए “तप्त लोहे का गोला हाथ जलाता है" ऐसा कहना। इस उदाहरण में जलाना अग्नि का गुण या धर्म है। लोहे का गोला कभी हाथ आदि को नहीं जलाता है,फिर भी पर द्रव्य (अग्नि) की परिणति को लोहे के गोले में आरोपित करके 'लोहे का गोला हाथ जलाता है ऐसा कहना असद्भूत व्यवहार उपनय है।453 उपाध्याय यशोविजयजी ने इस असद्भूत व्यवहार उपनय के एक द्रव्य, गुण और पर्याय में अन्य द्रव्य गुण और पर्याय का आरोपन करके कुल नौ भेद किये हैं154 -
1. द्रव्य में द्रव्य का उपचार करना :- जीव पुद्गल है।455
विवक्षित द्रव्य में अन्य द्रव्य का उपचार करके विवक्षित द्रव्य को अन्य द्रव्य स्वरूप कहना द्रव्य में द्रव्य का उपचार रूप असद्भूत व्यवहार उपनय का प्रथम भेद है। जैसे कि जीव पुद्गल है। जीव द्रव्य और कर्म पुद्गल क्षीर-नीर के समान 451 नयचक्र का परिशिष्ट, पृ. 218, सं.-कैलाशचन्द्र शास्त्री 452 असद्भूतव्यवहार परपरिणति भलयइ
.... द्रव्यगुण पर्यायनोरास गा. 7/5 493 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 286 454 जे द्रव्यादिक नवविध उपचार थी कहिइं . ..... .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टबा, गा.7/5 455 द्रव्यइ द्रव्य उपचार पुदगल जीवनइं .........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/6
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एकमेव मिल जाने से 'जीव' को जिनागम में 'पुद्गल' कहा है। जैसे दूध में मिश्रित पानी को भी दूध ही कहा जाता है, उसी प्रकार शरीर, कर्म आदि पुद्गल के साथ मिले हुए जीव को भी पुद्गल कहा जा सकता है। यहाँ पर जीव द्रव्य में पुद्गल द्रव्य का उपचार करने से द्रव्य में द्रव्य का उपचार रूप प्रथम भेद का उदाहरण है।
2. गुण में गुण का उपचार :
भावलेश्या को कृष्ण आदि वर्णवाली कहना 56 – गुण में गुण का उपचार है। आत्मा की परिणति रूप विचारों की धाराओं को भाव लेश्या कहते हैं। आत्मा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित अरूपी होने से आत्मा के गुण भी अरूपी होते हैं। अतः भावलेश्या भी अरूपी है। परन्तु भाव लेश्या में निमितभूत द्रव्यलेश्या (कर्म) पुद्गल रूप होने से रूपी और वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श सहित है। रूपी होने से द्रव्य लेश्या कृष्णादि वर्ण वाली होती है जबकि भाव लेश्या अरूपी होने से कृष्णादि वर्ण से रहित होती है। फिर भी निमितभूत पुद्गल द्रव्य के कृष्णादि गुणों को अरूपी भावलेश्या नामक आत्मा के गुण में आरोपित करके भाव लेश्या को कृष्णादि वर्णवाली कहा जाता है। इस प्रकार यहां आत्मा के गुण में पुद्गल के गुण को उपचरित किया गया है।
3. पर्याय में पर्याय का उपचार : अश्व, हस्ती को स्कन्ध कहना।57
एक द्रव्य की पर्यायों में दूसरे द्रव्य की पर्यायों को उपचरित करना पर्याय में पर्याय के उपचार रूप तीसरा भेद है। जैसे कि अश्व, हस्ती आदि को स्कन्ध (सेना) कहना। जीव आयुष्य कर्म और नामकर्म के उदय से अश्व, हाथी आदि रूप को धारण करता है। शेष पुद्गलास्तिकाय आदि द्रव्यों को आयुष्य नाम आदि कर्मों का उदय
456 काली लेश्या भाव, श्यामगुणई भली, .........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/7 457 पर्यायई पर्याय, उपचरिइ वली, हय गय खंध ................... वही, गा. 7/8
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नहीं होने से अश्वादि पर्याय को प्राप्त नहीं होते हैं। अतः अश्व हस्ती आदि जीव द्रव्य के ही असमान जातीय पर्याय हैं। स्कन्ध आदि पुद्गलास्तिकाय के पर्याय हैं परन्तु अनुयोगद्वारसूत्र में जीव के अश्व, हस्ती आदि पर्याय को स्कन्ध कहा गया है। इस प्रकार यहां जीवद्रव्य के पर्याय में (अश्व आदि) पुद्गल द्रव्य की पर्याय (स्कन्ध) का उपचार किया गया है।
4. द्रव्य में गुण का उपचार :
विवक्षित द्रव्य में अन्य द्रव्य के गुणों का उपचार करना एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य के उपचार रूप चतुर्थ भेद है। जैसे कि मैं गोरा हूं। इस उदाहरण में मैं पद से तात्पर्य चैतन्यगुण वाले आत्मद्रव्य से है। आत्मा गोरे आदि वर्गों से रहित अरूपी है। गौरवर्ण शरीर का है जो पुद्गलस्वरूप है। इस प्रकार 'मैं गोरा हूं' इस वाक्य प्रयोग में आत्म द्रव्य (मैं) में पुद्गल के गुण (गौरा) का आरोप किया गया है।
5. द्रव्य में पर्याय का उपचार :
विवक्षित द्रव्य में अन्य द्रव्य की पर्याय का उपचार करना। द्रव्य में पर्याय का उपचार रूप पांचवा भेद है। जैसे –'मैं देह हूँ।459 वस्तुतः मैं आत्म द्रव्य है। देह पुद्गल द्रव्य की एक पर्याय विशेष है। यहाँ पर 'देह' में मेरेपन की बुद्धि होने से आत्मद्रव्य में पुद्गल द्रव्य की पर्याय का आरोप किया गया है।
6. गुण में द्रव्य का उपचार : यही जो गौरवर्ण रूप है, वही आत्मा है।460
ऐसे किसी विवक्षित गुण में अन्य द्रव्य का आरोप करना गुण में द्रव्य के उपचार रूप असद्भूत व्यवहार उपनय का भेद है। गौरवर्ण पुद्गलास्तिकाय द्रव्य का
45% द्रव्यइं गुण उपचार वली पर्यायनो
वही, गा. 7/9 49° द्रव्ये पर्यायोपचारः जिम हूँ देह इम वोलिई .......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/9 460 गुणे द्रव्योपचारः – “ए गोर दीसई छइ ते आत्मा" ................ वही, गा. 7/9
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गुण है, क्योंकि शरीर ही गौर, कृष्णादि वर्ण का होता है। आत्मा तो वर्णादि से रहित अरूपी और अमूर्त द्रव्य है। 'जो व्यक्ति गौरवर्णी है, वही आत्मा है।' इस वाक्य के प्रयोग में गौरवर्ण को उद्देश्य करके आत्मा का विधान किया गया है। इस प्रकार गौरवर्ण रूप पुद्गल के गुण में आत्मा द्रव्य का उपचार किया गया है।
7. पर्याय में द्रव्य का उपचार : 'शरीर ही आत्मा है 461
विवक्षित अन्य द्रव्य के पर्याय में अन्य द्रव्य का उपचार करना पर्याय में द्रव्य के उपचार रूप सातवां भेद है। जैसे कि यह शरीर ही आत्मा है। प्रस्तुत उदाहरण में देह को ही आत्मा कहा गया है। देह पुद्गलास्तिकाय की एक पर्याय विशेष है। जबकि आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है। इस प्रकार देह को आत्मा कहकर अन्य द्रव्य की पर्याय में अन्य द्रव्य का उपचार किया गया है।
8. गुण में पर्याय का उपचार :
किसी द्रव्य के गुण में अन्य द्रव्य की पर्याय का आरोपन करना असद्भूत व्यवहार उपनय का आठवां भेद है। जैसे कि मतिज्ञान शरीर रूप है।62 प्रस्तुत उदाहरण में कारण में कार्य का उपचार करके मतिज्ञान को शरीरजन्य बताया गया है। मतिज्ञान शरीरवर्ती इन्द्रियाँ और मन के द्वारा उत्पन्न होने से मतिज्ञान शरीरजन्य है, ऐसा कहा जाता है। यहाँ पर मतिज्ञान आत्मा का गुण है। शरीर पुद्गलास्तिकाय की पर्याय है। यहाँ आत्म द्रव्य के गुण में पुद्गल द्रव्य की पर्याय रूप शरीर का आरोपण किया गया है।
461 पर्याये द्रव्योपचारः जिम कहिइं देह ते आत्मा ....
वही, गा. 7/10 वही, गा. 7/11
462 गुणेपर्यायोपचारः “मतिज्ञान ते शरीरज"
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9. पर्याय में गुण का उपचार :
विवक्षित एक द्रव्य की पर्याय में अन्य द्रव्य के गुण का समारोप करना पर्याय में गुण का उपचार करने रूप असद्भूत व्यवहार उपनय का नौवां भेद है। उदाहरण के लिए "शरीर मतिज्ञान रूप गुण है।' ऐसा कहना। यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार करके शरीर को मतिज्ञानरूप कहा गया है।463 यहाँ देहात्मक पुद्गलास्तिकाय की पर्याय में मतिज्ञान रूप आत्मगुण का उपचार किया गया है।
इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपरोक्त असद्भूत व्यवहार उपनय के नौ भेदों की चर्चा उपचार के आधार पर की है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आलापपद्धति4 और माइल्लधवलकृत नयचक्र65 में असद्भूत व्यवहार उपनय के उपरोक्त 'द्रव्य में द्रव्य का उपचार' आदि नौ भेदों का उल्लेख नहीं करके इन नौ भेदों का उल्लेख व्यवहारनय के ही भेदों के रूप में किया गया है। आलापपद्धति में असद्भूत व्यवहार उपनय के अन्तर्गत स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय इन तीन भेदों की चर्चा उदाहरण सहित की गई है।466 इन तीन भेदों की चर्चा उपाध्याय यशोविजयजी ने भी नौ भेदों की चर्चा के पश्चात् की है।
1. स्वजाति असद्भूत व्यवहार उपनय -
विवक्षित किसी द्रव्य की वर्तमान पर्याय में उसी द्रव्य की भावी पर्याय की योग्यता देखकर उस पर्याय का उपचार करना, स्वजाति असद्भूत व्यवहार उपनय का विषय है। जैसे कि परमाणु को बहुप्रदेशी स्कन्ध कहना। वस्तुतः परमाणु
463 पर्यायगुणोपचार : जिम पूर्वप्रयोगज अन्यथा करिइं ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा. गा. 7/11 464 द्रव्ये द्रव्योपचारः ............
.................. आलापपद्धति, सूत्र 210 465 द्रव्यगुणपज्जयाणं उवयारं ताण होई तत्थेव
नयचक्र, गा. 223 466 असद्भूतव्यवहार नयः त्रेधा ........
आलापपद्धति, सूत्र 84 467 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 296 4468 स्वजाति असद्भूत व्यवहारो यथा परमाणु बहुप्रदेशी इति कथनं ....... आलापपद्धति, सू. 85
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अप्रदेशी है, परन्तु अन्य परमाणुओं से मिलकर बहुप्रदेशी कहलाने की क्षमता रखता है। परमाणु में व्यक्ति रूप से बहुप्रदेशित्व नहीं परन्तु शक्तिरूप से बहुप्रदेशित्व है।169 परमाणु और बहुप्रदेशी स्कन्ध दोनों की पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की पर्याये हैं अर्थात् स्वजातीय पर्यायें है। परमाणु में बहुप्रदेशित्व का आरोप करना स्वजातीय असद्भूत व्यवहार उपनय है।
2. विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय :
विवक्षित किसी द्रव्य के गुण या पर्याय में अन्य द्रव्य के गुण या पर्याय का समारोप करना विजातीय असद्भूत व्यवहार उपनय है। उदाहरण के लिए- मतिज्ञान मूर्त है,470 ऐसा कहना।
यशोविजयजी विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय को स्पष्ट करते हुए कहा कि मतिज्ञान की मूर्तता में मूर्तत्व पुद्गलास्तिकाय का गुण है और मतिज्ञान तो आत्मा का गुण होने से अमूर्त है। परन्तु यहां अमूर्त मतिज्ञान में मूर्त्तत्व गुण का उपचार किया गया है, क्योंकि मतिज्ञान में घटादि विषयों का बोध जो पुद्गल के आलम्बन से उत्पन्न होता है। अतः कारण में कार्य का उपचार करके मतिज्ञान को मूर्त कहा गया है। इस प्रकार आत्म गुण (मतिज्ञान) में पुद्गल का गुण (मूर्त्तत्व) का उपचार करने से यह विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय है।71
469 बहुप्रदेशी थावानी जाति छइ, ते मटि.
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/13 470 अ) विजाति असद्भूत व्यवहारो यथा मूर्त मतिज्ञानं .............. आलापपद्धति, सूत्र 86 ब) तेह विजाति जाणो जिम मूरत मती ...........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/14 471 मूर्त जे विषयालोक मनस्कारादिक
... वही, टब्बा, गा. 7/14
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3. स्वजाति विजाति असद्भूतव्यवहार उपनय :
अन्य किसी के प्रसिद्ध धर्म का आरोपण जब स्वजातीय और विजातीय दोनों में किया जाता है तो वह स्वजाति विजाति उपनय है। जैसे कि ज्ञान जीवाजीव विषयक है । 472
उपाध्याय यशोविजयजी ने असद्भूत व्यवहार उपनय के इस तीसरे भेद का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है मति आदि किसी भी ज्ञान द्वारा जीव और अजीव के स्वरूप को जाना जाता है या उसका ज्ञान किया जाता है । जब मतिज्ञान के द्वारा जीव के द्वारा जीव के स्वरूप का ज्ञान होता है तो यहां ज्ञान जीव की स्वजाति है । क्योंकि जीव विषयक ज्ञान जीव का अपना गुण है । परन्तु जब अजीव विषयक ज्ञान किया जाता है तो वह ज्ञान की विजाति है । अजीव ज्ञान की विजाति है, क्योंकि ज्ञान अजीव का गुण नहीं है ।
—
इस प्रकार जीव और अजीव दोनों के साथ ज्ञान का विषय-विषयी भाव रूप कथन एक उपचारित सम्बन्ध होने से स्वजाति - विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय है 1473
उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय :
जो उपचार में उपचार करता है, वह उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है । 474 उसके तीन भेद हैं । 475
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472 अ) स्वजाति-विजाति असद्भूतव्यवहारो यथा जीवे - अजीवे ज्ञानमिति कथनं ब) असद्भूत दोउ भांति, जीव- अजीवनई
473 ए 2 नो विषयविषयिभाव नामदं उपचरित संबंध छइ
474
' उपचरितासद्भूत करिइं उपचारो जेह अने उपचार थी रे
475 उपचरित असद्भूत व्यवहारः त्रेधा
आलापपद्धति, सू. 87 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/5
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा, गा. 7/15
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वही, गा. 7/6
आलापपद्धति, सूत्र - 88
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1. स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय :
___ पुत्र आदि के प्रति तीव्र ममत्व बुद्धि के कारण 'पुत्रादि मैं ही हूं' या 'पुत्रादि मेरे हैं' इस प्रकार तादात्म्य करना इस उपनय का विषय है।76 पुत्रादि उपचरित पदार्थ हैं। पुत्रादि और आत्मा दोनों ही भिन्न जीवद्रव्य हैं। परन्तु आत्मा का सम्बन्ध शरीर से और शरीर (शारीरिकवर्ग) का सम्बन्ध पुत्रादि के साथ जोड़कर यहां उपचार पर उपचार किया गया है अर्थात् एक उपचार से दूसरा उपचार किया गया है। आत्मा भी चेतन है और पुत्र भी चेतन है। इस प्रकार दोनों की आत्मपर्याय होने से स्वजातीय हैं। अतः 'पुत्रादि मेरे हैं इस प्रकार कहने में उपचार में उपचार किया गया है।
2. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय :
'वस्त्रादि मेरे हैं। इस प्रकार कहना विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है। वस्त्रादि सभी पदार्थ पुद्गलास्तिकाय की पर्याये होने पर भी तन्तु निर्मित पदार्थ विशेष को वस्त्र, मिट्टी से निर्मित पदार्थ विशेष को घट नाम देकर ऐसी कल्पना (उपचार) की जाती है।78 वस्त्रादि पौद्गलिक पदार्थ होने से आत्मद्रव्य के लिए विजातीय पदार्थ है। इस प्रकार अचेतन पदार्थों में ममत्व बुद्धि का उपचार करना विजाति असद्भूत व्यवहार उपनय है।
3. स्वजाति-विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय :
476 अ) तेह स्वजाति जाणो रे हूं पुत्रादिक ...
....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/7 ब) स्वजाति-उपचरित-असद्भूत व्यवहारे यथा पुत्र दारादिः ममः ........ आलापपद्धति, सूत्र 89 477 अ) विजाति उपचरित असदभूत व्यवहारो यथा वस्त्र .......... .... वही, सूत्र 90 ब) विजातिथी ते जाणो रे वस्त्रादिक मुझ
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/18 478 इहां-वस्त्रादिक पुद्गल पर्याय नामादि भेद कल्पित छइं .............. वही. गा. 7/18
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'देश या दुर्ग आदि मेरे हैं। 479 इस प्रकार कहना उभय उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है। गढ़ - नगर देशादि में निवास करने वाले स्त्री, पुरूष जीव होने से स्वजाति है तथा घर-दुकान आदि अजीव - पदार्थ की होने से विजाति है। इस प्रकार गढ़ देश आदि चेतन सहित अचेतन पदार्थों में ममत्व बुद्धि का उपचार करना स्वजाति विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है।
479 अ) स्वजाति विजाति उपचरित असद्भूत ब) विजातिथी ते जाणो रे
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आलापपद्धति, सू. 91 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 7/18
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निश्चयनय और व्यवहारनय उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में दिगम्बर मन्तव्यानुसार तर्कशास्त्र की दृष्टि से नौ नय और उपनय को समझाने के पश्चात् अध्यात्मिक दृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय इन दो मूल नयों की चर्चा की है।
विभिन्न दृष्टिकोणों से आत्मा और आत्मा से सम्बन्धित विषयों का विचार करके अध्यात्म का पोषण करने वाले नय अध्यात्मनय है।480 अध्यात्म की अपेक्षा से मूलभूत दो नय हैं – निश्चयनय और व्यवहारनय ।
निश्चयनय और व्यवहारनय -
वस्तु के अभिन्न, स्वाश्रित और परनिरपेक्ष परिणमन को प्रधानरूप से प्रतिपादन करने वाला नय निश्चयनय है और ठीक इससे विपरीत भेदरूप, पराश्रित और परसापेक्ष परिणमन को मुख्यता देने वाला नय व्यवहारनय है।481
व्यवहारनय भेद और उपचार से वस्तु का प्रतिपादन करता है। जबकि निश्चयनय अभेद और अनुपचाररूप से वस्तु का निर्णय करता है।482
एक वस्तु में निहित विभिन्न धर्मों में कथंचित् भेद का उपचार करना व्यवहारनय का विषय है और इससे विपरीत निश्चयनय का विषय है। निश्चयनय अभेद का कथन करता है।483 एक द्रव्य के परिणमन को अन्य द्रव्य में समारोपण करना उपचार है। जैसे- संग्राम भूमि में शूरवीर योद्धा युद्ध करते हैं। परन्तु लोक व्यवहार में यही कहा जाता है कि राजा युद्ध करता है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कर्मरूप में परिणमन पुद्गल द्रव्य में ही होता है। परन्तु उसके कर्तृत्व
480 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक- अभयशेखरसूरि, पृ. 245 481 आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनयः – ......... समयसार, गा. 272 पर आत्मख्याति टीका 482 अ) अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चियत इति निश्चयः ........... आलापपद्धति, सूत्र 204
ब) भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः ............. वही. सूत्र 205 483 जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवस्थुस्स .................. नयचक्र, गा. 264
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का आरोपन जीवद्रव्य में किया जाता है। यही व्यवहारनय है।184 निश्चयनय अभेद और नियतस्वलक्षण के आधार पर अर्थात् अनुपचार के आधार पर वस्तु का निश्चय करता है।485 निश्चयनय के अनुसार काम क्रोधादि विकार आत्मा के नहीं हैं। विकारभाव पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे पौद्गलिक हैं।
इस प्रकार द्रव्य के आधार पर वस्तुस्वरूप को कथन करनेवाली दृष्टि निश्चयनय है और पर्याय के आधार वस्तुस्वरूप को निश्चित करनेवाली दृष्टि व्यवहारनय है।
"निश्चयवस्तु द्रव्याश्रितत्वात् ...... | व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वात्-486
संक्षेप में जिस वस्तु की जैसी परिणति है, उसे उस रूप में कथन करना निश्चयनय है।87 इसलिए इस नय को शुद्ध नय भी कहा जाता है188 और वस्तु की परिणति को अन्य रूप से कथन करना व्यवहारनय है।
आत्मा के गुण दो प्रकार के होते हैं – निरूपाधिक गुण और सोपाधिक गुण। कर्मोपाधि से संपूर्ण रूप से दूर होने से तथा क्षायिकभाव जन्य स्वभाविक गुण निरूपाधिक गुण है। कर्मोपाधि के रहने पर क्षयोपशम जन्य गुण सोपाधिक गुण है।189 इन दो प्रकार के गुणों के साथ आत्मा (गुणी) का अभेद कथन करनेवाला निश्चयनय भी दो प्रकार का है। शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ।490
484 जोधेहिं करे जुद्धे रायण कदं ति जंपदे लोगो तह ववहारेण कदं णाणावरणदि जीवेण
समयसार, गा. 106 485 निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेद विषय
आलापपद्धति, सू. 214 486 समयसार, गा. 56 पर आत्मख्याति टीका 487 जैनदर्शन में नय की अवधारणा, लेखक-डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 21 488 ण वि होदि अप्पमतो न पमणो जाणओ दु भावो एवं भणंति सुद्ध णओ जो सो उ सो चेव
समयसार, गा. 6 489 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, लेखक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. .......... 490 अ) शुद्धाशुद्धनिश्चयो
..... आलापपद्धति, सूत्र 203 ब) निश्चय द्विविध तिहां कहियो रे शुद्ध और अशुद्ध प्रकार रे ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/1 स) निश्चयो द्विविधस्तत्र शुद्धाशुद्ध विभेदतः
... द्रव्यानुयोगतर्कणा. श्लोक 8/1
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1. शुद्ध निश्चयनय :
आलापपद्धति91 में उपाधिरहित गुण और गुणी में अभेद को विषय करनेवाले नय को शुद्ध निश्चयनय कहा है। यशोविजयजी ने भी आत्मद्रव्य और उसके निरूपाधिक शुद्ध गुणों के मध्य अभेद दर्शाने वाले नय को शुद्ध निश्चयनय कहा है। जैसे- जीव केवलज्ञानादिरूप है।192 जीव केवलज्ञानात्मक है, केवल दर्शनात्मक है, अनंत वीर्यात्मक है, आदि कथन शुद्ध निश्चयनय का विषय है। केवलज्ञानादि जीव के निरूपाधिक अर्थात् कर्मरूप उपाधि से सहित सहज शुद्ध गुण है। अतः इन शुद्ध गुणों से आत्मा का अभेद सम्बन्ध को मुख्य रूप से अपने दृष्टिकोण में लेनेवाला नय शुद्धनिश्चयनय है।
2. अशुद्ध निश्चयनय :
आलापपद्धति:93 के अनुसार सोपाधिक गुण और गुणी में भेद को विषय करने वाले नय को अशुद्ध निश्चयनय कहा है।
आत्मद्रव्य और उसके क्षयोपशमिक भावजन्य अशुद्ध गुणों के बीच अभेद बताने वाले नय को ही यशोविजयजी ने अशुद्ध निश्चयनय कहा है। जैसे-जीव मतिज्ञानादि रूप है।194 जीव मतिज्ञानरूप है, श्रुतज्ञानरूप है, चक्षुदर्शनरूप है इत्यादि कथन अशुद्ध निश्चयनय का विषय हैं। क्योंकि मतिज्ञान आदि आत्मगुण कर्मोपाधि सहित होने से अशुद्ध गुण है और इन अशुद्ध गुण और जीवद्रव्य के मध्य अभेद का प्रतिपादन करने से प्रस्तुत नय अशुद्ध निश्चयनय है।
इस प्रकार गुणों की शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर निश्चयनय के दो भेद किये गये हैं।
491 तत्र निरूपाधिक गुण गुण्यभेद विषयकः 492 जीव केवलादिक यथा रे, शुद्ध विषय निरूपाधि ...... 493 सोपाधिक गुण गुण्य भेद ................ 494 मइनाणादिक आत्मा रे, अशुद्ध सोपाधि रे
आलापपद्धति, सूत्र 216 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/2 आलापपद्धति, सू. 217 वही, गा. 8/2
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निश्चयनय में अभेद की प्रधानता रहती है तो व्यवहारनय में भेद की प्रधानता रहती है।
व्यवहारनय के भी दो प्रकार हैं195 - 1. सद्भूत व्यवहारनय और 2. असद्भूत
व्यवहारनय।
1. सद्भूत व्यवहारनय
वस्तु के वास्तविक गुण या धर्म को सद्भूत कहा जाता है और उसमें प्रवृत्ति करना व्यवहार है।196 अभिप्राय यह है कि सद्भूत व्यवहार में वस्तु के साधारण गुण अविवक्षित रहते हैं।197 अनागारधर्मामृत 98 में अभेद रूप गुण-गुणी में भेद करनेवाले नय को सद्भूत व्यवहारनय कहा है। आलापपद्धति 99 के कर्ता देवसेन के अनुसार जो नय एक ही (अभिन्न) वस्तु में भेद व्यवहार करता है, वह सद्भूत व्यवहारनय है। उपाध्याय यशोविजयजी ने लगभग ऐसी ही परिभाषा दी है। उनके अनुसार एकविषय अर्थात् एक द्रव्याश्रित गुणों और गुणी में भेद करना सद्भूत व्यवहारनय है।500
'आलापपद्धति' और 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' दोनों में सद्भूत व्यवहार नय के मुख्य दो भेद किये गये हैं - 1.उपचरित सद्भूत व्यवहारनय और 2. अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय।
1. उपचरित सद्भूत व्यवहारनय :
जहां कर्मजन्य उपाधि की सापेक्षता होती है, वहां उपचार होता है। कर्मरूप उपाधि सहित गुण और गुणी में भेद व्यवहार करना उपचरित सदभूत व्यवहारनय का
495 व्यवहारो द्विविधः सद्भूत
आलापपद्धति, सू. 218 496 सद्भूतसद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृति मात्रात्वात्। ................... पंचाध्यायी, श्लो. 1/525 497 अथ निदानं च यथा सद्साधारणगुणो विवक्ष्यः स्यात् । ........... वही, श्लोक 1/526 498 गुणगुणिनोरभिदायमपि सद्भूतो विपर्ययादितरः। ......... अनगारधर्मामृत, 1/104 49 तत्रैक वस्तु विषयः सद्भूत व्यवहारः ..
.............. आलापपद्धति, सूत्र 219 500 दोइ भेद व्यवहारना जी
............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/3
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विषय है।501 यशोविजयजी ने भी सोपाधिक गुण-गुणी में भेद करनेवाले नय को उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहा है। जैसे कि जीव का मतिज्ञान। 02 इस उदाहरण में जीव और मतिज्ञान में षष्ठी विभक्ति के द्वारा भेद किया गया है। मतिज्ञान जीव का गुण (सद्भूत गुण) होते हुए भी क्षयोपशमिक जन्य है, अर्थात् कर्मोपाधि सहित है। अतः जीव और जीव के कर्मोपाधिसहित निजगुण मतिज्ञान में भेद व्यवहार करना प्रस्तुत नय का विषय है। 2. अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय :___इस नय में कर्मरूप उपाधि की अपेक्षा नहीं होने से अनुपचरित है। प्रस्तुत नय उपाधि रहित गुण और गुणी में भेद व्यवहार करता है।503 यशोविजयजी ने भी निरूपाधिक अर्थात् क्षायिक गुण और गुणी में भेद करनेवाले नय को अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा है। जैसे कि जीव का केवलज्ञान । 04 यहां षष्ठी विभक्ति द्वारा जीव और उसके क्षायिक गुण केवलज्ञान में भेद दर्शाया गया है। केवलज्ञान जीव का कर्मोपाधिरहित सद्भूतगुण है। इस प्रकार ‘जीव का केवलज्ञान' यह कथन अनुपरित सद्भूत व्यवहार नय का विषय है।
2. असद्भूत व्यवहार नय :
जो व्यवहारनय भिन्न वस्तुओं में भेद करता है, वह असद्भूत व्यवहारनय है।505 उपाध्याय यशोविजयजी ने पर-द्रव्याश्रित गुण और गुणी में भेद व्यवहार करने वाले नय को असद्भूत व्यवहारनय कहा है।506 पर से तात्पर्य जीव से भिन्न द्रव्य से है।
501 तत्र सोपाधि गुणगुणि भेद विषय उपचरित सद्भूत व्यवहारो ........... आलापपद्धति, सूत्र 221 502 सोपाधिक गुण-गुणी भेदइ रे, जिअनी मति उपचार रे ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गात्र 8/4 503 निरूपाधि गुण गुणि भेद विषयोऽनुपचरित सद्भूत व्यवहारो ....... आलापपद्धति, सू. 222 504 निरूपाधिक गुण-गुणि भेदई रे, अनुपचरित सद्भूत .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/5 505 भिन्नवस्तु विषयोऽसद्भूत व्यवहारः ......
. आलापपद्धति, सू. 219 506 दोइ भेद व्यवहारनाजी, सद्भूतासद्भूतः ........................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/3
......
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असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद किये गये हैं507 -1. उपचरित असद्भूत व्यवहार नय, 2. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय
1. उपचरित असद्भूत व्यवहारनय :
प्रस्तुत नय भेदयुक्त वस्तुओं में सम्बन्ध को मानता है।500 यशोविजयजी ने भी असंश्लेषित योग से कल्पित सम्बन्ध को विषय बनाने वाले नय को उपचरित असद्भूत व्यवहारनय कहा है। जैसे- देवदत्त का धन।09 यहाँ देवदत्त और धन में असंश्लेषित संयोग है। दो द्रव्यों का लोह और अग्नि की तरह तादात्म्य सम्बन्ध हो जाना अर्थात् एकमेव बन जाना संश्लेषित योग है। इसके विपरीत दो द्रव्यों का परस्पर एकमेव न होना असंश्लेषित योग है। 'देवदत्त का धन' में देवदत्त और धन में लोहग्नि की तरह तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अपितु स्वस्वामीभाव रूप कल्पित सम्बन्ध है। इस प्रकार असंश्लेषित योग होने से उपचार है। देवदत्त और धन दोनों भिन्न द्रव्य होने से असद्भूत हैं। षष्ठी विभक्ति के द्वारा भेद बताया गया है। इसलिए व्यवहारनय है।
2. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय :
जो परस्पर संयोगजन्य वस्तुओं के सम्बन्ध को अपना विषय बनाता है, वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।10 यशोविजयजी ने भी प्रस्तुत नय का विषय संश्लेषित योग से बने सम्बन्ध को बताया है। जैसे 'आत्मा का शरीर 511 यहाँ आत्मा
507 असद्भूत व्यवहारो द्विविध ..
.. आलापपद्धति, सू. 223 508 तत्र संश्लेषरहित वस्तु सम्बन्ध विषय
आलापपद्धति, सू. 224 50' असद्भूत व्यवहारना जी, इम ज भेद छइ होई प्रथम असंश्लेषितयोगईजी देवदत्त धन जोई रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/6 510 संश्लेषसहित वस्तु संबंध विषयोऽनुपचरिता सद्भूत व्यवहारो .... आलापपद्धति, सूत्र. 225 511 संश्लेषित योगइ बीजो रे, जिम आतमनो देह ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/7
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और शरीर में लोहग्नि की तरह तादात्म्य सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध यावज्जीव तक रहता है। आत्मा और देह का सम्बन्ध धन के समान कल्पित सम्बन्ध नहीं है। इसलिए यह सम्बन्ध अनुपचरित है। फिर भी आत्मा और शरीर दोनों ही भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं और इसलिए असद्भूत हैं। 'आत्मा का शरीर' ऐसा भेदरूप कथन करने से व्यवहार नय है।
अध्यात्मनय
निश्चयनय
व्यवहारनय
शुद्ध
अशुद्ध
सद्भुत
असद्भूत
उपचरित
अनुपचरित
उपचरित
अनुपचरित
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नयसिद्धान्त का ऐतिहासिक विकास क्रम
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नय वक्ता के अभिप्राय को सम्यग् प्रकार से समझने का एक उपक्रम है। क्योंकि जो कथन जिस दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है, उसकी सत्यता उसी दृष्टिकोण तक रहती है। सामान्यतया कोई भी दर्शन दृष्टि निरपेक्ष नहीं है। सभी दर्शनों ने तथ्यात्मक कथन अपेक्षाओं के आधार पर ही किया है। इसलिए यह कहा जाता है कि वक्ता के अभिप्राय को सम्यग् प्रकार से समझने के लिए जो दृष्टिकोण उस कथन के पीछे निहित है, उसे समझना नय है।
भारतीय और पाश्चात्य सभी दर्शनों में कहीं न कहीं यह नयदृष्टि उपस्थित रही है। डॉ.चन्द्रधर शर्मा के शब्दों में- "व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोणों का } यह अन्तर सदैव ही रखा जाता रहा है। विश्व के सभी दार्शनिकों ने इसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है । हेराक्लिटस के Kato और Ane पारमेनीडीज के मत और सत्य, सुकरात के रूप और आकार (World and Form ), प्लेटो के संवेदना (Sense) और प्रत्यय (Idea), अरस्तु के पदार्थ और चालक ( Mover), स्पिनोजा के द्रव्य (Substance) और पर्याय (Modes), कॉट के प्रपंच ( Phenomenal) और तत्त्व (noumerial), हेगल के विपर्यय ( Illusion ) और निरपेक्ष (absolute) तथा ब्रेडले के आभास (Appearance) और सत् (Reality) किसी न किसी रूप में उसी व्यवहार और परमार्थ की धारणा को स्पष्ट करते हैं। भले ही इनमें नामों की भिन्नता हो, लेकिन उनके विचार इन्हीं दो दृष्टिकोणों की ओर संकेत करते हैं । 12
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भारतीय दर्शनों में प्राचीन काल में मुख्यता दो दृष्टिकोण प्रमुख रहे जिन्हें परमार्थ और व्यवहार के रूप में जाना जाता है। जैनदर्शन में भी आगमरूप में हमें मुख्य रूप से निश्चय और व्यवहार इन दो दृष्टियों या नयों का उल्लेख मिलता है तथा साथ में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का भी उल्लेख मिलता है । इस प्रकार प्रारम्भ में निश्चय एवं व्यवहार या द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक नयों का ही उल्लेख
512 A Critical Survey of Indian Philosophy, Page. 59
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मिलते हैं। वहाँ नयों के प्रभेदों की चर्चा नहीं है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र13, षटखण्डागम में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ऐसे पांच नयों का उल्लेख मिलता है। इसी आधार पर कालान्तर में श्वेताम्बर परम्परा के अनुयोगद्वारसूत्र14 में तथा दिगम्बर परम्परा के सर्वार्थसिद्धि15 मान्य पाठ में सात नयों का उल्लेख है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने नैगमनय को अस्वीकार करके छह नयों की चर्चा की है। फिर भी सामान्यतया कालान्तर में भी ये सात नय ही जैन दार्शनिकों में प्रसिद्ध रहे।
दूसरी ओर आध्यात्मिक दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परा में निश्चय और व्यवहार, ऐसे दो नय ही प्रसिद्ध रहे। किन्तु कालान्तर में निश्चय के शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय और व्यवहार ऐसे तीन नय माने गये। समयसार16 में इन्हीं तीन नयों के आधार पर आत्मा आदि की चर्चा हुई है। श्वेताम्बर परंपरा में भगवतीसूत्र में निश्चयनय और व्यवहारनय को आधार बनाकर तत्त्व स्वरूप का विवेचन किया गया है। किन्तु निश्चय और व्यवहार तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के विस्तृत भेद-प्रभेदों की चर्चा पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद ही देखी गई है।
दिगम्बर परंपरा में देवसेन ने ही मूल सात नयों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को जोड़कर नौ नयों की चर्चा की। पश्चात् द्रव्यार्थिक के दस और पर्यायार्थिक के छह भेद भी किये हैं। नयों की यह गंभीर चर्चा दिगम्बर परंपरा में ही अधिक प्रचलित है। श्वेताम्बर परम्परा में यशोविजयजी ही ऐसे प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने इन नयों के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा की है। यही नहीं उन्होंने देवसेन कृत नयों के इस वर्गीकरण की समीचीन समीक्षा भी की है।
513 नैगमसंग्रहव्यवहारर्जसूत्रशब्दा नयाः
तत्त्वार्थसूत्र, 1/34 514 सत्तमूल नया पन्नता, तं जहा नैगमे ........
अनुयोगद्वार, पृ. 467 515 नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द समभिरूद्वैवंभूता नयाः .......... सर्वार्थसिद्धि, 1/33 516 ववहारोऽभूदत्थो मूदव्यो देसिदो दु सुद्धणओ ................ समयसार, गा. 11 517 गोयमा एत्थ दो नया भवंति, तं जहा नेच्छाइयनए य वावाहारियनए य ...........
व्याख्याप्रज्ञप्ति, भाग-2, पृ.814
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'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी एक ओर देवसेन कृत नयों के विभाजन और उनके प्रकारों की गंभीर समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे देवसेन के इस वर्गीकरण को आगम सम्मत न दिखाकर अपनी आगमिक निष्ठा को भी प्रकट करते हैं। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे। .
यशोविजयजी द्वारा देवसेन कृत नय विभागों की समीक्षा :
दिगम्बर परंपरा के विद्वान देवेसेन कृत 'नयचक्र' और आलापपद्धति में तर्कशास्त्र की दृष्टि से नौ नयों और तीन उपनयों तथा आध्यात्मदृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय की चर्चा जिस प्रकार की गई है, उसी प्रकार की यथावत् चर्चा उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के पांचवी, छठी, सातवीं और आठवीं ढाल में की है। आठवीं ढाल में अध्यात्म नयों को समझाने के पश्चात् देवसेन कृत नयों के इन प्रकारों की सुन्दर तार्किक शैली से समीक्षा भी की है। यशोविजयजी का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और समन्वयात्मक रहा। अतः इन्होंने देवसेन के नय प्रकारों का विरोध या खण्डन नहीं किया है, अपितु उनके सत्यांश और असत्यांश को जानने के लिए उनकी समीक्षा की है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का मूलभूत सिद्धान्त एक और समान होने से आचार्य देवसेन कृत विभागों में स्थूल रूप से कोई विषयभेद नहीं है। किन्तु खेद इस बात का है कि उन्होंने शास्त्र प्रणाली का त्याग करके भिन्न परिभाषाओं द्वारा नवीन रूप से नयों का प्रतिपादन किया।18 जिस शैली से पूर्वाचार्यों ने आगमों
और अन्य ग्रन्थों में नयों को उपदर्शित किया, उस शैली का बिना किसी प्रयोजन से त्याग करके स्वकल्पित भेद और प्रभेदों की जो चर्चा की है, वह यशोविजयजी की दृष्टि में अनुचित है।
518 विषय भेद यद्यपि नहीं रे, इहां अहमराई स्थूल
उल्टी परिभाषा इसी रे, तो पणि दाझइ मूल रे ..
...... द्रव्यगुणपयोयनोरास, गा. 8/8
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सात या पाँच नय
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदाय को मान्य उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्यमान्य पाठ में पांच मूलनयों का उल्लेख है, जबकि उसी के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों का उल्लेख है। मूलतः नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र के साथ शब्दनय को जोड़ने से कुल पांच नय हो जाते हैं । सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों की 'शब्दनय' ऐसी संज्ञा की गई है। दूसरी ओर नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ऐसे सात नय गिनाये गये हैं।
विशेषावश्यकभाष्य 19 में जिनभद्रगणि ने एक-एक नय के सौ-सौ प्रकार बताकर कुल सात मूल नयों के सात सौ भेद किये हैं तथा मतान्तर से पाँच मूल नयों के प्रत्येक के सौ-सौ भेद करके पाँच सौ भेद किये हैं । यदि नयों के मूलतः नौ भेद होते तो शास्त्रकार नौ नयों के 900 भेद करते । परन्तु ऐसा विधान शास्त्रों में कहीं पर दृष्टिगोचर नहीं होता है। अतः देवसेन ने श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों द्वारा स्वीकृत पाँच या सात नयों की प्रणाली को छोड़कर सात नयों में ही समाविष्ट द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय को उनसे अलग मान करके जो नौ नयों की कल्पना की है, वह मात्र प्रपंच के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस प्रकार यशोविजयजी ने पांच या सात नयों के समर्थन में शास्त्रीय संदर्भ देकर देवसेन की नौ नयों की कल्पना को अनुचित ठहराया है। क्योंकि यह मूल आगमिक परम्परा के विरूद्ध है।
अर्पितनय और अनर्पितनय को मिलाकर 11 नय क्यों नहीं ?
उपाध्याय यशोविजयजी ने दिगम्बराचार्य देवसेन की नौ नयों की कल्पना के समक्ष दूसरा तर्क यह दिया कि यदि सात नयों में अन्तरनिहित द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को अलग करके यदि नौ नयों को मानते हैं तो इन्हीं में समाविष्ट
519 इक्किक्को च सयविहो सत्त णया हवंति एमेव ।
अण्णो वि हु आएसो, पंचेव सया णयाणं तु ।।
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विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2264
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अर्पितनय और अनर्पितनय को अलग करके ग्यारह नयों की कल्पना क्यों नहीं करते
हैं । 520
वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकार से व्यवहार्य या कथ्य है।521 अपेक्षा भेद से अनेक धर्मों में से कभी किसी एक धर्म की मुख्यता से तो कभी किसी अन्य धर्म या दूसरे धर्म की प्रधानता से वस्तु का कथन किया जाता है। जिस धर्म से वस्तु का कथन किया जाता है, उस समय वह धर्म अर्पित और अन्य सभी धर्म अनर्पित धर्म होते हैं । एक दृष्टि से अर्पित विशेष धर्म और अन्य अनर्पित सामान्य धर्म है। वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों धर्म होने पर भी सामान्य धर्म के द्वारा किसी भी कार्य में प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप व्यवहार नहीं होता है । अतः सामान्य अनर्पित है जबकि वस्तु के विशेष धर्म द्वारा प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार होने से विशेष अर्पित हैं।522 इस प्रकार यशोविजयजी के अनुसार देवसेन को अर्पित और अनर्पित नय को भी स्वीकार करके नयों के ग्यारह भेदों की कल्पना करनी थी ।
202
अनर्पित सामान्यग्राही होने से संग्रहनय में एवं अर्पित विशेषग्राही होने से व्यवहारादि में समाविष्ट हो जाने से नौ नय ही युक्तिसंगत है, ऐसा देवसेन का तर्क है तो द्रव्यार्थिकनय द्रव्यग्राही होने से नैगम आदि प्रथम तीन नयों {जिनभद्रगणि के मत में नैगम आदि चार नयों } में तथा पर्यायार्थिकनय पर्यायग्राही होने से ऋजुसूत्रादि चार नयों {जिनभद्रगणि के मत में शब्दादि तीन नयों } में समाविष्ट हो जाने से शास्त्र प्रसिद्ध सात नयों को ही स्वीकार कर लेना चाहिए | 523
दिगम्बर आचार्य देवसेन अपने पक्ष की रक्षा के लिए यदि ऐसा कहें कि जिस प्रकार श्वेताम्बर संप्रदाय में पाँच नयों में अन्तर्भूत होने वाले समभिरूढ़नय और एवंभूतनय को विभक्त करके सात नयों का उपदेश दिया गया है, उसी प्रकार हमनें
520 पज्जयत्थ द्रव्यारथो रे, जो तुझे अलगा दिट्ठ |
अप्पिय णप्पिय भेद थी रे, किम इम्यार न इट्ठ रे ।।
521 अर्पितानर्पितसिद्धेः
522 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 316
523 ते अर्पित कहतां विशेष कहिइं
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा. 8 / 10 तत्त्वार्थसूत्र, 5/
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, दबा, गा. 8 / 11
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सात नयों में समाहित द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय को अलग करके नौ नयों का उपदेश दिया है तो वहाँ अंतर्भावित को विभक्त करने का दोष नहीं लगता है।524
महोपाध्याय यशोविजयजी दिगम्बर आचार्य देवसेन को तर्कसंगत उत्तर देते हुए कहते हैं -श्वेताम्बर संप्रदाय में शब्दनय (सांप्रतनय) समभिरूढ़नय और एवंभूतनय इन तीनों को 'शब्दनय' ऐसा कहकर एक संज्ञा में संग्रहित किया गया है। तीनों नयों का एक नाम होने पर भी तीनों नयों में विषयभेद है।25 जहाँ विषयभेद होता है वहाँ नयभेद अवश्य होता है इसलिए एक संज्ञा में संग्रहित नयों में भेद किया जा सकता है।
__ 1. सांप्रतनय - लिंगभेद, वचनभेद, कारकभेद आदि के आधार पर अर्थभेद करता है।
2. समभिरूढ़नय – पर्यायवाची शब्दों में भी व्युत्पत्तिपरक वाच्यार्थ के भेद से अर्थभेद करता है।
3. एवंभूतनय – शब्द के अर्थ के अनुसार क्रिया परिणत अर्थ को स्वीकार करता है।
- इस प्रकार प्रत्येक नय में विषय भेद हैं। सांप्रतनय में लिंगादिभेद, समभिरूढ़ में व्युत्पत्तिभेद, एवंभूतनय में क्रियापरिणतभेद रूप विषयभेद है। परन्तु द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय में सात नयों से भिन्न कोई विषयभेद नहीं है। 26 अतः देवसेन का नौ नयों का उपदेश बिलकुल शोभास्पद नहीं है।
524 जो इम कहस्यो-मतारइ- 5नय कहिइं छइं ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14 का टब्बा 525 3 नयनइं एक संज्ञाइं संग्रही 5नय कहिया छइं पणि-विषय भिन्न छइं ....... वही, गा.8/14 का टब्बा 526 इम अंतर्भावित तणो रे, किम अलगो उपदेश। ___ पाँच थकी जिम सातमां रे, विषयभेद नहीं लेश रे।। ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14
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28 भेदों का निरसन -
___महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेन कल्पित नौ नयों की कल्पना का अनेक युक्तियों से निरसन करने के बाद उनके 28 उत्तरभेदों की अवधारणा की भी समीचीन समीक्षा की है। नयचक्र में द्रव्यार्थिकनय के दस भेद और पर्यायार्थिक के छह भेदों की विस्तृत चर्चा की गई है इसका वर्णन यशोविजयजी ने भी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की पाँचवी और छठी ढाल में किया है। फिर भी वे उससे सहमत नहीं हैं।
यशोविजयजी ने द्रव्यार्थिकनय के दस भेदों की अनावश्यकता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि - द्रव्यार्थिकनय के प्रथम तीन भेद (कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय, उत्पादव्ययनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय] शुद्धसंग्रहनय में समाहित हो जाते हैं। क्योंकि शुद्ध संग्रहनय का विषय शुद्ध द्रव्य को सत्-सामान्य की अपेक्षा से संग्रह करना है। इस नय के अन्य चतुर्थ एवं पंचम कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय और उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय} भेद अशुद्ध संग्रहनय में अंतर्भावित हो जाते हैं। क्योंकि अशुद्ध संग्रहनय का विषय गुण–पर्याय सहित अशुद्ध द्रव्य है। इसी प्रकार छठे भेद (भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय) का समावेश भेदग्राही व्यवहारनय में, सातवें भेद अन्वित द्रव्यार्थिकनय} का संग्रहनय में तथा आठवें, नवें और दसवें यथा स्वद्रव्यादिग्राहक, परद्रव्यादिग्राहक और परमभावग्राहक नय का समावेश व्यवहारनय में हो जाता है।
इसी प्रकार पर्यायार्थिकनय के प्रथम चार भेदों अनादिनित्य, सादिनित्य, अनित्यशुद्ध और नित्यशुद्ध पर्यायार्थिकनय} का अन्तर्भाव शुद्ध या अशुद्ध ऋजुसूत्रनय में हो जाता है। क्योंकि ऋजुसूत्रनय क्षणिक और दीर्घकालिन दोनों पर्यायों को अपना विषय करता हैं पर्यायार्थिकनय के पांचवा और छठा भेद कर्मोपाधि रहित नित्यशुद्ध और कर्मोपाधि सहित अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय} अनुक्रम से अनुपचरित और उपचरित व्यवहारनय में अन्तर्निहित हो जाते हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय के दस
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भेद और पर्यायार्थिकनय के छह भेद नैगमादि सात नयों में समाहित हो जाने से नौ नयों और उनके भेदों की कल्पना व्यर्थ है।527
यदि दिगम्बर पक्ष अपने बचाव के लिए ऐसा कहे कि 'गोबलिवर्द' न्याय { गो शब्द के स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों होने से उसमें गाय और बैल दोनों का बोध हो जाता है। फिर भी 'बलिवर्द' शब्द को बुद्धि कल्पना से 'गो' शब्द के आगे जोड़कर 'गोबलिवर्द' शब्द का प्रयोग करना बैल का अलग से बोध करवाने का हेतु होता है।) के अनुसार शुद्धाशुद्ध संग्रहनय में समाविष्ट द्रव्यार्थिकनय के दस भेदों और ऋजुसूत्रनय और व्यवहारनय में समाविष्ट पर्यायार्थिकनय के छह भेदों को भिन्ननय की तरह उपदेश करना दोषयुक्त नहीं है।528
किन्तु यशोविजयजी के अनुसार इसमें गतार्थ को अलग करने का दोष लगता है। गतार्थ को अलग करने पर जैनशासन में प्रसिद्ध सप्तभंगी की और सप्त नयों की कल्पना ही भंग हो जाती है। जैसे –'स्यादस्तिएव' इस प्रथम भंग में स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से सत्त्वग्राहकता का अर्पण है और परद्रव्यादि की अपेक्षा से असत्त्वग्राहकता का अनर्पण है।
इस प्रकार एक ही भंग में चार सत्त्वग्राहक अर्पित और चार असत्वग्राहक अनर्पित भाव गतार्थ होने पर भी इनको अलग करके भिन्न-भिन्न नय के रूप में वर्णन करेंगे तो करोड़ों भांगे और नय हो सकते हैं। करोड़ो भंग और नय हो जायेंगे तो सप्तभंगी और सात नय की बात मिथ्या हो जायेगी। इसलिए विषयभेद के बिना गतार्थ को अलग कमा सर्वथा अनुचित है।529
परन्तु सामान्य-विशेषग्राही होने पर नैगमनय का गतार्थ संग्रह और व्यवहारनय में नहीं है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि नैगमनय केवल सामान्य और विशेषग्राही ही नहीं है, अपितु उपचार आरोपग्राही भी हैं इसका स्पष्टीकरण प्रस्थक के उदाहरण,
527 जे द्रव्यार्थिकना 10 भेद देखाड्या, ते सर्व शुद्धाशुद्ध संग्रहादिक ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/14 का टब्बा 528 'गोबलिवर्द' न्यायइं विषयभेदई भिन्न नय कहिइं .................... वही, गा. 8/14 का टब्बा 29 स्यादसत्येव, स्यान्नस्त्वेय इत्यादि सप्तभंगी मध्ये कोटि प्रकारइं .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, का टब्बा, गा.8/14
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वसति के उदाहरण, प्रदेश के उदाहरण से हो जाता है। समय पर होने वाली वर्षा को 'सोना बरसता है, यह रास्ता इन्दौर जाता है, इत्यादि वाक्य प्रयोग उपचारग्राही नैगमनय के ही उदाहरण हैं। इस प्रकार नैगमनय संग्रह और व्यवहार नय से भिन्न विषयक होने के कारण ही भिन्न नय है |530
विभक्त का विभाग
दिगम्बरों की नौ नयों की कल्पना में विभक्त का विभाग' नामक दोष लगता है । 31 इसका अभिप्राय यह है कि मूलवस्तु को उत्तरभेदों में विभाजित करके मूलवस्तु का भी एक विभाग करना । जैसे मनुष्यों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार भेद करके मनुष्य को भी पाँचवे भेद के रूप में स्वीकारना विभक्त का विभाग नामक दोष है |532 यदि विभक्त का विभाग होता तो जैन शास्त्रों में निम्नलिखित रूप से पाठ होने चाहिए
1. संसारी, सिद्ध और जीव, ऐसे जीव के तीन भेद हैं ।
2. पृथ्वी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पति, त्रस और संसारी ऐसे संसारी जीव के 7 भेद हैं ।
3. जिन सिद्धादि 15 +1 सिद्ध ऐसे सिद्ध के 16 भेद हैं । 533
—
परन्तु इस प्रकार के पाठ आगम में कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होते हैं । जैन
शास्त्रों में निम्नरूप से पाठ मिलते हैं :
1. जीव दो प्रकार के हैं संसारी और सिद्ध
2. संसारी जीव के पृथ्वीकायादि छह प्रकार हैं। 3. सिद्ध जीवों के जिनसिद्ध आदि 15 भेद हैं।
530 संग्रह नई व्यवहारथी रे, नैगम किहांइक भिन्न
तिण ते अलगो तेहथी रे, ए तो दोई अभिन्न रे,
531
'इम करतां ओ पामीइ रे
532
-
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 336
533
इम कहिउं जोइइ, पणि "नवनया"
206
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8 / 15
वही, गा. 8 / 16
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• द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8/16
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1. नय के दो प्रकार हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक
2. द्रव्यार्थिक नय के नैगम आदि तीन प्रकार हैं ।
3. पर्यायार्थिकनय के ऋजुसूत्र आदि चार प्रकार हैं । 534
इस प्रकार से दिगम्बराचार्य देवसेन ने द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय के ही उत्तरभेद के साथ अलग से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय को मिलाकर जो विभक्त का विभाग किया है, वह किसी भी प्रकार से शोभनीय नहीं है । जैन शास्त्रों में विभक्त का विभाग कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता है ।
भिन्न प्रयोजन
स्वपक्ष की पुष्टि के लिए दिगम्बर देवसेन या उनके समर्थक ऐसा कहें कि जिस प्रकार संवर, निर्जरा, मोक्ष जीव के ही स्वरूप होने से जीव तत्त्व में तथा पुण्य, पाप, आश्रव और बंध पुद्गल स्वरूप होने से अजीव तत्त्व में अन्तर्भावित हो जाने पर भी जीव और अजीव के साथ पुण्य आदि सात तत्त्वों को मिलाकर नौ तत्त्व का उपदेश किया गया है, उसी प्रकार हमने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में समाहित सप्त नयों को अलग करके नौ नयों का प्रतिपादन किया है। अतः नौ नयों के प्रतिपादन में कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता है | 35
,535
इसका सटीक उत्तर देते हुए यशोविजयजी कहते हैं नौ तत्त्वों के भिन्न-भिन्न तत्त्वव्यवहार में भिन्न प्रयोजन है । परन्तु दो नयों के नौ नय करने में ऐसा कोई विशेष भिन्न प्रयोजन दृष्टिगत नहीं होता है। जीव और अजीव में समाहित पुण्य आदि सात तत्त्वों को भिन्न तत्त्व के रूप में प्रतिपादन करने में मूल उद्देश्य भिन्न-भिन्न तत्त्वों के भिन्न-भिन्न विशेष प्रयोजनों को समझाना है । किन्तु 'इतर व्यावृत्ति' अर्थात् एक तत्त्व से दूसरे तत्त्व में क्या अन्तर है? किस प्रकार भिन्न है?
534 इम करतां 9 नय देखाइतां, विभक्ततो विभाग थाई
535 हिवइ कोई कहस्यइ, जे जीवाजीवौ तत्त्वम्
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वही,
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इत्यादि को समझाना उद्देश्य नहीं है। 36 जैसे जीव और अजीव पदार्थात्मक है, जबकि पुण्य, पाप आदि स्वरूपात्मक है। दो मूल तत्त्व जीव और अजीव द्रव्य है तो शेष सात तत्त्व उनकी शुभाशुभ पर्यायें हैं। अतः केवल जीव और अजीव जानने योग्य ज्ञेय तत्त्व हैं। बंध जीव को संसार में परिभ्रमण कराने के कारण हेय है। मोक्ष मुख्य साध्य होने से उपादेय है। आश्रव तत्त्व बंध का हेतु होने से वह भी हेय है। मोक्ष उपादेय है तो उसकी प्राप्ति में असाधारण कारण संवर और निर्जरा भी उपादेय है। पुण्य और पाप बंध तत्त्व के ही भेद हैं। शुभफल की प्राप्ति पुण्य से एवं अशुभ फल की प्राप्ति पाप से होती है।537
इस प्रकार हेय, ज्ञेय, उपादेय का विवेक करने के प्रयोजन से नौ तत्त्वों का भिन्न-भिन्न प्रतिपादन किया गया है। परन्तु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय के भिन्न उपदेश में ऐसा कोई भिन्न प्रयोजन नहीं है। नयविभाग में इतरव्यावृति ही साध्य है। दूसरे शब्दों में नय विभाजन में मूल उद्देश्य एक नय दूसरे नय से किस प्रकार भिन्न है ? नयों के विषयों में क्या भेद है ? यही बताना होता है। अतः भिन्न-भिन्न विषयग्राही होने से ही भिन्न-भिन्न नयों का उपदेश दिया जाता है। भिन्न विषय के बिना ही नयों में भेद का प्रवेश करना युक्तिसंगत नहीं है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का विषय सप्त नयों के विषयों से भिन्न नहीं होने के कारण नौ नयों का प्रतिपादन उत्सूत्र भाषण है।538
द्रव्यार्थिक नय के दस भेद अपूर्ण हैं -
नयचक्र में दिगम्बराचार्य देवसेन ने एक-एक उदाहरण को दृष्टि समक्ष रखकर द्रव्यार्थिक नय के 10 और पर्यायार्थिक नय के 6 जो नियत संख्या में भेद किये हैं, वे भेद भी अपूर्ण और अधूरे हैं। क्योंकि ये भेद अन्य अनेक भेदों का
536 तेहनई कहिइं जे-तिहां
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/17 5937 जीव अजीए ए दो मुख्य पदार्थ ...
वही, 8/17 538 ते माटि “सतमूलनयो पन्नता" एहवू सूत्रई ............. वही, 8/17
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उपलक्षण मात्र हैं अर्थात् 10 भेद तो दिग्दर्शन मात्र हैं, अन्य अनेक भेदों को अध्याहार से समझ लेना है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के 10-6 भेद करने पर भी नयों का पूर्ण विवेचन उनमें समाविष्ट नहीं हो पाया है। यदि अध्याहर से अन्य भेदों को नहीं लेना है तो प्रश्न उठता है कि 'प्रदेशार्थकनय' इन 10 भेदों में से कौन से भेद में अन्तरनिहित होगा ? 539
जिस प्रकार द्रव्य को मुख्यता प्रदान करके विवक्षा करने वाला द्रव्यार्थिक नय होता है, उसी प्रकार प्रदेश को प्रधानता से विवक्षा करने वाला प्रदेशार्थकनय होता है । नैगम नय द्रव्यार्थिकनय का ही उत्तरभेदरूप है और प्रदेश द्रव्य का ही अविभाज्य अंश होने से शास्त्रों में प्रदेश को द्रव्यार्थिकनय नैगमनय } का विषय माना गया है। अनुयोगद्वारसूत्र *" में "दव्वट्टयाए, पसट्टयाए, दव्वट्ठ - पसट्टयाए" ऐसा कहा गया है।
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इस कारण से यदि प्रदेशार्थकनय को द्रव्यार्थिकनय में समाविष्ट नहीं करते हैं तो उत्सूत्र प्ररूपण हो जाएगा। इस दृष्टि से देखा जाय तो देवसेनकृत द्रव्यार्थिकनय के 10 भेदों में से किसी भी भेद में प्रदेशार्थकनय समाविष्ट नहीं होता है। प्रदेशार्थकनय का तो एक उदाहरण दिया है, परन्तु ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं, जो द्रव्यार्थिक नय के विषय हों। क्योंकि देवसेन ने एक-एक उदाहरण को समक्ष रखकर भिन्न-भिन्न भेदों की कल्पना की है। इसका तात्पर्य यह है कि जितने उदाहरण उतने ही नय हो सकते हैं तो फिर देवसेन ने जो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के क्रमशः दस और छह भेद ही क्यों किये ? अतः देवसेनकृत नयभेद अपूर्ण है।
देवसेन के वर्गीकरण में एक अन्य दोष यह आता है कि कर्मोपाधि सहित जीव के स्वरूप को समझाने के लिए अर्थात् क्रोधी, मानी इत्यादि जीव के स्वरूप को लक्ष में रखकर कर्मोपाधिसापेक्ष द्रव्यार्थिक नय ऐसा भेद किया है तो शरीर, घट, पट आदि पुद्गल के स्वरूप को समझाने के लिए 'जीव संयोग सापेक्ष' द्रव्यार्थिक नय
539 दशभेदादिक पणि इहां रे उपलक्षण करी जाणी
540 अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र - 114
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ऐसा द्रव्यार्थिक नय का भेद भी करना चाहिए। इसका कारण स्पष्ट है कि जैसे कर्म रूप पुद्गल के संयोग से जीव क्रोधी, मानी होता है तो पुद्गल भी जीव द्वारा ग्रहित होकर अनेक रूप में (शरीर, कर्म आदि) परिणत होता है। इस दृष्टि से यदि एक-एक उदाहरण की अपेक्षा से एक-एक नय का भेद करते जायेंगे तो अनंत नय हो जायेंगे।541
तीसरा दोष यह है कि प्रस्थक आदि उदाहरण से नैगम नय के शुद्ध, अशुद्ध और अशुद्धतर ऐसे भेद किये गये हैं।542 प्रस्थक आदि उदाहरण में दूरवर्ती कारण से लेकर निकटतम कारण तक "मैं प्रस्थक बनाता हूं' ऐसा उपचार हो जाने से यह नैगमनय के ही अशुद्ध आदि भेद में अन्तरनिहित होते हैं। परन्तु द्रव्यार्थिक नय के जो दस भेद किये गये हैं, उन किसी भी भेद में नैगमनय के शुद्ध, अशुद्ध आदि भेद समावेश नहीं होने से देवसेन कृत नय भेद अपूर्ण है। ___यदि दिगम्बर आचार्य अपनी बात को रखने के लिए ऐसा कहते हैं कि "प्रस्थकादि का उदाहरण" उपचार विशेष होने से नैगमनय का विषय न होकर, उपनय का विषय है तो सूत्र विरूद्ध परूपणा करने से उत्सूत्र भाषण का दोष लगता है। क्योंकि अनुयोगद्वारसूत्र में प्रस्थक आदि उदाहरणों को नैगम नय के भेदों के रूप में ही दर्शाया है, न कि उपनय के भेदों के रूप में।
महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेन आचार्य द्वारा स्वीकृत द्रव्यार्थिक नय के दस भेद तथा पर्यायार्थिक नय के छह भेदों की निरर्थकता को अनेक सुसंगत दलीलों के द्वारा सिद्ध करने के पश्चात् इनके द्वारा उपदिष्ट उपनयों की कल्पना को भी शास्त्रीय संदर्भो द्वारा समीक्षा की है।
541 तथा कर्मोपाधिसापेक्ष जीवभाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय
..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8/18 542 तथा प्रस्थकादि दृष्टान्तई नैगमादिकना अशुद्ध अशुद्धतर ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8/18
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उपनय व्यवहार और नैगमनय में अर्न्तभावित है
'जो नयों के समीप रहता है तथा जिसमें उपचार की मुख्यता है वह उपनय है' यदि उपनय की ऐसी परिभाषा माने है तो उपनय के सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार इन तीनों भेदों का समावेश नैगमनय और व्यवहारनय में हो जाता है। क्योंकि नैगमनय और व्यवहारनय का विषय उपचार भेद भी है। इस विषय में यशोविजयजी ने तत्त्वार्थसूत्र का संदर्भ दिया है -
—
एह ज दढइ छइ, उपनय पणि कहया, ते नय व्यवहार नैगमादिकर्थ । अलग नथी। उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रे 'उपचारबहुलो विस्तृतार्थो लौकिकप्रायो व्यवहार: 1543
ज्ञातव्य यशोविजयजी द्वारा उल्लेखित यह पाठ तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में निम्नरूप से मिलता है लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः " ए:544 जहां तक हमारी
—
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जानकारी है हमें ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के टब्बा में उद्धृत पाठ और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के पाठ में शब्द भेद होने पर भी विशेष कोई अर्थभेद नहीं है।
व्यवहारनय लोक व्यवहार का अनुसरण करने वाला अर्थात् उपचार को माननेवाला और विस्तृत अर्थवाला होता है। इस प्रकार जो विषय नयों में ही समा जाता है, फिर उसके लिए उपनय की कल्पना अनावश्यक है।
546
इस प्रकार नयों के भेदों को ही उपनय के रूप में कल्पना करके उपनय को मानते हैं तो प्रमाणज्ञान के एकदेश को उपप्रमाण के रूप में स्वीकारना चाहिए 45 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणं इसका अभिप्राय है जो स्व और पर अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय का निर्णय करता है, वह प्रमाण है | 546 इस व्याख्या के अनुसार प्रमाणज्ञान के एकदेश मतिज्ञानादि या उनके अवग्रह, ईहा, उपाय, धारणा आदि सभी को उपप्रमाण
543 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/19 का टब्बा
544 तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1 / 35 पर भाष्य
545 ए लक्षणई लक्षित ज्ञानरूप प्रमाणनो एकदेशमतिज्ञानादिक
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक - धीरजलाला डाह्यालाल महेता, पृ. 345
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कहना चाहिए।47 क्योंकि नय के समीपवर्ती उपनय है तो प्रमाण के निकटवर्ती उपप्रमाण होगा। मतिज्ञानादि उत्तरभेद और अवग्रह आदि उनके उत्तरभेद प्रमाण के ही अंश-प्रत्यांश होने के कारण प्रमाण के पासवर्ती हैं। इस कारण से मतिज्ञानादि को उपप्रमाण कहना चाहिए। परन्तु जैन शास्त्रों (आगम) में उपनय और उपप्रमाण जैसे शब्द तथा इनका अर्थ और उदाहरण कहीं भी देखने में नहीं आता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने निश्चय और व्यवहार नय के दिगम्बर आचार्य देवसेन मान्य लक्षण, स्वरूप आदि की मध्यस्थ भावों से सुन्दर समीक्षा की है।
___ अध्यात्म नय के उपचार और अनुपचार के आधार पर निश्चयनय और व्यवहारनय ऐसे दो भेद किये गये हैं। दिगम्बर विद्वानों ने उपचार का अर्थ अवास्तविक, मिथ्या, अभूतार्थ, काल्पनिक इत्यादि करके निश्चयनय को वास्तविक नय और व्यवहारनय को मिथ्यानय माना है। निश्चयनय के उदाहरणों में उपचार विना के उदाहरण और व्यवहारनय के लिए उपचार वाले दृष्टान्त दिए हैं। परन्तु निश्चयनय की दृष्टि उपचार रहित और व्यवहारनय की दृष्टि उपचार वाली है, ऐसे कहने के लिए कोई आधार नहीं है। क्योंकि उपचार का अर्थ काल्पनिक या मिथ्या नहीं अपितु गौण-अमुख्य–अप्रधान है।48 कोई भी नय तभी सुनय होता है जब अपने विषय को मुख्य रूप से प्रतिपादन करने पर भी अन्य नय के विषयों को अस्वीकार या विरोध न करे। अन्यथा एकान्त प्रतिपादन करने के कारण कुनय अथवा मिथ्या नय हो जायेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि नय वही है जो प्रतीपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता का अभिप्राय है।549 इस कथनानुसार जब एक नय की मुख्यवृत्ति रहती है तो अन्य नय की गौण वृत्ति (उपचारवृत्ति) रहती है। अतः किसी विषय के प्रतिपादन में निश्चयनय की मुख्यवृत्ति होती है तो व्यवहारनय की भी उपचारवृत्ति अवश्य होती है। उसी प्रकार जब
547 प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार, सूत्र-2 548 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 347 549 तत्राऽनिराकृतपतिपक्षो ............... प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 657
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व्यवहारनय की मुख्यवृत्ति होती है तब निश्चयनय की उपचारवृत्ति भी अवश्य होती है। जैसे- निश्चयनय के अनुसार जीव कर्म से आबद्ध और अस्पृष्ट है अर्थात् निरंजन, निराकार, सिद्ध और बुद्ध है। परन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से जीव कर्म से बद्ध और स्पृष्ट है अर्थात् सदेही, स्त्री-पुरूष, देव तिर्यंच, सुखी, दुखी इत्यादि है।50 इसका आशय यह है कि निश्चयदृष्टि मुख्य रूप जीव को निरंजन निराकार आदि के रूप में स्वीकार करती है तो उपचार रूप से (गौणता) जीव को सदेही आदि के रूप में भी स्वीकार करती है। इसी प्रकार व्यवहारदृष्टि प्रधान रूप से जीव को सदेही आदि के रूप में स्वीकृत करती है तो गौण रूप से (उपचार) जीव को निरंजन, निराकार आदि भी मानती है। प्रत्येक नय मुख्यवृत्ति और उपचारवृत्ति से ही विषय का प्रतिपादन करता है। इस दृष्टि से व्यवहारनय में उपचार होने के कारण व्यवहारनय के सद्भूत व्यवहार आदि उपनय होते हैं और निश्चयनय में उपचार नहीं होने के कारण उपनय नहीं होते हैं, इत्यादि कथन मिथ्या और अनुचित हैं।551
यह शास्त्र सिद्ध बात है कि जहां एक नय की मुख्यता होती है, वहां अन्य सभी नय गौण (उपचरित) होते हैं।
"स्यादस्त्येव" घट पटादि सभी वस्तुएं कथंचिद् अस्ति है। इस प्रकार के नय वाक्य में 'अस्तित्व' को प्रतिपादित करने वाले निश्चयनय की विवक्षा है तो कालादि आठ द्वारों के द्वारा अस्तित्व के साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्य सभी नास्तित्व धर्मों को भी अभेदवृत्ति से उपचार करके लिया गया है। जिस प्रकार अस्तित्ववादी धर्मों को मुख्यता से निरूपण किया गया है उसी प्रकार के नास्तित्ववादी धर्मों को भी उपचार से निरूपण किया गया है। ऐसा होने पर ही नयवाक्य, नयरूप में होते हुए सकलादेश (अस्तित्व, नास्तित्व) रूप बनकर प्रमाणरूप बनता है।552 क्योंकि नय
550 जीवे कम्मं बद्धं पुद्धं चेदी ववहारणयभणिदे। सुद्धणस्स दु जीवे अबद्धपुद्धं हवइ कम्मं ।। .......
समयसार, गा. 141 551 व्यवहारइ निश्चय थकी रे, स्यो उपचार विशेष ? मुख्यवृत्ति जो ऐकनी रे, तो उपचारी शेष रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/20 552 अत एव "स्यादस्त्येव" ए नय वाक्यइं अस्तित्वग्राहक .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, का टब्बा, गा.8/20
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प्रमाण का ही एक अंश है । यदि नय वाक्य अस्तित्व धर्मों के साथ नास्तित्व धर्मों को गौण रूप से अंगीकार नहीं करता है तो विकलादेश होकर मात्र नय ही रह जायेगा, किन्तु प्रमाणरूप नहीं हो सकता है। अस्तित्व, नास्तित्व आदि सभी धर्मों को मुख्य और गौण रूप से प्रतिपादन करने वाला नय ही सुनय होकर प्रमाणरूप बनता है। इस प्रकार निश्चय नय की विवक्षा में भी अन्य धर्मों का उपचार अवश्य होता है ।
प्रत्येक नय को अपने अपने प्रतिपाद्य विषय ही सत्य है, ऐसा गर्व अवश्य होता है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे अन्य नय की बात को मिथ्या मानते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहां निश्चयनय की प्रधानता होती है वहां व्यवहारनय की गौणता (उपचार) होती है, और जहां व्यवहारनय की प्रधानता होती है वहां निश्चयनय की गौणता (उपचार) होती है। अतः निश्चयनय में उपचार नहीं होने से उपनय नहीं होते हैं और व्यवहारनय में उपचार होने से उपनय होते हैं ऐसा दिगम्बराचार्य का कथन शास्त्र विरूद्ध मार्ग का पुष्टि करने वाला बनता है ।
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काल्पनिक होने से व्यवहारनय मिथ्या है और अकाल्पनिक होने से ( उपचार नहीं होने से) निश्चयनय सत्य है । निश्चय और व्यवहारनय की देवसेन कृत प्रस्तुत व्याख्या शास्त्र संगत नहीं है ऐसा कहकर यशोविजयजी ने विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि कृत निश्चय और व्यवहारनय के लक्षण को विस्तार से समझाया है।
जिनभद्रगणि ने “तत्त्वार्थग्राही नयो निश्चय', लोकाभिमतार्थग्राही व्यवहारः " ऐसा निश्चय और व्यवहारनय का लक्षण दिया है। 554 जो नय तत्त्वभूत अर्थ को ग्रहण करता है, वह निश्चयनय एवं जो लौकिक व्यवहार में प्रयुक्त अर्थ को ग्रहण करता है वह व्यवहारनय है। ‘तत्त्वभूत अर्थ का तात्पर्य है युक्तियों से सिद्ध होने वाला अर्थ या पारमार्थिक अर्थ है 555 जैसे भंवरा पंच वर्ण वाला है। भंवरे का शरीर अनंत
-
553 स्वस्वार्थइ सत्यपणानो अभिमत तो सर्वनयइं
वही,
554 ते माटइं निश्चय व्यवहारनुं लक्षण भाष्यइ - विशेषावश्यकइं कहिइं छई,
तिम निरधारो तत्त्वार्थग्राही नयो निश्चयः, लोकाभिमतार्थग्राही व्यवहारः । ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.8/21 का टब्बा
SSS तत्त्व अर्थते युक्तिसिद्ध अर्थ जाणव
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8 / 21
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परमाणुओं के स्कन्ध से निर्मित है। परमाणु भिन्न-भिन्न वर्ण वाले होते हैं। अतः भंवरे का शरीर भी अनंत परमाणुओं से निर्मित होने से उसमें कृष्णादि पांचों ही वर्गों की संभावना हो सकती है। इस प्रकार युक्तियों से सिद्ध अर्थ को तात्त्विक अर्थ कहा जाता है।556
लोक व्यवहार में रूढ़ अर्थ को विषय बनानेवाले नय को व्यवहार नय कहा जाता है। जैसे भंवरा काला है। यहां पाँचों वर्ण के होने पर भी कृष्णवर्ण की अधिकता के कारण लोक व्यवहार में 'भंवरा काला है ऐसा प्रसिद्ध है।557
उपरोक्त जिनभद्रकृत निश्चयनय के लक्षण के विरोध में दिगम्बर आचार्यों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि तात्त्विक अर्थग्राही निश्चयनय है तो फिर निश्चयनय और प्रमाण की परिभाषा में कोई अन्तर न रहकर दोनों एक हो जायेंगे। इसका कारण यह है कि प्रमाण भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ स्वपरव्यवसायी ज्ञान होने से तत्त्वार्थग्राही है। उपाध्याय यशोविजयजी इस प्रश्न का सूक्ष्मदृष्टि से समाधान करते हुए कहते हैं – दिगम्बराचार्यों की उपरोक्त बात पूर्णतः सत्य नहीं है। निश्चयनय और प्रमाण दोनों ही तत्त्वार्थग्राही है। फिर भी दोनों में अन्तर है। निश्चयनय 'नय' होने से एकदेशतत्त्वार्थग्राही है, जबकि प्रमाण 'प्रमाण' होने से सकलादेशतत्त्वार्थग्राही है।558
__ यशोविजयजी ने इसी बात को और अधिक स्पष्ट किया है। जैसे - नैयायिक और वैशेषिक दर्शनकारों ने प्रत्यक्षज्ञान के दो भेद किये हैं। 1. निर्विकल्पक और 2. सविकल्पक। निर्विकल्पक में विकल्पों का अभाव होने से 'यह कुछ है' मात्र ऐसा ही ज्ञान होने के कारण कोई भेद नहीं होता है। परन्तु सविकल्पकज्ञान में विकल्पों के कारण प्रकारता, विशेष्यता, संसर्गता आदि भी होते हैं।559 इस प्रकार सविकल्पकज्ञान
556 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 351 557 वही 558 यद्यपि प्रमाणे तत्त्वार्थग्राही छइ, तथापी प्रमाण सकलतत्त्वार्थग्राही, ..................द्रव्यगुणपर्यायनोरास 559 जिम सविकल्पज्ञाननिष्ठ प्रकारतादिक अन्यवादी भिन्न मानई छइ ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का ख्बा, गा.21
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वस्तु के एक-एक अंश को ज्ञात कराने पर भी पूर्ण अंश का ग्राही नहीं होने से विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। इस प्रकार निश्चयनय तत्त्वार्थग्राही होने पर भी अंशग्राही है। परन्तु पूर्णज्ञान रूप नहीं है।
इस प्रकार महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेनकृत निश्चय और व्यवहारनय की व्याख्या को असंगत बताने के बाद निश्चयनय और व्यवहारनय के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट किया है।
निश्चयनय -
निश्चयन नय अभ्यन्तरभावों को उपचार से बाह्यअर्थ के साथ जोड़ता है, सर्व व्यक्तियों में अभेद करता है और द्रव्य की निर्मल परिणति को प्रधानता से मानता है।
निश्चयनय बाह्य भौतिक पदार्थों की अवास्तविकता (उपचार) को समझाकर अभ्यन्तर भावों को ही वास्तविक बताता है।560 इसका अर्थ यह नहीं है कि बाह्यपदार्थ मात्र काल्पनिक और मिथ्या हैं। परन्तु बाह्य धन, धान्य, पुत्र, कलत्र आदि पदार्थों की सत्ता वास्तविक होने पर भी उनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता है। इन पदार्थों से आत्म सुख की प्राप्ति नहीं होती है। इस दृष्टि से निश्चयनय बाह्यपदार्थों की उपादेयता को औपचारिक रूप से स्वीकृत करके आन्तरिक भावों को ही सुख का वास्तविक साधन मानता है। इस बात को समझाने के लिए यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' के एक श्लोक को उद्धृत किया है।561 जैसे इन्द्र महाराज के लिए नंदनवन, वज्ररत्न, पटरानी, महाविमान आदि भोग विलास के साधन है। वैसे ही उच्चतम वैभव और श्रेष्ठ संपत्ति मुनि के पास भी हैं। मुनि के पास समाधि रूपी नंदनवन, धैर्यरूपी वज्र, समतारूपी इन्द्राणी और ज्ञानरूपी महाविमान है। इन्द्र का नंदनवन आदि बाह्य वैभव अन्त में दुःख का ही निमित्त बनता है। परन्तु समाधि, धैर्य,
560 जो बाह्यअर्थनई उपचारइं अभ्यंतरपणु करिइं ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/22 561 समाधिर्नन्दनं धैर्य दम्भोलिः समता शची। ज्ञानं महाविमानं च वासवश्रीरीयं मुनेः ।। .......
ज्ञानसार, श्लोक 20/2
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समता और ज्ञान इत्यादि मुनि महात्मा के आभ्यन्तर वैभव हैं जो परम आत्मिक सुख का कारण है। बाह्य पदार्थ की उपमा द्वारा आंतरिक परिणति को पहचाना निश्चयनय का विषय है।
निश्चयनय का दूसरा अर्थ यशोविजयजी ने यह किया है कि - निश्चयनय व्यक्तियों में अभेद दिखाता है।562 जैसे– 'एगे आया 53 | द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 में लेखक धीरजलाल डाह्यालाल महेता ने 'एगे आया' के स्थान पर ‘णो आया' इस पाठ को मान्य रखकर व्याख्या की है। परन्तु द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 लेखक अभयशेखरसूरि ने 'एगे आया ऐसे पाठानुसार व्याख्या की है। हमें आगमों में भी यही पाठ मिलता है और हमारी दृष्टि में यही उचित प्रतीत होता है। संसारिक जीवों में कर्मोदय के कारण सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पशु, मनुष्य, देव, नारकी, स्त्री, पुरूष आदि विभिन्न भेद होते हुए भी इन सभी भेदों को औदायिक भावजन्य मानकर निश्चयनय शुद्धात्म स्वरूप की दृष्टि से सभी जीवात्माओं को एक, अभिन्न और समान मानता है।
वेदान्तदर्शन में भी 'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' ऐसा कहकर 'आत्मा एक है ऐसा माना गया है। यह शुद्ध संग्रहनय का विषय होकर निश्चयनय का ही विषय बनता है। परन्तु एकान्त कथन होने से वेदान्तमान्य उपरोक्त वाक्य सुनय का वाक्य न होकर दुर्नय का वाक्य बन जाता है।
निश्चयनय के तीसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैंबाह्यक्रिया आदि से निरपेक्ष द्रव्य के आन्तरिक परिणाम निश्चयनय का विषय हैं।564 द्रव्य से आशय यहां संसारी जीव हैं। क्योंकि निश्चयनय अध्यात्मनय का भेद है और अध्यात्म परिणति जीव द्रव्य की ही होती है। जैसे– 'आया सामाइए, आया समाइस्स
562 जो घणी व्यक्तिनो अभेद देखाडिइ ते पणि
निश्चयनयार्थ जाणवो, जिम 'एगो आया' ...... ....................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/22 का टब्बा
563 स्थानांगसूत्र, 1 564 तथा द्रव्यनी जे निर्मल परिणति, बाह्यनिरपेक्ष जे परिणाम . द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/22
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अट्टे 65 सामायिक की क्रिया व्यवहारदृष्टि से सामायिक है। निश्चय दृष्टि से आत्मा को समभाव में तल्लीन रखना अथवा समतारूप आत्म की परिणति ही सामायिक है। निश्चय नय जीव के बाह्य क्रियाकलापों की उपेक्षा करके निर्मल आन्तरिक परिणति को ही अपने दृष्टिकोण में लेता है। बाह्य क्रिया सामायिक रूप न होने पर भी यदि अन्तर की परिणति समतारस में मग्न है तो निश्चयनय की दृष्टि से वह सामायिक है। जैसे– बाह्यरूप से गुणसागर लग्न मंडप में बैठे थे, पृथ्वीचंद्र राजा राजसभा में सिंहासन पर सुशोभित हो रहे थे, भरत चक्रवर्ती छह खण्ड के स्वामिपणे से अभिभूत थे। परन्तु उस समय में इन सबकी अन्तर की परिणति कर्तृत्व-भोक्तृत्व-ममत्व बुद्धि से रहित स्वस्वरूप में रमण कर रही थी। यह आत्म द्रव्य की शुद्ध परिणति ही निश्चयनय की दृष्टि से सामायिक है।
इस प्रकार समाधि को नंदनवन मानना, 'एक ही आत्मा है' ऐसा कहना, लग्नक्रिया को सामायिक कहना इत्यादि लोक व्यवहार की दृष्टि से उचित नहीं है। ये सभी लोकातिक्रान्त अर्थ है जो निश्चयनय के विषय है।566
व्यवहारनय:
___जो भेदग्राही है, वस्तु के उत्कट पर्याय को प्रधानता देता है और कार्य और कारण (निमित्त) की अभिन्नता को स्वीकार करता है, वह व्यवहारनय है।67
व्यवहारनय, संग्रहित व्यक्तियों में भेद करता है। जैसे द्रव्य अनेक हैं, जीव अनेक हैं, इत्यादि ।68 व्यवहारनय लोकाभिभूतग्राही होने से बाह्यदृष्टि से प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करता है। जैसे- यह जड़ है, यह चेतन है, यह देव है, यह मनुष्य है,
565 भगवतीसूत्र, 1/9 566 इम जे जे रीतिं लोकातिक्रान्त अर्थ पामिइं ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा.8/22 567 जेह भेद छई विगतिनो रे.
................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/23 568 जेह व्यक्तिनो भेद देखाडिइ,"अनेकानि द्रव्याणि, अनेके जीवा' ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा.8/23
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यह पुरूष है, यह स्त्री है, यह सुखी है, यह दुःखी है, इत्यादि। इस प्रकार व्यवहारनय का विषय भेद है।
व्यवहारनय का दूसरा स्वरूप है, उत्कट पर्याय का प्रतिपादन करना।569 उत्कट पर्याय ग्रहण का अर्थ है वस्तु में अनन्त गुण धर्म होने पर भी लोक में प्रसिद्ध विशिष्ट पर्याय को ग्रहण करना। जैसे भ्रमर का शरीर पौद्गलिक होने से पुद्गल के वर्ण आदि गुणों के 20 भेद उसमें होते हैं। फिर भी कृष्ण वर्ण की अधिकता को दृष्टि में लेकर भ्रमर को काला कहना। इस प्रकार उत्कट पर्याय व्यवहार नय का विषय है। जैसे शक्कर मीठी है, अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, गुलाब सुगन्धित है आदि।
व्यवहारनय के इस तीसरे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैं - कार्य और निमित्त कारण को अभेद दृष्टि से स्वीकारना व्यवहारनय का विषय है। जैसे - आयुर्घतम | व्यवहारनय कार्य में कारण अथवा कारण में कार्य का आरोप करके अभेदरूप से व्यवहार करता है। 'घी ही जीवन है' इस उदाहरण में घी में जीवन नहीं है,अपितु जीवन का निमित्त कारण है। कारण में कार्य का आरोप करके व्यवहारदृष्टि से आयुर्घतम, गिरिदह्यते, कुण्डिका स्त्रवति इत्यादि कहा जाता है।
उपरोक्त निश्चयनय और व्यवहारनय के तीन-तीन अर्थों को समझाकर ग्रन्थकार कहते हैं कि - इस प्रकार निश्चय और व्यवहारनय का विषय बहुत विशाल होने से उनके भेद-प्रभेद भी अनेक हो सकते हैं। परन्तु दिगम्बर आचार्य देवेसेन ने अपने ‘नयचक्र' ग्रन्थ में निश्चय और व्यवहारनय के अनेक मर्मग्राही विषयों को छोड़कर केवल कुछ विषयों को लेकर ही ऊपरी तौर पर नयों का स्वरूप और भेद-प्रभेदों का कथन किया है। इससे यह स्पष्ट रूप से फलित होता है कि देवसेन ने प्रतिपाद्य विषयों व्याख्याओं और भेद-प्रभेदों को स्पष्ट करने के लिए नहीं, अपितु अपने जैसे बालजीवों के मध्य अपनी विद्वता बताने के लिए ग्रन्थ की रचना की
569 तथा उत्कटपर्याय जाणीइं, ते पणि व्यवहारनो अर्थ .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/23 570 तथा कार्यनइं निमित्त कहतां कारण, एहोनइं अभिन्नपणुकहिइं .............. वही,
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है।571 अतः नयों के स्वरूप और भेद-प्रभेदों के परिपूर्ण सुन्दर और सटीक विवेचन यशोविजयजी द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में समीचीन रूप से उपलब्ध है। 572 यशोविजयजी का अभिप्राय यह है कि नयों के यथार्थ-बोध की प्राप्ति के हेतु जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य, सिद्धसेन दिवाकर कृत सम्मतितर्कप्रकरण, उमास्वातिकृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, इस पर सिद्धसेनगणि कृत टीका, अनुयोगसूत्रगत नय का वर्णन आदि का अभ्यास करने योग्य है । सिद्धसेन दिवाकर का यह कथन समीचीन है कि कथन के जितने प्रारूप हो सकते हैं उतने ही नयों के भेद हो सकते हैं । विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा गया है -
I
जावन्तो वयणपहा तावन्तो वा नयाविसद्दाओ ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिया सव्वे 73
विशेषावश्यकभाष्य के इस कथन के अनुसार जितने वचन के प्रकार होते हैं उतने ही नय के प्रकार हो सकते हैं। नय का सामान्य अर्थ दृष्टि है । अतः विभिन्न दृष्टियों के अनुसार विभिन्न नय की संभावना हो सकती है। इस विशाल, गहन और गंभीर नयवाद के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए धैर्य और बुद्धि की स्थिरता तथा गहरा अनुभव चाहिए। इस कारण से देवेसेनकृत नय स्वरूप को मिथ्या न मानकर उपाध्याय यशोविजयजी ने उनके नय प्रतिपादन में निहित सत्यांश को स्वीकार करके उनकी एकान्तवादिता को दूर करने हेतु उसकी तर्कसंगत समीचीन समीक्षा की है। 574
नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय का सहसम्बन्ध -
-
-
पं. सुखलालजी ने 'सन्मतितर्कप्रकरण' के विवेचन में लिखा है – “जगत् किसी भी प्रकार के ऐक्य से रहित केवल अलग-अलग कड़ियों की भांति भेदरूप भी नहीं
571 इम बहु विषय निराकरी रे करता तस संकोच
572 शुद्धनार्थ ते श्वेताम्बर संप्रदाय शुद्ध नयग्रंथनइं अभ्यासइं ज जाणइ
573 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2265
574 ए प्रक्रियामाहिं पणि जे युक्तिसिद्ध अर्थ छइ ते
अशुद्ध टालिन उपपादिउं छइ
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8 / 24 वही, गा. 8 / 24
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8 / 24
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है और तनिक भी भेद के स्पर्श से रहित अखण्ड अभेदरूप भी नहीं है। परन्तु उसमें भेद और अभेद दोनों का अनुभव होता है।75" जगत् का वास्तविक स्वरूप भेदाभेदरूप है। ऐसे भेदाभेदरूप या सामान्य विशेष रूप जगत का मूल घटक द्रव्य है। अतः द्रव्य का स्वरूप भी भेदाभेदरूप है। जैनाचार्यों ने द्रव्य को गुण और पर्याय के आधार के रूप में परिभाषित किया है तथा द्रव्य, गुण और पर्याय के परस्पर सहसम्बन्ध को भिन्नाभिन्न के रूप में व्याख्यायित किया है। महोपाध्याय यशोविजयजी ने इन्हीं पूर्व आचार्यों की परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए अपनी दार्शनिक कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य-गुण–पर्याय के कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्नाभिन्न रूप पारस्परिक सम्बन्ध की सूक्ष्मदृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा की
है।
यशोविजयजी ने द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध के विवेचन के लिए जैन दार्शनिकों की विशिष्ट विवेचन शैली नयवाद को आधार बनाया है और इसी संदर्भ में उन्होंने नयवाद की विस्तृत व्याख्या भी की है। क्योंकि नयवाद के अभाव में द्रव्य के अनेकान्तिक स्वरूप का विश्लेषण असंभव है। द्रव्य के सम्बन्ध में कोई भी कथन किसी न किसी अपेक्षा के आधार पर ही किया जाता है निरपेक्ष रूप से किया हुआ कथन एकान्त होने से वस्तु के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित नहीं कर सकता है। द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध भिन्न रूप भी है और अभिन्न रूप भी है। किसी अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय परस्पर भिन्न है और किसी अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय का परस्पर अभिन्न भी है। यह अपेक्षा विशेष ही नय है।
यशोविजयजी ने मूलनय के रूप में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय को स्वीकार किया है। अतः द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्य से गुण और पर्याय एवं गुण और पर्याय से द्रव्य अभिन्न है।76 द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि अभेदगामी या
575 सन्मतिप्रकरण - पं. सुखलालजी, पृ.3 576 द्रव्यार्थनयथी कथंचिद् अभिन्न ज छइ जे माटि गुण पर्याय द्रव्यना जा आविर्भाव तिरोभाव छइ
.................द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा
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सामान्यमूलक होने से यह नय अभेद का अवलम्बन लेकर प्रवृत होता है। इस नय के अनुसार द्रव्य अपने गुण, पर्याय से भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है। जो गुण और पर्यायवाला है, वही द्रव्य है। अनेक गुणों का पिण्ड ही द्रव्य है। गुणों से पृथक् द्रव्य की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि द्रव्य से एक-एक करके सभी गुणों को अलग कर दिया जाय तो द्रव्य के नाम पर कुछ भी शेष नहीं रहेगा। जीव द्रव्य से उसके अस्तित्व, प्रदेशत्व, वस्तुत्व आदि सामान्य गुणों को तथा चेतनत्व, ज्ञान, सुख, दुःख, वीर्य आदि विशेष गुणों को अलग कर दिया जाय तो जीवद्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इसी प्रकार घट (पुद्गलद्रव्य) से उसके द्रव्यत्व, अस्तित्व आदि सामान्य गुणों को एवं जलधारण, रक्तता, पूरण-गलन आदि विशेष गुणों से रिक्त कर दिया जाय तो घट के नाम पर कुछ भी अवशेष नहीं रहेगा। द्रव्य से गुण इसलिए अभिन्न है कि गुण, द्रव्य का सहभावी धर्म है। धर्मी अपने सहभावी धर्मों से कदापि भिन्न नहीं होता है। अतः द्रव्यार्थिकनय के अनुसार द्रव्य अपने गुण से अभिन्न है। जहाँ तक द्रव्य की पर्याय से अभिन्नता का प्रश्न है, पर्याय द्रव्य का ही अवस्थान्तर है। जैनदर्शन में द्रव्य को परिणामीनित्य माना है अर्थात् द्रव्य में प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होता रहता है। द्रव्य निरन्तर एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था को प्राप्त होता रहता है। इस प्रकार द्रव्य का अवस्थान्तर ही पर्याय है और यह द्रव्य का क्रमभावी धर्म है। जैसे- जीवद्रव्य मनुष्य, देव, सिद्ध आदि दीर्घकालीन पर्याय को प्राप्त होता है। मृद्रव्य (पुद्गल) भी घट, शिकोरा, मूर्ति आदि पर्याय को प्राप्त होता है। परन्तु जीवद्रव्य अपनी मनुष्य आदि पर्यायों से एवं मृद्रव्य अपनी घट आदि पर्यायों से भिन्न नहीं है। द्रव्य किसी न किसी पर्याय के रूप में ही रहता है और द्रव्य का स्वरूप उस संपूर्ण पर्याय में व्याप्त रहता है। अतः द्रव्य, गुण और पर्याय एक क्षेत्रावग्राही है। इस प्रकार यशोविजयजी ने द्रव्यार्थिकनय के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय के परस्पर अभिन्न सम्बन्ध को भी सिद्ध किया है।
__ पर्यायार्थिकनय की दृष्टि भेदग्राही या विशेषमूलक होने से भेद के अवलम्बन से प्रवृत होता है। इस नय के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्यायों का आश्रय है। गुण
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एवं पर्याय द्रव्य के आश्रित हैं। जैसे जीव द्रव्य में ज्ञान आदि गुण आश्रित होकर रहते हैं। मनुष्य आदि पर्याय जीव द्रव्य में घटित होती है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादि गुण पुद्गल में रहते हैं। घट, मुकुट आदि पुद्गलद्रव्य की विभिन्न पर्याय हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर आधेय आधार सम्बन्ध होने से ये तीनों परस्पर भिन्न है। पुनः द्रव्य का लक्षण सत् है। गुण का लक्षण सहभावी और पर्याय का लक्षण क्रमभावी है। द्रव्य, गुण और पर्याय के नाप और प्रकारों की संख्या भी भिन्न-भिन्न है।77
पुनः सहभावित्व और क्रमभावित्व लक्षण के आधार पर गुण और पर्याय भी परस्पर भिन्न है परन्तु द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में गुण, पर्याय से भिन्न नहीं है। जीव के ज्ञानादिगुण, मतिज्ञान आदि पर्याय से भिन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार रूपादि गुण, रक्त, पीत, नील आदि वर्गों से भिन्न नहीं होते हैं।
एक ओर अभेदग्राही-द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्य-गुण-पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध कथंचित् अभिन्न है। दूसरी ओर भेदग्राही पर्यायार्थिकनय के अनुसार इनका पारस्परिक सम्बन्ध कथंचित् भिन्न है। विभिन्न नयों के आधार पर द्रव्य गुण और पर्याय कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न दोनों होने से इनका पारस्परिक सम्बन्ध कथंचित् भिन्नाभिन्न रूप है।578
-----000
577 पर्यायार्थनयथी सर्व वस्तु द्रव्यगुणपर्याय, लक्षणइं कथंचिद् भिन्न ज छइ . द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा 578 पर्यायारथ भिन्न वस्तु छइ, द्रव्यारथइ अभिन्नो रे
क्रमइ उभय नय जो अपीजइ, तो भिन्न नइं अभिन्नो रे ............ द्रव्यगुणपयार्यनोरास, गा. 4/10
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अध्याय-3
जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास (क्यों और कैसे )
द्रव्य का स्वरूप, लक्षण एवं प्रकार
मानव सृष्टि का सर्वोच्च चिन्तनशील और विवेकशील प्राणी है। अपने इर्दगिर्द घटित होने वाली विचित्र घटनाओं एवं विभिन्न दृश्यों को देखकर उसके मन में अनेक प्रश्नों ने जन्म लिया यह विश्व क्या है ? सूर्य पूर्व दिशा में ही उदित क्यों होता है ? चांद रात में ही अपने प्रकाश को क्यों बिखेरता है ? सागर का पानी खारा और नदियों का पानी मधुर क्यों है ? मनुष्य, पशु और पक्षियों में एकरूपता का अभाव क्यों है ? यह विचित्र सृष्टि किसी की रचना है या स्वतः संचालित है ? विभिन्न घटनाओं के पीछे सूत्रधार कौन है ? इस दृश्यमान जगत का मूल कारण क्या है ? यह दृश्यमान जगत ही सबकुछ है या उससे परे भी कुछ है ?
-
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मानव की इन्हीं जिज्ञासाओं से विभिन्न दर्शनों का उद्भव हुआ । अनेक दर्शनों और दार्शनिकों ने इन जिज्ञासाओं को समाधान देने के लिए अथवा सृष्टि की प्रक्रिया को समझाने के लिए अथक प्रयास किए हैं। भारतीय दार्शनिक चिन्तन धारा ने मुख्य रूप से छह आस्तिक और तीन नास्तिक दर्शनों को जन्म दिया। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और वेदान्त ये छह दर्शन आस्तिक दर्शन माने जाते हैं तथा बौद्ध, जैन और चार्वाक, ये तीन दर्शन नास्तिक दर्शनों के अन्तर्गत आते हैं। यद्यपि जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों को आस्तिक-नास्तिक का यह वर्गीकरण मान्य नहीं है। इन दर्शनों में जगत के मूलभूत कारणों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया है। सृष्टि की व्याख्या को समझाने के प्रयासों में इन-इन दर्शनों की तत्त्व-मीमांसाओं का प्रादुर्भाव हुआ जिनमें विश्व के मूलभूत घटकों को
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तत्त्व, द्रव्य, सत्, परमार्थ, शुद्ध, परम, पदार्थ, वास्तविक, सत्य इत्यादि अनेक रूपों में व्याख्यायित किया गया है।79
वेदान्त दर्शन की विभिन्न दार्शनिक धाराओं में विश्व के मौलिक तत्त्व के रूप में 'सत्' शब्द को प्रधानता दी गई है। प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद80 में उल्लेखित है - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।" सत् एक है, किन्तु मनीषीगण उसे अनेक रूप से कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार दृश्य-अदृश्य के रूप में जो कुछ भी विद्यमान है, वह सब ब्रह्म है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्ता है।581 स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित दर्शन परम्पराओं में विशेष रूप से वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म आदि सप्त पदार्थों को महत्त्व दिया गया है, जबकि नैयायिकों ने इसके लिए 'तत्त्व' शब्द का प्रयोग किया है। न्यायदर्शन के 16 तत्त्वों में द्रव्य का उल्लेख प्रमेय के अन्तर्गत किया है। सांख्य दर्शन भी प्रकृति और पुरूष इन दोनों को तथा इनसे उत्पन्न बुद्धि, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, पांच तन्मात्राओं और पंच महाभूतों को 'तत्त्व' ही कहता है। जहां तक बौद्धदर्शन का प्रश्न है, उनकी दृष्टि में विश्व मात्र एक 'प्रक्रिया' या 'धारा' है। उनके अनुसार इस प्रक्रिया से अलग कोई सत्ता नहीं है। जैनदर्शन में विश्व के मूलभूत घटकों के लिए 'सत्' अथवा 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग किया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार विश्व अकृत्रिम है।82 अनादिकाल से है और अनादिकाल तक चलता रहेगा। ज्ञातव्य है कि यहां विश्व को अकृत्रिम कहने का जैन चिन्तकों का तात्पर्य कथमपि यह नहीं है कि विश्व कूटस्थ नित्य है और उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं होता। परन्तु अकृत्रिम से आशय है कि लोक या विश्व किसी की सृष्टि या रचना नहीं है। लोक का स्वभाव तो परिवर्तनशील है। केवल प्रवाह या प्रक्रिया की
579 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-3, पृ. 352 580 ऋग्वे द, 1/164/46 581 सर्व खलु इदं ब्रह्म - छांदोग्य उपनिषद 3/14/1 582 लोगो अकिट्टिमो खलु - मूलाचार, गा. 7/2
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अपेक्षा से ही लोक को शाश्वत या नित्य कहा जाता है। जैनागम भगवतीसूत्र में लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा गया है। लोक अनन्तभूतकाल में था, वर्तमान है और अनन्त भविष्य में रहेगा । इसलिए शाश्वत है तथा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में लोक का विकास और हास होता रहने से लोक अशाश्वत भी है। हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव भी यही है कि दृश्य जगत परिणमनशील है। यहां प्रतिपल कुछ नवीन उत्पन्न होता रहता है तो कुछ पुराना नष्ट भी होता रहता है । कुछ अवस्थायें बनती हैं तो कुछ अवस्थाएं मिटती भी हैं। इस उत्पत्ति - विनाश की प्रक्रिया के बीच कोई स्थायी तत्त्व भी है जिसके कारण यह जगत अनादिकाल से चल रहा है। उदाहरण के लिए प्रभु महावीर के समय की जो राजगृही नगरी थी, उसमें और वर्तमान राजगृही नगरी में बहुत कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होने पर भी राजगृही नगरी तो वही है। इस प्रकार लोक प्रवाह या प्रक्रिया की अपेक्षा से ही नित्य है, किन्तु स्वभावतः परिवर्तनशील है। जब जगत रूपी कार्य का स्वभाव / स्वरूप इस प्रकार का परिणमनशील है तो उसका कारण भी वैसा ही होना चाहिए, क्योंकि कार्यकारण सिद्धान्त का एक सामान्य नियम यह है कि जैसे गुणधर्म कारण में होते हैं वैसे ही गुणधर्म कार्य में परिलक्षित होते हैं। इसलिए जैनदर्शन में विश्व के मूलभूत घटकों के स्वरूप को परिणमनशील या परिणामी नित्य माना गया है अर्थात् अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों को स्वीकृत किया गया है । ऐसे परिणामी - नित्य तत्त्व को ही जैनदर्शन में 'द्रव्य' या 'सत्' शब्द से अभिहित किया गया है जो अपने आप में पूर्ण, स्वतन्त्र और विश्व का मौलिक घटक है।
महोपाध्याय यशोविजयजी कृत प्रस्तुत ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का मुख्य विवेच्य विषय द्रव्य और उसके गुण एवं पर्याय है । इस ग्रन्थ में द्रव्य के लक्षण, स्वरूप, प्रकार तथा द्रव्य के गुण और पर्यायों का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रस्तुत अध्याय में यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास में द्रव्य के लक्षण, स्वरूप और भेद की चर्चा किस प्रकार की है ? इस विश्लेषण के पूर्व आगमों और परवर्ती
583 भगवतीसूत्र, भाग - 4, 9 / 33 / 34
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जैन व्याख्या साहित्य में द्रव्य की अवधारणा का विकास किस प्रकार हुआ ? इस ओर दृष्टिपात करना भी आवश्यक है।
जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास -(क्यों और कैसे)
जैनागमों में विश्व व्यवस्था के आधारभूत घटकों के लिए अस्तिकाय, तत्त्व और द्रव्य शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है। स्थानांगसूत्र में द्रव्य और अस्तिकाय शब्द को प्रयुक्त किया गया है। इस सूत्र के दूसरे शतक84 में द्रव्य के परिणत और परिणत के रूप में दो प्रकार किये हैं। पांचवे शतक85 में धर्म, अधर्म, आकाश, जीव
और पुद्गल इन पांच अस्तिकायों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से विस्तार से विवेचन उपलब्ध है, जबकि समवायांगसूत्र में पांच अस्तिकाय का नाम निर्देश करके संक्षिप्त विवेचन किया गया है। ऋषिभासितसूत्र87 में भी अस्तिकाय का उल्लेख मिलता है।
संवादशैली में गुंफित भगवतीसूत्र में द्रव्य और अस्तिकाय इन दोनों की मीमांसा विस्तार से की गई है। प्रथम शतक के नौवे उद्देशक के सात सूत्रों में भारहीन और भारयुक्त गुण की अपेक्षा से द्रव्य की चर्चा की गई है।88 इसी सूत्र के द्वितीय शतक के दसवें उद्देशक में पंचास्तिकाय का सांगोपांग विवेचन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की दृष्टि से किया गया है।589 इनके अतिरिक्त भी भगवतीसूत्र90 के अनेक स्थलों पर षड्द्रव्य विषयक विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।
584 स्थानांगसूत्र - 2/1/138 585 स्थानांगसूत्र - 3/3/169 586 समवायांगसूत्र - 5/8 587 ऋषिभाषितसूत्र, 23 वां पार्श्वनायक अध्ययन 588 भगवइ - 1/400, 406 589 भगवइ - 2/124, 129 590 भगवइ - 7/213, 216, 218, 11/103, 13/55-60
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विश्व व्याख्या की दृष्टि से द्रव्य की प्रथम परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध होती है। इस सूत्र में तत्त्व और द्रव्य दोनों की मीमांसा हुई है। मोक्षमार्गगति नामक अध्ययन में प्रमेय के रूप में षड्द्रव्यों के लक्षण, भेद, गुण, और पर्याय के लक्षण आदि की विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई है।91 यहां द्रव्य को गुणों का आश्रय कहा गया है। इसी सूत्र के छत्तीसवें जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययन में जीव और अजीव तत्त्व का निरूपण अतिविस्तार और सूक्ष्म रूप से किया गया है। वहाँ धर्माधर्म आदि षड्द्रव्यों का देश, प्रदेश आदि सहित गहन चर्चा उपलब्ध होती है।592 मूलतः तत्त्व दो हैं, 1. जीव और 2. अजीव। शेष पंचास्तिकाय उनका विस्तार है। पंचास्तिकाय के साथ काल का समावेश करने से द्रव्य छह कहे जाते हैं। यह षड्द्रव्य पंचास्तिकाय का ही उत्तरकालीन विकास है।
उपर्युक्त विवेचन के निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आगम युग में लोक के आधारभूत मूल घटकों के लिए अस्तिकाय द्रव्य और तत्त्व शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। आगम युग में सत् शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। यद्यपि अस्तिकाय और सत् दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही सूचक शब्द हैं। फिर भी अस्तिकाय जैनदर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है।593
परवर्ती युग में द्रव्य की अवधारणा का विकास -
उमास्वातिजी ने ही सर्वप्रथम आगमिक तत्त्वों को सूत्रबद्ध शैली में गुंफित करके आगमिक अस्तिकाय, द्रव्य, तत्त्व के साथ-साथ द्रव्य के लक्षण के रूप में सर्वप्रथम 'सत्' शब्द का प्रयोग किया है। ‘सत् द्रव्य लक्षणम्' कहकर द्रव्य और सत् में अभेद स्थापित किया और सत् को ही द्रव्य कहा है।594 सत् को
591 उत्तराध्ययन - 28/5-13
592 उत्तराध्ययन - 36 593 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - प्रो. सागरमल जैन, पृ.3 594 तत्त्वार्थभाष्य
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उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त बताकर सत्ता के परिणामी नित्यता को सूचित किया है।95 प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं, – स्थिर और अस्थिर। स्थिर अंश के कारण वस्तु धैव्यरूप होती है और अस्थिर अंश के कारण वस्तु उत्पाद-व्ययरूप होती है। इस प्रकार सत् (द्रव्य) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त होता है। उमास्वातिजी द्वारा प्रदत्त प्रस्तुत सत् का लक्षण अन्य दर्शनों के सत् स्वरूप से जैनदर्शन सम्मत सत्स्वरूप के वैलक्ष्णय को प्रतिपादित करता है। ध्रौव्यांश द्रव्य का गुण है और उत्पाद-व्ययांश द्रव्य के पर्याय है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त होने से उमास्वातिजी ने गुण के साथ पर्याय शब्द की संयोजना करके अगला सूत्र ‘गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'596 दिया है।
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण और सत्लक्षण की पृथक विवक्षा न करके एक ही स्थान पर दोनों का समन्वित लक्षण प्रदान किया है। इनके अनुसार जब द्रव्य सत् है और सत् ही द्रव्य है तो इन दोनों के लक्षण में भी भेद नहीं होना चाहिए। अतः उमास्वातिजीकृत सत्, नित्य व द्रव्य तीनों की परिभाषाओं का सम्मिलित निदर्शन द्रव्य के लक्षण में किया है। आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में द्रव्य सत् लक्षण वाला, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त, गुण पर्यायों का आश्रय है।597 इस प्रकार कुन्दकुन्द ही प्रथम जैन दार्शनिक हैं, जिन्होने अपने पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में द्रव्य की अवधारणा की व्याख्या विस्तार से प्रस्तुत की है। ____ आचार्य सिद्धसेन के अनुसार जिसमें उत्पाद-स्थिति-भंग हो वह द्रव्य है। द्रव्य पर्याय से युक्त है।98 सत् को सामान्य और विशेष उभयरूप माना है। सर्वार्थसिद्धि में स्वपर्यायों को प्राप्त होने वाला अथवा उन्हें प्राप्त करने वाले को द्रव्य कहा है।99
595 तत्वार्थसूत्र – 5/29 596 वही, 5/37 597 प्रवचनसार - 2/3 598 सन्मतिसूत्र – 1/12 599 सर्वार्थसिद्धि, 5/2 पृ. 529
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आचार्य समन्तभद्र ने नयोपनय के विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायों का अभिन्न संबंध रूप समुच्चय को द्रव्य शब्द से अभिव्यंजित किया है।800
इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव, विद्यानंदी, अमृतचंद्र, अमितगति, प्रभाचंद्र, अभयदेव, हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य, उपाध्याय यशोविजयजी आदि-आदि ने द्रव्यों के व्याख्या प्रसंग में उनके लक्षणों का निर्देश किया है। इन सभी जैन दार्शनिकों ने प्रायः सत्, तत्त्व और द्रव्य को पर्यायवाची मानकर ही व्याख्या की है। किन्तु शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इन तीनों में अन्तर स्पष्ट परिलक्षित होता है। सत् सभी द्रव्यों और तत्त्वों में विद्यमान सामान्य लक्षण है। सत् सामान्यात्मक है, तत्त्व शब्द सामान्य विशेषात्मक है और द्रव्य विशेषात्मक है। सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष का, द्रव्य शब्द परिवर्तनशील पक्ष का और तत्त्व उभयपक्ष का सूचक है। सत् शब्द द्रव्य के भेदों में भी अभेद को ग्रहण करता है, तत्त्व भेदाभेद को ग्रहण करता है और द्रव्य शब्द द्रव्यों के लक्षणगत् विशेषताओं के आधार पर उनमें भेद करता है।601
द्रव्य का निरूक्त्यार्थ एवं विभिन्न परिभाषाएं -
निरूक्त्यार्थ :
'द्रव्यं भव्ये' इस व्याकरण सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो वह द्रव्य है। जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी 'द्रु' अर्थात् लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल, कुर्सी आदि अनेक आकार को प्राप्त होती है। उसी तरह द्रव्य भी बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उन-उन अवस्थाओं या पर्यायों को प्राप्त होता रहता है।602
___ आचार्य कुन्दकुन्द के मन्तव्य में जो उन-उन क्रमभावी और सहभावी स्वभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य है या जो सत्ता से अनन्यभूतहै,वह द्रव्य है।603
600 आप्तमीमांसा, श्लो. 107 601 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, प्रो. सागरमल जैन, पृ.7 602 जैनेन्द्र व्याकरण - 4/1/158 (राजवार्तिक से उद्धृत) 603 दवियदि गच्छदि ताई ताई - पंचास्तिकाय, गा. 9
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आचार्य पूज्यपाद ने द्रव्य को इस प्रकार व्याख्यायित किया है जो गुणों के द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणों को प्राप्त हुआ था, अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं। 004 यह द्रव्य का गुण प्रधान अर्थ है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि के पंचम अध्याय में उन्होंने द्रव्य की पर्याय के आधार व्याख्यायित किया है। जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होता है या पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य कहलाता है 105
1.
जैन दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टियों से पृथक्-पृथक् रूप से द्रव्य को परिभाषित किया है। चूंकि द्रव्य का स्वरूप परिणमनशीन और ध्रुवशील रूप से उभयरूप होने से कुछ दार्शनिकों ने द्रव्य की परिणमनशीलता को मुख्य मानकर द्रव्य को व्याख्यायित किया है तो कुछ दार्शनिकों ने ध्रुवपक्ष के आधार पर द्रव्य को परिभाषित किया है। अन्य कुछ दार्शनिकों ने अस्तित्व को ही द्रव्य का लक्षण बताया है । अतः जैनागम और परवर्ती जैन साहित्य में उपलब्ध द्रव्य की विभिन्न परिभाषाओं को हम इस प्रकार वर्गीकरण कर सकते हैं :
2.
3.
4.
5.
सत् या अस्तित्व गुण के आधार पर
गुणों के आधार पर
पर्याय के आधार पर
गुण और पर्याय के आधार पर
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के आधार पर
604
'गुणैगुणान्वा द्रुतं गतं
सर्वाथसिद्धि, 1/5
605 यथास्वं पर्यायैर्द्रुयन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि ।
1606 दव्वं सल्लक्खणयं उत्पादव्यय
पंचास्तिकाय, गा. 10
1. सत् के आधार पर :
पंचास्तिकाय ̈ ̈ ̈ में आचार्य कुन्दकुन्द ने 'दव्वं सल्लक्खणयं' कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। सामान्य रूप से 'सत्' के अनेक अर्थ हो सकते हैं। परन्तु
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वही, 5 / 2
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I
यहां सत् से 'अस्तित्व' अर्थ ही अभिलषित है । अस्तित्व को द्रव्य का लक्षण बताया गया है। द्रव्य का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि द्रव्य का अस्तित्व नहीं रहा हो या नहीं हो या नहीं होगा। इसी बात को पुष्ट करते हुए प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में लिखा है निश्चित् रूप से अस्तित्व ही द्रव्य का लक्षण है, क्योंकि अस्तित्व किसी अन्य निमित्त से उत्पन्न नहीं होता है। वह स्वतन्त्र और अनादि अनंत एकरूप प्रवृत्ति से अविनाशी होता है। 607 पंचाध्यायी में 'तत्त्वं सल्लाक्षणिकं' और 'सन्मात्रं वा' इस तरह द्रव्य के दो लक्षण दिये हैं। 08 प्रथम लक्षण में तत्त्व को 'सत् ́ लक्षण वाला बताकर सत् और तत्त्व में लक्ष्य - लक्षणकृत कथंचित् भेद किया है। द्वितीय लक्षण के अनुसार सत् स्वरूप ही तत्त्व है। इसमें सत् और तत्त्व में कथंचित् अभेद परिलक्षित होता है। वेदान्त और वैशेषिक मत का समन्वय इन दोनों लक्षणों के द्वारा किया गया है । वेदान्तदर्शन सत् को एक और अभिन्न मानता है, जबकि वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष को पृथक-पृथक मानकर सत् और तत्त्व में भेद करता है । यद्यपि गुण, गुणी के भेद से अस्तित्वगुण द्रव्य से पृथक् कहा जाता है, परन्तु प्रदेश भेद के बिना द्रव्य में एकरूप होकर रहता है।
इसी कारण से तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वातिजी ने सत् द्रव्य लक्षणं कहकर दोनों में अभेद स्थापित किया है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि 'सत्' शब्द सामान्य या अपरिवर्तशील सत्ता का और 'द्रव्य' शब्द विशेष या परिवर्तनशील सत्ता का सूचक है । दोनों में अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से भेद नहीं है परन्तु व्युत्पत्तिपरक अर्थ की अपेक्षा से ही भेद है। केवल विचार के स्तर पर ही भेद कर सकते हैं, किन्तु सत्ता की अपेक्षा से नहीं । सत् और द्रव्य अन्योन्याश्रित हैं। 09 अस्तित्व (सत् ) के बिना द्रव्य और द्रव्य के बिना अस्तित्व का संभाव्य नहीं है । लक्षण और लक्षित भिन्न नहीं हो
सकते हैं।
607 अस्तित्व ही किल द्रव्यस्य - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, पृ. 115
608 तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रेवा यतः स्वतः सिद्धम् - पंचाध्यायी, श्लो. 1/8
609 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा
डॉ. सागरमल जैन, पृ. 5
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सत् को द्रव्य का लक्षण कहने से केवल अस्तित्व गुण का ही ग्रहण नहीं होता अपितु अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनन्त गुणों से युक्त संपूर्ण वस्तु (द्रव्य) का ग्रहण होता है। क्योंकि वस्तु के अस्तित्व आदि सभी गुण अभिन्न है। अतः सत् कहने मात्र से गुण समुदायरूप संपूर्ण वस्तु का ग्रहण होता है। इसलिये वस्तु सत्स्वरूप
है।610
2. गुणों के आधार पर :
उत्तराध्ययनसूत्र में 'गुणाणमासओ दव्वं' कहकर द्रव्य को परिभाषित किया है। द्रव्य गुणों का आश्रयस्थल है। जिसमें गुण रहते हैं, वह द्रव्य कहलाता है। गुण शब्द के लोकभाषा में विभिन्न अर्थ मिलते हैं, पर यहाँ गुण से तात्पर्य धर्म से है। ज्ञान आदि अनंतगुण जिस द्रव्य के आश्रित होकर रहते हैं वह जीव द्रव्य है। रूपादि अनंत गुणों का आश्रय पुद्गलद्रव्य है। यद्यपि यह परिभाषा आधार-आधेय या आश्रय-आश्रित सम्बन्ध के आधार पर दी गई है, परन्तु द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न नहीं है। गुण, द्रव्य से अभिन्न होकर ही उसमें आश्रित रहते हैं। यह आधार और आधेय सम्बन्ध चौकी और पुस्तक के समान नहीं है अपितु पुस्तक और अक्षर के समान है। जैसे अक्षरों के बिना पुस्तक का कोई अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार गुण के बिना द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। राजकुमार छाबड़ा ने अपने शोध-प्रबन्ध में लिखा है कि द्रव्य और गुण के अभिन्न से तात्पर्य है उनका आश्रय या प्रदेश एक ही है जहाँ वस्तु पायी जाती है, वह उस वस्तु का प्रदेश है। इस दृष्टि से द्रव्य का प्रदेश उसके गुण हैं। क्योंकि गुणों से द्रव्य रचित है। गुण का प्रदेश द्रव्य है। क्योंकि गुण, द्रव्य में ही व्याप्त रहते हैं।11 द्रव्य और गुण दोनों अन्योन्याश्रित हैं। स्वलक्षण से भिन्न होते हुए भी एकक्षेत्रावग्राही होने से अभिन्न भी हैं।
610 पंचाध्यायी - हिन्दी टीकान्तर, पं. मक्खनलालजी शास्त्री, पृ. 4
611 जैनदर्शन में द्रव्य का अवधारणा और कार्य-कारण सम्बन्ध - राजकुमार छाबड़ा, पृ. 64
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गुणों के अतिरिक्त द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। जैसे- सुवर्ण के पीतत्व, कोमलता, उज्ज्वलता आदि अनेक गुण हैं। सुवर्ण इन सभी गुणों का समूह है। यदि सुवर्ण से पीतत्व आदि गुणों को एक-एक करके निकाल दिया जाय तो सुवर्ण का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। इसी कारण से पूज्यपाद ने गुणों के समुदाय को ही द्रव्य कहा है।612 न्यायदर्शन द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न-भिन्न मानकर उनमें 'समवाय' के माध्यम से परस्पर सम्बन्ध को स्थापित करता है। उनके अनुसार जैसे दिवाल में चित्र होता है, वैसे ही गुण द्रव्य में रहते हैं। समवाय सम्बन्ध से ही गुणों का आश्रय द्रव्य है।613 परन्तु जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुणों का अखण्ड पिण्ड है। जैसे - मूल, स्कन्ध, शाखाएं, पत्ते, फूल, गुच्छे और फल ये सब मिलकर ही वृक्ष कहलाता है। उसी प्रकार देश-देशांश, गुण-गुणांश सब मिलकर ही द्रव्य कहलाता है।614 द्रव्य गुणों की एक विशेष प्रकार की संरचना का ही नाम है। गुण द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते हैं। जीव से अस्तित्व आदि सामान्य गुण तथा ज्ञान आदि विशेष गुणों को पृथक् नहीं किया जा सकता है। जीवद्रव्य सामान्य और विशेष गुणों का अखण्ड समुदाय है। अतः द्रव्य गुणों का समुदाय है। यही परिभाषा पंचास्तिकाय के वृत्ति15 और पंचाध्यायी16 में दी गई है।
3. पर्याय के आधार पर :
जिनभद्रगणि ने द्रव्य का निवर्चन करते हुए कहा है कि जो द्रवता है अर्थात् जो स्वपर्यायों को प्राप्त होता है अथवा उन्हें प्राप्त कराता है, वह द्रव्य है। जो रूपान्तर और अवस्थान्तर को प्राप्त होता रहता है वह द्रव्य है। सर्वार्थसिद्धकार ने भी
612 गुणसमुदायो द्रव्यमिति। - सर्वार्थसिद्धि, 5/2 613 अथवापि यथा भितौ चित्रं – पंचाध्यायी, श्लो. 1/76 614 इदमस्ति यथा मूलं स्कन्धः - वही, श्लो. 1/77 615 द्रव्यं ही गुणानां समुदायः – पंचास्तिकाय, गा. 44 की वृत्ति 616 गुण समुदायो द्रव्यं – पंचाध्यायी, श्लो. 1/73
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लगभग द्रव्य की ऐसी ही परिभाषा दी है।17 पदार्थों में प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होता रहता है। पुरानी अवस्थाएं मिटती रहती हैं और नवीन अवस्थाएं बनती रहती हैं। अवस्थाओं को ही पर्यायाएं कहा जाता है। पदार्थ में विभिन्न पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम प्रतिक्षण और सतत् चलता रहता है। कुछ पर्यायें उत्पन्न हो चुकी रहती हैं, कुछ उत्पन्न होती रहती हैं और कुछ पर्यायें उत्पन्न होने वाली रहती हैं। इसी प्रकार पर्यायों का नाश भी चलता रहता है। जैसे सागर में लहरों का उठना
और गिरना सतत् चलता रहता है, उसी प्रकार द्रव्य में पर्यायें उठती और गिरती रहती हैं। अतः जैसे सागर लहरों का समूह है, वैसे ही द्रव्य त्रिकाल पर्यायों का समुदाय है। जो भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ था, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है। विद्यानंदी के शब्दों में तीनों काल में क्रम से होने वाली पर्यायों का आश्रय द्रव्य है।618 धवलाकार ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय व व्यंजनपर्यायें होती हैं, तद्नुरूप ही द्रव्य होता है।619
आप्तमीमांसा में त्रिकालवर्ती पर्यायों का अभिन्न सम्बन्ध रूप जो समुदाय है, उसे द्रव्य कहा गया है।20 उत्पाद, स्थिति और भंग, इन तीन पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य कहलाता है।621
4. गुण और पर्याय के आधार पर :
उमास्वाति ने द्रव्य की आगमिक परिभाषा के साथ में पर्याय शब्द की संयोजना करके द्रव्य का लक्षण ‘गुणपर्यायवद् द्रव्यम् 22 दिया है। गुण और पर्याय
617 यथास्वं पर्यायैर्दुयन्ते - सर्वार्थसिद्धि, सू. 5/2, पृ. 529 618 पर्ययवद्रव्यमिति
.. श्लोकवार्तिक, 1/5/63 619 धवला, 1/1/199 620 नयोपनयैकान्तानां - आप्तमीमांसा, का. 107 621 उत्पादस्थिति भंगाः पर्यायाणां – पंचाध्यायी, श्लो. 1/200 622 "गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” – तत्त्वार्थसूत्र, 5/38
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वाला द्रव्य है। गुण, द्रव्य में रहने वाले उस अंग का नाम है जो द्रव्य में सदा और सर्वांश में व्याप्त होकर रहता है। जैसे – जीवद्रव्य में ज्ञान गुण सर्वदा और सर्वांश में व्याप्त रहता है। आम्रफल में स्पर्श, रसादि गुण संपूर्ण आम्रफल में व्याप्त और सदा रहते हैं। गुणों में होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहा जाता है। जैसे – ज्ञान गुण के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि अवस्थाएं तथा कोमल, कर्कश आदि स्पर्श की एवं रक्त, पीतादि वर्ण की अवस्थाएं हैं वही पर्याय है। गुण अन्वयी या सहभावी होते हैं और सदा द्रव्य के साथ ही रहते हैं। पर्याय व्यतिरेकी या क्रमभावी होते हैं और द्रव्य के अन्दर इनका उदय क्रम से होता रहता है। एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से भेद करने वाले को गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहा जाता है।623 संक्षेप में जिनसे 'यह वही है' ऐसी धारा के रूप में एकरूपता बनी रहती है वे गुण कहलाते हैं और जिनसे भेद परिलक्षित होता है, वे पर्यायाएं कहलाती हैं।
गुण और पर्याय का सम्मिलित रूप ही द्रव्य है।824 प्रवचनसार में द्रव्य को गुण और पर्यायों की आत्मा या सत्त्व कहा है। 25 ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि जीव के गुण हैं तथा मतिज्ञान आदि एवं मनुष्यत्व, देवत्व आदि जीव की पर्यायें हैं। इस प्रकार ज्ञानादि गुण और मतिज्ञान आदि पर्यायें मिलकर ही जीवद्रव्य है। गुण और पर्याय से भिन्न द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है। द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं और गुण के बिना द्रव्य नहीं हो सकता है।26 इसी प्रकार पर्यायों से रहित द्रव्य का और द्रव्य से रहित पर्यायों का कोई अस्तित्व नहीं होता है।27 इसी दृष्टि से पंचास्तिकाय में गुण और पर्यायों के आश्रय अथवा आधार को द्रव्य कहा है। 28 इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गुण और पर्याय कोई दूसरे पदार्थ हैं जो द्रव्य में रहते हैं। परन्तु इसका आशय
623 गुण इति दत्वविहाणं .... अणुपदसिद्ध हवे णिचं ........ सर्वार्थसिद्धि, पृ. 237 पर उद्धृत 624 अ) नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः .. ....... नियमसार, गा. 9 ब) आलापपद्धति, सूत्र 6 625 दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया .............. प्रवचनसार, गा. 2/87 626 दव्वेण विणा न गुणा गुणेहि दव्वं ......... पंचास्तिकाय, गा. 15 627 पज्जय-विजुदं दव्वं .............. वही गा. 12 628 दव्वं सल्लक्खणयं
पंचास्तिकाय, गा. 10
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है, गुण और पर्याय जिसमें पाये जाते हैं वही द्रव्य है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए पंचाध्यायीकार ने 'गुणपर्यायवद्र्व्यं' के बाद 'गुणपर्यायसमुदायोद्रव्यं' ऐसा लक्षण करके गुण और पर्यायों के समूह को द्रव्य नाम से अभिहित किया है। 29 दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि त्रिकालवर्ती पर्यायों से युक्त गुणों का अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य है। आचार्य तुलसी ने भी गुण और पर्याय के आश्रय को द्रव्य कहा है।930
यद्यपि द्रव्य को गुण और पर्यायवाला कहा गया है और उनमें लक्षणादि से परस्पर भेद भी बताये गये हैं। किन्तु द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों पृथक्-पृथक् नहीं हैं। इनमें सत्तागत भेद नहीं है। एक सत्तात्मक है। तीनों का एकत्व ही परमार्थ दृष्टि से वस्तु है।631 यशोविजयजी ने भी गुण और पर्याय के भाजन को द्रव्य कहा है। जो गुण और पर्याय का आधार या स्थान है, वही द्रव्य है।932 गुण अपरिवर्तनशील होने से द्रव्य के ध्रौव्य पक्ष को तथा पर्याय परिवर्तनशील होने से द्रव्य के उत्पाद-व्यय पक्ष को बनाये रखते हैं। इस दृष्टि से अनेक जैन दार्शनिकों ने द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के आधार पर ही परिभाषित किया है। उमास्वाति ने भी द्रव्य का लक्षण 'सत्' बताकर सत् को उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की नौंवी ढाल में द्रव्य या सत् के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिलक्षण की चर्चा विस्तार से की है, जिसकी चर्चा हम यहां करेंगे। किन्तु उसके पूर्व अनेक जैन दार्शनिकों के द्रव्य के लक्षण के रूप में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की चर्चा किस प्रकार की है, इसका संक्षिप्त वर्णन यहाँ अपेक्षित
629 गुणपर्ययवद्रव्यं लक्षणम् ............. पंचाध्यायी, का. 1/72 630 गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्' ................ . जैनसिद्धान्तदीपिका, 1/8 631 सो वि विणस्सदि जायदि ................. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 242 632 गुण पर्यायतणु जे भाजन, एकरूप त्रिहुं कालिं रे ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/1
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उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के आधार पर -
तत्त्वार्थसूत्र33 में 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' कहकर सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त स्वीकार किया गया है और सत् को द्रव्य के लक्षण के रूप में प्रतिपादित किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय34 और प्रवचनसार 35 में द्रव्य को सत् लक्षणवाला तथा उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य से युक्त बताया है।
बाह्य और आंतरिक दोनों निमित्तों को पाकर अपने स्वभाव का त्याग किये बिना नवीन अवस्था की प्राप्ति उत्पाद है और पूर्व अवस्था का त्याग व्यय है।636 अनादि पारिणामिक स्वभाव का बना रहना ध्रौव्य है। 37 पूज्यपाद ने उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को घट के उदाहरण से समझाया है। मिट्टी के पिण्ड का घट पर्याय के रूप में उत्पन्न होना उत्पाद है। मिट्टी के पिण्डरूप पूर्व पर्याय का नाश होना व्यय है। पिण्डपर्याय और घटपर्याय दोनों ही अवस्थाओं में मिट्टी का अन्वय बना रहना ध्रौव्य है। पंडित सुखलालजी के कथनानुसार स्वजाति को न छोड़ना ही द्रव्य का ध्रौव्य है तथा प्रतिक्षण अलग-अलग परिणामों से उत्पन्न और नष्ट होना उसका उत्पाद और व्यय है। उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य का यह चक्र द्रव्य में चलता रहता है।638
प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद–व्यय रूप परिवर्तन प्रतिसमय घटित होता रहता है। इस परिणमन के मध्य कुछ ऐसा परिणमनशील तत्त्व अवश्य होता है जो सर्वदा स्थायी रहता है। उत्पत्ति और विनाश रूप परिणमन के मध्य भी द्रव्य अपने अनादि पारिणामिक स्वभाव का उल्लंघन नहीं करता है। द्रव्य की एक पर्याय का व्यय होता रहता है, दूसरी पर्याय का उत्पाद भी होता रहता है, परन्तु द्रव्य की ध्रुवता बनी
...........
633 तत्त्वार्थ सूत्र - 5/29 634 दव्वं सल्लक्खणयं ................ पंचास्तिकाय, गा. 10635 अपरिच्चसहावेणुप्पादत्वयधुवतसंजुतं .............. प्रवचनसार, 2/3 636 सर्वार्थसिद्धि, 5/30/584 637 सर्वार्थसिद्धि, 5/30/584 638 तत्त्वार्थसूत्र, पं. सुखलालजी, पृ. 136
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रहती है।639 कोयले के जल कर राख बन जाने पर भी उसके पुद्गलत्व रूप मूल स्वरूप की हानि नहीं होती है। उपचय और अपचय होने पर भी द्रव्य की सत्ता बनी रहती है। इस प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इन तीनों अवस्थाओं से युक्त सत् ही द्रव्य का लक्षण है।640 आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी जिसमें उत्पाद स्थिति और भंग हो उसे ही द्रव्य के रूप में अभिव्यंजित किया है। 41
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में अविनाभाव सम्बन्ध है। उत्पाद के बिना व्यय और व्यय के बिना उत्पाद संभव नहीं है। ध्रौव्य के अभाव में उत्पाद और व्यय भी घटित नहीं हो सकते हैं।42 क्योंकि उत्पाद और व्यय को घटित होने के लिए कोई आधार चाहिए और व आधार ही ध्रौव्य है। चेतन और अचेतन सभी द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से युक्त हैं। अकलंक ने भी उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त अस्तित्व को ही द्रव्य कहा है।643
समन्तभद्र ने द्रव्य को त्रयात्मक रूप से परिभाषित करके उस त्रयात्मक द्रव्य के स्वरूप को सुवर्ण, सुवर्ण घट और सुवर्णमुकुट के उदाहरण से स्पष्ट किया है।44 सुवर्ण घट का इच्छुक व्यक्ति सुवर्णघट के ध्वंस हो जाने पर दुःखी होता है। सुवर्णमुकुट का इच्छुक सुवर्णमुकुट के तैयार होने पर हर्षित होता है, जबकि सुवर्णार्थी व्यक्ति सुवर्णघट के नाश और सुवर्णमुकुट के उत्पाद दोनो ही स्थिति में मध्यस्थ भाव से रहता है, क्योंकि सुवर्णत्व का अस्तित्व दोनों ही अवस्थाओं में बना रहता है। इस प्रकार एक ही समय में दुःख, हर्ष और मध्यस्थ भाव होने से स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु त्रयात्मक है।
.........
639 पाडुब्भवदि च अण्णो पज्जाओ ...
प्रवचनसार, गा. 2/11 640 उत्पादस्थितिभंगैर्युक्तं ...........
पंचाध्यायी, का. 1/86 641 दव्वं पज्जवविउयं
............. सन्मतिसूत्र, गा. 1/2 642 ण भवो भंगविहिणो भंगो वा पत्थि संभवविहणो
उत्पादो वि भंगो न विणा धोव्वेण अव्येण .......... प्रवचनसार, गा. 1/8 643 राजवार्तिक, सू. 5/29 644 घट-मौली-सुवर्णार्थी ............. आप्तमीमांसा, का. 59
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उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में द्रव्य का स्वरूप :
जैनदर्शन के अनुसार जो सत् है वही द्रव्य है और जो द्रव्य है वही सत् है। पुनः सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इन तीन लक्षणों से युक्त माना है। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी पूर्व जैन दार्शनिकों का अनुसरण करके द्रव्य को उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य के रूप में त्रिलक्षणात्मक ही माना है तथा गुण और पर्याय के भाजन के रूप में भी परिभाषित किया है। वस्तुतः द्रव्य के इन दोनों परिभाषाओं में पारमार्थिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। द्रव्य में दो पक्ष हैं, गुण और पर्याय । गुण सदा ध्रुव रहते हैं। गुणों की इस ध्रुवशीलता के कारण द्रव्य की ध्रौव्यता बनी रहती है। पर्यायों की परिणमनशीलता के कारण द्रव्य में अवस्थाओं का उत्पाद और व्यय चलता रहता है। द्रव्य, गुण और पर्यायवाला होने से ही उत्पाद् व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वरूप वाला है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य को परिभाषित करते हुए यही कहा है कि - जो गुण एवं पर्याय का भाजन है तथा तीनों काल में एकरूप रहता है, वह द्रव्य है अर्थात् गुण और पर्यायों का स्थान या आधारद्रव्य है जो भूत, भावी और वर्तमान तीनों काल में एक सा रहता है।645 जैसे जीवद्रव्य ज्ञानादि गुणों का तथा देवादि पर्यायों का आधारभूत है। जीवद्रव्य के मनुष्यत्व, देवत्व आदि अवस्थाओं अर्थात् पर्यायों के बदलने पर भी जीवत्व तीनों काल में नहीं बदलता है। जीवद्रव्य जीवत्व से च्युत होकर कभी जड़ नहीं बनता है। द्रव्य प्रतिसमय नवीन-नवीन अवस्थाओं को प्राप्त होने पर भी अपने मूलभूत स्वरूप (जीवत्व, पुद्गलत्व आदि) का त्याग नहीं करता है। अपने असली स्वरूप को बनाये रखता है।
द्रव्य में निहित गुण ही द्रव्य का स्वरूप हानि नहीं होने देते हैं। गुण, द्रव्य के असली स्वरूप अर्थात् ध्रौव्यपक्ष को बनाये रखते हैं। क्योंकि द्रव्य के मूल गुणों का
645 गुणपर्यायतणु जे भाजन, एकरूप त्रिहुं कालिं रे .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/1
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कभी विच्छेद नहीं होता है। स्वर्ण के पीतादि गुणों का तथा जीव के ज्ञानादि गुणों का कभी विच्छेद नहीं होता है। पर्याय, द्रव्य के परिवर्तनशील अर्थात् उत्पाद-वयय पक्ष को बनाये रखते हैं । सुवर्ण के कंकण, कुंडल आदि पर्यायें बनती और मिटती रहती हैं। जीव भी कभी मनुष्य के रूप में तो कभी देवादि के रूप में परिवर्तित होता रहता है। पर्यायों या अवस्थाओं का ही उत्पाद और विनाश चलता रहता है। अतः हम कह सकते हैं कि गुण, द्रव्य की नित्यता की और पर्याय अनित्यता की सूचक है । एतदर्थ गुण और पर्याय या नित्यपक्ष और अनित्यपक्ष या अपरिवर्तनशीलपक्ष और परिवर्तनशीलपक्ष या ध्रौव्य और उत्पाद - व्यय की एकता में ही द्रव्य की सत्ता है । दूसरे शब्दों में द्रव्य नित्यानित्यात्मक, परिवर्तनाअपरिवर्तनशीलात्मक, गुणपर्यायात्मक और उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक है ।
उत्पाद आदि त्रिलक्षणात्मक द्रव्य का स्वरूप :
उपाध्याय यशोविजयजी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के नौंवी ढाल में द्रव्य के स्वरूप का विस्तार से विश्लेषण किया है। विश्व का एकैक पदार्थ (द्रव्य) उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य रूप तीन लक्षणों से युक्त है । 46 समस्त द्रव्य चाहे वे जीव, परमाणु जैसे सूक्ष्म हों अथवा घट-पट जैसे स्थूल हों, उत्पादि तीन लक्षणों से सहित होते हैं। 647 संसार में विद्यमान कोई भी द्रव्य इन तीन लक्षणों से रहित नहीं हो सकता है। सभी पदार्थ पूर्व अवस्थाओं से नष्ट होते रहते हैं और नवीन अवस्थाओं के रूप में उत्पन्न होते रहते हैं। पर्यायों के रूप में उत्पन्न और नष्ट होने पर भी द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव रहते हैं। उदाहरणार्थ जीवद्रव्य देव, नरक, तीर्यंच और मनुष्य के रूप में जन्म-मरण करने पर एक भव (पूर्वभव) के रूप में व्यय को प्राप्त होता है तो दूसरे भव के रूप में उत्पाद को प्राप्त होता है और जीव के रूप में सदा ध्रुव रहता है। एक भव में भी बालावस्था के रूप में नष्ट होता है तो युवावस्था के रूप में उत्पन्न होता है । परन्तु
646
एक अरथ तिहुं लक्षण, जिम सहित कहइ जिनराज ।
एकज अर्थ
647
—
241
• जीव पुद्गलादिक-घटपटादिक जिस 3 लक्षणों
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/1
वही, टब्बा, गा. 9/1
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देवादत्तादि के रूप में सदा ध्रुव रहता है। सुवर्ण आदि पुद्गलद्रव्य घटादि के रूप में नष्ट होता है, मुकुट आदि के रूप में उत्पन्न होता है तो सुवर्ण के रूप में ध्रुव रहता है। घट आदि पदार्थ भी घट के रूप में व्यय, कपाल के रूप में उत्पाद और मिट्टी के रूप में स्थिर रहता है। इस प्रकार उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य से युक्त द्रव्य ही सत् है।
अनंत जिनेश्वर भगवंतों ने केवल ज्ञान के प्रकाश में समस्त लोक का अवलोकन करके पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिपदीमय है। ‘उत्पन्ने इ वा' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ नवीन-नवीन अवस्थाओं के रूप में उत्पन्न होता है, 'विगमे इ वा' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ पूर्व–पूर्व अवस्थाओं के रूप में नष्ट होता है, 'ध्रुवे इ वा' अर्थात् द्रव्य के रूप में अपने मूल स्वभाव के रूप में ध्रुव रहता है। यह त्रिपदी सर्व पदार्थों में व्याप्त है।648 सर्वकालिक और सार्वभौमिक समस्त पदार्थ उत्पादादि त्रिपदी से युक्त हैं।
जैनदर्शन प्रत्येक पदार्थ को नित्यानित्य अथवा परिणामी नित्य मानता है। परन्तु नैयायिक आदि कुछ दार्शनिकों ने संसार के कुछ पदार्थों को एकान्त नित्य और कुछ पदार्थों को एकान्त अनित्य माना है। घट-पट आदि स्थूल पदार्थों को अनित्य तथा जीव, परमाणु, आकाशादि सूक्ष्म पदार्थों को नित्य पदार्थों के रूप में व्याख्यायित किया है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर दीपक से लेकर आकाश तक के समस्त पदार्थ उत्पादादि तीनों लक्षणों से युक्त हैं। कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है।649 घट के फूटने पर भी घट के रूप में व्यय, कपाल के रूप में उत्पाद और मिट्टी के रूप में ध्रुवता तो रहती है। अतः घट को एकान्त रूप से अनित्य नहीं कहा जा सकता है। समस्त पदार्थ नित्यानित्य रूप (परिणामीनित्य) हैं, अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं।
लोक में अनन्तानन्त पदार्थ हैं। इन पदार्थों को द्रव्य भी कहते हैं। द्रव्य मुख्यतः जीव और अजीव रूप से दो हैं और इनके उत्तर भेद छह हैं- धर्मास्तिकाय,
648 ए त्रिपदीनइं सर्व अर्थ व्यापकपणुं धारणुं 649 आदिपमाव्योम समस्वभावं
............ वही, टब्बा, गा. 9/1 .. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 5
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अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल। संपूर्ण लोक इन छह द्रव्यों का समूह है। यह छहों द्रव्य परिणमनशील हैं। इनमें प्रतिसमय नयी-नयी अवस्थाओं की उत्पत्ति होती रहती है, नयी-नयी अवस्थाओं की उत्पत्ति के साथ ही पूर्व-पूर्व की अवस्थाओं का विनाश भी होता है। यह इनका उत्पाद और व्यय है। पूर्वावस्था के विनाश और नयी अवस्था की उत्पत्ति के बावजूद पदार्थ में स्थायित्व बना रहता है। यह अवस्थिति ही ध्रौव्य हैं जैसे - पुद्गल दूध से दही बना। दूध का विनाश और दही का उत्पाद हुआ। परन्तु गोरस ध्रौव्य रहा।
षड्द्रव्यों में प्रतिसमय उत्पादादि तीनों लक्षण घटित होते हैं।850 छहों द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य, किसी भी समय उत्पादादि लक्षणों से रहित नहीं होता है। प्रत्येक द्रव्य, प्रतिसमय उत्पादादि लक्षणों से युक्त रहता है। उत्पादादि तीनों लक्षणों में से कोई एकाध लक्षण हो और एकाध लक्षण न हो, ऐसा भी नहीं होता है। प्रत्येक द्रव्य पूर्व पर्यायों से व्यय और उत्तर पर्यायों से उत्पाद को प्राप्त होते हुए द्रव्यत्व की अपेक्षा से ध्रुव रहता है।
प्रश्न उठ सकता है कि एक ही पदार्थ में एक साथ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की संगति कैसे बन सकती है, क्योंकि ये तीनों परस्पर विरोधी लक्षण हैं उत्पाद के साथ व्यय और उत्पाद-व्यय के साथ स्थायित्व कैसे घटित हो सकता है? उपाध्याय यशोविजयजी इस विरोध का परिहार करते हुए कहते हैं – ऊपर-ऊपर से देखने पर ही इस विसंगति की प्रतीति होती है, परन्तु परमार्थ दृष्टि से देखने पर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में कोई विरोध परिलक्षित नहीं होता है। जल में शीतलता है, उष्णता नहीं है तथा अग्नि में उष्णता है, शीतलता नहीं है। शीतलता और उष्णता एक दूसरे के अभाव में ही विद्यमान रहते हैं, ऐसा प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता। इस प्रकार के परस्पर विरोधी दो गुण या वस्तु एक साथ विद्यमान रहते हैं, ऐसा कहने पर विरोध आ सकता है। परन्तु उत्पादादि तीनों लक्षण एक स्थान पर एक ही साथ विद्यमान रहते हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। उत्पाद के बिना व्यय, व्यय के बिना
650 उत्पाद व्यय ध्रव पणई, छई समय समय परिणाम रे।
षड़द्रव्यतणो प्रत्यक्षथी, न विरोधतणो ओ ठाम रे।। ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/2
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उत्पाद एवं उत्पाद-व्यय के बिना ध्रौव्य का अस्तित्व किसी भी पदार्थ में कहीं पर भी प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है। सर्वत्र सभी पदार्थ में उत्पादादि तीनों लक्षण एक साथ ही दिखाई देते हैं। उत्पादादि तीनों लक्षणों के बिना किसी पदार्थ की संगति नहीं बैठ सकती है। उदाहरणार्थ अनेक पदार्थों को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे – सोना, दूध, पानी आदि। सोना, दूध और पानी ध्रुव तत्त्व हैं। सोने से घट, मुकुट आदि, दूध से खीर, दही आदि, पानी से बर्फ, भाप आदि बनाये जाते हैं। यह उत्पाद और विनाश की प्रक्रिया है। साथ ही घट के नाश के बिना मुकुट की उत्पत्ति नहीं है, न ही मुकुट के उत्पत्ति के बिना घट का विनाश है। इस प्रकार घटनाश और मुकुटउत्पत्ति भी बिना सोने के अस्तित्व के संभव नहीं है। उत्पाद और विनाश (परिवर्तनशीलता) तथा ध्रौव्य (नित्यता) तीनों साथ रहकर ही द्रव्य को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। केवल उत्पाद, केवल व्यय अथवा केवल ध्रौव्य द्रव्य का लक्षण नहीं हो सकता है।
- प्रत्येक द्रव्य उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य रूप से त्रयात्मक है। सुवर्ण घट का अर्थी सुवर्णघट के नाश होने पर दुःखी होता है। सुवर्णमुकुट का अर्थी सुवर्णमुकुट के उत्पन्न होने पर हर्षित होता है। परन्तु सुवर्ण मात्र का अर्थी उस सुवर्णघट से सुवर्ण मुकुट बनने पर न दुःखी होता है और न हर्षित होता है, अपितु मध्यस्थभाव में रहता है। क्योंकि सुवर्णत्व दोनों अवस्थाओं में स्थित रहता है। एक ही समय में दुःख, हर्ष और मध्यस्थभाव बिना कारण नहीं हो सकते हैं। जब सुवर्ण घट से, सुवर्ण मुकुट बनाया जाता है, उस समय घटाकार रूप सुवर्ण का नाश होने से घटार्थी व्यक्ति को दुःख होता है। यदि घटाकार रूप सुवर्ण का नाश नहीं होता है तो सुवर्ण घट के अर्थी को दुःख क्यों होता ? अतः घटाकार रूप सुवर्ण का नाश वास्तविक है।652 इसी प्रकार सुवर्ण का मुकुटाकार रूप में उत्पाद भी है, क्योंकि यदि सुवर्णद्रव्य का मुकुटाकार के रूप में उत्पत्ति नहीं होती तो मुकुटार्थी व्यक्ति को हर्षित होने का कोई
651 घट मुकुट सुवर्णह अर्थिआ, व्यय उतपति थिति पेखंत रे। निज रूपइ होवइं हेमथी, दुःख हर्ष उपेक्षावंत रे । .....
................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/3 652 जे माटि हेमघट भांजी, हेममुकुट थाइ छइ, तिवारइं हेमघटार्थी दुःखवंत थाइ, ..... वही,टब्बा 9/3
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कारण ही नहीं रहता है। अतः मुकुटाकार के रूप में सुवर्ण की उत्पत्ति भी वास्तविक है। 53 सुवणार्थी व्यक्ति को घट का नाश और मुकुट का उत्पाद होते हुए दिखाई देने पर भी न तो दुःखी होता है और न ही सुखी होता है। परन्तु तटस्थबुद्धि से रहता है। क्योंकि वह मात्र सुवर्णार्थी होने से उसे सुवर्ण की ध्रुवता ही दिखाई देता है।854 यदि उसी समय सुवर्णत्व के रूप में ध्रुवता नहीं होती तो सुवर्णार्थी व्यक्ति को सुवर्ण घटनाश से दुःखी या मुकुट उत्पाद से सुखी होना चाहिए था। परन्तु दोनों ही स्थिति (घटनाश, मुकुट उत्पाद) में सुवर्णत्व के ध्रुव रहने से वह मध्यस्थभाव से रहता है। इससे यही ज्ञात होता है कि एक ही सुवर्ण द्रव्य में एक ही समय में घटाकार के रूप में व्यय, मुकुटाकार के रूप में उत्पाद और सुवर्णत्व के रूप में ध्रौव्य, ये तीनों लक्षण विद्यमान रहते हैं। एतदर्थ सर्वद्रव्य उत्पादादि तीनों लक्षणों से युक्त हैं।
जहां वैदिकदर्शन सत् को कूटस्थनित्य मानता है, वहां बौद्धदर्शन सत् को सर्वथा अनित्य मानता है। सांख्यदर्शन नित्यानित्यवाद को स्वीकार करते हुए पुरूष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। जहां तक नैयायिक और वैशेषिक दर्शन का प्रश्न है, वे परमाणु, आत्मा आदि को नित्य और घटपटादि को अनित्य मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन द्रव्य मात्र को परिणामी नित्य मानता है अर्थात् द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है।
केवल उत्पत्ति और व्यय का ही आधार हो, किन्तु स्थिति का आधार न हो, (जैसे घटपटादि) तथा केवल स्थिति का ही आधार हो, किन्तु उत्पाद और व्यय का आधार न हो (जैसे परमाणु, जीव, आकाश) ऐसा कोई भी द्रव्य लोक में दिखाई नहीं देता है, क्योंकि घटपटादि स्थूल पदार्थों में उत्पाद–व्यय होने पर भी मूल पदार्थ के रूप में ध्रुवता अवश्य रहती है। परमाणु जैसे नित्य पदार्थों में भी वर्णादि के रूपान्तर रूप में एवं भिन्न-भिन्न स्कन्धों के रूप में परिणमन अवश्य होता है। इसलिए घटाकार और मुकुटाकार आदि आकारों को न स्पर्श करने वाला केवल सुवर्ण द्रव्य
653 जे माटि हेममुकुटार्थी हर्षवंत थाइ, ते माटि मुकुटाकाराइं हेमोत्पत्ति सत्य थाई ............ वही, 7/3 654 इम हेममात्रार्थी ते काले न सुखवंत, न दुःखवंत थाई छइ स्थितपरिणामाइं रहइ छइ, ......वही 9/3
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ही होता तो मात्र ध्रुवता की ही सिद्धि होती। परन्तु ऐसा होता नहीं है। सुवर्णद्रव्य किसी न किसी घटादि आकार के रूप में ही होता है और आकार बदलते रहने से उत्पाद-व्यय अवश्य होते हैं और साथ ही सुवर्ण के रूप में ध्रौव्यता भी रहती है।655 द्रव्य की यह ध्रौव्यता उत्पाद-व्यय सापेक्ष होती है। तत्वार्थसूत्रकार:56 ने नित्य का यही लक्षण दिया है। जो अपने भाव को न वर्तमान में छोड़ता है और न ही भविष्य में छोड़ेगा, वह नित्य है।57 उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से जो युक्त है, वह सत् कहलाता है। इस सत् के भाव से जो कदापि चलित नहीं होता है, वही नित्य है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में परस्पर विरोध नहीं है।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता में भिन्नता और अभिन्नता -
स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न उठता है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न है अथवा अभिन्न हैं ? क्योंकि यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं तो वस्तु त्रयात्मक नहीं हो सकती है और यदि ये तीनों परस्पर अभिन्न हैं तो वस्तु को एक रूप ही मानना चाहिए ? सभी जैन दार्शनिकों की तरह उपाध्याय यशोविजयजी ने भी स्याद्वाद के आधार पर ही समस्त समस्याओं का समाधान किया है। इस दृष्टि से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी परस्पर कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न दोनों हैं। शोकादि त्रिविध कार्य करने की शक्ति स्वरूप की दृष्टि से उत्पादादि तीनों परस्पर भिन्न-भिन्न है। परन्तु एक ही द्रव्य में प्रत्येक समय में एक साथ रहने से उत्पादादि तीनों परस्पर अभिन्न भी हैं।58
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों भिन्नकालवर्ती नहीं है। जो सुवर्ण घट का व्यय है, वही सुवर्ण मुकुट का उत्पाद है तथा सुवर्ण की ध्रुवता भी वही है। क्योंकि
655 इहां उत्पादव्ययभागी भिन्नद्रव्य, अनइं स्थितिभागी भिन्नद्रव्य ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/8 66 तद्भावाव्ययं नित्यम् ................ तत्त्वार्थसूत्र, 5/30 657 यत् सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यम् . ...... तत्त्वार्थभाष्य, 5/30 658 घटव्यय ते उतपति मुकुटनी, ध्रुवता कंचननी ते ओक रे,
दल ओकइ वर्तइ ओकदा, निजकारथशक्ति अनेक रे ............................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/4
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पूर्व पर्याय (घटाकार) के व्यय का जो समय है, वही नवीन पर्याय (मुकुटाकार) के उत्पाद का समय है। उसी समय कंचन के रूप में ध्रुवता भी है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता है। द्रव्य की सिद्धि के लिए इन तीनों का एक साथ होना आवश्यक है।659 इस प्रकार एकक्षेत्रावगहित्व और एकद्रव्यव्यापित्व की अपेक्षा से उत्पादादि तीनों लक्षण कथंचित् अभिन्न हैं।
उत्पादादि तीनों लक्षण शोक, प्रमोद और माध्यस्थ रूप भिन्न-भिन्न कार्यों को करने वाले शक्ति स्वरूप की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न भी प्रतीत होते हैं।60 सुवर्णघट के व्यय से घटइच्छुक व्यक्ति को शोक, मुकुट के उत्पाद से मुकुट इच्छुक व्यक्ति को प्रमोद और सुवर्ण इच्छुक व्यक्ति को माध्यस्थभाव होता है। इस प्रकार त्रिविध कार्य प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। अतः त्रिविध कार्य करने की शक्ति स्वरूप से व्यायादि तीनों लक्षण कथंचित् भिन्न है। इसी बात को आचार्य समन्तभद्र ने दूध, दही और गोरस के उदाहरण से समझाया है। दूध नहीं खाने का संकल्प करनेवाला दही के गोरस होने पर भी दूध से भिन्न मानकर खा लेता है। उसी प्रकार दही नहीं खाने का संकल्प करने वाला दूध के गोरस होने पर भी दही से भिन्न मानकर खा लेता है। परन्तु गोरस नहीं खाने की प्रतिज्ञा वाला दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। गोरस, दूध और दही परस्पर भिन्न और अभिन्न दोनों हैं।661
पुनः 'यह सुवर्ण है' ऐसा सामान्य दृष्टि से देखने पर ध्रौव्यता दिखाई देती है और घट, मुकुट इत्यादि विशेष रूप से देखने पर व्यय-उत्पाद दृष्टिगोचर होते हैं।62 तीनों लक्षण अपने-अपने स्वरूप की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होने पर भी एकक्षेत्रावगाही और एककालवर्ती होने से उनमें परस्पर विरोध नहीं होता है। जैसे
659 तम्न यदविनाभावः प्रादुर्भावधुवव्ययानां हि यस्मादेकेन विना न स्यादितरद्वयं तु तन्नियमात
पंचाध्यायी, का. 1/249 660 पणि शोक प्रमोद माध्यस्थ्य रूप ............................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/4 661 पयोव्रतो न दध्यति ..
आप्तमीमांसा, 3/60
662 सामान्य रूपई ध्रौव्य अनइं
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/4
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आम्रफल में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि एक ही समय में, एक साथ, सर्वप्रदेशों में व्याप्त रहने से परस्पर अभिन्न हैं परन्तु चाक्षुष प्रत्यक्ष, घ्राणज प्रत्यक्ष, रासनप्रत्यक्ष, स्पार्शन प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में भिन्न-भिन्न कार्य उत्पन्न करने से वर्णादि परस्पर भिन्न-भिन्न भी है। उसी प्रकार उत्पाद, आदि एकक्षेत्र और एक कालवर्ती होने अभिन्न तथा भिन्न-भिन्न कार्योत्पत्ति में शक्तिस्वरूप होनेसेभिन्न-भिन्न भी है।
इसलिए उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परस्पर भिन्नाभिन्न होने से, इन तीनों में से किसी एक के व्यवहार करने के प्रसंग में 'स्याद- शब्द का उपयोग करना चाहिए। 'स्यादुत्पद्यते' कहने पर व्यय और ध्रौव्य का निषेध नहीं होता है।
कार्यभेद से कारण भेद -
घटव्यय शोकजनक है, मुकुट उत्पाद प्रमोदजनक है और तदुभयभिन्न सुवर्ण माध्यस्थभावजनक है। शोक, प्रमोद और माध्यस्थभाव के रूप में तीन प्रकार के कार्य होने से कार्योत्पादक शक्तिरूप कारण भी तीन प्रकार के होने चाहिए। शोकादि तीन कार्यों को उत्पन्न करने वाले उत्पाद आदि कारण भी तीन होते हैं। इसलिए सुवर्णद्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य के रूप में त्रयात्मक है।
द्रव्य भिन्न-भिन्न कार्यों को उत्पन्न करनेवाला एक ही शक्ति के रूप में अविकारी नहीं हो सकता है। द्रव्य को अविकारी और एकशक्ति स्वभाव वाला मानने पर कार्योत्पादक शक्ति रूप भिन्न-भिन्न कारणों के अभाव में शोक आदि भिन्न-भिन्न कार्यों की भी संभावना नहीं रहेगी।163 कारणभेदों के अभाव में कार्यभेद का भी अभाव हो जाता है। एक ही कारण भिन्न-भिन्न कार्यों को करता है, ऐसा मानने पर विश्व-व्यवस्था में संगति नहीं बैठ सकती है, क्योंकि किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जायेगा। मिट्टी से घट-पट आदि सभी कार्य तथा तन्तु से
663 बहु कारय कारण एक जो कहिइं ते द्रव्यस्वभाव ।
तो कारणभेदाभावथी हई कारयभेदाभाव।। .....
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/5
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भी घट, पट आदि कार्य बनने लग जायेंगे। परन्तु ऐसा होता नहीं है। मिट्टी से घट कार्य और तन्तु से पट कार्य ही उत्पन्न होता है। जिन-जिन कारणों से जो-जो कार्य शक्ति नियत रूप से रहती है, उन-उन कार्यों की उत्पत्ति उन्हीं कारणों से होती है। अन्यथा जैसे अग्नि में दाहशक्ति है, उसी प्रकार अग्नि के समीपवर्ती जल में भी दाहशक्ति होनी चाहिए।84 इसी प्रकार एक ही कारण से अनेक कार्यों की उत्पत्ति होती है तो मिट्टी रूप एक कारण से अनेक कार्यों की उत्पत्ति होनी चाहिए। अतः जिस प्रकार घटोत्पाद की शक्ति मिट्टी में और पटोत्पाद की शक्ति तन्तु में है, उसी प्रकार शोकादि त्रिविध कार्योत्पादक शक्ति सुवर्ण द्रव्य में होने से सुवर्ण में उत्पाद आदि तीनों लक्षण वास्तविक हैं।
इस प्रकार एक शक्ति (कारण) रूप स्वभाववाले द्रव्य से अनेक कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। परन्तु भिन्न-भिन्न कार्यों को करने की भिन्न-भिन्न शक्तियां एक ही कारण द्रव्य में होती हैं तथा कार्यभेद के अनुसार कारण (शक्ति) में भेद अवश्य होता है। जहाँ कार्य भेद हैं, वहाँ कारण भेद होता ही है। प्रमोद, शोक और माध्यस्थ रूप कार्यभेद होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐसे त्रिविध शक्तिरूप कारण भेद भी अवश्य है। उत्पादादि त्रिविधशक्तिरूप कारण भेद स्वर्ण में होने से स्वर्ण त्रिविध रूपवाला है।
वस्तु उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से त्रयात्मक है -
सोत्रान्तिक और वैभासिक बौद्धदर्शन के अनुसार घट-पट आदि समस्त स्थूल और चेतन आदि समस्त सूक्ष्म पदार्थ क्षणिक हैं। सभी पदार्थ मात्र उत्पाद और विनाशशील ही हैं। जैसे तराजू के पलड़े प्रतिक्षण नमन और उन्नमन को प्राप्त होते रहते हैं, उसी प्रकार सभी पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद और विनाश स्वभाव वाले ही होते हैं। कोई भी द्रव्य ध्रुव नहीं है। क्षणिकत्व ही पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण है। हेमादि
664 शक्ति पणि दृष्टानुसारई कल्पिई छई ...
वही, टब्बा, गा. 9/5 665 तस्मात् शक्तिभेदे कारणभेद, कार्य भेदानुसारइ अवश्य अनुसरवो, ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा,गा.9/57
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द्रव्यों में उत्पादादि तीन लक्षण नहीं है। परन्तु मात्र उत्पाद और व्यय ही है। इसलिए शोकादि कार्यों का कारण उत्पाद आदि तीन लक्षण नहीं हैं। हेम, हेमघट और हेममुकुट को देखकर जो शोकादि कार्य उत्पन्न होते हुए दिखाई देते हैं, उनका कारण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य नहीं है, अपितु देखने वाले व्यक्ति के मन में रही हुई वासना ही शोकादि का कारण है।666 स्वेष्टसाधनता, स्वानिष्टसाधनता, तदुभयभिन्नता इस प्रकार की देखनेवाले व्यक्तियों के मन में रही हुई भिन्न-भिन्न वासना ही हर्षादि का कारण है। भिन्न-भिन्न वासना के कारण ही वस्तु को देखकर भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न होते हैं। अतः वस्तु तो जैसी है, वैसी ही है, वस्तु में त्रिविधा या विविधता नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु व्यक्ति के मन में रही हुई वासना के भेद से किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट लगती है। ईख आदि वस्तुएं जहाँ मनुष्य को इष्ट लगती है वही करभ (ऊंट, रासभ) आदि को अनिष्ट लगती है। इससे वस्तु में कोई परिवर्तन नहीं आता है। इसलिए द्रव्य में उत्पादादि त्रिविधता नहीं है।
जैनदर्शन के अनुसार कार्योत्पत्ति में उपादान और निमित्त दोनों कारणों का अपना-अपना महत्त्व है। कार्योत्पत्ति में दोनों कारणों की उपस्थिति आवश्यक है। इसलिए यशोविजयजी कहते हैं –निमित्त भेद के बिना वासना रूप मन की भिन्नता घटित नहीं हो सकती है। जिस प्रकार शोक, हर्ष और माध्यस्थभाव रूप कार्यों के लिए तीन भिन्न-भिन्न व्यक्ति रूप भिन्न-भिन्न उपादान कारण है, उसी प्रकार शोकादि कार्यों के लिए निमित कारण भी भिन्न-भिन्न अवश्य होते हैं। 67 इष्टताबुद्धि, अनिष्टताबुद्धि और तदुभय भिन्न बुद्धि रूप मन की इन वासनाओं में भिन्न-भिन्न भेद निमित के कारण ही होता है।
यदि सामने स्थित बाह्य वस्तु के प्रति इष्टताबुद्धि आदि वासना में निमित्त नहीं बनते हों और केवल उपादानभूत आत्मा से ही इष्टताबुद्धि आदि द्वारा तीन
666 शोकादि णननइ वासना, भेदइ कोइ बोलइ बुद्ध रे।
तस मनसकारनी भिन्नता, विण निमित भेद किम शुद्ध रे। ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/6 667 ते बौद्धने निमित्तभेद विना वासनारूप मनस्कारनी भिन्नता किम शुद्ध थाई ?
........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/6
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भिन्न-भिन्न वासनाएं, तीन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उत्पन्न होती है, तो इष्टताबुद्धि वासनावाले व्यक्ति को गन्ने आदि की तरह घास, कादव आदि सर्वत्र इष्टता बुद्धि ही होनी चाहिए। अनिष्टताबुद्धि वासना वाले व्यक्ति को गन्ने आदि सभी पदार्थों में सर्वत्र अनिष्टता बुद्धि और माध्यस्थबुद्धि वासना वाले व्यक्ति को सर्वत्र माध्यस्थ बुद्धि ही होनी चाहिए। परन्तु संसार में ऐसा होता नहीं है। इसलिए विभिन्न वासनाओं की उत्पत्ति में सामने स्थित बाह्यवस्तु और उसकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप भिन्न-भिन्न शक्तियाँ अवश्य निमित्त बनती हैं।
गन्ना आदि द्रव्यों में मनुष्य की अपेक्षा से इष्टबुद्धि रूप वासना में निमित्तता
- रूप पर्याय है और उन्हीं गन्ना आदि द्रव्यों में ऊंट की अपेक्षा से अनिष्टताबुद्धि रूप वासना में निमित्तता - रूप पर्याय भी है। इस प्रकार बाह्यवस्तु में शोकादि के कारणभूत वासनाओं के भेद में भिन्न-भिन्न निमित्त रूप अनंत पर्यायें हैं। पदार्थों में भिन्न-भिन्न शक्तिस्वरूप निमित्त भेद को माने बिना इष्टताबुद्धि, अनिष्टताबुद्धि और तदुभयभिन्नबुद्धि इत्यादि वासनाओं का जन्म ही नहीं हो सकता है। अतः प्रमाता के भेद से एक ही बाह्य वस्तु (द्रव्य) में इष्टताज्ञान जननशक्तिरूप, अनिष्टताज्ञानजनन शक्तिरूप और माध्यस्थताजननशक्तिरूप भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं और वे पर्यायें ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं।688
इस प्रकार बाह्यवस्तु की उत्पाद आदि भिन्न-भिन्न निमित्त भूत पर्यायों से ही प्रमाता में इष्टताबुद्धि आदि वासनाओं का जन्म होता है और इन भिन्न वासनाओं से ही शोकादि भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति होती है। इसलिए बौद्धदर्शन के मन्तव्य के अनुसार द्रव्य उत्पाद-व्यय रूप क्षणिक नहीं होता, अपितु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रयात्मक है।
यदि मन की वासना मात्र से ही ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तो किसी को घट में पट का, जल में अग्नि का, घट में सरोवर का ज्ञान होने लग जायेगा। एक ही वस्तु में किसी को घट का तो किसी को पट का ज्ञान होने लग जायेगा। परन्तु यह
668 एक वस्तुनी प्रमातृभेदई इष्टानिष्टता छ ................... वही,
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बात प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं होती है। इसलिए पदार्थों और तद्गत उत्पाद आदि को अवास्तविक मानना युक्तिसंगत नहीं है ।
योगाचार बौद्धदर्शन का कथन है कि न तो सुवर्ण, सुवर्णघट, सुवर्णमुकुट आदि पदार्थों की कोई वास्तविक सत्ता है और न ही उनमें मन की भिन्न-भिन्न वासनाओं में निमित्त बनने वाले उत्पादादि पर्यायों के रूप में भिन्न-भिन्न निमित्त भेद हैं। क्योंकि संसार में घटपटादि समस्त पदार्थ वास्तविक पदार्थ नहीं है । मात्र उनका ज्ञानाकार ही है । ज्ञानाकार ही पदार्थ हैं । वासना से ज्ञानाकार का जन्म होता है और ज्ञानाकार से हर्ष, शोकादि भाव उत्पन्न होते हैं। पदार्थ और पदार्थगत उत्पाद आदि निमित्त कारणों के भेद के बिना ही ज्ञानाकार से ही शोक - प्रमोद आदि संकल्प मन में उठ जाते हैं। इसलिए पदार्थ और हर्ष - शोकादि कार्यों को आगे करके उनमें उत्पादादि निमित्त भेद को मानना नितांत मूर्खता है। क्योंकि संसार में पदार्थ और पदार्थ के उत्पाद आदि तीनों लक्षण मृगमरीचिका के जल की तरह शून्य है । संसार में मात्र ज्ञान ही है। कुछ भी ज्ञेय नहीं है।
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योगाचार के इस मत का खण्डन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं - ज्ञेय की वास्तविक सत्ता को अस्वीकार करके मात्र ज्ञानाकार को मानने पर घट-पट आदि पौद्गलिक पदार्थों के अस्तित्व के बिना ही केवल वासना विशेष से ही घटपटादि का आकारवाला ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा । ऐसी स्थिति में घट-पट आदि बाह्य पदार्थों का लोप हो जाने से उन-उन विवक्षित कारणों के अभाव में उन-उन विवक्षित आकारवाले ज्ञान की उत्पत्ति भी संभव नहीं हो पायेगी । 669 घट पटादि पदार्थों के अभाव में यह ज्ञान घटाकार रूप है और यह ज्ञान पटाकार रूप है, ऐसा स्पष्ट बोध भी नहीं हो सकता है । ज्ञेय के बिना ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है । मृगमरीचिका में जल नहीं है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार में ही जल नहीं है। समुद्र, सरोवर आदि में जल है और उसी सदृश्यता की प्रतीति से ही
669 घट पटादि निमित्त विना ज वासना विशेषइ घट पटाकार ज्ञान होइ तिवारइं- बाह्य वस्तु सर्व लोपाइं अनइं निष्कारण तत्तदाकार ज्ञान पणिं न संभवइ
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/7
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मृगमरीचिका में जल का भ्रम होता है। ज्ञान चाहे भ्रमात्मक हो अथावा प्रमात्मक, दोनों ही स्थिति में विषयभूत पदार्थ का अस्तित्व अवश्य होता है। अतः ज्ञान में निमित्त बनने वाले बाह्य पदार्थ और उनके उत्पाद आदि विलक्षण वास्तविक हैं।
पुनः बाह्यवस्तु के अभाव में ज्ञान उत्पन्न होता है तो सुख के साधनों की उपस्थिति में सुखाकार ज्ञान की तरह दुःख के साधनों की विद्यमानता में भी सुखाकार ज्ञान होना चाहिए। नील-पीतादि वस्तु के बिना ही काली और श्वेत वस्तुओं के योग में भी नील-पीतादि आकार का ज्ञान होना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि सुख के साधनों से सुख और दुःख के साधनों से ही दुःख का ज्ञान होता है। नील-पीतादि वस्तु के योग में ही नील-पीतादि आकार का ज्ञान होता है। इसलिए बाह्यपदार्थों को ज्ञान और वासना में निमित्तभूत मानना ही पड़ेगा। अन्यथा ज्ञेय पदार्थ के बिना प्रतिनियत ज्ञान का भी अभाव हो जाने से यह संसार सर्वथा शून्यरूप हो जायेगा। इस प्रकार बाह्यपदार्थों के अपलाप से तो सर्वशून्यवादी माध्यमिक बौद्धों का मत ही सिद्ध होता है, परन्तु योगाचार का मत सिद्ध नहीं होता है। इसलिए पदार्थ और इष्टानिष्टसाधनता के ज्ञान की विषयता रूप उत्पादादि पर्यायें-दोनों ही वास्तविक हैं। एक ही बाह्यवस्तु को देखकर भिन्न-भिन्न प्रमाताओं में भिन्न-भिन्न ज्ञान उत्पन्न होता है। रूपवती और सुसज्जित युवती को देखकर भोगी के मन कामवासना के भाव (ज्ञान) और योगी के मन में वैराग्य के भाव जागृत होते हैं। क्योंकि कामुकता के ज्ञान की विषयतारूप पर्याय और वैराग्य के ज्ञान की विषयतारूप पर्याय दोनों ही उस युवती रूप ज्ञेय में विद्यमान है। ज्ञेय में भिन्न-भिन्न ज्ञान का विषय बनने वाली अनंत पर्यायें होती हैं।
माध्यमिक बौद्धों का सर्वशून्यवाद प्रमाणपूर्वक है, तो संसार में प्रत्यक्ष आदि प्रमाण की सत्ता होने से सर्वशून्यवाद का खण्डन स्वतः हो जाता है और यदि वे
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प्रमाण रहित है तो प्रमाण विना की बात विद्वतसभा में मान्य नहीं होती है। इस प्रकार ज्ञेय (द्रव्य) और उसके उत्पाद आदि त्रिलक्षण वास्तविक हैं।70
___ उत्पाद को उत्पाद के रूप में, व्यय को व्यय के रूप में और ध्रौव्य को ध्रौव्य के रूप में देखने पर उत्पाद आदि तीनों लक्षण भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं और ये तीनों हर्ष, शोक और माध्यस्थ रूप भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न कारण बनते भी हैं। परन्तु एकाश्रयवृत्ति से देखने पर उत्पाद आदि तीनों अभिन्न भी हैं।71 क्योंकि ये तीनों लक्षण एक ही सुवर्ण आदि द्रव्यों में घटित होते हैं। भेदप्रधान व्यवहारनय से कार्यभेद से कारणभेद होता है। परन्तु अभेदप्रधान निश्चयनय से देखने पर कार्य अनेक होने पर भी कारण एक ही है। शोकादि भिन्न-भिन्न कार्यों को देखकर पदार्थ में उत्पाद आदि तीनों लक्षणों को भिन्न-भिन्न कारणों के रूप में माना जाता है परन्तु अविभागी द्रव्य के रूप में विचार करने पर उत्पाद आदि तीनों अभिन्न
न
स्थूलदृष्टि अथवा व्यवहार दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि घट का नाश होकर मुकुट का उत्पाद हुआ है अर्थात् घट के नाश से मुकुट का उत्पाद होता है। घटनाश कारण है और पूर्व समयवर्ती है और मुकुटउत्पाद कार्य है और उत्तर समयवर्ती है। परमार्थदृष्टि से तो घट का नाश ही मुकुट का उत्पाद है। घटनाश और मुकुटोत्पाद में समयभेद नहीं है। जिस समय घट का जितना नाश होता है, उस समय मुकुट का उतना ही उत्पाद होता है। घटनाश और मुकुटोत्पाद में समय भेद करने पर सुवर्ण (द्रव्य) में प्रतिसमय उत्पाद आदि त्रिपदी घटित नहीं होंगे। क्योंकि नाशकाल में उत्पाद और उत्पादकाल में नाश नहीं रहेगा, जबकि वस्तु प्रतिसमय त्रिलक्षणों से युक्त होती है। अतः वास्तविकता यह है कि उत्पाद और नाश दोनों भिन्न-भिन्न समय में नहीं है, अपितु रूपान्तर मात्र है। इसी रूपान्तरता को पूर्व
670 शून्यवाद पणि प्रमाण सिद्धि-असिद्धि व्याहत छइं ते ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा गा.
9/7 671 इम-शोकादिक कार्यत्रयनइ भेदइं-उत्पाद-व्यय ध्रौव्यए 3 लक्षण
वस्तुमांहि साध्यां पणि अविभक्तद्रव्यपणइ अभिन्न छइं ................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/8
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पर्याय की दृष्टि से देखने पर नश्यमानता (व्यय) और उत्तर पर्याय की दृष्टि से देखने पर उत्पद्यमानता (उत्पाद) दिखाई देती है। इसलिये पूर्व पर्याय को कारण और उत्तर पर्याय को कार्य नहीं कह सकते हैं। रूपान्तरता रूप पर्यायान्तरता ही कार्य है
और अविभक्त सुवर्ण द्रव्य कारण है। दूसरे शब्दों में घटनाश और मुकुटोत्पाद रूप पर्यायान्तरता कार्य है और उसका आधारभूत मूलद्रव्य {सुवर्ण} कारण है जिसमें ध्रौव्य समाविष्ट है।
इस कारण से सुवर्णघट के नाश से अभिन्न सुवर्णमुकुट के उत्पत्ति में सुवर्ण घट के अवयवों का विभाग आदि कारण है।72 उत्पत्ति और विनाश दोनों अभिन्न हैं और एकरूप है। पूर्व पर्याय (घट) का नाश ही उत्तरपर्याय (मुकुट) की उत्पत्ति है और इसमें अवयवी रूप में रहा हुआ द्रव्य ही हेतु है, परन्तु पूर्वपर्याय का नाश हेतु नहीं है।
- हेमघटनाश और हेममुकुटउत्पाद दोनों ही पर्यायों में हेमघट ही कारण है। परन्तु एकान्त भेदवादी नैयायिकों ने नाश और उत्पाद को भिन्न-भिन्न मानकर उनमें कार्यकारण सम्बन्ध स्थापित करते हैं।73 घटनाश को कारण मानकर उसे पूर्वसमयवर्ती और मुकुटोत्पाद को कार्य मानकर उसे उत्तरसमयवर्ती मानते हैं। उनके अनुसार नाश और उत्पाद समकालीन नहीं है, अपितु भिन्न समयवर्ती हैं। सदैव कारण पूर्वसमय में और कार्य उत्तर समय में ही विद्यमान रहता है। इसी आधार पर कारण को कार्य का नियत पूर्ववर्ती माना जाता है- 'कार्यनियतपूर्ववृत्तिकारणम्
न्यायदर्शन के इस एकान्त भेदवाद का खण्डन करके अनेकान्तवाद के आधार पर द्रव्य को उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक सिद्ध करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि घटनाश और मुकुटोत्पत्ति दोनों की कार्यरूप हैं, किन्तु कारण और कार्य के रूप में नहीं है। क्योंकि उत्पाद की तरह नाश भी उत्पद्यमान है। इस बात को
672 अतएव हेमघट नाशाभिन्न-हेममुकुटोत्पतिनइं विषइं हेम घटावयवविभागादिक हेतु छइ
..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 9/8 673 घटनाश मुकुट उत्पत्तिनो, घट हेम एकज हेतु रे। ओकान्तभेदनी वासना, नइयायिक पणि किम देत रे।।
...वही, गा. 9/8
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यशोविजयजी ने महापट और खंडपट के उदाहरण से समझाया है। 674 महापट को फाड़कर खण्ड–खण्ड के रूप टुकड़े करने की क्रिया में महापट का नाश भी है और खण्डपट की उत्पत्ति भी है। दोनों अभिन्न है । जैसे-जैसे और जितने अंश में महापट
I
का नाश होता है, वैसे-वैसे और उतने ही अंश में खण्डपट का उत्पाद होता है। महापट के नाश से अभिन्न खंडपट की उत्पत्ति में एकादि तन्तुओं के संयोग का उपगम (नाश) ही वास्तविक कारण है । परन्तु महापट का नाश खंडपट की उत्पत्ति का कारण नहीं है। क्योंकि खंडपट की तरह महापट का नाश भी उत्पन्न होने से महापट नाश कारणात्मक न होकर कार्यात्मक है। महापटनाश रूप उत्तरपर्याय की उत्पत्ति होने से वह कार्य स्वरूप है न कि कारण स्वरूप । इस प्रकार महापट नाश और खंडपटोत्पत्ति की तरह घटनाश और मुकुटोत्पत्ति भी रूपान्तर रूप कार्य ही है और इसमें अवयव विभाग कारण है । पुनः नाश और उत्पाद को भिन्न मानने पर कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति को मानना पड़ेगा। क्योंकि जब उत्तरसमय में कार्योत्पत्ति होती है तो उस समय कारण रहता नहीं है।
बर्तन का गिरना और फूटना, वक्र अंगुली को सीधा करना, मिट्टी के पिण्ड से घट बनना आदि-आदि उदाहरणों में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि पूर्व एवं उत्तर पर्यायों में नाश और उत्पत्ति न तो भिन्न-भिन्न है और न हीं उनमें कारण-कार्य भाव है। दोनों की स्थिति में एक प्रकार का रूपान्तर मात्र है और उसमें अवयव विभाग ही कारण है। 675 पदार्थ का स्वरूप इस प्रकार होने से जैनों की नैयायिकों के एकान्त भेदवाद से संगति बैठती नहीं है ।
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प्रतिसमय वस्तु तीनों लक्षणों से युक्त है
प्रतिसमय प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य रूप त्रिपदी रहती है, इस बात को यशोविजयजी ने एक प्रचलित उदाहरण से पुष्ट किया है। दुग्धव्रती पुरूष दही
674 महापटनाशाभिन्नखंडपटोत्पत्तिं प्रतिं अकादि तंतु संयोगापगम हेतु छ ...
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग - 2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 401
675
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वही, गा. 9/8 का टब्बा
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को नहीं खाता है और दहीव्रती पुरूष दुग्ध को नहीं खाता है। परन्तु अगोरसवती पुरूष दुग्ध और दही दोनों को नहीं खाता है। इसका तात्पर्य है कि दूध का नाश, दही का उत्पाद और गोरस का ध्रौव्य वास्तविक है। इसलिए जगत का प्रत्येक पदार्थ इन तीनों लक्षणों से युक्त है।76 .
जो व्यक्ति संपूर्ण दिवस दूध खाने का ही व्रत या प्रतिज्ञा लेता है, वह दुग्धव्रती पुरूष संपूर्ण दिवस दूध को ही खाता है। परन्तु दही को दूध से भिन्न मानकर उसे नहीं खाता है। वास्तविकता यह है कि दूध में खटास डालने पर दूध ही दही के रूप में रूपान्तरता को प्राप्त होता है। दही, दूध का ही परिणाम है। अवस्थान्तर या प्रकारान्तर को प्राप्त दूध ही दही कहलाता है। फिर भी संसार का कोई भी दुग्धव्रती पुरूष दही और दूध को अभिन्न मानकर दही को नहीं खाता है और यदि खाता है तो दुग्धव्रत की प्रतिज्ञा भंग हो जाती है। क्योंकि अब दही में दूधपना नहीं रहा अर्थात् दूध का नाश हुआ है। इस प्रकार दही काल में दूध का नाश हो जाने से दुग्धव्रती दही को नहीं खाता है।
इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने संपूर्ण दिवस दधि मात्र खाने की प्रतिज्ञा ले रखी है, वह दहीव्रती पुरूष दूध और दही को अभिन्न मानकर दूध का सेवन नहीं करता है और दूध के सेवन से दहीव्रत का भंग हो जायेगा, ऐसा मानता है। यद्यपि दही दूध से भिन्न कोई नवीन द्रव्य नहीं है; दूध का ही परिणाम और रूपान्तर है। फिर भी दूध को दही नहीं कहा जाता है। दूध और दही दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दूधकाल में दही बना नहीं है। जब कालान्तर में दूध से दही बनता है, उस समय ही दही का उत्पाद होता है। इस प्रकार दही का उत्पाद नहीं होने से दहीव्रतीपुरूष दूध का सेवन नहीं करता है।678
676 दुग्धव्रत दधि भुंजइ नहीं नवि दूध दधिव्रत खाइ रे
नवि दोइ अगोरसवत जिमइ, तिणि तिय लक्षण जग थाइ रे, .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/9 677 दधि द्रव्य ते दुग्धद्रव्य नहीं, जे माहिं जेहनइं दूधनुं व्रत छइं ........... वही, टब्बा, गा. 9/9 678 इम दूध ते दधिद्रव्य नहीं, परिणामी माटइं अभेद कहिइं ................... वही, टब्बा, गा. 9/9
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जिस व्यक्ति को अगोरस खाने की प्रतिज्ञा होती है, वह पुरूष दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। क्योंकि दूध का नाश और दही का उत्पाद होने पर भी गोरसपना तो ज्यों का त्यों बना रहता है। गोरस के रूप में दूध और दही का अभेद है।79 दही भी गोरस है और दूध भी गोरस ही होने से अगोरसवती पुरूष दूध और दही दोनों का सेवन नहीं करता है।
प्रस्तुत उदाहरण में दूधकाल में दही को नहीं माना गया है। परन्तु दहीकाल में दूध का नाश और दही का उत्पाद दोनों एक ही साथ माना गया है और दूध और दही में गोरसपने की ध्रुवता भी सिद्ध की गई है। इस प्रकार दही के रूप में उत्पाद, दूध के रूप में नाश और गोरस के रूप में ध्रौव्यता, ये तीनों लक्षण प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव सिद्ध होने से संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रयात्मक है। उपाध्याय यशोविजयजी ने पदार्थ को त्रयात्मक रूप से सिद्ध करने के लिए हरिभद्रसूरिकृत 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक ग्रन्थ का एक श्लोक भी उद्धृत किया है। यथा -
पयोव्रती न दध्यति, न पयोत्ति दधिव्रतः।
अगोरसवती नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ।।880 इसी भावार्थवाला समान श्लोक समन्तभद्र प्रणीत ‘आप्तमीमांसा' नामक ग्रन्थ में भी उपलब्ध होता है। यथा -
पयोव्रतो न दध्यति न पयोत्ति दधिव्रतः।
अगोरसतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम्।।681 अन्वयी और व्यतिरेकी स्वरूप के आधार पर समस्त पदार्थ त्रिलक्षण से युक्त हैं। द्रव्यदृष्टि से पदार्थ अन्वयीस्वरूपवाला अर्थात् ध्रौव्यस्वरूपवाला और पर्यायदृष्टि से व्यतिरेकी स्वरूपवाला अर्थात् उत्पाद-व्यय स्वरूप वाला होता है।82 परन्तु
67' तथा अगोरस ज जिमुं, एहवा व्रतवंत दूध-दही-2 न जिमई. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 9/9 680 शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्लोक 9/3 68l आप्तमीमांसा, श्लोक. 60 682 अन्वयीरूप अनइ, व्यतिरेकीरूप, द्रव्य पर्यायधी सिद्धान्तविरोधइं सर्वत्र अवतारीनइ 3 लक्षण कहवां ....
............... द्रव्यगुणपर्यानोरास का टब्बा, गा. 9/9
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एकान्तवादी दर्शनकारों ने एकान्त पर्यायदृष्टि के आधार पर कुछ पदार्थों को मात्र व्यतिरेकी और एकान्त द्रव्यदृष्टि के आधार पर कुछ पदार्थों को मात्र अन्वयी ही स्वीकार किया है। जैसे- नैयायिक एवं वैशेषिक दर्शन ने घटपटादि स्थूल पदार्थों को व्यतिरेकी या उत्पाद-व्यय स्वरूपवाला या अनित्य माना है तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के परमाणुओं को और आकाश को अन्वयी या ध्रौव्यस्वरूपवाला या नित्य ही प्रतिपादन किया है। पर्यायदृष्टि के आधार पर बौद्ध दार्शनिक समस्त पदार्थों को व्यतिरेकी दृष्टि के आधार पर अनित्य मानते हैं और द्रव्यदृष्टिवाले वैदान्तिक पदार्थ मात्र के अन्वयी स्वरूप को ही स्वीकार कर उसे नित्य मानते हैं, क्योंकि एकान्तदृष्टि से वस्तुस्वरूप का एक पहलु ही दिखाई देता है दूसरा पक्ष अनदेखा ही रह जाता है।
प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से पदार्थ की विलक्षणता को सिद्ध करते हुए यशोविजयजी कहते हैं- पदार्थों की सत्ता का प्रत्यक्षदर्शन ही पदार्थ को त्रिलक्षणात्मक सिद्ध करते हैं।683 जहाँ-जहाँ सत्ता का दर्शन होता है, वहाँ-वहाँ उत्पादादि लक्षण अवश्य होते हैं तथा जहाँ-जहाँ उत्पाद आदि लक्षण होते हैं, वहाँ-वहाँ सत्ता अवश्य होती है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही कथन है कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन लक्षणों से युक्त पदार्थ ही सत् कहलाता है।684 पदार्थ सत्ता के समवाय से सत् नहीं है जैसा कि नैयायिक मानते हैं। परन्तु स्वयं पदार्थ त्रिलक्षण से युक्त होने से सत् है। अन्यथा स्वयं असत् पदार्थ सत्ता के योग से सत् बनते हों तो शशशृंगादि असत् पदार्थ भी सत्ता के समवाय से सत् बनने चाहिए। परन्तु ऐसा होता हुआ अनुभव गोचर नहीं होता हैं। अतः त्रिलक्षणयुक्तता ही सत् का वास्तविक लक्षण है। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध त्रिलक्षण को अनुभव आदि प्रमाण से सिद्ध
683 सत्ता प्रत्यक्ष तेह ज त्रिलक्षण साक्षी छइ ....................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/9 684 उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ... .................. तत्त्वार्थसूत्र, 5/29
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करने की आवश्यकता नहीं रहती है। फिर भी अधिक स्पष्ट करने के लिए अनुभव आदि प्रमाण से भी सिद्ध किया जाता है।685
__ पदार्थ में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण प्रतिसमय होता है। एक भी समय ऐसा नहीं होता है जब पदार्थ में त्रिलक्षण नहीं हो या न्यूनाधिक हो। यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जिस समय मृत्पिण्ड से घट, तन्तु से पट, सुवर्णघट से सुवर्णमुकुट, दूध से दही, इत्यादि कोई भी पदार्थ उत्पन्न होते हैं या बनते हैं उस समय में ही उत्पाद और नाश होता है। शेष समय में ध्रौव्य नामक एक लक्षण ही दिखाई देता है। जैसे मृत्पिण्ड से घट बनने पर प्रथम समय में ही मृत्पिण्डनाश और घटोत्पाद दिखाई देता है, उसके बाद द्वितीय समय से लेकर जब तक घट फूटता नहीं है, तब तक घट सर्वसमय में जैसा का तैसा ही रहता। उसमें न कोई बदलाव या परिवर्तन होता है और नहीं कोई उत्पाद और व्यय परिलक्षित होते हैं। ऐसे में घट आदि पदार्थ में प्रतिसमय ध्रौव्य लक्षण ही घटित होता है। उत्पाद आदि त्रिलक्षण कैसे घटित होते हैं ?
पदार्थ में प्रतिसमय त्रिलक्षण को सिद्ध करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते है –प्रथम क्षण में जो उत्पाद और नाश होता है, वह आविर्भाव (प्रगट) रूप से होता है और दूसरे आदि समय में जो उत्पाद और नाश होता है वह पदार्थ में अनुगमशक्ति से अर्थात् एकताशक्ति से रहते हैं।686 प्रथम क्षणवर्ती उत्पाद और नाश द्वितीय आदि क्षण में आविर्भाव के रूप में अविद्यमान होने पर भी उपलक्षण से अर्थात् तिरोभाव रूप से अवश्य विद्यमान रहते हैं। प्रथम क्षण में जिस मृद्रव्य में मृत्पिण्डनाश और घटोत्पाद हुआ था वही मृद्रव्य द्वितीयादि समय में भी विद्यमान रहता है। इस प्रकार द्रव्य की पूर्वापर समय में एकता होने से तथा सभी समय में
685 तथा रूपइ सद्व्यवहार साधवा अनुमानादिक प्रमाण अनुसरिइं छइ ........
.... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/9 686 उत्पन्नघटइ निजद्रव्यना, उत्पत्ति नाश किम होइ रे।
सुणि ध्रुवतामा पहिला भलिया, छइ अनुगतशक्ति होइ । । ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/10
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द्रव्य का अन्वय होने से द्रव्य के रूप में उन उत्पादों और व्ययों का सम्बन्ध तिरोभावरूप से अन्य समय में भी रहता है।
प्रथमक्षणवर्ती उत्पाद और व्यय द्वितीयादि क्षण में तिरोभाव रूप से विद्यमान रहने से ही 'यह घट उत्पन्न हुआ है', 'यह घट नष्ट हुआ है' ऐसा दिखाई देता है
और व्यवहार भी किया जाता है।687 प्रथमक्षणवर्ती उत्पाद-व्यय का द्वितीय आदि समय में तिरोभाव के रूप में नहीं होने पर तो अर्थात् उत्पत्ति और नाश के बिना तो उत्पन्न और नष्ट का व्यवहार ही नहीं हो सकता है। परन्तु 'यह घट उत्पन्न हुआ है', 'यह नष्ट हुआ है' ऐसा व्यवहार होते दिखाई देता है। इसलिए प्रथम समय सम्बन्धी उत्पाद-व्यय, द्वितीयादि समय में भी अवश्य विद्यमान रहते हैं। परन्तु इसमें विशेषता इतनी है कि प्रथमसमयावच्छिान्न विशेषणवाला उत्पाद-व्यय प्रथमक्षण में ही आविर्भाव रहते हैं। द्वितीयादि समय में उनका आविर्भाव नहीं रहता है। द्वितीयादि क्षण में तो द्वितीयादि क्षण विशिष्ट उत्पाद-व्यय का ही आविर्भाव रहता है। इसलिए द्वितीयादि क्षण में इदानीमुत्पन्नः, इदानीं नष्टः ऐसा प्रयोग नहीं हो सकता है।688
जिस समय में मृत्पिण्ड से घट निर्मित होता है, उसी समय मृत्पिण्ड का नाश और घट का उत्पाद होता है। पर्यायार्थिक नय से प्रथमक्षणवर्ती इन उत्पाद और नाश का अस्तित्व मात्र प्रथमक्षणवर्ती होने पर भी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ये (प्रथमक्षणवर्ती) उत्पाद और नाश तिरोभावरूप से द्वितीयादि शेष समय में भी अन्वय रूप से रहते हैं। यदि प्रथमक्षणवर्ती उत्पाद और व्यय द्वितीयादि क्षण में तिरोभाव के रूप में नहीं रहते हैं तो द्वितीयादि क्षण में 'घट उत्पन्न हुआ', 'मृत्पिण्ड का नाश हुआ ऐसा भूतकाल विषयक बोध होगा ही नहीं।689
687 पहिला-प्रथमक्षणइं यथा, जे उत्पत्ति-नाश, ते ध्रुवतामांहि भल्या ......
..............द्रव्यगुणपर्यानोरास का टब्बा, गा. 9/10 688 'इदानीमुत्पन्नः नष्टः" इम कहिइं, तिवारइं-एतत्क्षण-विशिष्टता .... वही, 689 उत्पत्तिनाशनइ अनुगमइ, भूतादिक प्रत्यय भान रे पर्यायारथथी सवि घटइ, ते मानइ समय प्रमाण रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/11
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प्रतिसमय घटद्रव्य पुद्गलों की परावृत्ति से अर्थात् उनका पुरण एवं गलन होने से बदलता रहता है। इस कारण से घट अपूर्व–अपूर्व अवस्था के रूप में उत्पन्न होता रहता है और पूर्व-पूर्व अवस्था के रूप में नष्ट होता रहता है। इस रूप में होने वाला उत्पाद और व्यय का आविर्भाव प्रत्येक समय में रहता है। इस प्रकार प्रत्येक समय में अनंत-अनंत उत्पाद-व्यय होते रहते हैं। भूत और भावी के उत्पाद व्यय तिरोभाव के रूप में और वर्तमान के उत्पाद-व्यय आविर्भाव के रूप में विद्यमान रहते
निश्चयनय और व्यवहारनय से उत्पाद और व्यय का स्वरूप -
'कयमाणे कडे' वचन के आधार पर निश्चयनय एक ही समय में वस्तु को उत्पन्न, उत्पत्स्यमान और उत्पद्यमान के रूप में स्वीकार करता है। जिस समय वस्तु उत्पन्न होती है, उस समय वस्तु कुछ अंश से बन जाने से ‘उत्पन्न', कुछ बनने वाली होने से उत्पत्स्यमान और उत्पत्तिप्रक्रिया चालू रहने से उत्पद्यमान है। इस प्रकार निश्चय नय एक ही समय में (उत्पद्यमान समय में) तीनों काल का अन्वय करता है। इसी प्रकार अभेदप्रधान दृष्टि के कारण नष्ट होती हुई एक ही वस्तु में विवक्षित समय में नश्यति, नष्टम् और नशिष्यति इस प्रकार अभेदप्रधान दृष्टि के कारण तीनों कालों का प्रयोग करता है।690
परन्तु व्यवहारनय भेदप्रधान दृष्टिवाला होने से ‘कडमेव कडम्' वचन के आधार पर कालभेद करके वस्तु के पूर्वसमय में 'उत्पत्स्यमान', वर्तमान समय में 'उत्पद्यमान'
और भावीसमय में 'उत्पन्न' होगी, ऐसे विभक्त स्वरूप को स्वीकार करता है।91 इसी प्रकार नष्ट होती हुई वस्तु को वर्तमानकालीन समय में 'नश्यति', पूर्वकालीन शेष समय में 'नश्ष्यिति' और उत्तरकालीन समयों में 'नष्टम्' मानता है। यह नय भेदग्राही होने से भिन्न-भिन्न समय में कालत्रय का व्यवहार करता है। उत्पद्यमान समय में
690 निश्चयनयथी 'कयमाणे कडे' एव वचन अनसरीनई उत्पद्यमानं उत्पन्नं इम कहिई............द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/11 691 पणि व्यवहारनयइं "उत्पद्यते, उत्पन्नम, उत्पत्स्यते, नश्यति, नष्टम्, नङक्ष्यति" एविभक्ति कालत्रयप्रयोग होइ
.... वही, गात्र 9/11 का टब्बा
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मात्र उत्पत्ति का ही व्यवहार करता है, परन्तु उत्पत्स्यमान और उत्पन्न होगी का व्यवहार नहीं करता है। यद्यपि सामान्य रूप से व्यवहारनय निकटवर्ती भूत-भावी पर्यायों को मानता है, किन्तु यहाँ व्यवहारनय एक समयवर्ती पर्यायमात्र को ग्रहण करने वाले सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय से प्रभावित होकर अर्थात् ऋजुसूत्र नयानुगृहीत होकर विवक्षित समय में वस्तु को 'उत्पद्यते' या 'नश्यति' ही मानता है।692
अभेदग्राही निश्चयनय के अनुसार पूर्वपर्याय का नाश और उत्तरपर्याय की उत्पत्ति दोनों एक साथ और एक ही समय में होता है तथा उत्पाद और नाश भिन्न-भिन्न न होकर रूपान्तर मात्र है जबकि व्यवहारनय पूर्वसमय में नाश और उत्तरसमय में उत्पाद को मानता है। जैसे बारहवें गुणस्थान में चरमसमय में ज्ञानावरणीयादि कर्मों का नाश होता है एवं तेहरवें गुणस्थान के प्रथमसमय में केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। महापट के फटने के पश्चात् ही खंडपट की उत्पत्ति होती है। वक्रता के नाश के बाद ही अंगुली में सरलता आती है। इस नय के मत में क्रियाकाल के सर्वसमयों में कार्य अनुत्पन्न ही रहता है। निष्ठाकाल में ही कार्य की उत्पत्ति होती है। उदाहरण के लिए - मृत्पिण्ड से घट का निर्माण करने में चार घंटे लगते हैं तो चार घंटे के चरम समय के पूर्व समय तक मृत्पिण्ड का नाश ही मानता है। चतुर्थघंटे के चरम समय में ही घटोत्पत्ति को मानता है। एकान्त भेदवादी नैयायिक आदि दर्शन क्रियाकाल और निष्ठाकाल को एकान्त रूप से भिन्न-भिन्न मानते हैं। स्थूलदृष्टि से देखने से व्यवहारनय को क्रियाकाल लम्बा दिखाई देता है और निष्ठाकाल अन्तिम एक समय में ही दिखाई देता है।
जो वस्तु जिस समय जितनी प्रारम्भ होती है, वह वस्तु उस समय उतनी समाप्त भी होती है। जिस समय पट का नाश प्रारम्भ होता है उस समय पट का उतना नाश भी हो जाता है। जिस समय महापट को फाड़ने की क्रिया प्रारम्भ होती है, उसी समय उतने महापट को फाड़ने की क्रिया समाप्त भी होती है। इस प्रकार क्रियाकाल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानने पर क्रियाकाल के परिणामस्वरूप जो है,
692 ते प्रतिक्षणपर्याय-उत्पत्ति नाशवादी जे ऋजुसूत्रनय, तेणइ अनुगृहीत जे व्यवहारन.....
.... वही, गा.9/11 का टब्बा
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वह वर्तमानता है और निष्ठाकाल के परिणामस्वरूप जो है, वह अतीतता है। इन वर्तमानता और अतीतता की एक साथ विवक्षा करने पर 'नश्यति नष्टः' अर्थात् एक समय में वस्तु नाश भी हो रही है और नष्ट भी है । 'उत्पद्यते उत्पन्नः’ विवक्षित समय में वस्तु उत्पन्न भी है और उत्पन्न हो भी रही है। अतः निश्चयनय की दृष्टि से क्रियाकाल और निष्ठाकाल एक होने से अथवा प्रारंभ और समाप्ति एक साथ होने से वर्तमानता और अतीतता की भी एक साथ विवक्षा हो सकती है। इस प्रकार उत्पन्न होती हुई वस्तु को उत्पन्न और नष्ट होती हुई वस्तु को नष्ट कहने पर कोई विसंगति नहीं आती है। 693
नाश और नाश की उत्पत्ति में भेद नहीं है । क्योंकि जिस समय में नाश होता है उसी समय में नाश की कुछ उत्पत्ति भी होती है। इसके पूर्व समय तक नाश नहीं होने से नाश का प्राग्भाव होता है और नाश होते ही नाश के प्राग्भाव का ध्वंस हो जाता है अर्थात् नाश की उत्पत्ति हो जाती है। 694 ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का नाश बारहवें गुणस्थान के चरम समय में प्रारम्भ होता है और उसी चरम समय में समाप्त भी हो जाता है अर्थात् नाश और नाश की उत्पत्ति दोनों बारहवें गुणस्थान के चरमसमय में ही होता है। इतना ही नहीं केवलज्ञान की प्राप्ति भी बारहवें गुणस्थान के चरम समय में ही होता है तथा वही तेहरवें गुणस्थान का प्रथम समय भी है
,695
क्रियाकाल और निष्ठाकाल की अभिन्नता को ऐसा समझाते हुए यशोविजयजी कहते हैं कि - मृत्पिण्ड के नाश से लेकर घट की उत्पत्ति तक के सर्व समयों में जिस प्रकार पूर्वपर्याय ( मृत्पिण्ड ) का नाश पारमार्थिक है उसी प्रकार प्रतिसमय उत्तरपर्याय (घट) की उत्पत्ति भी अंश - अंश रूप से पारमार्थिक है। अन्यथा प्रतिसमय केवलनाश को मानकर उत्पत्ति को नहीं मानने पर तो कभी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । क्रियाकाल में मात्र नाश और कार्य की उत्पत्ति को निष्ठाकाल में ही
264
1693 क्रिया निष्ठापरिणारूप वर्तमानत्व - अतीत्व लेइ
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/12 694 तो व्यवहारं - उत्पत्तिक्षणसंबंधमात्र कहो तिहां प्रागभावधंसना कालत्रयथी कालत्रयणो अन्वय कहो
.. वही, गा 9 / 12 का टब्बा
695
द्रव्यगुणपर्यायनोरास - धीरजभाइ डाह्यालाल महेता, पृ. 423
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(चरम समय में ही) मानने पर पूर्वपर्याय का नाश हो जाने से तथा नवीन पर्याय की उत्पत्ति नहीं होने से द्रव्य असत् हो जायेगा और कार्य सदा अनुत्पन्न ही रहेगा।96 क्योंकि प्रतिसमय में घटपटादि कार्य की उत्पत्ति कुछ-कुछ अंश में नहीं होती है तो मात्र चरम समय में संपूर्ण कार्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? कार्य तो अनुत्पन्न ही रहेगा। इसलिए प्रतिसमय जैसे-जैसे पूर्वपर्याय का नाश होता है, वैसे-वैसे अंश-अंश के रूप में घटपटादिकार्य की उत्पत्ति भी होती है। द्रव्य के पारिणामिक स्वभाव के कारण प्रतिसमय उत्पाद और नाश होता है। ध्रुवता प्रत्यक्षरूप से अनुभवसिद्ध है। अतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत् ही द्रव्य का वास्तविक लक्षण है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने इस मत के समर्थन के लिए सन्मतिप्रकरण सूत्र की निम्न गाथा को उद्धृत किया है। यथा97
उप्पज्जमाणकालं, उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं।
दवियं पण्णवयंतो, तिकालविसयं विसेसइ।। उत्पद्यमान द्रव्य को उत्पन्न हुआ और नश्यमान द्रव्य को नष्ट और नष्ट हो रहा है- इस प्रकार कहने वाला पुरूष द्रव्य को एक ही समय में त्रिकाल के विषय रूप से विशिष्ट बनाता है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की त्रिकालिक स्थिति घटित होती है। इस गाथे के भावार्थ को पं. सुखलालजी ने मकान के उदाहरण से समझाया है। जब मकान की निर्माण क्रिया चल रही होती है, उस समय मकान संपूर्ण मकान के रूप में उत्पद्यमान है। उस मकान का जितना भाग बन गया है, उतने भाग की अपेक्षा से मकान उत्पन्न है और जितना भाग बनना शेष है उतने शेष भाग की अपेक्षा से मकान उत्पत्स्यमान है। इसी तरह ईंट आदि निर्माण के अवयवों की स्वतन्त्र सत्ता का नाश भी हो रहा है। मकान का जितना भाग निर्मित हो चुका है उसमें ईंट आदि अवयवों की स्वतन्त्र सत्ता का नाश हो गया
696 उत्पत्ति नहीं जो आगलिं, तो अनुत्पन्न ते थाइ रे
जिम नाश विना अनिष्ट छइ, पहिलां तुझ किम न सुहाई ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/18 697 सन्मतिप्रकरणसूत्र, गा. 3/37
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है और जितना भाग बनना शेष है, उसमें अवयवों की वैयक्तिक सत्ता का नाश होने वाला भी है।698
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार किसी भी क्षण द्रव्य उत्पाद आदि से रहित नहीं होता है, इस बात को सन्मतिप्रकरणसूत्र के गा. 2/35, 36 के आधार पर समझाया है।999 जब आत्मा शरीर और शरीरगत संघयण, संस्थान, अंगोपांग आदि का त्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है, उस समय भवस्थकेवलज्ञान भी संघयण आदि की तरह नष्ट हो जाता है। क्योंकि देहस्थ अवस्था में देह और आत्मप्रदेशों में क्षीर-नीरवत संबंन्ध होने से देह आदि पर्याय के नष्ट होने से उस रूप आत्मा का भी नाश हो जाता है और आत्मा केवलज्ञान रूप होने से उस दैहिक अवस्थावाला केवलज्ञान भी नष्ट होता जाता है।} सिद्धावस्था सम्बन्धी अशरीरभावना केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मुक्तिगमन के समय में भी जीवद्रव्य उत्पाद आदि त्रिलक्षणों से युक्त होता है। संसारावस्था सम्बन्धी शरीरभाववाला केवलज्ञान अर्थात् भवस्थ केवलज्ञान नष्ट हो जाता है तथा सिद्धावस्था सम्बन्धी अशरीरभाव वाला अर्थात् सिद्धस्थ केवलज्ञान उत्पन्न होता है एवं सामान्य रूप से केवलज्ञान दोनों ही स्थिति में ध्रौव्य रहता है। 01
इसी आशय से (केवलज्ञान में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित होने से} आगमशास्त्रों में केवलज्ञान के दो भेद किये हैं – भवस्थ केवलज्ञान और सिद्धस्थ
698 सन्मतिप्रकरण, पं. सुखलालजी, पृ. 82 699 जे संघयणईआ, भवत्थकेवलि विसेसपज्जाया।
ते सिज्झमाणसमये, ण होति विगयं तओ होई।। सिज्झत्तणेण य पुणो, उप्पण्णो एस अत्थपज्जाओ। केवलभावं तु पडुच्च, केवलं दाइअं सुत्ते
सन्मतिप्रकरण, गा. 2/35,36 700 एणइ भावइं भासिउं सम्मतिमांहि ए भाव रे
संघयणादिक भवभावथी, सीझंता केवल जाई रे ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/14 701 ते सिद्धपणइं वली उपजइ, केवलभावइ छइ तेह रे .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/15
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केवलज्ञान । अन्यथा क्षायिकभाववाला और सादि अनंत होने से केवलज्ञान के प्रतिभेद हो ही नहीं सकते हैं।'02
जिस समय आत्मा सर्व कर्मों को क्षय करके निर्वाण को प्राप्त करती है, उस समय सशरीर के रूप में व्यय और अशरीर के रूप में उत्पाद लोकगम्य है। परन्तु सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने के पश्चात् जन्म-मरण रूप क्रियाएं, देव नारक रूप पर्यायें, बाल-युवारूप अवस्थाएं, गुरू-लघु के रूप में रूप आदि बाह्य कोई भी परिवर्तन नहीं दिखाई देने से तथा क्षायिक भाव जन्य केवलज्ञानादि गुण भी पूर्ण होने से उनमें भी हानि-वृद्धि नहीं होने से मुक्तात्मा में उत्पाद आदि लक्षण कैसे घटित होते हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए यशोविजयजी कहते हैं -द्रव्य किसी भी अवस्था में क्यों न हो प्रतिक्षण उनमें उत्पाद आदि लक्षण निहित होते हैं। ऐसा नहीं होने पर तो द्रव्य का अस्तित्व गुण (सत्पन) ही खतरे में पड़ जायेगा।
__सिद्धात्माओं के केवलज्ञान-दर्शन रूप गुणात्मक पर्यायों में जगतवर्ती समस्त ज्ञेय पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है। प्रतिसमय जगत् के ज्ञेय पदार्थ जैसे-जैसे परिणमित होते हैं, वैसे-वैसे उन ज्ञेय पदार्थों को जानने-देखने रूप सिद्धात्माओं के केवलज्ञानदर्शन भी प्रतिसमय बदलता रहता है। इस तरह सिद्धात्माओं में भी प्रतिसमय उत्पाद–व्यय होता रहता है।03 वर्तमानकालीन, अतीतकालीन और भविष्यकालीन ज्ञान–पर्याय के रूप में उत्पाद और व्यय होता रहता है, क्योंकि प्रतिक्षण उपयोग के आश्रय से परिवर्तन आता है। यशोविजयजी ने इसके लिए व्यतिरेक शब्द का प्रयोग किया है अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप उपयोग अन्य-अन्य के अवस्थाओं में भेद को प्राप्त होता है। अतः उनमें भी भेद और अभेद दोनों ही एक साथ हैं।
.......................
द्रव्यगुणपर्यानोरास का टब्बा, गा.9/15
702 ए भाव लेइनइं "केवलनाणे दुविहे पन्नते, 703 जे ज्ञेयकारइ परिणमइ, ज्ञानादिक निजपर्याय
व्यतिरेकइ तेहथी सिद्धनइ, तियलक्षण इम पणिथाइ रे ..
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/16
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सिद्धात्माओं में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य -
मुक्तिगमन के प्रथमसमय सिद्धात्मा का केवलज्ञान-दर्शन जगतवर्ती समस्त पदार्थों को जानता और देखता है। उस समय वह जानने-देखने रूप पर्याय का वर्तमान आकार के रूप में उत्पाद होता है। जब द्वितीयक्षण आता है तब जानने-देखने रूप प्रथमक्षण की उस पर्याय का वर्तमान आकार के रूप में नाश होता है और अतीताकार के रूप में उत्पाद होता है। क्योंकि द्वितीय समय में जानने-देखने रूप जो प्रथमक्षण की पर्याय थी, वह वर्तमान न रहकर अतीत बन जाती है। इसलिए उस पर्याय का अतीताकार के रूप में उत्पाद और वर्तमान आकार के रूप में नाश होता है। तृतीयक्षण में द्वितीयक्षण की जानने-देखने रूप पर्याय का वर्तमानाकार के रूप में नाश होगा और अतीताकार के रूप में उत्पाद होगा तथा प्रथमक्षणवर्ती जानने-देखने रूप पर्याय का एक समय पूर्व अतीत पर्याय के रूप में नाश होगा और दो समय पूर्व अतीत पर्याय के रूप में उत्पाद होगा। तृतीय क्षण में जानने-देखने रूप वर्तमान पर्याय बनती है। इस प्रकार सिद्धात्माओं में भी उनके केवलज्ञान और केवलदर्शन में प्रतिसमय उत्पाद आदि तीनों लक्षण होते हैं।
उदाहरणार्थ सिद्ध परमात्मा केवलज्ञान-दर्शन में कुलाल के द्वारा मृत्पिण्ड को घट के रूप में अन्तिम आकार देते हुए जानते-देखते हैं। द्वितीय क्षण में जब पूर्ण घट निर्मित हो जाता है, उस समय प्रथमक्षण की पर्याय अर्थात घट को अन्तिम आकार देते हुए जानने-देखने रूप पर्याय का वर्तमान पर्याय के रूप में नाश और अतीत पर्याय के रूप में उत्पाद हो जाता है। तृतीयक्षण में पूर्ण घट कुलाल के हाथ से गिर जाने से उसका पुनः मृत्पिण्ड बन जाता है। इस तृतीय क्षण में द्वितीय क्षण की पर्याय अर्थात् पूर्णघट को देखने-जानने रूप पर्याय का अतीत पर्याय के रूप में उत्पाद और वर्तमान पर्याय के रूप में नाश होता है। मृत्पिण्ड को जानने-देखने रूप तृतीय क्षण की पर्याय का वर्तमान पर्याय के रूप में उत्पाद होता है। प्रथम क्षण में जो वर्तमान के रूप में जानने-देखने की पर्याय थी, वही द्वितीय क्षण में वर्तमान पर्याय के रूप नष्ट होती है और अतीतपर्याय के रूप में उत्पन्न होती है। वर्तमान
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आकार के रूप में नाश और अतीताकार के रूप में उत्पाद होने पर भी आकारी अर्थात् केवलज्ञान-दर्शन ध्रौव्य ही रहते हैं। इस प्रकार सिद्धों का केवलज्ञान और केवल दर्शन जगतवर्ती ज्ञेय के आकारों में प्रतिसमय परिवर्तित होता रहने से सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय (एक समयवर्ती पर्यायग्राही) से सिद्ध परमात्माओं में भी प्रतिसमय उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य घटित होते रहते हैं। 05
सिद्धात्माओं के निराकार गुणों जिनमें ज्ञेय का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है क्षायिकभावजन्य होने से जिनमें हानि-वृद्धि नहीं होती है जो सदा स्थिर और एक समान दिखाई देते हैं ऐसे सम्यकत्व, अनंतवीर्य, अनंतचारित्र इत्यादि में भी उत्पाद आदि विलक्षण समय-समय के सम्बन्ध से घटित होते हैं।06
प्रथमसमयावच्छिन्नगुण, द्विसमयावच्छिन्नगुण, त्रिसमयावच्छिन्नगुण इत्यादि के रूप में इन गुणों में भी काल के सम्बन्ध से प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है। सिद्धावस्था प्राप्ति के प्रथमसमय में जो क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुण होते हैं, उनका अस्तित्व उस समय प्रथमसमयावच्छिन्न के रूप में होता है। द्वितीय समय में क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुणों का अस्तित्व प्रथमसमयावछिन्न नहीं रहता है। क्योंकि द्वितीय समय में प्रथमसमयावच्छिन्न गुणों को सिद्धात्मा में रहते हुए एक समय व्यतीत हो जाने से वे क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुण द्वितीय समय में द्वितीयसमयावच्छिन्न बन जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सिद्धावस्था प्राप्ति के द्वितीय समय में क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुणों का प्रथमसमयावच्छिन्न के रूप में व्यय और द्वितीयसमयावच्छिन्न के रूप में उत्पाद होता है। प्रथमसमयावच्छिन्न और द्वितीयसमयावच्छिन्न ऐसा विशेषण रहित विचार करने पर क्षायिक सम्यकत्व आदि
704 प्रथमादिसमइं-वर्तमानकार छइं, तेहनो द्वितीयादिक्षणइं नाश,
अतीताकाराइं उत्पाद, आकारभावई केवलज्ञान, केवलदर्शनभावइं केवल मात्र भावइं ध्रुव, इम भावना करवी ..........
.......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा.9/16 705 जे ज्ञानादिक-केवलज्ञान केवलदर्शन, निज पर्यायइं, ज्ञेयाकाराई वर्तमानादिविषयाकारइं परिणमइ ...
....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा.9/16 706 इम जे पर्याय परिणमइ, क्षणसंबंध छड पणि भाव रे
तीथी तियलक्षण संभवइ, नहीं तो ते थाइ अभाव रे ......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/17
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गुण सदा ध्रौव्यरूप में ही रहते हैं। इस प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतवीर्य, अनंतचारित्र आदि गुणात्मक पर्यायों में भी प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण घटित होते हैं।
किसी भी पदार्थ या उसके गुणों में त्रिलक्षण को अस्वीकार करने पर वस्तु शशशृंग, आकाशकुसुम या वंध्यापुत्र की तरह अभाव रूप ही हो जायेगी। क्योंकि उत्पाद आदि त्रिलक्षण के योग से ही वस्तु सत् बनती है। 08
जीवादि षड़द्रव्यों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य -
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य परमार्थिक द्रव्य हैं तथा काल औपचारिक द्रव्य है। इन छओं द्रव्यों में प्रतिसमय अनेक प्रकार से उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य घटित होते रहते हैं। व्यवहार नय की अपेक्षा से जीव और पुद्गल परिणामी हैं। भिन्न-भिन्न द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव के संयोग से इन दोनों द्रव्यों में उस-उस रूप में परिणमन होता है। उदाहरणार्थ - मनुष्य मरकर देव बनने पर उसका देह ही नहीं बदलता अपितु जीवद्रव्य भी उस रूप में परिणमित होता है। अन्नभक्षी, व्यक्तवाणीवाला और विवेकशील मनुष्य मरकर देव बनने पर लोमाहारी, अव्यक्तवाणीवाला, अवधिज्ञानी बन जाता है। देवायुष्य पूर्ण कर पशु बनने पर तृणभक्षी, अस्पष्टवाणीवाला, अविवेकशील बन जाता है। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अन्य द्रव्यादि का निमित्त पाकर उस रूप में परिणमित होता है। कीचड़ में गिरा हुआ हलवा भी कीचड़ की तरह हो जाता है। स्वपर्यायों से ही उत्पाद-व्यय वाले होते
हैं।
707 द्वितीय क्षणइं भाव-आद्यक्षणइं संबंध-परिणामइं नाश पाम्यो .......... वही, गा. 9/17 का टब्बा 708 नही तो ते वस्तु अभाव थइ जइ, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य योग ज भाव लक्षण छ........... वही, गा. 9/17 का टब्बा 709 इम निजपर्यायइ जीव पुद्गलनइं ........................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/18
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धर्म, अधर्म, आकाश आदि द्रव्य व्यवहार नय से अपरिणामी और निश्चय नय से परिणामी है। इसका तात्पर्य यह है कि धर्मास्तिकाय आदि तीन द्रव्य जीव, पुद्गल की तरह परद्रव्यों का संयोग पाकर परभाव में परिणमित नहीं होते हैं। परन्तु अवगाहना, गति, स्थिति आदि करने वाले जीव, पुद्गल के परिणमन के आधार पर उनमें सहायक बनने के रूप में धर्म आदि तीन द्रव्यों में भी परिणमन होता है।
आकाश में चाहे सुगन्धित पदार्थ हो चाहे असुगन्धित पदार्थ हो, चाहे मनुष्य निवास करे या पशु, परन्तु आकाश जैसे का जैसा रहता है। आकाश उन-उन भावों में परिणमित नहीं होता है। परन्तु आकाश में अवकाश लेने वाले जीव, पुद्गल आदि जैसे-जैसे बदलते हैं, वैसे-वैसे आकाश भी उनको अवकाश देने में सहायक बनने के रूप में बदलता है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश परद्रव्य के संयोग से उत्पाद-व्यय वाले बनते हैं। एक ही समय में गति, स्थिति और अवकाश करने वाले अनंत जीव और अनंत पुद्गल द्रव्यों के आधार पर इन तीनों द्रव्यों में भी उन जीव, पुद्गल द्रव्यों के गति, स्थिति और अवकाश में सहायक बनने के रूप में अर्थात् परप्रत्यायिक के रूप में उत्पाद और व्यय होते हैं।10
___ इस प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य के व्यवहारनय से परिणार्मी होने से प्रतिसमय परिणमित होने के रूप में स्वद्रव्यनिमित्तक जितनी पर्यायें होती हैं, उतने उत्पाद और व्यय होते हैं तथा धर्म, अधर्म और आकाश व्यवहारनय से अपरिणामी होने पर भी परद्रव्यनिमित्तक जितनी पर्यायें होती हैं उतने ही उत्पाद और व्यय उनमें भी होते हैं। संक्षेप में पांचों द्रव्यों में स्वद्रव्य और परनिमित्तक अनन्त पर्यायें होने से उत्पाद और व्यय भी अनंत होते हैं। उत्पाद और व्यय के अनंत होने पर पूर्वापर पर्यायों में अन्वय के रूप में अथवा आधारांश बनने के रूप में ध्रौव्य भी अनंत हैं।11
710 तथा परपर्यायइं आकाश धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये 3 द्रवयनइं ऐककालई घणाई संबंधइ-बहुप्रकार उत्पत्ति नाश संभवइ ...
.. वही. 711 निज पर पर्याय एकदा. बहसंबंधड बह रूप रे
उत्पत्ति नाश इम संभवइ, नियमइ तिहां ध्रौव्य स्वरूप रे .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/18
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अतः प्रतिसमय प्रत्येक जीवादि द्रव्य में अनंत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य हैं। इस संदर्भ में यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरणसूत्र की एक गाथा भी उद्धृत की है।
एगसमयम्मि एगदवियस्स, बहुआ वि होंति उप्पाया उप्पायसमा विगमा, ठिइ उ उस्सग्गओ णियमा 712
—
उत्पाद, व्यय के भेद और प्रभेद
महोपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों को अत्यधिक विस्तार से प्रतिपादन करने के बाद उत्पाद और व्यय के भेदों की चर्चा भी सन्मति सूत्र के आधार पर सूक्ष्मदृष्टि से की है। नैयायिक आदि ईश्वरवादी दर्शनों के अनुसार प्राणी के प्रयत्न से अथवा अप्रयत्न से होने वाले समस्त उत्पाद और व्यय ईश्वराधीन होने से ईश्वरप्रयत्नजन्य है । ईश्वरवादियों की इन मान्यताओं के विपरीत जैनदर्शन की मान्यताओं को सूचित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं सभी उत्पाद और विनाश प्रयत्नजन्य नहीं होते हैं । उत्पाद दो प्रकार का होता है । प्रयत्नजन्य अर्थात् प्रयोगज तथा अप्रयत्नजन्य अर्थात् विस्रसा। 713
712 सन्मतिप्रकरण सूत्र, गा. 3 / 41
713 द्विविध प्रयोगज वीससा, उत्पाद प्रथम अविशुद्ध रे
था
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—
अ. प्रयोगज उत्पाद :
प्राणी के प्रयत्न से होने वाले उत्पाद को प्रयोगज उत्पाद कहा जाता है। मिट्टी से घट तथा तन्तु से पट का उत्पाद कुंभकार आदि के प्रयत्न से होता है। यह प्रयोगज उत्पाद है। यह उत्पाद नियम से समुदाय में ही होता है। मिट्टी के अनेक बिखरे हुए कणों के एकत्र होने पर ही घट का निर्माण होता है। जहाँ अनेक प्रदेश (कण) कारण होते हैं वहाँ इस नियत प्रदेश का ही यह कार्य (घट) है, ऐसा नहीं
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9 / 19
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कहा जाता है। इस प्रकार अनेक प्रदेशजन्य उत्पाद होने से इसे अशुद्ध उत्पाद कहा जाता है। 714 सन्मतिसूत्र में भी प्रयोगज उत्पाद को लगभग ऐसा ही व्याख्यायित किया गया है | 715
ब. विस्रसा :
किसी के प्रयत्न के बिना स्वाभाविक रूप से होने वाले उत्पाद को विस्रसा उत्पाद कहा जाता है। जैसे बादल। यह विस्रसा उत्पाद समुदायजनित विस्रसा उत्पाद और ऐकत्विक विस्रसा उत्पाद के रूप में दो प्रकार का होता है | 716 सन्मतिप्रकरण में भी विस्रसा उत्पाद के यही दो भेद किये हैं।717
1.
समुदायजनित विसा उत्पाद
पाँच, पच्चीस, संख्यात, असंख्यात् और अनंतप्रदेशों का स्वतः संयोग होने से जो उत्पाद होता है, वह समुदायजनित विस्रसा उत्पाद है। जैसे- बादल, इन्द्रधनुष, पर्वत आदि । किसी भी कर्त्ता के किसी भी प्रकार के प्रयत्न के बिना सहजरूप से पुद्गल स्कन्धों के पिंडीभूत होने से अर्थात् अलग-अलग रहनेवाले अवयवों के मिल जाने से इन पदार्थों का उत्पाद होता है । अतः यह उत्पाद समुदायजनित विस्रसा उत्पाद है। पुनः इस उत्पाद को यशोविजयजी ने तीन प्रकार का बताया है -
-
714 पहिलो उत्पाद ते व्यवहारनो छइ ते माटइं अविशुद्ध कहिइं, ते निर्द्धार समुदायवादनो तथा यतन करी अवयव संयोगइं सिद्ध कहिइं
715 उपाओ दुविअप्पो, पओगजणिओ अ वीससा चेव तत्व य पओगजणिओ, समुदयवाओ अपरिभुद्धे 716 सहजइ थाइ, ते वीससा, समुदय एकत्व प्रकार रे 717 साहाविओवि समुदायकओव्व एगत्तिओव्व होजाहि
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/19
सन्मतिप्रकरण सूत्र गा. 3 / 32
• द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/20 सन्मतिप्रकरण सूत्र, गा. 3 / 33
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(i) अचित समुदायजनित विनसा उत्पाद :
बादल, बिजली आदि अचितस्कन्धों का जो उत्पाद है, वह अचित समुदायजनित विस्रसा उत्पाद है। ये उत्पाद बिना किसी प्रयत्न से स्वतः होने
से विस्रसा उत्पाद कहलाता है। (ii) सचित समुदायजनित विससा उत्पाद :
शरीर की रचना सचित समुदायजनित विस्रसा उत्पाद है। जीवकृत रचना होने से तथा अप्रयत्नजन्य होने से यह उत्पाद सचित समुदाय जनित विस्रसा
उत्पाद कहलाता है। (ii) मिश्र समुदायजनित विनसा उत्पाद :
शरीर के वर्णादि की उत्पत्ति मिश्र समुदायजनित विनसा उत्पाद है। जीव सम्बन्धी नामकर्म का उदय एवं शरीर सम्बन्धी पुद्गलों का पारिणामिक स्वभाव इन दो उभय कारणों से जनित होने से वर्णादि का उत्पाद मिश्र समुदायजनित विस्रसा उत्पाद कहलाता है।
2. ऐकत्विक विनसा उत्पाद -
जो उत्पाद दो द्रव्यों के विभाग से होता है, वह ऐकत्विक समुदायजनित विस्रसा उत्पाद कहलाता है। बिना किसी संयोग से अर्थात् स्वतन्त्र द्रव्य में होने वाला उत्पाद ऐकत्विक विनसा उत्पाद है। इसे यशोविजयजी ने उदाहरणों से समझाया है।18
पुद्गलास्तिकाय द्रव्य के द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी स्कन्धों का विघटन होने से एकैक प्रदेश अलग-अलग होकर परमाणुस्वरूप बन जाते हैं। यह ऐकत्विक
718 संयोग विना एकत्वनो, ते द्रव्य विभागइ सिद्ध रे जिम खंध विभागइ अणु पणु, वली कर्म विभागइ सिद्ध रे .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/21
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विनसा उत्पाद का उदाहरण है।19 इसी प्रकार काँच का प्याला टूट जाने पर एक-एक खंड के रूप में काँच खण्डों का उत्पाद होना भी ऐकत्विक विश्रसा उत्पाद है। प्रदेश विभागजन्य यह ऐकत्विक उत्पाद पुद्गल द्रव्यों में ही होता है। क्योंकि स्कन्ध, प्रदेश का विघटन पुद्गलास्तिकाय में ही संभव हो सकता है। अन्य जीवादि द्रव्य अखण्ड द्रव्य होने से उनके प्रदेशों का विघटन कदापि संभव नहीं है।
जीव और कर्म के अनादि संयोग का वियोग होने से सिद्धावस्था का उत्पाद भी ऐकत्विक विस्रसा उत्पाद है। 20 अनादिकालीन संयोग के कारण जीव और कर्म लोहाग्नि की तरह एकमेव बन जाते हैं। परन्तु जीव जब मुक्तावस्था को प्राप्त होता है, उस समय जीव और कर्म के अनादिकालीन संयोग का वियोग होकर दोनों अलग-अलग हो जाते हैं तथा जीव की सिद्धावस्था का उत्पाद होता है। जीवद्रव्य का सिद्ध के रूप में अर्थात् कर्म से स्वतन्त्र अवस्था के रूप उत्पाद होने से यह ऐकत्विक विनसा उत्पाद है।
_इस प्रकार अवयवों के संयोग से होने वाला अप्रयत्नजन्य उत्पाद समुदायजनित विस्रसा उत्पाद है तथा अवयवों के वियोग से होने वाला अप्रयत्नजन्य उत्पाद ऐकत्विक विस्रसा उत्पाद है अर्थात् अलग-अलग होकर एक-एक के रूप में उत्पाद होना ऐकत्विक विस्रसा उत्पाद है।
नैयायिक दर्शनकारों ने अवयवों के संयोग से होने वाले उत्पाद को ही मान्यता दी है। उनके अनुसार विभाग से उत्पत्ति होती नहीं है, अपितु किसी भी महास्कन्ध का पहले आपरमाण्वन्त भंग होता है। उसके पश्चात् अणुओं के संयोग से महाद्रव्य की उत्पत्ति होती है। परन्तु सीधे विभाग से उत्पाद नहीं होता है। संयोग के कारण ही द्रव्य की सत्ता होती है। महापट के विभाग से खंडपट होने पर खंडपट की सत्ता विभाग के कारण नहीं है, किन्तु तन्तुओं के संयोग के कारण है। पुनः विभाग होने में
719 जिम द्विप्रदेशादिक स्कन्ध विभागई अणुपणु कहतां परमाणु द्रव्यनो उत्पाद
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/21 720 तथा कर्मविभागडं सिद्धपर्यायनो उत्पाद
............... वही.
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भी निमित्त के रूप में कोई न कोई संयोग अवश्य रहता है। परन्तु सिद्धसेन आदि जैन दार्शनिकों का कहना है कि उत्पाद संयोग और वियोग दोनों से होता है। जैसे द्वयणुक और एक परमाणु के संयोग से त्र्यणुक का उत्पाद होता है वैसे ही त्र्यणुक के विभक्त होने से परमाणु का उत्पाद होता है। 21
जीव और पुद्गल द्रव्यों में उत्पाद के प्रकारों का स्पष्टीकरण करने के पश्चात् यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय में उत्पाद के प्रकारों की चर्चा की है। क्योंकि धर्म आदि भी द्रव्य (सत्) होने से उत्पाद आदि लक्षण तो होंगे ही और उत्पाद आदि लक्षण होने से उनके प्रकार भी अवश्य होंगे ही।
धर्म, अधर्म और आकाश इन द्रव्यों में गति, स्थिति और अवकाश करने वाले जीव तथा पुद्गलों को सहायक बनने के रूप में जो उत्पाद होता है वह ऐकत्विक विनसा उत्पाद है। इन द्रव्यों में गतिभाव के रूप में, स्थितिभाव के रूप में तथा अवगाहकभाव के रूप में परिणत जीव और पुद्गलों का संयोग रूप उत्पाद होता है। यह संयोग पूर्वकाल में नहीं था। जैसे ही जीव–पुदगल द्रव्यों गति आदि भाव के रूप में परिणत होने पर धर्म आदि का जीव–पुद्गल के गति आदि में सहायक बनने के रूप में संयोग होता है। इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों के साथ जीव-पुद्गल द्रव्यों का असंयुक्तावस्था के नाशपूर्वक संयुक्तावस्था के रूप में उत्पाद होता है। यहाँ द्रष्टव्य है कि धर्म आदि अखण्ड और एक द्रव्यों के साथ जीव-पुद्गलों का (इन द्रव्यों के गति आदि में सहायक बनने से) जो संयोग होता है, वह संयोग मृत्पिण्ड की तरह स्कन्ध रूप न होकर राइदानों के समूह की तरह मात्र संयोग रूप ही होता है।723 इस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय के साथ जीव-पुद्गल
721 दव्वंतरसंजोगहि, केई दवियस्स विंती उप्पायं
उप्पायत्थाऽकुसला, विभागजायं ण इच्छन्ति अणु दुअणुएहिं दव्वे आरद्धे ति अणुअं ति ववएसो
तत्तो अ पूण विभत्तो, 'अणु' ति जाओ अणू होई ... 722 विण खंध हेतु संयोग ज, पर संयोगइं उत्पाद रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.9/22 723 जिम परमाणुनो उत्पाद एकत्वज, तिम जेणइं संयोगईं स्कंध न नीपजइं
............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/22
सन्मतिसूत्र गा. 3/38,39
३ .......
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द्रव्यों का संयोग पूर्व-पूर्व समय में नहीं होने से एवं उत्तर - उत्तर समय में संयोग होने से धर्मादि के साथ जीव- पुद्गलों की संयुक्तावस्था रूप उत्पाद ऐकत्विक उत्पाद है। यह ऐकत्विक उत्पाद अप्रयत्नजन्य होने से विस्रसा उत्पाद है।
ऋजुसूत्रनय मान्य प्रतिक्षणवर्ती पर्यायों के आधार पर जो उत्पाद होता है, वह भी ऐकत्विक उत्पाद है। जैसे कि जीवद्रव्य में क्षयोपशमिक, औदायिक और पारिणमिक भाव प्रतिसमय बदलते रहते हैं । एतदर्थ जीवद्रव्य प्रथम समय में जैसे ज्ञानादि गुण और रागादि दोष भाववाला था, वैसे भाववाला द्वितीय समय में नहीं रहता है। इस प्रकार प्रथमसमयावच्छिन्न, द्वितीयसमयावच्छिन्न द्रव्य इत्यादि व्यवहार करने में कारणभूत पर्यायों के आधार पर जो उत्पाद होता है वह भी ऐकत्विक उत्पाद है | 724 केवल जीवद्रव्य के उत्पाद ही नहीं, अपितु धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों के क्षणवर्ती पर्यायों का उत्पाद भी ऐकत्विक उत्पाद ही है ।
प्रयोगज
(नियम से समुदायजनित और अशुद्ध )
उत्पाद
सचित
समुदायजनित
अचित
विस्रसा
724 तथा ऋजुसूत्रनयाभिमत जे क्षणिकपर्याय, प्रथम द्वितीयसमयादि द्रव्य व्यवहार हेतु, तद्द्वारई उत्पाद, ते सर्व एकत्व ज जाणवो
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मिश्र
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ऐकत्विक
वही, गा. 9/22
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नाश के प्रकार :
वस्तु प्रतिसमय परिणमनशील है। प्रतिसमय पूर्व-पूर्व पर्यायों का नाश होता रहता है और नवीन-नवीन पर्यायों का उत्पाद होता रहता है। इस कारण से उत्पाद की तरह नाश भी रूपान्तरनाश और अर्थान्तरनाश के रूप में दो प्रकार का होता
है। 25
1. रूपान्तरनाश :
द्रव्य के पूर्व अवस्था का नाश होकर नवीन अवस्था को प्राप्त करना रूपान्तरनाश है। द्रव्यार्थिक नय के अनुसार जीव, पुद्गल आदि किसी भी द्रव्य का सर्वथानाश नहीं होता है, अपितु कथंचित् रूपान्तर मात्र होता है।26 द्रव्य की एक अवस्था का दूसरी अवस्था के रूप में रूपान्तरमात्र होता है। यशोविजयजी ने इस रूपान्तर नाश को समझाने के लिए अंधकार और प्रकाश का उदाहरण दिया है। 27 सूर्योदय होने पर अंधकार, उद्योत के रूप में बदल जाता है। इस प्रकार अंधकार, उद्योत के रूप रूपान्तर अवस्था को प्राप्त हो जाने से अंधकार का नाश, रूपान्तर नाश कहलाता है। क्योंकि अंधकारमय पुद्गल द्रव्य, उद्योतमय पुद्गलद्रव्य के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में वे पुद्गल कण सूर्य के प्रकाश से परावर्तित होकर चमकने लगते हैं। जैसे रेडियम प्रकाश का संयोग होने पर स्वयं प्रकाशित हो चमकता है। परन्तु पुद्गल द्रव्य तो वही का वही रहता है। केवल पुद्गल द्रव्य के अंधकार रूप पर्याय का उद्योत रूप पर्याय के रूप में रूपान्तर होता है। पुद्गल द्रव्य का सर्वथा नाश नहीं होता है। घट के फूटने पर कपाल, अखण्ड पट को फाड़ने पर खण्डपट, दूध में खटाश डालने से दही का बनना, इत्यादि रूपान्तर नाश के ही उदाहरण हैं।
725 द्विविध नाश पणि जाणिइं, एक रूपांतर परिणाम रे अर्थान्तरभावगमनवली, बीजो प्रकार अभिराम रे .... ..............................
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/24 726 कथंचित् 'सत्' रूपान्तर पामइं, सर्वथा विणसई नहीं .... .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/24
.... 727 अंधकारनइ उद्योतता, रूपान्तरनो परिणाम रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/25
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2. अर्थान्तरनाश :
संयोग या विभाग के द्वारा मूलभूत द्रव्य का ही बदल जाना अर्थान्तरनाश कहलाता है। पर्यायार्थिकनय के अनुसार पर्याय ही बदलती है परन्तु द्रव्य तो वैसा का वैसा ध्रुव रहता है, ऐसा नहीं है। पर्याय के बदलने पर द्रव्य भी पूर्व पर्याय के रूप में नष्ट होता है और उत्तर पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है।28 इस अर्थान्तरनाश को समझाने के लिए यशोविजयजी ने अणु का उदाहरण दिया है। 29 एक परमाणु का दूसरे परमाणु से संयोग होने पर द्विप्रदेशी स्कन्ध का उत्पाद होता है। जब द्वयणुक बनता है उस समय अणु का अणुद्रव्यत्व ही नहीं रहता है। अणु रूप मूल द्रव्य का ही नाश हो जाने से यह अर्थान्तरनाश कहलाता है।
इसका आशय कदापि यह नहीं है कि द्रव्य का सर्वथा नाश हो जाता है या एक द्रव्य अन्य द्रव्य के रूप में बदल जाता है। जीव, अजीव के रूप में कभी भी नहीं बदलता है। किसी भी द्रव्य का अर्थान्तर नही होता हैं एक अणु का दूसरे अणु के साथ संयोग होने पर अणुता का नाश होता है और स्कन्ध का उत्पाद होता है। यह भी पुद्गल द्रव्य का अणु से स्कन्ध के रूप में रूपान्तर ही है। परन्तु संयोगजन्य, विभागजन्य या उभयजन्य नाश आदि रूपान्तरनाश होने पर भी व्यवहार से या स्थूलदृष्टि से ऐसा लगता है कि जैसे कोई नवीन द्रव्य का उत्पाद हुआ हो और पूर्व द्रव्य का नाश हुआ हो। इसी बात को समझाने के लिए ही नाश के रूपान्तरनाश और अर्थान्तरनाश दो भेद किये हैं।30 देवदत्त के बाल, युवा और वृद्धावस्था स्वरूप पर्यायों का बदलना रूपान्तर नाश कहा जाता है और देवदत्त की मृत्यु के बाद देवपर्याय को प्राप्त करना अर्थान्तर नाश कहलाता है। यहाँ देवदत्त का मनुष्य पर्याय से देवपर्याय के रूप में पर्यायान्तर होने पर भी जैसे द्रव्य बदल गया
728 पूर्व सत् पर्यायई विणसइ, उत्तर असत् पर्यायइं उपजइ ते पर्यायार्थिक नयनो परिणाम कहिओ ..
...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/24 729 अणुनइ अणु अंतर संक्रमइ, अर्थान्तरगतिनो ठाम रे .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/25 730 अणनइ छइं यद्यपि खंधता, रूपान्तर अणु संबंध रे
संयोग विभागादिक थकी, तो पणि ऐ ऐ भेद प्रबंध रे।। ........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/26
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हो ऐसा प्रतीत होता है । इसलिए यह अर्थान्तर नाश है | 731 पुद्गल द्रव्य में वर्णादि गुणधर्म का बदलना रूपान्तरनाश है और अणुओं का संयोग-वियोग होना अर्थान्तरनाश है। नाश के ये दो भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के आधार पर किये गये हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि सभी द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों में रूपान्तरित मात्र होते हैं ।
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'सन्मतिप्रकरणसूत्र' के आधार पर नाश के अन्य प्रकार से भी दो भेद किये हैं । समुदायजनित नाश, समुदायविभाग और अर्थान्तरगमन के रूप में दो प्रकार का होता है। 732
1. समुदायविभाग नाश :
समुदाय के भंग हो जाने से अंशों का अलग-अलग हो जाना सामुदायिक विभाग नाश है। इसका प्रायोगिक दृष्टान्त है पट से तन्तुओं का अलग हो जाना। 733 अनेक तन्तुओं से निर्मित पट से एक - एक तन्तु को खींचने पर पट का नाश हो जाता है अर्थात् समुदायरूप तन्तुओं का विभाग होने से पट का नाश हो जाना सामुदायिक विभाग नाश है। इसका वैस्रसिक दृष्टान्त है बिना प्रयत्न से बादलों का बिखर जाना ।
2. अर्थान्तरगमन :
अवयवों का विभाग हुए बिना ही द्रव्य का एक स्वरूप से अन्य स्वरूप में इस प्रकार बदल जाना जैसे द्रव्य ही बदल गया हो, यह अर्थान्तरगमन विनाश है। इसका
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 463
732 विगमस्स वि एस विही, समुदयजणियम्मि सो 3 दुविअप्पो समुदयविभागमित्तं, अत्यंतरभावगमणं च
731
280
733 ते समुदय विभाग अनइं अथन्तिरगमन ए 2 प्रकार ठहराइ, पहलो तंतुपर्यन्त पटनाश
सन्मतिप्रकरण सूत्र, गा. 3 / 34
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/26
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प्रायोगिक उदाहरण है- मृत्पिण्ड से घट की उत्पत्ति । मिट्टी के मृत्पिण्ड स्वरूप आकार का नाश होने पर ही घट स्वरूप आकार का उत्पाद होता है। 734 यहाँ मृत्पिण्ड का नाश अर्थान्तरगमन नाश है। इसका वैस्रसिक दृष्टान्त है - बिना प्रयत्न से बरफ का पानी बन जाना ।
उत्पाद और नाश की तरह ध्रुवभाव भी स्थूलध्रुवभाव और सूक्ष्मधुवभाव के रूप में दो प्रकार का होता है। 735
1. स्थूल ध्रुवभाव :
736
स्थायी ध्रुवभाव स्थूल ध्रुवभाव कहलाता है। जो पर्याय जितने काल तक स्थिर रहती है उतने काल प्रमाण ध्रुवभाव, स्थूलध्रुवभाव होता है। जैसे जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक मनुष्यादि पर्याय का स्थिर रहना स्थूल ध्रुवभाव है। यद्यपि मनुष्य आदि भाव भी पर्यायरूप होने से प्रतिसमय बदलते रहते हैं अर्थात् उत्पाद-नाश वाले होते हैं, फिर भी स्थूलबुद्धि से एक निश्चित समय तक मनुष्यादि पर्याय स्थिर रहती है, ऐसा ज्ञात होता है। यह नियतकाल प्रमाण ध्रुवता ही स्थूलध्रुवभाव कहलाती है। ऋजुसूत्र नय वर्तमानग्राही होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी के रूप में जीव की वर्तमानकालीन पर्यायों की ध्रुवता को मानता है । अतः परिमित कालस्थायी पर्यायों के कालप्रमाण का ध्रुवभाव स्थूल ध्रुवभाव होता है ।
281
2. सूक्ष्मधुवभाव :
ध्रुवभाव के इस भेद की व्याख्या संग्रहनय के अनुसार की गई है । द्रव्य का जो ध्रुवभाव तीनों काल में व्याप्त रहता है, वह सूक्ष्म ध्रुवभाव कहलाता है। जैसे
734 बीजो घटोत्पत्तिं मृत्पिंडनाश जाणवो,
735 ध्रुवभाव थूल ऋजुसूत्रनो, पर्यायसमय अनुसार रे, संग्रहनो तेह त्रिकालनो, निज द्रव्य जाति निरधार रे,
736 पहलो - स्थूल ऋजुसूत्र नयनइं अनुसारइं मनुष्यादिक पर्याय, समय मान जाणवो,
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/27
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/27
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा.9/27
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जीवद्रव्य का जीवद्रव्य के रूप में ध्रुवभाव, पुद्गल द्रव्य का पुद्गलद्रव्य के रूप में ध्रुवभाव, त्रैकालिक ध्रुवभाव होने से सूक्ष्म ध्रुवभाव कहलाता है। दूसरे शब्दों में यावत्कालस्थायी ध्रुवत्व सूक्ष्मध्रुवभाव है।
द्रव्य का त्रैकालिक ध्रुवभाव अपनी-अपनी जाति के आधार पर होता है। जीवद्रव्य के गुण-पर्यायों में जीवद्रव्य का अन्वय ही त्रैकालिक ध्रौव्य है। इस प्रकार पाँचों द्रव्य अनादि-द्रव्य होने से सदा सूक्ष्म ध्रुवभाव वाले होते हैं।
द्रव्य के गुण :
द्रव्य की परिभाषा में द्रव्य को गुण और पर्यायवाला कहा गया है। 38 उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहा है। 39 सहभावी से तात्पर्य है सदा द्रव्य के साथ रहने वाले धर्म। जब तक द्रव्य रहता है, तब तक सदा द्रव्य के साथ ही रहने वाले धर्म को गुण के नाम से अभिहित किया गया है।40 गुण का सामान्य अर्थ है-शक्ति । प्रत्येक द्रव्य में चेतनादि अनेक शक्तियाँ होती हैं। बाह्य कार्यों से हम उन शक्तियों का अनुमान लगाते हैं। इन शक्तियों को ही गुण संज्ञा दी गई है। जैसे जीवद्रव्य का गुण उपयोग है, पुद्गलद्रव्य का गुण पूरण-गलन है। धर्मास्तिकाय का गतिहेतुता, अधर्मास्तिकाय का स्थिति हेतुता, आकाशद्रव्य का अवगाहनहेतुता और कालद्रव्य का वर्तनाहेतुता गुण है।41 भिन्न-भिन्न द्रव्य के भिन्न-भिन्न विशेष गुण हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरूलघुत्व ये छह गुण सभी द्रव्यों के सामान्य गुण है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य
737 बीजो-संग्रह ऋजुसूत्र नयनई संमत, ते त्रिकाल व्यापक जाणवो पणि जीव-पुद्गलादिक निज द्रव्यजाति
... वही. 738 गुणपर्यायवत् द्रव्यम्
..................
.... तत्वार्थसूत्र, 5/37 739 धरम कहीजइ गुण सहभावी ............................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 740 जैन तत्त्वविद्या, – मुनि प्रमाणसागर, पृ. 226 741 जिम-जीवनो उपयोगगुण, पुद्गलनोग्रहणगुण .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 2/2
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सामान्य और विशेष गुणों का पिण्ड या समुदाय है।42 जैसे जीव द्रव्य अस्तित्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुणों का तथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि विशेष गुणों का अखण्ड पिण्ड है। द्रव्य के बिना गुण का अस्तित्व नहीं होता है। उसी प्रकार गुण के अभाव में द्रव्य की भी कोई सत्ता नहीं रह सकती है। कोई भी गुण अपने द्रव्य से पृथक् उपलब्ध नहीं होता है। गुण सदैव अपने से अविनाभावी द्रव्य से अभिन्न रहता
__गुण अन्वयी होते हैं। द्रव्य के मूलशक्ति (गुण) का नाश कभी नहीं होता है। जैसे जीव का ज्ञान गुण सदा ज्ञान ही बना रहता है, वह कभी अज्ञान में नहीं बदलता है। परन्तु जो ज्ञान प्रथम समय में रहता है वही दूसरे समय में नहीं रहता है। दूसरे समय में वह अन्य प्रकार का हो जाता है अर्थात् अवस्थान्तर हो जाता है। द्रव्य का प्रत्येक गुण अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए भी प्रतिक्षण अन्य अन्य अवस्थाओं को प्राप्त होता रहता है। गुणों की इन अवस्थाओं का नाम ही पर्याय है। उदाहरणार्थ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आम्रफल के गुण हैं। ये गुण आम्रफल में सदा पाये जाते हैं। परन्तु ये रूपादि गुण सदा एक से नहीं रहते हैं। प्रतिसमय बदलते रहते हैं। आम्रफल का रंग बदलकर हरे से पीला या काला हो जाता है। उसका स्वाद खट्टे से मीठा अथवा कसैला हो जाता है। गंध में भी परिवर्तन होता है। स्पर्श बदलकर कठोर से मृदु हो जाता है। इस तरह प्रत्येक द्रव्य के गुणों की अवस्था में प्रतिक्षण प्रतिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन ही पर्याय कहलाता है। गुण परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वरूप से नष्ट नहीं होते हैं। उनकी धारा अविच्छिन्न रहती है। यही गुण की स्थिरता है जो नित्यता की सूचक है। गुण ही द्रव्य के ध्रौव्य पक्ष को बनाये रखता है। इसलिए गुण को अन्वयी कहा जाता है। 43
इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण रहते हैं। वे सभी द्रव्य में आश्रित होकर रहते हैं। उमास्वाति ने गुण को परिभाषित करते हुए यही कहा है - जो द्रव्य के
742 गुण समुदायो द्रव्यमिति । ........
सर्वार्थसिद्धि,5/2 743 अनेकान्ताव्मस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेष गुणाः ............... पंचास्तिकाय, गा. 10 की टीका
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आश्रय में रहते हैं तथा गुणरहित होते हैं, वे गुण हैं।44 गुणों में पुनः गुणों को स्वीकार करने पर अनवस्था दोष उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए द्रव्यनिष्ठ गुण निर्गुण ही होते हैं।
___ द्रव्य के समस्त गुण सदा भिन्न-भिन्न रहते हैं। उनकी अपनी-अपनी पृथक् सत्ता है। एक गुण अपने से भिन्न अन्य गुण के रूप में कभी परिवर्तित नहीं होता है। चेतना गुण रूपादि के रूप में या ज्ञानगुण दर्शनादिगुणों के रूप में परिवर्तित नहीं होता है। 45 चेतनागुण, चेतनागुण ही रहेगा। इस प्रकार द्रव्य की कोई भी शक्ति (गुण) अन्य शक्ति के रूप में बदलती नहीं है। 46 इन अनन्त शक्तियों का पिण्ड ही द्रव्य है। इन गुणों के अतिरिक्त द्रव्य कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। गुणों का आश्रय द्रव्य है और गुण द्रव्य के आश्रित है।
द्रव्य के पर्याय -
जैन दार्शनिकों ने द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला अथवा गुण और पर्यायवाला कहा है। प्रत्येक द्रव्य में प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। द्रव्य की एक अवस्था का उत्पाद होता है तो वहीं पूर्व अवस्था का व्यय होता है। जैसे- कच्चे आम्रफल का पक जाना, सुवर्णघट से सुवर्णमुकुट बनना, बालक से युवा बनना, जीव का मनुष्य से देव बनना या सुखी-दुःखी बनना। द्रव्य की इन परिणमनशील अवस्थाओं का नाम ही पर्याय है। द्रव्य का विकार ही पर्याय है। 48 उत्पाद और व्यय ही पर्याय है।
744 द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा : तत्त्वार्थसूत्र, 5/40 745 देशस्यैका शक्तिर्या काचित् .. ............. पंचाध्यायी, 1/49 746 एवं यः कोपि गुण ...........
वही, 1/52 747 सन्मति सूत्र, 1/12 748 गुण इति दव्वविहाणं
सर्वार्थसिद्धि, पृ. 237 पर उद्धृत
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द्रव्य का विकार अथवा द्रव्य में परिणमन का तात्पर्य है, द्रव्य के गुणों में परिवर्तन। क्योंकि गुणों से भिन्न द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है । द्रव्य अनंत गुणों का समुदायरूप या अखण्ड पिण्ड है । द्रव्य के गुणों का सामुदायिक परिवर्तन ही द्रव्य का परिवर्तन है। 749 जैसे आम्रफल में परिवर्तन होने पर वह कच्चा न रहकर पक जाता है। पक जाने का सीधा अर्थ है आम्रफल के रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों में परिवर्तन होना । आम्रफल का रंग हरे से पीला हो जाता है। उसका स्वाद (रस) खट्टे से मधुर हो जाता है। उसके गंध में भी परिवर्तन होता है। उसका स्पर्श कठोर से कोमल बन जाता है । आम्रफल के इन सभी गुणों में परिलक्षित परिवर्तन ही आम्रफल (द्रव्य) का परिवर्तन है। इस प्रकार द्रव्य के गुणों में होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहा जाता है। 750
उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य के क्रमभावी गुण-धर्म को पर्याय कहा है। 751 द्रव्य में एक के पश्चात् एक ऐसे क्रम से जो अवस्थान्तर होता है वह पर्याय के नाम से अभिहित किया जाता है। जैसे जीव में मनुष्य, देव, तिर्यंच इत्यादि अवस्थाओं का होना जीवद्रव्य की पर्यायें हैं। रूपादि का कृष्ण, श्वेत आदि के रूप में बदलना पुद्गल द्रव्य की पर्याय है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में क्रमशः गमनागमन करने वाले, स्थित रहने वाले नियत क्षेत्र में अवगाहना लेने वाले जीव और पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से जो परिवर्तन होता है, वह उन-उन द्रव्य की पर्यायें हैं। 752 द्रव्य की पर्यायें द्रव्य में सदा नहीं रहती हैं । क्रम से बदलती रहती हैं।
749 जैन तत्त्वविद्या मुनि प्रमाणसागर, पृ. 228 750 सामण्ण विसेसा वि य
751 धरम कहीजइ गुण सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे । 752 क्रमभावी कहतां अयावद्भव्यभावी ते पर्याय कहिइं । जिम जीवनई नरनरकादिक
285
नयचक्र, गा. 17
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 2/2
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द्रव्य के प्रकार -
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के नौवी ढाल में द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप लक्षण की विस्तार से व्याख्या करने के पश्चात् दसवीं ढाल में द्रव्य के प्रकारों के रूप में षड्द्रव्यों का विस्तृत प्रतिपादन किया है।
द्रव्य के कितने प्रकार हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। चैतन्यधर्म की अपेक्षा से, रूपी गुण की अपेक्षा से, अस्तिकाय की अपेक्षा से इत्यादि। सत्ता की अपेक्षा से द्रव्य का एक ही प्रकार है। जो सत् है, वही द्रव्य है और वही तत्त्व है। सत्ता सामान्य की अपेक्षा से जड़ और चेतन, एक
और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक हैं। चूंकि संग्रहनय भेद के रहते हुए भी भेद को गौण करके अभेद का दर्शन करता है, अनेकता में एकता को देखता है। अतः इस संग्रहनय की दृष्टि से द्रव्य एक है।
द्वैतदृष्टि से या व्यवहारनय की अपेक्षा से संक्षेपतः द्रव्य के दो प्रकार होते हैं - जीव और अजीव ।'53 चैतन्य लक्षणवाले समस्त द्रव्य विशेष का समावेश जीवद्रव्य में तथा जिनमें चैतन्यलक्षण नहीं है, ऐसे सभी द्रव्यों का समावेश अजीवद्रव्य में हो जाता हैं।
जीव द्रव्य अरूपी है। अजीव द्रव्य रूपी और अरूपी के रूप से दो प्रकार के होते हैं। साधारणतया जिसका अनुभव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हो सकता है, वह रूपी कहलाता है। दूसरे शब्दों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन चारों से जो युक्त है, वह रूपी है।54 पुद्गल रूपी है।55 जो ज्ञानेन्द्रियों का विषय नहीं बनते हैं, जिनका ज्ञान हमारी इन्द्रियों के सामर्थ्य से बाहर है तथा किसी असाधारण शक्ति से ही जिनकी साक्षात् अनुभूति हो सकती है, वे अरूपी पदार्थ हैं। अरूपी पदार्थ स्पर्श आदि गुणों से रहित होते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश -ये तीन अस्तिकाय और काल अरूपी
753 विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य - 754 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त : पुदगला 755 रूपिण : पुद्गला – तत्त्वार्थसूत्र, 5/4
अनुयोगद्वार, सू. 123 वही, 5/23
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पदार्थ हैं।
अधर्म, आकाश और काल 1756
इस प्रकार द्रव्य के कुल छह भेद हो जाते हैं जीव, पुद्गल, धर्म,
—
इन छह द्रव्यों में से प्रथम पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल अस्तिकाय नहीं है। जैन दार्शनिकों ने काल के अस्तित्व को तो माना है, किन्तु उसके पृथक् कायत्व को स्वीकार नहीं किया है। इसी कारण से काल को अनस्तिकाय कहा गया है ।
756 भगवतीसूत्र, 2/10/117
757 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा
287
अस्तिकाय का तात्पर्य
'अस्ति' और 'काय' इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ है सत्ता या अस्तित्व तथा 'काय' शब्द का अर्थ है शरीर अर्थात् जो शरीर रूप से अस्तित्ववाला है, वह अस्तिकाय है। यहां 'काय' (शरीर) शब्द का प्रयोग भौतिक शरीर के अर्थ में न होकर लाक्षणिक अर्थ में हुआ है। पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द का अर्थ सावयवत्व किया गया है । यथा - "कायत्वभाख्यं सावयवत्वम्” । इसका तात्पर्य है जो द्रव्य अवयवों से युक्त है, वे अस्तिकाय हैं तथा जो निरवयवी हैं, वे अनस्तिकाय है । संक्षेप में जिसमें विभिन्न अंग, अंश या हिस्से हैं, वे अस्तिकाय है | 757 धर्म और अधर्म अविभाज्य, अखण्ड एवं लोकव्यापी द्रव्य होने पर भी क्षेत्र की दृष्टि से इनमें बौद्धिक स्तर पर अवयव या विभाग की कल्पना की जा सकती है। लोकालोकव्यापी आकाश में भी क्षेत्र की अपेक्षा से ही विभाग की कल्पना हो सकती है। जैसे भारत एक अखण्ड देश होने पर भी राज्यव्यवस्था के लिए क्षेत्र की दृष्टि से प्रान्तों की कल्पना की जाती है। वास्तविक दृष्टि से तो ये प्रान्त भारत से भिन्न टुकड़े-टुकड़े के रूप में नहीं हैं। अखण्ड भारत के ही अविभाज्य हिस्से हैं। इन सभी का सम्मिलित रूप ही भारत है । उसी प्रकार धर्मास्तिकाय आदि में भी वैचारिक स्तर पर ही विभागों की या अवयवों की कल्पना की गई है। परमाणु स्वयं निरंश या निरवयव होने पर भी स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयत्व को धारण कर लेता है।
डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14
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जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय का अर्थ बहुप्रदेशत्व भी माना है । ' अस्ति' का अर्थ है विद्यमानता और काय का अर्थ है प्रदेशों का समूह। जो अनेक प्रदेशों का समूह होता है, वह अस्तिकाय कहलाता है। 78 एक पुद्गल परमाणु आकाश के जितने स्थान को घेरता है, उसे प्रदेश कहा जाता है। 759 यह एक प्रदेश का परिमाण है । इस प्रकार अनेक प्रदेश जिस द्रव्य में पाये जाते हैं, वह अस्तिकाय है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय हैं। धर्म, अधर्म और आकाश का बहुप्रदेशत्व क्षेत्र की अपेक्षा से है न कि द्रव्य की अपेक्षा से । पुद्गल द्रव्य का बहुप्रदेशत्व परमाणु की अपेक्षा न होकर स्कन्ध की अपेक्षा से है । पुनः जिस आकाश प्रदेश में एक पुद्गल परमाणु रहता है, उसी में अनन्त पुद्गल परमाणु समाहित हो जाने से परमाणु को भी अस्तिकाय कहा जा सकता है। 70
जहाँ तक कालद्रव्य का प्रश्न है, वह अनेक प्रदेशों का अखण्ड द्रव्य नहीं है। किन्तु काल के अनेक स्वतन्त्र प्रदेश हैं । वे परस्पर निरपेक्ष हैं । उनमें स्कन्ध या एक अवयवी की कल्पना नहीं की जा सकती है। लोकाश के प्रत्येक प्रदेश पर काला स्थित हैं इस प्रकार कालद्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक स्वतन्त्र द्रव्य रूप होने से अनस्तिकाय है अर्थात् प्रदेशों का समूह नहीं है ।
द्रव्य के भेद - प्रभेद का स्पष्ट विवरण इस प्रकार है
(1) चेतना लक्षण के आधार पर -
द्रव्य
जीव
धर्म
अधर्म
758 संति जदो तेणेदे, अत्थिति भणति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अत्थिकाया । ।
759 जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वट्टद्धं । त खुं पदेसं जाणे, सव्वाणुद्वाणदाणरिहं । ।
760 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा
अजीव
आकाश
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-
पुद्गल
द्रव्यसंग्रह, 24
288
काल
27
डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14
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(2) रूपी-अरूपी के आधार पर -
द्रव्य
रूपी
अरूपी 2. जीव
1. पुद्गल
3. धर्म
4. अधर्म 5. आकाश 6. काल
(3) अस्तिकाय-अनास्तिकाय के आधार पर -
द्रव्य
अनास्तिकाय 6. काल
अस्तिकाय 1. जीव 2. पुद्गल 3. धर्म 4. अधर्म 5. आकाश
ग्रन्थकार ने प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रव्य के धर्मास्तिकाय आदि षड़द्रव्य के रूप में वर्गीकरण के पश्चात् इन षड्द्रव्यों के स्वरूप और लक्षण पर भी विचार व्यक्त किये
हैं।
1. धर्मास्तिकाय :
पाँच अस्तिकाय में प्रथम धर्मास्तिकाय द्रव्य है। धर्मास्तिकाय जैनदर्शन सम्मत विशिष्ट द्रव्य है। अन्य किसी भी दर्शन में धर्मास्तिकाय की अवधारणा उपलब्ध नहीं होती है। प्रायः सभी दर्शनों में धर्म और अधर्म शब्दों का प्रयोग आचारशास्त्र, नीतिशास्त्र एवं कर्तव्य के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। यद्यपि जैन आचारशास्त्र और
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नीतिशास्त्र में स्वभाव या कर्तव्य के वाचक अर्थ में, साधना और उपासना के विशेष प्रकार के रूप में 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया है, फिर भी जैन तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में 'धर्म' शब्द का प्रयोग विश्वव्यवस्था के मौलिक तत्त्व के रूप में हुआ है। इसे जीव और पुद्गल की गति में सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रदेश का संघात या प्रचय होने से उसे अस्तिकाय कहा जाता है I
लक्षण और स्वरूप
भगवतीसूत्र तथा स्थानांगसूत्र में धर्मास्तिकाय को द्रव्य की अपेक्षा से एक है, क्षेत्र की अपेक्षा से लोकव्यापी है, काल की अपेक्षा से अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः यह ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है। भाव की अपेक्षा से स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द से रहित है । गुण की अपेक्षा सें गमन गुण है | 761
290
तत्त्वार्थसूत्रकार ने धर्मास्तिकाय को जीव - पुद्गल की गति में उपकारी माना है762 अर्थात् इसे जीव - पुद्गल के गमन में अपेक्षित निमित्त कारण माना है। स्वयं क्रिया करने वाले जीव और पुद्गल की क्रिया (गति) में जो सहायता करता है, वह धर्मास्तिकाय है | 763
पंचास्तिकाय में धर्मद्रव्य को अस्पर्श, अरस, अगंध, अवर्ण, अशब्द, लोकव्यापक, अखण्ड, विशाल और असंख्य प्रदेशी माना गया है। 764
धर्मास्तिकाय स्पर्श आदि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त हैं। अमूर्त या अरूपी सत्ता होने से अगुरुलघु भी है। धर्मास्तिकाय के विषय में भगवान महावीर ने
761 भगवतीसूत्र - 2/10/1 एवं ठाणांग 5 / 170
762 तत्त्वार्थसूत्र, - 5/17
1763 तत्त्वार्थराजवर्तिक 5/1/19
764 पंचास्तिकाय, गा. 83
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कहा - वह न भारी है, न ही हलका है, न हलकाभारी है। वह अगुरूलघु अर्थात् भारहीन है। 65
तिल में तेल की तरह संपूर्ण लोकाश में व्याप्त रहने के कारण धर्मास्तिकाय लोकव्यापी है। 66 अनंत आकाश के जितने भाग में धर्मद्रव्य अवस्थित है, वही भाग लोकाकाश कहलाता है।
जीवादि की तरह धर्मद्रव्य भिन्न-भिन्न रूप से न होकर अखण्ड एक स्कन्धरूप है। इसके असंख्यात प्रदेश स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते हैं। अतः अयुत सिद्ध प्रदेशी होने के कारण अखण्ड है। 67
इसका प्रसार क्षेत्र संपूर्ण लोकाश होने से विशाल है। धर्मास्तिकाय निश्चयनय की दृष्टि से एक प्रदेशी है। क्योंकि यह एक, अखण्ड और लोकव्यापी द्रव्य है। केवल क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्य प्रदेशों की कल्पना बौद्धिक स्तर पर ही की जा सकती है। अतः व्यवहारनय की दृष्टि से असंख्यात् प्रदेशी है।68
गति में सहायता देने रूप अपने स्वभाव से च्युत नहीं होने के कारण नित्य है। क्योंकि नित्य का अर्थ है, तद्भावाव्यय । 69
धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेशों में एक भी हानि-वृद्धि नहीं होती है। अनादिकाल से जितने प्रदेश हैं, उतने ही रहते हैं। हमेशा असंख्यात प्रदेशी ही रहता है। इसलिए अवस्थित है।70
धर्मास्तिकाय गति उपग्राहक द्रव्य होते हुए भी स्वयं निष्क्रिय है।1 गतिशून्य है। स्वयं गतिशील जीव–पुद्गल द्रव्यों की गति में मात्र उदासीन रूप से सहायक है
.............
तत्त्वार्थसार, 3/23
765 भगवतीसूत्र, - 1/9/401 766 लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्माधर्मस्तिकाययोः ।
तिलेषु तैलवत् प्राहुरवगाहं महर्षयः ।। 767 पंचास्तिकाय, टी. 83 768 वही, 5/3 769 तत्त्वार्थसूत्र, 5/3 770 वही 771 तत्वार्थसूत्र, 5/6
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किन्तु प्रेरक या निमित्तकारण नहीं है। निष्क्रिय का अर्थ कदापि यह नहीं है कि धर्मास्तिकाय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से रहित है। अन्यथा उत्पाद-व्यय से शून्य होने पर धर्मास्तिकाय का द्रव्य के रूप में अस्तित्व ही नहीं रहेगा। धर्मास्तिकाय में भी प्रतिक्षण उत्पाद–व्यय अवश्य होता है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे उत्पाद–व्यय स्वनिमित्तक न होकर परद्रव्याश्रित उत्पाद-व्यय हैं।72 इस बात की चर्चा हमने पहले विस्तार से की है।
धर्मास्तिकाय स्वयं गतिशून्य है और किसी को गति के लिए प्रेरित भी नहीं करता है। किन्तु जो जीव-पुद्गल आदि स्वयं गति करते हैं, उनको गति माध्यम बनकर सहारा देता है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि धर्मद्रव्य न तो स्वयं चलता है और न ही किसी को प्रेरणा करके चलाता है, अपितु गतिशीलद्रव्यों की गति में उदासीन रूप से सहयोग करता है। धर्मास्तिकाय के गति सहायकता स्वरूप को समझाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने जल व मत्स्य का उदाहरण दिया है।73 मच्छलियों की गति में जैसे जल अनुग्रहशील है, उसी प्रकार जीव-पुद्गलों की गति में धर्मद्रव्य सहायक है। जल स्वयं स्थिर रहकर गतिशील मत्स्यों के लिए उनके तैरने में सहायक बनता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वयं गतिरहित होकर, गतिशील द्रव्यों को उनके गति में सहयोग देता है।
आचार्य नेमिचन्द्र,74 अमृतचन्द्र, आचार्य तुलसी प्रभृति की तरह उपाध्याय यशोविजयजी ने भी गति उपकारक द्रव्य की व्याख्या करते हुए सलिल–झष उदाहरण ही प्रस्तुत किया है।" गतिपरिणामी जीव और पुद्गल लोकाकाश स्वरूप
772 सर्वार्थसिद्धि - 5/7/539 773 उदयं जह मच्छाणं गमणा-णुग्गह करं हवदि लोए । तह जीव-पुग्गलाणं धम्म दव्वं वियाणाहि।।
पंचास्तिकाय, गा. 85 774 द्रव्यसंग्रह - गा. 17 775 तत्त्वार्थसार - 7/33 776 जैन सिद्धान्त दीपिका - 1/32 777 गति परिणामी रे पदगल जीवनइ, झषनइ जल जिम होई
तास अपेक्षा रे कारण लोकमां, धरमद्रव्य गइ रे सोइ ...... ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, 10/4
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आकाशखण्ड में स्वतः गमनागमन करते हैं। ऐसे गमनागमन स्वभाववाले जीव और पुद्गल की गति में जो कारणभूत द्रव्य है, उसे यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय के रूप में अभिव्यंजित किया है। उन्होने उस कारण को अपेक्षाकारण कहा है जो अधिकरणस्वरूप और उदासीन प्रकृतिवाला होता है। इसका अर्थ यह है कि जो कारण, कर्ता को कार्य के लिए प्रेरित तो नहीं करता है। परन्तु जब भी वह कार्य किया जाता है, उस समय सहायता करने के लिए तैयार रहता है, वह अपेक्षा कारण है। मत्स्य में स्वयं तैरने की शक्ति होते हुए भी तालाब आदि में सलिल के सूख जाने पर मत्स्य तैर नहीं सकती है अर्थात् सलिल उसके तैरने में सहायक बनता है। जिस समय मछली तैरना चाहती है, उस समय जल उसके तैरने में सहायता करता है। न तैरना चाहे तो पानी उसके साथ बलप्रयोग या प्रेरणा नहीं करता है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी गतिशील द्रव्यों के गति करने पर सहायता करता है। परन्तु उन्हें गति के लिए प्रेरित नहीं करता है।
धर्मास्तिकाय को गति सहायक के रूप में विवेचित करने के लिए अंधा और यष्टि तथा रेल एवं पटरी का उदाहरण भी आधुनिक जैन दार्शनिकों ने प्रस्तुत किया है। रेल और पटरी के उदाहरण से धर्मास्तिकाय की गति सहायकता का सरलता से बोध हो जाता है। जहाँ पटरी है, रेल वहीं चलती है। बिना पटरी के रेल की गति अवरूद्ध हो जाती है। वैसे ही धर्मद्रव्य के बिना जीव-पुद्गल की गति अलोक में रूक जाती है। डॉ. सागरमल जैन ने विद्युतधारा और तार का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे विद्युतधारा को प्रवाहित होने में तार सहायक बनता है, वैसे ही धर्मद्रव्य गतिशील द्रव्यों की गति में सहायक बनता है।79
778 अधिकरण रूप, उदासीनकारण, जिम गमनागमनादि क्रिया परिणत झष क मत्स्य ............ वही, टब्बा 779 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ. 45
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धर्मास्तिकाय की उपयोगिता -
धर्मास्तिकाय द्रव्य की उपयोगिता दो रूपों में है।
1. गति का सहयोगी कारण।
2. लोक, अलोक की विभाजक शक्ति।80
गौतम के एक प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा -धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, बोलना, उन्मेष, मन, वचन, काया की क्रियाएं आदि समस्त भाव निष्पन्न होते हैं। 81 विश्व के सभी चलभाव धर्मास्तिकाय की सहायता से होते हैं। धर्मद्रव्य के अभाव में विश्व अचल ही होता। गति से तात्पर्य केवल एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ही नहीं, अपितु कंपन, स्पन्दन, धड़कन, झपकना, फैलना आदि भी हैं। इस दृष्टि से धर्मास्तिकाय के अभाव में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो सकती है। सभी प्रकार की गति धर्मास्तिकाय की सहायता से ही हो रही है।
धर्मास्तिकाय की दूसरी उपयोगिता यह है कि वह लोक और अलोक को विभाजित करता है। अनंत आकाश में अमूक आकाश को लोक के रूप में निश्चित करने के लिए एक विभाजक तत्त्व का होना आवश्यक है और वही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है। आकाश के जितने भाग में धर्माधर्म द्रव्य अवस्थित है, वही लोकाकाश कहलाता है। इसी कारण से जीव और पुद्गल द्रव्यों का गमनागमन भी लोकाकाश तक ही होता है। अतः जहाँ धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल द्रव्यों की अवस्थिति हो वह लोकाकाश है और जहाँ इनका अभाव हो वह अलोकाकाश है।
पंचास्तिकाय, गा. 87
780 जादो अलोग-लोगो .. 781 भगवतीसूत्र - 13/4/56
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धर्मास्तिकाय की सिद्धि -
उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय द्रव्य को अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया है। सहज रूप से ऊर्ध्वगामी मुक्त जीव एक समय में लोक के अग्रभाग तक पहुंचकर सिद्धशिला पर ठहर जाते हैं। उसके आगे उनकी गति नहीं होती है, क्योंकि वहाँ उनके गति में सहायक बनने वाले तत्त्व का अभाव है। धर्मास्तिकाय की अवस्थिति लोकाकाश प्रमाण है। इसलिए मुक्तजीव लोक के अग्रभाग में ठहर जाते हैं। 82 यदि धर्मास्तिकाय नहीं होता तो एक समय में 7 रज्जुप्रमाण तीव्र गति करने वाले मुक्त जीव अनंत आकाश में परिभ्रमण करते ही रहेंगे। उनकी गति कभी विरमित नहीं हो पायेगी। पुनः जीव और पुद्गल भी स्वभाव से गतिशील होने से अनंताकाश में इधर से उधर गति करते हुए ही पाये जायेंगे जिससे संपूर्ण विश्व व्यवस्था ही भंग हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतः धर्मास्तिकाय नामक गति सहायक द्रव्य है जो लोकाकाश प्रमाण है और जीव और पुद्गल की गति को लोकाकाश तक सीमित रखता है।
___ अन्य भारतीय और पाश्चात्य दर्शनकारों ने गति को वास्तविक मानते हुए भी उसके लिए सहायक तत्त्व के रूप में 'धर्मद्रव्य' जैसे किसी द्रव्य की परिकल्पना नहीं की है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में गति सहायक एक ऐसे तत्त्व को स्वीकार किया है जो संपूर्ण जगत में व्याप्त, तरल और अत्यन्त सूक्ष्म है। उसे 'इत्थर' के नाम से जाना जाता है।83 इसका कार्य जैनदर्शन सम्मत धर्मद्रव्य से मिलता जुलता है।
2. अधर्मास्तिकाय -
विश्वव्यवस्था के आधारभूत मौलिक द्रव्यों में अधर्मास्तिकाय दूसरा द्रव्य है। यहाँ 'अधर्म' शब्द का अर्थ पाप या अनैतिक कार्य नहीं है। यद्यपि जैन आचारमीमांसा
782 सहज उर्ध्वगतिगामी मुक्तनइं, विना धर्म प्रतिबंध,
गगनिं अनंतइ रे कहिइ नवि टलइ, फिरवा रसनो रे धंध ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/6 783 जैनधर्म और दर्शन - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ. 210
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के क्षेत्र में 'अधर्म' शब्द का प्रयोग आत्मविकास में अवरोधक तत्त्व के रूप में हुआ है, किन्तु जैन तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में 'अधर्म' शब्द एक विशेष पारिभाषिक शब्द है जो स्थितिसहायक द्रव्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है I
अधर्मास्तिकाय गतिपूर्वक स्थिति करनेवाले जीव- पुद्गल द्रव्यों की स्थिति में सहायक द्रव्य है।
अधर्मास्तिकाय का स्वरूप एवं लक्षण
प्रश्नोत्तर शैली में गुम्फित जैनागम भगवतीसूत्र 84 के अनुसार स्थिति सहायक अधर्मास्तिकाय का स्वरूप इस प्रकार है :
द्रव्यत :
क्षेत्रत :
कालतः
भावतः
गुणतः
296
785
—
अधर्मास्तिकाय एक द्रव्य है 1
संपूर्ण लोकाकाश में अधर्मास्तिकाय व्याप्त है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में अधर्मास्तिकाय निहित है। इसके प्रदेशों की संख्या भी लोकाकाश के प्रदेशों के समान है, अर्थात् असंख्यात प्रदेशी है ।
अधर्मास्तिकाय भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा । यह त्रिकालवर्ती अनादि अनंत द्रव्य है। अतः ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य द्रव्य है ।
784 भगवतीसूत्र, 2/10/2
तत्वार्थसूत्र, 5/17
अधर्मास्तिकाय अरूपी द्रव्य है। यह वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित, स्पर्शरहित, अमूर्त सत्ता है । भारहीन अजीव द्रव्य है ।
तत्त्वार्थसूत्र में भी अधर्मास्तिकाय को गतिशील जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायता रूप उपकार करने वाले द्रव्य के रूप में उपदर्शित किया गया है ।
785
अधर्मास्तिकाय जीव- पुद्गलों के ठहरने में उदासीनरूप से सहायता करता है।
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जिस प्रकार गति में धर्मास्तिकाय कारण है, उसी प्रकार स्थिति में अधर्मास्तिकाय कारण है।86 जिस प्रकार धर्मास्तिकाय के बिना गति संभव नहीं है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के बिना स्थिति की भी संभावना नहीं हो सकती है। षड़दर्शन समुच्चय की टीका में भी अधर्मास्तिकाय के इसी लक्षण को महत्त्व दिया है। यहाँ द्रष्टव्य है अधर्मास्तिकाय उन द्रव्यों के स्थिति में ही सहयोग करता है जो गतिशील हैं। जो चलते-फिरते ठहरता है, उसे ही सहायता करता है। जो चलता ही नहीं है तो वह ठहरेगा कैसे ? जैसे आकाश। 88 आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है - न धर्मास्तिकाय गति करता है और न ही अधर्मास्तिकाय स्थिर करता है। जीव और पुद्गल अपने स्वभाव से गति एवं स्थिति करते हैं। ये दोनों द्रव्य मात्र उनके गति-स्थिति में उदासीन रूप से सहयोग करते हैं। 89
संक्षेप में धर्मास्तिकाय की तरह अधर्मास्तिकाय भी निष्क्रिय, नित्य, अवस्थित और अरूपी है। अधर्मास्तिकाय भी असंख्य प्रदेशी होने पर भी अखण्ड एक स्कन्ध के रूप में है। प्रदेशों की कल्पना वैचारिक स्तर पर ही हो सकती है। धर्मास्तिकाय के समान अधर्मास्तिकाय भी लोकव्यापी है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक क्षेत्रावग्राही होने पर भी गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व आदि लक्षण से भिन्न-भिन्न द्रव्य
हैं। 90
अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों की स्थिति में किस प्रकार सहायता करता है ? इसको प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने अश्व और पृथ्वी का उदाहरण दिया है। जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पूर्व से स्थिर रहती हुई तथा पर को स्थिति के प्रेरित नहीं करती हुई, अश्वादि की तरह स्वतः स्थिति के लिये तैयार द्रव्यों को
786 नियमसार, गा. 30 787 षडदर्शनसमुच्चय की टीका, 49/169
788 विज्जदि जैसिं गमणं ठाणं
गण...
पंचास्तिकाय, गा. 89 वही, गा. 88
789 ण य गच्छदि धम्मत्थी 790 धम्मा-धम्मा-गासा
.......................
.......................
पंचास्तिकाय, गा. 96
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उनकी स्थिति में उदासीनतापूर्वक सहायतारूप अनुग्रह करती है। 791 वह किसी को ठहराती नहीं, मात्र उनके ठहरने में सहयोग करती है । उसी तरह अधर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गलों की स्थिति में उदासीन हेतु मात्र है। किसी को प्रेरित करके नहीं ठहराता है।
I
आचार्य नेमीचन्द्र 2, आचार्य तुलसी आदि अनेक आचार्यों ने अधर्मास्तिकाय जन्य सहायता को समझाने के लिए तप्त पथिक के लिए छाया का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे - वृक्ष की छाया तप्त पथिक के विश्राम में सहायता करती है । किन्तु पथिक को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करती है । कोई पथिक अपनी इच्छा से ठहरता है, तो उसमें सहायता करती है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी स्वतः स्थितिशील द्रव्यों की स्थिति में सहायक मात्र है । उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अधर्मास्तिकाय के लक्षण को निदर्शित करते हुए उसे स्वतः स्थिति स्वभाववाले जीव - पुद्गलों की अवस्थिति में अपेक्षा कारण माना है। 794 अधर्मास्तिकाय अपेक्षा कारण होने पर भी अनिवार्य है। अन्यथा अधर्म द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गल सदाकाल गति ही करते रह जायेंगे। परन्तु वे द्रव्य जैसे गति करते हैं वैसे गति प्रयोजन के समाप्त होने पर स्थिति भी करते हैं। इस प्रकार स्वतः स्थिति रूप में परिणमित द्रव्यों की स्थिति में साधारण कारण के रूप में जो अनिवार्य हैं, वही अधर्मास्तिकाय नामक द्रव्य है ।
791
जह हवदि धम्म- दव्वं तह तं जाणेह दव्व - महामक्खं । ठिदि-किरिया-जुताणं कारण-भूदं तू पुढवीव
792 द्रव्यसंग्रह, गा. 18
1793 जैन सिद्धान्त दीपिका
1/5
794 स्थिति परिणामी जे पुद्गलजीवद्रव्य, तेहोनी स्थितिनो हेतु कहिइं- अपेक्षाकारण जे द्रव्य
पंचास्तिकाय, गा. 86
-
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द्रव्यगुणपर्यानोरास, गा. 10 / 5 का टब्बा.
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वैज्ञानिकों के अनुसार जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुद्गलों को नियंत्रित करता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गल की गति का नियमन करता है।95
अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता -
अधर्मास्तिकाय के उपकार को दर्शाते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि स्थिति के लिए कोई अपेक्षाकारण नहीं होता तो जीव खड़ा कैसे रहता ? सोता कैसे?, बैठता कैसे ? मन एकाग्र कैसे होता ? आँखों को मूंदता कैसे ? मौन कैसे रहता ? निस्पंदन कैसे होता ? जितने भी स्थिरभाव हैं, वे अधर्मास्तिकाय के कारण
अधर्मास्किाय की सिद्धि -
धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य इन्द्रगम्य नहीं होने से इनकी सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा नहीं हो सकती है। आगम प्रमाण से ही इनकी सिद्धि हो सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने आगम पोषक युक्तियाँ देकर अधर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में कारणों का अपना महत्त्व रहता है।
गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गलद्रव्य की गति और स्थिति संपूर्ण लोकाकाश में होती रहती है। गति-स्थिति में उपादानकारण तो स्वयं जीव और पुद्गल हैं, फिर भी इनको एक ऐसे निमित्तकारण की अपेक्षा रहती है जो गति-स्थिति में सहायक बन सके, संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त रहे और स्वयं गतिशून्य रहे। वे निमित्तकारण ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य हैं। दोनों का कार्य भिन्न-भिन्न है। एक गति में सहायक है तो दूसरा स्थिति में सहायक तत्त्व
......... डॉ. सागरमल जैन, पृ. 46
795 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा ... 796 भगवती सूत्र – 13/4/25
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है। जितनी आवश्यकता धर्मद्रव्य की है, उतनी ही आवश्यकता अधर्मद्रव्य की है। धर्मद्रव्य के अभाव में गति नहीं होने से स्थिति स्वतः हो जाती है। अतः अधर्मास्तिकाय की आवश्यकता नहीं है, ऐसा तर्क युक्तिसंगत नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं – गति और स्थिति दोनों शीतलता-उष्णता, गुरूत्व-लघुत्व की तरह स्वतन्त्र पर्याय है। गति का अभाव स्थिति अथवा स्थिति का अभाव गति नहीं है। दोनों की भावात्मक पर्याय हैं। अतः गति और स्थिति पर्यायरूप कार्यभेद होने से अपेक्षा कारण रूप द्रव्य भी दो और स्वतन्त्र हैं।97
दूसरी युक्ति यह है कि अधर्मास्तिकाय को नहीं मानने पर अनादि अनंतकाल की स्थिति करने वाले जीव-पुद्गल द्रव्य की नियत स्थिति अलोक में होने का प्रसंग आ जायेगा। 98 क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में अलोक में गति भले न हो, परन्तु स्थिति सहायक द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहने से अलोक में जीव-पुदगल की नियत स्थिति होनी चाहिए। परन्तु शास्त्रों में अलोक में जीव-पुद्गल द्रव्य की नियत स्थिति की बात नहीं आती है। अतः अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अस्तित्व है और अलोक में इसके अभाव के कारण ही जीव-पुद्गल की स्थिति नहीं होती है।
अधर्मास्तिकाय का अपलाप करने पर धर्मास्तिकाय का भी अपलाप हो जायेगा।'99 क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं होने से स्थिति स्वतः सिद्ध हो जाती है तो अधर्मास्तिकाय के अभाव में स्थिति नहीं होने के कारण गति भी स्वतः सिद्ध हो जायेगी। फिर धर्मास्तिकाय को मानने की आवश्यकता भी कहाँ रहेगी?
797 गति-स्थिति स्वतंत्र पर्याय रूप छइं, जिम गुरूत्व ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/7 का टब्बा 798 जो थिति हेतु अधर्म न भाखिइ, तो नियतथिति कोई ठाणि।
गति विण होवइ रे पुद्गल जंतुनी, संभालो जिन वाणी। ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/7 799 धर्मास्तिकायभावं रूप कहतां-धर्मास्तिकायाभाव प्रयुक्तगत्यभावइं स्थितिभाव कही, अधर्मास्तिकाय अपलपिई
............ द्रव्यगुणपर्यानोरास, गा. 10/7 का टब्बा
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3. आकाशास्तिकाय -
___ ग्रन्थकार ने षड्द्रव्यों के विवेचन के क्रम में तीसरे स्थान पर आकाशास्तिकाय द्रव्य का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। आकाश से तात्पर्य आसमान से नहीं है, जो नीलवर्ण का दिखाई देता है। जो हमें आसमान के रूप में दिखाई देता है, वह वायुमंडल है तथा नीला-पीला रंग वायुमंडल में तैरने वाले उन सूक्ष्म अणुओं का है जो सूर्य की किरणों को प्राप्त करके उन रंगों में रंग जाते हैं। आकाश का अर्थ है रिक्त स्थान जिसे अंग्रेजी भाषा में space कहा जाता है। आकाश का कोई रूप, रंग
और आकार नहीं है। यह अमूर्त और सर्वव्यापक द्रव्य है जो जीव, पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों को स्थान (अवगाहन) देता है।800
आकाशास्तिकाय का लक्षण और स्वरूप -
भगवान महावीर ने आकाशास्तिकाय के स्वरूप का निदर्शन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से इस प्रकार किया है:01 - द्रव्यतः - आकाशास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से एक है। क्षेत्रतः - लोकालोकव्यापी है, इसलिए अनंतप्रदेशी है। कालतः - अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालवर्ती शाश्वत द्रव्य है इसलिए
ध्रुव, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावतः - अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है अर्थात् अमूर्त और अजीव द्रव्य है। गुणः - अवगाह लक्षण वाला है।
उत्तराध्ययन सूत्र में आकाश को जीव और अजीव का भाजन माना है।902 सर्वमान्य दार्शनिक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय के छह सूत्रों में आकाशास्तिकाय द्रव्य के स्वरूप को उपदर्शित करते हुए कहा है - आकाशास्तिकाय
800 लोकाशेऽवगाह: – तत्त्वार्थसूत्र, 5/12 801 भगवतीसूत्र, 2/10/127 802 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/9
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निष्क्रिय, नित्य, अवस्थित और अरूपी है। 803 आकाशास्तिकाय उत्पाद–व्यय रूप से परिनमनशील होने पर भी गतिशून्य होने से निष्क्रिय है । यह अपने सामान्य - विशेष स्वरूप से च्युत नहीं होने से अर्थात् स्वस्वरूप से च्युत नहीं होने से नित्य है। जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म और काल इन द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हुए भी आकाशास्तिकाय उन द्रव्यों के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है । अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। अतः अवस्थित है । वर्ण आदि नहीं होने से अमूर्त है।
पंचास्तिकाय में आकाश द्रव्य के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है - जो जीव, पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, वह आकाशस्तिकाय है। 804 किन्तु संपूर्ण आकाश अन्य द्रव्यों से अवगहित नहीं है। अलोकाकाश में जीवादि द्रव्यों की अवस्थिति नहीं होने से वहां उनको अवकाश देने का प्रश्न ही नहीं उठता। तथापि अवगहित आकाश अनंत आकाश का ही एक भाग होने से आकाश द्रव्य को अवगाहन लक्षण वाला कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि805, राजवार्तिक", द्रव्यसंग्रह 07, नयचक्र प्रभृति ग्रन्थों में आकाश के आगम सम्मत स्वरूप को स्वीकार करते हुए अवगाहन लक्षण के आधार पर ही आकाशास्तिकाय को परिभाषित किया गया है।
803
' तत्त्वार्थसूत्र, 5 / 3, 6
यशोविजयजी ने आकाशास्तिकाय द्रव्य पर विमर्श करते हुए कहा है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पांचों द्रव्यों को सदा साधारण रूप से (पक्षपातरहित होकर) अवकाश देता है, वह आकाशास्तिकाय द्रव्य है । यह द्रव्य लोकालोक सर्वत्र अनुगत होकर रहता है। सर्व द्रव्यों को अपने में स्थान देने के
804 जीवा - पुग्गल - काया,
805 सर्वार्थसिद्धि, 5/18
806 राजवार्तिक, 5/1
807 द्रव्यसंग्रह, गा. 5 / 19
808
808
'चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं
पंचास्तिकाय, गा. 91
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नयचक्र, गा.97
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कारण यह सर्वाधार है।309 परन्तु आकाश का कोई आधार नहीं है। वह स्वप्रतिष्ठित है। आकाश को किसी अन्य द्रव्य द्वारा अवगाहित मानने पर उसका भी आधार मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसी स्थिति में अनवस्था दोष उत्पन्न हो जायेगा।310
यद्यपि आकाश, जीव और पुद्गल की तरह धर्म और अधर्म को स्थान देता है, परन्तु दोनों में अन्तर है। धर्म और अधर्म द्रव्य भी आकाश में अवगाहित होते हैं, फिर भी इनमें जल में हंस की तरह पौर्वापर्य सम्बन्ध या आधार-आधेय सम्बन्ध नहीं है, अपितु संपूर्ण शरीर में आत्मा की भांति या तिल में तेल की तरह धर्म, अधर्म द्रव्य संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं।11 जीव और पुद्गल जल में हंस की तरह अल्पक्षेत्र और असंख्येय भाग को अवगाहित करके रहते हैं। ये गतिशील द्रव्य होने से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अतः आकाश उनके अवगाह में संयोग और विभाग द्वारा उपकार करता है।912
आकाशास्तिकाय के दो भेद -
___यशोविजयजी ने भगवतीसूत्र तथा ठाणांगसूत्र की "दुविहे आगेसे पण्णते तं जहा- लोयागासेय अलोयागासे य" इस पंक्ति को उद्धृत करके आगमिक परंपरा के अनुसार आकाशास्तिकाय के लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में दो भेद किये हैं।13 आकाशास्तिकाय सर्वव्यापी अखंड द्रव्य होने के बावजूद भी अन्य द्रव्यों की विद्यमानता या अविद्यमानता के आधार पर लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में विभक्त किया गया है। यह विभाग किसी दीवार की तरह नहीं है जो लोक–अलोक के रूप में भेद करती है। लोक और अलोक का मुख्य विभाजक तत्त्व है -
809 सर्व द्रव्यनइंजे सर्वदा साधारण अवकाश दिइं,
ते अनुगत एक आकाशास्तिकाय सर्वाधार कहिंइं .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.10/8 का टब्बा 810 तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 5/12/ 8।। सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र 5/13/257 812 वही, 5/18/262 813 सर्व द्रव्यनइं रे जे दिइ सर्वदा ..
द्रव्यगणपयायेनोरास, गा. 10/8
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धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय । जहां इन दो द्रव्यों की उपस्थिति रहेगी, वहां गति - स्थिति होगी। जहां गति- स्थिति होगी वहां गति- स्थिति करने वाले जीव, पुद्गल द्रव्यों की अवस्थिति रहेगी । 'लुक' धातु का अर्थ है देखना। जहां तक जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, वह लोक है। 814 धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों से संयुक्त आकाश लोकाकाश के नाम से अभिव्यंजित किया जाता है एवं इनसे वियुक्त आकाश अलोकाकाश कहलाता है। 815 लोकाकाश चारों ओर से अवधिवाला है । अधः मध्य और ऊर्ध्व रूप से तीन विभागों में विभक्त है । चौदह रज्जु ऊंचा और सात रज्जु चौड़ा है यह लोकाकाश पैर फैलाकर कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए मनुष्य के आकार का है। पैर की आकृतिवाले नीचे के भाग में सात नरक हैं। कटिप्रदेश में मर्त्यलोक है। इसके ऊपर देवलोक है। लोक के अग्रभाग पर सिद्धशिला है, जहां पहुंचकर मुक्त आत्माएं ठहर जाती है। क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय नहीं होने से उनकी गति संभव नहीं है । अलोकाकाश निरवधिक है अर्थात् असीम है।
आकाशास्तिकाय की उपयोगिता
भगवान महावीर ने आकाशास्तिकाय द्रव्य के उपकार को उपदर्शित करते हुए कहा कि आकाश जीव और अजीव का भाजन है । यदि आकाश आधार के रूप में नहीं होता तो जीव और अजीव कहां रहते ? काल किसको अपना आधार बनाता ? पुद्गल अपना खेल कहां खेलता ? यह विश्व ही निराधार हो जाता 1 816
304
814 जैनधर्म और दर्शन
मुनिश्री प्रमाणसागर, पृ. 114
815
अ) धर्मादिकस्युं रे संयुत लोक छइ तास वियोग अलोक
ते निरवधि छाइ रे अवधि अभावनइ, वलगी लागइ रे फोक, द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/9
ब) द्रव्यसंग्रह, गा. 20
816 भगवतीसूत्र, - 13/4/58
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आकाशास्तिकाय द्रव्य की सिद्धि
भगवतीसूत्र 17 में मद्दुक श्रमणोपासक ने धर्मादि अस्तिकायों के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा कि हवा में गंध के पुद्गल, अरणी में निहित अग्नि आदि दृष्टि के विषय नहीं होने पर भी इनका नास्तिव सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि हवा, गंध आदि को हम अनुभव करते हैं। इसी प्रकार छद्मस्थ को दिखाई नहीं देने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। कार्य के आधार पर कारण की सत्ता सिद्ध होती है। अतः अवगाहन कार्य में कारणभूत आकाशास्तिकाय की सत्ता है ।
आकाशास्तिकाय की सिद्धि युक्तिपूर्वक करते हुए पं. सुखलालजी ने लिखा है 818 – विश्व पांच अस्तिकाय स्वरूप है। इनकी कहीं न कहीं स्थिति अवश्य होती है। वह स्थिति क्षेत्र आकाश है। आकाश आधार है और अन्य द्रव्य आधेय है। आकाश अन्य द्रव्यों का आधार इसलिए है कि वह अन्य जीवादि द्रव्यों से महान है । आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है। क्योंकि उससे बड़ा या उसके तुल्य परिमाण का अन्य कोई आधार तत्त्व नहीं है।
-
डॉ. सागरमल जैन ने परम्परागत लकड़ी - कील तथा दूध या जल से भरी ग्लास में शक्कर या नमक डालने के उदाहरण से आकाशद्रव्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। 19 लकड़ी में कील ठोंकने पर वह उसमें समाहित हो जाती है। दूध या पानी की भरी ग्लास में शक्कर या नमक को डालने पर वह उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वहां रिक्तस्थान या आकाश है। वैज्ञानिकों ने भी यही माना है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्तस्थान होता हैं अतः आकाश लोकव्यापी और अखण्ड द्रव्य है I
उपाध्याय यशोविजयजी ने व्यावहारिक युक्ति से आकाश द्रव्य की सत्ता को सिद्ध करते हुए कहा है ‘यहां पक्षी हैं, वहां पक्षी नहीं है, ऐसा व्यवहार क्षेत्रभेद के
817
305
-
'भगवतीसूत्र, 18/7/142
818 तत्त्वार्थसूत्र - पं. सुखलालजी, पृ. 120
819 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, .......डॉ. सागरमल जैन, पृ. 47
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आधार पर ही होता है। यहाँ, वहाँ रूप क्षेत्रभेद का जो आधार है या इन क्षेत्रों में जो अन्वयरूप से अखण्ड रहता है वही आकाशद्रव्य है । आधारभूत आकाशद्रव्य के अभाव में इह = अस्मिन् (यहाँ) शब्द का अर्थ ही शंकास्पद हो जाता है। अतः पक्षी का आधारभूत एवं 'इह' शब्द का वाच्य द्रव्य ही आकाश है | 820
4. काल
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'काल' का विवेचन दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मन्तव्यों के मध्य समन्वय स्थापित करते हुए समीक्षात्मक रूप से किया है।
जैनदर्शन में काल को भी षड्द्रव्यों में परिगणित किया गया है । परन्तु काल के स्वरूप को लेकर प्रारम्भ से हीदोमतभेद रहे हैं
1. काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।
2. काल स्वतन्त्र द्रव्य है ।
डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है कि आवश्यकचूर्णि में काल के स्वरूप के संदर्भ में निम्न तीन मतों का उल्लेख मिलता है
306
820
' इह पक्षी, नेह पक्षी इत्यादि व्यवहार ज यद्देशभेदं हुई,
तद्देशी अनुगत आकाश ज पर्यवसन होई
—
1. कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय रूप मानते हैं।
2. कुछ विचारक काल को गुण मानते हैं।
3. कुछ विद्वान काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं ।
श्वेताम्बर परम्परा में चूर्णिकाल तक अर्थात् ईसा की सातवीं शती तक काल सम्बन्धी उपरोक्त तीनों मत प्रचलित रहे और श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने-अपने मन्तव्य के अनुसार उक्त तीनों मतों में से किसी एक मत की पुष्टि की। जहाँ तक
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा. 10/8 का टब्बा
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दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, सभी आचार्यों ने एक मत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में ही प्रतिपादित किया।921
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की दसवीं ढाल में ग्रन्थकार यशोविजयजी ने पहले श्वेताम्बर आचार्यों के मन्तव्यों की चर्चा प्रस्तुत की है। स्थानांगसूत्र, जीवाभिगमसूत्र आदि ग्रन्थों में तथा उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि प्रभृति आचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना है।
स्थानांगसूत्र22 में समय और आवलिका को जीवरूप और अजीवरूप-दोनों कहा गया है। वस्तुतः वह जीव और अजीव की पर्याय है, इसलिए उसे जीवरूप और अजीवरूप दोनों कहा गया है। जीवाजीवाभिगम:23 में भी जीव और अजीव को ही काल कहा है, क्योंकि काल उनकी पर्यायों से पृथक् नहीं है। इसी आगमसूत्र का अनुसरण करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में द्रव्य की वर्तना (परिणमन) को द्रव्यकाल कहा गया है अर्थात् द्रव्य की अवस्थाएँ ही द्रव्यकाल है, क्योंकि परिणमन (उत्पाद–व्यय) से भिन्न द्रव्य नहीं है।924
इस प्रकार जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। अतः काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। जीव और अजीव द्रव्यों की वर्तना पर्याय ही काल है। किसी भी द्रव्य की किसी भी पर्याय के रूप में जो वर्तना है (पर्याय में रहना) वही काल है।925 जैसे- कोई जीव मनुष्य के रूप में जन्म लेकर 100 वर्ष तक जीता है। उस जीव का मनुष्य के रूप में या मनुष्य पर्याय में रहना ही उस जीव का काल है।826 मकान के बनने के बाद मकान के रूप में विद्यमान रहना ही उस मकान की काल
821 जैनदर्शन में द्रव्य,गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ.53 822 स्थानांगसूत्र, 2/387 823 जीवाजीवाभिगम, द्वितीय प्रतिपदि, 48 से 83 824 दव्वस्स वत्तणा जा स दव्वकालो तदेव वा दव्वं न हि वत्तणाविभिन्नं दव्वं जम्हा जओऽभिहिअं ...
विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2032 825 वर्तन लक्षण सर्व द्रव्यह तणो, पण्णव द्रव्य न काल ।
द्रव्य अनंतनी रे द्रव्य अभेदथी, उत्तराध्ययनइ रे भाल ।। ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/10 826 द्रव्यगुणपर्यायनोरास-भाग 2, - धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 503
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पर्याय है। पर्याय में वर्तन करना ही काल है। इसलिए काल द्रव्यरूप न होकर पर्यायरूप है। इस मत की प्रमाणिकता के लिए यशोविजयजी ने जीवाभिगम सूत्र का साक्षी पाठ दिया है – 'किमयं भंते। कालोत्ति पवुच्चइ ? गोयमा। जीवा चेव अजीवा चेव ति' – हे गौतम काल जीवरूप और अजीवरूप है अर्थात् जीव की पर्याय रूप और अजीव की पर्याय रूप है। इस प्रकार निश्चयनय के आधार पर कुछ आचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्यरूप न मानकर जीव और अजीव की भिन्न-भिन्न पर्यायों के रूप में माना है। क्योंकि पर्याय परिणमन द्रव्य की अपनी ही क्रिया या स्वभाव है। इस क्रिया में तत्त्वान्तर द्रव्य की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रहती है। ___काल परमार्थ से द्रव्य नहीं होने पर भी भगवतीसूत्र27 तथा उत्तराध्ययन सूत्र.28 में द्रव्यों की संख्या छह कहने से उस संख्या की पूर्ति के लिए पर्याय में द्रव्य का उपचार करके काल को औपचारिक द्रव्य माना है।929 जैसे – कंगन और कुंडल आदि पर्याय में वास्तविक द्रव्य तो पुद्गल है। परन्तु सुवर्ण, पुद्गलास्तिकाय द्रव्य का पर्याय होने पर सुवर्ण पर्याय में द्रव्य का उपचार करके सुवर्ण को द्रव्य ही कहा जाता है।30 इसी प्रकार जीवाजीव रूप समस्त द्रव्यों की भिन्न-भिन्न पर्यायों में जो वर्तना है, वही काल है। वर्तना पर्यायरूप होने से काल भी पर्यायात्मक ही है। फिर भी पर्याय में द्रव्य का उपचार करके काल को (उपचरित) द्रव्य कहा जाता है।
वर्तना लक्षणवाली पर्यायों में द्रव्य का अभेदोपचार करने से काल अनंत है।931 क्योंकि जीव और अजीव अनंत है और उनकी पर्यायें भी अनंत हैं। उन सभी पर्यायों का परिणमन (परिवर्तन) भी अनंत है। चूंकि जीव और अजीव लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त होने से काल द्रव्य भी संपूर्ण लोकाकाशव्यापी है।
827 अ) भगवतीसूत्र, 25/2/9 से 11, 828 उत्तराध्ययन सूत्र, 28/8 829 उपचारप्रकार ज देखाडइं –'षडेव द्रव्याणि ए संख्या पुरणनई - ......द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/19 का टब्बा 830 द्रव्यगुणपर्यायनोरास-भाग 2, –धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 504 831 उत्तराध्ययन सूत्र, 28/8
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श्वेताम्बर परम्परा सम्मत काल सम्बन्धी दूसरी मान्यता की चर्चा करते हुए यशोविजयजी कहते हैं – कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने काल को अन्य द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् स्वतन्त्र और पारमार्थिक या निरूपचरित द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि किसी भी पदार्थ में अन्य द्रव्य के उपकार के बिना स्वतः परिणमन नहीं होता है। यद्यपि परिवर्तन में द्रव्य स्वयं उपादानकारण है, फिर भी पर्याय परिवर्तन में निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है। अतः जिस प्रकार स्वयं गतिशील, स्थितिशील और अवकाशशील जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति, स्थिति और अवगाहन में अपेक्षा कारण के रूप में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल के परत्व, अपरत्व, पुरानत्व, नवीनत्व आदि पर्यायों के लिए भी कोई अपेक्षा कारण चाहिए और वही कालद्रव्य है। यही निश्चयकाल है। इसकी सिद्धि ज्योतिष्कचक्र की गति से होती है।832
सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कचक्र जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में स्थित मेरूपर्वत के चारों ओर भ्रमण करते रहते हैं।833 इनकी विशिष्ट गति पर ही दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल विभाग किया जाता है।334 सूर्य के उदय से लेकर अस्त तक की गति क्रिया में जितना काल लगता है, उससे ही दिन का व्यवहार होता है। दिन के आधार पर पक्ष, मास, वर्ष आदि-आदि काल विभाग किया जाता है। दिन, रात्रि आदि स्थूल काल है। दूसरे शब्दों में इन्हें व्यवहारकाल भी कहा जा सकता है।
संसार में वस्तु के परत्व (ज्येष्ठ) अपरत्व (कनिष्ठ), प्राचीनता, नवीनता आदि पर्यायों का व्यवहार होता है। वस्तु की परत्व आदि पर्यायें स्थूल या व्यंजन पर्याय हैं। वस्तु में अचानक परत्व आदि पर्यायों का उद्गम नहीं होता है। वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। बच्चा अचानक बड़ा नहीं होता है। साड़ी अचानक पुरानी नहीं होती है। बच्चे के शरीर, मन, बुद्धि आदि में क्षण-क्षण परिवर्तन होते-होते ही बच्चा
...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/12
832 बीजा भाषइ रे जोइसचक्रनइं चारई जे थिति तास ।
काल अपेक्षा रे कारण द्रव्य छइं, षटनी भगवइ भास।। ... 833 नित्यगतोनृलोके ................ तत्त्वार्थसूत्र, 4/14 834 ततकृतः कालविभाग .......... तत्वार्थसूत्र, 4/5
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बड़ा होता है। परन्तु वह क्षणवर्ती पर्याय या परिवर्तन सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं बनती है। उन क्षणवर्ती परिवर्तनों के समूह को ही हम ग्रहण कर पाते हैं अर्थात् दिनवर्ती, मासवर्ती, वर्षवर्ती परिवर्तन (पर्याय) को ही हम ग्रहण कर पाते हैं। अतः दिन, मास, वर्ष के आधार पर ही कहा जाता है कि बच्चा 7 दिन का, 7 मास का या 7 वर्ष का है। इसी प्रकार साड़ी में घटित क्षण-क्षण परिवर्तन के समूह के आधार पर ही साड़ी को 2 दिन, 2 मास या 2 वर्ष पुरानी बताई जाती है। इस प्रकार दिन, मास, वर्ष आदि व्यवहार काल के आधार पर परत्व, अपरत्व, प्राचीनता, नवीनता आदि पर्यायों का या परिवर्तनों का अनुमान लगाया जाता है तथा इन परिवर्तनों के आधार पर इन परिवर्तनों में हेतुभूत (अपेक्षाकारण) काल का अनुमान लगाया जाता है।835 संक्षेप में दिन आदि व्यवहारकाल के द्वारा ही निश्चयकाल अनुमानित किया जाता है।
प्राचीनता, नवीनता आदि पर्यायों में अपेक्षाकारण रूप कालद्रव्य चारक्षेत्रप्रमाण अर्थात् अढ़ाईद्वीप प्रमाण ही है। सहायता लेनेवाले जीव-पुद्गल द्रव्यों के समस्त लोकव्यापी होने पर भी सहायक कारण रूप काल द्रव्य चारक्षेत्र प्रमाण है।936
कालद्रव्य को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करने पर ही भगवतीसूत्र के इस पाठ "कइणं भंते! दव्वा पन्नता ? गोयमा! छद्दव्वा पण्णता-धम्मात्यिकाए जाए अद्दासमए" के साथ संगति बैठ सकती है। अतः काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है।837
काल को वर्तना पर्यायों में अपेक्षाकारण नहीं मानने पर तो गति, स्थिति अवगाहन आदि में अपेक्षाकारण के रूप में स्वीकृत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय को भी स्वतन्त्रद्रव्य के रूप में अस्वीकृत करने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।838
835 बीजा आचार्य इम भाषइं छइं-जे ज्योतिश्चक्रनइं चारइं परत्व, अपरत्व नव पुराणादि भवस्थिति छइं,
तेहy अपेक्षाकारण मनुष्य लोकयां कालद्रव्य छइं. ...........द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा. 10/12 का टब्बा। 836 अर्थनई विषइं सूर्यक्रियोपनायकद्रव्य चारक्षेत्रप्रमाण ज कल्पq घटइं. ....... वही, गा.10/12 का टब्बा 837 तो ज श्री भगवतीसूत्रमाहि
................ वही, गा. 10/12 का टब्बा. 1838 अनइं वर्तनापयार्य- साधारण अपेक्षाद्रव्य न कहीइं, तो गतिस्थित्यावगाहना, ...............
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इस प्रकार प्रथम मतानुसार जीव और अजीव की भिन्न पर्यायों में जो वर्तना है, वह वर्तना पर्यायरूप काल है। उसमें द्रव्य का उपचार करने से काल औपचारिक द्रव्य है। परन्तु वास्तविक द्रव्य नहीं है। दूसरे मतानुसार वर्तना पर्याय में अपेक्षाकारण रूप स्वतन्त्र और वास्तविक कालद्रव्य है। यह सूर्य, चंद्र की गति से जाना जाता है। उपरोक्त श्वेताम्बर मान्य दोनों मतों का उल्लेख कहाँ–कहाँ उपलब्ध होता है ? इस बात के स्पष्टीकरण के लिए उपाध्याय यशोविजयजी ने सूरिपुरन्दर हरिभद्र द्वारा रचित धर्मसंग्रहणी ग्रंथ का साक्षीपाठ दिया है।939
जं वत्तणाइरूपो कालो, दव्वस्स चेव पण्णाओ।
सो चेव वूतो धम्मो, कालस्स व जस्स जो लोए ।।32 ।। तथा तत्वार्थसूत्र का 'कालश्चेत्येके के पाठ को भी साक्षी पाठ के रूप में दिया
है
उपाध्याय यशोविजयजी ने श्वेताम्बर आचार्यों के मन्तव्यों की चर्चा के बाद दिगम्बर आचार्यों के मन्तव्यों का उल्लेख किया है।
___ आकाश के एक प्रदेश पर स्थित पुद्गल अणु मन्दगति से चलते हुए उससे लगे प्रदेश पर जितनी देर में पंहुचता है, उतने काल का नाम समय है। यह पर्यायरूप समय है। इस पर्याय का जो भाजन या आधार है वह कालद्रव्य है।840 यह कालद्रव्य अणुरूप है। एक-एक आकाश प्रदेश में एक-एक कालाणु है। इसलिए जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं अर्थात् असंख्य कालाणु है। कालाणु परस्पर पिण्डीभूत नहीं होते है। काल के अतीत समय नष्ट हो जाते हैं। अनागत समय अनुत्पन्न है। उसका केवल वर्तमान समय ही अस्तित्व में रहता है। इसलिए काल का स्कन्ध या तिर्यक् प्रचय नहीं होता है। जैसे- रत्नों का ढेर लगा देने पर भी प्रत्येक रत्न अलग-अलग रहता है। उसी प्रकार लोकाकाश के प्रत्येक
...........................द्रव्य
..द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/12 का टब्बा 839 धर्मसंग्रहणी रे ऐ दोइ मत कहिया, तत्त्वारथमां रे जाणि
अनपेक्षित द्रव्यार्थिकनई मते, बीजु तास वखाणि ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, 10/13 840 मंदगतिं अणु यावत संचरइ, नहप्रदेश इक ठोर।
तेह समयनो रे भाजन कालाण, इम भाषइ कोई ओर।। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/14
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प्रदेश पर एक-एक कालाणु अलग-अलग रहता है। प्रत्येक कालाणु स्वतन्त्र द्रव्य है । इसी कारण से काल अस्तिकाय नहीं है । अतः धर्मादि द्रव्यों की तरह काल भी स्वतन्त्र द्रव्य है।
ग्रन्थकार ने इस प्रकार जो दिगम्बर मत का उल्लेख किया है, उसके साक्षी पाठ के रूप में "रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणी" इस पंक्ति को रखा है। यह पंक्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्यकृत 'द्रव्यसंग्रह' नामक ग्रन्थ की है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं841 :
दव्व-परिट्टरूवो, जो सो कालो हवेइ ववहारो परिणामादी लक्खो, वट्टणलक्खो य परम्टठो (21) लोयायास-पदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ( 22 )
312
लगभग इसी भावों को व्यक्त करनेवाली दो गाथाएं माइल्लधवलकृत 'नयचक्र' नामक ग्रन्थ में भी उपलब्ध होती हैं। 842 इनमें काल के दो भेद दर्शाये गये हैं - निश्चयकाल और व्यवहारकाल । द्रव्यों का परिवर्तन रूप जो काल है वह व्यवहारकाल है। व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व आदि से लक्षित होता है । वर्तना जिसका लक्षण है, वह परमार्थ या निश्चयकाल है। यह निश्चयकाल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक-एक कालाणु के रूप में स्थित है और यह जीवादि सर्वद्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत है ।
1. वर्तना :
841 द्रव्यसंग्रह, गा. 21, 22
842 एपएस अमुत्तो अचेयणो वट्टाणागुणो कालो । लोयायासपएसे थक्का ते रयणरासिव्व ।। परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवई परिणामे । पज्जयठिदि उपयरिओ ववहारादो य णायव्वो । ।
843 प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्नीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना
प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रतिसमय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते हैं। 843 प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय
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नयचक्र, गा. 135, 136
तत्वार्थराजवार्तिक, 5/22/4
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जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत्ता का वर्तन हो रहा है, उसी का नाम वर्तना है। यह वर्तना द्रव्यों का स्वभाव है। काल उसका मुख्य कारण
नहीं है, वह तो निमित्त मात्र है। 2. परिणाम : अपनी जाति को न छोड़ते हुए द्रव्य में जो परिवर्तन होता है अर्थात्
द्रव्य में जो पूर्व पर्याय का नाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद, वह परिणाम है।944
3. क्रिया : एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को या परिस्पन्दात्मक
परिणमन को क्रिया कहा जाता है।845
4. परत्व :
परत्व से तात्पर्य है पहले होना। ज्येष्ठ या बड़ा।46
5. अपरत्व : अपरत्व का अर्थ है बाद में होना, कनिष्ठ या छोटा ।947
ये सब कालद्रव्य की सहायता से होता है। इनका व्यवहार काल के आधार पर ही किया जाता है। अतः इन्हें देखकर अमूर्तिक निश्चयकाल और व्यवहारकाल का अनुमान होता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये पांच काल के उपकार हैं।848
समीक्षा :
ग्रन्थकार यशोविजयजी ने दिगम्बर परंपरा सम्मत कालद्रव्य की समीक्षा करते हुए एक प्रश्न उठाया कि गति, स्थिति और अवगाहना क्रिया में समस्त धर्मास्तिकाय, समस्त अधर्मास्तिकाय, समस्त आकाशास्तिकाय साधारण रूप से अपेक्षाकारण होते हैं तो वर्तनाहेतुता में भी समस्त कालद्रव्य सहायक होना चाहिए तथा कालद्रव्य को भी
844 द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविस्रसालक्षणो विकारः परिणाम ....... वही, 5/22/10 845 क्रिया परिस्पन्दात्मिका द्विविधा, ............
. वही, 5/22/19 846 जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/23(वृत्ति) 847 वही, 1/23 848 तत्त्वार्थसूत्र, 5/22
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लोकप्रमाण मानकर अस्तिकाय के रूप में स्वीकार करना चाहिए। दूसरी ओर वर्तना हेतुता में एक-एक कालाणु को ही सहायक मानते हो तो गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहहेतुता में भी एक-एक धर्माणु, अधर्माणु और आकाशाणु को अपेक्षाकारण या सहायक के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।949
शास्त्र में काल को 'अप्रदेशी' कहने से उसे (काल को) प्रदेशों का पिण्डात्मक स्कन्ध रूप नहीं मानकर 'अणु' रूप में कल्पना करना उचित नहीं है। क्योंकि 'अप्रदेशी' इस सूत्रपाठ के साथ संगति बिठाने के लिए ही 'अणु' रूप में काल को स्वीकार करते हो तो काल 'जीव और अजीव के पर्याय रूप हैं, इस जीवाभिगमसूत्र के पाठ को भी स्वीकार करके काल को पर्यायरूप भी मानना चाहिए। अतः 'अप्रदेशता' वाले शास्त्रवचन तथा लोकाकाश प्रमाण कालाणु स्वरूप काल है, इस शास्त्र . वचन को उपचार से जोड़ना चाहिए।850
वर्तनापर्यायरूप उपचरित कालद्रव्य लोकाकाश प्रमाण होने से लोकाकाश प्रदेशों में निहित वर्तना पर्यायात्मक अपचरित कालद्रव्य में 'अणुपने' को भी उपचार से मानने से दोनों शास्त्रीय वचन में परस्पर विरोध नहीं रहता है। अतः काल को मुख्यवृत्ति से पर्यायरूप मानकर उपचार से द्रव्य मानना ही सूत्रकारों को अधिक सम्मत लगती है। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में जो ‘कालश्चेत्येक' अर्थात् कुछ आचार्य काल को द्रव्य मानते हैं, ऐसा कहा गया है, उसके पीछे भी यही आशय निहित है।851
सूर्य, चन्द्र की गति के आधार पर मात्र मनुष्य क्षेत्र में रात-दिवस रूप में कालद्रव्य को स्वीकार करने वाले आचार्यों को भी मनुष्य क्षेत्रावच्छिन्न आकाश द्रव्य में ही कालद्रव्य का उपचार करना पड़ता है। क्योंकि रात, दिवस आदि शब्दों से वाच्य ऐसा काल नाम का कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्न आकाश जब सूर्य के प्रकाश से युक्त होता है, तब उस आकाश को दिवस तथा जब वह
849 धर्मास्तिकायादिकनइं अधिकारइं साधारणहेतुताद्युपस्थिति ज कल्पक छई. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/17 का टब्बा 850 अप्रदेशता रे सुत्रिं अनुसरी, जो अणु कहिइं रे तेह।
तो पर्यायवचनथी जोडिइं, उपचारइं सवि एह ।। .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/18 851 अतएव "कालश्चेत्येके" (5-38) इहाँ "एक" वचनइं सर्व सम्मत्वाभाव सूचिउं................. वही, टब्बा
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आकाश सूर्य के प्रकाश से रहित होता है, उस समय उस आकाश को रात्रि कहा जाता है। अतः व्यवहारकाल को माननेवालों को भी आकाश में ही काल का उपचार करना पड़ता है। अतः उपचार ही शरण है।852
5. पुद्गलास्तिकाय :
सामान्यतया जिस तत्त्व को जड़ या भौतिक कहा जाता है, उसे ही जैनदर्शन में 'पुद्गल' शब्द से अभिहित किया जाता है। आधुनिक विज्ञान में इसे 'मेटर' के नाम से जाना जाता है। 'पुद्गल' शब्द जैनदर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। पुद्गल शब्द 'पुद्' और 'गल' के योग से बना है। पुद् का अर्थ होता है-पूर्ण होना/मिलना/जुड़ना और गल का अर्थ होता है – गलना/टूटना/अलग होना। जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा अनेक रूपों में बदलता रहता है, वह पुद्गल है।853 पुद्गल परमाणु स्कन्ध अवस्था में परस्पर मिलकर अलग होते रहते हैं तथा अलग-अलग होकर परस्पर मिलते-जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार टूटता-जुड़ता रहने से या पूरण-गलन स्वभावी होने से इसे पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य सप्रदेशी होने से अस्तिकाय के अन्तर्गत आता है। यह अचेतन और मूर्तरूप द्रव्य है। छह द्रव्यों में यही एकमात्र रूपी द्रव्य है।954 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने इस पुद्गल द्रव्य को संक्षेप में ही वर्णित किया है।
लक्षण एवं स्वरूप -
स्थानांगसूत्र और भगवतीसूत्र56 में पुद्गलास्तिकाय को पंचवर्ण (नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित), पंचरस (तिक्त, कटु, आम्ल, मधुर और कसैला), दो गन्ध
852 अतएव मनुष्यक्षेत्रमात्रवृत्ति कालद्रव्यं ये वर्णयन्ति तेषामति-मनुष्यक्षेत्रा।
विच्छिन्नाकाशादौ कालद्रव्योपचार एव शरणम् । ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/19 का टब्बा 853 पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः ...................... तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5/1/24 354 रूपीणः पुद्गलाः ........
.... तत्त्वार्थसूत्र, 5/5 855 स्थानांग, 5/3/174 856 भगवतीसूत्र, 2/10/129
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(सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध) एवं अष्टस्पर्श (मृदु, कठिन, गुरू, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध
और रूक्ष) से युक्त तथा रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का एक अंशभूत द्रव्य कहा है। इन आगमों में पुद्गलास्तिकाय द्रव्य के स्वरूप का विश्लेषण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से किया गया है।
द्रव्यतः पुदगलास्तिकाय अनन्तद्रव्य है। प्रत्येक परमाणु एक स्वंतत्र इकाई है। क्षेत्रतः पुद्गलास्तिकाय लोक परिमाण है।
कालतः सदा था, है और रहेगा। अतः ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय,
अवस्थित और नित्य है। भावतः पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शयुक्त है। रूपी है। गुणतः पुद्गलास्तिकाय ग्रहण गुणवाला है अर्थात् औदारिक आदि शरीर रूप से
ग्रहण किया जाता है तथा स्वयं इन्द्रिय ग्राह्य भी है।
उत्तराध्ययन सूत्र में पुद्गल को वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से युक्त बताया गया है।
वाचक उमास्वाति के अनुसार पुद्गल वह है जो स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाला है।258 पुद्गल के ये चारों गुण एक साथ रहते हैं। किसी भी समय इन स्पर्शादि में से एक गुण का भी अभाव नहीं रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है किपुद्गल के सूक्ष्म परमाणु से लेकर महास्कन्ध तक में ये चारों गुण विद्यमान रहते हैं।859 स्पर्श, रस, गन्ध और स्पर्श पुद्गल के लक्षण हैं। इनके बिना पुद्गल का अस्तित्व ही हो नहीं सकता है।
857 उत्तराध्ययन सूत्र – 36/15 858 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः – तत्त्वार्थसूत्र, 5/23 859 वण्णरसगंधफासा - प्रवचनसार, गा. 2/40
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उपाध्याय यशोविजयजी ने पुद्गल द्रव्य को उपदर्शित करते हुए कहा है कि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि से सहित होने से पुद्गल द्रव्य शेष धर्म आदि द्रव्यों से भिन्न द्रव्य है | 860
पुद्गल के चार भेद
1. स्कन्ध परमाणुओं का समूह
2. देश स्कन्ध का अपृथक्भूत कल्पित विभाग
3. प्रदेश
स्कन्ध से अपृथक्भूत अविभाज्य अंश
- स्कन्ध से पृथक् निरंश अंश
-
4. परमाणु
-
—
स्कन्ध :
दो या दो से अधिक परमाणुओं की संयुक्त अवस्था स्कन्ध कहलाती है । अनेक परमाणुओं के संयोग से स्कन्ध निर्मित होता है। 861 आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जो स्थूल रूप से ग्रहण और निक्षेपण की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है, वह स्कन्ध है । 802 कम से कम दो परमाणुओं का स्कन्ध होता है। दो परमाणु से द्विप्रदेशी, तीन परमाणु से त्रिप्रदेशी यावत् संख्यात्, असंख्यात् और अनंतप्रदेशी स्कन्ध बनते हैं। हमारे दृष्टिपथ में आने वाले समस्त पदार्थ पौद्गलिक स्कन्ध हैं ।
1
डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है "पुद्गल द्रव्य समस्त दृश्य जगत का मूलभूत घटक है। यह दृश्य जगत पुद्गल द्रव्य के ही विभिन्न संयोंगों का विस्तार है । अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कन्ध और स्कन्धों से मिलकर दृश्य जगत की सभी वस्तुएं निर्मित होती हैं। नवीन स्कन्धों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत में परिवर्तन घटित
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/20
860 वर्णगंधरस फासादिक गुणे
861 उत्तराध्ययनसूत्र,
36/10
862 सर्वार्थसिद्धि,
5/25/574
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होते हैं और विभिन्न वस्तुएं अस्तित्व में आती हैं।"863 शरीर, इन्द्रिय और मन आदि भी पुद्गल स्कन्धों का ही खेल है।
स्कन्धों के भेद -
स्कन्धों की स्थूलता और सूक्ष्मता के आधार पर इनके छह भेद किये गये हैं।864
1. स्थूल-स्थूल :- जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न करने पर स्वतः नहीं मिल सकते हैं
एवं जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। इस वर्ग के
अन्तर्गत पत्थर, लकड़ी, धातु आदि विश्व के समस्त ठोस पदार्थ आते हैं। 2. स्थूल :- जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं जुड़ जाते हैं तथा जिन्हें ___ स्थानान्तर किया जा सकता है। जैसे-दूध, पानी, तेल आदि तरल पदार्थ। 3. स्थूल-सूक्ष्म :- जो पुद्गल स्कन्ध छिन्न-भिन्न नहीं किये जा सकते हैं तथा
जिनका ग्रहण या लाना-ले जाना संभव नहीं है। जैसे- प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि।
4. सूक्ष्म-स्थूल :- जो स्कन्ध नेत्रों से दिखाई न देने पर भी शेष इन्द्रियों के
द्वारा अनुभव किये जा सकते हैं। जैसे-हवा, गन्ध, रस, शब्द आदि । 5. सूक्ष्म :- जो स्कन्ध इन्द्रियों का विषय नहीं बनते हैं, किन्तु जिनका परिणाम
या कार्य अनुभूति का विषय बनते हैं। जैसे–कार्मण वर्गणा, मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आदि।
6. सूक्ष्म-सूक्ष्म :- द्वयणुक आदि से निर्मित छोटे स्कन्ध ।
863 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 148 864 नियमसार - गा. 21-24
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स्कन्धोत्पत्ति :- स्कन्धों की उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है।885
1. भेद से :- भेद का अर्थ होता है- टूटना। बड़े-बड़े स्कन्धों के टूटने पर
छोटे-छोटे स्कन्धों की उत्पत्ति होती है। जैसे - ईंट, पत्थर आदि को तोड़ने पर दो या दो से अधिक टुकड़े होते हैं। ये भेदजन्य स्कन्ध है।
2. संघात से :- संघात का अर्थ है- जुड़ना। दो या दो से अधिक परमाणु या
स्कन्धों के परस्पर मिलने से स्कन्धों की उत्पत्ति होती है। ये संघात जन्य
स्कन्ध है। 3. भेद संघात से :- भेद-संघात का अर्थ है - टूटकर और जुड़कर। एक साथ
किसी स्कन्ध से टूटकर अन्य स्कन्धों से जुड़ने से उत्पन्न स्कन्ध भेद-संघातजन्य स्कन्ध कहलाते हैं।
पुद्गल परमाणुओं में स्वभाव से स्निग्धता या रूक्षता होती है। जिनके कारण इनका परस्पर बन्ध होता है।886
पाँच अस्तिकायों में केवल पुद्गलास्तिकाय में ही संघात और संघात के पश्चात् भेद की शक्ति है। यदि इसमें संघात और भेद की शक्ति नहीं होती तो यह विश्व या तो पिण्ड के रूप में होता या परमाणु के रूप में ही नजर आता।287 विश्व-व्यवस्था की दृष्टि से पुद्गलास्तिकाय के विखण्डन (Fission) और संलग्न (Fussion) गुण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 2. देश :
स्कन्ध से अपृथक्भूत बुद्धि कल्पित भाग को देश कहा जाता है।868 जैसेसाड़ी का किनारा। यह साड़ीरूप स्कन्ध का एक देश कहलाता है। देश अपने स्कन्ध से अपृथक्भूत होता है। पृथक् होने पर तो वह स्वयं एक स्कन्ध कहलायेगा।
865 संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ...........
तत्त्वार्थसूत्र - 5/26 866 स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्ध - ............
सूत्र, 5/32 867 जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन-शोधप्रबन्ध-साध्वी.योगक्षेमप्रभा, पृ.85
868 जैन सिद्धान्त दीपिका - 1/30
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3. प्रदेश :
स्कन्ध से अपृथक् बुद्धि कल्पित अविभाज्य या निरंश अंश प्रदेश है।869 दूसरे शब्दों में परमाणु जब तक स्कन्ध से संलग्न रहता है, तब तक वह प्रदेश कहलाता है और स्कन्ध से अलग हो जाने पर परमाणु कहलाता है।
4. परमाणु :
स्कन्ध से पृथक् हुए अविभागी अंश को परमाणु कहते हैं।37° पुद्गल परमाणु अबद्ध-असमुदायरूप होते हैं। परमाणु स्वतंत्र इकाई है और स्कन्धों का अन्तिम रूप है। इसके बाद इसका कोई टुकड़ा नहीं किया जा सकता है। जैसे किसी बिन्दु का कोई ओर-छोर नहीं होता है, वैसे ही परमाणु का कोई आदि, अन्त बिन्दु नहीं है। इसका आदि, मध्य और अन्त यह स्वयं है।972
प्रत्येक पुद्गल परमाणु में स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण इन चार स्पर्शों में से कोई दो स्पर्श, पांच रसों में कोई एक रस, पांच वर्षों में से कोई एक वर्ण, दो गन्ध में से कोई एक गन्ध अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं।973 संक्षेप में परमाणु एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श वाला होता है।974 जैनागम भगवतीसूत्र में परमाणु को अछेद्य, अभेद्य, अग्राह्य, अदाह्य और निर्विभागी कहा है।75
भगवान महावीर ने हजारों वर्षों के पूर्व ही परमाणु के संदर्भ में सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत कर दिया था। वैज्ञानिक जिस परमाणु के अन्वेषण में रत है, वह महावीर के अनुसार अनेक परमाणुओं से संघटित कोई स्कन्ध है। क्योंकि उसमें इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रान, अल्फा, गामा, बीटा, न्यूट्रिनो, पांजिट्रान, मेशाँन आदि अनेक कण
869 वही – 1/31 870 पंचास्तिकाय – गा. 75 871 पंचास्तिकाय - गा. 77
872 नियमसार - गा. 36
873 पंचास्तिकाय - गा. 82 874 भगवतीसूत्र – 20/5/1 875 वही - 5/7/154
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पाये जाते हैं। अब तो इन कणों की संख्या सौ से भी अधिक हो गई है। इनमें से कोई भी कण परमाणु नहीं है। जैनदृष्टि से परमाणु वह मूल कण है जिसमें कोई भेद या विभाग संभव नहीं है।976 यही कारण है कि विज्ञान का तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है जबकि जैनदर्शन का परमाणु अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं पाया है। वस्तुतः जैनदर्शन में जिसे परमाणु कहा गया है, उसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क का नाम देकर उसकी खोज में रत हैं। परन्तु आज भी क्वार्क का विश्लेषण करने में आधुनिक वैज्ञानिक असफल ही रहे हैं। जैनदर्शन के अनुसार परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण मूर्त होते हुए भी इन्द्रियों एवं प्रयोग के विषय से अतीत है। इस प्रकार जैनदर्शन में परमाणु की सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्या की गई है।
परमाणु एक प्रदेशी होता है78 अर्थात् आकाश की सूक्ष्मतम ईकाई को घेरता है। आकाश के इसी एक प्रदेश में एक से लेकर यावत् अनन्त पुद्गल परमाणु स्वतन्त्र रूप से या स्कन्ध के रूप में रह सकते हैं।979 परमाणु के सूक्ष्म परिणमन क्षमता के कारण एक प्रदेश में ही अनेक परमाणु अवगाहित हो जाते हैं।880 जैसे बिजली के ठोस तार में भी विद्युत प्रवाहित हो जाती है। दूध से लबालब भरे पात्र में शक्कर आदि ठोस पदार्थ समा जाते हैं।
परमाणु की गतिक्रिया -
परमाणु जड़ होते हुए भी गतिशील और क्रियाशील है। भगवतीसूत्र में परमाणु की क्रियाशीलता के संदर्भ में कहा गया है – परमाणु कभी कंपन करता है, कभी
876 जैनधर्म और दर्शन – मुनिप्रमाणसागर, पृ. 104 877 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 52 878 नाणोः – तत्त्वार्थसूत्र, 5/11 879 सर्वार्थसिद्धि – पृ. 212 880 जैनधर्म और दर्शन – मुनि प्रमाणसागर, देखें पृ. 105
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विविध कंपन करता है यावत् परिणमन करता है। उसमें न तो निरंतर कंपभाव होता है और न निरंतर अकंपभाव होता है।81 परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है। उसकी उत्कृष्ट गति एक समय में चौदह रज्जु है। परमाणु अपनी उत्कृष्ट गति से एक समय में लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंच जाता है।982
परमाणु की उत्पत्ति -
यद्यपि परमाणु शाश्वत और नित्य है फिर भी अनेक परमाणुओं का पिण्ड रूप स्कन्धों के टूटने पर, उसके अन्तिम रूप परमाणु की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कन्ध का भेद ही परमाणु की उत्पत्ति का कारण है।983
पुद्गल के पर्याय -
शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत -ये सब पुद्गल स्कन्धों की दस अवस्थाएं या पर्याय हैं।884
1. शब्द - ___ जैनदर्शन के अनुसार शब्द पौद्गलिक, मूर्त और अनित्य है। वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानकर उसे आकाश की तरह अमूर्त मानते हैं। किन्तु शब्द आकाश का गुण नहीं हो सकता है। यदि वह आकाश का गुण होता तो आकाश की तरह व्यापक और अमूर्त होने से किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं बन सकता है, जबकि शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बनता है। यदि शब्द अमूर्तिक होता है
881 भगवतीसूत्र – 16/116 882 जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान – पृ. 37 883 भेदादणुः – तत्त्वार्थसूत्र, 5/27 1884 तत्त्वार्थसूत्र - 5/24
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तो टेप, रेडियो, टेलीफोन आदि आधुनिक साधनों के माध्यम से पकड़ में नहीं आता । इसलिए शब्द पौद्गलिक और मूर्त है । संघात और भेद को प्राप्त होने वाले पुद्गल स्कन्धों से शब्द उत्पन्न होता है। 885 शब्द का कारण पुद्गल - स्कन्धों का परस्पर टकराना है। एक स्कन्ध से दूसरे स्कन्ध के टकराने से या किसी स्कन्ध के टूटने से जीव, उत्पन्न ध्वनिरूप परिणाम शब्द है । शब्द के मुख्य रूप से तीन भेद हैं
अजीव और मिश्र |
जीव जीव के द्वारा उच्चरित शब्द ।
अजीव
अव्यक्त ध्वनि आत्मक शब्द ।
मिश्र जीव और अजीव के संयोग से जनित शब्द ।
तत्त्वार्थराजवार्तिक में शब्द के भाषात्मक और अभाषात्मक आदि दस भेद किये हैं। 886
—
-
885 स्थानांगसूत्र - 2/3/220 886 तत्त्वार्थराजवार्तिक - 5 / 24
887 वही - 5/24/13
323
—
2. बन्ध -
जो बन्धे या जिसके द्वारा बांधा जाय वह बन्ध है । 887 दो या दो से अधिक परमाणुओं का या स्कन्धों का परस्पर बन्ध होता है । इसी प्रकार एक या एक से अधिक परमाणुओं का एक या एक से अधिक स्कन्धों के साथ बन्ध होता है। पुद्गल परमाणुओं (कार्मण वर्गना) का जीव के साथ भी बन्ध होता है । प्रायोगिक और वैनसिक रूप से बन्ध के दो मुख्य भेद हैं । प्रायोगिक बन्ध के पुनः दो भेद होते हैं । लाख लकड़ी का बन्ध अजीव विषयक बन्ध है तथा जीव और पुद्गलकर्मों का बन्ध जीवाजीवविषय बन्ध है । वैस्रसिक बन्ध स्वाभाविक बन्ध है । जैसे
इन्द्रधनुष, मेघ
उल्का आदि ।
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3. सौक्ष्म्य -
सौक्ष्म्य दो प्रकार है।88- अन्त्य और आपेक्षिक। परमाणु की सूक्ष्मता अन्त्य है। अन्य पदार्थों की सूक्ष्मता आपेक्षिक है। जैसे - आंवले से अंगूर छोटा है। 4. स्थौल्य -
स्थौल्य भी अन्त्य और आपेक्षिक रूप से दो प्रकार का है।989 महास्कन्ध अन्त्य स्थौल्य है तथा अन्य पदार्थों की स्थूलता सापेक्षिक है।
5. संस्थान -
संस्थान इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण रूप से दो प्रकार का है।990 व्यवस्थित आकृति इत्थंलक्षण है जैसे गोल, त्रिकोण, चौरस आदि और अव्यवस्थित आकृति अनित्थंलक्षण है। जैसे मेघादि। 6. भेद -
भेद के छह प्रकार हैं391- 1. उत्कर-काष्ठादि का चिरन, 2. चूर्ण-गेहूं आदि का आटा, 3. खण्ड-घट आदि के टुकड़े, 4. चूर्णिका- चावल, दाल आदि के छिलके निकालना, 5. प्रतर-अभ्रपटलादि का अलग होना, 6. अणुचटन-तप्तलोह पिण्ड को पीटने पर स्फुलिंग का निकलना। 7. अंधकार -
जो वस्तुओं को दिखाई नहीं देने में कारण है तथा जो प्रकाश का विरोधी है वह अंधकार है।992 नैयायिकादि अंधकार को प्रकाश का अभाव मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन के अनुसार यह भी सद्भावात्मक पदार्थ है। क्योंकि तम भी दिखाई देता है। जैसे प्रकाश में रूप है उसी प्रकार तम में भी रूप है। जिस प्रकार प्रकाश का
888 वही - 5/24/14 889 वही - 5/24/15 890 वही - 5/24/16
891 वही - 5/24/18
892 सर्वार्थसिद्धि - 5/24/572
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भासूर रूप और उष्ण स्पर्श प्रसिद्ध है, उसी प्रकार अन्धकार का कृष्ण रूप और शीतस्पर्श प्रसिद्ध है। पुद्गलों का सघन कृष्णवर्ण के रूप में परिणमन ही अंधकार है। अंधकार भी पुद्गलद्रव्य है। क्योंकि उसमें गुण है। जो गुणवान होता है वह द्रव्य होता है। 893 अंधकार में कृष्ण वर्ण है। अतः यह पौद्गलिक है । भगवतीसूत्र अंधकार को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- रात्रि में अशुभ पुद्गलों का अशुभ रूप से परिणमन होने से अंधकार होता है। 894
8. छाया
-
9. आतप
छाया प्रकाश को रोकनेवाले पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न होती है। 895 छाया पुद्गलों का प्रतिबिम्ब रूप परिणमन है । प्रत्येक स्थूल पदार्थ से प्रतिसमय तदाकार रश्मियाँ निकलती रहती हैं। वे अनुकूल सामग्री के प्राप्त होने पर उसी रूप में परिणत हो जाती है। इस प्रतिबिम्ब को छाया कहा जाता है । छाया दो प्रकार की होती हैं। 897 1. तद्वर्णादि विकार :- दर्पण आदि में आकार आदि का ज्यों का त्यों दिखाई देना। 2. प्रतिबिम्ब :- अन्य द्रव्यों पर अस्पष्ट प्रतिबिम्ब मात्र पड़ना ।
-
सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश आतप है। 898
10. उद्यो
-
चन्द्र, मणि, खद्योत आदि का शीत प्रकाश उद्योत है। 899
1893 जैन धर्मदर्शन डॉ. मोहनलाल महेता, पृ. 201
894 भगवतीसूत्र
5/9/238
895 सर्वार्थसिद्धि - 5/24/572
-
1896 जैन सिद्धान्त दीपिका
897 तत्त्वार्थराजवार्तिक 898 सर्वार्थसिद्धि 899 वही - 5/24/512
—
-
1/15
5/24/20,21
1
325
5/24/572
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पुद्गल का उपकार -
भगवतीसूत्र में पुद्गल के उपकारों को बताते हुए कहा है कि -जीव पुद्गलास्तिकाय के द्वारा ही औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और आनपान को ग्रहण करता है।900 संसारी जीव पुद्गल के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता है। संसारी जीव के उपयोग में आने वाली सभी वस्तुएं पौद्गलिक है। शरीर, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छवास, भाषा, मन आदि सभी पदार्थ पौद्गलिक हैं। खाद्यपदार्थ, वस्त्र, मकान आदि भी पौद्गलिक हैं। यह समस्त दृश्य जगत पौद्गलिक है।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने पुद्गल द्रव्य के उपकार को इस प्रकार मीमांसित किया है- शरीर, वाणी, मन, उच्छवास और निःश्वास ये पुद्गल के उपकार हैं। सुख, दुःख, जीवन और मरण भी पुद्गल के ही उपकार हैं।901 औदारिक आदि पांचों प्रकार के शरीर औदारिक आदि पुद्गल वर्गणा से निर्मित होते हैं। भाषा वर्गणा ही वाणी के रूप में परिणत होते हैं। मनोवर्गणा से निर्मित द्रव्यमन के बिना मानसिक चिन्तन संभव नहीं है। चिन्तन के पूर्व मनोवर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण किया जाता है। जीव द्वारा पेट के भीतर पहुंचाया जानेवाला उच्छवासवायु और पेट से बाहर निकाले जाने वाली निःश्वास वायु भी पौद्गलिक है। इसी प्रकार सुख और दुःख, साता और असाता वेदनीय कर्मरूप अन्तरंग और द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है। आयुष्यकर्म के उदय से उच्छवास और निःश्वास का चलते रहना जीवन और इनका उच्छेद मरण है।902 इस प्रकार पुद्गलास्तिकाय द्रव्य जीवास्तिकाय द्रव्य के लिए अनुग्रहकारी है।
900 भगवतीसूत्र – 13/4/60 901 तत्त्वार्थसूत्र - 5/19, 20 902 तत्त्वार्थसूत्र – पं. सुखलालजी, पृ. 125, 126
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जीवास्तिकाय -
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में षड़द्रव्यों के विवेचन के क्रम में उपाध्याय यशोविजयजी ने जीवद्रव्य का अतिसंक्षेप व्याख्या प्रस्तुत की है। जीवद्रव्य को अस्तिकाय के अन्तर्गत रखा जाता है। जीवद्रव्य भी असंख्य प्रदेशों का समूह है। षड़द्रव्यों में तथा नवतत्त्वों में 'जीव' प्रधान द्रव्य और तत्त्व है। आगम साहित्यों में जीव और उसके लक्षण, स्वरूप, भेद-प्रभेद-बन्धन–मुक्ति आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।
जीव की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि जीवत्व तथा आयुष्य कर्म का भोग करनेवाला जीव है।903 जो द्रव्य प्राण और भावप्राणों से जीया था, जीता है, और जिएगा, वह जीव है।04 प्राण वह शक्ति विशेष है, जिसके आधार पर जीव जीता है। संसारी जीव इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, आयु और बल (मन, वचन और काया} इन प्राणों के आधार पर जीते हैं जबकि सिद्धजीवों के लिए चेतनारूप " भावप्राण होता है।
जीव का लक्षण और स्वरूप -
जीव का मुख्य लक्षण उपयोग या चेतना है।905 उत्तराध्ययनसूत्र में जीव के लक्षण को मीमांसित करते हुए कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण है।06 उपाध्याय यशोविजयजी ने जीव का मुख्य लक्षण चेतना बताया है जिसके आधार पर जीव की अन्य जड़ द्रव्यों से अलग पहचान बनती है। भगवतीसूत्र और स्थानांगसूत्र में जीवास्तिकाय के स्वरूप की मीमांसा इस प्रकार की है007 -
903 जीव-जीवंत आउयं च कम्मं उवजीवितं तम्हा जीवे – भगवतीसूत्र-2/1/15 904 पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं – प्रवचनसार, 2/55 905 भगवतीसूत्र - 2/10/128, उत्तराध्ययन सूत्र – 28/10 906 उत्तराध्ययनसूत्र - 28/11 907 स्थानांग-5/3/173, भगवतीसूत्र-2/3/128
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द्रव्यतः - जीवास्तिकाय अनंत जीवद्रव्य है।
क्षेत्रतः – संपूर्ण लोकव्यापी है। कालतः – जीवद्रव्य अनादि अनंत है। अक्षय, नित्य, शाश्वत और अवस्थित है। भावतः – अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श तथा अरूपी द्रव्य है। गुणतः – उपयोग लक्षण वाला है।
आचार्य कुन्दकुन्द08 तथा आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव के स्वरूप को अनेकान्तिक ढंग से व्याख्यायित किया है। उनके अनुसार जीव अस्तित्वमान, उपयोगयुक्त, अमूर्तिक, कर्ता, भोक्ता, स्वदेहपरिमाणवाला, संसारी, सिद्ध एवं उर्ध्वगतिवाला है।
जीव का अस्तित्व -
चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्रायः समस्त आत्मवादी दर्शनों ने जीव या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जैनदर्शन के अनुसार भी जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जीव के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए प्राचीनतम आगम आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो जानता है, वही आत्मा है।910 विशेषावश्यकभाष्य911 में आत्मा के अस्तित्व के संदर्भ में निम्न तर्क दिये गये हैं -
'स्तम्भ है या पुरूष है? की तरह ‘जीव है या नहीं ? यह संशय ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। क्योंकि जिस वस्तु के सम्बन्ध में संशय होता है, वह वस्तु कहीं न कहीं अवश्यमेव विद्यमान रहती है। दूसरा संशय एक विचार
पंचास्तिकाय, गा. 27
908 जीवोत्ति हवदि चेदा ..... 909 जीवो उवओसमो अयत्ति कत्ता सदेह परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्सोढ़ढ गई।। ......
द्रव्यसंग्रह, गा. 2
91° आचारांग - 1/5/5/166 911 विशेषावश्यकभाष्य - गा. 1571 से 1575
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2.
3.
है, यह विचार बिना विचारक के नहीं होता है । अतः आत्मा के सम्बन्ध में संशय ही आत्मा की सत्ता को सिद्ध कर देता है ।
I
जैसे अघट का प्रतिपक्षी घट है, उसी प्रकार अजीव का प्रतिपक्षी जीव है 'जीव नहीं है' ऐसा कहने से भी जीव की सत्ता सिद्ध होती है। क्योंकि संसार में अविद्यमान वस्तु का निषेध नहीं हो सकता है।
'जीव' यह सार्थक संज्ञा होने से 'जीव' शब्द से ही जीव की सिद्धि हो जाती है। क्योंकि असत् की कोई सार्थक संज्ञा नहीं हो सकती है ।
आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि प्राण, अपान आदि क्रियाएं जीव के अस्तित्व को वैसे ही सिद्ध करती हैं जैसे यंत्रप्रतिमा की चेष्टाएं उसके प्रयोक्ता के अस्तित्व को सिद्ध करती है । 12 इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व स्वयं-सिद्ध है ।
जीव उपयोगयुक्त है
जो परिणाम आत्मा के चैतन्यगुण का अनुसरण करते हैं वह उपयोग है। 13 जिसके द्वारा जीव वस्तु के बोध के लिए व्यापार करता है, वह उपयोग है। 914 भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगमों में जीव का लक्षण उपयोग किया है जबकि आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य हरिभद्र आदि ने जीव का लक्षण 'चेतना' किया है। इससे यही प्रतीत होता है कि उपयोग और चेतना शब्द एकार्थक है ।
उपयोग दो प्रकार का होता है दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग 17
-
912 यथा यन्त्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं साधयति
913 उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः
914 जैनलक्षणावली,
1/276
1915 समयसार
916 षड्दर्शनसमुच्चय, 49
917 उपओगो दुवियप्पो दंसणणाणंच
-
329
TT. 48
-
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सर्वार्थसिद्धि, 5/19/563 सर्वार्थसिद्धि, 2/8/271
द्रव्यसंग्रह, गा. 4
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दर्शनोपयोग : यह निराकारोपयोग है। इसमें पदार्थों का सामान्य प्रतिभास मात्र होता है अर्थात् यह उपयोग वस्तु-विशेष के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है। दर्शनोपयोग के चार प्रकार होते हैं - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग : यह साकारोपयोग है। इसमें विशेष रूप से ज्ञेय का प्रतिबोध होता है अर्थात् यह उपयोग वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण करता है। वस्तु को रंग, रूप, आकार, प्रकार सहित ग्रहण करता है। ज्ञानोपयोग के आठ प्रकार होते हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान और केवलज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, और विभंगज्ञान।
उपर्युक्त चार प्रकार का दर्शन और आठ प्रकार का ज्ञान रूप उपयोग ही जीव का सामान्य लक्षण है। जैसे उष्णता गुण के बिना अग्नि नहीं होती है, वैसे ही उपयोग लक्षण के बिना जीव नहीं होता है। जीव अमूर्तिक है -
जीवद्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप से अमूर्तिक है। क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं होते हैं। पर संसार अवस्था में पुद्गल कर्मों से बद्ध होने के कारण शरीरधारी होकर मूर्तिक हो जाता है। पुद्गल कर्मों का प्रभाव संसारी जीव पर पड़ता है। इन पुद्गल कर्मों के निमित्त से संसारी जीव में मूर्तिक गुण उत्पन्न होता है। परन्तु इन पुद्गल कर्मों के प्रभाव से मुक्त, मुक्तात्मा अमूर्तिक है। इस प्रकार निश्चय से जीव अमूर्तिक होने पर भी व्यवहार से मूर्तिक है18 अर्थात् कथंचित् मूर्त है।
जीव कर्ता -
जैनदर्शन के अनुसार जीव अपने शुभाशुभ परिणामों का कर्ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि – एक जीव स्वयं अपने सुखों-दुःखों का कर्ता है।919
द्रव्यसंग्रह, गा. 7
918 वण्णरस पंच गंधा दो फासा 919 उत्तराध्ययन सूत्र, 20/37
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निश्चयनय से इन सुख, दुःख में कारणभूत अपने भावों का और व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता है।920 इन कर्मों को तोड़नेवाला भी वह स्वयं ही है। आगे इसी उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और जीव को नाविक की उपमा देकर जीव को समस्त कार्यों का उत्तरदायी माना गया है।921 जीव भोक्ता है -
जिस प्रकार जीव अपने परिणामों का कर्ता है, उसी प्रकार वह अपने परिणामों का भोक्ता भी है। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है वह ही उनके फलों का भोक्ता होना चाहिए। अन्यथा जीव को भोक्ता न मानने पर कर्म करने वाले को उसका फल नहीं मिलकर उस फल का भोक्ता कोई अन्य हो जायेगा। ऐसी स्थिति में पुण्य या पाप की कोई सार्थकता नहीं रहेगी।922 निश्चयनय से जीव अपने भावों का भोक्ता है तथा व्यवहारनय से कर्मों के फलरूप सुख-दुःखों का भोक्ता है।923 कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों जीव की संसारावस्था में ही संभव है। मुक्तात्मा तो मात्र साक्षीस्वरूप है।924 जीव स्वदेह परिमाण है -
___जैनदर्शन के अनुसार जीव का आकार विभु या अणुरूप न होकर स्वदेह परिमाण है।925 कर्मों के अनुसार छोटा या बड़ा जैसा भी शरीर मिलता है, जीव उस शरीर के आकार वाला हो जाता है। जीव में संकोच-विस्तार रूप शक्ति है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार संकुचित और विस्तृत हो जाता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेश भी चींटी जैसा छोटा शरीर मिलने पर संकुचित और हाथी जैसा बड़ा शरीर मिलने पर विस्तृत हो जाते हैं।926 जीव संकुचित होकर आकाश के
920 समयसार - गा. 83, 84 921 उत्तराध्ययन सूत्र - गा. 23/73 922 ववहारा सुहुदुक्खं - द्रव्यसंग्रह, गा. 9 923 समयसार, गा. 83, 84 924 जैनदर्शन में द्रव्य,गुण, पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ.30 925 अणु-गुरू-देह-पमाणो, -द्रव्यसंग्रह, गा.10 926 प्रदेश-संहार विसर्गाभ्याम् प्रदीपवत् - तत्त्वार्थसूत्र, 5/16
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एक प्रदेश के अनन्तवें भाग में भी समा सकता है (निगोद की अपेक्षा से) तथा विस्तृत होकर संपूर्ण लोक में भी व्याप्त हो सकता है। (केवली समुद्धात् की अपेक्षा से)27 परन्तु आत्मा सर्वव्यापक नहीं है। जितने परिमाण में हमारा शरीर है उतने ही परिमाण में हमारा जीव है। शरीर के बाहर जीव का अस्तित्व नहीं है।
जीव अनेक हैं -
जैनदर्शन के अनुसार जीव अनेक हैं। प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा है। प्रत्येक प्राणी का आध्यात्मिक और नैतिक विकास का स्तर भी भिन्न-भिन्न है। सुख, दुःख आदि की अनुभूति भी प्रत्येक जीव को अलग-अलग होती है। यदि जीव एक ही होता तो सबकी मुक्ति और बन्धन भी एक साथ ही होता। परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है। अतः सुख, दुःख, जन्म, मरण, बन्धन, मुक्ति आदि की सम्यक् व्याख्या के लिए प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारना अनिवार्य है।928
जीवों का वर्गीकरण -
जीव मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं- संसारी और मुक्त।29 कर्मों से बद्ध जीव संसारी है। जिस प्रकार स्वर्ण-पाषाण को खान से निकालने पर मिट्टी आदि विकृति से युक्त होता है, उसी प्रकार जीव भी अनादिकाल से कर्मों से संयुक्त है। इन कर्मों के उदय से राग, द्वेष, मोह आदि विषय विकारों से ग्रसित होकर नवीन कर्मों का बन्धन करता रहता है। परिणामस्वरूप एक गति से दूसरी गति में जन्म-मरण करता रहता है। इस प्रकार विभिन्न गतियों में संचरण करनेवाले कर्म सहित जीव संसारी कहलाता है। संसारी जीव के पुनः दो प्रकार होते हैं -त्रस और स्थावर 90वेइन्द्रिय
927 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण, पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 30 928 विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1582 929 संसारिणो मुक्ताश्च, - तत्वार्थसूत्र, 2/10 930 संसारिणस्त्रसस्थावराः - वही, 2/12
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तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी ये चार भेद पंचेन्द्रियजीवों के हैं। स्थावर के पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ऐसे पांच भेद हैं।
जिस प्रकार स्वर्ण-पाषाण को विशेष प्रक्रिया से शुद्ध किया जा सकता है, उसी प्रकार जब जीव साधना और तपश्चर्या आदि पुरूषार्थ के बल पर कर्मों से रहित या कर्मों से मुक्त हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है। मुक्त जीव अनंतसुख से युक्त सिद्धावस्था को प्राप्त करके अपने उर्ध्वगमन स्वभाव के द्वारा लोक के अग्रभाग में स्थिर हो जाते हैं।
जीव
संसारी
मुक्त
त्रस
स्थावर
द्वीन्द्रिय
इन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय
पृथ्वीकाय अप्काय तेउकाय वायुकाय वनस्पतिकाय
देव मनुष्य तिर्यंच नारकी
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पंचास्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा का पारस्परिक सम्बन्ध -
___ जैन दर्शन में द्रव्यों का वर्गीकरण अस्तिकाय और अनस्तिकाय के रूप में भी किया गया है। पूर्वोक्त छह द्रव्यों में काल के अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय कहलाते हैं।931 प्रायः जैन दार्शनिकों ने काल के अस्तित्व को स्वीकार करने पर भी उसमें कायत्व को स्वीकार नहीं किया है। काल द्रव्य है, किन्तु अस्तिकाय नहीं है।
अस्तिकाय का अर्थ -
अस्ति शब्द अस्तित्व का वाचक है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त होने से धर्म आदि पांच द्रव्य सत् है। इनका अस्तित्व सुनिश्चित है। काय का अर्थ है-शरीर | यहाँ शरीर से तात्पर्य भौतिक शरीर से नहीं है। जैसे शरीर बहुत से पुद्गल परमाणुओं का समूह होता है, वैसे ही ये द्रव्य भी बहुत से प्रदेश वाले होते हैं। अतः इन्हें 'काय' (शरीर) शब्द से कहा है। अस्तित्वान और बहुप्रदेशी होने से धर्म आदि द्रव्यों को अस्तिकाय के रूप से अभिव्यंजित किया जाता है। यही बात 'द्रव्यसंग्रह' में कही है -
संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा।
काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अत्थिकाया य।।932 ___ अतः जो बहुप्रदेशी द्रव्य है, वे अस्तिकाय हैं और जो अप्रदेशी या एक प्रदेशी द्रव्य है, वह अनस्तिकाय द्रव्य हैं। अस्तिकाय और अनस्तिकाय के इस अवधारणा को स्वीकार कर लेने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जैनदर्शन के अनुसार पांच अस्तिकायों में धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक, अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं तो ये तीनों प्रदेशों का समूह (बहुप्रदेशी) या अस्तिकाय कैसे हो सकते हैं ? डॉ. सागरमल जैन ने इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है कि धर्म, अधर्म और
931 एवं छब्य
मिदं .....
द्रव्यसंग्रह, गा. 23,
पंचास्तिकाय, गा.4
932 वही, गा. 24
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आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से न होकर क्षेत्र की अपेक्षा से है।933 पुद्गल का एक परमाणु जितने आकाश को रोकता है, उसे एक प्रदेश कहा जाता है अर्थात् प्रदेश आकाश की वह अन्तिम इकाई है जो एक पुद्गल परमाणु घेरता है।934 इस दृष्टि से कायत्व (बहुप्रदेशत्व) का अर्थ है विस्तारयुक्त होना। जो द्रव्य विस्तारवान् है वह अस्तिकाय है तथा जो विस्तार रहित है वह अनस्तिकाय है। विस्तारवान् का तात्पर्य है - क्षेत्र का अवगाहन। जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार, प्रदेश प्रचयत्व या कायत्व है।35 धर्म और अधर्म दोनों अस्तिकाय लोक तक सीमित होने से असंख्य प्रदेशी हैं जबकि आकाशास्तिकाय लोकालोकव्यापी होने से अनंतप्रदेशी हैं। पुद्गल का बहुप्रदेशपन परमाणु की अपेक्षा से न होकर स्कन्ध की अपेक्षा से है। यद्यपि परमाणु पुद्गल का एक अंश मात्र है। फिर भी उसमें (प्रत्येक परमाणु में) अनन्त पुद्गल परमाणुओं को समाहित (अवगाहित) करने की शक्ति है अर्थात् प्रदेश–प्रचयत्व है।96 अतः परमाणु को भी उपचार से अस्तिकाय माना जा सकता है। जीवद्रव्य स्वशरीर के बराबर हैं और प्रदेशों की अपेक्षा से लोकाकाश के बराबर है।
काल अस्तिकाय क्यों नहीं ? -
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि काल भी लोकव्यापी है तो अस्तिकाय क्यों नहीं है ? डॉ. सागरमल जैन ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है – अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय या विस्तार का अर्थ है, बहुआयामीविस्तार {Multi dimensional Extension} न कि ऊर्ध्व-एकरेखीय विस्तार [Longitudinal Extension} जैन दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है जिनका
द्रव्यसंग्रह, गा. 27
933 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ - पृ.106 934 जावदियं आयासं 935 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 107 936 सर्वार्थसिद्धि, पृ. 212
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तिर्यक प्रचय या बहुआयामी प्रचय संभव हो। काल में केवल ऊर्ध्व-प्रचय या एक-आयामी विस्तार ही होने से, उसे अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता है।937 पुनः लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित होने पर भी प्रत्येक कालाणु एक स्वतन्त्र द्रव्य है। स्निग्ध और रूक्ष गुण के अभाव के कारण उनमें स्कन्ध के रूप में बन्ध नहीं हो सकता है। स्कन्ध रूप नहीं होने से प्रदेशप्रचयत्व भी नहीं हो सकता है। अतः कालद्रव्य उपचार से भी काय नहीं है।938
पंचास्तिकाय की टीका में 'कायत्व' शब्द का अर्थ 'सावयवत्व' किया गया है। जो अवयवी द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय तथा जो निरवयवी द्रव्य हैं, वे अनस्तिकाय द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन द्रव्यों के एक, अखण्ड और अविभाज्य होने पर भी इनमें क्षेत्र की दृष्टि से सावयवत्व या विभाग की कल्पना की जाती है। यह विभाजन केवल वैचारिक स्तर पर ही किया जाता है। अखण्ड आकाश में भी 'यह घटाकाश है' और 'यह पटाकाश है' ऐसी विभाग की कल्पना की जाती है।939 अन्यथा जिस आकाश में वाराणसी बसी है, जिस आकाश में कलकत्ता बसा है, वे दोनों एक हो जायेंगे। परमाणु निरयव होने पर भी स्निग्ध और रूक्षत्व गुण के कारण परस्पर स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयत्व को धारण कर लेते हैं।940 अतः कालाणु के सिवाय अन्य सभी द्रव्य काय या सावयव है।
डॉ. सागरमल जैन1 ने लिखा है "वस्तुतः कायत्व के अर्थ के स्पष्टीकरण में सावयवत्व एवं सप्रदेशत्व की जो अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वे सभी क्षेत्र के अवगाहन की संकल्पना से सम्बन्धित हैं।" इस आधार पर निष्कर्ष रूप से यही कहा जा सकता है कि विस्तार या प्रसार ही कायत्व है। जिन द्रव्यों में विस्तार या
937 डॉ. सागरमलजैन अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 107 938 पंचास्तिकाय, गा.-4 की तात्पर्यवृत्ति 939 पंचास्तिकाय, गा.-5 की तात्पर्यवृत्ति 940 एयपदेसो वि अणु णाणा, - द्रव्यसंग्रह, गा. 26 941 डॉ. सागरमलजैन अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 106
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प्रसारण की क्षमता है, वे अस्तिकाय द्रव्य हैं और जिन में यह क्षमता नहीं है, वे अनस्तिकाय हैं।
इस अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय द्रव्य हैं। इन्हें पंचास्तिकाय कहा जाता है। कालद्रव्य में विस्तार या प्रदेश प्रचयत्व की क्षमता नहीं होने से वह अनस्तिकाय द्रव्य है। पंचास्तिकाय की अवधारणा षड़द्रव्य की अवधारणा से भिन्न नहीं है। पंचास्तिकाय द्रव्यों के साथ अनस्तिकाय कालद्रव्य को सम्मिलित करने पर षड़द्रव्य की अवधारणा बनती है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल इन द्रव्यों का संयोजन अस्तिकाय के आधार पर करने से पंचास्तिकाय की अवधारणा और द्रव्य-सामान्य की अपेक्षा से करने पर षड़द्रव्य की अवधारणा सामने आती है। अस्तिकाय की अवधारणा और षड़द्रव्य की अवधारणा का प्रतिपाद्य विषय एक है।
षट् द्रव्यों का पारस्परिक सह सम्बन्ध या उपकार - ___ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इन षट् द्रव्यों में परस्पर सम्बन्ध है। ये एक-दूसरे के कार्य में सहयोग करते हैं। धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य निष्क्रिय होने पर भी सक्रिय जीव और पुद्गल को सहयोग करते हैं। धर्मास्तिकाय द्रव्य गतिशील जीव और पुद्गल की गति में सहायता करता है। जीव और पुद्गल संपूर्ण लोक में इच्छानुसार गति करते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि लोकव्यापी धर्मास्तिकाय उनको सहयोग देता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल द्रव्यों की अवस्थिति में सहायक बनता है। यदि अधर्मास्तिकाय स्थिति में जीव और पुद्गल को सहयोग नहीं करे तो जीव, पुद्गल संपूर्ण लोक में निरन्तर गतिशील ही होंगे। कहीं पर स्थिर नहीं हो पायेंगे।
आकाशास्तिकाय द्रव्य अन्य समस्त द्रव्यों के अवकाश में सहायक बनता है। आकाशास्तिकाय द्रव्य लोकालोकव्यापी और विभु होने से अन्य द्रव्यों को अपने में अवकाश देने का कार्य करता है। पुद्गलास्तिकाय का मुख्य कार्य भौतिक जगत की
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रचना है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य, जीवद्रव्य से प्रभावित भी होता है और प्रभावित भी करता है। इन दो द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध से तथा एक-दूसरे के सर्जनात्मक कार्यों में सहयोग करने से सृष्टि की प्रक्रिया चलती है। सत्ता की अपेक्षा से ये दोनों निरपेक्ष होने पर भी संसारिक अवस्था में वे परस्पर सापेक्ष हैं । जीव के संसारिक अवस्था में शरीर और आत्मा, द्रव्यकर्म और भावकर्म, द्रव्यमन और भावमन, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय आदि परस्पर प्रभावित होते हैं और परस्पर प्रभावित भी करते हैं। 942 जीव का शरीर चाहे कोई भी प्रकार का क्यों न हो पौद्गलिक रचना है। जिस मन के माध्यम से जीव चिन्तन करता है तथा जिन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का आसेवन करता है, वह मन और इन्द्रियाँ भी पौद्गलिक हैं। ये जीव के मनोभावों को प्रभावित करते हैं। परिणामस्वरूप जीव कषायभावों से संलिष्ट होकर नये कर्मों का बन्ध करता है। फिर उन द्रव्यकर्मों के विपाक में मनोभाव बनते हैं। इस प्रकार जीव का संसार बढ़ता रहता है। जब जीव अपने पुरूषार्थ से पुद्गल के साथ रहे हुए अपने सम्बन्ध को विच्छेद कर देता है, तब वह मुक्त बन जाता है । किन्तु जीवों के उपकार का प्रश्न है जीव परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं। पिता, पुत्र का पालन-पोषण करता है तो पुत्र बुढ़ापे में पिता की सेवा करके प्रति उपकार करता है । इस प्रकार जीव जगत पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है ( परस्परोपग्रहो जीवानाम् - तत्त्वार्थसूत्र ) अतः जीवन पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। जो पर्यावरण संरक्षण का मूल आधार है ।
942 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - डॉ. सागरमलजैन, पृ. 115
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अन्य दर्शनों से जैनदर्शन के द्रव्य की समानता और विषमता :
जैनदर्शन के अनुसार सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है।943 जो सदा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है, वही द्रव्य है। अखण्ड द्रव्य में उत्तर पर्याय का प्रादुर्भाव उत्पाद है। जैसे – मिट्टी से घट का बनना। पूर्व पर्याय का विनाश व्यय है। जैसे- मिट्टी के पिण्डाकार का नाश। इस प्रकार पूर्व पर्याय का विनाश तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपनी जाति को न छोड़ना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार और घट दोनों ही अवस्थाओं में मिट्टीपना ध्रुव है। प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय उत्तर अवस्था से उत्पन्न, पूर्व अवस्था से व्यय और द्रव्यत्व से ध्रौव्य रहता है। इस प्रकार द्रव्य परिवर्तित होकर भी अपरिवर्तनशील है अथवा बदलकर भी नहीं बदलता है। अस्थान्तरण या पर्यायान्तरण रूप में प्रतिक्षण परिवर्तित होने पर भी वस्तु वही की वही रहती है। उत्पादव्यात्मक होने से जो परिवर्तनशील है वह पर्यायरूप है तथा ध्रौव्यरूप होने से जो अपरिवर्तनशील है वह द्रव्यरूप है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक सत्ता द्रव्यरूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। यही जैनदर्शन का परिणामीनित्यवाद है।
वेदान्त और जैनदर्शन -
जैनदर्शन सम्मत द्रव्य एकान्त रूप से न तो नित्य है और न ही क्षणिक है, अपितु नित्यानित्य है। जैनदर्शन द्रव्य के नित्यपक्ष की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन के निकट है। दोनों दर्शन सत् को नित्य मानने पर भी दोनों की नित्यता में अन्तर है। वेदान्तदर्शन44 सत् को कूटस्थनित्य, परमार्थिक दृष्टि से निर्विकार और अव्यय मानता है अर्थात् त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन घटित नहीं हो सकता है। जबकि जैनदर्शन सत् को परिणामीनित्य मानता है अर्थात् द्रव्य के रूप में नित्य होते हुए भी
943 तत्त्वार्थसूत्र – 5/29 944 भारतीयदर्शन, -जे.एन. सिन्हा, पृ. 314
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पर्याय के रूप में परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तित होते हुए नित्य रहता है। सत्ता अपने अनादि स्वभाव से न तो उत्पन्न होती है और नहीं व्यय होती है, किन्तु उसकी अवस्थाओं का उत्पाद–व्यय होता रहता है। जहाँ ब्रह्मवादी सत् के उत्पाद-व्यय पक्ष या पर्याय को अवास्तविक मानते हैं और ध्रौव्यपक्ष या द्रव्य को वास्तविक मानते है, वहाँ जैनदर्शन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही सत के रूप में व्याख्यायित करता है। क्योंकि सर्वथानित्य या पर्याय निरपेक्ष द्रव्य में अर्थक्रिया संभव नहीं हो सकती है और जो अर्थक्रिया से रहित है उसकी सत्ता ही
नहीं है।945
___ एकान्त नित्य मानने पर वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगी। उसमें कुछ भी परिवर्तन संभव नहीं होगा। मिट्टी सदा मिट्टी ही रहेगी। उससे कभी भी घट नहीं बन सकता है। बालक सदा बालक ही रहेगा, वह युवा न हो पायेगा। युवा युवा ही रहेगा, वह कभी वृद्ध नहीं हो पायेगा। वृद्ध सदा वृद्ध ही बना रहेगा, वह मर न पावेगा। जो जैसा है, वह वैसा ही रहेगा। ऐसी स्थिति में जगत को मिथ्या या असत् ही मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारे अनुभूति में आने वाला जगत तो परिवर्तनशील है। जगत की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा परिवर्तन से रहित हो।946 इसी प्रकार सर्वथा नित्य आत्मा दान, पूजा, हिंसा आदि शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकती है।947 सर्वथा नित्य आत्मा तो वही हो सकती है जिसके स्वभाव में भी परिवर्तन नहीं होता है। पुनः आत्मा नित्य या अपरिवर्तनशील है या तो वह सदा संसारी रूप में रहेगी या मोक्षावस्था में ही रहेगी। न उसका बंधन हो सकता है और नहीं मुक्ति हो सकती है।948 ऐसी स्थिति में बंधन और मुक्ति की व्याख्या, धर्मसाधना आदि सब कुछ अर्थहीन हो जायेंगे।
945 नयचक्र, गा. 45 946 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 9 947 नयचक्र, गा. 46 948 योगबिन्दु, श्लो. 483
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बौद्धदर्शन और जैनदर्शन -
जैनदर्शन वस्तु को परिवर्तनशील मानकर भी उसे सर्वथा क्षणिक नहीं मानता है, जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है। बौद्धदर्शन के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है। सब कुछ क्षणिक है ; कुछ भी स्थायी नहीं है।949 जैनदर्शन भी वस्तु को प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानता है, किन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं मानता है। पर्यायों के उत्पाद और व्ययरूप परिणमन के बावजूद भी द्रव्य का नाश नहीं होता है। उदाहरणार्थ मिट्टी में पिण्डाकार का नाश और घटाकार का उत्पाद रूप परिणमन होने पर भी मिट्टी का सर्वथा नाश नहीं होता है। मिट्टी के पिण्डाकार के नाश के साथ ही मिट्टी का सर्वथा नाश मानने पर तो घट की उत्पत्ति असत् से माननी पड़ेगी परन्तु यह सर्वमान्य नियम है कि सत् का नाश और असत् की उत्पत्ति कभी नहीं होती है।
यदि व्यक्ति या वस्तु अपने पूर्व क्षण की अपेक्षा उत्तर क्षण में सर्वथा बदल जाते हैं तो कर्मफल और नैतिकता आदि की व्याख्या भी नहीं हो सकेगी।950 दान देने वाला या पाप करनेवाला नष्ट हो गया तो दान या पाप का फल किसे मिलेगा? पापफल का भोग कौन करेगा ? इसी प्रकार जिसने कर्मबन्ध किया, वह सर्वथा नष्ट हो गया तो मोक्ष किसका होगा ? पूर्व में किये हुए चोरी आदि के लिए भी व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। क्योंकि जिसने चोरी की, वह तो नष्ट हो गया। पुनः ऋण देनेवाला अपने ऋणी को पहचानकर ऋण को वसूल भी नहीं कर सकता है। ‘यह वही है जिसने ऋण लिया था, ऐसा प्रत्यभिज्ञान क्षणिकवाद में संभव नहीं हो सकता है। परिमाणस्वरूप परिवर्तन के इस दौड़ में एक दूसरे को पहचान नहीं पाते। इस प्रकार क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञान, दान का फल, पापों का भोग, बन्ध और मोक्ष आदि घटित नहीं होते हैं।951
949 भारतीयदर्शन, -जे. एन. सिन्हा, पृ. 27 950 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, पृ. 9 951 प्रत्यभिज्ञा पुनर्दानं भोगोपार्जितैनसाम्
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यही कारण है कि जैनदर्शन वस्तु का सर्वथा नाश नहीं मानता है, अपितु केवल उसका रूपान्तरण या अवस्थान्तरण ही स्वीकार करता है। चूंकि अवस्थाएं या पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होने से ऐसा कहा जाता है कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय होता है। परन्तु परमार्थ से द्रव्य का न तो उत्पाद होता है और न ही व्यय होता है। द्रव्य तो त्रिकाल स्थायी और अनादिनिधन है। द्रव्य के पर्यायों का ही उत्पाद और व्यय होता है। द्रव्य का द्रव्यत्व तो सदा ध्रुव रहता है। बौद्धदर्शन द्रव्य के इस ध्रुवता को अस्वीकार करके केवल उत्पाद और विनाश को ही मानता है। इस दर्शन के मतानुसार पर्याय ही वास्तविक है। द्रव्य वास्तविक नहीं है।
जैनदर्शन और न्याय–वैशेषिकदर्शन -
जैनदर्शन गुण को द्रव्य के आश्रित और द्रव्य को गुणों का समुदाय मानता है। द्रव्य और गुण परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। न्याय–वैशेषिकदर्शन भी द्रव्य को गुण और क्रिया का आधार तो मानते हैं, परन्तु उनके अभिमत में गुण और द्रव्य सर्वथा भिन्न है। प्रथम क्षण में द्रव्य गुणों से रहित होता है, तदनंतर समवाय नामक पदार्थ से दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है।952 परन्तु समवाय सम्बन्ध से अनवस्था का दूषण आता है। यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो पुनः प्रश्न उठता है कि समवाय सम्बन्ध गुण और द्रव्य में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि समवाय सम्बन्ध अन्य समवाय सम्बन्ध से गुण और द्रव्य में रहता है तो उस समवाय के लिए भी दूसरे समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था दोष आता है।953 यदि समवाय सम्बन्ध बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में रहता है तो समवाय की तरह गुण भी बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य में रह सकते हैं। अतः जैनदर्शन के अभिमत में द्रव्य और गुण परस्पर भिन्नाभिन्न है।
बन्धमोक्षादिकं सर्व क्षणभंगाद् विरूध्यते – नयचक्र, पृ. 23 पर उद्धृत 952 भारतीय दर्शन, - जे. एन. सिन्हा, पृ. 113 953 नयचक्र, गा. 47
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द्रव्य और गुण को एकान्त भिन्न मानने पर द्रव्य का अभाव और द्रव्य का अनंतता का दोष उत्पन्न होता है।954 गुण किसी न किसी द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं। यदि वह द्रव्य गुण से भिन्न है तो गुण दूसरे किसी द्रव्य के आश्रय से रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य की अनन्तता का प्रसंग आता है। द्रव्य गुणों का समुदाय है। यदि गुण समुदाय (द्रव्य) से भिन्न है तो फिर समुदाय ही नहीं रहेगा। इस तरह गुणों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न मानने पर तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इसलिए गुण-गुणी का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। जो गुण के प्रदेश हैं वही गुणी अर्थात् द्रव्य के प्रदेश हैं। गुण और द्रव्य में प्रदेश भेद नहीं होने पर संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भेद भी है।955
जैनदर्शन और सांख्य योगदर्शन
जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन की तरह जड़ और चेतन तत्त्व को माननेवाला द्वैतवादी दर्शन है, परन्तु वह सांख्यदर्शन की तरह पुरूष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य नहीं मानता है, अपितु वस्तुमात्र को परिणामीनित्य मानता है फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन तत्त्व। सांख्यदर्शन के अभिमत में प्रकृति परिणामीनित्य है
और पुरूष कूटस्थनित्य है।956 जबकि जैनदर्शन में जड़ और चेतन दोनों ही परिणामीनित्य हैं।
पुरूष को कूटस्थनित्य मानने पर उसके बन्धन एवं मुक्ति की अवधारणा नहीं बनेगी तथा जड़ प्रकृति का बंधन और मुक्ति मानना युक्तिसंगत नहीं होगा। जबकि सांख्य एवं योगदर्शन बंधन और मुक्ति को मानकर मुक्ति का मार्ग भी प्रस्तुत करते
954 पंचास्तिकाय, गा. 44 955 संज्ञा संख्या लक्षणथी पणि भेद एहोरो जाणी रे - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/16 का पूर्वार्ध 956 भारतीयदर्शन, -जे. एन. सिन्हा, पृ. 190
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जैनदर्शन और मीमांसा -
यद्यपि जैनदर्शन और मीमांसा दोनों ही सत्ता को परिणामीनित्य मानते हैं, फिर भी मीमांसा आत्मा की नित्य मुक्ति को नहीं मानता है। वह स्वर्ग प्राप्ति तक ही अपने को सीमित रखता है। उसका कहना है कि यदि मुक्ति नित्य है तो फिर आत्मा का परिणामी नित्यत्व खण्डित होगा।
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चतुर्थ अध्याय
जैनदर्शन में गुण का स्वरूप एवं प्रकार
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का मुख्य प्रतिपाद्य विषय द्रव्य, गुण और पर्याय हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यों के स्वरूप, लक्षण एवं भेद-प्रभेदों के विवेचन के पश्चात् गुणों के स्वरूप, लक्षण एवं भेद - प्रभेदों की चर्चा भी विस्तार से की है। यद्यपि द्रव्य को गुण - पर्याययुक्त अथवा गुण और पर्याय के भाजन रूप में परिभाषित करने से द्रव्य के स्वरूप, लक्षण आदि की चर्चा में गुण की चर्चा भी सामान्यरूप से समाहित हो ही जाती है, तथापि गुण क्या है ? गुण कितने प्रकार के और कौन-कौन से हैं ? गुण का द्रव्य और पर्याय से क्या सम्बन्ध है ? किस द्रव्य के कितने और कौन-कौन से गुण होते हैं ? क्या एक गुण अन्य गुणों के रूप में परिणमित हो सकता है या नहीं ? गुण और स्वभाव में क्या अन्तर है ? इत्यादि प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। गुण के स्वरूप को समीचीन रूप से अवगत हुए बिना द्रव्य के सर्वांगीण स्वरूप को जान पाना भी संभव नहीं है । इस दृष्टि से यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ में गुण का भी विशद विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
I
1. गुण शब्द के विभिन्न अर्थ
-
345
जैन वाङ्मय में गुण शब्द विभिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन आचार्यों द्वारा आचारमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में संदर्भ के अनुसार 'गुण' शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में किया जाता रहा है। जैसे - इन्द्रियों के भोग के विषय, संसार ( आवर्त), सद्गुण (अच्छाइयाँ), शक्ति या शक्ति के अंश या भाग, स्वभाव, लक्षण, द्रव्याश्रित गुणधर्म इत्यादि ।
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प्राचीन ग्रन्थों में गुण शब्द का अर्थ -
__प्राचीनतम आगम 'आचारांगसूत्र'7 में 'गुण' शब्द का प्रयोग संसार (आवर्त) या इन्द्रियों के विषय के अर्थ में किया गया है। इस सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि "जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे।" इन्द्रियों के विषय भोग की आकांक्षा के कारण संसार है और संसार के परिणाम स्वरूप इन्द्रियों के विषय है। 'सूत्रकृतांगसूत्र958 में प्रतिवादकर्ता साधु को 'बहुगुणप्रकल्प' होना चाहिए, ऐसा उल्लेख है अर्थात् प्रतिवादी साधु प्रतिपक्षी के हृदय में स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता, साधु संस्था के प्रति श्रद्धा, धर्म के प्रति आकर्षण, वीतराग देवों के प्रति बहुमान आदि अनेक गुण उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। इसी सूत्र में अन्यत्र मद, निन्दा, आसक्ति इत्यादि तथा सुखशीलता, कामभोग, प्रमाद के त्याग को एवं समता आदि गुणों को मोक्ष के साधन माना गया हैं। यहाँ दोनों ही संदर्भ में 'गुण' शब्द अच्छाइयाँ (Virtues) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्थानांगसूत्र में 'अंश' के अर्थ में गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। पुद्गलद्रव्य में कितने अंशवाले वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों की एक वर्गणा होती है, इस संदर्भ में गुण शब्द का अंश के अर्थ में प्रयोग किया है। इसी सूत्र में आगे जीवद्रव्य को उपयोग गुणवाला बताया है। यहाँ गुण शब्द 'लक्षण' के रूप में प्रयुक्त हुआ है। उपयोग जीव का लक्षण है। __भगवतीसूत्र में यद्यपि गुण शब्द का उपयोग सामान्य रूप से अच्छाइयां या सद्गुणों के अर्थ में प्रयोग किया गया है, परन्तु ‘स्वभाव' के अर्थ में भी 'गुण' को प्रयुक्त किया गया है। अगुरूलघु को द्रव्यों का गुण कहा है। द्रव्य के जिस स्वभाव के कारण उसके गुण बिखर कर अलग नहीं होते हैं उस स्वभाव को अगुरूलघुगुण कहा जाता है।
957 आचारांगसूत्र, 1/1/5/40, 1/2/1/65, 1/5/3/200 958 अ) बहुगुणप्पगायइं कज्जा अत्तसमाहिए।
जेणऽण्णो ण विरूज्झेज्जा तेण तं तं समायरे।। ................... सूत्रकृतांग, 1/3/3/22 ब) अभविंसु पुरा वि
.. सूत्रकृतांग, 1/2/3/162 959 अ) स्थानांगसूत्र, 1/243 से 247, ब) गुणओ उवओगगुणे – स्थानांग, 5/3/173 960 अ) भगवइ, 7/9/12
ब) भगवइ, 11/107, 108
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परवर्ती ग्रन्थों में गुण शब्द का अर्थ -
___ उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य के आश्रित रहनेवाले धर्म या शक्ति के अंश (विशेष) के लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग हुआ है। दशवैकालिकसूत्र62 में गुण शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है। इस सूत्र में प्राय: करके सर्वत्र गुण शब्द का अर्थ अच्छाइयां या सद्गुण ही किया गया है। इसमें ज्ञान, दर्शन, संयम, तप, आर्जव भाव इत्यादि को गुण शब्द से अभिहित किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र63 में गुण शब्द का प्रयोग अलग-अलग अध्याय में अलग-अलग अर्थ में किया है। दूसरे अध्याय में गुणीत के अर्थ में, पंचम अध्याय में द्रव्य के आश्रित रहने वाले द्रव्य के ही स्वभाव या धर्म के लिए तथा अंश के लिए गुण शब्द आया है। परन्तु इसी सूत्र के सप्तम अध्याय में सद्गुण (Virtues) के लिए गुण शब्द प्रयुक्त है। उमास्वाति विरचित दूसरे ग्रन्थ 'प्रशमरतिप्रकरण964 में गुण शब्द का प्रयोग सद्गुण के अर्थ में तो हुआ ही है साथ में काल के वर्तना एवं परत्वापरत्व आदि लक्षण के लिए तथा पुद्गल के वर्णादि लक्षण के लिए भी गुण शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकरण में 'असंख्यातगुणहीन' ऐसा शब्द प्रयोग करके यहाँ गुण से तात्पर्य भाग किया गया है।965
आचार्य कुन्दकुन्द ने जहाँ 'समयसार986 में गुण का प्रयोग ज्ञान, दर्शन आदि के लिए एवं चेतना आदि के लक्षण के रूप में किया है, वहीं पंचास्तिकाय और 'प्रवचनसार' में गुण का अर्थ द्रव्य के धर्म या स्वभाव या शक्ति–अंश (विशेष) के लिए
961 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6 962 दशवैकालिकसूत्र, 6/68, 7/49 963 तत्त्वार्थसूत्र, 2/40, 5/37, 50, 33, 35, 7/6 964 प्रशमरतिप्रकरण, का. 208
965 वही, का. 218
966 समयसार, गा. 30,41
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भी किया है।67 सन्मतिप्रकरण88 में गुण शब्द के अन्य अर्थ के साथ उपरोक्त अर्थ भी किया गया है।
राजवार्तिक.69 में गुण शब्द के विभिन्न अर्थों को उदाहरण से स्पष्ट किया गया है। जैसे रूपादि गुण में गुण का अर्थ रूपादि इन्द्रियों के विषय है, दोगुणावयव, त्रिगुणावयव में गुण का अर्थ भाग है, गुणज्ञ साधु में गुण का अर्थ उपकार है, गुणवानदेश में गुण से तात्पर्य धान्य आदि द्रव्य है। जिस देश में धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है, वह गुणवानदेश कहलाता है।
आचार्य हरिभद्र', आचार्य हेमचन्द्र प्रभृति ने प्रायः करके गुण शब्द का प्रयोग सद्गुण (Virtues) या अच्छाइयाँ के अर्थ में ही किया है। अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों के लिए भी गुण शब्द को प्रयुक्त किया गया है।972
इस प्रकार संक्षेप में ऐसा कहा जा सकता है कि आचारमीमांसा के संदर्भ में गुण शब्द का प्रयोग प्रायः सम्यक् ज्ञान, दर्शन, संयम, तप आदि सद्गुणों या अच्छाइयों के लिए हुआ है। जबकि तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में, प्रायः गुण शब्द का प्रयोग भाग, अंश और द्रव्य का धर्म या स्वभाव या शक्ति अंश के रूप में किया गया है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में 'गुण' शब्द से द्रव्य के धर्म, स्वभाव या शक्ति (विशेष) ही अपेक्षित है।
ब) प्रवचनसार, 21, 5
967 अ) पंचास्तिकाय, 3-4, 968 सन्मतिप्रकरण, 3/12 969 राजवार्तिक, 5/34/2 970 योगशतक, 15, 37, 45 971 योगशास्त्र, 2/83 972 वसुनन्दिश्रावकाचार, गा. 513
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यशोविजयजी की दृष्टि में गुण का स्वरूप -
आगम साहित्य में सर्वप्रथम 'उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य गुण और पर्याय के स्वरूप की चर्चा हुई है। उसमें द्रव्य को गुणों का आश्रयस्थल और गुण को द्रव्य के आश्रित रहनेवाले धर्मों के रूप में व्याख्यायित किया है। वस्तुतः द्रव्य, गुण और पर्याय का आधार है। यहाँ द्रव्य को आधार और गुण एवं पर्याय को आधेय के रूप में माना है। तत्त्वार्थसूत्र में भी गुण को परिभाषित करते हुए 'द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणा974 ही कहा गया है। इस सूत्र में विशेषरूप से यह बताया गया है कि गुण द्रव्य में रहते हैं, परन्तु उनके कोई गुण नहीं होते हैं। वे गुणरहित होते हैं। यदि गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर अनवस्थादोष का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।
द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है या द्रव्य जिस लक्षण का त्याग कदापि नहीं करता है, वह गुण है। गुण द्रव्य का विधान है अर्थात् उसका स्वलक्षण है। एक द्रव्य अपने स्वलक्षण के कारण ही अन्य द्रव्य से पृथक् अस्तित्व रखता है। उदाहरणार्थ जीव द्रव्य अपने ज्ञानादि गुणों के कारण पुद्गल आदि द्रव्यों से भिन्न है तथा इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन गुणों के कारण जीव आदि अन्य द्रव्यों से भिन्न अपनी पहचान रखता है। यदि ज्ञानादि भेदकगुण न हो तो द्रव्यों में सांकर्य हो जायेगा। अतः द्रव्य में भेद करनेवाला धर्म भी गुण है।75 आचार्य देवसेन ने भी लगभग इसी रूप में गुण को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार जो विवक्षित द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करते हैं, वे गुण हैं।976 गुण की उपरोक्त परिभाषा ज्ञानादि विशेष गुणों को ही परिलक्षित करती है, परन्तु द्रव्य में विशेष गुणों के अतिरिक्त द्रव्यत्व, अस्तित्व आदि सामान्य गुण भी पाये जाते हैं, जो सभी द्रव्यों में समान रूप से विद्यमान रहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में गुण
उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6
973 गुणाणमासओ दव्वं 974 तत्त्वार्थसूत्र, 5/40 975 द्रव्यं द्रव्यान्तराद् येन विशिष्यते स गुणः । .... 976 गुण्यते पृथक क्रियते द्रव्यं द्रव्याद्यैः ते गुणाः
सर्वार्थसिद्धि, 5/38/600
आलापपद्धति, 1/93
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को भिन्न रूप से परिभाषित करते हुए सामान्य और विशेष दोनों गुणों की व्याख्या की है। इनकी चर्चा हम आगे करेगें।
सामान्यतया वस्तु की विशिष्टता ही उसका गुण होता है। जैसे–चन्द्र की विशिष्टता शीतलता है और वही उसका गुण है। साधु की विशिष्टता समता है और समता ही साधु का गुण है। जिससे वस्तु की पहचान बनती है, वह उस वस्तु का गुण है। इस दृष्टि से गुण और विशेषता- ये दोनों ही एकार्थ वाचक है। पंचास्तिकाय के तात्पर्यवृत्ति में अनेकान्तात्मक वस्तु के अन्वयी विशेष को ही गुण कहा है।' द्रव्य को अन्वय और गुण को अन्वयी कहा जाता है। द्रव्य का बिना किसी रूकावट से प्रवाहरूप से चलते रहने से ऐसा अनुगत अर्थ घटित होने से उसे अन्वय कहा जाता है।78 ये अन्वय जिनके हैं वे अन्वयी कहलाते हैं। इसका आशय यह है कि जिसमें 'यह वही है ऐसी बुद्धि हो, वह अन्वयी कहलाता है। द्रव्य में अन्वयता या 'यह वही है' ऐसी पहचान गुणों के कारण ही होती है। क्योंकि द्रव्य के समस्त अवस्थाओं में (पर्यायों में) गुण की अनुवृत्ति बराबर पायी जाती है। इसलिए गुण अन्वयी कहलाते हैं। अतः अनन्त गुणों के समुदाय रूप द्रव्य में जिन विशेषों (विशिष्टताओं) की अनुवृति पायी जाती है, वे अन्वयी विशेष ही गुण है। गुण को विस्तार विशेष भी कहा जाता है।980 जो विशेष सदैव गुण के आश्रित रहते हैं और जो निर्गुण या निर्विशेष होते हैं ऐसे जितने भी 'विशेष' हैं, वे सब गुण कहलाते हैं।981
द्रव्य का जो अनादि-अनिधन सदृश परिणाम है, वही गुण है।92 द्रव्य के सभी पर्यायों में जो एक समानता या सदृश्ता दिखाई देती है, उसे ही गुण नाम से अभिव्यंजित किया गया है। परिणमनशील द्रव्य में दो प्रकार के परिणाम होते हैं
977 अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्ययिनो विशेषा गुणाः .................. पंचास्तिकाय-तात्पर्यवृत्ति, गा. 10 978 अनुरित्व्युच्छिन्न्प्रवाहरूपेण वर्तते यद्वा। ...
पंचाध्यायी, श्लो. 1/142 979 अयमन्वयोस्ति येषामन्वयनिस्ते भवन्ति गुणवाच्या ....
वही, श्लो. 1/144 980 गुणाः विस्तार विशेषाः
प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति, गा. 2/3 981 द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशोश्च ...
पंचाध्यायी, श्लो. 1/104 982 सरिसो जो परिणामो अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि। ............. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 241
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सदृशपरिणाम और विदृशपरिणाम। जिसके कारण 'यह वही है' ऐसी सदृशता देखी जाती है, वह सदृश परिणाम ही गुण है। चैतन्य की अपेक्षा से मानव, पशु, नारकी, देव आदि सब एक समान दिखाई देते हैं। जीव मरकर चाहे देव, दानव, मानव, पशु हो जाये, परन्तु चैतन्य गुण सबमें परिलक्षित होता है। चैतन्यता के कारण ही देव, दानव आदि जीव की पर्याय में सदृशता दिखाई देती है। जीव का चैतन्यगुण जीव के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त रहता है। जीव का चैतन्य गुण अनादि-अनिधन है। न उत्पन्न होता है और नहीं नष्ट होता है। किसी जीव का चैतन्यगुण नष्ट नहीं होता है। उसी प्रकार किसी भी पुद्गलद्रव्य में चैतन्यगुण उत्पन्न नहीं होता है।
जिस द्रव्य के जितने और जो-जो गुण होते हैं वे तीनों काल में उतने और वे ही रहते हैं, बदलते नहीं है। गुण सदा द्रव्य के सहवर्ती होते हैं।983 गुण से पृथक् द्रव्य का और द्रव्य से पृथक् गुण का अस्तित्व नहीं होता है। एक द्रव्य के सभी गुण युगपद् या एक साथ रहते हैं। इन गुणों का समुदाय ही द्रव्य है। अतः नयचक्र में जो द्रव्य के सहभावी हो उन्हें गुण कहा गया है। आलापपद्धति85 में भी गुण उन्हें ही कहा गया है जो द्रव्य में युगपद् रूप से सदाकाल रहते हों। गुण को जैसे अन्वयी कहा जाता है, वैसे ही ‘सहभू' (साथ-साथ रहने वाले) भी कहा जाता है। क्योंकि द्रव्य के सभी गुण एक साथ रहते हैं। पर्याय की तरह क्रम-क्रम से नहीं होते हैं।986
गुण के शक्ति, लक्ष्य, धर्म, रूप, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब पर्यायवाची शब्द हैं।87 इनको एकार्थवाची कहने से गुण के वास्तविक स्वरूप को समझना सुलभ हो जाता है।
983 सहवर्तिनो गुणाः .......
... आवश्यकनियुक्ति, हरि.वृ, पृ. 445 984 दव्वाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया। ..... नयचक्र, गा. 11 985 सह भूवो गुणाः
आलापपद्धति, सू. 92 986 तद्वाक्यान्तरमतेद्यथा गुणाः सहमूवोपि चान्वयिनः । ....... पंचाध्यायी, श्लो. 1/138 987 शक्तिर्लक्ष्य विशेषो धर्मो रूपं गुणः स्वभावश्च ।
प्रकृतिः शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः।। .......... वही, श्लो. 1/48
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उपरोक्त समस्त चर्चा के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है यशोविजयजी के पूर्व जैन दार्शनिकों ने निम्न चार बिन्दुओं के आधार पर गुण के स्वरूप को निर्देशित किया है -
1. जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं- वे गुण हैं। 2. द्रव्य का भेदक धर्म गुण है। 3. द्रव्य की अन्वयी विशेषताएँ गुण हैं। 4. द्रव्य के सहवर्ती या सहभावी तत्त्व ही गुण हैं।
प्रथम परिभाषा द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध के द्वारा दोनों के मध्य भेद का संकेत करती है और भेदवादी न्याय और वैशेषिकदर्शन के निकट है।988 दूसरी परिभाषा द्रव्य के विशेष भेदक गुण बताती है, क्योंकि एक द्रव्य को अन्य द्रव्य से पृथक् करनेवाले उस द्रव्य के ज्ञानादि विशेष गुण ही हो सकते हैं। तीसरी और चौथी परिभाषा में विशेष रूप से अन्तर नहीं है। गुण वही होता है, जो द्रव्य की सहभावी विशिष्टताओं को सूचित करता है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने गुण को परिभाषित करने के लिए हरिभद्र की टीकाओं के साथ-साथ नयचक्र और आलापपद्धति का अनुसरण किया है। उन्होंने वस्तु के सहभावी धर्म को ही गुण के नाम से अभिहित किया है।989 जब से द्रव्य है और जब तक द्रव्य रहेगा तब तक रहने वाले धर्म सहभावी धर्म है
और द्रव्य के ये सहभावी धर्म ही गुण कहे जाते हैं। जैसे – जीव का उपयोगगुण, पुद्गल का ग्रहणगुण, धर्मास्तिकाय का गतिहेतुत्वगुण, अधर्मास्तिकाय का स्थितिहेतुत्वगुण, आकाशास्तिकाय का अवगाहनाहेतुत्वगुण, काल का वर्तनाहेतुत्वगुण990 आदि। ये गुण द्रव्य की शक्तिरूप से, सदा विद्यमान रहते हैं।
988 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ. 61 98 धरम कहीजइ गुण-सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे .. ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 990 सहभावी कहतां-यावद्रव्यभावी जे धर्म, ते गुण कहिईं जिस जीवनो उपयोग गुण ...
............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 का टब्बा
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वस्तुतः गुण से द्रव्य का और द्रव्य से गुण का अस्तित्व भिन्न नहीं है। अतः दोनों में एकद्रव्यपना है। द्रव्य और गुण दोनों के प्रदेश भिन्न नहीं होने से उनमें एक क्षेत्रपना भी है। दोनों के सदा साथ रहने से उनमें एक कालपना भी है। दोनों का एक स्वभाव (ध्रुवपना) होने से एकभावपना भी है। इस कारण से गुण द्रव्य के सहभावी धर्म कहे जाते हैं।991
यशोविजयजी के प्रायः समकालीन पं. राजमल्ल कविराजकृत पंचाध्यायी में 'सहभावी' शब्द का अर्थ भिन्न रूप से किया गया है। गुण द्रव्य के सदा साथ-साथ रहने से सहभावी है ऐसा अर्थ करने पर गुण भिन्न पदार्थ और द्रव्य भिन्न पदार्थ हो जायेगा। जबकि जैनदर्शन के अनुसार गुण से भिन्न द्रव्य कोई पदार्थ नहीं है। द्रव्य अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है। इसलिए सहभावी शब्द का अर्थ यह करना चाहिए कि द्रव्य के सभी गुण साथ-साथ रहते हैं।992 गुणों के जितने भी परिणमन होते हैं, उन सभी में तत्-तत् गुण साथ-साथ रहते हैं। गुणों का परस्पर वियोग नहीं होता है। जो गुण प्रथम समय में हैं, वे ही गुण द्वितीय समय में भी रहते हैं। पर्यायों में यह बात नहीं है। जो पर्यायें पूर्व समय में हैं, वे उत्तर समय में विद्यमान नहीं रहती
991 नयचक्र का विवेचन -पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.6 922 ननु सह समं मिलित्वा द्रव्येण च सहभुवो भवन्त्विति चेत् ।
तन्न यतो हि गुणेभ्यो द्रव्यं पृर्थगिति यथा निषिद्वत्वात् ।। .....
पंचाध्यायी, 1/140
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गुण के प्रकार : सामान्यगुण और विशेषगुण - __मुख्य रूप से गुण के दो प्रकार हैं –सामान्यगुण और विशेषगुण ।993 षड़द्रव्यों के समस्त गुण गुणत्व सामान्य की अपेक्षा से समान है। परन्तु इनमें कुछ गुण द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करने से विशेष भी हैं।994 विशेष गुणों के अभाव में द्रव्यों में परस्पर भेद करना संभव नहीं होगा। जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। जो साधारण गुण है वे सामान्य गुण कहलाते हैं तथा जो असाधारण गुण हैं, वे विशेष गुण कहलाते हैं। जो गुण सामान्य रूप से सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं, वे सामान्य गुण हैं। जो गुण किसी द्रव्य विशेष में ही पाये जाते हैं, वे विशेष गुण हैं।995 जैसे अस्तित्वगुण द्रव्य मात्र में पाये जाने से सामान्यगुण के अन्तर्गत आता है जबकि ज्ञानगुण मात्र जीवद्रव्य में पाये जाने से विशेषगुणों के अन्तर्गत आता है। अस्तित्व आदि सामान्य गुणों से द्रव्यसामान्य की सिद्धि होती है तथा ज्ञान आदि विशेष गुणों से द्रव्यविशेष की सिद्धि होती है।996
परमात्मप्रकाश की टीका में गुणों के तीन भेद किये गये हैं97 –साधारणगुण, असाधारणगुण और साधारणासाधारण गुण। अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि गुण समस्त द्रव्यों में पाये जाने से साधारणगुण है, जबकि ज्ञान, सुख आदि गुण उमुक द्रव्य में ही होने से असाधारणगुण है तथा अमूर्तत्व, प्रदेशत्व आदि गुण साधारणासाधारणगुण है। पुद्गलद्रव्य में अमूर्तत्वगुण का अभाव होता है। अतः अमूर्तत्वगुण धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्यों की अपेक्षा साधारणगुण है। जबकि
.......
993 अ) गुणा विस्तारविशेषाः ते द्विविधाः सामान्यविशेषात्मकत्वात् .......... प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति गा. 2/3 ब) दव्वाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया .
नयचक्र, गा. 11 994 अस्ति विशेषस्तेषां सति च समाने यथा गुणत्वेपि ................. पंचाध्यायी, गा. 1/160 995 अ) साधारणणास्तु यतरे ततरे नाम्ना गुणा हि सामान्या ............... वही, गा. 1/161
ब) जैनसिद्धान्तदीपिका, 1/37 996 तेषामिह वक्तव्ये हेतु
पंचाध्यायी, गा. 1/162 997 गणास्त्रिविधा भवन्ति। केचन साधारणाः केचन असाधारणाः केचन साधारणासाधरणा इति ... ... परमात्मप्रकाश गा. 1/58 की
टीका
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पुद्गलद्रव्य की अपेक्षा से असाधारण है। यशोविजयजी ने प्रवचनसार, आलापद्धति के अनुसार सामान्य और विशेष के रूप से गुणों के दो ही भेद किये हैं।
सामान्यगुण दस हैं -अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ।998
विशेषगुण सोलह हैं -ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, रूप, रस, गन्ध स्पर्श, गमनहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व एवं अचेतनत्व।99
आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में गुण और स्वभाव में भेद किये बिना अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगत्व, असर्वगत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व और अगुरूलघुत्व इन इक्कीस गुणों को सामान्यगुण कहा है। परन्तु आलापपद्धति के कर्ता देवसेन ने गुण और स्वभाव को अलग-अलग करके सामान्य गुणों के अन्तर्गत अस्तित्व आदि दस गुणों को ही गिनाया है।1000 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में भी आलापपद्धति का अनुसरण करके अस्तित्व आदि दस गुणोंकोसामान्यगुण के रूप में तथा ज्ञानादि सोलह गुणों को विशेषगुणों के रूप में व्याख्यायित किया गया है। 1001
998 अ) नयचक्र ........ गा. 12
ब) आलापपद्धति - सू. 9 999 अ) नयचक्र ...... गा. 13
ब) आलापपद्धति -सू. 11 1000 प्रवचनसार, गा. 2/3 की तात्पर्यवृत्ति 1001 द्रव्यगुणपर्यायनोरास की ग्यारहवीं ढाल, गा. 1, 2, 3
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यशोविजयजी के अनुसार सामान्य गुण -
1. अस्तित्व -
अस्ति अर्थात् होने का भाव अस्तित्व है। अस्तित्व का अर्थ है सत्। द्रव्य के सद्भावरूप या सत्रुप स्वभाव को अस्तित्वगुण कहते हैं।002 जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी नाश नहीं होता है, वह शक्ति अस्तित्वगुण है। 003 इस गुण के कारण ही द्रव्य अपनी सभी पर्यायों में अन्वितरूप से विद्यमान रहता है। यशोविजयजी के अनुसार जिससे वस्तु की सद्रूपता का व्यवहार होता है, वह अस्तित्वगुण है।1004 वस्तु है, वस्तु सत् है, वस्तु विद्यमान है, इस जगत में वस्तु की उपस्थिति है, इत्यादि को सद्रूपता कहा जाता है। 1005 इस सद्रूपता का व्यवहार अर्थात् 'वस्तु है' इस कथन का व्यवहार जिस गुण के कारण होता है, वह अस्तित्वगुण है। यदि द्रव्य में अस्तित्वगुण नहीं होता तो असद्रूतता का व्यवहार होता। परन्तु षड्द्रव्यों में सद्रूपता (है, सत् है, इत्यादि) का व्यवहार होता है। अतः अस्तित्वगुण छहों द्रव्यों में पाया जाता है। आचार्य तुलसी ने भी द्रव्य के विद्यमानता को ही अस्तित्व कहा है। 1006 अस्तित्वगुण के कारण ही जीव-अजीव आदि छहों द्रव्य काल की अपेक्षा अनादि-अनंत और स्वयंसिद्ध है। इसलिए उन्हें किसी ने बनाया नहीं है। इसी अपेक्षा से छहों द्रव्यों का समूहरूप विश्व भी ईश्वर आदि की रचना नहीं है।1007
....................
1002 अस्ति इति एतस्य भावः अस्तित्वं सद्रूपत्वं
आलापपद्धति, सू. 94 1003 नयचक्र का विवेचन - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.7 1004 तिहां अस्तित्वगुण ते कहिइं, जेहथी सद्पतानो व्यवहार थाइं ................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/1 का टब्बा 1005 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 536 1006 जैनसिद्धान्तदीपिका, 1/38 1007 जिनागमसार, पृ. 316
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2. वस्तुत्व -
वस्तु के भाव को वस्तुत्व कहते हैं, अर्थात् वस्तु के सामान्य–विशेषात्मक स्वभाव को वस्तुत्व कहते हैं।1008 जिस शक्ति के सद्भाव से द्रव्य में अर्थक्रिया होती है, उसे वस्तुत्वगुण कहा जाता है। 1000
अर्थक्रिया से तात्पर्य है प्रयोजनभूतक्रिया। प्रत्येक द्रव्य का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करना प्रयोजनभूतक्रिया है। जैसे घट जल धारण करता है। प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषरूप होने से अपना-अपना प्रयोजनभूत कार्य करता है।
यशोविजयजी ने उस गुण को वस्तुत्वगुण कहा है जिससे जाति-व्यक्तिरूपता का ज्ञान होता है। जैसे किसी व्यक्ति को एक घट दिखाकर यह समझाया जाता है कि इस-इस आकार का जो होता है, वह घट कहलाता है। इस प्रकार प्रतिनियत घट को दिखाने पर भी समस्त घट जाति का ज्ञान हो जाता है। परन्तु जब 'इमं घटमानय' ऐसा कहने पर जिस घट की आवश्यकता होती है, उसी प्रतिनियत घट का ज्ञान होता है, अर्थात् घट को व्यक्तिरूप से जाना जाता है। इस प्रकार जिस गुण के कारण द्रव्य सामान्य या जातिरूप से तथा विशेष या व्यक्तिरूप से जाना जाता है, वह वस्तुत्वगुण है।010 साधु निष्परिग्रही होता है, साधु निर्ग्रन्थ होता है, साधु साधक होता है ....... ऐसा कहने पर सामान्य रूप से साधु जाति का बोध होता है और यह साधु समता की मूर्ति है, यह साधु तपस्वी है, यह साधु ध्यानी है .... ऐसा कहने पर साधु विशेष की अर्थात् व्यक्ति का बोध होता है। वस्तु का यह जातिरूप और व्यक्तिरूप –दोनों प्रकार का ज्ञान वस्तुत्वगुण के कारण होता है। ___जो अवग्रहकाल में वस्तु का सामान्यरूप से, अपाय काल में उसी वस्तु का विशेषरूप से तथा अवग्रह से लेकर अपाय तक के पूर्ण उपयोग में सामान्यात्मक और
1008 वस्तुनोभावः वस्तुत्वं, सामान्य विशेषात्मकं वस्तु ....
आलापपद्धति, सूत्र 95 1009 नयचक्र -विवेचन, पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री, पृ. 7 1010 वस्तुत्व ते कहिइं, जेहथी जाति-व्यक्तिरूपपणुं जाणिइं, जिमघट ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 का
टब्बा
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विशेषात्मक संपूर्ण वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह वस्तु के वस्तुत्वगुण के कारण ही होता है।1011
3. द्रव्यत्व -
द्रव्य का जो भाव है, वह द्रव्यत्व है। अपने-अपने प्रदेशों के समूहों के द्वारा अखण्डवृत्ति से जो स्वाभाविक और वैभाविक पर्यायों को प्राप्त (द्रवण) करता है, प्राप्त करेगा और भूतकाल में प्राप्त करता आया है, वह द्रव्य है।012 इसका अर्थ यह हुआ कि द्रव्य त्रिकाल नित्य होते हुए भी विभिन्न पर्यायों को प्राप्त करते रहने से परिणमनशील है। द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव होने पर भी पर्यायों के रूप में उसमें उत्पाद और व्यय चलता रहता है। यह उत्पादव्ययध्रौव्यरूप सत् ही द्रव्य का लक्षण है, जो गुण और पर्यायों में व्याप्त रहता है।013 सत् ध्रौव्यरूप से गुण में और उत्पाद-व्यय के रूप में पर्याय में व्याप्त रहता है। जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य एकसा न रहता है और उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं, वह द्रव्यत्व गुण है। 1014 द्रव्यत्व गुण के कारण ही द्रव्य विभिन्न पर्यायों के रूप में द्रवित होता रहता है, अर्थात् द्रव्य में उत्पाद-व्यय होता रहता है। द्रव्यत्वगुण यही सूचित करता है कि द्रव्य त्रिकाल अस्तिरूप होने पर भी सदा एक सदृश नहीं रहता है। परन्तु प्रतिसमय बदलनेवाला परिणमनशील है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यत्व' गुण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि द्रव्यत्व का अर्थ है -द्रवीभाव होना अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में द्रवित होना। गुण और पर्याय के आधार पर अभिव्यक्त होनेवाली एक प्रकार की जाति
1011 अत एव अवग्रहइं-सामान्यरूप सर्वत्र भासई छइं .................... वही, गा. 11/1 का टब्बा 1012 द्रव्यस्य भावः द्रव्यत्वं, निजनिजप्रदेशसमूहै अखण्डवृत्या स्वभाव-विभाव पर्यायान् द्रवति . ...... आलापपद्धति, सूत्र 96 1013 सद्रव्यलक्षणम् ।। सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायाव् व्याप्नोति इति सत् ........ आलापपद्धति, सू. 97 1014 कार्तिकेयानुप्रेक्षा का विवेचन- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 172
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विशेष अथवा गुणों को ही परिवर्तन के आधार पर अभिहित होने वाली एक प्रकार की जाति विशेष द्रव्यत्वगुण कहलाता है।1015
नैयायिकों के अनुसार गुण और जाति भिन्न-भिन्न पदार्थ है। अतः द्रव्यत्व यदि जाति विशेष है तो वह गुण नहीं हो सकता है।1016 क्योंकि 'गुणत्वजातिमत्वं' के आधार पर जिसमें गुणत्व जाति है वह गुण है। द्रव्यत्व यदि गुण है तो, इसमें भी गुणत्व नाम की जाति होनी चाहिए। परन्तु जाति में जाति मानने पर अनवस्था दोष लगता है। इसलिए द्रव्यत्व में जाति नहीं मान सकते और जाति रहित होने से द्रव्यत्व गुण नहीं हो सकता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने उपरोक्त शंका को निरर्थक बताकर कहा है कि जैनदर्शन के अनुसार सहभावीधर्म गुण और क्रमभावी धर्म पर्याय हैं। इस व्याख्या के अनुसार द्रव्यत्व द्रव्य का सहभावी धर्म होने से गुण है और गुण स्वयं निर्गुण होते हैं। 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इस वचनानुसार द्रव्यत्व गुणरूप होने से तथा गुणत्व जातिरूप होने से गुण और द्रव्य भिन्न-भिन्न नहीं है।1017 गुण होने से उसमें 'गुणत्व जातिरूप' गुण नहीं रहता है, अतः वह निर्गुण भी है और निर्गुण होने से वह 'गुण' ही है, 'जाति नहीं है। ___पुनः जो-जो गुण होते हैं वे-वे उत्कर्ष अपकर्ष वाले होते हैं। ऐसी व्याप्ति भी घटित नहीं होती है। नैयायिकों के मान्य संख्या परिमाण, पृथ्कत्व, संयोग आदि गुण होने पर भी उनमें उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता है। गुण में उत्कर्ष और अपकर्ष का होना अनिवार्य नहीं है।1018 अतः द्रव्यत्व सामान्य गुण है, जो छहों द्रव्यों में पाया
1015 द्रव्यमाव जे गुणपर्यायाधारता मिऽव्यङग्यजातिविशेष ते द्रव्यत्व ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/1 का
टब्बा
1016 ए जातिरूप माटइं गुण न होई।
वही, गा. 11/1 का टब्बा 1017 एहवी नैयायिकादि वासनाई आशंका न करवी, जे माटइं
"सहभूवो गुणाः, क्रमभूवः पर्यायाः" एहवी ज जैनशास्त्र व्यवस्था छइ ......... वही, गा. 11/1 का टब्बा 1018 द्रव्यत्वं चेद् गुणः स्यात् रूपादिवदुत्कर्षापकर्षमागि स्यात् ................ वही, गा. 11/1 का
टब्बा
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जाता है। यदि द्रव्यों में द्रव्यत्व गुण नहीं मानेगें तो सभी द्रव्य सर्वथा परिणमनरहित होकर कूटस्थ नित्य हो जायेंगे।
4. प्रमेयत्व -
प्रमेय के भाव को प्रमेयत्व कहा जाता है और जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाण-ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, वह प्रमेय है।019 जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय बनता है, वह प्रमेयत्व है। द्रव्य अपनी समस्त भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन पर्यायों सहित किसी न किसी प्रमाण ज्ञान का विषय बनता है। प्रमेयत्व गुण के कारण ही द्रव्य को प्रमेय या ज्ञेय कहते हैं। प्रमेयत्व गुण सभी द्रव्यों में पाये जाने पर भी स्व और पर को जानने का सामर्थ्य जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं है। जीवद्रव्य ज्ञाता और ज्ञेय (प्रमेय) दोनों है। यशोविजयजी के शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा जो प्रमा (ज्ञान) का विषय बनता है, वह प्रमेयत्वगुण है। 1020 यह प्रमेयत्व गुण कथंचिद् अन्वित होकर सभी द्रव्यों में साधारण रूप से पाया जाता है। 1021 इसका तात्पर्य यह है कि छहों द्रव्यों प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणों के द्वारा परिच्छेद्य नहीं होते हैं। कोई द्रव्य एक प्रमाण का विषय बनता है तो दूसरा कोई द्रव्य दो प्रमाणों के द्वारा जाना जाता है। जैसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य छद्मस्थों के लिए अनुमान और आगम प्रमाण के द्वारा परिच्छेद्य है। छद्मस्थ जीव के लिए धर्म आदि चार द्रव्य अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं बन सकते हैं। परन्तु केवली इन्हीं चार द्रव्यों को प्रत्यक्षप्रमाण से जानते हैं। यद्यपि छद्मस्थ प्राणी के लिए घट, पट आदि स्थूल पुद्गलस्कन्ध प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ग्राह्य होने पर भी परमाणु, द्वयणुक, त्र्यणुक आदि रूप पुद्गलद्रव्य अनुमान और आगम प्रमाण से ग्राह्य है। परन्तु केवली भगवान के
1019 प्रमेयस्यभावः प्रमेयत्वं, प्रमाणेन स्व-पररूपं परिच्छेद्यं प्रमेयम् ... 1020 प्रमाणनइं परिच्छेद्य जे रूप -प्रमाविषयत्व, ते प्रमेयत्व कहिइं
आलापपद्धति, सू. 98 यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/1 का
...........
.... द्रव्यगुणपणा
टब्बा
1021 ते पणि कथंचिद अनुगत सर्वसाधारण गुण छइ .....
वही. गा. 11/1 का टब्बा
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लिए स्थूल स्कन्ध और सूक्ष्म परमाणु-द्वयणुक आदि पुद्गल द्रव्य प्रत्यक्ष प्रमाण से ही ग्राह्य है। शरीरधारी जीव को छद्मस्थ प्राणी प्रत्यक्ष प्रमाण से जानता है तो शरीररहित जीव को अनुमान और आगमप्रमाण से जानता है। सर्वज्ञ को दोनों प्रत्यक्षप्रमाण से ग्राह्य है। इस प्रकार किसी-किसी जीव की अपेक्षा से अलग-अलग द्रव्य अलग-अलग प्रमाण के विषय बनते हैं। इसलिए प्रमेयत्वगुण सभी द्रव्यों में सर्वसाधारण रूप से पाये जाने पर भी कथंचित् रूप से ही अनुगत है। छहों द्रव्यों में प्रमेयशक्ति होने से ही ज्ञान छहों द्रव्यों के स्वरूप का निर्णय कर सकता है। प्रमेयत्वगुण को नहीं मानने पर सभी द्रव्य अज्ञात ही रहेंगे। वे किसी भी प्रमाण का विषय नहीं बन सकेगें।
5. अगुरूलघुत्व -
पांचवाँ सामान्यगुण अगुरूलघुत्व है। आलापपद्धति के अनुसार अगुरूलघुत्व का जो भाव है, वही अगुरूलघुत्व गुण है। यह गुण सूक्ष्म और वचन से अगोचर है। यह प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान रहता है और आगमप्रमाण से ही ज्ञात होता है। 1022 जिनोपदिष्ट सूक्ष्म तत्त्व जो युक्तियों से सिद्ध नहीं होते हैं, उन्हें आगमसिद्ध मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं।1023 यशोविजयजी ने भी अगुरूलघुगुण के विषय में अधिक कुछ स्पष्टीकरण नहीं करके संक्षेप में इतना ही कहा है कि अगुरूलघुत्वगुण सूक्ष्म है अर्थात् समझने के लिए दुर्बोध है। शब्दों के माध्यम से इस गुण की व्याख्या करना संभव नहीं होने के कारण यह आगमग्राह्य है। 1024
1022 अगुरूलघोः भावः अगुरूलघुत्वं । सूक्ष्माः अवाग्गोचरा : ... ......... आलापपद्धति, सू. 99 1023 सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिनैव हन्यते
आलापपद्धति, श्लो. 4 1024 अगुरूलघुत्वगुण सूक्ष्म, आज्ञाग्राह्य छइं .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/1 का
टब्बा
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पं. धीरजभाई डाह्यालाल ने अगुरूलघुत्वगुण को स्पष्ट करने के प्रयत्न में आलापपद्धति025 की पंक्तियों को उद्धृत करके उसके आधार पर कहा है- जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्यों में प्रतिसमय अनंतभागवृद्धि आदि छह प्रकार की हानि-वृद्धि के रूप में परिणमन करने की योग्यता है, वह अगुरूलघुत्वगुण है। इस गुण के कारण प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय छहों प्रकार की हानि-वृद्धि में से किसी भी एक प्रकार में अवश्य परिणमन होता रहता है। द्रव्य किसी एक ही स्वरूप में स्थिर नहीं रहता है। 1026 इस प्रकार प्रतिसमय षट्स्थान हानि-वृद्धि होने पर भी एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के रूप में, एक गुण का परिणमन दूसरे गुण के रूप में नहीं होना, द्रव्य के गुणों का बिखरकर पृथक् नहीं होना तथा उनका न्यूनाधिक नहीं होना अगुरूलघुत्वगुण है।1027 आचार्य तुलसी के अनुसार द्रव्य का स्व स्वरूप से विचलित नहीं होना तथा उसके अनंतगुणों को बिखरकर अलग-अलग नहीं होना अगुरूलघुत्वगुण है। 1028 इस गुण के कारण पर्याय में हानि-वृद्धि होने पर भी गुण कभी कम या अधिक नहीं होते हैं, त्रैकालिक द्रव्यगुण एकरूप ज्यों के त्यों स्थित रहते हैं।
6. प्रदेशत्व -
प्रदेश के भाव को प्रदेशत्व कहते हैं। जिसका दो भाग नहीं हो सकता है ऐसा अविभाज्य पुद्गल परमाणु जितने आकाश या क्षेत्र को घेरता है, वह प्रदेश है। 1029 अतः प्रदेशत्व का अर्थ होता है क्षेत्रत्व। द्रव्य का क्षेत्रव्यापीपना ही प्रदेशत्व गुण है।
1025 आलापपद्धति, सूत्र 15, 16, 17 1026 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 541 1027 नयचक्र विवेचन -पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.7 1028 स्वस्वरूपमविचलत्वं -अगुरूलघुत्वं .................... जैनसिद्धान्तदीपिका, सू. 1/38 1029 प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं .... .............................................. आलापपद्धति, सू. 100
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जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य रहता है, वह प्रदेशत्व गुण है।030 प्रदेशत्वगुण के कारण प्रत्येक द्रव्य अपने प्रदेशरूप आकार में अर्थात् स्वक्षेत्र में स्थित रहता है। धर्म, अधर्म और जीवद्रव्य का आकार असंख्यातप्रदेशी है। अलोकाकाशद्रव्य का आकार अनंतप्रदेशी है। लोकाकाश का आकार असंख्यातप्रदेशी है। पुद्गल परमाणु का आकार एकप्रदेशी है, परन्तु स्कन्ध का आकार संख्यात असंख्यात् यावत् अनंतप्रदेशी है। कालाणु का आकार एकप्रदेशी
है।1031
उपाध्याय यशोविजयजी ने भी एक पुद्गल परमाणु जितने आकाशक्षेत्र में व्याप्त रहता उतने क्षेत्र में व्याप्तपने को प्रदेशत्वगुण कहा है। परमाणु एक आकाश प्रदेश में व्याप्त रहता है। अतः उस पुद्गल परमाणु का एक आकाशप्रदेश में स्थित रहना प्रदेशत्वगुण है।1032
7. चेतनत्व -
___चेतना के भाव को चैतन्य कहा जाता है। चैतन्य का अर्थ है अनुभवन, चैतन्य अनुभूतिरूप है, अनुभूति क्रियारूप है और क्रिया मन, वचन और काय में अन्वित है।1093 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में भी आत्मा के अनुभवात्मक गुण को चैतन्यगुण कहा है। इस गुण के कारण ही 'मैं सुख-दुःखादि का अनुभव करता हूँ, ऐसा व्यवहार होता है। 034 आत्मा को सुख-दुःख, आनंद-प्रमोद, हर्ष-शोक की अनुभूति होती है। वह सुख-दुःखादि को उस-उस रूप में जानती और मानती है। यही आत्मा का चैतन्यगुण है। इस चैतन्यगुण से ही जन्म होना, बढ़ना, भग्न अस्थियों का जुड़ना
1030 नयचक्र-विवेचन, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.7 1031 नियमसार, गा. 35, 36 1032 अविभागी पुद्गल यावत् क्षेत्रइं रहइं, तावत् क्षेत्रव्यापीपणुं, ते प्रदेशत्वगुण, ....द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.11/2 का
टब्बा
1033 चेतनस्य भावः चेतनत्वं। चैतन्यं अनुभवनं
आलापपद्धति, सूत्र 101 1034 चेतनत्व, ते आत्मानो अनुभवरूप गुण कहिइं जेहथी ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 का टब्बा
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आदि जीवनधर्म होते हैं।1035 शरीर में चेतना नहीं रहने पर बढ़ना, जुड़ना, आहार आदि का पाचन, रूधिर का दौड़ना, नाड़ियों का चलना, घाव का सूखना आदि जैविक क्रियाएँ भी नहीं होती है। जब तक शरीर में चेतनत्वगुण रहता है तब तक ही प्राणी जीता है। अतः सुख-दुःख रूप संवेदन या अनुभूति ही चेतनत्व गुण है। केवल जीवद्रव्य में ही चैतन्यगुण होता है। धर्मास्तिकाय आदि शेष पांच द्रव्यों में चैतन्य नहीं होता है।
8. अचेतनत्व -
अचेतन के भाव को अचेतनत्व कहा जाता है।1096 अचेतनत्व का अर्थ है अनुभूति का अभाव। चैतन्यगुण का विपरीत गुण अचैतन्यगुण है। 1037 जिस शक्ति के निमित्त से सुख-दुःख का संवेदन नहीं होता है, आनंद-प्रमोद, हर्ष-शोक, पीड़ा आदि का अनुभव नहीं होता है, वह अचेतनत्वगुण है। जड़पना अचेतनत्वगुण है। यह गुण जीवद्रव्य को छोड़कर शेष धर्मास्तिकाय आदि पाँचों द्रव्यों में पाया जाता है।
9. मूर्तत्व -
मूर्तता का जो भाव है, वह मूर्तत्व है। रूप रसादि का सद्भाव मूर्तत्व गुण है। 1038 यशोविजयजी ने मूर्तता को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो गुण रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के संनिवेश से अभिव्यक्त होता है तथा केवल पुद्गलास्तिकाय द्रव्य में ही रहता है, वह मूर्तता गुण है।1039 दूसरे शब्दों में एक प्रकार का रूप युक्त
1035 जेहथी जाति-वृद्धि-भग्नक्षत संरोहणादि जीवनधर्म होई छइ .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/2 का टब्बा 1036 अचेतनस्थ भावः अचेतनत्वं अचैतन्य अननुभवनं ................. आलापपद्धति, सूत्र 102 1037 एहथी विपरीत अचेतनत्व-अजीवमात्रनो गुण छइं ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/2 का टब्बा 1038 मूर्तस्यभावः मूर्तत्वं । रूपादिमत्वं ......
आलापपद्धति, सू. 103 1039 मूर्ततागुण- रूपादिसंनिवेशाभिव्यङग्य पुद्गलद्रव्यामात्रवृत्ति छई..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 का टब्बा
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आकारविशेष, रूपीपना, इन्द्रियगोचरपना, दृश्याकारपना मूर्तत्व गुण है। 1040 मूर्तत्व गुण एकमात्र पुद्गलद्रव्य में ही पाया जाता है, शेष धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों में मूर्तत्वगुण नहीं होता है।
10. अमूर्तत्व - ____ अमूर्तता का भाव अमूर्तत्वगुण है जिसका अर्थ है रूपादि से रहित होना। 1041 मूर्ततागुण का विपरीत गुण अमूर्तता है। यशोविजयजी के अनुसार मूर्तता के अभाव के साथ समानरूप से या निश्चितरूप से विद्यमान रहनेवाला गुण अमूर्तत्वगुण है।1042 इसका तात्पर्य है, वर्णादिरहितपना, दृश्याकाररहितपना, इन्द्रियगोचररहितपना, अरूपीपना है और यही अमूर्तत्वगुण है। जहाँ-जहाँ मूर्तता का अभाव होता है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र अमूर्ततागुण व्यापक रूप से विद्यमान रहता है। यह गुण पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्यों में पाया जाता है। अचेतनत्व और अमूर्तत्व दोनों गुण भावात्मक या विधानरूप वाले गुण हैं -
अचेतनत्वगुण चेतनत्व का अभावस्वरूप और अमूर्तत्वगुण मूर्तत्व का अभाव स्वरूप नहीं हैं। दोनों भावात्मक या विधानरूपवाले गुण हैं। क्योंकि अमूर्त द्रव्यों में रहे हुए कार्यों की जनकता के अवच्छेदक के रूप में और अचेतनद्रव्यों में रहे हुए कार्यों की जनकता के अवच्छेदक के रूप में अमूर्तत्व और अचेतनत्व दोनों गुण सिद्ध होते हैं। अपने-अपने व्यवहारविशेष के नियामक के रूप में ये दोनों गुण भिन्न-भिन्न रूप में सिद्ध होते हैं। 1043
1040 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 554 10 अमूतस्य भावः अमूतत्व रूपादि रहितत्व ........................................ आलापपद्धति, सू. 104 1042 अमूर्तततागुण-मूर्तत्वाभावसमनियत छइं .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.11/2 का
टब्बा
1043 "अचेतनत्वामूर्तत्वयोश्चेतनत्वमूर्तत्वाभावरूपत्वान्न गुणत्वम्" इति नाशङ्कनीयम्, अचेतननामूर्तद्रव्यवृत्ति
कार्यजनकतावच्छेदकत्वेन, व्यवहारविशेषनियामकत्वेन च ... ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 का टब्बा
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कोई भी कार्य उत्पन्न होता है तो उसके पीछे कोई न कोई जनक कारण अवश्य रहता है। वह कारण किसी न किसी धर्म से युक्त होता है और भावात्मक होता है। क्योंकि अभाव से कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती है। इसी प्रकार 'यह अचेतन है', 'यह अचेतन है', 'यह अमूर्त है', 'यह अमूर्त है', इस प्रकार का जो बोधात्मक कार्य है, उसका जनक कारण अचेतनत्व और अमूर्तत्व गुण वाले पदार्थ है। इन पदार्थों में ऐसा कोई धर्म विद्यमान है जिसके कारण 'यह अचेतन है', 'यह अमूर्त है' ऐसा बोध होता है। अचेतनत्व और अमूर्तत्व गुण ही वह धर्म है, जिसके कारण 'यह अचेतन है', 'यह अमूर्त है' ऐसा बोध होता है। अतः 'यह अचेतन है', 'यह अमूर्त है' ऐसे बोध रूप कार्य का जनक कारण अचेतन और अमूर्त पदार्थ के अवच्छेदक धर्म के रूप में अचेतनत्व और अमूर्तत्व गुण की सिद्धि होती है।
दूसरी बात यह है कि व्यवहार विशेष के नियामक रूप से भी दोनों गुणों की सिद्धि होती है। जहाँ अभावात्मकता होती है, वहाँ यह अचेतन है, यह अमूर्त है, ऐसा व्यवहार नहीं होता है। जैसे जहाँ घट का या शशशृंग का अभाव होता है, वहाँ 'यह अघट है' यह अशशशृंग है ऐसा व्यवहार नहीं होता है, अपितु घटाभाव, शशशृंगाभाव ऐसे वाक्य प्रयोग ही होते हैं। इसी प्रकार यदि अचेतनत्व, और अमूर्तत्व गुण चेतनत्व
और मूर्तत्व का अभाव स्वरूप ही होते तो 'यह अचेतन है', 'यह अमूर्त है ऐसा विधिमुख प्रयोग न होकर 'यह चेतन नहीं है' और 'यह मूर्त नहीं है' ऐसा निषेधमुख व्यवहार ही होता। परन्तु 'यह अचेतन है और 'यह अमूर्त है' ऐसा अन्वयाभिमुख रूप व्यवहारविशेष ही प्रसिद्ध है। यदि ऐसा व्यवहारविशेष होता है तो इस का नियामक कारण भी अवश्य होना चाहिए और वह नियामक कारण ही अचेतनत्व और अमूर्तत्वगुण है।
तीसरी बात यह है कि जहाँ नञ् पद होता है, वहाँ केवल अभावात्मक अर्थ ही नहीं होता है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'नञ' दो प्रकार का होता है - प्रसह्यनञ् और पर्युदास नञ् । जो नञ् केवल निषेध को ही सूचित करता है, वह प्रसह्य नञ् है, जैसे- अनर्थकं वचः। इस उदाहरण में अर्थ (प्रयोजन) का निषेध हुआ है। जो नञ्
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जिसका निषेध करता है, वही उसके विपरीत का विधान भी करता है, वह पर्युदास नञ् है। जैसे यह अधर्मी है। यहाँ अधर्मी का अर्थ धर्म के विरूद्ध पाप का आचरण करने वाला पापी व्यक्ति है। इस प्रकार पर्युदास नञ् विपरीत का विधान करता है। अचेतनत्व और अमूर्तत्व शब्दों के प्रारम्भ में जो नञ् है वह पर्युदास नञ् होने से चेतनत्व और अमूर्तत्व का निषेध या अभाव न होकर चेतनत्व और मूर्तत्व के विपरीत गुणों अचेतनत्व और अमूर्तत्व का भाव है।1044 अतः इन कारणों से अचेतनत्व और अमूर्तत्वगुण अभावात्मक गुण न होकर दोनों स्वतंत्र सद्रूप गुण है।
यशोविजयजी के अनुसार विशेष गुण -
____ जो गुण छहों द्रव्यों में न होकर किसी प्रतिनियत द्रव्यमात्र में पाये जाते हैं, वे विशेषगुण कहलाते हैं। आलापपद्धति के अनुसार उपाध्याय यशोविजयजी ने भी इन सोलह विशेष गुणों को इस प्रकार गिनाया है - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, गमनहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व और अचेतनत्व । 1045 'आलापपद्धति' और 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में इन सोलह विशेष गुणों का अर्थ प्रसिद्ध होने से विशेष व्याख्या की नहीं की गई है। परन्तु माइल्लधवलकृत नयचक्र में ज्ञानादि विशेष गुणों के अवान्तर भेदों की चर्चा हुई है।
यथा
"अट्ठ चदु णाणदंसणभेया सत्तिसुहस्स इह दो दो । वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायव्वा।।"1046
ज्ञानगुण के आठ, दर्शनगुण के चार, वीर्य और सुख के दो, रूप और रस के पाँच, गन्ध के दो और स्पर्श के आठ भेद हैं। इनका सामान्य विवेचन इस प्रकार है:
1044 नञः पर्युदाससार्थकत्वात् नञ्पदवाच्यतायाश्चः ..... 1045 ज्ञानदृष्टि सुख वीर्य फरस रस 1046 नयचक्र, गा. 14 (माइल्ल धवलकृत)
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 टब्बा . द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/3
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1. ज्ञान -
वस्तु का विशेष बोध ज्ञान है। जिससे वस्तु का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित होता है, वह ज्ञान है अथवा जिससे स्व और पर को जाना जाता है, वह ज्ञान है। 1047 दूसरे शब्दों में जिस शक्ति के माध्यम से जीव वस्तु को उसके गुण, जाति, रूप इत्यादि सहित विशेष रूप से जानता है, वह ज्ञान गुण है। ज्ञान गुण के अवान्तर भेद आठ हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान ।1048 1. मतिज्ञान - पाँच इन्द्रियों और मन के सहयोग से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान
कहलाता है।1049 2. श्रुतज्ञान - शास्त्रों के वाचन अथवा श्रवण से जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान
कहलाता है, जो मतिपूर्वक होता है।1050 3. अवधिज्ञान – इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव
की मर्यादा सहित मूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान अवधिज्ञान है। 051 4. मनःपर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन के सहयोग के बिना समनस्क जीवों के मन का
साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। 052 5. केवलज्ञान – साक्षात् आत्मा से समस्त द्रव्यों और उनकी त्रैकालिक पर्यायों के
एक साथ जाननेवाला ज्ञान केवलज्ञान है। 1053 6. मति-अज्ञान - मिथ्यात्व से संयुक्त मतिज्ञान, मति-अज्ञान है।
1047 मूलाचार, 12/1199 की वृत्ति 1048 कर्मग्रन्थ, 4/11 1049 तत्त्वार्थसूत्र, 1/13 1050 सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1/20 का भाष्य 1051 नयचक्र-विवेचन, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.8 1052 मनोमात्रसाक्षात्कारि मनः पर्यवज्ञान 1053 जैनतर्कभाषा, पृ. 23 तत्त्वार्थसूत्र, 1/30
जैनतर्कभाषा, पृ. 23
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7. श्रुत-अज्ञान - मिथ्यात्व से संयुक्त श्रुतज्ञान, श्रुत-अज्ञान है।
8. विभंगज्ञान - मिथ्यात्व से संयुक्त अवधिज्ञान, विभंगज्ञान है।
2. दर्शनगुण -
जिस शक्ति के कारण जीव को पदार्थ का सामान्य प्रतिभास होता है, वह दर्शनगुण है। जाति, क्रिया, गुण आदि विकल्पों से रहित वस्तु के सत्तामात्र का बोध दर्शन कहलाता है।1054 दर्शन चार प्रकार का होता है -चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। 1. चक्षुदर्शन – चक्षु इन्द्रिय से होनेवाला निर्विकल्पकबोध चक्षुदर्शन है। 2. अचक्षुदर्शन – चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों से होने वाला निर्विकल्पक
बोध अचक्षुदर्शन है।1055 3. अवधिज्ञान के पूर्व होनेवाला दर्शन अर्थात् इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना
सभी रूपी पदार्थों का सामान्यबोध अवधिदर्शन है।1056
4. केवलदर्शन - समस्त रूपी और अरूपी पदार्थों का निर्विकल्पक बोध केवलदर्शन
है। 1057
3. वीर्य -
जीव की शक्ति वीर्य कहलाती है। वीर्य दो प्रकार का होता है1058 1. क्षायिक वीर्य – जो शक्ति वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से उत्पन्न होती है, वह क्षायिकवीर्य है। 2.
1054 गोम्मटसार जीवकाण्ड, 482 1055 गोम्मटसार जीवकाण्ड 484
1056 पंचसंग्रह, 1/140
1057 गोम्मटसार जीवकाण्ड, 486 1058 नयचक्र का विवेचन- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.8
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क्षयोपशमिक वीर्य जो वीर्य वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, वह
क्षयोपशमिकवीर्य है ।
5. रूप
4. सुख
जीव को जो सातारूप संवेदन होता है, वह सुख है, जिसके दो भेद हैं1059 1. इन्द्रियजन्यसुख – चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला सुख इन्द्रियजन्यसुख है। 2. अतीन्द्रियसुख साक्षात् आत्मानुभूति के संवेदन से होने वाला सुख
अतीन्द्रियसुख है।
6. रस
जो विषय चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है, वह रूप या वर्ण है । वर्ण के शुक्ल, कृष्ण, नील, लाल और पीत ये पांच भेद होते हैं ।
-
7. गन्ध
रसनेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य विषय रस हैं, जिसके मधुर तिक्त, कटुक, कसैला और अम्ल ये पांच भेद होते हैं ।
—
1059 वही
-
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जिस विषय की अनुभूति घ्राणेन्द्रिय द्वारा की जाती है वह गन्ध है । गन्ध के दो भेद सुगन्ध और दुर्गन्ध है ।
8. स्पर्श
जिस विषय का ग्रहण स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा होता है, वह स्पर्श है। स्पर्श के आठ भेद इस प्रकार हैं :- कठोर, कोमल, गुरू, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ।
-
पृ. 8
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9. गतिहेतुत्व -
जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षा कारण के रूप में सहायक बनना गतिहेतुत्वगुण है। 10. स्थितिहेतुत्व -
जीव और पुद्गल की स्थिति में अपेक्षा कारण के रूप में सहयोग करना स्थितिहेतुत्व गुण है। 11. अवगाहनहेतुत्व -
द्रव्यों के अवगाहन में अपेक्षा कारण के रूप में सहयोग करना अवगाहनहेतुत्व गुण है। 12. वर्तनाहेतुत्व -
सभी द्रव्यों के वर्तना में निमित्त बनना वर्तना हेतुत्वगुण है।।
इसके अतिरिक्त 13. चेतनत्व, 14. अचेतनत्व, 15. मूर्तत्व और 16. अमूर्तत्व, -इन चार गुणों के स्वरूप की व्याख्या हमने सामान्य गुणों के अन्तर्गत की है।
चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व ये चार गुण स्वजाति की अपेक्षा से सामान्यगुण भीऔर ‘परजाति की अपेक्षा से विशेषगुण भी हैं।1060 ये गुण स्वजाति की अपेक्षा से अनुगत व्यवहार करते हैं, अर्थात् 'यह भी चेतन है', 'यह भी चेतन है' इस प्रकार सभी चेतनद्रव्यों (स्वजातीय द्रव्यों में) चेतनत्व गुण की विद्यमानता को सूचित करता है। एक चेतनद्रव्य में चेतनता हो और किसी अन्य चेतनद्रव्य में चेतनता न हो ऐसा नहीं होता है। परन्तु सभी चेतनद्रव्यों में समान रूप से रहे हुए चेतनत्वगुण को सामान्य गुण कहा गया है। संक्षेप में जितने भी चेतनद्रव्य हैं, उन सभी में चेतनत्वगुण सर्व साधारण रूप से विद्यमान होने से चेतनत्वगुण को सामान्यगुणों के अन्तर्गत लिया गया है। इसी प्रकार अचेनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व गुण के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
1060 चेतनादिक च्यार स्वजाति गुण सामान्य कहाई जी ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4
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यही चेतनत्व आदि चार गुण परजाति की अपेक्षा से व्यावृत–व्यवहार करने से विशेषगुण भी कहे जाते हैं।1061 चेतनत्व नाम का गुण स्वाश्रयभूत चेतन द्रव्य को अन्य अचेतनद्रव्य आदि से व्यावृत्त करता है। इसी प्रकार अचेतन द्रव्य में रहा हुआ अचेतनत्वगुण स्वाश्रयभूत अचेतनद्रव्य को अन्य चेतनादि द्रव्यों से व्यावृत करता है। इसलिए ये विशेषगुण भी है। इस प्रकार यही चार गुण अपेक्षा भेद से सामान्यगुण
और विशेषगुण दोनों ही हैं। अन्वय–व्यवहार की अपेक्षा से सामान्यगुण और व्यावृतव्यवहारकअपेक्षा से विशेषगुण हैं।
1061 परजातिनी अपेक्षाइं चेतनत्वादिक, अचेतनादिक द्रव्यथी स्वाश्रयव्यावृत्ति करइं छइं ...........
............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4 का टब्बा
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373
सभी द्रव्यों के सामान्यगुण और किसी एक द्रव्य के विशेषगुण :
द्रव्यों के अस्तित्व आदि कुल दस गुण हैं। इन दस गुणों में से चेतनत्व आदि चार गुण परस्पर परिहाररूप से रहते हैं अर्थात् जहाँ चेतनत्व गुण रहता है वहाँ अचेतनत्व का अभाव होता है और जहाँ अचेतनत्वगुण विद्यमान रहता है, वहाँ चेतनत्वगुण नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार जहाँ मूर्तत्वगुण रहता है, वहाँ अमूर्तत्व और जहाँ अमूर्तत्व गुण विद्यमान रहता है, वहाँ मूर्तत्वगुण नहीं रहता है। इस कारण से धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक द्रव्य में दस सामान्य गुणों में से आठ-आठ गुण ही पाये जाते हैं। 062 प्रत्येक द्रव्य में पाये जाने वाले सामान्य गुण इस प्रकार हैं - 1. धर्मास्तिकाय - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
अचेतनत्व और अमूर्तत्व-8 2. अधर्मास्तिकाय – अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
अचेतनत्व और अमूर्तत्व-8 3. आकाशास्तिकाय – अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
अचेतनत्व और अमूर्तत्व-8 4. कालद्रव्य - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
अचेतनत्व और अमूर्तत्व-8 5. पुद्गलास्तिकाय – अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
अचेतनत्व और मूर्तत्व-8 6. जीवास्तिकाय - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व,
चेतनत्व और अमूर्तत्व-8
1062 अ) ए 10 सामान्य गुण छइ मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व परस्पर परिहारइं रहइं - .........
........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/2 का टब्बा
... आलापपद्धति, सू.10
ब) प्रत्येकं अष्टौ अष्टौ सर्वेषाम्
......
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374
10 सामान्य गुण का यन्त्र
क
सामान्य गुणों के नाम
धर्मास्तिकाय
कालद्रव्य
जीवास्तिकाय
कुल
द्रव्य
2.
1
।
1. अस्तित्वगुण
वस्तुत्वगुण 3. |
द्रव्यत्वगुण
प्रमेयत्वगुण 1 | 5. अगुरूलघुत्वगुण 1 प्रदेशत्वगुण |
1 चेतनत्वगुण x अचेतनत्वगुण
| 9. मूर्तत्वगुण 10| अमूर्तत्वगुण
| 1
1 । ___ 888
| |- |- |-- |------| अधर्मास्तिकाय
x/-/-/-/-/----- पुद्गलास्तिकाय
| |- - - - - - - - - - आकाशास्तिकाय
4.
6. /
6 द्रव्य 16 द्रव्य 1 6 द्रव्य 1 6 द्रव्य 1 6 द्रव्य 1 6 द्रव्य 1 1 द्रव्य x 5 द्रव्य x 1 द्रव्य 1 5 द्रव्य 8
x
8.
1
|
1
|
8
प्रत्येक द्रव्य में पाये जाने वाले विशेष गुण इस प्रकार हैं 10631. धर्मास्तिकाय – गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व – 3 2. अधर्मास्तिकाय – स्थितिहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व – 3 3. आकाशास्तिकाय – अवगाहनहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व – 3 4. कालद्रव्य – वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व – 3 5. पुद्गलास्तिकाय – वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मूर्तत्व और अचेतनत्व – 6 6. जीवास्तिकाय – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अमूर्तत्व और चेतनत्व – 6
1063 ते मध्य पुदगलद्रव्यनइं वर्ण, गंध, रस, स्पर्श
द्रव्यगणपयोयनोरास, गा. 11/3 का
टब्बा
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क्र.
1.
2.
3.
4.
5.
6.
788
7.
8.
9.
विशेष गुणों के
नाम
ज्ञान
दर्शन
सुख
वीर्य
स्पर्श
रस
गन्ध
वर्ण
गतिहेतुता
स्थिति
10
11 अवगाहनहेतुता
वर्तना
12
13
14
15
16
चेतनत्व
अव
मूर्त अमूर्तत्व कुल विशेष
गुण
धर्मास्तिक
X
X
X
X
X
X
X
X
1
X
X
X
X
1
X
1
3
16 विशेष गुणों का यंत्र
अधर्मास्तिका
X
X
X
X
X
X
X
X
X
1
X
X
X
1
X
1
3
आकाशास्तिकाय
X
X
X
X
X
X
X
X
X
X
1
X
X
1
X
1
3
कालद्रव्य
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X
X
X
X
X
X
X
X
X
X
X
1
X
1
X
1
3
पुद्गलास्तिकाय
X
| × ×
X
X
X
1
1
1
1
X
X
X
X
X
1
1
X
6
जीवास्तिकाय
1
1
1
1
X
X
X
X
X
X
X
X
1
X
X
1
6
375
कुल द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
1 द्रव्य
प्रत्येक द्रव्य में उपरोक्त गुणों की गणना स्थूल व्यवहारनय की अपेक्षा से की गई है। क्योंकि जीव में ज्ञान आदि चार ही विशेषगुण हैं या पुद्गल आदि में वर्ण आदि चार ही विशेषगुण हैं ऐसा एकान्तरूप से स्वीकार कर लेने पर 'अष्टौसिद्धगुणाः, एकत्रिंशत् सिद्धादिगुणाः इत्यादि सूत्रपाठों के साथ संगति नहीं बैठ सकती है। शास्त्रों में सिद्ध परमात्मा के अष्टकर्मों के क्षय से केवलज्ञान, केवलदर्शन, अव्यावाधसुख, क्षायिकचारित्र, अक्षयस्थिति, अरूपी, अगुरुलघु और अनंतवीर्य ऐसे आठ गुण तथा स्पर्शरहित रूपरहित, गंधरहित इत्यादि 31 गुण भी बताये गये हैं । पुद्गल
1 द्रव्य
5 द्रव्य
1 द्रव्य
5 द्रव्य
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के भी एकगुणकाला, द्विगुणकाला, त्रिगुणकाला यावत् अनंतगुणकाला ऐसे अनंत भेद कहे गये हैं अतः सूत्रपाठों के अर्थानुसार विवक्षा भेद से विशेषगुण अनंत है । परन्तु छद्मस्थ उन अनंत गुणों की गणना नहीं कर सकता है । " 11064 इसलिए धर्मास्तिकाय आदि के गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, उपयोग और ग्रहण आदि एक-एक विशेषगुण बताया गया है। 1065 अन्यत्र जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये छह लक्षण तथा शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को पुद्गल द्रव्य के लक्षण बताये गये हैं ।' इस प्रकार शास्त्रों में अपेक्षाविशेष से गुणों की संख्या भिन्न-भिन्न रूप से बताई गई है। परमार्थ से द्रव्यों में अनंत-अनंतगुण होने पर भी स्थूल व्यवहारनय की अपेक्षा से दस सामान्यगुण और सोलह विशेष गुणों का विधान किया गया है। 1067
1066
स्वभाव
-
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'आलापपद्धति' का अनुसरण करते हुए गुणों के विवेचन के बाद स्वभाव की भी विशद चर्चा की है।
वस्तुतः गुण और स्वभाव दोनों एक ही हैं। जो गुण है वही स्वभाव है और जो स्वभाव है वही गुण है। एक ही स्वरूप को दो अलग-अलग विवक्षाओं से अलग-अलग रूप से कहा जाता है। धर्म-धर्मी भाव की प्रधान रूप से विवक्षा करने पर वे धर्म स्वभाव कहलाते हैं तथा अपने-अपने स्वरूप की प्रधान रूप से विवक्षा करने पर वे धर्म गुण कहलाते हैं। जैसे 'चैतन्यस्वभावोजीवः', 'चैतन्यगुणोजीव' दोनों ही रूप से वाक्य का प्रयोग होता है। चैतन्य जीव का स्वभाव भी है और गुण भी है। 1064 ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य ये 4 आत्मविशेषगुण, स्पर्श
1065 तस्माद् "धर्मास्तिकायादिनां गतिस्थित्यवगाह
1066 नाणं च रसणं चेव, चरितं च तवो तहा वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं
सदंधयारउज्जोआ
1067
विशेषगुण छइसूत्रइं भाख्या, बहुस्वभाव आधारोजी अर्थतेह किम गणिया जाई, एह थूल व्यवहारोजी
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4 का टब्बा
वही, गा. 11/4 का टब्बा
नवतत्त्व प्रकरण, गा. 5 वही, गा. 11
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/4
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377
जहाँ-जहाँ चैतन्य है, वहाँ-वहाँ जीवद्रव्य है और जहाँ जीवद्रव्य नहीं है, वहाँ चैतन्य भी नहीं है। चैतन्य और जीव दोनों धर्म-धर्मी भाव वाले हैं। चैतन्य जीव के साथ अन्वय-व्यतिरेक दोनों प्रकार से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार अनुवृति और व्यावृति इन दोनों ही व्याप्ति सम्बन्ध के द्वारा धर्ममात्र की विवक्षा करने पर अर्थात् धर्म और धर्मीभाव की प्रधानरूप से विवक्षा करने पर वह धर्म स्वभाव कहलाता है।1068 परन्तु चैतन्य जीव का प्रधानधर्म है। क्योंकि चैतन्यधर्म से ही जीव की पहचान होती है और यही जीवद्रव्य को अन्य द्रव्य से व्यावृत करता है। इस प्रकार केवल अनुवृति संबंध का अनुसरण करके द्रव्य के स्व स्वरूप को प्रधानरूप से विवक्षा करने पर, वह धर्म गुण कहलाता है। 1069
स्वभाव और गुण में यह भी अन्तर है कि स्वभाव अपने प्रतिपक्षीधर्म के साथ रहता है। जैसे जीवद्रव्य में अस्ति स्वभाव भी है और नास्ति स्वभाव भी है, वहीं एक स्वभाव और अनेक स्वभाव भी है। किन्तु गुण अपने प्रतिपक्षीगुण के साथ नहीं रहता है। जैसे जीव में ज्ञानगुण ही रहता है। उसका प्रतिपक्षी अज्ञानगुण नहीं होता है। स्वभाव नष्ट भी हो जाते हैं। जैसे औपशमिक, क्षयोपशमिक, औदायिक और भव्यत्व नामक पारिणामिकभाव भी मुक्तावस्था में नष्ट हो जाते हैं। परन्तु अस्तित्व आदि गुणों का कभी भी अन्त नहीं आता है। स्वभाव भी गुणों की तरह सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार के होते हैं। यथा -
सामान्य स्वभाव -
1. अस्ति स्वभाव :
जीवादि सभी द्रव्यों का अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव स्वरूप से भावात्मक होना अस्तिस्वभाव है। 070 जैसे
1068 अनुवृति-व्यावृति संबंधइ धर्ममात्रयी विवक्षा करीनइं इहां स्वभाव गुणथी अलगा पंडिते भाख्या - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/5 का टब्बा 1069 आप-आपणा मुख्यता लेइ अनुवृति संबंधमात्र अनुसरीनई स्वभाव छइ – वही, गा. 11/5 का टब्बा 1070 तिहां प्रथम अस्तिस्वभाव, ते निजरूपइं-स्वद्रव्य, क्षेत्र काल ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/5 का
टब्बा
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378
मृतिका से निर्मित घटपदार्थ मृतिकाद्रव्य से निर्मित घट के रूप में अस्ति है, इन्दौर में बना हुआ है तो इन्दौर क्षेत्र की अपेक्षा से अस्ति है, शरदऋतु में निर्मित है तो काल की अपेक्षा से अस्ति है, छोटा, बड़ा, रक्त, श्याम आदि जिस भाव से भी बना हुआ है तो उस भाव की अपेक्षा से अस्तिस्वरूप है। इस प्रकार सभी पदार्थ अपने-अपने स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से अस्ति स्वभाव वाले होते हैं। सभी द्रव्यों में सत्स्वरूप है, इसलिए सभी में अस्ति स्वभाव पाया जाता है। 1071 जैसे सभी पदार्थों का नास्तिस्वभाव परपदार्थ के अभावरूप में अनुभव में आता है वैसे ही सभी पदार्थों का अस्तिस्वभाव भी अपने-अपने स्वरूप के रूप में अनुभव में आता है -जैसे यह पट नहीं है, यह मठ नहीं है, यह घट है।
द्रव्यों के अस्तिस्वभाव को नहीं मानने पर सकल शून्यता का प्रसंग आ जायेगा।'072 क्योंकि जैसे वस्तु परभाव की अपेक्षा से असत् है वैसे ही स्व स्वरूप की अपेक्षा से भी असत् हो जायेगी। घट–पट रूप, मठ रूप, व्यक्ति रूप तो नहीं है परन्तु यदि ऐसा न हो तो घट रूप भी नहीं रहेगा। इस प्रकार यदि पररूप से और स्वरूप से अर्थात् दोनों अपेक्षा से वस्तु नहीं है तो संसार में घट, पट, जीव, पुद्गल आदि कुछ भी सत् नहीं हो सकता है। अतः सर्व शून्यता का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।073 इसलिए वस्तु को अस्तित्व स्वभाववाली तो मानना होगा।
2. नास्तिस्वभाव :
जगतवर्ती समस्त पदार्थों का परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव की अपेक्षा से अभावात्मक होना नास्तिस्वभाव है।074 जैसे घट, पटरूप से नास्तिस्वभाववाला है, चेतनद्रव्य अचेतनद्रव्य के रूप में नास्तिस्वरूप है, इन्दौर में बना हुआ घट
1071 अस्थिसहावे सत्ता .............
नयचक्र, गा. 60 1072 तथा सदुपस्थ सकल शून्यता प्रसंगात् .......
आलापपद्धति, सू. 127 1073 नहीं तो सकल शून्यता होवइ .................................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/6 1074 नास्ति स्वभाव पर भावइ जी ................................................... वही, गा. 11/6
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अहमदाबाद में निर्मित होने की अपेक्षा नास्तिरूप है, वसंतऋतु में निर्मित घट शरद ऋतु की अपेक्षा निर्मित नहीं है। कच्चा घट, पक्के घट के रूप में नहीं है। जैसे पदार्थ स्व स्वरूप की अपेक्षा से सत् है वैसे ही पर स्वरूप की अपेक्षा से असत् अर्थात् नहीं है। 1075 यही द्रव्यों का नास्तिस्वभाव है।
वस्तु में परद्रव्यों के नास्तिस्वरूप को नहीं मानने पर एक वस्तु अन्य वस्तुस्वरूप हो जाने से संकर दोष उपस्थित हो जायेगा।'076 क्योंकि वस्तु में नास्तिस्वभाव का अभाव होने पर वस्तु स्व-स्वरूप की अपेक्षा से सत् की तरह पर-स्वरूप की अपेक्षा से भी सत् हो जायेगी। तब घट, घट ही नहीं रहकर पटरूप, मठरूप, मानवरूप, पशुरूप भी हो जाने से 'यह घट है', पट नहीं है और 'यह पट है', घट नहीं है ऐसे प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इससे जगत की एक-एक वस्तु सर्वमय और एकसमान स्वरूपवाली हो जायेगी, जो कि सर्वशास्त्र
और सर्वव्यवहार की विरोधी हैं। 07 अतः जैसे सभी पदार्थों का स्वभाव अस्ति रूपता है, वैसे ही नास्ति रूपता स्वभाव भी है। अतः अस्तिस्वभाव और नास्तिस्वभाव दोनों मिलकर ही पदार्थ के प्रतिनियत स्वरूप को निश्चित करते हैं।
3. नित्यस्वभाव :
नित्यस्वभाव भी सभी द्रव्यों में सामान्यरूप से पाया जाता है। यद्यपि सभी पदार्थों में प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है, तथापि उन परिणमनों के मध्य भी एक ऐसा एकत्वभाव रहता है जिसे देखकर हम कहते हैं, 'यह वही है।' यही नित्यस्वभाव है।1078 द्रव्य के अपनी-अपनी कालक्रम से उत्पन्न होने वाली विभिन्न पर्यायों में 'यह वही है' ऐसा जो अनुभव होता है, वह नित्यस्वभाव है। जैसे एक ही घट जब कच्चा
1075 अत्थिसहावे सत्ता असंतरूवा हु अण्णमण्णेण ....
नयचक्र, गा. 60 1076 सर्वथैकान्तेन सद्रुपस्थ न नियतार्थ संकरादिदोषत्वात् ..................... आलापपद्धति, सू. 127 1077 परभावइं पणि सत्ता अस्तिस्वभाव कहतां सर्वसर्वस्वरूपइं अस्तिथयु .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/6 का टब्बा 1078 सोयं इदि तं णिच्चा ............
नयचक्र, 60
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होता है तब श्याम होता है और जलधारण कार्य नहीं करता है। वही घट कालान्तर में जब पक जाता है, तब रक्त होकर जलधारण का कार्य करने लग जाता है। इस प्रकार घट में श्यामावस्था (पर्याय) और रक्तावस्था (पर्याय) रूप अवस्थान्तर होने पर भी दोनों ही अवस्था में 'यह वही घट है ऐसा जो समन्वयात्मक बोध होता है, वही घट का नित्यस्वभाव है।1079 इसी प्रकार इस नित्यस्वभाव के कारण ही देवदत्त की बाल-युवा-वृद्धावस्था बदलने पर भी देवदत्त वही का वही रहता है। अतः प्रतिसमय बदलने वाली पर्यायों में भी 'यह वही द्रव्य है' ऐसी जो बुद्धि होती है, वही द्रव्य का नित्य स्वभाव है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी अपने अस्तित्व के भाव से च्युत न होना ही नित्य है।1080
द्रव्यों का नित्यस्वभाव नहीं मानने पर एकान्त क्षणिकता ही द्रव्य का लक्षण बन जायेगा। यदि क्षणिकता वस्तु का स्वभाव है, तो वस्तु उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाने से अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकेगी और अर्थक्रियाकारित्व के नहीं रहने पर वस्तु, वस्तु ही नहीं रहेगी अर्थात् वस्तु का ही अभाव हो जायेगा।081 पुनः वस्तु यदि उत्पन्न होने के साथ ही नष्ट हो जाती है तो प्रतिसमय नवीन-नवीन रूप से उत्पन्न .. पर्यायरूप कार्यों में 'कारण की अन्वयता नहीं रहने से कार्य की उत्पत्ति ही संभव नहीं होगी।1082 जैसे दूध-दही-मक्खन-घी आदि क्रम से होनेवाली पर्यायों में अन्वयीभूत गोरस को नित्य नहीं मानेंगे तो दूध से दही के बनते समय में यदि दूध सर्वथा नष्ट हो जाता है तो दही बनेगा कैसे ? सारांश यही है कि कार्योत्पत्ति के काल में कारणात्मक पदार्थ का सर्वथा नाश हो जाता है तो कार्य की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है। अतः वस्तु में नित्यस्वभाव है, जिसके कारण ही वस्तु की विभिन्न पर्यायों में वस्तु का अन्वय बना रहता है। वस्तु का अवस्थान्तर होने पर भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती है।
1079 निज क आपणा, जे क्रमभावी नाना पर्याय, श्यामत्व-रक्तवादिक...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/7 का टब्बा 1080 तद्भावाव्ययं नित्यम् ...
... तत्त्वार्थसूत्र, 5/31 1081 अनित्य पक्षेऽपि निरन्वयत्वात् अर्थक्रिया कारित्वाभावः ................ आलापपद्धति, सूत्र 130 1082 जो नित्यता न छइ तो, अन्वय विना न कारय होवइ .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/8
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4. अनित्यस्वभाव :
1084
द्रव्य का अपनी-अपनी पर्यायों के रूप में प्रतिसमय परिणमन होने के कारण ही द्रव्य को अनित्यस्वभाववाला कहा गया है। 1083 प्रतिसमय परिवर्तित होने वाली पर्यायों की अपेक्षा से द्रव्य अनित्य स्वभाववाला है । ' द्रव्य, द्रव्य के रूप में सदा नित्य होने पर भी प्रतिसमय उनमें पर्यायों का परिवर्तन अवश्य होता है। पर्यायों की परिणति ही अनित्य स्वभाव है। 1085 द्रव्य में निरन्तर पूर्व पर्याय का नाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद चलता रहता है । द्रव्य के अनित्य इस स्वभाव के कारण ही नाश और उत्पाद होता है। अन्यथा अनित्यस्वभाव के अभाव में वस्तु सदा कूटस्थनित्य ही रहती । इसलिए अनित्यस्वभाव का अस्तित्व अवश्य है ।
वस्तु सत् है। वस्तु के सत् स्वरूप का कभी नाश नहीं होने से वस्तु नित्य है। परन्तु सद्रुपवस्तु का विभिन्न पर्यायों के रूप में नाश और उत्पाद होने से वह अनित्य भी है। द्रव्य के रूप में नित्यता और पर्याय के रूप में अनित्यता – ये दोनों ही स्वभाव वस्तु में रहते हैं । द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में वस्तु नित्य है, जबकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है । इस प्रकार वस्तु नित्यानित्य रूप सिद्ध होती है।
381
I
अनित्यस्वभाव को नहीं मानने पर वस्तु सदा और सर्वथा एकरूप ही होगी । सर्वथा एकरूप वस्तु कुछ भी कार्य नहीं कर सकती है। उसमें उत्पाद व्यय रूप अर्थक्रिया ही नहीं होगी । अर्थक्रिया के अभाव में वस्तु का ही अभाव हो जायेगा । 1086 कदाचित् उपादान कारण स्वयं ही कार्यस्वरूप में परिणमित होता है अर्थात् बीज ही अंकुर के रूप में परिणमित होता है तो उपादानकारण में भी कुछ 'उत्पन्नपना' होता है यह मानना पड़ेगा । इसलिए मूल द्रव्य का अन्वय रहने से नित्य होने पर भी
1083 तस्यापि अनेक पर्याय परिणमितत्वात् अनित्य स्वभावः
1084 अणिच्चरूवा हु पज्जाया
1085 नित्यस्वभाव, अनित्य स्वभावइ, पज्जय परिणति लहीइजी 1086 नित्यस्य एक रूपत्वात् एक रूपस्य अर्थ क्रियाकारित्वभाव
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आलापपद्धति, सूत्र 109
नयचक्र, गा. 60
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/7 आलापपद्धति, सू. 129
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382
कारण की कार्य के रूप में परिणति होने से अनित्यता भी है। इस प्रकार पदार्थ उभयस्वभावी है। अन्यथा कारण कार्य में अभेद सम्बन्ध का व्यवहार ही नहीं होगा। क्योंकि यदि पूर्ववर्ती कारण सदा नित्य ही है, उसमें रूपान्तर नहीं होता है तो पूर्ववर्ती कारण का रूपान्तरण नहीं होने से तो उत्तरवर्ती कार्य की उत्पत्ति भी संभव नहीं होगी।1087
5. एकस्वभाव :
द्रव्य अनेक स्वभावों का आधार होने से एकस्वभाववाला है।1088 स्वभाव कभी भी अपने द्रव्य से पृथक् नहीं होते हैं। द्रव्य में सभी स्वभाव एक अखण्डरूप से रहने से द्रव्य एक स्वभाववाला है।1089 यहां स्वभाव का तात्पर्य द्रव्य में सहभावी रूप से रहनेवाले धर्मों से है। इन अनेक धर्मों का आधार एक द्रव्य है। जिस स्वभाव के कारण द्रव्य अनेक धर्मों का एक आधार बनता है, वह स्वभाव अर्थात् स्वभाव की एक आधारता ही एक स्वभाव है। जैसे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये चारों पुद्गलद्रव्य के सहभावी धर्म हैं। इन अनेक धर्मों के आधार जो घटादि द्रव्य हैं वे एक हैं 1090 अर्थात् घट रूप का भी आधार है, रस का भी आधार है, इस प्रकार वह अनंतगुणों का आधार है। आत्मा भी चैतन्य आदि अनेक गुणों का आधार है।
एक स्वभाव को नहीं मानने पर द्रव्य के गुण बिखर जाने से द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। द्रव्य के अभाव से आधार-आधेयभाव का भी अभाव हो जायेगा। ऐसी स्थिति में अनेक गुण और पर्याय भी निराधार नहीं ठहर सकते हैं। इस प्रकार सभी पदार्थों का अभाव मानने का प्रसंग खड़ा हो जायेगा।1091 यशोविजयजी के
1087 अनित्यता जो नहीं सर्वथा, अर्थक्रिया तो हाटइजी
दलनि कारयरूप परिणति, अनुत्पन्न तो विघटइ जी .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/8 1088 (अनेक) स्वभावनां एकाधारत्वान एक स्वभाव
आलापपद्धति, सू. 110 1089 एकको अजुद सहावो
नयचक्र, गा. 61 1090 स्वभावनइ एकाधारत्वइ, एकस्वभाव विलासोजी ..
.. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/9 1091 अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावः, निराधारत्वात् । आधार-आधेय-अभावात् च, ..... आलापपद्धति, सू. 132
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अनुसार एकस्वभाव के बिना सामान्य का ही अभाव हो जायेगा। जैसे कि अखण्ड आम्र वृक्ष में एक स्वभाव के बिना 'यह वृक्ष है' ऐसे सामान्य का अभाव होता है। सामान्य के नहीं रहने पर शाखा, प्रशाखा, फल, फूल आदि विशेषों का भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि जहां सामान्य होता है वहां ही विशेष रहते हैं। सामान्य के बिना के विशेष आकाशपुष्प की तरह असत् है।1092 अतः सामान्य की अपेक्षा वस्तु एक स्वभाववाली भी है।
6. अनेकस्वभाव -
द्रव्य अपने अनेक गुण–पर्यायों में अन्वयसम्बन्ध से रहने के कारण अनेक स्वभाववाला भी है।1093 दूसरे शब्दों में द्रव्य के अनेक रूप होने से द्रव्य अनेक स्वभाववाला है। 094 यशोविजयजी के कथनानुसार मिट्टी आदि द्रव्यों का स्थास, कोश, कुशूलादि अनेक पर्यायों में जो द्रव्य प्रवाह है, वह अनेक स्वभाव है।1095 प्रतिसमय परिवर्तित होने वाली पर्यायों के साथ-साथ उन पर्यायों के रूप में द्रव्य भी बदलता है। स्थास रूप मिट्टी ही स्थास रूप को छोड़कर कोशरूप को प्राप्त करती है। वही कोशरूप मिट्टी कालान्तर में कुशूलरूप को प्राप्त करती है। इस प्रकार द्रव्य विभिन्नरूपों स्थास, कोश, कुशूली में बदलता हुआ अनेक रूप को प्राप्त करता है, अर्थात् द्रव्य के विभिन्न रूपों में द्रव्य का प्रवाह रहता है। इसलिए द्रव्य एक होने पर भी भिन्न-भिन्न पर्यायों के रूप में अनेकद्रव्य भी है, अर्थात् भिन्न-भिन्न द्रव्यों (रूपों) के प्रवाहरूप होने से एक द्रव्य में अनेक स्वभावता है।
नवीन-नवीन पर्यायों के रूप में प्रतीत होने वाला विवक्षित द्रव्य आकारभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद आदि की विवक्षा से अनेक स्वभावता के कारण विभिन्न
1092 विण एकता विशेष न लहिइं, सामान्यनइं अभावइं .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/9 1093 एकस्य अनेक स्वभावोवपलंभात् अनेक स्वभावः .. ............... आलापपद्धति, सू. 111 1094 नयचक्र, गा. 61 1095 अनेक द्रव्य प्रवाह एहनइ, अनेक स्वभाव प्रकारोजी ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/9
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रूपवाला भी होता है। आकाशद्रव्य अपनी एकस्वभावता के कारण अखण्ड और एकद्रव्य होने पर भी घटद्रव्य के संयोग से घटाकाश, मठ के संयोग से मठाकाश ऐसे संयोगी भाव के कारण द्रव्य अनेक स्वभाववाला भी घटित होता है। इसी प्रकार मालवभूमि, मेवाड़भूमि इत्यादि के रूप में क्षेत्रभेद से भी आकाश में अनेक स्वभाव होते हैं।1096 संक्षेप में अखण्ड द्रव्य की दृष्टि से द्रव्य एक स्वभाववाला और यथार्थ या कल्पित भेदों की दृष्टि से द्रव्य अनेकस्वभाववाला है। जैसे आम्रवृक्ष को एक अखण्ड वृक्ष की दृष्टि से विचार करने पर 'यह वृक्ष है' ऐसा कहा जाता है। 'यह वृक्ष है, ऐसा कहना एक स्वभावता है। इसी प्रकार भेददृष्टि से यह आम्रवक्ष की शाखा है, यह प्रशाखा है, यह पत्ता है, यह फूल है, यह फल है' ऐसा विचार करने पर वृक्ष में अनेक स्वभावता या अनेक रूपता भी होती है।1097
अनेकस्वभाव को अस्वीकार करने पर यह तना है, यह शाखा है इत्यादि भेद नहीं होने पर विशेषों का अभाव हो जायेगा और विशेषों के अभाव से वृक्षात्मक सत्ता या सामान्य का ही अभाव हो जायेगा। 1098 क्योंकि विशेषों के बिना सामान्य की सत्ता भी शशशृंग की तरह असत् होगी। अनेक स्वभाव का निराकरण करने से वस्तु सर्वथा एकरूप होकर उसमें विशेषों का अभाव हो जायेगा तथा विशेषों के अभाव में सामान्य की भी सत्ता नहीं रहेगी।1099 अतः वस्तु एक रूप और अनेक रूप दोनों ही
7. भेदस्वभाव -
गुण-गुणी में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद की अपेक्षा से द्रव्य भेद स्वभाववाला है।1100 यशोविजयजी ने द्रव्य के भेदस्वभाव को इस प्रकार स्पष्ट किया
1096 पर्याय पणि आदिष्टद्रव्य करइं, तिवारइं आकाशादिद्रव्यमांहि पणि-घटाकाशादि भेदई ए (अनेकत्व) स्वभाव दुर्लभ नहीं
........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/9 का टब्बा 1097 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन, –धीरजभाई डाह्यालाल भाई, पृ. 578 1098 अनेकत्व विण सत्ता न घटइ, तिम ज विशेष अभावजी ........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/9 1099 एक स्वरूपस्य एकान्तेन विशेषाभावः सर्वथा एकरूपत्वात् ... आलापपद्धति, सू. 131 1100 गुण-गुणी आदि संज्ञातिभेदात् भेदस्वभावः ।
आलापपद्धति, सू. 112
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है कि गुण-गुणी के मध्य, पर्याय और पर्यायवान् के मध्य, कारक और कारकी के मध्य संज्ञा (नामकरण) से, लक्षण से, आधार आधेय सम्बन्ध से, भेद होना ही भेदस्वभाव है।1101 संज्ञा की अपेक्षा से द्रव्य, गुण, पर्याय ऐसे भिन्न-भिन्न नाम है। लक्षण की अपेक्षा से जो गुण एवं पर्याय वाला है, वह द्रव्य है तथा जो द्रव्य का सहभावीधर्म है, वही गुण है और जो क्रमभावी अवस्थाएँ हैं वे पर्याय हैं। द्रव्य आधार है और गुण तथा पर्याय आधेय है। इस प्रकार उनमें परस्पर भेद का होना ही द्रव्य का भेद स्वभाव है। वचन भेद से भी द्रव्य में भेद की प्रतीति होती है। जैसे जीव ज्ञान, दर्शन आदि गुणवाला है, वह अस्तित्वयुक्त है, उसमें पर द्रव्य आदि नास्तिरूप है। वह नित्य है, इस प्रकार के वचन भेद से वस्तु भेद स्वभाववाली है। 1102
वस्तु को भेदस्वभाववाली नहीं मानने पर अभेदपक्ष में वस्तु सर्वथा एकरूप हो जाने से अर्थक्रिया घटित नहीं होगी और बिना अर्थक्रिया के वस्तु का भी निश्चित अभाव होगा।103 पुनः द्रव्य, गुण, पर्याय को एकान्त अभेद स्वभाव वाला मानने पर तीनों एकरूप हो जायेंगे और सर्वथा एक रूप होने पर यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है, ऐसा भेद व्यवहार नहीं हो सकेगा। भेद स्वभाव को स्वीकार किये बिना आधार-आधेय सम्बन्ध भी घटित नहीं होगा।1104 इसलिए वस्तु को भेद स्वभाववाली मानना आवश्यक है।
8. अभेदस्वभाव -
गुण और गुणी में संज्ञादि भेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है। इसलिए वस्तु अखण्ड, एक और अभेदस्वभाववाली भी है।105 द्रव्य, गुण और पर्याय परस्पर एक होकर वर्तते हैं। द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के अनुसार अभेदभाव से रहने के लिए जो-जो
1101 गुण गुणिनई संज्ञा संख्यादिक भेदइ भेदस्वभावोजी ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/10 1102 भिण्ण हु वयणभेदे
....... नयचक्र, गा. 61 1103 अभेदपक्षेऽपि (सर्वथा) सर्वेषा एकत्वं ........................... आलापपद्धति, सू. 134 1104 भेदस्वभाव न मानिइं, तो सर्व द्रव्य गुण पर्यायनई एकपणु होइ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/10 का टब्बा 1105 गुण-गुणी आदि अभेदस्वभावत्वात् अभेद स्वभावः ................. आलापपद्धति, सू. 113
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लक्षण हैं अर्थात् गुण-गुणी का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध, अवयव–अवयवी का अभिन्न सम्बन्ध आदि ही वस्तु का अभेद स्वभाव हैं। 106
अभेदस्वभाव को नहीं मानने पर गुण गुणी से सर्वथा भिन्न होकर निराधार हो जायेंगे। निराधार हो जाने पर उनमें परिणमनरूप अर्थक्रिया नहीं होगी। ऐसी स्थिति में गुणी द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा।107 यशोविजयजी ने वस्तु के इस अभेदस्वभाव को सिद्ध करने के लिए तर्कसंगत युक्ति देते हुए कहा है कि अभेदस्वभाव के अभाव में द्रव्य, गुण और पर्याय में एकान्तभेद हो जाने से गुण और पर्याय, द्रव्य से अत्यन्त भिन्न हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में आधारभूत द्रव्य के बिना गुण और पर्याय नहीं हो सकते हैं और उनका बोध भी संभव नहीं है। 108 इसी अभेदस्वभाव के स्पष्टीकरण के लिए प्रवचनसार में कहा है गुण और गुणी के प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं होने के कारण उनमें पृथकत्व नहीं है, परन्तु अन्यत्व तो है। तद्रूपता (सर्वथा एकता) नहीं होने के कारण गुण और गुणी में अन्यत्व है अर्थात् भेदस्वभाव भी है और उनके अपृथक् होने से अभेद स्वभाव भी है।1109 इस प्रकार वस्तु में भेद और अभेद दोनों स्वभाव है।
9. भव्यस्वभाव -
यहां भव्य का अर्थ है- होने योग्य । भाविकाल में होने योग्य का होना भव्य स्वभाव है।1110 प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय अन्य-अन्य रूपों में होता रहता है, यही द्रव्य का भव्य स्वभाव है। अवस्थित सभी द्रव्य कालक्रम से होनेवाली अपनी विभिन्न
1106 अभेदवृत्ति सुलक्षण धारी, जाणो अभेद स्वभावोजी ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/10 1107 भेदपक्षेऽपि विशेष स्वभावानां निराधारत्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावः ...... आलापपद्धति, सू. 133 1108 अभेद स्वभाव न कहिइं तो निराधारगुण-पर्यायनो बोध नथयो जोइइ आधाराधेयनो अभेद बिना बीजो सम्बन्ध ज न घटइ ....
............... द्रव्यगुणपोयनोरास, गा. 11/10 का टब्बा 1109 पविमत्तपदेसत्तं पुधत्तमदी सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो, ण तब्भवं होदि कधमेगं ।।
प्रवचनसार, गा. 2/4 1110 भाविकाले स्व स्वभाव भवनात् भव्य स्वभावः
आलापपद्धति, सू. 114
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पर्यायों में परिणमन करते रहते हैं। यही भव्य स्वभाव है।111 संक्षेप में द्रव्य में उन-उन भावी पर्यायों को प्राप्त करने की योग्यता होना ही भव्य स्वभाव है।
भव्य स्वभाव की अनिवार्यता को समझाते हुए यशोविजयजी कहते हैं कि भव्यस्वभाव के अभाव में द्रव्य जो प्रतिसमय नवीन-नवीन पर्यायों को प्राप्त करता है, वे पर्यायें ही मिथ्या सिद्ध हो जायेगी। जैसे मृत्पिण्ड से स्थास, कोश, कुशूल घटादि जो कार्य होते हुए दिखाई देते हैं, वे सभी मिथ्या हो जायेंगे। क्योंकि द्रव्य में उन-उन भावों के रूप में परिणमन करने की योग्यता का ही अभाव है तो पर्यायें होगी ही नहीं। इस कारण से जो भी परिवर्तन होगा, वह भी काल्पनिक ही होगा। द्रव्य के अभव्यस्वभावरूप होने से तो पररूप परिणमन भी नहीं होगा। अतः स्वरूप परिणमन और पररूप परिणमन दोनों नहीं होने से पर्यायों की उत्पत्ति नहीं होगी और पर्यायों के मिथ्या सिद्ध होने पर पर्यायवान् द्रव्य भी नहीं रहेगा। इस प्रकार सर्वशून्यता का प्रसंग आ जायेगा। 112
10. अभव्यस्वभाव -
द्रव्य तीनों काल में परद्रव्य स्वरूपवाला नहीं होने से अभव्य स्वभाववाला भी है।113 यशोविजयजी के कथनानुसार त्रिकाल में परद्रव्य के साथ रहने पर भी विवक्षितद्रव्य का परद्रव्य के स्वभाव में परिणमन नहीं होना, यही अभव्यस्वभाव है।114
प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में ही परिणमन करता है, उससे बाहर नहीं। चेतन, चेतनरूप होने से योग्य है, अचेतनरूप से नहीं। इस प्रकार द्रव्य की पररूप में परिणमन नहीं करने की असमर्थता ही अभव्य स्वभाव है।
1111 अनेक कार्यकरणशक्तिक जे अवस्थित द्रव्य छइ .........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/11 का टब्बा 1112 भव्य स्वभाव विना, खोटाकार्यनइं योगई शून्यपनु थाई ................. वही, गा. 11/11 का टब्बा III कालत्रये अपि परस्वरूपाकार अभवनात् अभव्य स्वभावः
आलापपद्धति, सू. 115 1114 त्रिहु कालिं परद्रव्यमांहि मिलतां पण परभावइं न परिणमनु ते ........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/11 का टब्बा
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अभव्यस्वभाव की आवश्यकता पर बल देते हुए यशोविजयजी कहते हैं1115इस स्वभाव के अभाव में विवक्षित द्रव्य का अन्य द्रव्य के संयोग से द्रव्यान्तर हो जायेगा। जैसे जीव का अनादिकाल से शरीर और कर्मरूप में परिणत पुद्गलों के साथ रहने से उसका पुद्गल के रूप में द्रव्यान्तर हो जायेगा। परन्तु ऐसा नहीं होता है। अभव्यस्वभाव के कारण एक क्षेत्र में अवगाहित रहने पर भी द्रव्यों का द्रव्यान्तर नहीं होता है। जैसे धर्म, अधर्म एक ही आकाशक्षेत्र में व्याप्त रहने पर भी धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के रूप में और अधर्मद्रव्य धर्मद्रव्य के रूप में त्रिकाल में नहीं बदलते हैं। इसी प्रकार अभव्यस्वभाव के कारण से धर्मद्रव्य में स्थिति सहायकता, अधर्मद्रव्य में गति सहायकता, आकाश में अवगाहन सहायकता आदि कार्यसंकरन नहीं होता है। इस कारण से प्रत्येक द्रव्य भव्य स्वभाव भी है और अभव्यस्वभाव भी है।
11. परमस्वभाव -
प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाला स्वतः सिद्ध पारिणामिकस्वभाव परमभाव है।116 वस्तु के अनंतधर्मों में से जिस धर्म को प्रधानधर्म के रूप में लिया जाता है, वही उसका परमभावस्वभाव है।117 वस्तु के अनंतधर्मात्मक होने पर भी उन सभी धर्मों के द्वारा वस्तु नहीं समझी जा सकती है। परन्तु अनन्त धर्मों में से जो प्रसिद्ध धर्म है, उन्हीं के द्वारा वस्तु सरलता से समझी जाती है और वह प्रसिद्धधर्म ही वस्तु का लक्षण बन जाता है। यही प्रसिद्ध लक्षण या मूलस्वभाव या परमस्वभाव है। द्रव्य का लक्षण रूप जो पारिणामिक भाव है, वह उसके अनंतधर्मों में से प्रधान धर्म होने से परमस्वभाव कहलाता है। जैसे कि आत्मा के अनंतगुणधर्मों से युक्त होने पर भी ज्ञानरूप प्रधान
1115 अनइं अभव्यस्वभाव न मानिइं तो द्रव्यनइं संयोगई द्रव्यान्तरपणु थयुं जोइइं ..........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/11 का
टब्बा
1116 पारिणामिक स्वभावत्वेन परमस्वभावः
आलापपद्धति, सू. 116
1117 परमभाव पारिणामिकभाव, प्रधानताइ लिजइ जी ...........
.. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/12
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और मूलधर्म के कारण ही 'ज्ञानस्वरूपी आत्मा' ऐसा कहा जाता है।1118 परमस्वभाव को नहीं स्वीकार करने पर अनंतधर्मात्मक वस्तु की पहचान नहीं हो पायेगी और अनंतधर्मों में से किसी एक धर्म को प्रसिद्ध धर्म के रूप में निश्चित करना भी असंभव हो जायेगा। 1119
विशेष स्वभाव :
जो स्वभाव प्रतिनियत द्रव्य में ही पाये जाते हैं, वे विशेष स्वभाव कहलाते हैं। विशेष स्वभाव दस हैं जिनके स्वरूप की चर्चा उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास की बारहवीं ढाल में इस प्रकार की है :
1. चेतन और अचेतन स्वभाव -
अनुभवनरूप बोध को चेतन स्वभाव कहते हैं।1120 चेतन स्वभाव के कारण ही सुख, दुःख, हर्ष, शोकादि की अनुभूति होती है। जिस स्वभाव के कारण 'यह चेतनद्रव्य है' ऐसा जीव में चेतनपने का व्यवहार किया जाता है, उस स्वभाव को यशोविजयजी ने चेतनस्वभाव कहा है।1121 यह स्वभाव जीवद्रव्य में पाया जाता है और जीव के संयोग से शरीर और कार्मणवर्गणा में भी पाया जाता है। जीव में चेतनस्वभाव सहज रूप से है जबकि शरीर एवं कर्म में चेतन स्वभाव उपचरित रूप से है। जीव और शरीर तथा जीव और कर्म दोनों क्षीरनीरवत् एकमेव होकर मिले हुए होने के कारण अचेतनस्वभाव वाले शरीर और कर्म भी जीव के संयोग से चेतन स्वभाववाले कहे जाते हैं। जैसे क्षीर और नीर दोनों एकमेव होकर मिश्रित हो जाने पर क्षीर तो क्षीर कहलाता ही है परन्तु उसके साथ मिला हुआ नीर भी क्षीर ही
1118 स्वलक्षणीभूत पारिणामिकभाव, प्रधानताइ परमभाव स्वभाव कहिइं जिम ज्ञानस्वरूप आत्मा। .....द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.11/12 का
टब्बा 1119 परमस्वभाव न कहिइं तो द्रव्यनइं विषइं प्रसिद्धरूप किम दीजइं ..... वही, गा. 11/12 का टब्बा 1120 अणुहवभावो चेयणमचेयणं होई तस्स विवरियं ......
................. नयचक्र, गा. 63 1121 जेहथी चेतनपणानो व्यवहार थाइं ते चेतनस्वभाव
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/1
..........
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कहलाता है। उसी प्रकार शरीर और कर्म भी जीव के साथ संयुक्तावस्था में चेतनस्वभाव वाले कहलाते हैं। जीव का संयोग छूटते ही शरीर और कर्म चेतनस्वभाव का त्याग कर देते हैं, परन्तु अचेतनस्वभाव का त्याग कदापि नहीं करते हैं। 1122
चेतन स्वभाव के विपरीत भाव अचेतनस्वभाव है जो अननुभूतिरूप है।123 यद्यपि यह अचेतनस्वभाव मुख्यरूप से जीव को छोड़कर शेष धर्मादि द्रव्यों में पाया जाता है तथापि यह जीवद्रव्य में भी पाया जाता है। जीवद्रव्य की चेतना जितने-जितने अंशों में कर्मों के द्वारा आवृत है, उतना-उतना अचेतनस्वभाव जीव में भी पाया जाता है।
इस प्रकार जीव में चेतन और अचेतन दोनों ही स्वभाव पाये जाते हैं। परन्तु चेतन स्वभाव सहज और सदा बना रहता है, जबकि अचेतन स्वभाव छद्मस्थ काल तक ही तरतमभाव से रहता है। केवलज्ञान के समय उसका अचेतनस्वभाव चला जाता है। पुद्गलद्रव्य में भी दोनों स्वभाव हैं। परन्तु जीव का संयोग छूटते ही चेतनस्वभाव चला जाता है, जबकि अचेतनस्वभाव पुद्गल का विशिष्ट और प्रधान स्वभाव होने से सदाकाल रहता है।
जीव में चेतनास्वभाव नहीं मानने पर चैतन्य (ज्ञान) के बिना घट-पट की तरह जीव भी सर्वथा अजीव बन जायेगा। दूसरा कारण यह है कि यदि जीव में चेतना नहीं है तो प्रीति और अप्रीति रूप राग-द्वेष भी नहीं होंगे तथा रागवाली चेतना और द्वेषवाली चेतना रूप कर्मबंधन के कारणों के अभाव में ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मों का बंधन भी घटित नहीं होगा। 124 प्रशमरति में कहा गया है कि जिस प्रकार तेल से सिंचित शरीर धूल के रजकणों से लिप्त हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से युक्त जीव भी कर्म के रजकणों से लिप्त होता है। अतः जीव चेतन स्वभाव से युक्त है। 125
1122 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 592, 593 1123 जी हो चेतनभाव ते चेतना, लाला उल्ट अचेतनभाव . .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/1 1124 जी हो चेतनता विण जीवनइ, लाला थाई कर्म अभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.12/1 का उत्तरार्ध 1125 स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य
प्रशमरतिप्रकरण, श्लो. 55
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जीव में अचेतनस्वभाव की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए यशोविजयजी कहते हैं – यदि जीव में एकान्त रूप से चेतनस्वभाव ही है तो सभी जीव कर्मोदय के उपश्लेष से उत्पन्न राग-द्वेष-विषय-वासना आदि विकारों से रहित होकर सिद्ध के समान शुद्ध हो जायेंगे। यदि सभी जीव सत्तारूप ही नहीं, अपितु प्रगट रूप में भी सिद्ध सदृश शुद्ध ही हैं तो कर्मक्षय के निमित्त की जाने वाली ध्यान साधना करना, ध्येय का लक्ष्य रखना, गुरू का उपदेश देना, शिष्य का उपदेश श्रवण करना, आदि समस्त साधना के उपक्रम ही अनावश्यक हो जायेगें। ऐसी स्थिति में साधना-आराधना का ज्ञान कराने वाले शास्त्रों का व्यवहार भी निरर्थक सिद्ध होगा। अतः जिस प्रकार यवागू (राखड़ी) में अल्प लवण होने पर भी 'अलवणा यवागु' अर्थात् यवागु में लवण नहीं है, ऐसा कहा जाता है। उसी प्रकार चेतना के कर्मों से आवृत होने पर उसे 'अचेतन आत्मा' भी कहा जाता है। एतदर्थ आत्मा में कथंचित अचेतन स्वभाव भी है।1126
2. मूर्तता और अमूर्तता स्वभाव -
रूप, रस आदि गुणों के पिण्ड को मूर्तिक और उससे विपरीत को अमूर्तिक कहते हैं।1127 यशोविजयजी ने जो रूप रसादिक गुणात्मक मूर्तता को धारण करता है, उसे मूर्तस्वभाव और उससे विपरीत को अमूर्तस्वभाव कहा है। 1128 मूर्तता रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों का आश्रय है अर्थात् रूपादि गुणों से युक्त आकृति को धारण करने की योग्यता मूर्त स्वभाव है। इसके विपरीत रूपादि गुणों को धारण नहीं करना अमूर्तस्वभाव है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं होने से ये अमूर्तस्वभाववाले हैं। परन्तु जीव और पुद्गल मूर्त और अमूर्त दोनों ही स्वभाववाले हैं।
1126 जो जीवनइं सर्वथा चेतनस्वभाव कहिइं, अचेतनस्वभाव न कहिइं तो ...
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/12 का टब्बा 1127 रूवाइपिंड मूत्त विवरिए ताण विवरियं ...
नयचक्र, गा. 63 का उत्तरार्ध 1128 जी हो मूर्तभाव मूरति धरइ, लाला उलट अमूर्तस्वभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/3
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रूप रसादि गुण से रहित होने के कारण जीव में अमूर्तता सहज और सुप्रसिद्ध होने पर भी शरीररूप और कर्मरूप पुद्गल के गाढ़सम्बन्ध से जीव भी कथंचित मूर्तस्वभाववाला हो जाता है। परन्तु यह परद्रव्य संयोगजन्य मूर्तस्वभाव परद्रव्य के वियोग होते ही अर्थात् मुक्तिदशा में चला जाता है, किन्तु अमूर्तस्वभाव ही सदाकाल रहता है।
जीव को कथंचित मूर्तस्वभाववाला नहीं मानेंगे तो संसार का लोप हो जायेगा। 129 क्योंकि मूर्तस्वभाव के बिना जीव और शरीर का सम्बन्ध, गत्यान्तरगमन उसके आधार पर सुन्दर-असुन्दर, काला-गोरा, नीला-पीला आदि के आधार पर होने वाले राग-द्वेष, रागद्वेष से होने वाला कर्मबन्धन और कर्मबन्धन के परिणामस्वरूप जन्ममरणादि रूप संसार आदि सभी वस्तुओं का अभाव हो जायेगा।130 पुनः जीव को एकान्त मूर्तस्वभाववाला ही मानेंगे तो जीव का कभी मोक्ष नहीं होगा।131 क्योंकि शरीर आदि से रहित अमूर्त जीव ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अतः मूर्तता को धारण करने वाले जीव में भी परमार्थ से अमूर्त स्वभाव रहता है।
पुद्गलद्रव्य स्वाभाविक रूप से मूर्तस्वभाववाला होने पर भी सूक्ष्मस्कन्ध, त्र्यणुक, द्वयणुक और परमाणु चक्षु से अगोचर होने से व्यवहारनय की अपेक्षा से वे भी अमूर्त कहे जाते हैं। परन्तु जो रूपादि गुण से रहित होता है, वह अमूर्त ऐसी निश्चयनय की परिभाषा के अनुसार पुद्गलद्रव्य कदापि अमूर्तस्वभाववाला नहीं होता है।132 एक परमाणु में भीरूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अव्यक्त रूप से अवश्य रहते
1129 सर्वथा अमूर्तस्य अपि तथा आत्मनः संसार विलोपः स्यात् ..... आलापपद्धति, सू. 143 1130 जो जीवनइं कथंचित मूर्तता स्वभाव नहीं तो शरीरादिबन्धबिना .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/3 का टब्बा 1131 अ) मूर्तस्य एकान्तेन आत्मनः मोक्षस्य न अवाप्तिः स्यात् .......... आलापपद्धति, सू. 142
ब) जी हो अमूर्तता विण सर्वथा, लाला मोक्ष घटइं नहीं ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/4 1132 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन, धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 597
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3. एकप्रदेश स्वभावता और अनेक प्रदेशस्वभावता -
द्रव्यों की एकाकाररूप परिणति या अखंडाकार रूप रचना (बंध) एक प्रदेश स्वभावता है।1133 दूसरे शब्दों में असंख्य और अनंत प्रदेशवाले द्रव्यों की एकाकारता
और अखण्डपिण्डरूपता एकप्रदेश स्वभावता है। जैसे अनेक बुंदिओं से निर्मित लड्डू में एकाकारता और अखण्डता है उसी प्रकार धर्म, अधर्म आदि पांचों द्रव्यों के असंख्य या अनंत प्रदेशी होने पर भी उनका अखण्ड और एक द्रव्य रूप होना एकप्रदेश स्वभावता है।
द्रव्य में जो भिन्न-भिन्न प्रदेशपना है, वह अनेकप्रदेश स्वभावता है 1134 अर्थात् अनेक अवयवों से युक्त होना या अनेक अंशवाला होना अनेक स्वभावता है। मोदक में जो अगणित दाने दिखाई देते हैं, एक घट में जो अनेक परमाणु दिखाई देते हैं, एक पट में जो अनेक तन्तु दिखाई देते हैं, वे वस्तु के अनेकप्रदेशस्वभावता के सूचक है। इसी प्रकार काल के अतिरिक्त शेष पांचों द्रव्यों में जो भिन्न-भिन्न प्रदेश दिखाई देते हैं, वही उनकी अनेक प्रदेशस्वभावता है।
द्रव्य में एकप्रदेश स्वभावता को अस्वीकार करके सर्वथा भिन्न-भिन्न पृथक्-पृथक् प्रदेश मानने पर अखण्ड परिपूर्ण असंख्यात् प्रदेशों में जो एकरूप अर्थक्रिया होती है, उसका अभाव हो जायेगा। 135 क्योंकि सर्वथा अनेकप्रदेशी मानने पर असंख्यप्रदेशी धर्म, अधर्म और जीव के तथा अनंतप्रदेशी आकाश के एक-एक प्रदेश, एक-एक द्रव्य बन जाने से ‘यह धर्मास्तिकाय है, 'यह अधर्मास्तिकाय है' इस प्रकार उनके एकत्व का व्यवहार न होकर असंख्य धर्मास्तिकाय, असंख्य अधर्मास्तिकाय, और अनंत आकाशास्तिकाय ऐसा व्यवहार होने लग जायेगा।1136 परन्तु ऐसा व्यवहार होता नहीं है। सर्वत्र धर्मास्तिकाय आदि को अखण्ड एक द्रव्य ही
1133 एकप्रदेश स्वभाव ते, ते कहिइं, जे एकत्वपरिणति अखंडाकार बंध .. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/4 का टब्बा 1134 जी हो अनेकप्रदेश स्वभावता, लाला भिन्न प्रदेश स्वभाव ............ वही, गा. 12/5 1135 सर्वथा अनेक प्रदेशत्वे अपि तथातस्य अनर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यता प्रसंगा........ आलापपद्धति, सू. 145 1136 जो एक प्रदेश स्वभाव न होई तो असंख्यात प्रदेशादियोगई बहु वचन प्रवृति “एक धर्मास्तिकाय" ए व्यवहार न होई
.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/5 का टब्बा
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कहा जाता है। इसलिए द्रव्यों में एकप्रदेश स्वभावता भी है। पुनः द्रव्य में अनेकप्रदेशस्वभावता को नहीं मानने पर असंख्यप्रदेश वाला, अनंतप्रदेशवाला ऐसा शास्त्र व्यवहार नहीं होगा। कालद्रव्य की तरह धर्मादिद्रव्य भी एक है और वे असंख्य या अनंतप्रदेशी नहीं है ऐसा अर्थ हो जाने से पंचास्तिकाय की अवधारणा ही व्यर्थ सिद्ध होगी।1137 अनेक प्रदेश स्वभावता को नहीं मानकर केवल एकप्रदेशस्वभावता को स्वीकार करने पर भिन्न-भिन्न भाग नहीं होने से भागाश्रित संकंप-निष्कंप ऐसा उभयस्वरूप घटित नहीं होगा। 138 परन्तु यह चाक्षुष प्रत्यक्ष है कि घट-पट आदि पदार्थों का पवन चलने पर एक भाग चलित और दूसरा भाग अचलित रहता है। पुनः परमाणु के साथ धर्म आदि तीन द्रव्यों का संयोग अनेकप्रदेशस्वभावता मान्य बिना घटित नहीं होगा। क्योंकि एकान्त एकप्रदेशस्वभावता को मानने पर या तो परमाणु को धर्म, अधर्म और आकाश की तरह बड़ा होना पड़ेगा या धर्मास्तकाय आदि को परमाणु जितना छोटा होना पड़ेगा। परन्तु ऐसा नहीं होता है। कोई भी परमाणु इन तीनों द्रव्यों के एक भाग के साथ स्पृष्ट रहता है और अन्य प्रदेशों के साथ अस्पृष्ट रहता है। इस प्रकार इन तीन द्रव्यों के साथ परमाणु की स्पृष्टता और अस्पृष्टता ही उनमें अनेक प्रदेशता को सिद्ध करती है।1139
4. विभाव स्वभाव -
स्वभावात्मक भाव से जो विपरीत भाव है, वह विभाव स्वभाव कहलाता है।1140 मूल स्वभाव का अन्यथाभाव विभावस्वभाव कहलाता है। जैसे जीवद्रव्य अपने स्वभाव से सिद्ध परमात्मा की तरह दोषों से रहित शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और निराकार है। परन्तु पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से औदायिकभाव के रूप में जीव क्रोध, मान-माया,
1137 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन –धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 600 1138 जी हो किम संकप-निःकंपता, लाला जो न अनेक प्रदेश ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.12/6 1139 जी हो अणु संगति पणि किम घटइ, लाला देश सकल आदेश ........ वही, गा. 12/6 का उत्तरार्ध 1140 अ) स्वभावात अन्था भवन विभावः
.......... ...... आलापपद्धति, सू. 121 ब) जी हो भाव स्वभावह अन्यथा, लाला छइ विभाव वडव्याधि ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/8
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लोभ, राग द्वेष, विषयविकार वासनादि दोषों से युक्त बनता है। इस प्रकार जीव का शुद्ध बुद्ध रूप यथाजात स्वभाव का रागद्वेष के रूप में रूपान्तर होना ही विभावस्वभाव है। 141 जीव का यह. विभावस्वभाव ही उसके जन्म-मरणादि का मुख्य कारण है।
विभावस्वभाव को नहीं मानने पर आत्मा सिद्ध परमात्मा की तरह शुद्ध बुद्ध हो जायेगा और ऐसे निर्विकारी आत्मा को कर्मबंध रूप उपाधि भी नहीं होगी। परन्तु यह कर्ममय उपाधि भिन्न-भिन्न जीव को भिन्न-भिन्न रूप में होती है। कर्म का बंधन करनेवाले जीवों में काषायिक परिणाम इस विभाव स्वभाव की तीव्रता के आधार पर होते हैं। तीव्र कर्मबंधन उन जीवों के तीव्र वैभाविक परिणामों से होता है। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्मों के विपाकोदयरूप उपाधि का कारण भी विभाव स्वभाव है जो रागादिरूप होता है।1142 विभावस्वभाव के अभाव में कर्मबन्धन नहीं होगा और कर्मबन्धन के बिना संसार और संसार के बिना मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। क्योंकि मोक्ष की अवस्था भी संसारपूर्वक ही होती है। 1143
पुद्गल द्रव्य जीव के संयोग से जीव के कर्मोदय के अनुरूप विभिन्न आकारों के रूप में परिणमन करता है। इसलिए पुद्गल द्रव्य में भी विभाव स्वभाव है।
5. शुद्ध स्वभाव और अशुद्ध स्वभाव -
उपाधिभूत परद्रव्य के बिना द्रव्य की केवल स्वतः सिद्ध परिणमन की योग्यता शुद्ध स्वभाव है तथा उपाधिभूत परद्रव्य जन्य बहिर्भाव रूप परिणमन करने की योग्यता अशुद्ध स्वभाव है 1144 अर्थात् परद्रव्य के संयोग के बिना द्रव्य के स्वयं के गुणों में होनेवाले परिणमनपने को शुद्ध स्वभाव तथा परद्रव्य के संयोग से होनेवाले
.......
1141 जहजादो रूवंतराहणं जो सो हु विभावो .......
नयचक्र, गा. 64 का उत्तरार्ध 1142 विभावस्वभाव मान्य विना जीवनइं अनियत कहतां नाना देशकालादि विपाकी कर्मउपाधि न लागो जोइई
..............द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/8 का टब्बा 1143 स्वभाव स्वरूपस्य एकान्तेन संसार भावः ........................... आलापपद्धति, सू. 137 1144 जी हो शुद्धभाव केवलपणुं, लाला उपाधिक ज अशुद्ध ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/9
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परिणमनपने को अशुद्ध स्वभाव कहा जाता है। जीव और पुद्गल दोनों में शुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वभाव पाये जाते हैं।
अपने स्वाभाविक गुणों में सहज परिणमन करने से जीवद्रव्य शुद्ध स्वभाव वाला भी है और कर्मरूप परद्रव्य के संयोग से ( औदायिकभाव से) देव, नारकी, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, राजा, रंक, रोगी, निरोगी आदि पर्याय के रूप में परिणमन करने से जीव अशुद्धस्वभाववाला भी है। इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य के अपने वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादि गुणों में परिणमन करना शुद्ध स्वभाव तथा जीव के संयोग से पुद्गल का शरीरादि के रूप में परिणमन करना अशुद्ध स्वभाव है ।
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धर्मादि चार द्रव्य को व्यवहारनय से ही अपरिणामी कहा जाता है। इसलिए इन द्रव्यों का जीव और पुद्गलद्रव्य के साथ गतिसहायक, स्थितिसहायक, अवगाहनसहायक, वर्तनासहायक के रूप में संयोग होने पर भी भिन्न-भिन्न रूप से परिणमन नहीं होता है। इस कारण से इन द्रव्यों में अशुद्ध स्वभाव नहीं है तथा अशुद्धस्वभाव के अभाव में उसका प्रतिपक्षी शुद्ध स्वभाव भी नहीं है ।
जीवद्रव्य में शुद्ध स्वभाव नहीं मानने पर संसारी जीव कभी भी शुद्ध स्वभाववाला नहीं हो सकेगा अर्थात् संसारी अशुद्ध स्वभाववाले जीव का कदापि मोक्ष नहीं होगा। पुनः जीव में अशुद्धस्वभाव को नहीं मानने पर जीव एकान्तरूप से शुद्ध बुद्ध हो जाने से कर्मबन्धन और उसके विपाकोदय के परिणामस्वरूप जीव का विभिन्न रूपों में परिणमन आदि घटित नहीं होगा । 1145 इसी प्रकार जीव में शुद्ध और अशुद्ध स्वभाव को मानने से वेदान्तियों का यह मत कि "ब्रह्म सत् होने से कभी अशुद्ध नहीं हो सकता है तथा जगत मिथ्या होने से कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता है।” – स्वतः निराकृत हो जाता है। क्योंकि कोई भी पदार्थ एकान्तरूप से शुद्ध या अशुद्ध नहीं हो सकता है। एकान्त शुद्ध स्वभाव को मानने पर संसार और एकान्त
1145 अ) आलापपद्धति, सू. 146, 147
ब) जी हो विण शुद्धता, न मुक्ति छइ, लाला लेप वगर न अशुद्ध
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. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12 / 9 का उत्तरार्ध
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अशुद्ध स्वभाव को मानने पर मोक्ष घटित नहीं होंगे। अतः उभयस्वरूप को मानने से कोई दूषण नहीं आता है।1146
पुद्गल द्रव्य में शुद्ध स्वभाव को नहीं स्वीकार करने पर पुद्गलद्रव्य के रूप रस आदि गुणों में होने वाले स्वतः परिणमन और द्वयणुक, त्र्यणुकादि रूप परिणमन की योग्यता ही नहीं रहेगी तथा अशुद्ध स्वभाव को नहीं मानने पर जीवद्रव्य के संयोग से पुद्गल का औदायिकभाव रूप जो परिणमन होता है, वह भी घटित नहीं होगा।147 इसलिए जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों में ये दोनों स्वभाव पाये जाते हैं।
6. उपचरित स्वभाव -
एक द्रव्य के स्वभाव का अन्य द्रव्य में उपचार करना उपचरित स्वभाव कहलाता है।1148 यशोविजयजी ने भी जो स्वभाव एक स्थान में (द्रव्य में) नियमित रूप से होता है, उसका अन्य स्थान (अन्य द्रव्य) में उपचार करने को उपचरित स्वभाव कहा है।1149 माइल्लधवल के अभिमत में भी व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य का जो स्वभाव कहा जाता है उसे उपचरितस्वभाव कहा है।1150 जैसे कि मूर्तता स्वभाव पुद्गलद्रव्य का निश्चित स्वभाव है। आत्मा का स्वभाव मूर्तता (रूपीपन) नहीं है। परन्तु पुद्गलद्रव्य के संयोग के कारण आत्मा को भी कथंचित् मूर्त मानना उपचरित स्वभाव है। इसी प्रकार शरीर और कर्म के गाढ़सम्बन्ध के कारण आत्मा में अचेतनता को और आत्मा के सम्बन्ध से शरीर में सचेतनता को मानना उपचरित स्वभाव है। इसी उपचरित स्वभाव के कारण अमूर्तता और अचेतनता धर्मादि चार द्रव्यों का
1146 ए वेदान्त्यादि मत निराकरिउं, उभयस्वभाव मानिइं, कोई दुषण नहीं होई ते वती, ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/9 का टब्बा 1147 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन –धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 608 1148 स्वभावस्य अपि अन्यत्र उपचारात् उपचरित स्वभावः .................. आलापपद्धति, सू. 123 1149 जी हो नियमित एक स्वभाव जे लाला उपचरिउ परठाण ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/10 1150 जं विय दव्वसहावं उवयारं तं पि ववहारं
.............. नयचक्र, गा, 65 का उत्तरार्ध
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स्वाभाविक स्वभाव होने पर भी उनमें सहायता लेने वाले परद्रव्यों की अपेक्षा से घटाकाश, पटाकाश आदि व्यवहार किया जाता है।
___ जीव में उपचरित स्वभाव नहीं मानने पर अर्थात् उसे सर्वथा अनुपचरित स्वभाववाला मानने पर उसमें पर व्यवसायिता नहीं बनेगी अर्थात् उस पर का ज्ञान नहीं होगा, परन्तु “स्वपरव्यवसायि ज्ञानवंत आत्मा" ऐसा कहा जाता है। क्योंकि स्वयं का निर्णय (स्वविषयत्व) करना यह आत्मा का स्वभाव है, परन्तु व्यवहारनय से इन्द्रियों के माध्यम से वह पर पदार्थों को भी जानता है। क्योंकि पर का निर्णय (परविषयत्व) पर की अपेक्षा रखकर प्रतीयमान होता है। इसलिए आत्मा के ज्ञानगुण में जो स्वव्यवसायित्व है, वह अनुपचरित है, परन्तु परव्यवसायित्व उपचरित है।151
उपचरित स्वभाव दो प्रकार का होता है - कर्मजनित उपचरित स्वभाव और स्वाभाविक उपचरित स्वभाव। पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से होनेवाला स्वभाव कर्मजनित उपचरित स्वभाव कहलाता है। शरीर आदि पुद्गलों के सम्बन्ध से जीव को जो मूर्त और अचेतन कहा जाता है, वह शरीर –अंगोपांग आदि नाम कर्म के उदय के कारण होने से यह कर्मजनित उपचरित स्वभाव है। वस्तु के सहज स्वभाव से ही पर-पर्याय का उपचार अपने में करना स्वाभाविक उपचरितस्वभाव है। जैसे सिद्ध परमात्मा का पर के ज्ञाता रूप स्वभाव ।1152 सिद्ध परमात्मा लोकालोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनके अनंतानंत पर्यायों को जानते हैं। वे सभी द्रव्य सिद्ध परमात्मा से भिन्न होने पर भी सिद्ध परमात्मा के ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं। यह सिद्ध परमात्मा के ज्ञान का स्वभाव है, जो स्वभाविक उपचरित स्वभाव है।
प्रत्येक द्रव्य के सामान्य और विशेष स्वभाव -
जीव और पुद्गल द्रव्य में अस्ति, नास्ति आदि 11 सामान्य स्वभाव तथा चेतनता आदि दस विशेष स्वभाव पाये जाते हैं। इन दो द्रव्य में सभी सामान्य और
1151 ते उपचरितस्वभाव न मानिइं, स्वपरव्यवसायि ज्ञानवंत आत्मा किम कहि इं. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/10 का टब्बा 1152 ते उपचरितस्वभाव दो प्रकार छइं ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/11 का टब्बा
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विशेष स्वभाव अर्थात् कुल इक्कीस स्वभाव पाये जाते हैं। कालद्रव्य में बहुप्रदेशता, चेतनता, मूर्तता, विभाव, शुद्ध और अशुद्ध इन छह स्वभावों को छोड़कर शेष पन्द्रह पाये जाते हैं।1153 कालद्रव्य एक समयात्मक होने से प्रदेशों का पिण्डात्मक नहीं है। इस कारण से काल में बहुप्रदेशता नहीं है। उसका अचेतन होने से चेतनता तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शगुण नहीं होने से मूर्तता स्वभाव नहीं हैं पररूप परिणमन करने की योग्यता नहीं होने से विभाव-स्वभाव एवं कर्ममय उपाधि का सम्बन्ध ही नहीं होनेसेशुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वभाव नहीं है। धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य में चेतनता, मूर्तता, विभाव, शुद्ध और अशुद्ध इन पांचों स्वभाव के अतिरिक्त शेष सभी अर्थात् सोलह स्वभाव पाये जाते हैं। 1154
नयों के आधार पर सामान्य विशेषस्वभाव -
उपरोक्त इक्कीस स्वभावों में से अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक–अनेक, भिन्न-अभिन्न, भव्य-अभव्य आदि स्वभाव सामान्य दृष्टि से विचार करने पर परस्पर विरूद्ध दिखाई देता है। भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि एक ही वस्तु में अस्ति–नास्ति आदि कैसे हो सकते हैं, किन्तु वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा ही है अर्थात् अनेकान्तिक ही है। इस अनेकान्तिक वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए अथवा एक ही वस्तु में पाये जाने वाले परस्पर विरूद्ध स्वभावों को समझने के लिए नय की अपेक्षा रहती है। नय की दृष्टि से विचार करने पर सभी भ्रान्तियाँ स्वतः पलायन कर जाती है। एतदर्थ उपाध्याय यशोविजयजी ने सामान्य-विशेष स्वभावों की चर्चा के बाद किस नय की अपेक्षा से कौन सा स्वभाव वस्तु में घटित होता है, इस बात का विवेचन 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की तेरहवीं ढाल में किया है। वह इस प्रकार है :
1153 जी हो दसइ विशेष स्वभाव ए 1154 जी हो बहुप्रदेश चितमूर्तता
वही, गा. 12/12 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/13
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अस्ति-नास्ति स्वभाव -
स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वस्तु में अस्ति स्वभाव है और परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वस्तु में नास्ति स्वभाव है। एक ही वस्तु को जब स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से विचार किया जाता है तब वह वस्तु अस्तिस्वरूप प्रतीत होती है और उसी वस्तु का जब परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव के रूप में विचार किया जाता है तो वस्तु नास्तिस्वरूप प्रतीत होती है। क्योंकि वस्तु में उनका अभाव होता है। प्रत्येक वस्तु स्व स्वरूप की दृष्टि से अस्तिस्वभाववाली और परस्वरूप की दृष्टि से नास्ति स्वभाववाली होती है। स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय वस्तु को स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से ही प्रधान रूप से ग्रहण करती है। अतः इस नय की अपेक्षा से वस्तु अस्ति स्वभाववाली है1155 जबकि परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय परद्रव्य आदि को मुख्य रूप से ग्रहण करती है अतः इस नय की अपेक्षा से वस्तु नास्तिस्वभाववाली है। 156
नित्य-अनित्यस्वभाव -
वस्तु का स्वरूप उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक या स्थिरास्थिर होता है। द्रव्यार्थिकनय वस्तु के उत्पाद–व्यय या परिवर्तनशील स्वरूप को गौण करके उसके ध्रुवांश या सत्ता को प्रधानरूप से ग्रहण करता है। यह नय मिट्टी के घट-स्थास-कुशुल आदि विभिन्न परिवर्तनों या पर्यायों को गौण करके इन सभी में पाये जाने वाले स्थायी तत्त्व मिट्टी को ही ग्रहण करता है। अतः इस नय की दृष्टि से वस्तु नित्य है।157 इसके विपरीत पर्यायार्थिकनय ध्रवांश को गौण करके उत्पाद-व्यय या अस्थिर अंश को मुख्य रूप से ग्रहण करता है, अतः इस नय के
1155 अ) स्वद्रव्यादि ग्राहकेण अस्तिस्वभाव
आलापपद्धति, सू. 150 ब) स्वद्रव्यादि ग्राहकइ रे, अस्तिस्वभाव वखाणी ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/1 पूर्वार्ध 1156 अ) परद्रव्यादि ग्राहकेन नास्तिस्वभावः .......... .............. आलापपद्धति, सू. 151
ब) परद्रव्यादिक ग्राहकइ रे, नास्तिस्वभाव भनि आणिओ ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.13/1 का उत्तरार्ध 1157 अ) उत्पाद-व्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यस्वभावः .............. आलापपद्धति, सू. 152
ब) उत्पाद व्यय गौणता रे, सत्ताग्राहकि नित्य ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/2
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अनुसार कोई वस्तु नित्य नहीं रहती है। प्रतिक्षण पूर्व पर्याय के रूप में नाश और उत्तरपर्याय के रूप में उत्पाद होता रहता है। अतः इस नय की अपेक्षा से वस्तु अनित्य स्वभाववाली है।1158
एक और अनेक स्वभाव -
___प्रत्येक वस्तु में समानता और असमानता दोनों ही होते हैं अर्थात् वस्तु सामान्यविशेषात्मक होती है। जैसे जीवद्रव्य अनंत ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा से सामान्यरूप भी है और कर्मविपाकोदय के परिणामस्वरूप एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, स्त्री-पुरूष, सुखी-दुःखी, राजा, रंक आदि रूप से विशेष भी है। परन्तु भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय वस्तु के गुणभेद, पर्यायभेद, स्वभावभेद की विवक्षा को गौण करके अभेद की विवक्षा को प्रधानता से ग्रहण करता है। अतः इस नय की दृष्टि में द्रव्य एक है अर्थात् गुण और पर्यायों की सत्ता द्रव्य से पृथक् नहीं होने से अनन्त गुण और अनन्त पर्यायों का आधारभूत द्रव्य एक है।1159 जैसे जीव ज्ञानस्वरूप वाला, दर्शनस्वरूपवाला, चारित्रस्वरूपवाला तथा एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, सुखी, दुःखी, राजा, रंक आदि के रूप में अनेक नहीं है, परन्तु इन सभी गुण और पर्यायों का आधारभूत एक द्रव्य है।
प्रत्येक द्रव्य सामान्य की तरह विशेष भी होता है, क्योंकि किसी भी पदार्थ का व्यवहार उसके विशेष से ही होता है। सभी विशेष रूपों में द्रव्य का अन्वय अवश्य पाया जाता है। जिसके होने पर जो होता है वह अन्वय है। इस दृष्टि से द्रव्य के अनेक गुण तथा उसके अनेक पर्यायोंरूप विशेषों में यह वही है, यह वही है ऐसा एक द्रव्यका अन्वय पाया जाता है। अन्वयद्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से द्रव्य, गुण और पर्यायों में अन्वित (सह-अस्तित्व) होने के कारण यह गुण-पर्याय का भी द्रव्य के
1158 अ) केनचित् पर्यायार्थिकनयेन अनित्य स्वभावः ................. आलापपद्धति, सू. 153
ब) कोईक पर्यायार्थिकइ रे, जाणो स्वभाव अनित्यो रे ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/2 उत्तरार्ध 1159 अ) भेदकल्पना निरपेक्षेण एकस्वभावः ....
आलापपद्धति, सू. 154 ब) भेदकल्पना रहितथी रे धारो एक स्वभाव .............
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/3
पाएपना
पदाण पापनाप. ............................................... मालाचा
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रूप में ही उल्लेख करता है। अतः इस नय की दृष्टि से अन्वयरूप एक द्रव्य अनेक स्वभावरूप प्रतीत होता है।1160
भेद और अभेद स्वभाव -
वस्तु का व्यवहार करने के लिए भेद आवश्यक है। जैसे आम्र और नीम दोनों वृक्ष के रूप में समान होने पर भी आम्र के स्थान पर नीम और नीम के स्थान पर आम्र का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसलिए व्यवहारनय वस्तु में भेद करता है। अतः सद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से गुण-गुणी, पर्याय–पर्यायी (द्रव्य), आधार-आधेय आदि अभेदवस्तु में संख्या, संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन, इन्द्रियग्राह्यता आदि के आधार पर भेद है। इस प्रकार सद्भूतव्यवहारनय से वस्तु में भेदस्वभाव है।1161
गुण-गुणी आदि में एकान्तभेद न हो जाय, इस कारण से भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय गुण-गुणी आदि में भेद की कल्पना नहीं करके शुद्ध द्रव्य मात्र को ही अपना विषय बनाता है। क्योंकि गुण-गुणी आदि एक क्षेत्रावगाही होने से तथा गुण-गुणी आदि में तादात्म्य सम्बन्ध होने से इनमें वस्तुभेद नहीं होता है। अतः भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वस्तु में अभेद-स्वभाव भी है।162
भव्य और अभव्य स्वभाव -
द्रव्य का अपने-अपने पर्यायों के रूप में परिणमन करना भव्य स्वभाव तथा द्रव्य का अन्य द्रव्य के रूप में या उसकी पर्यायों के रूप में परिणमन न करना अभव्य स्वभाव है। स्वचतुष्टय रूप से परिणमन करने की योग्यता (भव्य) और
1160 अ) अन्वय द्रव्यार्थिकेन एकस्य अपि अनेक द्रव्य स्वभावत्वं ......... आलापपद्धति, सू. 155 1161 अ) सद्भूत व्यवहारेण गुण-गुण्यदिभिः भेदस्वभाव ........................ आलापपद्धति, सू. 156
ब) सद्भूत व्यवहारथी रे, गुण गुण्यादिक भेद । ..... . ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.13/4 1162 अ) भेद कल्पना निरपेक्ष गुण-गुण्यादिभिः अभेद स्वभावः ............ आलापपद्धति, सू. 157 ब) भेद कल्पना रहितथी रे, जाणो तास अभेदो रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/4 का उत्तरार्च
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परचतुष्टय रूप से परिणमन नहीं करने की योग्यता (अभव्य) -ये दोनों ही वस्तु के निसर्गसिद्ध प्रधान परिणामिक भाव है। जैसे कि जीव अपने ज्ञानादि गुणों में प्रतिक्षण परिणमित होने पर भी परद्रव्य के साथ रहने मात्र से परद्रव्य अर्थात् अजीव के रूप में परिणमित नहीं होता है। परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय द्रव्य के स्वतः सिद्ध पारिणामिक स्वभाव को ही प्रधानरूप से ग्रहण करता है। अतः इस नय के अनुसार वस्तु में भव्य और अभव्य दोनों स्वभाव है।1163
परमस्वभाव -
प्रत्येक द्रव्य का अपना-अपना स्वतः सिद्ध पारिणामिक भाव होता है, वही उसका परमभाव है। जैसे आत्मा का पारिणामिक भाव चेतनता है। परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय मुख्य रूप से द्रव्य के परमस्वरूप या प्रधानस्वरूप को ही अपना विषय बनाता है। अतः इस नय की अपेक्षा से वस्तु में परमभावस्वभाव है।164 परमभाव स्वभाव में सामान्य की तथा परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय नामक एक नय की ही प्रवृति होती है।
चेतन और अचेतन स्वभाव - ___जीव में शुद्ध रूप से चेतन स्वभाव और ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के उदय से अचेतनस्वभाव है। संसारी जीवों में क्षायोपशमिक भाव होने से ये दोनों स्वभाव मिश्रित रूप से पाये जाते हैं। द्रव्य के मूलभूत सहज स्वभाव को अपना विषय बनाने वाला शुद्धाशुद्ध मिश्रित परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय जीव के मूल स्वभाव चेतन स्वभाव के साथ मिश्रित अचेतन स्वभाव को भी ग्रहण करता है।1165
1163 अ) परमभाव ग्राहकेण भव्य-अभव्य-पारिणामिक स्वभावः
आलापपद्धति, सू. 158 ब) परमभाव ग्राहक नयइ रे, भव्य अभव्य परिणाम ................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/5 1164 इहां अस्ति-नास्ति स्वभावनी परिइं स्वपर द्रव्यादि ग्राहक नय-2 प्रवृति न होई । 1165 अ) शुद्ध-अशुद्ध परमभाव ग्राहकेण चेतनस्वभावो जीवस्य ...... आलापपद्धति, सू. 159
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असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय आदि कर्म में तथा मन, वचन, काया की शुभाशुभ चेष्टा रूप नोकर्म अर्थात् शरीर में भी चेतनता पायी जाती है। क्योंकि जीव के संयोग से ही कार्मण वर्गणा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में परिणमित होते हैं और मन, वचन और काया की शुभाशुभप्रवृति भी जीव के संयोग से होती है। इसलिए अन्य प्रसिद्ध गुण-धर्म को अन्यत्र आरोपित करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय कर्म और नोकर्म में भी चेतनता का उपचार करता है।166 अचेतनता धर्म आदि पांचों द्रव्य का मूल और सहज स्वभाव होने से मूलस्वभावग्राही परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से धर्मादि में अचेतनता स्वभाव है। कर्म-नोकर्म पुद्गल द्रव्य के ही पर्याय होने से परमभावग्राहक नय की अपेक्षा से अचेतन स्वभाववाले हैं,1167 परन्तु जीव में यह अचेतनस्वभाव मूल या सहजस्वभाव रूप में न होकर उपचरित स्वभाव के रूप में पाया जाता है। जैसे तप्त लोहे के गोले को अग्नि का गोला कहा जाता है, उसी प्रकार कर्म और नोकर्म आदि अचेतनपदार्थों के संयोग से जीव में भी असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से अचेतनता स्वभाव भी है।168
इस प्रकार परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से जीव में चेतन तथा अन्य धर्मादि शेष पांच द्रव्यों में अचेतनस्वभाव है, किन्तु असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से जीव में अचेतनस्वभाव तथा कर्म और नोकर्म में चेतनस्वभाव भी है।
मूर्त और अमूर्त स्वभाव -
वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गल द्रव्य का लक्षण होने से मूर्त स्वभाव पुद्गलद्रव्य का सहज स्वभाव है। अतः परमभावग्राहक नय की अपेक्षा से पुद्गलद्रव्य
ब) शुद्ध-अशुद्ध तेहथी रे, चेतन आत्मारामो रे ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/5 का उत्तरार्ध 1166 अ) असदभूतव्यवहारेण कर्म-नोकर्मणोरपिचेतन स्वभाव ............. आलापपद्धति, सू. 160 ब) असदभूतव्यवहारथी रे, चेतन कर्म नोकर्म।
................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/6 1167 अ) परमभाव ग्राहकेण कर्मनोकर्मणोरचेतन स्वभावः . आलापपद्धति, सू. 161
ब) परमभाव ग्राहकनयइ रे, तेह अचेतन धर्मो रे .... ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/6 का उत्तरार्ध 1168 अ) जीवस्याप्यसभूत व्यवहारेण अचेतन स्वभाव ...................... आलापपद्धति, सू. 162
ब) असद्भूत व्यवहारथी रे, जीव अचेतन धर्म .................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/7पूर्वार्ध
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में मूर्तता स्वभाव है । परन्तु असद्भूतव्यवहारनय की दृष्टि शरीरादि मूर्त द्रव्य के सम्बन्ध से जीव में भी उपचरित मूर्तता स्वभाव है। वर्ण आदि गुण से रहित होने से स्वभावतः आत्मा अमूर्त होने पर भी क्षीरनीर की तरह आत्मा और शरीर मिश्रित होने से व्यवहारनय से जीव भी मूर्त कहा जाता है। जैसे पद्मप्रभु और वासुपूज्य रक्त वर्ण के हैं, इत्यादि । पुद्गल विना के शेष पांच द्रव्यों में अमूर्तता सहज रूप से होने से परमभावग्राहकनय की अपेक्षा से इन धर्मादि द्रव्यों का अमूर्तता स्वभाव है। 1169 परन्तु पुद्गलद्रव्य में अमूर्ततास्वभाव असद्भूत व्यवहारनय से भी नहीं होता है। यद्यपि पुद्गल और जीव क्षीरनीर की तरह परस्पर मिले हुए होने पर भी जीव के संयोग से पुद्गल के मूर्तस्वभाव का निरसन नहीं होता है, फिर भी पुद्गलद्रव्य में अमूर्तता स्वभाव को मिलाकर जो 21 स्वभाव का वर्णन किया गया है, वह परमाणु की अपेक्षा से ही है। क्योंकि अद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से परमाणु इन्द्रिय गोचर नहीं होने से वह अमूर्त है | 1170
एकप्रदेश और बहुप्रदेश स्वभाव
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों असंख्यप्रदेशी तथा आकाशास्तिकाय अनन्तप्रदेशी द्रव्य होने पर भी एक और अखण्ड द्रव्य हैं। जीवद्रव्य अनन्त हैं और प्रत्येक जीव असंख्यप्रदेशी और अखण्ड द्रव्य है । इन द्रव्यों में कभी विभाग नहीं होता है । फिर भी प्रयोजनवश उनमें ऊर्ध्वलोक का धर्मास्तिकाय, अधोलोक का अधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश, हस्तभागावच्छिन्न जीवप्रदेश, पादभागावच्छिन्न जीवप्रदेश ऐसी भेदकल्पना भी की जाती है। भेदकल्पना रहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय द्रव्य में भेद कल्पना को गौण करके अखण्ड द्रव्य को प्रधान रूप से ग्रहण करता है ।
असद्भूत व्यवहारथी रे, जीव मूत्त पणि होई परमनयइ पुद्गल विना रे, द्रव्य अमूर्त तुं जोयो रे
1169
1170 पुद्गलनइ अकवीसमो रे, इम तो भाव विलुप्त णी असद्भूत नयइ रे, परोक्ष अणुअ अमूत्तो
405
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/8
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13 / 12
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अतः इस नय के अनुसार धर्मादि चार द्रव्यों का एकप्रदेशस्वभाव है।171 पुद्गलास्तिकाय परमाणु और स्कन्ध रूप से दो प्रकार का होता है। परमाणु की एकप्रदेशता वास्तविक होने से परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से परमाणु एकप्रदेश स्वभाववाला है जबकि स्कन्ध अनेकप्रदेशात्मक होने से अनेकप्रदेश स्वभाववाला है। कालद्रव्य एक समयात्मक है। समयों का कभी पिण्ड नहीं बनने से परमभावग्राहकनय की दृष्टि से कालद्रव्य का एकप्रदेशस्वभाव है। 172
धर्मादि चारों द्रव्य अखण्ड होने परमीप्रयोजनवश इनमें भेद की कल्पना की जाती है। परन्तु यह भेद इन द्रव्यों का वास्तविक स्वरूप नहीं है, अपितु काल्पनिक स्वरूप है। इस प्रकार भेदकल्पना को प्रधानता देनेवाले भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार इन चारों द्रव्य में तथा पुद्गल स्कन्धों में अनेकप्रदेशता स्वभाव है। परमाणु में अन्य परमाणुओं के साथ मिलकर अनेकप्रदेशी बनने की योग्यता होने से उपचार से परमाणु भी अनेकप्रदेशी है।1173
विभावस्वभाव -
जीव में ज्ञानावरणीय आदि का क्षायिक भाव होने से शुद्ध स्वभाव है तथा कामक्रोधादि पूर्वबद्ध कर्म के उदयरूप और नवीन कर्मबध के हेतुभूत होने से अशुद्धस्वभावरूप है। इसी तरह पुद्गलद्रव्य में वर्णादि गुण होने से शुद्ध स्वभाव तथा जीव के संयोग से शरीरादिरूप पुद्गलद्रव्य में चेतनता का उपचार करने से पुद्गल में परद्रव्य के संयोगजन्य अशुद्धस्वभाव भी है। इन जीव और पुद्गलद्रव्य के शुद्ध
1171 अ) परमनयइ परद्रव्यनइ रे, भेद कल्पना अभावो रे ............. वही, गा. 13/13 का उत्तरार्ध
ब) भेद कल्पना निरपेक्षेणेतषांचाखण्डत्वादेकप्रदेशस्वभावत्वम ......... आलापपद्धति, सू. 168 1172 अ) परमभाव ग्राहकेण कालपुद्गलाणुनामेप्रदेशस्वभावत्वम् ............ वही, सू. 167
ब) काल पुद्गलाणु तणो रे, एकप्रदेश स्वभाव .. .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/13 1173 भेदकल्पनायुत नयइ रे, अनेक प्रदेश स्वभाव ।
अणु विना, पुद्गल अणु तणो रे उपचारइ तेह भावो रे।। ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/14
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और अशुद्ध दोनों स्वभाव को मिलाकर शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों द्रव्य में विभावस्वभाव भी है। 174
शुद्धस्वभाव और अशुद्धस्वभाव -
जीव में ज्ञानादि गुणों का आविर्भाव क्षयोपशमादि भाव के कारण अंशतः या क्षायिकभाव के कारण पूर्णतः होना जीव का शुद्धस्वभाव है। इस शुद्ध स्वभाव को अपना विषय बनानेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से जीव में शुद्धस्वभाव है। इसी प्रकार काम, क्रोधादि औदायिक भाव जीव का अशुद्धस्वभाव है। अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव में अशुद्धस्वभाव पाया जाता है। पुद्गल द्रव्य में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वर्णादि शुद्ध स्वभाव और अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार जीव के संयोग से शरीर आदि रूप अशुद्धस्वभाव भी पाया जाता है। 175
उपचरित स्वभाव -
जो स्वभाव द्रव्य का वास्तविक स्वभाव नहीं होने पर भी अन्यद्रव्य के संयोग से है,वह स्वभाव उस द्रव्य में प्रतिभासित होता है तो उस स्वभाव को उपचार से स्वीकार किया जाता है। जैसे मूर्तता स्वभाव जीव का वास्तविक स्वभाव नहीं होने पर भी शरीर आदि पुद्गल के संयोग से जीव में मूर्तता स्वभाव को माना गया है। उपचार करनेवाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से सभी द्रव्यों में उपचारस्वभाव है। 176
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्य के सामान्य विशेष गुण तथा सामान्य विशेष स्वभाव को भिन्न-भिन्नरूप से विश्लेषित करने के पश्चात् उपाध्याय
1174 अ) शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकेन विभाव स्वभावत्वम् ................. आलापपद्धति, सू. 173
ब) शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकई रे, जाणि विभाव स्वभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/15पूर्वार्ध 1175 अ) आलापपद्धति, सू. 174, 175
ब) शुद्धइं शुद्धस्वभाव छइ रे, अशुद्धइ अशुद्ध स्वभावो रे .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/15 का उत्तरार्ध 1176 अ) असद्भूत व्यवहारेणोपचरित स्वभावः
. आलापपद्धति, सू. 176 ब) असद्भूतव्यवहारथी रे, छइ उपचरित स्वभाव . .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/16
मावः ...........
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यशोविजयजी ने उनकी समीक्षा के रूप में कहा है -स्वभाव द्रव्य के गुण और पर्याय से भिन्न नहीं है। जैसे चेतनता जीव का स्वभाव है और वही चेतनता जीव का गुण भी है, क्योंकि जो सहभावी होता है वही गुण कहलाता है और जो स्वभावभूत स्वरूप है, वही सहभावी होता है। वस्तु का उपचार रहित जो सहज स्वभाव होता है वही द्रव्य के साथ सदा रहता है, जो सहभावी होता है, वही गुण है। अतः स्वभाव गुण से पृथक नहीं है। स्वभाव में होने वाली हानि-वृद्धि या रूपान्तर को ही पर्याय कहा जाता है। इसलिए पर्याय, द्रव्य और गुणों दोनों के आश्रित हैं जबकि गुण मात्र द्रव्य के ही आश्रित रहता है। इस दृष्टि से विचार करने पर स्वभाव गुण-पर्याय से भिन्न नहीं है। 17 इस प्रकार यशोविजयजी ने अपने इस ग्रन्थ में गुण और स्वभाव का अलग-अलग निर्देश करके भी उन्हें अभिन्न ही माना है और यही उनके चिन्तन की विशेषता है।
1177 अनुपचरित निज भाव जे रे, ते तो गुण कहवाय
इक द्रव्याश्रित गुण कहिया, उभयाश्रित पज्जायो रे ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/17
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क्रम | स्वभाव के नाम
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय
आकाशास्तिकाय
जीव
पुदगल
काल
नय
-
-
ARTHI
अस्तिस्वभाव 2 | नास्तिस्वभाव 3 | नित्यस्वभाव
| अनित्यस्वभाव | एकस्वभाव | अनेकस्वभाव | भेदस्वभाव | अभेदस्वभाव | भव्यस्वभाव
अभव्यस्वभाव 11 | परमभावस्वभाव
6
|
| चेतनस्वभाव
13 | अचेतनस्वभाव
| स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय से
परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय से । 1 1 | | सत्ताग्राहक द्रव्यार्थिक नय से 1 | 1 | 1 | 1 | पर्यायार्थिक नय से। 1 | 1 1 1 | 1 | | भेदकल्पना रहित द्रव्यार्थिक नय से
भेदकल्पना सहित द्रव्यार्थिक नय से
भेदकल्पना सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय से 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | अभेदकल्पना सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय से
परमभाव ग्राहक नय से | 1 | 1 | 1 1 | 1 | 1 | परमभाव ग्राहक नय से 11
परमभाव ग्राहक नय से परमभाव ग्राहक नय से जीव में और असद्भूतव्यवहार नय से पुद्गल में धर्मादि पांचों में परमभाव ग्राहक नय से, जीव में असद्भूतव्यवहारनय से । परमभाव ग्राहक नय से पुद्गल में, असद्भूतव्यवहार नय से जीव में परमभाव ग्राहक नय से धर्मादि पांचों में, असद्भूत व्यवहारनय से परमाणु में परमभावग्राहक नय से काल और परमाणुमें
भेदकल्पनारहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्मादि चार में 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | भेदकल्पना सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय से धर्मादि पांचों में
उपचार से परमाणु में | 1 | 1 | x | शुद्धाशु
शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिक नय से x | x | 1 | 1 | x शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से
| अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय से | 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | असद्भूत व्यवहारनय से 16_16_ 18 21 21 15
14 | मूर्तत्वस्वभाव
15. | अमूर्तत्वस्वभाव
1 / 1
16. एकप्रदेशस्वभाव
17. | अनेकप्रदेशस्वभाव
19.
18. | विभावस्वभाव | शुद्ध स्वभाव अशुद्ध स्वभाव उपचरित स्वभाव कुल स्वभाव
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पंचम अध्याय
जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप एवं प्रकार
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में पर्याय का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। पर्याय की अवधारणा जैनदर्शन की एक विशिष्ट अवधारणा है। सामान्यतया सभी भारतीय दर्शनों में द्रव्य और गुण की चर्चा उपलब्ध होती है, परन्तु जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन में पर्याय की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। जैनदर्शन के अनुसार सत् परिणामीनित्य या उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है। द्रव्य अपने स्व जाति के गुणों का त्याग किये बिना प्रतिक्षण पूर्व अवस्था का त्याग करता रहता है और नवीन अवस्था को प्राप्त होता रहता है। वस्तु में नवीन अवस्था का उत्पाद और पूर्व अवस्था का व्यय सतत् चलता रहता है। उत्पाद–व्यय का यह सतत् प्रवाह ही पर्याय है। आचार्य अकलंक ने जो समग्रतः भेद अर्थात् नवीनता को प्राप्त होती है, उसे ही पर्याय के रूप में निरूपण किया है। 178 वस्तु का अपरिवर्तनशील पक्ष द्रव्य है तथा परिवर्तनशील पक्ष पर्याय है। दूसरे शब्दों में वस्तु की प्रत्येक दशा में बराबर अनुस्यूत रहनेवाला जो अन्वयीरूप है, वह द्रव्य है तथा जो बदलते रहने वाला विशेष रूप है, वह पर्याय है। 179 जीव नर, नारक रूप में बदलता रहता है और जीवत्व उन सबमें बराबर अनुस्यूत रहता है। इस उदाहरण में जीव के नर, नारक आदि विशेष रूप पर्याय हैं तथा जीवत्व द्रव्य है।
पर्याय का स्वरूप एवं परिभाषा -
जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में जलनेवाला तेल प्रतिक्षण बदलता रहता है, परन्तु दीपक यथावत् जलता रहता है। उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय
1178 राजवार्तिक, 1/33/1/95/6 1179 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 240
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भिन्न-भिन्न परिवर्तन या परिणमन को प्राप्त होते रहने पर भी द्रव्यत्व यथावत् रहता है। द्रव्य में होनेवाला यह परिवर्तन या परिणमन ही पर्याय है।1180 उमास्वाति ने तदभावः परिणामः कहकर परिणमन को अथवा प्रतिसमय बदलते रहने को ही पर्याय के रूप में अभिव्यंजित किया है।1181 पूज्यपाद के अनुसार भी द्रव्य का विकार अर्थात् परिणमन ही पर्याय है।1182 द्रव्य में एक अवस्था का उत्पाद और पूर्व अवस्था का व्यय रूप परिणमन सतत चलता रहता है। न्यायालोक की वृत्ति में जो भी उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है तथा समग्र द्रव्य को व्याप्त करती है, उसे पर्याय कहा गया है।183 जयसेनाचार्य ने पर्याय का लक्षण व्यतिरेकी और क्रमभावी दिया है। 184 एक पर्याय दूसरी पर्यायरूप नहीं होने से पर्यायों में परस्पर व्यतिरेक है। पर्याय एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी ऐसे क्रम से होती हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी में पिण्ड, कोश, कुशूल, घट आदि पर्यायें युगपत् नहीं पायी जाती हैं, किन्तु क्रम से होती हैं। इसलिए पर्यायें क्रमवर्ती कहलाती हैं। आशय यह है कि जो परिणति प्रथम समय में रहती है, वह दूसरे समय में नहीं होती है। प्रतिसमय क्रमशः परिवर्तन होता रहता है। एक पर्याय का स्थान दूसरी पर्याय लेती रहती है। इसलिए पर्याय को क्रमवर्ती कहा है।1185 वादिदेवसूरि ने भी द्रव्य के क्रमभावी धर्म को ही पर्याय के रूप में परिभाषित किया है।1186
1180 सागरजैन विद्याभारती, भाग-5 - प्रो. सागरमल जैन, पृ. 111 1181 तत्त्वार्थसूत्र - 5/41 182 गुण इति दव्वविहाणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो ...... सर्वार्थसिद्धि, पृ. 237 पर उद्धृत 1183 पर्येति उत्पत्ति-विपत्तिं-चाप्नोति पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा।
........................ न्यायालोक तत्त्वप्रभावृत्ति, पृ. 203 1184 व्यतिरेकिणः पर्याया अथवा क्रमभूवः पर्याय इति पर्याय लक्षणम् ...... प्रवचनसार, गा. 93 की जयसेनाचार्य की
टीका
1185 परमात्मप्रकाश, गा. 1/57 1186 प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 5/8
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पंचाध्यायी में कथित पर्याय के लक्षण में पर्याय के उपरोक्त सभी लक्षणों का समावेश हो जाता है। इसमें जो क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथंचित् ध्रौव्यात्मक होती है उसे पर्याय कहा है।1187
क्रमवर्ती :
क्रम से होना जिनका स्वभाव है उन्हें क्रमवर्ती कहा जाता है। द्रव्य और गुण में अनन्त पर्यायें होती हैं। परन्तु सभी पर्याय एक साथ नहीं होती हैं। एक पर्याय का नाश होने पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। फिर उस दूसरी पर्याय का नाश होने पर तीसरी पर्याय उत्पन्न होती है। 188 इस प्रकार पूर्व-पूर्व पर्यायों का नाश होने पर उत्तरोत्तर पर्यायें क्रम से होती रहती हैं। प्रत्येक समय की पर्यायों में एक क्रम पाया जाने से पर्यायों को क्रमवर्ती कहते हैं। पर्यायों का ऐसा क्रम चालू रहने पर भी द्रव्य के स्वभाव का परित्याग नहीं होता है।
अनित्य :
पर्याय क्षणवर्ती होने से अनित्य हैं। प्रथम समय में जो पर्याय रहती है, वह दूसरे समय में नहीं रहती है। जो ज्ञान, वर्तमान समय में है,वही ज्ञान दूसरे समय में नहीं रहता है। इस प्रकार निरन्तर पर्यायें परिवर्तित होने से अनित्य है।
व्यतिरेकी :
व्यतिरेक = भेद ; अन्य-अन्य समय में होना। एक पर्याय दूसरी पर्याय रूप नहीं होती है। द्रव्य की जो प्रथम समय की पर्याय है, वह दूसरे समय में नहीं रहती है। किन्तु दूसरे समय में दूसरी ही पर्याय होती है। जो प्रथम समय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव है, वही दूसरे समय में नहीं रहते हैं। इस प्रकार प्रतिसमय
1187 क्रमवर्तिनो ह्यनित्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः
उत्पादव्ययरूपा अपि च ध्रौव्यात्मकाः कथंचिचच्च
पंचाध्यायी, 1/165
1188 पंचाध्यायी, 1/167, 168, 169
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अन्य–अन्य रूप होने से पर्याय को व्यतिरेकी कहा जाता है। संक्षेप में यह पर्याय 'वह नहीं है, ऐसी बुद्धि होने से व्यतिरेकी है । 1189
उत्पाद - व्ययरूप और कथंचित् ध्रौव्यात्मक :
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों पर्याय के भेद हैं न कि सत् के । परिणमनशील सत् की जो नवीन अवस्था है, वह उत्पाद है तथा उसी सत् की पूर्व अवस्था का नाश, व्यय कहलाता है। इन सभी परिणामों में एकप्रवाहपना होने से प्रत्येक परिणाम उत्पाद - विनाश से रहित एकरूप या ध्रुव रहता है । ध्रुव भी सर्वांश रूप न होकर एक अंश रूप होने से पर्याय है। अतः पर्याय का लक्षण उत्पाद-व्यय और कथंचित् ध्रौव्यात्मक कहा है।
1190
1191
यद्यपि आचरांगसूत्र'' में भी पर्याय शब्द प्रयुक्त हुआ, किन्तु आगमों में पर्याय की सर्वप्रथम परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त होती है। इस सूत्र के अनुसार जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहते हैं, वे पर्यायें हैं । 1192 क्योंकि द्रव्य के आश्रयभूत गुणों की हानि - वृद्धि या रूपान्तरता ही पर्याय है । इसलिए पर्याय उभयाश्रित हैं । सुवर्ण द्रव्य है, सुवर्ण के रूप - रसादि गुण है और कुंडल हार आदि पर्याय हैं। कुंडल, हार आदि आकार स्वरूप पर्याय सुवर्ण के आश्रित तो रहते हैं, किन्तु सुवर्ण द्रव्य में रहे हुए रूप, रसादि गुण भी उस आकार रूप परिणमित होने से पर्याय गुणों के आश्रित भी होते हैं । ' वस्तुतः द्रव्य और गुण की पृथक् सत्ता नहीं है। सामान्य और विशेष गुणों से भिन्न द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। अतः गुणों का परिणमन या रूपान्तरण द्रव्य का भी परिणमन और रूपान्तरण है। इसी प्रकार द्रव्य क परिणमन
1193
1189 पंचाध्यायी, 1/152
1190 वही, 1/200 से 203
1191 जे पज्जवज्जायसत्थस्स खेयण्णे से असत्यस्स खेयन्ने
1192 लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्स्यिा भवे ।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 - पं. धीरजलाल डाह्यालाल भाई, पृ. 653
1193
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आचारांगसूत्र, 3/1/140
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उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6
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या रूपान्तरण गुण भी परिणमन और रूपान्तरण है। इसी कारण से पर्याय को द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित बताया गया है। यहाँ द्रव्य और गुण में होने वाले अवस्थान्तर को ही पर्याय कहा है।
उत्तराध्ययनसूत्र में एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग को पर्याय का लक्षण कहा है।1194 वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। अतः सामान्य की अपेक्षा से एकत्व पर्याय और विशेष की अपेक्षा से पृथ्कत्वपर्याय है। एक पर्याय का दूसरे पर्याय के साथ द्रव्य की दृष्टि से एकत्व होता है। यही एकत्व पर्याय है। एक पर्याय दूसरी पर्याय से तथा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से पृथक् होता है। यह पृथकत्व भी उन-उन द्रव्यों की पर्याय है। एक, दो आदि संख्या की प्रतीति भी पर्याय है। इसी प्रकार दो द्रव्यों का संयोग और वियोग (अलग होना) भी पर्याय है।
प्रज्ञापनासूत्र के पर्यायपद में जीव और अजीव द्रव्य के विभिन्न अवस्थाओं को पर्याय कहा है। इस सूत्र में जीव और अजीव के विभिन्न पर्यायों का विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। साथ ही इन द्रव्यों की सामान्य अपेक्षा से कितनी पर्यायें हो सकती हैं, इसकी भी चर्चा है।
इस प्रकार आगम साहित्य में 'पर्याय' शब्द का प्रयोग दार्शनिक ग्रन्थों से किंचित् भिन्न अर्थ में किया गया है। पर्याय का सामान्य अर्थ अवस्था विशेष है। इस दृष्टि से आगम में एक पदार्थ जितनी अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उन अवस्थाओं को, उस पदार्थ की पर्यायें कहा गया है। जैसे नारक, देव, तिर्यंच, मनुष्य, सिद्ध आदि जीव की पर्यायें हैं। स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु आदि पुद्गल की पर्यायें हैं। जहाँ दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिक्षण क्रमशः होने वाले परिवर्तन या परिणमन को पर्याय कहा गया है, वहाँ आगम में इन प्रतिक्षण होने वाले परिणमन के द्वारा वस्तु जिन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उन-उन विशेष अवस्थाओं को पर्याय कहा गया है। उदाहरण के लिए जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और वैचारिक स्तर पर प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होता रहता है। इन
1194 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/13
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परिवर्तनों के परिणामस्वरूप व्यक्ति बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होता है। आगम में इन अवस्था विशेष को ही पर्याय कहा है। जबकि दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिक्षण होने वाले शारीरिक आदि परिवर्तन को पर्याय कहा है। संक्षेप में दार्शनिकों ने जिस दीर्घकालवर्ती पर्याय को व्यंजनपर्याय कहा है, उसे ही आगम में पर्याय कहा गया है। पर्याय की आगमिक और दार्शनिक परिभाषा का यही अन्तर है।
पर्याय की अवधारणा की आवश्यकता -
___ जैनदर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है और असत् भी है।195 वस्तु के इस अनेकान्तिक स्वरूप की व्याख्या पर्याय की अवधारणा पर ही हो सकती है। वस्तु के दो पक्ष होते हैं, एक ध्रुवपक्ष जो प्रत्येक दशा में ज्यों का त्यों रहता है तथा दूसरा परिणमनशील पक्ष जो प्रत्येक क्षण अवस्थान्तर को प्राप्त होता रहता है। उदाहरणार्थ मिट्टी का घट, दीपक, सिकोरा आदि विभिन्न रूपों में रूपान्तरण होने पर भी मिट्टीपना वही का वही रहता है। दूसरे शब्दों में मिट्टी विभिन्न रूपों में बदलकर भी वही रहती है। वस्तु के इस ध्रुवपक्ष को द्रव्य और परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। द्रव्य त्रिकाल में ध्रुव अर्थात् एकरूप होता है। जबकि पर्याय प्रतिक्षण बदलती रहती है। पूर्व पर्याय का नाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद सतत् चलता रहता है। यही कारण है कि वस्तु द्रव्य के रूप में नित्य, एक और सत् होने पर भी पर्याय के रूप में अनेक, अनित्य और असत् है। द्रव्य और पर्याय का सम्मिलित रूप ही वस्तु का समग्र स्वरूप है। अतः वस्तु नित्यानित्य, एकानेक और सतासत् है।
सत् का उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक लक्षण भी पर्याय की अवधारणा पर ही घटित हो सकती है। यदि द्रव्य का ही उत्पाद, द्रव्य का ही व्यय और द्रव्य का ही ध्रौव्य
1195 यत्र यदेव तत्त्देवातत
समयसार, गा. 247 की टीका
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माना जाय तो संगति बैठ नहीं सकती है। मिट्टी का ही उत्पाद, मिट्टी का ही व्यय और मिट्टी का ही ध्रौव्य रहे, यह असंभव है। मिट्टी की पिण्डरूप पर्याय का नाश, मिट्टी की घट रूप पर्याय का उत्पाद होता है और मिट्टीपना स्थिर या ध्रुव रहता है । उत्पाद और व्यय पर्याय में होता है और पर्याय द्रव्य में होती है जो सदा ध्रुव रहता है। इसलिए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को मिलाकर सत् का लक्षण किया गया है । 1196 पर्याय की कल्पना के बिना उत्पाद और व्यय की व्याख्या ही संभव नहीं हो पायेगी । क्योंकि द्रव्य के ध्रुव रहते हुए उसका उत्पाद - व्यय नहीं हो सकता है।
1197
द्रव्य की अवस्थान्तरता या रूपान्तरता को नहीं मानने पर अर्थात् पर्याय की सत्ता को नहीं स्वीकारने पर वस्तु एकान्त रूप से परिणमन से रहित होकर कूटस्थ नित्य बन जायेगी । कूटस्थ नित्य वस्तु में अर्थक्रिया नहीं हो सकती है और अर्थक्रिया के अभाव में वस्तु का ही अभाव हो जायेगा । ' पर्याय के बिना व्यवहार जगत की व्याख्या भी नहीं हो सकेगी। क्योंकि पर्याय की अवधारणा के बिना इस जगत में चल रहे उत्पत्ति और विनाश के क्रम को समझाया नहीं जा सकेगा। यदि वस्तु में पर्यायान्तर नहीं होता है तो वह जिस रूप में है, उसी रूप में सदा रहेगी। उसमें किसी भी प्रकार के परिणमन की गुंजाइश नहीं रहेगी। जबकि हमारे अनुभव में आने वाला जगत तो परिवर्तनशील है। अवस्थाविहिन अवस्थावान और अवस्थावानविहीन अवस्थाएं – ये दोनों तथ्य घटित नहीं हो सकते हैं। 1198
जीव को अपरिवर्तनशील या अपरिणमनशील या पर्याय रहित मानने पर वह भी एकान्त नित्य हो जायेगा। वह सदा एकरूप ही रहेगा। परिणामस्वरूप या तो कर्त्ता होगा या भोक्ता तथा या तो सदा संसारिक रूप में ही रहेगा या मोक्षावस्था में
1196 तत्त्वार्थसूत्र, 5/29
1197 नयचक्र, गा. 45
1198 जैनदर्शन के मूल सूत्र
416
-
आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 78
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ही रहेगा। उसकी बन्धन और मुक्ति दोनों संभव नहीं होगी। अतएव जीव को परिणमनशील मानना ही युक्तिसंगत है।1199
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पर्याय के आधार पर ही द्रव्य का बोध करता है। व्यक्ति शुद्ध द्रव्य को देख नहीं सकता है। उसकी पर्यायों को ही देखता है। आम को उसकी रूपपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय आदि के माध्यम से ही जाना जा सकता है। किन्तु सभी पर्यायों को अर्थात् द्रव्य को एकसाथ जानने के कोई साधन नही है।1200 इसलिए द्रव्य के बोध के लिए पर्याय की अवधारणा आवश्यक है। अतः जैनदर्शन का प्रसिद्ध मंत्र यह है कि द्रव्य शून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य नहीं होता है।
यशोविजयजी की दृष्टि में पर्याय का स्वरूप -
उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य के क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहा है।1201 एक के बाद एक, ऐसे क्रम से आने वाले धर्म पर्याय हैं। द्रव्य का वह धर्म जो द्रव्य के साथ सदा नहीं रहता है और जो क्रम से बदलता रहता है, वह पर्याय है। हरिभद्र सूरि ने द्रव्य के क्रमवर्ती धर्म को ही पर्याय के रूप में अभिव्यंजित किया है।1202 प्रमाणनयतत्त्वालोक में भी लगभग पर्याय को क्रमभावी ही कहा है। एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणमन को पर्याय कहा जाता है। जैसे - आत्मा के सुख-दुःख आदि । 203 द्रव्य की एक पर्याय (अवस्था) का नाश होने पर उसके स्थान पर दूसरी पर्याय (अवस्था) उत्पन्न हो जाती है। इसलिए पर्याय क्रमभावी हैं। स्याद्वादमंजरी'204 में जीव, अजीव आदि परमार्थ वस्तुओं के अनन्तधर्मों में से जो धर्म सहभावी और
1199 योगबिन्दु, श्लो. 480 से 482 1200 जैनदर्शन के मूल सूत्र, -आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 79 1201 धरम कहीजइ गुण-सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 1202 आवश्यक नियुक्ति – हरिभद्र वृत्ति, 978 1203 पर्यायस्तु क्रमभावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादि – प्रमाणयतत्त्वालोक, सू. 5/8 1204 स्याद्वादमंजरी, गा. 22 की टीका, पृ. 200
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त्रैकालिक हैं, उन्हें गुण और जो धर्म क्रमभावी हैं, उन्हें पर्याय के रूप में निर्दिष्ट किया है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने हरिभद्रसूरि, वादिदेवसूरि, मल्लिषेणसूरि प्रभृति आचार्यों का अनुसरण करते हुए द्रव्य के क्रमभावी, किन्तु अयावद्दव्यभावी धर्मों को पर्याय कहा है। जैसे नर, नारक आदि जीव की पर्यायें हैं और पुद्गलद्रव्य के रूप में रसादि में परावर्तन अर्थात् रूप में नीला, पीला आदि और रस में मधुर, आम्ल आदि का बदलना पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। 205 धर्म, अधर्म और आकाश में गमनागमन करनेवाले, स्थिति करनेवाले, नियतक्षेत्र को अवगाहन लेने वाले द्रव्य जैसे-जैसे बदलते रहते हैं, वैसे-वैसे इन धर्मादि तीनों द्रव्यों में भिन्न-भिन्न द्रव्यों की गति, स्थिति और अवगाहन में सहायक बनने रूप धर्म भी बदलता रहता है। ये धर्मादि द्रव्यों की पर्याय है। जीव, पुदगलादि द्रव्यों की विवक्षित पर्यायों के बदलने पर उन-उन पर्यायों की वर्तना भी बदलती है। यह कालद्रव्य की पर्याय है।
दिगम्बर परम्परा के देवसेन आचार्यकृत नयचक्र और आलापपद्धति में 'गुणविकाराः पर्यायाः' ऐसा पर्याय का लक्षण दिया है।1206 गुणों का विकार पर्याय है, अर्थात् गुणों की हानि-वृद्धि अथवा गुणों का रूपान्तरण पर्याय है। किन्तु यशोविजयजी देवसेन की इस पर्याय लक्षण से सहमत नहीं है। क्योंकि इस लक्षण से यही परिलक्षित होता है कि पर्याय गुण की ही होती है, द्रव्य की नहीं। परन्तु देवसेन ने पर्याय के भेदों के रूप में द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय दोनों को माना है। यदि गुणों का विकार ही पर्याय है तो द्रव्यपर्याय ऐसा भेद नहीं हो सकता है और यदि द्रव्यपर्याय है तो 'गुण का विकार पर्याय है' ऐसी व्याख्या घटित नहीं हो सकती है। पर्याय की व्याख्या में गुणों के विकार को पर्याय कहना और पर्याय के भेदों में द्रव्य पर्याय का मानना, परस्पर विरूद्ध प्रतीत होता है। इसलिए देवसेनकृत पर्याय का लक्षण सद्लक्षण नहीं है।1207
1205 क्रमभावी कहतां – अथावद्रव्यभावी, ते पर्याय कहिइं ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, की गा. 2/2 का टब्बा 1206 अ) आलापपद्धति, सू. 15 ब) माइल्लधवल कृत नयचक्र, गा. 17 1207 गुणविकार पज्जव कही, द्रव्यादि कहतं स्य जाणइ मनमाहि. ते देवसेन महंत ..
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/17
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पर्याय के प्रकार
वस्तु में होने वाले परिवर्तन या परिणमन को पर्याय कहा जाता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरण 1208 आदि ग्रन्थों के आधार पर पर्याय के संक्षेप में दो भेद किये हैं व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय । 1209 आचार्य देवसेन ने भी आलापपद्धति
में पर्याय को व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय के रूप विभाजित किया है। 1210 यशोविजयजी ने व्यंजनपर्याय की विमर्शना में जिन द्रव्यों की जो-जो पर्यायें त्रिकाल को स्पर्श करनेवाली होती है, उन्हें व्यंजनपर्याय कहा है। 1211 जो दीर्घकालवर्ती पर्याय है, वह व्यंजनपर्याय है । यहाँ त्रिकालस्पर्शी का तात्पर्य अनादिअनन्त नहीं है। क्योंकि पर्याय परिवर्तनात्मक होने से सादिसान्त होती है । द्रव्य ही अनादिअनन्त होता है। जो पर्याय प्रगट होने के बाद न्यून से न्यून तीन समय और उससे अधिक समय तक रहती, वह भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल इन तीनों कालों को स्पर्श करनेवाली दीर्घकालवर्ती पर्याय है । वही व्यंजनपर्याय है। जैसे घटादि में रहा हुआ मृन्मयत्व (मिट्टीपना) व्यंजनपर्याय है । मृत्पिण्ड, श्यास, कोश, कुशूल, घट और कपाल आदि सभी अवस्थाओं जो मृन्मयत्व, कठीनत्व, पृथ्वीत्व आदि जो-जो पर्यायें हैं, वे दीर्घकालवर्ती और त्रिकालस्पर्शी होने से व्यंजनपर्याय हैं । पुद्गलद्रव्य अनादि अनन्त है। इस पुद्गल द्रव्य में कालक्रम से उत्पन्न मृन्मयत्व पर्याय सादिसान्त होने पर भी तीनों कालों को स्पर्श करनेवाली दीर्घकालवर्ती पर्याय है। इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय की सुवर्णत्व, पत्थर, मकान, दुकान आदि तथा जीव की नर, नारक, देव, तिर्यंच आदि पर्यायें व्यंजन पर्यायें हैं ।
I
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—
1208 सन्मतिप्रकरण, गा. 1 / 30
1209 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/1
1210 आलापपद्धति, सू. 15
-
1211 जे जेहनो त्रिकालस्पर्शी पर्याय, ते तेहनो व्यंजनपर्याय कहिइं । जिम घटादिकनइं मृदादिपर्याय - ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/2 का टब्बा
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द्रव्य की वर्तमान कालस्पर्शी अर्थात् क्षणवर्ती पर्याय को अर्थपर्याय कहा है। 212 जैसे - घटादि की तत्क्षणवर्ती पर्यायें, अर्थपर्याय है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य का स्वभाव पूरण-गलन होने से प्रथम क्षण घट में जो मृन्मयत्व है, वह द्वितीय क्षण में नहीं रहता है और द्वितीय क्षण में जो मृन्मयत्व है, वह तीसरे समय में नहीं रहता है। प्रतिक्षण कण बदलते रहते हैं। अतः घटादि की तत्-तत् क्षणवर्ती मृन्मयत्व आदि पर्याय अर्थ पर्याय है।
जयसेनाचार्य ने पर्याय के दो मुख्य भेद किये हैं - द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय अथवा व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय। जिस पर्याय से द्रव्य की एकता का ज्ञान होता है, वह द्रव्य पर्याय है और जिससे गुण के द्वारा अन्वयरूप एकता का ज्ञान होता है, वह गुणपर्याय है। प्रत्येक के पुनः समानजातीय और असमानजातीय के भेद से दो भेद किये हैं। यहाँ द्रव्य के प्रदेशत्व गुण के परिणाम या द्रव्य के आकार (संस्थान सम्बन्धी पर्याय) को द्रव्यपर्याय और अन्य गुणों के परिणमन को गुणपर्याय के रूप में परिभाषित किया है। 1213 जैसे - नर-नारकादि आकाररूप या सिद्ध के आकाररूप पर्याय, द्रव्यपर्याय हैं और ज्ञानादि गुणों की हानि-वृद्धिरूप स्वभाव पर्याय या विभावपर्याय परिणमन गुणपर्याय है।1214
नयदर्पण में द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय को भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। एक गुण की प्रतिसमय जो अवस्था होती है, वह गुणपर्याय है तथा अनेक गुणों की प्रतिसमय होने वाली अवस्थाओं का समूह द्रव्य पर्याय है अर्थात् इन अवस्थाओं के समूह से फलित होने वाली द्रव्य की अवस्था, द्रव्यपर्याय है।1215 जैसे आम का खट्टापन और मीठापन गुणपर्याय है, क्योंकि इसमें आम के रस गुण की प्रमुखता है।
1212 तेहमां सूक्ष्म वर्तमान कालवर्ती अर्थपर्याय, जिम घटनइं ततक्षणवर्ती पर्याय - वही, टब्बा 1213 पंचास्तिकाय, गा. 16 की तात्पर्यवृत्ति 1214 पुरूषार्थसिद्धिउपाय, गा. 9 1215 नयदर्पण - 85
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आम का कच्चापन और पक्कापन या छोटा या बड़ा दोनों द्रव्यपर्याय हैं, क्योंकि ये आम के सभी गुणों के सामुदायिक परिणमन का फल है।1216 - जयसेनाचार्य ने पर्याय के अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के भेद से दो भिन्न प्रकार के भेद भी किये हैं। जो पर्याय अत्यन्त सूक्ष्म, क्षणवर्ती और वाणी से अगोचर है, वह अर्थपर्याय है तथा स्थूल, चिरकालव्यापी, वचन-गोचर और दृष्टि के गोचर हैं, वह व्यंजनपर्याय है। संक्षेप में द्रव्य में होनेवाले प्रतिक्षणवर्ती परिवर्तन अर्थपर्याय है। 217 दोनों प्रकार की पर्यायें शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार की होती हैं। यशोविजयजीकृत पर्याय के भेद और उनके लक्षण लगभग इन्हीं जयसेनाचार्यकृत लक्षण और भेद के सदृश हैं।
- पं. सुखलाल जी के अनुसार अनन्त भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम का प्रवाह किसी एक शब्द का प्रतिपाद्य बनता है, वह प्रवाह व्यंजनपर्याय कहलाती है और इस अनंत भेदों की परम्परा में जो अनभिलाप्य है, वह अर्थपर्याय है। जैसे जीवद्रव्य की संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरूषत्व, बालत्व आदि अनन्त भेद की परम्परा है। उनमें 'यह पुरूष है', 'यह पुरूष है' इस प्रकार का जो सदृश पर्यायप्रवाह है, वह व्यंजनपर्याय है और इस पुरूष रूप सदृश पर्यायप्रवाह के जो बाल आदि तथा अन्य सूक्ष्म भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं। 218 डॉ. सागरमल जैन ने वस्तु के प्रतिक्षणवर्ती क्रमभावी पर्याय को अर्थपर्याय और वस्तु के प्रकारों और भेदों की पर्याय को व्यंजनपर्याय के रूप में निर्दिष्ट किया है। 1219
पर्याय के इन प्रकारों के संदर्भ में जिनेन्द्रवर्णी का टिप्पण उल्लेखनीय है। 220 "पर्याय भी दो प्रकार की होती है - अर्थ व व्यंजन। अर्थपर्याय तो छहों द्रव्यों में समानरूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजनपर्याय जीव व
1210 जैनधर्म और दर्शन, मुनि प्रमाणसागरजी, पृ. 72 1217 पंचास्तिकाय, गा.16 की तात्पर्यवृत्ति 1218 सन्मतिप्रकरण, गा. 1/30 का विवेचन - पं. सुखलालजी, पृ.17 1219 सागर विद्याभारती, भाग-5 – डॉ. सागरमल जैन, पृ.114 1220 जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग-3, पृ.44
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पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थपर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं।"
आलापपद्धति 21 में व्यंजन और अर्थपर्याय के स्वभाव और विभाव रूप से दो भेद किये हैं। जबकि परमात्मप्रकाश222 और माइल्लधवलकृत नयचक्र1223 प्रभृति ग्रन्थों में सामान्यतया पर्याय के स्वभाव और विभारूप से दो ही भेद किये हैं। परद्रव्यनिरपेक्ष पर्याय को स्वभावपर्याय तथा परद्रव्य सापेक्ष पर्याय को विभावपर्याय कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अन्य रूप से पर्याय के दो भेद किये हैं -स्वपरसापेक्षपर्याय और निरपेक्षपर्याय । 224 परद्रव्यों के निमित्त से होने वाली स्व-परसापेक्षपर्याय तथा किसी अन्य द्रव्य के निमित्त से होने वाली पर्याय निरपेक्षपर्याय कहलाती है। अतः स्वभावपर्याय और विभावपर्याय का ही दूसरा नाम निरपेक्षपर्याय और स्वपरसापेक्षपर्याय है। इन्हीं स्वभाव और विभावपर्याय को यशोविजयजी ने शुद्ध औ अशुद्ध पर्याय के नाम से अभिहित किया है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय दोनों के दो-दो भेद किये हैं- 1. द्रव्यसम्बन्धी और 2. गुणसम्बन्धी । द्रव्य गुणमय होने से गुण से द्रव्य की सत्ता और द्रव्य से गुणों की सत्ता पृथक् नहीं है। अतः द्रव्य में परिणमन होने से गुणों में और गुणों में परिणमन होने से द्रव्य में परिणमन होना स्वाभाविक है। इसलिए गुणात्मक द्रव्य में होने वाली अर्थ और व्यंजन पर्याय भी द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय से दो प्रकार की हैं। पुनः द्रव्य और गुण दोनों पर्याय के शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो भेद किये हैं। इस प्रकार कुल आठ प्रकार की पर्यायें हैं। 1225
1221 आलापपद्धति, सू. 16, 19 1222 परमात्मप्रकाश, गा. 57 की टीका 1223 माइल्लधवल नयचक्र, गा. 19 1224 नियमसार, गा. 14 1225 द्रव्यगुणइं बिहुं भेद ते, वली शुद्ध अशुद्ध – ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/3 का उत्तरार्ध
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पर्याय
व्यंजन
अर्थ
द्रव्य व्यंजनपर्याय
गुण व्यंजनपर्याय
द्रव्य अर्थपर्याय
गुण अर्थपर्याय
शुद्ध
अशुद्ध
शुद्ध
अशुद्ध
शुद्ध
अशुद्ध शुद्ध
अशुद्ध
ये आठ प्रकार की पर्यायें निम्न हैं :1. शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय
5. शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय 2. अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय 6. अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय 3. शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय 7. शुद्ध गुण अर्थ पर्याय 4. अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय 8. अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय
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जीवद्रव्य की आठ प्रकार की पर्यायें - 1. शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय :
ग्रन्थकार ने द्रव्य की पर निमित्त के बिना होनेवाली स्थायी पर्याय को शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय कहा है। जैसे – जीव की सिद्धत्व पर्याय । सिद्धत्व जीव द्रव्य की पर्याय होने से द्रव्य पर्याय है। कालस्थायी होने से व्यंजनपर्याय है तथा कर्म या शरीर आदि पुद्गल द्रव्यों के निमित्त के बिना क्षायिकभावजन्य स्वभाविक पर्याय होने से शुद्ध पर्याय है। 226 दिगम्बर परम्परा में शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय की परिभाषा किंचित् भिन्न प्रकार से की गई है। सिद्ध जीवों का चरम शरीर से किंचित् न्यूनाकार, स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है।1227 कर्मों से मुक्त बने जीव के प्रदेशों का, अन्तिम शरीर से न्यून आकार में निश्चल रूप से स्थित होना जीव की शुद्ध द्रव्य पर्याय है।1228 जीव की इस सिद्ध अवस्था में कोई परनिमित्त नहीं होता है। इसलिए यह शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है।1229 ज्ञातव्य है कि पुद्गल परमाणु को छोड़कर शेष द्रव्यों में पर्याय परिणमन अन्य द्रव्यों के निमित्त से एवं क्षणिक ही होता है। अतः उनकी शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय नहीं होती है। शुद्ध व्यंजन पर्याय मात्र पुद्गल परमाणु एवं मुक्त आत्मा की होती है।
2. अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय :
द्रव्य की परनिमित्त से होनेवाली दीर्घकालवर्ती पर्याय को अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय कहा है। इस पर्याय को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थकार ने मनुष्य, देव, तिर्यंच, नारक आदि के उदाहरण दिये हैं। जीव की उक्त पर्यायें कर्म-शरीर रूप पुद्गल
1226 शुद्ध द्रव्य व्यंजन तिहां, चेतनइं सिद्ध । ...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/3 उत्तरार्ध 1227 स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्यायाः चरम शरीरात् किंचित् न्यून सिद्ध पर्यायः ........... आलापपद्धति, सू.
22
1228 माइल्लधवल कृत नयचक्र, गा. 24 1229 परमात्मप्रकाश, गा. 57 की टीका
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द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होने से अर्थात् परद्रव्य सापेक्ष होने से अशुद्ध पर्याय है तथा दीर्घकालवर्ती होने से व्यंजन पर्याय है। यह अशुद्ध व्यंजन पर्याय एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पृथ्वीकाय आदि सुखी-दुःखी, राजा-रंक आदि अनेक प्रकार की होती है।1230 आचार्य देवसेन ने जीव की विभाव व्यंजन पर्याय के संक्षेप में नर, नारक आदि चार प्रकार और विस्तार से 84 लाख योनि भेद किये हैं।1231 नयचक्र के अनुसार चार गति के जीवों के तथा विग्रह गति वाले जीवों के आत्म–प्रदेशों का शरीराकाररूप परिणाम अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय है। संसारी जीव के आत्मप्रदेशों का आकार उसके शरीर के आकार का होता है और शरीर कर्मजन्य होता है। इसलिए जीव प्रदेशों का स्व शरीर परिमाण होना अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है। यद्यपि विग्रह गति में गमन करने वाले जीव का आहारक, औदायिक एवं वैक्रिय शरीर नहीं होते हैं, फिर भी उनके आत्मप्रदेशों का आकार वही होता है, जिस शरीर को छोड़कर वे आये हैं। 1232 सिद्ध जीवों को छोड़कर अन्य जीवों के भवान्तर में ऋजुगति से गमन करने पर भी उनके आत्म प्रदेशों का आकार पूर्व शरीर के अनुरूप होता है, सिद्धों का कुछ न्यून होता है।
3. शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय :
गुणों की शुद्ध अवस्था ही शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय है। ग्रन्थकार यशोविजयजी ने इस पर्याय को केवलज्ञान के उदाहरण से स्पष्ट किया है। 1233 केवलज्ञान क्षायिक भावजन्य गुणात्मक पर्याय होने से शुद्ध गुण पर्याय है। क्योंकि केवलज्ञान रूप गुण पर्याय परनिमित्त के बिना (कर्म आदि के क्षयोपशम, उपशम आदि के बिना) स्वतः होती है। इस प्रकार केवलज्ञान दीर्घकालवर्ती और ज्ञान गुण की पर्याय होने से शुद्ध
1230 अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय मनुष्य, देव, नाकर, तिर्यगादि बहु भेद जाणवा, जे माटि ते द्रव्य भेद पुद्गल संयोगजनित छ।
.................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/4 का टब्बा 1231 अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय मतिज्ञानादिरूप जाणवा ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/4 का टब्बा 1232 माइल्लधवल कृत नयचक्र, गा. 22 1233 गुणधी व्यंजन इम द्विधा, केवल मइ भेद ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/4 उत्तरार्ध
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गुण व्यंजन पर्याय है। इसी तरह केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र आदि सर्व क्षायिक भावजन्य गुणात्मक पर्यायें शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय हैं। 1234 आलापपद्धति1235 में जीव के अनन्त चतुष्टय को स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय कहा है। जीव में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरणीयकर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख, अन्तरायकर्म के क्षय से अनन्त वीर्य पर्याय उत्पन्न होती है। ये कर्मोपाधि रहित और काल की अपेक्षा से स्थायी पर्याय होने से स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय है । संक्षेप में द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित चेतन द्रव्य के ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि गुणों की पर्यायें शुद्ध गुण व्यंजनपर्याय हैं।1236
4. अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय :
गुणों की अशुद्ध अवस्था अशुद्धगुण व्यंजनपर्याय है । द्रव्यगुणपर्यायनोरास' और आलापपद्धति1238 दोनों में मतिज्ञान आदि को जीव की अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय कहा है। क्योंकि मतिज्ञानादि क्षयोपशमभाव जन्य भेद हैं अर्थात् कर्म सापेक्ष हैं । इसलिए अशुद्ध हैं तथा दीर्घकालवर्ती और जीव के गुण रूप होने से व्यंजन गुण पर्याय हैं। जीवद्रव्य के समस्त क्षयोपशमभाव और उपशम भाव जन्य गुणों की सभी पर्याय अशुद्ध व्यंजन गुण पर्याय हैं जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान ये सातों जीव के ज्ञान गुण की अशुद्ध व्यंजन पर्याय हैं। इसी प्रकार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, दर्शन गुण की
1234 परमात्मप्रकाश, गा. 57 की टीका
1235 स्वभाव गुण व्यंजन पर्यायाः अनंतचतुष्टय रूपाः जीवस्य
1236 माइल्लधवल कृत नयचक्र, गा. 25
1237 गुणथी व्यंजन इम द्विधा, केवल मइ भेद
उत्तरार्ध
1238 विभाव गुण व्यंजन पर्यायाः मत्यादयः ।
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आलापपद्धति, सू. 23
आलापपद्धति, सू. 21
-1237
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/4 का
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अशुद्ध व्यंजन पर्याय है तथा क्षयोपशमिक या उपशमिक समयक्त्व, मिथ्यात्व श्रद्धा गुण की अशुद्ध या विभाव व्यंजन पर्याय है। 1239
प्रत्येक दीर्घकालवर्ती पर्याय ( व्यंजनपर्याय) में असंख्य क्षणिक पर्यायें होती हैं। 1240 इन असंख्य क्षणिक पर्यायों का समूह ही दीर्घकालवर्ती व्यंजन पर्याय है । कच्चा आम एक ही क्षण में पक्का आम नहीं बनता है। कच्चे आम में प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। उसके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुण प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण करते रहते हैं । वह परिवर्तन इतना सूक्ष्म और क्षणिक (एक समयवर्ती) होता है कि उसको न तो आँख देख पाती है और न नहीं शब्द उसे अपना विषय बना सकता है। यही क्षणवर्ती परिवर्तन अर्थ पर्याय है। इन्हीं सूक्ष्म परिणमनों या अर्थपर्यायों का परिणाम पक्का आम है। पक्का आम कच्चे आम में प्रतिक्षण घटित हुए सूक्ष्म परिणमनों का समूह है जो स्थूल और दीर्घकालवर्ती परिणमन है। यह दीर्घकालवर्ती परिणमन व्यक्त होने से शब्द आदि का वाच्य बन सकता है। इसी स्थूल, दीर्घकालवर्ती और शब्दगोचर परिणमन को व्यंजनपर्याय कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक स्थूल परिणमन किन्हीं सूक्ष्म परिणमनों का ही प्रतिफल है । यही कारण है कि उपाध्याय यशोविजयजी ने दीर्घकालवर्ती व्यंजनपर्याय की आभ्यंतरवर्ती क्षणिक पर्यायों जो सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय का विषय है, उन्हें अर्थपर्याय के रूप में अभिव्यंजित किया है। 1241 एतदर्थ शुद्ध द्रव्य, अशुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुण और अशुद्ध गुण इन चारों प्रकार के व्यंजनपर्यायों की आभ्यन्तरवर्ती तथा एकसमयवर्ती पर्यायें उक्त चारों प्रकार की अर्थ पर्याय है ।
5. शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय :
पं. भुवनेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 16
1239 आलापपद्धति विवेचन 1240 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग - 2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 664 इम ऋजुसूत्रादेशइं क्षणपरिणत जे अभ्यंतरपर्याय, ते शुद्ध अर्थ पर्याय
1241
टब्बा
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/5 का
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शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय में होनेवाली एक समयवर्ती पर्याय शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय है। जैसे एकसमयवर्ती सिद्धत्वपर्याय। सिद्धत्व पर्याय चेतनद्रव्य की कर्मनिरपेक्ष शुद्ध दीर्घकालवर्ती व्यंजन पर्याय है। यह सिद्धत्वपर्याय भी प्रतिसमय परिवर्तनशील है। उदाहरणार्थ एक समय का सिद्धत्व, दो समय का सिद्धत्व इत्यादि । तीसरे समय में दो समयवाली सिद्धत्व पर्याय नष्ट होगी और तीन समयवाली सिद्धत्व पर्याय उत्पन्न होगी। 1242 इस प्रकार सिद्धत्व में प्रत्येक समय होनेवाली एक समयवर्ती पर्याय जीव की शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय है ।
6. अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय :
अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय में प्रतिसमय होनेवाला परिणमन अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय कहलाती है । जैसे एक समयवर्ती मनुष्यत्व । स्थूल दृष्टि से एक रूप प्रतीत होने वाली मनुष्यत्व पर्याय भी प्रतिक्षण बदलती रहती है। मनुष्यत्व पर्याय में प्रतिसमय एकसमयवर्ती सूक्ष्म परिणमन निरन्तर चलता रहता है। चूंकि मनुष्य पर्याय कर्मसापेक्ष होने से इसकी एकसमय की पर्याय जीवद्रव्य की अशुद्ध अर्थ पर्याय है।
-
7. शुद्ध गुण अर्थ पर्याय :
शुद्ध गुण की प्रति समयवर्ती पर्याय अर्थपर्याय है । जैसे ज्ञेय के परावृति के आधार पर प्रतिसमय होने वाला केवलज्ञान, जीव द्रव्य के शुद्ध ज्ञान गुण की अर्थपर्याय है। दिगम्बर परम्परा के अभिमत में केवलज्ञानादि शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय में अर्थपर्याय नहीं होती है। 1243 केवलज्ञानादि शुद्ध गुण क्षायिक भावजन्य होने से क्षयोपशमिक भावजन्य मतिज्ञान आदि की तरह उनमें हानि - वृद्धि नहीं होती है। इस कारण से केवलज्ञानादि शुद्ध गुण में प्रतिसमय कोई परिणमन नहीं होता है। अतः
1242
' द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग - 2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 664
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1243 षड्गुण हाणि - वुडियी, जिम अगुरुलहुत्त नव नव तिम खिण भेद थी, केवल पणि वृत्त
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/7
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उनके अनुसार शुद्ध गुण में अर्थ पर्याय नहीं होती है। इस मत का खण्डन करने हुए ग्रन्थकार यशोविजयजी कहते हैं -यद्यपि केवलज्ञान जीव का क्षायिकभावजन्य शुद्ध गुण होने से उसमें षट्गुण हानि–वृद्धिरूप अर्थ पर्याय नहीं होती है फिर भी जगतवर्ती समस्त पदार्थों में प्रतिसमय अगुरूलघुगुण के कारण अपने ही स्वभाव में षट्गुण, हानि-वृद्धि के रूप में घटित होनेवाले रूपान्तरण या अर्थपर्याय को जानने के रूप में केवलज्ञान में भी अर्थपर्याय होती है। 1244 षट्गुण हानि-वृद्धि के रूप में परिवर्तनशील ज्ञेय को जानने के रूप में ज्ञान भी तदानुसार अवश्य परिवर्तित होता है। इसलिए परिवर्तनशील ज्ञेय को जाननेवाले केवलज्ञान की प्रतिसमयवर्ती पर्याय भी पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न है।
पुनः काल की अपेक्षा से भी केवलज्ञान प्रतिसमय बदलता है। जैसे जिस समय आत्मा को केवलज्ञान होता है, उस समयवाला, वह केवलज्ञान प्रथमसमयावच्छिन्न सयोगीभवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। द्वितीय समय में वही केवलज्ञान अप्रथमसमयावच्छिन्न, द्वितीयसमयावच्छिन्न कहलायेगा। इस प्रकार तृतीय, चतुर्थसमयावछिन्न के रूप में केवलज्ञान प्रतिसमय बदलता है। एतदर्थ सूक्ष्मऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों में भी अर्थपर्याय घटित होती
है। 1245
8. अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय :
_ अशुद्ध गुण की क्षणवर्ती पर्याय, अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय कहलाती है। क्षयोपशम भाव के आधार पर प्रतिसमय मतिज्ञानादि गुणों में होने वाले हानि-वृद्धि रूप रूपान्तरण अशुद्ध गुण अर्थपर्याय है।1246 मतिज्ञान आदि जीव द्रव्य के ज्ञानगुण की
1244 "केवलज्ञानादिक शुद्धगुण व्यंजन पर्याय ज होइ, तिहां अर्थपर्याय नयी" एहवी कोइक दिक्पटाभासनी __ शंका टालइ छ।
..... .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/7 का टब्बा 1245 पढमसमय सजोगिभवस्थ केवलनाणे, अपढमसमयसजोगिभवस्थकेवलणाणे" इत्यादि वचनात्।
ते माटि ऋजुसूत्रदेशइं शुद्धगुणना पणिं अर्थपर्याय मानवा.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/7 का टब्बा 1246 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 664
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कर्म सापेक्ष पर्याय होने से अशुद्ध गुण पर्याय है। इस दीर्घकालवर्ती पर्याय में होनेवाली एक समयवर्ती पर्याय अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय है।
यशोविजयजी ने शुद्धाशुद्ध अर्थपर्याय को सम्मतिप्रकरण ग्रन्थ के आधार पर भिन्न प्रकार से भी परिभाषित किया है। द्रव्य और गुणों की दीर्घकालवर्ती पर्यायों की अभ्यंतर एकसमयवर्ती और सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की विषयभूत क्षणिक पर्याय को शुद्ध अर्थ पर्याय कहा है। 247 दूसरे शब्दों में क्षण-क्षणवर्ती पर्याय को शुद्ध अर्थ पर्याय के रूप में अभिहित किया है तथा एक समयवर्ती पर्याय नहीं होने पर भी जो दीर्घकालवर्ती पर्याय की अपेक्षा से अल्पकालीन पर्याय है, उसे अशुद्ध अर्थपर्याय कहा है। 248 जैसे मनुष्यत्व रूप दीर्घकालवर्ती पर्याय की अपेक्षा से बालत्व पर्याय अल्पकालवर्ती है। यद्यपि यह बालत्व पर्याय एकसमयवर्ती नहीं है, फिर भी 'अल्पकालत्व' की विवक्षा से अर्थपर्याय भी कही जाती है। परन्तु एक समयवर्ती नहीं होने से यह अशुद्ध अर्थपर्याय है। इसकी साक्षी के लिए सम्मतिप्रकरण कीगान /32 को उद्धृत किया है।
पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जतो।
तस्स 3 बालाईया पज्जवजोया बहुवियप्पा।। जो जन्म से लेकर मरणकाल पर्यन्त तक पुरूष, 'पुरूष', 'पुरूष' ऐसे समान शब्द का वाच्य बनता है तथा 'पुरूष', 'पुरूष' ऐसी समान प्रतीति का विषय बनता है, जीव की वह पुरूष रूप सदृशपर्याय प्रवाह व्यंजनपर्याय है। इस पुरूष रूप व्यंजनपर्याय में बालत्व, यौवनत्व, वृद्धत्व आदि जो अल्पकालवर्ती (एक समय से अधिक कालवर्ती) पर्यायें हैं वे सभी पुरूषरूप व्यंजनपर्याय की अवान्तर पर्याय हैं। 249
1247 इम ऋजुसूत्रादेशाइं क्षणपरिणत जे अभ्यंतरपर्याय, ते शुद्ध अर्थपर्याय ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/5 का
टब्बा
1248 अनइं जे जेहथी अल्पकालवर्ती पर्याय, ते तेहथी अल्पत्वविवक्षाइं अशुद्ध अर्थपर्याय कहवा
......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/5 का टब्बा 1249 सम्मतिप्रकरण, गा. 1/32 का विवेचन, -पं.सुखलालजी, पृ. 18
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मानव भव में पुरूष रूप जन्म लेनेवाला जीव मृत्युपर्यन्त स्त्री, नपुंसक, देव, तिर्यंच आदि नहीं कहलाकर पुरूष ही कहलाता है। इसलिए पुरूष शब्द से वाच्य, जन्म से मृत्युपर्यन्त रहनेवाली शारीरिक पुरूषाकृति रूप से अनुगत् और दीर्घकालवर्ती यह पुरूषरूप पर्याय जीव की व्यंजन पर्याय है तथापि इसी पुरूष में कालक्रम से आनेवाली बाल्यावस्थारूप पर्याय, तरूणावस्थारूप पर्याय, वृद्धावस्थारूप पर्याय आदि एकसमयवर्ती नहीं होने पर भी, पुरूष रूप पर्याय की अपेक्षा से अल्पकालवर्ती होने से उपचार से अर्थपर्याय कही जाती है। ये पर्यायें एक समयवर्ती नहीं होने से अशुद्ध अर्थपर्याय हैं। 1250
इस प्रकार ग्रन्थकार ने जीव की आठ प्रकार की पर्यायों को व्याख्यायित किया
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'नयचक्को' (माइल्लधवलकृत) के परिशिष्ट-1 में दी गई देवसेन आचार्य विरचित 'आलापपद्धति' में पर्याय के स्वभावपर्याय और विभावपर्याय के भेद से दो भेद किये गये हैं।251, जबकि श्रीमान शेठ अरविंदरावजी से प्रकाशित 'आलापपद्धति' में पर्याय के व्यंजन और अर्थपर्याय के रूप में दो भेद करके पुनः व्यंजनपर्याय के स्वभाव व्यंजनपर्याय और विभाव व्यंजनपर्याय के रूप में दो भेद तथा अर्थ पर्याय के स्वभाव अर्थपर्याय और विभाव अर्थपर्याय के रूप में दो भेद किये हैं। 252 प्रत्येक द्रव्य और गुण में अगुरूलघुगुण की षट्गुण हानिवृद्धि से उत्पन्न होनेवाली पर्यायों को स्वभाव अर्थपर्याय कहा गया है। 253 षट्गुणी वृद्धि हानि का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है1254.
1250 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 665, 666 1251 गुणविकाराः पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात् –............ नयचक्को, परिशिष्ट-1, पृ.211 1252 गुण विकाराः पर्यायाः । ते द्वधा । अर्थ-व्यंजन-पर्याय-भेदात्
अर्थपर्यायः द्विविधाः स्वभाव विभाव भेदात् व्यंजनपर्यायः ते द्विविधाः स्वभाव विभाव भेदात् – आलापपद्धति, सू. 15, 16, 19 1253 अगुरूलघु विकाराः स्वभावपर्यायः ते द्वादशधा। षट्स्थान पतित हानिवृद्धिरूपाः ....आलापपद्धति, सू.17 1254 श्रीधवलासार, प्रश्न 1215, पृ. 285
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1. अनन्तभागवृद्धिः - अनंत गुणों में सेएक गुण की पर्याय का जो उत्पाद है, वह
अनंतभागवृद्धि है। 2. असंख्यातभागवृद्धिः – जो असंख्यात गुणों की अपेक्षा एक गुण की पर्याय का
उत्पाद है, वह असंख्यातभाग वृद्धि है। 3. संख्यातभागवृद्धिः – जो संख्यात गुणों की अपेक्षा एक गुण की पर्याय का ___ उत्पाद है, वह संख्यात भागवृद्धि है। 4. संख्यातगुणवृद्धिः – संख्यात गुणों में संख्यात पर्याय का उत्पाद होना, संख्यात
गुणवृद्धि है। 5. असंख्यातगुणवृद्धिः – असंख्यात गुणों में असंख्यात पर्याय का उत्पाद होना,
असंख्यात गुणवृद्धि है। 6. अनंतगुणवृद्धिः – अनंत गुणों में अनन्त पर्यायों का उत्पाद होना, अनंतगुणवृद्धि
है।
इसी वृद्धि के समय षड्स्थान हानि भी होती है। यथा - अनंतभागहानिः – अनंत गुणों की अपेक्षा एक-एक गुण की पर्याय का व्यय ।
असंख्यातभागहानिः – असंख्यात गुणों की एक-एक पर्याय का व्यय । 3. संख्यातभागहानिः – संख्यात गुणों की एक-एक पर्याय का व्यय । ___संख्यातगुणहानिः – संख्यात गुणों की संख्यात पर्यायों का व्यय । ___ असंख्यातगुणहानिः – एक गुण की पर्याय के व्यय की अपेक्षा असंख्यात गुणों
की असंख्यात पर्याय का व्यय । 6. अनंतगुणहानिः – एक गुण की पर्याय के व्यय की अपेक्षा अनन्त गुणों की
पर्याय का व्यय।
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जो पर्यायें परनिमित्त से षट्स्थान हानिवृद्धि रूप उन गुणों के लक्षणों के विरूद्ध परिणमित होती हैं, वे विभाव अर्थपर्याय हैं। 1255 आलापद्धति में जीव के विभाव अर्थपर्याय के छह भेद बताये हैं - मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य और पाप रूप अध्यवसान |1256
पंचास्तिकाय की टीका में जीव में कषायों की षट्स्थान हानि-वृद्धि के परिणामस्वरूप होने वाले शुभाशुभ लेश्याओं के स्थान को अशुद्ध अर्थपर्याय कहा
है।1257
पुदगलद्रव्य की आठ प्रकार की पर्यायः -
1. शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय :
एक शुद्ध परमाणु पुद्गलास्तिकाय की शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है।1258 परमाणुरूप पर्याय पूर्णतः परनिरपेक्ष है। परमाणु दो-चार परमाणुओं के संयोगजन्य स्कन्धरूप कृत्रिम द्रव्य नहीं है, अपितु स्वतन्त्र द्रव्य है। स्कन्धों का उत्पाद और नाश होता है। परन्तु परमाणुओं का सामान्यतया उत्पाद और नाश नहीं होता है। परमाणुरूप यह पर्याय परद्रव्य के संयोगजन्य भी नहीं है। इसलिए पुद्गलद्रव्य की शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय है। पुद्गल द्रव्य का अविभाज्य और अन्तिम अंश अर्थात् जिसका पुनः विभाग नहीं होता है, ऐसा परमाणु ही पुद्गल की शुद्धपर्याय है।1259 परमाणु का आदि, मध्य और अन्त स्वयं परमाणु ही है और वह इन्द्रिय गोचर नहीं
1255 आलापपद्धति विवेचन,- पं.भुवनेशकुमार शास्त्री, पृ. 14 1256 विभाव अर्थपर्यायः षड्विधाः । ...
......... आलापपद्धति, सू. 18 1257 अशुद्ध अर्थपर्यायाः जीवस्य षट्स्थान गत कषाय हानि-वृद्धि-विशुद्धि
संक्लेशरूप-शुभ-अशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः । ...................... पंचास्तिकाय, गा. 16 की टीका 1258 पुद्गलद्रव्यनो शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय, अणु क परमाणुओ जाणवो,
ते परमाणुनो कहिइं नाश नहीं, ते भणि ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/8 का टब्बा 1259 अविभागी पुद्गल परमाणुः स्वभावद्रव्यः व्यंजनपर्याय ............ आलापपद्धति, सू. 26
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है।1260 नयचक्र'261 में अनादिनिधन कारणरूप और कार्यरूप परमाणु को पुद्गलों की स्वभावपर्याय के रूप में प्रतिपादित किया है। परमाणुओं के संयोग से स्कन्धों की उत्पत्ति होने से, परमाणु कारण रूप भी है तथा स्कन्धों के टूटने से परमाणु अपने परमाणु स्वरूप को प्राप्त करने से परमाणु कार्यरूप भी है। परमात्मप्रकाश की टीका में परमाणु के आकार को स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्याय कहा है। 1262
2. अशुद्धद्रव्य व्यंजनपर्याय :
द्वयणुक, त्र्यणुक, चतुर्युक ....... इत्यादि स्कन्ध, पुद्गलद्रव्य की अशुद्धद्रव्य व्यंजनपर्याय है। क्योंकि ये स्कन्ध रूप पर्यायें अनेक परमाणुओं के संयोग से बनती है
और परमाणुओं के टूटने या वियोग होने पर नष्ट भी हो जाती है। इसलिए स्कन्ध द्रव्य का मूलभूत स्वतन्त्र स्वरूप नहीं होने से अशुद्ध द्रव्यस्वरूप है।1263 यही कारण है कि द्वयणुक आदि स्कन्ध को पुद्गल द्रव्य की अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय कहा है।1264 नयचक्र में पृथ्वी, छाया, जल, चक्षु के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों का विषय, कर्मवर्गणा के योग्य स्कन्ध और कर्मवर्गणा के अयोग्य स्कन्ध को पुद्गल की विभाव पर्याय कहा है तथा इन्हें क्रम से अतिस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म कहा है। 1265 नियमसार में भी स्कन्ध के इन्हीं छह भेदों की चर्चा उपलब्ध है जिसकी चर्चा हमने पूर्व में की है।
3. शुद्धगुणव्यंजन पर्याय :
1260 नियमसार, गा. 36
1261 नयचक्र (माइल्लधवलकृत), गा. 29 1262 परमात्मप्रकाश, गा. 57 की टीका 1263 द्वयणुकादिकद्रव्य ते पुद्गलद्रव्यना अशुद्धव्यंजनपर्याय, संयोग जनित छइ ते माटि......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/8 का टब्बा 1264 अ) आलापपद्धति, सू. 24 ब) नयचक्र, गा. 32 स) परमात्मप्रकाश, गा. 37 की टीका 1265 पृथ्वी जलं च छाया, चउरिंद्रिय विसयकम्मपरमाणू अइथूल थूल थूला सुहमं सुहमं च अइसूहमं ............
नयचक्र (माइल्लधवलकृत) गा. 31
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परमाणु के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि गुणों की पर्याय को ग्रन्थकार ने पुद्गल द्रव्य की शुद्धगुणव्यंजन पर्याय कहा है।1266 परमाणु स्वतंत्र द्रव्य और परनिरपेक्ष होने से उसकी वर्णादि गुण पर्याय शुद्ध गुण व्यंजनपर्याय है। परमाणु अतिसूक्ष्म होने पर भी उसमें दो स्पर्श { स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक स्पर्श तथा शीत-उष्ण में से कोई एक स्पर्श) एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण अवश्य होते हैं। 1267 इन्हीं दो स्पर्श, एकरस, एकगंध, और एक वर्ण की पर्याय को पुद्गल की शुद्ध गुण व्यंजनपर्याय कहा है। 1288 क्योंकि परमाणु पुद्गल द्रव्य की स्वभावपर्याय होने से परमाणु में पाये जाने वाले गुणों की अवस्था शुद्धगुणव्यंजनपर्याय है।1269
4. अशुद्धगुण व्यंजनपर्याय :
द्वयणुकादि संयोगजन्य स्कन्धों में पाये जाने वाले रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणों के परिणमन को ग्रन्थकार ने अशुद्धगुणव्यंजनपर्याय के नाम से अभिहित किया है।1270 द्वयणुकादि स्कन्धों में होने वाला वर्णान्तर, रसान्तर, गन्धान्तर, स्पर्शान्तर रूप परिणमन विभाव गुण व्यंजन पर्याय है।1271 द्रव्य के वैभाविक रूप से परिणमन होने पर उसके गुणों में भी वैभाविक परिणमन होना निश्चित है। क्योंकि गुणों के समुदाय को भी द्रव्य कहा गया है। अतः स्कन्धरूप पुद्गलों की विभाव दशा में पाये जाने वाले रूपादि गुणों की पर्याय ही विभाव या अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय है।1272
1266 इम गुण कहतां-पुद्गलद्रव्यना शुद्ध गुण व्यंजनपर्याय,
अशुद्धगुण व्यंजनपर्याय ते निजनिज गुणाश्रित जाणवा ..... द्रव्यगुणपयार्यनोरास, गा. 14/8 का टब्बा 1267 एयरस वण्ण गंध दो फासं सद्द कारणमसदं ............................ पंचास्तिकाय, गा. 1268 वर्ण-गंध-रसैकैक-अविरूद्ध स्पर्शद्वयं स्वभाव गुणव्यंजनपर्यायाः ....... आलापपद्धति, सू. 27 1269 नयचक्र (माइल्लधवलकृत), गा. 30 1270 इम गुण कहतां
............................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/8 का टब्बा 1271 रस-रसान्तर-गन्ध-गन्धान्तरादिः विभाव गुणव्यंजनपर्यायाः ............... आलापपद्धति, सू. 25 1272 नयचक्र (माइल्लधवलकृत), गा. 33
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आलापपद्धति में अगुरुलघुगुण की हानिवृद्धि से उत्पन्न होने वाली पर्याय को अर्थपर्याय के रूप में परिभाषित करके, परनिरपेक्ष और परसापेक्ष के आधार पर सामान्यतया स्वभाव अर्थपर्याय और विभाव अर्थपर्याय के रूप दो भेद किये हैं । किन्तु जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्य और गुण के भिन्न-भिन्न स्वभाव अर्थपर्याय और विभाव अर्थपर्याय की व्याख्या उपलब्ध नहीं है । आलापपद्धति के कर्ता आचार्य देवसेन के शिष्य माइल्लधवल कृत नयचक्र में भी द्रव्य और गुणों की स्वभाव और विभाव पर्यायों की ही चर्चा है, किन्तु व्यंजन या अर्थपर्याय की कोई चर्चा नहीं की है । परन्तु यशोविजयजी कृत ‘द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में जीवद्रव्य की तरह पुद्गलद्रव्य के भी चार व्यंजनपर्याय और चार अर्थपर्याय की व्याख्या की गई है । ग्रन्थकार के अनुसार पुद्गल द्रव्य की शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय, अशुद्ध व्यंजनपर्याय, शुद्धगुणव्यंजनपर्याय और अशुद्धगुणव्यंजनपर्याय इन चारों दीर्घकालवर्ती पर्यायों में प्रतिसमय होने वाला सूक्ष्म अभ्यंतर परिणमन ही शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय आदि चार प्रकार की अर्थपर्याय है। 1273 जैसे परमाणु की एकसमयवर्ती पर्याय शुद्धद्रव्यार्थपर्याय है, द्वयणुकादि स्कन्धों की एकसमयवर्ती पर्याय अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय है, परमाणु के वर्ण आदि गुणों की एक समयवर्ती पर्याय शुद्धगुणार्थपर्याय है तथा द्वयणुकादि स्कन्धों के वर्ण आदि गुणों की एकसमयवर्ती पर्याय अशुद्धगुणअर्थपर्याय है। संक्षेप में शुद्धाशुद्ध द्रव्य और गुण में होनेवाला प्रतिक्षणवर्ती सूक्ष्म परिणमन ही शुद्धाशुद्ध द्रव्य और गुण की अर्थपर्याय है ।
धर्मादि चारों द्रव्यों में आठों पर्याय
धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चारों अखण्ड और काल की अपेक्षा अनादि अनंत द्रव्यों का जो आकार है, वह द्रव्य व्यंजनपर्याय है। धर्मास्तिकाय का आकार लोकाकाश सदृश है । अधर्मास्तिकाय का आकार भी लोकाकाश के समान है। लोकाकाश का आकार दो पैर फैलाकर और कमर पर हाथ रखकर खड़े पुरूष के आकार का है। लोकालोक रूप आकाश का आकार गोल है तथा कालद्रव्य का
1273
सूक्ष्म
अर्थपर्याय ते
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.. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14 / 9 का पूर्वार्ध
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आकार ढाईद्वीप पर्यन्त है। यही आकार निजप्रत्यय की अपेक्षा से शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय है और परप्रत्यय की अपेक्षा से अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है।1274 धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की स्वप्रत्ययजन्य अर्थात् अपनी स्वयं की जो आकृति है, वह शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्याय है। इसी आकार को लोकाशवर्ती आकाशरूप अन्य द्रव्य के संयोग से निर्मित अर्थात् परप्रत्ययजन्य है, इस दृष्टि से विचार करने पर अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। जैसे घट में रहे हुए जल के स्वयं का आकार शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। परन्तु जल का आकार घट से बना है, ऐसा मानने पर वह आकार अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की उन-उन आकृति को स्वयं से बनी मानने पर, वह शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय है तथा आधारभूत लोकआकाशवर्ती पर द्रव्य के संयोग से बनी मानने पर, वह अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय है। 1275 धर्मादि द्रव्यों की गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहनहेतुता और वर्तना हेतुता आदि गुणों की पर्याय शुद्धाशुद्ध गुणव्यंजनपर्याय है। इन धर्मादि द्रव्यों की चारों प्रकार की व्यंजनपर्याय में होनेवाला एकसमय का सूक्ष्म परिणमन, उन-उन शुद्धाशुद्ध द्रव्य और गुण की अर्थपर्याय है।
धर्म, अधर्म, आकाश और काल व्यवहारनय से जीव और पुद्गल की तरह परिणामी नहीं होने से दिगम्बर परम्परा के अभिमत में इन द्रव्यों में केवल व्यंजनपर्याय ही होती है, किन्तु अर्थपर्याय नहीं होती है। उनके अनुसार इनमें प्रतिसमय किसी प्रकार की हानिवृद्धि या परिवर्तन नहीं होता है। इस मत के विपक्ष में ग्रन्थकार का कथन है कि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से इन धर्मादि चारों द्रव्यों में भी प्रतिसमय परिणमन होता है। जैसे केवलज्ञान में हानि-वृद्धि नहीं होने पर भी ज्ञेयपदार्थों के प्रतिक्षणवर्ती परिणमनों को जानने के रूप में केवलज्ञान में भी प्रतिसमय परिणमन या अर्थपर्याय होती है। पुनः केवलज्ञान में कालकृत भेद की अपेक्षा से एकसमयावच्छिन्न, द्विसमयावच्छिन्न, त्रिसमयावच्छिन्न इत्यादि के रूप में भी
1274 निज पर प्रत्ययथी लहो, छांडी हठ प्रेम .... वही, गा. 14/9 का उत्तरार्ध 1275 जिम आकृति धर्मादिकनी, व्यंजन छइ शुद्ध ।
लोक द्रव्य संयोगथी, तिम जाणि अशुद्ध ।। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/10
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अर्थपर्याय होती है। इसी प्रकार धर्मादि चार द्रव्यों में भी प्रतिसमय भिन्न-भिन्न रूप से अर्थपर्याय होती है। ऐसा यशोविजयजी का मानना है।
ग्रन्थकार के अभिमत में धर्मादि चारों द्रव्यों में शुद्ध व्यंजन पर्याय की तरह अशुद्धव्यंजनपर्याय भी होती है। जिस प्रकार निजप्रत्यय की अपेक्षा से शुद्ध व्यंजन पर्याय होती है, उसी प्रकार परप्रत्यय की अपेक्षा से अशुद्धव्यंजनपर्याय भी होती है।1276 धर्मादि द्रव्यों में जीव, पुद्गल, आकाश आदि परद्रव्यों के संयोगजन्य अशुद्ध व्यंजनपर्याय को नहीं मानने पर तो द्वयणुकादि पुद्गल स्कन्धों को भी पुद्गलद्रव्य की अशुद्ध व्यंजनपर्याय के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।127 इसका कारण यह है कि द्वयणु आदि स्कन्ध कोई अपूर्व तत्त्व नहीं है, अपितु परमाणुओं का समूह या परमाणुओं की संयुक्त अवस्था मात्र है। वस्तुतः द्वयणु आदि स्कन्ध भी परमाणुरूप ही होने से, इन्हें भी पुद्गल द्रव्य की शुद्ध पर्याय ही कहना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता है। स्वतन्त्र परमाणु की विवक्षा करने पर परमाणु पुद्गलद्रव्य की शुद्ध व्यंजन पर्याय है तथा एक परमाणु या एक से अधिक परमाणुओ का दूसरे एक परमाणु या एक से परमाणुओं के साथ संयोगिक भाव की विवक्षा करने पर द्वयणुक आदि स्कन्ध, पुद्गलद्रव्य की अशुद्ध व्यंजनपर्याय है। इसी प्रकार परद्रव्यों के सांयोगिकभाव के विवक्षा के बिना धर्मादि द्रव्यों की लोकाकाश परिमाण संस्थानमय जो स्वयं की आकृति है, वह शुद्ध व्यंजनपर्याय है और परद्रव्य के सांयोगिक भाव की विवक्षा करने पर लोकाकाशवर्ती जीव, पुद्गल द्रव्यों के संयोगजन्य धर्मादि द्रव्यों की जो आकृति है, वह अशुद्धव्यंजनपर्याय है। 1278 उदाहरणार्थ घट में निहित धर्मास्तिकाय, घटधर्मास्तिकाय है और पट में रहनेवाला धर्मास्तिकाय, पटधर्मास्तिकाय है अथवा घट
1276 निज पर प्रत्ययथी लहो, छांडी हठ प्रेम ..... ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/9, उत्तरार्ध 1277 ते धर्मास्तिकायादिक मांही अपेक्षाइं अशुद्ध पर्याय पणि होई,
नहीं तो परमाणुपर्यन्त विश्रामइं पुद्गलद्रव्यइं पणि न होई . ...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/9 का टब्बा 1278 जिम आकृति धर्मादिकनी, व्यंजन छइ शुद्ध लोक द्रव्य संयोगथी, तिम जाणि अशुद्ध
.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/10
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को सहयोग करनेवाला घटधर्मास्तिकाय और पट को सहयोग करनेवाला पटधर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार घटाधर्मास्तिकाय, पटाधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश, घटकाल, पटकाल इत्यादि परद्रव्यसापेक्ष धर्मादि की आकृति अशुद्धव्यंजन पर्याय है।1279 अनेकान्तवाद के आधार पर विवक्षा भेद से जैसे एक ही व्यक्ति बड़े भाई की अपेक्षा से छोटा है और छोटे भाई की अपेक्षा से बड़ा है। उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की एक ही आकृति पर द्रव्य की अनपेक्षा से शुद्ध व्यंजनपर्याय और परद्रव्य की अपेक्षा से अशुद्ध व्यंजनपर्याय है।
आकृति की तरह संयोग भी एक प्रकार की पर्याय है।1280 जिस तरह घटाकृ ति, शरीराकृति लोकाकाश परिमाण धर्मास्तिकाय की आकृति आदि पर्याय है, उसी तरह दो-तीन परमाणुओं के संयोग से बने द्वयणुक-त्र्यणुकादि स्कन्धों तथा घट-पटादि अन्य पदार्थों के संयोग से बनी धर्मास्तिकाय आदि की अवस्था विशेष भी पर्याय है। न्यायवैशेषिकदर्शन ने 'संयोग' को 24 गुणों में से एक गुण माना है। परन्तु 'संयोग' में गुण का लक्षण ‘सहभावित्व' घटित नहीं होता है। संयोग सदा द्रव्य के साथ नहीं रहता है। कभी रहता है तो कभी नहीं भी रहता है। द्वयणुक-त्र्यणुकादि में आज संयोग है तो कल संयोग नहीं भी हो सकता है तथा भविष्य में संयोग बन भी सकता है। इस प्रकार संयोग उत्पाद विनाशवाला होने से द्रव्य का सहभावी गुण नहीं है।1281
पुनः संयोग सदा दो द्रव्यों के मध्य ही होने से प्रश्न उभरता है कि संयोग दो द्रव्यों में से किस द्रव्य का गुण है ? घट और आकाश के संयोग में संयोग घट का
1279 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ.674 1280 संयोगइ आकृति परि, पज्जाय कहवाय। उत्तराध्ययनइ भाखियां, लक्षण पज्जाय।।
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/11 1281 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 675
....... प्रय
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गुण है ? या आकाश का गुण है ? क्योंकि दो द्रव्यों के मध्य एक गुण नहीं रह सकता है।1282 प्रत्येक गुण अपने-अपने द्रव्य के आश्रित ही रहता है। अतः संयोग गुण न होकर पर्याय है। इसी कारण से उत्तराध्ययनसूत्र में संयोग को एकत्व, पृथ्कत्व, संख्या, संस्थान, वियोग की तरह पर्याय के लक्षण के भेद के रूप में ही प्रतिपादित किया है।1283
द्रव्य का अन्य रूप में रूपान्तरण (द्रव्यान्यथात्व) होने पर ही उसे अशुद्ध पर्याय कहना चाहिए। परन्तु घट, पट, लोकाश आदि परद्रव्यों के संयोग से होनेवाली पर्यायों को अशुद्ध पर्याय कैसे कह सकते हैं ? उन्हें तो उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए।1284 शरीरादि मूर्तद्रव्यों के संयोग से जीव का मूर्तरूप में परिणमित होना या विष के संयोग से दूध का विष रूप में परिणमित होना इत्यादि को तो अशुद्ध पर्याय कहा जा सकता है। परन्तु धर्मादि द्रव्यों का घट, पट आदि परपदार्थों से संयोग होने पर भी, वे धर्मादि द्रव्य अपरिणामी होने से अन्यथा रूप से परिणमित नहीं होते हैं। अतः घटपटादि परद्रव्य के संयोगजन्य घटधर्मास्तिकाय, पटधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश आदि वास्तविक नहीं होने से उन्हें उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए।
इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए यशोविजयजी कहते हैं -परद्रव्य के संयोगजन्य पर्याय को अशुद्ध पर्याय के रूप में नहीं मानने पर तो असद्भूत व्यवहारनय से ग्राह्य मनुष्य आदि जीव की पर्यायों को भी अशुद्ध पर्याय नहीं कहा जा सकता है।1285 क्योंकि मनुष्य आदि पर्यायें भी कर्म नामक परद्रव्य के संयोग से ही प्रकट होते हैं। अतः मनुष्य आदि को भी उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए। यदि मनुष्य आदि पर्याय असद्भूत व्यवहारनय से ग्राह्य होने से अशुद्ध पर्याय हैं तो धर्मादि
1282 वही, पृ. 676 1283 एकत पृथ्कत तिमवली, संख्या संठाणि। वली संयोग विभाग ए, मनमां तुं आणि।। .
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/12 1284 "हवइ जो इम कहस्यो, जे" धर्मास्तिकायदिकनइं परद्रव्य संयोग छइं,
ते उपचरित पर्याय कहिइ, पणि अशुद्धपर्याय न कहिइं, द्रव्यान्यथात्व
हेतुनइं विषइं ज अशुद्धत्वव्यवहार छइं" ......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13 का टब्बा 1285 उपचारि न अशुद्ध ते, जो परसंयोग।
असद्भूत मनुजादिका, तो न अशुद्ध जोग ।। ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13
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द्रव्यों में प्रगट होने वाली परद्रव्य के संयोगजन्य घटधर्मास्तिकाय, पटधर्मास्तिकाय, घटाधर्मास्तिकाय, पटाधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश इत्यादि पर्यायें भी असद्भूत व्यवहारनय से ही ग्राह्य होने से अशुद्ध पर्यायें ही कही जायेगी।
द्वितंतु आदि के समान केवल सजातीय द्रव्यों के अंशों के संयोगजन्य (केवल स्वद्रव्य से स्वद्रव्य के संयोगजन्य) पर्यायों को ही अशुद्ध पर्याय मानने पर तो जीव द्रव्य में प्रगट होनेवाली पुद्गल (कर्म) रूप विजातीय द्रव्य के संयोगजन्य मनुष्य आदि पर्यायों को भी अशुद्ध पर्याय नहीं कहकर उपचरित पर्याय ही मानना पड़ेगा। 1286 पुनः सजातीय द्रव्यों के संयोगजन्य पर्यायें केवल पुद्गलास्तिकाय द्रव्य में ही होने से जीव में होनेवाली मनुष्य आदि पर्यायें, धर्म आदि चारों द्रव्यों में होने वाली घटधर्मास्तिकाय आदि पर्यायों को अशुद्ध पर्याय नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि ये पर्यायें संयोगजन्य है। परन्तु शास्त्रों में मनुष्य आदि पर्यायों को अशुद्ध पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है।1287 एतदर्थ दो द्रव्यों के संयोगजन्य चाहे वह द्रव्य सजातीय हों अथवा विजातीय हो, पर्याय को अशुद्धपर्याय कहा जाता है। क्योंकि वह पर्याय स्वतन्त्र द्रव्यजन्य न होकर उभयजन्य पर्याय होती है। उपचरित पर्याय वहां होती है जहाँ कल्पना की जाती है अर्थात् वास्तविक स्वरूप अन्यत्र हो और उसकी कल्पना अन्यत्र हो वहाँ उपचरित पर्याय होती है। जैसे ज्ञानगुण आत्मा में होता है। किन्तु पुस्तक आदि ज्ञान का कारण होने से पुस्तक में ज्ञान का आरोपन किया जाता है।1288 घटधर्मास्तिकाय आदि पर्यायों में इस प्रकार का उपचार, कल्पना या आरोपन नहीं होने से वे उपचरित पर्याय नहीं हैं, अपितु अशुद्ध पर्याय हैं।
जिस प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य की मनुष्यादि तथा द्वयणुकादि पर्यायों को परद्रव्य के संयोग की विवक्षा से अशुद्धपर्याय कहा जाता है, उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की आकृतियों को भी परद्रव्य के संयोग की विवक्षा से अशुद्ध पर्याय कहा जाता है।
1286 द्वितन्तुकादि पर्यायनी परि एकद्रव्यजनकावयवसंघातनइंज अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्यायपणं ज कहतां __ रूडू लागइ
................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13 का टब्बा 1287 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 698 1288 वही, पृ. 698
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'परापेक्षा' के समान होने पर धर्मास्तिकाय आदि की आकृति को अशुद्ध पर्याय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है। 1289
इस प्रकार धर्म आदि चारों द्रव्यों की आकृति को परद्रव्य-निरपेक्ष या स्वद्रव्य की पर्यायरूप में मानने पर वह शुद्धव्यंजनपर्याय है तथा उन्हीं आकृतियों को परद्रव्य - सापेक्ष या परद्रव्य के संयोगजन्य मानने पर अशुद्धव्यंजनपर्याय है। एक ही पर्याय को परद्रव्य की अपेक्षा के आधार पर अशुद्ध या स्वद्रव्य के आधार पर शुद्धपर्याय कहा जाता है। स्वपर्याय के रूप में विवक्षा करने पर परद्रव्य के संयोग की अपेक्षा नहीं रहती है । परापेक्षा की विवक्षा करने पर परद्रव्य के संयोग की अपेक्षा रहती है। यही शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की विलक्षणता है। 1290
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में देवसेन आचार्य कृत नयचक्र में वर्णित चार प्रकार की पर्यायों का भी उल्लेख किया है। 1291 नयचक्र के अनुसार पर्याय के मुख्य दो भेद हैं द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय । प्रथम द्रव्य पर्याय के सजातीय और विजातीय के रूप में दो प्रकार हैं । गुणपर्याय के भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो भेद हैं।
द्रव्यपर्याय
सजातीय द्रव्य पर्याय
1289 धर्मादिक परपज्जइ, विसमाइ एम। अशुद्धता अविशेषथी, जिअ पुद्गलि जेम ।।
—
पर्याय
विजातीय द्रव्यपर्याय
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पर्या
स्वाभाविक गुणपर्याय विभाविक गुणपर्याय
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14 / 14
1290 तस्मादपेक्षानपेक्षाभ्यां शुद्धाशुद्धानेकान्तव्यापकत्वमेव श्रेयः द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13 का टब्बा हवइ प्रकारान्तरइ चतुर्विध पर्याय नयचक्रई कहिया ते देखाडइ छइ
1291
इम सजातीयद्रव्यपर्याय, विजातीयद्रव्यपर्याय, स्वभावगुणपर्याय, विभावगुणपर्याय, 4भेदपर्यायना कहवा
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/16 का टब्बा
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1. सजातीय द्रव्य पर्याय :
समान जातीय द्रव्यों के संयोग से उत्पन्न होने वाली पर्याय को सजातीय द्रव्यपर्याय कहा गया है। जैसे – द्वयणुक, त्र्यणुक, चतुरणुक आदि पुद्गलस्कन्धों की सजातीय द्रव्य पर्याय होती है। द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध दो-तीन-चार परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न होते हैं। 1292 ये सभी परमाणु पुद्गलास्तिकाय नामक एक ही द्रव्य के होने से इन परमाणुओं के संयोग से बने द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि सजातीयद्रव्य पर्याय है।
2. विजातीय द्रव्यपर्याय :
परस्पर भिन्न जाति के दो द्रव्यों के संयोग से प्रगट होनेवाली पर्याय विजातीय द्रव्य पर्याय है। जैसे - मनुष्य, तिर्यच आदि पर्याय विजातीय द्रव्य पर्याय के उदाहरण हैं। 1293 मनुष्य आदि पर्यायें जीवद्रव्य और कर्म (पुद्गलद्रव्य), इन दो द्रव्यों के संयोग से उत्पन्न होती है। ये दोनों द्रव्य भिन्न-भिन्न जाति के द्रव्य हैं। एक चेतन द्रव्य है तो दूसरा अचेतन द्रव्य है। अतः मनुष्य आदि पर्याय विजातीय द्रव्य के संयोगजन्य होने से, इन्हें विजातीय द्रव्य पर्याय कहा जाता है।
स्वभाविक गुणपर्याय :
जिस गुणपर्याय में परद्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है, उसे स्वभाविक गुणपर्याय कहा जाता है। जैसे- केवलज्ञान। यह जीवद्रव्य का स्वतंत्र और स्वभावभूत गुण है।
1292 द्वयणुक द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध, ते सजातीय द्रव्यपर्याय कहिइं, 2 मिली एक द्रव्य उपनुं ते माटि. ....... वही, गा. 14/16 का टब्बा 1293 मनजादिपर्याय ते विजातीय द्रव्यपर्यायमांही,
2 मिली परस्पर भिन्न जातीय द्रव्य पर्याय उपवो ते वती .......... वही, गा. 14/16 का टब्बा
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इसमें कर्मरूप परद्रव्य की अपेक्षा नहीं है। इसलिए केवलज्ञान स्वभाविक गुणपर्याय
है। 1294
विभावगुणपर्याय :
I
परद्रव्य के संयोग से प्रगट होनेवाली पर्याय को विभावगुणपर्याय कहा गया है । उदाहरणार्थ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानआदि । ये जीव के ज्ञानगुण की पर्यायें होने पर भी कर्म नामक परद्रव्य की परतंत्रता वाले हैं। इसलिए इन पर्यायों को विभाव गुणपर्याय कहा गया है। 1295
1296
यशोविजयजी ने उपरोक्त भेदों की समीक्षा करते हुए कहा है कि इन चार प्रकारों की पर्यायों में सभी पर्यायों का समावेश नहीं होने से ये भेद अपूर्ण हैं । परमाणुरूप पर्याय का समावेश इन चार प्रकार की पर्यायों में नहीं होता है।' परमाणुरूप पर्याय विजातीय या सजातीय द्रव्य के संयोगजन्य नहीं होने से प्रथम और द्वितीय दोनों प्रकारों में अन्तर्निहित नहीं हो सकती है तथा परमाणु द्रव्यरूप होने से वह तीसरे और चतुर्थ प्रकार में भी अन्तर्भूत नहीं हो सकता है ।
कदाचित् कोई ऐसी दलील करे कि 'परमाणु' पर्याय नहीं है, अपितु द्रव्य है । इसका कारण यह है कि पर्याय कार्यरूप होता है तथा जो कार्यरूप होता है वह सदैव संयोगजन्य ही होता है। जिस प्रकार तंतुओं के संयोग से पट रूप कार्य संपन्न होता है, उसी प्रकार परमाणु किसी अंशों का संयोगस्वरूप नहीं है । एतदर्थ परमाणु पर्याय ही नहीं है। इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए यशोविजयजी कहते हैं - शास्त्रों में 'परमाणु' को विभागजात कार्य कहा गया है। 1297 जिस प्रकार सजातीय
1294 केवलज्ञान ते स्वभावगुणपर्याय, कर्मरहितपणा माटइं
1295 मतिज्ञानादिक- ते विभावगुणपर्याय, कर्म परतंत्रपणा माटिं
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1297 पर्यायपणुं तेहनइं विभागजात शास्त्रि कहिउं छइ.
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14 / 16 का टब्बा
वही. गा. 14/16 का टब्बा
1296
ए चार भेद पणि प्रायिक जाणवा, जे माटइं परमाणुरूप द्रव्यपर्याय ते ए चारमाहि न अन्तर्भावइ वही, गा. 14 / 16 का टब्बा
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14 / 16 का टब्बा
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या विजातीय द्रव्यों के संयोग से घट-पट आदि तथा मनुष्य, तिथंच आदि कार्यों (पर्यायों) होते हैं, उसी प्रकार अखण्ड वस्तुओं से अवयवों का विभाग होने से भी जो खंडित वस्तु बनती है, वह भी कार्यस्वरूप ही है। जिस प्रकार अखंडपट को फाड़ने से खंडपट, घट के फूटने पर कपाल आदि विभागजन्य पर्याय (अपूर्वकार्य) है उसी प्रकार द्वयणुक-त्र्यणुक-चतुरणुक आदि स्कन्धों के बिखरने (विभाग) से परमाणु रूप कार्य (पर्याय) की उत्पत्ति होती है। इसलिए परमाणु भी पर्याय है। सन्मतिप्रकरण में भी कहा गया है कि संयोग की तरह विभाग से भी कार्य निष्पन्न होते हैं। यथा
अणुदुअणुएहिं दवे आरद्ध, 'तिअणुयं' ति तस्स ववएसो।
तत्तो अ पूव विभत्तो, अणुत्ति जाओ अणु होई ।। 1298 जिस प्रकार एक अणु और द्वयणु दोनों के संयोग से बने नवीन स्कन्ध को त्र्यणुक कहा जाता है, उसी प्रकार त्र्यणुक के विभक्त होने से अलग हुए अणु को भी 'यह परमाणु है' ऐसा कहा जाता है। अतः जैसे अवयवों के संयोग से पर्याय पैदा होती है, वैसे ही अवयवों के अलग होने पर भी नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है। पर्याय संयोग और विभाग उभयजन्य होने से परमाणु विभागजन्य पर्याय –यह माना जा सकता है। यह परमाणु रूप पर्याय नयचक्रकृत पर्यायों के चारों प्रकारों में से किसी भी प्रकार में समाविष्ट नहीं होता है। अतः यशोविजयजी की दृष्टि में पर्यायों के उक्त भेद अपूर्ण है।
1298 सन्मतिप्रकरण, गा. 3/39
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षष्टम् अध्याय
द्रव्य, गुण एवं पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से सम्बन्ध -
जैनदर्शन के अभिमत में विश्व धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल इन छह द्रव्यों का समूह है। इन छहों द्रव्यों में परस्पर कथंचित् भिन्नता का और कथंचित् अभिन्नता का दोनों सम्बन्ध हैं। 1299 यद्यपि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र और स्वप्रतिष्ठित है तथा एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, फिर भी छहों द्रव्यों का अवगाहन क्षेत्र लोकाकाश होने से ये छहों द्रव्य एकक्षेत्रावगाही है। जिन आकाश प्रदेशों में धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का अस्तित्व है, उन्हीं आकाश प्रदेशों में जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी अस्तित्व है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में कहें तो छहों द्रव्य अन्योन्य प्रविष्ट हैं। एक दूसरे को अवकाश देते हैं। 1300 इस प्रकार एकक्षेत्रावगाहन की दृष्टि से छहों द्रव्यों में परस्पर अभिन्नता है। दूसरी ओर जिस प्रकार चेतन एक द्रव्य और पदार्थ है, उसी प्रकार धर्म आदि द्रव्य भी एक द्रव्य और पदार्थ है। अतः द्रव्यत्व या पदार्थत्व सामान्य की अपेक्षा से छहों द्रव्यों में अभिन्नता है।1301
___ द्रष्टव्य है इन छहों द्रव्यों का परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी उनमें एकता नहीं हो सकती है।1302 क्योंकि वे अपने-अपने प्रतिनियत स्वभाव से च्युत नहीं होते हैं। अनादिकाल से जीवद्रव्य और कर्मरूप पुद्गलदव्य एक दूसरे को प्रभावित करके क्षीर-नीर की तरह मिल जाने पर भी न तो जीवद्रव्य के प्रदेश, पुद्गलद्रव्य के प्रदेशों के रूप में परिवर्तित होते हैं और न ही पुद्गलद्रव्य, जीवद्रव्य के गुणों को
1299 तिहां-जड़ चेतन मांहि, पणि भेदाभेद कहतां जैन- मत विजय पामइ – द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/7 का टब्बा। 1300 अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगास-मण्ण-मण्ण्स्स
........... पंचास्तिकाय, गा. 7 का पूर्वार्ध । 1301 भिन्न रूप जे जीवाजीवादिक तेहमां, रूपान्तर द्रव्यत्व पदार्थत्वादिक, तेहथी जगमांहि अभेद पणि आवइ
- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/7 का टब्बा 1302 मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहति .......... -पंचास्तिकाय, गा. 7 का उत्तरार्ध
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अपनाता है। इस प्रकार स्वरूपाच्युति की अपेक्षा से छहों द्रव्यों में परस्पर भिन्नता भी है। दूसरी बात यह है कि छहों द्रव्य परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं। जैसे धर्मद्रव्य जीवादि की गति में और अधर्मद्रव्य जीवादि के स्थिति में सहायक बनता है। आकाशद्रव्य लोकव्यापी और विभु होने से अपने में अन्य समस्त द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है। पुद्गलास्तिकाय समस्त भौतिक रचनाओं का मूल कारण है। जीव भी परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं।1303 इस तरह उपकार और उपकृत की अपेक्षा से भी द्रव्यों में परस्पर भिन्नता का भी सम्बन्ध है। अस्तित्त्व की अपेक्षा छहों द्रव्यों में एकत्त्व है। अपने-अपने निजगुणों की अपेक्षा भिन्नत्व भी है, यही जैनदर्शन का निष्कर्ष है।
द्रव्य का गुण से सम्बन्ध
द्रव्य और गुण के सम्बन्ध में निम्न चार बिन्दुओं के आधार पर विचार किया जा सकता है -
1. जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं वे गुण और जो गुणों का आश्रय है वह द्रव्य है
उत्तराध्ययनसूत्र'304 में द्रव्य को गुणों का आश्रयस्थल और गुण को द्रव्य के आश्रित रहनेवाले धर्मों के रूप में परिभाषित किया है। यहाँ द्रव्य को आधार और गुण एवं पर्याय को आधेय के रूप में वर्णित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी "द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणाः1305." कहकर विशेष रूप से यह बताया गया है कि यद्यपि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं, परन्तु उन गुणों के आश्रित रहने वाले अन्य कोई गुण या विशेष नहीं है।
1303 परस्परोपग्रहो जीवानाम् .... –तत्त्वार्थसूत्र, 5/21 1304 गुणाणमासओ दव्वं –उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6 1305 तत्त्वार्थसूत्र, 5/40
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2. द्रव्य का भेदक धर्म गुण है -
द्रव्य का स्वलक्षण गुण है। विवक्षित द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करने वाले उस द्रव्य के स्वलक्षण रूप गुण ही होते हैं। 1306 जैसे ज्ञानादिगुणों के कारण जीवद्रव्य पुद्गल आदि द्रव्यों से भिन्न अस्तित्व रखता है और पुद्गलद्रव्य भी रूप, रस आदि गुणों के कारण अन्य द्रव्यों से अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। यदि द्रव्यों में भेदक गुण न हो तो द्रव्यों में सांकर्य हो जायेगा। अतः द्रव्य में भेद करनेवाला धर्म गुण
है।1307
द्रव्य के अन्वयी विशेष गुण है -
द्रव्य को अन्वय और गुणों को अन्वयी कहा जाता है।1308 द्रव्य का प्रवाह अनवरत् रूप से चलता रहता है, इसलिए वह अन्वय है और यह अन्वय जिनके हैं वे अन्वयी कहलाते हैं। द्रव्य में अन्वयता या 'यह वही है ऐसी पहचान गुणों के कारण ही होती है। क्योंकि द्रव्य के समस्त अवस्थाओं में गुण की अनुवृत्ति बराबर पायी जाती है। अतः अनन्त गुणों के समुदाय रूप द्रव्य में जिन विशेषों की अनुवृत्ति पाई जाती है, वे अन्वयी विशेष ही गुण हैं।1309
4. द्रव्य के सहवर्ती या सहभावी गुण हैं -
जिस द्रव्य के जितने और जो-जो गुण होते हैं, वे तीनों काल में उतने और वे ही रहते हैं। जो द्रव्य में युगपत् सदाकाल रहते हैं वे ही गुण हैं। 1310 गुण सदा
1306 आलापपद्धति, 1/93 1307 सर्वार्थसिद्धि,5/38/600
1308 पंचाध्यायी, श्लो. 1/42, 44 1309 द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च, ....................... पंचाध्यायी, श्लोक -1/104 1310 सह भवो गुणाः .............
............................. आलापपद्धति, सू. 92
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द्रव्य के सहवर्ती होते हैं।1311 वे पर्याय की तरह क्रम-क्रम से नहीं होते हैं। गुण से पृथक् द्रव्य का और द्रव्य से पृथक् गुण का अस्तित्व नहीं होता है।
द्रव्य और गुण का भेदाभेद सम्बन्ध :___जैन परम्परा में द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर मुख्य रूप से तीन प्रकार की विचारधारा प्राप्त होती है।
__द्रव्य गुणों का आश्रयस्थल है। 2- द्रव्य गुणों का संघात है। 3- द्रव्य गुण और पर्यायवाला है।
आगम में द्रव्य को गुणों का आश्रयस्थान और द्रव्य के आश्रित रहनेवाले को गुण कहा है। 1312 यहाँ द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रित अथवा आधार-आधेय सम्बन्ध की परिकल्पना की गई है। किन्तु आधार-आधेय सम्बन्ध पृथक्-पृथक अस्तित्व रखनेवाले दो पदार्थ के मध्य में ही हो सकता है। जब द्रव्य और गुण की भिन्न-भिन्न सत्ता ही नहीं है तो उनमें आधार-आधेय सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? गुण से रहित होकर न द्रव्य की सत्ता है और न द्रव्य से रहित होकर गुण की कोई सत्ता है।1313 उदाहरण के लिए वस्त्र द्रव्य है और उसमें पाये जाने वाले रूप आदि उसके गुण हैं। यदि वस्त्र में से रूपादि गुणों को अलग कर दिया जाये तो वस्त्र नामक कोई पदार्थ ही शेष नहीं रहेगा। द्रव्य नहीं है तो गुण नहीं है और गुण नहीं है तो द्रव्य नहीं है। इसलिए द्रव्य और गुण का आश्रय और आश्रयीभाव ऐसा नहीं है जैसा कि पुस्तक की चौकी के साथ होती है। यहाँ पुस्तक को चौकी से अलग किया जा सकता है। परन्तु गुण को द्रव्य से अलग नहीं किया जा सकता है। द्रव्य और
1311 सहवर्तिनो गुणा'
आवश्यकनियुक्ति, हरि. वृ. पृ. 445 1312 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6 1313 णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओ तीह वा विणा दव्वं ........... प्रवचनसार, गा. 2/18
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गुण का आश्रय-आश्रयीभाव पुस्तक और अक्षरों का जैसा होता है। पुस्तक अक्षरों से भिन्न नहीं है तथापि उसे अक्षरों का आधार माना जाता है। 314 अक्षरों को पुस्तक से निकाल देने पर तो पुस्तक नाम की कोई वस्तु ही शेष नहीं रहेगी। एतदर्थ द्रव्य और गुण में कथंचिद् अभिन्नता भी है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखकर सर्वार्थसिद्धिकार'315, पंचाध्यायीकार1316 आदि ने द्रव्य को गुणों का समुदाय माना है। परन्तु द्रव्य और गुण की पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं मानने पर तो उनमें एकमात्र तादात्मय सम्बन्ध ही रह जायेगा। द्रव्य, गुणों का अखण्ड पिण्ड है, इस दृष्टि से दोनों में भेद नहीं होने पर भी समुदाय और समुदायी में कथंचिद् भिन्नता भी होती है। जैसे अन्न के दाने और अन्न के दानों के ढेर में भेद और अभेद दोनों कहा जा सकता है। दानों को ढेर से अलग कर दिया जाय तो ढेर कुछ रहेगा ही नहीं। दानों का समूह ही ढेर कहलाता है। उसी प्रकार गुणों को द्रव्य से अलग कर देने पर द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं बचेगी। अतः गुणों का समूह ही द्रव्य कहलाता है। फिर जिस प्रकार दाने और ढेर एक नहीं है उसी प्रकार गुण और द्रव्य भी एक नहीं है। जैसे एक दाने को ढेर नहीं कहा जाता है, उसी प्रकार एक गुण को भी द्रव्य नहीं कहा जाता है, अपितु गुणों के समूह को ही द्रव्य कहा जाता है। इस दृष्टि से द्रव्य और गुण भिन्न-भिन्न भी हैं। द्रव्य समुदाय है, गुण समुदायी है, द्रव्य अंशी है और गुण अंश है, द्रव्य आधार है और गुण आधेय है।1377 इसलिए जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। 318
वाचक उमास्वाति ने 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' कहकर द्रव्य की जो परिभाषा दी है उसमें द्रव्य और गुण–पर्याय में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता दोनों ही परिलक्षित होती है। वतुप् प्रत्यय को जोड़कर द्रव्य को गुण और पर्यायवाला बताया
1314 पंचाध्यायी का विवेचन, -पं. मक्खनलालजी शास्त्री, पृ. 38 1315 तेभ्योऽन्यत्वं कथंचिदापद्यमानः समुदायो द्रव्यव्यपदेशभाक् ............. सर्वार्थसिद्धि, 5/30/600 1316 गुण समुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताप्युशन्ति बुधाः ..................... पंचाध्यायी, गा. 73, पूर्वार्ध 1317 ज्योतिपुंज - जैन दिवाकर, पृ.1 1318 जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्यादो - प्रवचनसार, गा. 2/16
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है। इसका आशय कदापि यह नही है कि गुण–पर्याय कोई दूसरे पदार्थ हैं, जो द्रव्य में रहते हैं और द्रव्य उनका आधारभूत कोई दूसरा पदार्थ है। परन्तु त्रिकालवर्ती पर्यायों का समूह ही द्रव्य है। जैसे सुवर्ण से उसका गुण पीलापना और कुण्डलादि पर्याय भिन्न नहीं है, वैसे ही द्रव्य से भिन्न गुण और पर्याय नहीं है। परन्तु जैसे पीलापना या कुण्डलादि द्रव्य नहीं है उसी प्रकार गुण या पर्याय भी द्रव्य नहीं है। गुण और गुणी में प्रदेश भेद नहीं है। जो प्रदेश पीलापन और कुण्डलादि के हैं वे ही प्रदेश सुवर्ण द्रव्य के हैं। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार द्रव्य और गुण में प्रदेश भेद नहीं होने पर भी संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन, इन्द्रियग्राह्ययता आदि की दृष्टि से भेद भी है।1319
संक्षेप में डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में कहें तो सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेद है, किन्तु वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद भी है।1320
गण के सम्बन्ध में नैयायिक और जैनमत का अन्तर :
नैयायिकों के अभिमत में द्रव्य और गुण में अत्यन्त भिन्नता है। क्योंकि द्रव्य प्रथम क्षण में निर्गुण और निष्क्रिय होता है। द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीय क्षण में द्रव्य में उससे अत्यन्त भिन्न गुण और पर्याय (कार्य) उत्पन्न होते हैं। द्रव्य में गुण समवाय सम्बन्ध से रहता है। जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य गुणों का समुदाय है1321
और गुण द्रव्य के आश्रित रहने वाले धर्म हैं। 1322 द्रव्य और गुण में सर्वथा भेद नहीं है, अपितु कथंचित् ही भेद हैं। यदि समुदाय (द्रव्य) से समुदायी (गुण) भिन्न है तो फिर समुदाय ही नहीं रहेगा। इसलिए जैनों का कहना है कि द्रव्य और गुण
1319 संज्ञा संख्या लक्षणयी पणि, भेद एहोनो जाणी रे - .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/16 1320 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, – पृ. 65 1321 गुण समुदायो द्रव्यं
........... पंचाध्यायी, गा. 1/73, पूर्वार्ध 1322 द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ....
तत्त्वार्थसूत्र, 5/40
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अविभक्त प्रदेशी हैं। 1323 गुण और गुणी का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। जो प्रदेश गुणी वस्त्र के हैं, वे ही शुक्लादि गुणों के प्रदेश हैं। जो शुक्लादि गुण के प्रदेश हैं, वे ही गुणी वस्त्र के प्रदेश हैं। इस प्रकार उनमें प्रदेश भेद नहीं होने से अभिन्नता है। किन्तु गुण और गुणी में नामभेद, लक्षणभेद, संख्याभेद भी पाया जाता है। 1324 यहाँ दृष्टव्य है कि संज्ञा, संख्या की दृष्टि से द्रव्य और गुण में भेद होने पर भी वस्तुरूप से भेद नहीं है। वस्तुरूप से भेद और वस्तुरूप से अभेद को पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने दो उदाहरणों से समझाया है।1325 – प्रथम धन के योग से धनी व्यवहार होता है। यहाँ धन और धनी पुरूष के अस्तित्व आदि भिन्न-भिन्न हैं। यहाँ वस्तु रूप से भेद है। दूसरा ज्ञान के योग से ज्ञानी व्यवहार होता है। यहाँ ज्ञान और ज्ञानी का अस्तित्व अलग-अलग नहीं है। यदि दोनों को सर्वथा भिन्न मान लने पर तो दोनों ही अचेतन अवस्था को प्राप्त हो जायेंगें। ज्ञान और ज्ञानी वस्तु रूप से भेद नहीं है। ज्ञानी के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना ज्ञानी दोनों ही नहीं हो सकते हैं। इसलिए द्रव्य और गुण में अभेद भी है।
पुनः जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मान लेने पर या तो द्रव्य की अनंतता होगी या द्रव्य का अभाव होगा।1326 गुण नियम से किसी के आश्रय से रहते हैं और वे जिसके आश्रय से रहते हैं वह द्रव्य है। यदि गुण और द्रव्य भिन्न है तो गुण अन्य किस के आश्रय से रहेंगे और वे जिसके आश्रित रहेगें वही द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्य की अनंतता का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। पुनः गुण को उसके आश्रयभूत द्रव्य से भिन्न मानने पर गुण निराधार हो जायेगें और गुणरहित द्रव्य निःस्वरूप हो जायेगें।1327 इसलिए जैनदर्शन द्रव्य और गुण में कथंचित् अभेद को भी मानता है।
1323 अविभत्त-मणण्णत्तं दवं गुणाणं.
पंचास्तिकाय, गा. 45 1324 संज्ञा संख्या लक्षणयी पणि भेद
द्रव्यगणपर्यायनोरास, गा. 2/16 1325 नयचक्र का विवेचन - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 25 1326 णिच्चं गुण-गुणिभेये दव्वाभावं अणंतियं अहवा, - नयचक्र, गा. 47 1327 पंचास्तिकाय, गा. 44, 45
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न्यायदर्शन के अनुसार द्रव्य उत्पत्ति के समय में निर्गुण होता है और बाद में समवाय सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में सम्बन्ध स्थापित होता है। परन्तु यदि द्रव्य निर्गुण है तो गुण के सम्बन्ध से भी गुणवान नहीं बन सकता है। क्योंकि किसी भी पदार्थ में असत् शक्ति का उत्पादन नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो ज्ञान गुण के सम्बन्ध से घट भी चेतन हो जायेगा और यदि द्रव्य गुणवान है तो समवाय सम्बन्ध की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।1328 समवाय सम्बन्ध को मानने पर तो अनवस्था दोष का प्रसंग आता है।329 क्योंकि यह प्रश्न उभरना स्वाभाविक है कि यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो समवाय सम्बन्ध गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से रहता है ? इसलिए जैनदर्शन के अभिमत में गुण द्रव्य का सहभावी धर्म है। गुण से पृथक् द्रव्य नहीं होता है।
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार द्रव्य और गुण में अभेद नहीं मानने पर तो कारण-कार्य सम्बन्ध ही घटित नहीं होगा। इसका कारण यह है कि सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति खरविषाण की तरह कदापि नहीं हो सकती है। 1330 द्रव्य कारण है और उससे प्रगट होने वाली पर्यायें कार्य हैं। जैसे कि मिट्टी-घट और तन्तु–पट इन दोनों उदाहरणों में मिट्टी और तन्तु द्रव्य और कारण हैं और उनसे उत्पन्न होने वाले घट और पट कार्य हैं। यदि मिट्टी और तन्तु में अभेद रूप से घट-पट विद्यमान नहीं है तो सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए कारण (द्रव्य) में कार्य (पर्याय) प्रगट होने की शक्ति विद्यमान रहती है। अतः द्रव्य में गुण और पर्याय अभेदभाव से सत् हैं। द्रव्य में अपने अपने कार्य (पर्याय) प्रगट होने की शक्ति तिरोभाव से अवश्यमेव रहती है जो कालादि सामग्री के प्राप्त होने पर आविर्भूत होती
है।1331
1328 वही, गा. 48, 49
1329 अणवत्था समवाए किह एयत्तं पसाहेदि। -नयचक्र, गा. 47 का उत्तरार्ध
1330 जो अभेद नहीं एहनो जी, तो कारय किम होई ?
अछती वस्तु न नीपजइजी, शशविषाण परि जोई रे।। ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/7 1331 द्रव्यरूप छती कार्यनीजी, तिरोभावनी रे शक्ति।
आविर्भावइ नीपजइजी, गुण पर्यायनी, व्यक्ति रे।। ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/8
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असत्कार्यवादी नैयायिकों के अनुसार द्रव्य-गुण-पर्याय में अभेद मानने पर तो कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं घटेगा। क्योंकि कारण सदा पूर्वसमयवर्ती और कार्य सदा पश्चात् समयवर्ती होता है। जहाँ पूर्वापर समयवर्तिता होती है, वहाँ ही कार्यकारणभाव होता है। इसलिए कार्य-कारण या द्रव्य और गुण–पर्याय में भेद मानना ही उपयुक्त है। कार्यकारण में भेद होने से ही कारणकाल में अर्थात् मिट्टी में कार्य अर्थात् घट असत् है और बाद में दंडादि सामग्री के प्राप्त होने पर ही घट की उत्पत्ति होती है। मृत्पिण्ड और कपाल अनुक्रम से घट की पूर्वावस्था और पश्चादवस्था है। जिस प्रकार पश्चात् अवस्था कपाल को देखकर अतीत विषयक असत् घट का स्मरणात्मक ज्ञान होता है उसी प्रकार पूर्वावस्था मिट्टी में से असत् घट की भी उत्पत्ति होती है।1332 ऐसी नैयायिकों की मान्यता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने नैयायिकों की उपरोक्त मान्यता को मिथ्या ठहराया है।1333 क्योंकि कपाल में अतीतकालीन घट सर्वथा असत् नहीं है। यदि कपाल में घट सर्वथा असत् है और असत् वस्तु का ज्ञान होता है तो कपाल को देखकर घट का ही ज्ञान क्यों होता है ? पट, गाय, भैंस आदि पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं होता है। अतः द्रव्यार्थिकनय से कपाल में घट सत् होने से उसका स्मरणात्मक ज्ञान होता है और इसी प्रकार पूर्वावस्था मृत्पिण्ड में भी द्रव्यार्थिक नय से घट सत् होने से ही उसकी उत्पत्ति होती है। परन्तु मृत्पिण्डकाल में पर्यायार्थिकनय से घट असत् होने से सामग्रियों का योग प्राप्त होने पर उत्पन्न होता है। संक्षप में मृत्पिण्डकाल और कपालकाल में पर्यायार्थिकनय से घट असत् होने पर भी द्रव्यार्थिकनय से दोनों ही अवस्था में सत् है।1334 इस प्रकार मिट्टी में घट सत्-असत् रूप उभयात्मक है। सर्वथा असत् वस्तु का बोध और उत्पत्ति दोनों नहीं होने से कार्यकारण भाव में
1332 नइयायिक भाषइ इस्युं जी, "जिम अछतार्नु रे ज्ञान।
विषय अतातनुजा, तिम कारय सही नाण रे।। ................ वही, गा. 3/9 1333 अछतानी ज्ञप्तिनी परि अछतानी उत्पत्ति होइ" इम कहिउं, ते मत मिथ्या, - वही. गा. 3/10 का टब्बा 1334 पर्यायारथ ते नहीं जी, द्रव्यारथ छइ नित्य रे - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/10 का उत्तरार्ध
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कथंचित् भेद और अभेद दोनों सम्बन्ध हैं। अतः द्रव्य और गुण-पर्यायों में भी कथंचिद् भेद और अभेद सम्बन्ध है।
इस विवेचन का फलितार्थ यही है कि न्यायदर्शन द्रव्य और गुण में एकान्त भेद को स्वीकार करने से असत्कार्यवाद का समर्थक है। जबकि जैनदर्शन द्रव्य और गुण–पर्यायों में भेदाभेद को स्वीकार करने से, कार्यकारण सम्बन्धी सतासत्कार्यवाद का पोषक है।
न्यायदर्शन और जैनदर्शन के गुण सम्बन्धी अवधारणा में दूसरा अन्तर यह है कि न्यायदर्शन रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथ्कत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष प्रयत्न, गुरूत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द इन चौबीस गुणों को मानता है।
जैनदर्शन अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरूलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व इन दस सामान्य गुणों को एवं गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व इन सोलह विशेष गुणों को मानता है। अतः जैनदर्शन में गुणों की संख्या छब्बीस है।
द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद :
दर्शन जगत में द्रव्य और पर्याय के परस्पर सम्बन्ध को लेकर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। परिणामस्वरूप कुछ दार्शनिकों ने द्रव्य और पर्याय में एकान्तभेद को स्वीकार किया तो कुछ अन्य दार्शनिकों ने एकान्त अभेद को अपनी सहमति प्रदान की। जैनदर्शन द्रव्य और पर्याय में परस्पर एकान्तभेद अथवा एकान्त अभेद को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु वह भेदाभेद का समर्थक है। भेदवाद और अभेदवाद का सुन्दर समन्वय जैनदर्शन की विशिष्ट देन है। जैनदर्शन के अनुसार भेद और अभेद इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की उपलब्धि संभव नहीं हो सकती है। जहाँ भेद है वहां अपेक्षा विशेष से अभेद भी है तथा जहां अभेद
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है वहीं अपेक्षा विशेष से भेद भी अवश्यमेव विद्यमान रहता है।1335 यह भेद और अभेद मात्र ज्ञान में नहीं है, अपितु स्वयं वस्तु में है। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही भेदाभेदात्मक है।1396 अतः द्रव्य और पर्याय में परस्पर भेद और अभेद दोनों हैं। ___जैनदर्शन के अभिमत में वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है।1337 स्थिति और परिवर्तन एक ही वस्तु के दो अंग है। वस्तु का अपरिवर्तनशील (नित्य) पक्ष द्रव्य है और परिवर्तनशील (अनित्य) पक्ष पर्याय है। भगवतीसूत्र 398 में कहा गया है -दवट्ठाए सिया सासया भावट्ठयाए सिया असासया" अर्थात् द्रव्य की दृष्टि से सत् शाश्वत् है
और पर्याय की दृष्टि से सत् अशाश्वत् है। 'सन्मतितर्क1339 में भी यही मत व्यक्त किया हुआ है -
उपज्जति चयंति आ भावा नियमेण पज्जवनयस्स।
दवट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्न अविणटुं।। पर्याय की अपेक्षा से वस्तु उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न ही विनष्ट होती है। इसका फलितार्थ यही है कि वस्तु उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक है। परिणमन वस्तु का आधारभूत लक्षण है। इस परिणमन के परिणामस्वरूप वस्तु प्रतिक्षण जिन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होती है, वे पर्याय कहलाती हैं तथा इन प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाली और विनष्ट होनेवाली पर्यायों के मध्य भी जो अपने मूलस्वरूप का पूर्णतः परित्याग नहीं करता है, वह द्रव्य है। उदाहरणार्थ मृतिका की पिंड-स्थास-कोशकुशूल-घट आदि पर्यायें बदलती रहती हैं, किन्तु मृद्रव्य अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। यदि द्रव्य और पर्याय में सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होने पर द्रव्य भी नष्ट हो जाता किन्तु पिंड आदि पर्यायों के नष्ट होने पर भी
1335 जेहनो भेद अभेद ज तेहनो, रूपान्तर संयुतनो रे ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/8 का पूर्वार्ध 1336 जैनधर्म-दर्शन, - डॉ मोहनलाल मेहता, पृ. 136 1337 प्रमाणस्य विषयः द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु .............. प्रमाणमीमांसा, 1/1/30 1338 भगवइ, 7/59 1339 उपज्जति चयंति
सन्मतितर्क, गा. 1/11
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मृत्तिका का नाश नहीं होता है। इसका तात्पर्य यही हुआ कि पर्याय द्रव्य नहीं है। द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद है। यदि द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद नहीं होता तो अर्थात् सुवर्ण द्रव्य और सुवर्णघट, सुवर्णमुकुट आदि में कथंचित् भेद नहीं होता तो सुवर्णघट के इच्छुक व्यक्ति को सुवर्णघट के नाश होने पर शोक और सुवर्णमुकुट के इच्छुक व्यक्ति को सुवर्णमुकुट की उत्पत्ति होने पर हर्ष नहीं होना चाहिए।1340 उसी प्रकार सुवर्ण और सुवर्णमुकुट, सुवर्णघट आदि में कथंचित् अभेद सम्बन्ध नहीं होता तो सुवर्ण मात्र के इच्छुक व्यक्ति सुवर्णमुकुट के नाश और सुवर्णघट के उत्पन्न होने पर मध्यस्थभाव में नहीं रह सकता। एतदर्थ द्रव्य और पर्याय में परस्पर कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता दोनों है।
__द्रव्य और पर्याय का यह भेदाभेद सम्बन्ध आगम सम्मत है। आगम साहित्य में कहीं पर द्रव्य और पर्याय में भिन्नता का प्रतिपादन हुआ है तो अन्यत्र कही अभिन्नता को भी मुख्यता दी गई है। यथा- भगवतीसूत्र'341 में कहा गया है कि 'अथिरे पलोट्ठइ णो थिरे पलोट्टइ' – अस्थिर पर्याय परिवर्तित होती है और स्थिर द्रव्य अपरिवर्तित रहता है। यहां पर स्पष्ट रूप से द्रव्य और पर्याय में भेद परिलक्षित होता है। अन्यत्र जब यह कहा गया कि आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है तो वहाँ द्रव्य और पर्याय में अभेद समर्थित है।1342 आत्मा द्रव्य है और सामायिक आत्मा की एक पर्याय है। फिर भी आत्मा को सामायिक से भिन्न नहीं माना गया है अर्थात् आत्मद्रव्य ही सामायिक और उसका अर्थ है। ऐसा ही एक प्रसंग आचारांग1343 में द्रष्टव्य है – 'जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया यहाँ पर भी आत्म द्रव्य से रहित पर्याय का अस्तित्व और पर्याय से रहित द्रव्य के अस्तित्व नहीं माना गया है।
1340 घट मुकुट सुवर्णहि अर्थिया, व्यय उतपति थिति पेखंत रे।
निज रूपई होवइ हेमथी, दुःख हर्ष उपेक्षावंत रे।। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/3 1341 भगवई, 1/440 1342 वही, 1/427 1343 आयारो, 1/5/104
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यहाँ आत्मद्रव्य और विज्ञान रूप आत्मपर्याय में अभेद दर्शाया गया है। परन्तु भगवती में आया सिय णाणे सिय अण्णाणे' कहकर आत्मद्रव्य और ज्ञान में भिन्नता का प्रतिपादन किया गया है।1344 इस प्रकार आगमों में भेद और अभेद उभय का स्वीकरण है। आगमों में वस्तु स्वरूप का विवेचन विभिन्न नयों से किया गया है। जब द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से विवक्षा की जाती है तब द्रव्य और पर्याय में अभेद प्रतीत होता है और जब पर्यायार्थिक नय को प्रधानता दी जाती है तब द्रव्य और पर्याय में भेद परिज्ञात होता है। भगवती1345 में जो आत्मा के आठ भेद दर्शाये गये हैं उनमें द्रव्यात्मा का वर्णन द्रव्य दृष्टि से और अन्य कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का वर्णन पर्याय दृष्टि से किया गया
इस प्रकार द्रव्य और पर्याय परस्पर मिले हुए भी हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रह सकता है। द्रव्य रहित पर्याय और पर्याय रहित द्रव्य की सत्ता संभव नहीं है।1346 कहा भी गया है -
दलं पज्जव विउअं दव्व विउत्ता पज्जवा नत्थि। उप्पादट्ठिइ भंगा हदि दविय लक्खणं एयं ।।1347
द्रव्य, गुण और पर्याय में तादात्मय है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि द्रव्य, गुण और पर्याय की अपनी सत्ता नहीं है। अस्तित्व की अपेक्षा से उनमें तादात्मय होने पर भी विचार की अपेक्षा से वे पृथक्-पृथक् भी हैं। बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि से व्यक्ति पृथक् नहीं है, फिर भी तीनों अवस्थाएं परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। 1348 उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में बाल, तरूण आदि अवस्थाओं
1344 भगवइ, 12/206 1345 भगवतीसूत्र – 12/10/466 1346 जैनधर्म दर्शन - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ. 129 1347 सन्मतितर्क - गा. 1/12 1348 सागर जैन विद्याभारती, भाग-5 – प्रो. सागरमल जैन, पृ. 108
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की दृष्टि से व्यक्ति में भेद है, किन्तु देवदत्त नामक मनुष्य की अपेक्षा से अभेद हैं। 1 इस प्रकार द्रव्य और पर्याय एक ही वस्तुरूप है । परन्तु दोनों का स्वभाव, संज्ञा, संख्या, और प्रयोजन आदि भिन्न-भिन्न होने से कथंचित् भेद भी है। द्रव्य त्रिकालवर्ती है, पर्याय वर्तमान काल की होती है । द्रव्य की द्रव्य संज्ञा है और पर्याय की पर्याय संज्ञा है । द्रव्य एक है और पर्याय अनेक है।
संक्षेप में लक्षण की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय में भेद होने पर भी पर्याय द्रव्य से पृथक् नहीं पायी जाती है। इसलिए दोनों में अभेद भी है । 1351 दोनों एक क्षेत्रावगाही है । द्रव्य धर्मी है और पर्याय धर्म है। इसलिए धर्म और धर्मी की विवक्षासेतो द्रव्य और पर्याय में भेद किया जा सकता है । परन्तु वस्तुत्व रूप से भेद नहीं किया जा सकता है। 1352 क्योंकि एक क्षेत्रावगाही होने से दोनों अभिन्न भी हैं। इस तरह द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है ।
निष्कर्ष यह है कि द्रव्य और पर्याय परस्पर अभिन्न भी हैं और भिन्न भी हैं ।
1349 बालभाव जे प्राणी दीसइ, तरूण भाव ते न्यारो रे । देवदत्त भावइ ते एक ज, अविरोधइ निरधारो रे ।।
1350 आत्ममीमांसा, कारिका, 71, 72
1351 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-2, पृ. 459
1352 दव्वाणपज्जयाणं, धम्मविवक्खाइ कीरइ भेओ वत्थुसरूवेण पुणो ण हि भेओ सक्कदे काउं
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 245
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/5
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द्रव्य और पर्याय में भेद और अभेद की आवश्यकता :
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि द्रव्य की अनुभूति हमें गुण और पर्याय के माध्यम से ही होती है। द्रव्य वस्तु का सत्ता पक्ष है एवं गुण और पर्याय उसके अभिव्यक्ति के पक्ष हैं। सामान्य व्यक्ति के लिए विशुद्ध द्रव्य को जानना और बता पाना दोनों ही संभव नहीं है। गुण और पर्यायों के माध्यम से ही द्रव्य को जाना जाता है। गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है। द्रव्य की अभिव्यक्ति गुण और और पर्याय के माध्यम से ही होने से द्रव्य के बोध के लिए गुण और पर्याय की आवश्यकता है। संसार में जो भी प्रतीति का विषय है वह गुण और पर्याय ही है। अतः द्रव्य की प्रतीति के लिए गुण और पर्याय की आवश्यकता है। यह सत्य है कि द्रव्य के अभाव में गुण और पर्याय नहीं होते हैं। किन्तु लोक व्यवहार अमूर्त द्रव्य के आधार पर नहीं होता है। अपितु उसके गुण और पर्याय के आधार पर ही होता है। संज्ञा या नामकरण के लिए भी द्रव्य के गुण और पर्याय को मानना आवश्यक है। क्योंकि नामकरण गुण या पर्याय के आधार पर ही होता है। मात्र यही नहीं द्रव्य इन्द्रियग्राह्य नहीं होता है। उसके गुणपर्याय ही इन्द्रियग्राह्य होते हैं। अतः द्रव्य गुण एवं पर्याय रहित होगा तो वह निरपेक्ष होगा। निरपेक्ष सत्ता अवाच्य होगी, जबकि लोक व्यवहार वाच्य के आधार पर ही होता है।
द्रव्य का प्रत्यक्ष उसके गुण और पर्याय के माध्यम से ही होता है। यदि द्रव्य की गुण और पर्याय को छोड़ दिया जाय तो द्रव्य का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। क्योंकि गुण और पर्याय ही हमारे इन्द्रियों के विषय बनते हैं और उनके आधार पर ही हम द्रव्य की कल्पना करते हैं। जैसे बिजली के तारों में रहे हुए विद्युतावेश को देखा नहीं जा सकता है, लेकिन उसकी गतिविधियों के माध्यम से उसका बोध हो सकता है। उसी तरह गुण और पर्याय के माध्यम से ही द्रव्य का बोध होता है और द्रव्य अपनी अभिव्यक्ति गुण और पर्याय के माध्यम से ही होता है।
द्रव्य सामान्य है और गुण विशेष है। सामान्य की अनुभूति विशेषों में रही हुई एकरूपता के कारण ही होती है और यह एकरूपता गुण और पर्याय के कारण होती
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है। अतः द्रव्य के बोध, अनुभूति और अभिव्यक्ति के लिए गुण और पर्यायों की आवश्यकता है। प्रत्येक द्रव्य के अपने-अपने विशिष्ट गुण और उनकी विशिष्ट अवस्थाएं (पर्यायें) होती हैं और वही द्रव्य का बोध कराती हैं । अतः द्रव्य की अनुभूति, बोध, अभिव्यक्ति और उसका अर्थक्रियाकारित्व गुण और पर्याय के माध्यम से ही संभव है। इससे यह सिद्ध होता है कि द्रव्य की सत्ता को सिद्ध करने के लिए और उसे मानने के लिए अथवा उसकी शक्ति के अभिव्यक्ति के लिए गुण और पर्यायों की अवधारणा आवश्यक है ।
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जहाँ वेदान्त ने द्रव्य ( अद्वयब्रह्म) को स्वीकार करके जगत को मिथ्या कहा वहीं उसके विरोध में बौद्धदर्शन ने पर्याय (अवस्थान्तरण) को ही स्वीकार करके द्रव्य की सत्ता का ही निषेध कर दिया है । उपाध्याय यशोविजयजी के मत में ये दोनों ही एकांगी हैं। द्रव्य की सत्ता के लिए गुण और पर्याय और गुण एवं पर्याय की सत्ता के लिए द्रव्य की आवश्यकता है। यही जैनदर्शन का मूलमंत्र है ।
इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि द्रव्य का गुण और पर्यायों से एकान्तभेद और एकान्त अभेद मानना संभव नहीं है । द्रव्य का गुण और पर्यायों से एकान्त भेद मानने पर द्रव्य निरपेक्ष हो जावेगा और उनमें एकान्त अभेद मानने पर द्रव्य से भिन्न गुण और पर्याय की सत्ता का ही निषेध हो जावेगा। अतः द्रव्य गुण और पर्याय में परस्पर सापेक्ष रूप से भेद और अभेद दोनों मानना आवश्यक है।
क्या गुण की भी पर्याय होती है ?
दिगम्बर संप्रदाय के अनुसार जिस प्रकार पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति द्रव्य में है, उसी प्रकार पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति गुण में भी हैं द्रव्य की तरह गुण भी शक्ति रूप है । इस दृष्टि से पर्याय के द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय के रूप में दो भेद हैं। द्रव्य का रूपान्तर - परिवर्तन द्रव्यपर्याय है और गुणों का
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रूपान्तरण–परिवर्तन गुणपर्याय है।1353 जिस प्रकार जीवद्रव्य के नर, नारक, आदि पर्यायें द्रव्यपर्याय हैं, उसी प्रकार एक परमाणु में दो, तीन इत्यादि अनेक परमाणु मिलकर स्कन्धरूप होना भी पुद्गलद्रव्य की द्रव्य पर्याय है।किन्तु मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानगुण की पर्याय है। रक्त, पीत आदि रूप गुण की पर्याय हैं।1954 इसी प्रकार सुरभि, दुरभि आदि गन्ध गुण की, मधुर, लवण आदि रस गुण की, कर्कश, स्निग्ध आदि स्पर्श गुण की पर्याय हैं।
श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित 'प्रवचनसार' नामक ग्रन्थ के ज्ञेयतत्त्वाधिकार के 13वी गाथा और उस पर अमृतचंद्राचार्यकृत टीका में निम्नानुसार द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय का विवेचन उपलब्ध होता है। 1355
___पदार्थ द्रव्यमय होता है और द्रव्य गुणमय होता है। द्रव्य और गुण दोनों की पर्याय होती है। द्रव्यपर्याय के समानजातीय और असमानजातीय के रूप में दो भेद हैं। द्वयणुक-त्र्यणुक आदि स्कन्ध मात्र पुद्गल द्रव्यजन्य होने से समानजातीय पर्याय हैं। जीव और पुद्गल मिलकर बने नर-नारकादि पर्याय असमानजातीय पर्याय है। इसी प्रकार गुण पर्याय के भी स्वभाव और विभाव रूप दो भेद हैं। द्रव्य के अगुरूलघुगुण की षट्गुण हानि-वृद्धि से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें स्वभावगुण पर्याय हैं। ज्ञानादि और रूपादि गुणों की तरतमता से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें विभावगुणपर्याय हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार आगम में गुणपर्याय को पर्याय से भिन्न तत्त्व के रूप में प्रतिपादित नहीं किया गया है। इसलिए पर्याय के दो भेद करके गुण को भी द्रव्य की तरह पर्यायों को प्राप्त करने वाली शक्ति के रूप में व्याख्यायित करना निर्दोषमार्ग नहीं है। वस्तुतः गुणपर्याय से भिन्न तत्त्व नहीं है जिससे उसे द्रव्य
1353 कोईक दिगम्बरानुसारी-शक्तिरूप गुण भाषइ छइ, जे माटइं-ते इम कहइ छइ.
जे "जिम द्रव्यपर्यायनु कारण द्रव्य, तिम गुणपर्यायर्नु कारण गुण, द्रव्यपर्याय
द्रव्यनो अन्यथाभाव, ... गुणपर्याय = गुणनो अन्यथाभाव..........द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/10 का टब्बा 1354 आलापपद्धति, सू. 20, 24, 21, 25 1355 अत्थो खलु दव्वमओ, दव्वाणि गुणप्पगाराणि भणिदाणि ।
तेहिं पुणो पज्जाया, पज्जयमूढा ही परसमय । .......... - प्रवचनसार, गा. 93 और उसकी अमृतचंद्राचार्यकृत टीका।
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की तरह आधार बनाकर शक्तिरूप मानें। यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरण के तृतीय खण्ड की 10 वीं, 11 वी, 12 वीं, 13 वीं 14 वीं और 15 वीं गाथाओं को उद्धृत करके कहा है कि गुण पर्याय से पृथक् अन्य तत्त्व नहीं है। जो गुण है वही पर्याय है और जो पर्याय है वही गुण है। केवल सहभावी और क्रमभावी लक्षण की अपेक्षा से कथंचित भेद परिलक्षित होता है।356 सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार परिगमन, पर्याय, अनेककरण और गुण समानार्थक पर्यायवाची शब्द हैं। वस्तु को भिन्न-भिन्न रूप में परिणत करने वाली पर्याय है और वस्तु को अनेकरूप करने वाला गुण है। इस तरह गुण और पर्याय दोनों तुल्यार्थक ही हैं। 'गुणकोस्वतन्त्रतत्त्व नहीं कहा जाता है। भगवान की देशना पर्यायार्थिकनय की है। गुणार्थिकनय की नहीं है।1357
इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी1358 लिखते हैं 'अनेककरण' पर्याय और गुण दोनों का लक्षण है। क्रमभावित्व की तरह अनेककरण भी पर्याय का लक्षण है। नर-नारक आदि पर्यायें जीव को अनेक करती है। यथायह जीव नर है, यह जीव नारक है, यह जीव देव है इत्यादि। विवक्षित जीवद्रव्य तो एक ही होता है। इसी प्रकार पर्याय की तरह गुण भी जीव को अनेक करता है। यथा- ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा इत्यादि। इसलिए जो गुण है वह पर्याय ही है तथा जो पर्याय है वह गुण ही है। पुनः व्यवहार में और आगम में जिस प्रकार पर्याय की प्रसिद्धि है उस प्रकार गुण की प्रसिद्धि नहीं है। क्योंकि भगवान की देशना द्रव्य–पर्याय की है, न कि द्रव्यगुण की। सत्ता का विवेचन गुणार्थिक नय से नहीं होता है अपितु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से होता है।
1356 पर्यायथी गुण भिन्न न भाखीओ, सम्मति ग्रंथि विगति रे।
जेहनो भेद विवक्षावशथी, ते किम कहिइ शक्तिं रे।। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/11
1357 परिगमणं पज्जाओ, अनेगकरणं गुणत्ति एगट्ठा।
तह वि ण गुणत्ति भण्णई, पज्जवणयदेसणा जम्हा।। ......... सन्मतिप्रकरण, गा. 3/12 1358 जिम क्रमभविपणु पर्याय- लक्षण छइ, तिम अनेक करवू, ते पणि पर्याय- लक्षण छइ, द्रव्य तो एक ज छइ, ज्ञान-दर्शनादिक भेद कहइ छइ, ते पर्यायज छइ, पणि गुण न कहिइं - ..
........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/11 का टब्बा
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यद्यपि गुण और पर्याय में वास्तविक भेद नहीं है, तथापि भेददृष्टि की कल्पना के आधार पर द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसा अलग-अलग व्यवहार किया जाता है। जैसे 'तेल की धारा गिरती है' ऐसा षष्ठ्यन्त शब्द जोड़कर भेददृष्टि से व्यवहार किया जाता है। परन्तु तेल और तेल की धारा में वास्तविक भेद नहीं होता है। तेल स्वयं ही धारा रूप होकर गिरता है। उसी प्रकार घट का जो रूप पहले कृष्ण था वही रूप अग्नि में तपकर रक्त बनता है। आत्मा का जो ज्ञानगुण पहले मतिरूप था, वही श्रुतरूप, अवधिरूप बनता है। अतः परमार्थ की दृष्टि से रूप आदि गुण में और उसके कृष्ण, रक्त आदि पर्यायों में तथा ज्ञानादि गुण और उसके मति, श्रुत आदि पर्यायों में कोई भेद नहीं है। परन्तु रूपादि, ज्ञानादि अपने-अपने द्रव्यों में सदा रहने से गुण कहे जाते हैं। जबकि कृष्ण, रक्त, मति, श्रुत आदि बदलते रहने से पर्याय कहलाते हैं। इस प्रकार द्रव्य के एक ही धर्म को सहभावी की अपेक्षा से गुण और क्रमभावी की अपेक्षा से पर्याय कहकर उपचार से भेद किया जाता है। परन्तु गुण और पर्याय में वास्तविक अथवा पारमार्थिक भेद नहीं है।1359
इस संसार में छह द्रव्य हैं। प्रतिसमय द्रव्य का परिवर्तन अथवा रूपान्तरण होना अथवा नवीन-नवीन स्वरूप में बदलना पर्याय है। द्रव्य और पर्याय ये दो ही तत्त्व हैं। द्रव्य बदलता नहीं है। वह द्रव्यस्वरूप से सदा ध्रुव ही रहता है। फिर प्रश्न उठता है कि परिवर्तन किसका होता है ? जबाब में कहा जाता है कि गुणों का परिवर्तन होता है। इस प्रकार गुण और गुणों का परिवर्तन ये दो भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं है। परन्तु गुण और गुणों के परिवर्तन (पर्याय) में षष्ठी विभक्ति लगाकर उपचार से भेद किया जाता है।
यदि संसार में द्रव्य और पर्याय से भिन्न तीसरा 'गुण' नामक कोई वास्तविक पदार्थ होता तो सर्वज्ञ वीतराग भगवंतो द्वारा उपदिष्ठ आगमों में द्रव्यार्थिकनय और
1359 तिम सहभावी-क्रमभावी कहीनइं गुणपर्याय भिन्न कही देखाडया, पणि परमार्थइं भिन्न नथी'
इम जेहनो भेद उपचरित छई, ते शक्ति किम कहिइं ..................-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/11 का टब्बा
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पर्यायार्थिकनय की तरह गुणार्थिकनय का भी प्रतिपादन प्राप्त होना चाहिए था। 360 परन्तु जैनशास्त्रों में गुणार्थिकनय का उल्लेख सर्वथा अनुपलब्ध है। एतदर्थ जैसे गुणार्थिक नामक तीसरा नय नहीं है उसी प्रकार गुण नामक तीसरा पदार्थ भी परमार्थ से नहीं है। केवल उपचार से गुण और पर्याय ऐसा भेद किया जाता है। सन्मतिप्रकरण में भी इसी बात की पुष्टि की गई है कि यदि भगवान की दृष्टि में गुण, पर्याय से भिन्न द्रव्य का कोई धर्म होता है तो वे पर्यायास्तिकनय के भांति गुणास्तिकनय की भी प्ररूपणा करते।1381 इसलिए गुण नामक कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं
भगवान ने आगम सूत्रों में गौतम आदि गणधरों के समक्ष गुण को 'पर्याय' ऐसी संज्ञा से ही सम्बोधित किया है। कहीं भी रूपगुण, रसगुण, गंधगुण और स्पर्शगुण कहकर वर्ण आदि के साथ गुण शब्द को नहीं लगाया अपितु वर्ण आदि के साथ ‘पर्याय' शब्द लगाकर वण्णपज्जवा, गंधपज्जवा आदि शब्दों का ही प्रयोग किया है। इसलिए रूपादि गुणों को गुण न कहकर पर्याय ही कहना चाहिए।362_
यहाँ कोई व्यक्ति ऐसी शंका उपस्थित कर सकता है कि आगमों में 'एकगुणकालए' आदि कहकर काला आदि वर्गों के विषय में एकगुण काला, द्विगुण काला, अनन्तगुण काला आदि जो व्यवहार है, उसमें 'गुण' का प्रतिपादन हुआ है जो पर्याय के अर्थ से भिन्न है। यशोविजयजी इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं एकगुणकाला, द्विगुणकाला आदि में जो 'गुण' शब्द प्रयुक्त हुआ है वह गणितशास्त्र के गुणाकार, भागाकार आदि विषय सम्बन्धी गुणाकार को सूचित करता
1360 जो गुण त्रीजो होइ पदारथ, तो त्रीजो नय लहिइ रे।
द्रव्यारथ पर्यायारथ नय, दोइ ज सुत्रिं कहिइं रे।। ..... .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/12 1361 दो उण णया भगवया दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठिया नियया।
एत्तो य गुणविसेसे गुणद्वियणओ वि जुज्जतो।। .................. सन्मतिप्रकरण, गा. 3/10 1362 अ) जं च पुण भगवया, तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं।
पज्जवसण्णा णियया, वागरिया तेण पज्जाया।। ................... सन्मतिप्रकरण, गा. 3/11 ब) रूपादिकनई गुण कही सूत्रिं बोल्या नथी, पणि वण्णपज्जवा, गंधपज्जवा इत्यादिक
पयार्यशब्दई बोलाव्या छइ, ते माटिं-ते पर्याय कहिइं, पणि गुण नकहिई ...........-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/12 का टब्बा
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है। यहाँ गुण शब्द कृष्णादि वर्गों की तरतमता को अर्थात् गुणाकार रूप पर्याय विशेष को सूचित करनेवाला संख्यावाची शब्द है न कि गुण नामक किसी स्वतंत्र पदार्थ को सूचित करनेवाला शब्द है।1363 यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरण की गाथा 3/14 को उद्धृत किया है। तदानुसार भी रूपादि के बोधक गुण शब्द के अतिरिक्त जो भी एकगुणकाला आदि में गुण शब्द है वह 'गुण' नामक ज्ञेयविषय का बोधक न होकर पर्यायों रूप विशेषों की संख्या का बोधक ही सिद्ध होता है।1364 अतएव गुणाकार अर्थ जिसको सूचित करता है वह तरमतारूप पर्याय ही सिद्ध होने से पर्याय से भिन्न कोई गुणरूप द्रव्यधर्म सिद्ध नहीं होता है।
इसी सन्मतिप्रकरण'365 में आगे व्यवहारिक उदाहरण के माध्यम से समझाया है कि गुण और पर्याय दोनों भिन्नार्थक नहीं हैं। 'ये दस वस्तुएं हैं' 'यह दसगुणी है' ऐसा सामान्यतया व्यवहार किया जाता है। यहाँ व्यवहार में गुण शब्द आता है किन्तु यहां यह 'दस' की संख्या का वाचक है। जहाँ पहले व्यवहार में दसत्व संख्या के लिए दस शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ दूसरे व्यवहार में एक ही धर्मी के परिमाण का तारतम्य बताने के लिए गुण शब्द के साथ दस शब्द आया है। इसी प्रकार एकगुणकाला, द्विगुणकाला इत्यादि में प्रयुक्त गुण शब्द भी धर्मीगत धर्म के परिमाण का तारतम्य ही बताने से पर्याय शब्द के अर्थ का बोधक होने के अतिरिक्त अन्य किसी अर्थ का बोधक नहीं है। इस प्रकार तार्किक प्रतिभा के धनी आचार्य सिद्धसेन ने तर्क और आगम दोनों से गुण और पर्याय की अभिन्नता को सिद्ध किया है।
सम्मतिप्रकरण के तृतीय खण्ड के 10 से 15 तक की गाथाओं (जिनको यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के गाथा 2/12 के टब्बे में उद्धृत किया है} के विवेचन के बाद पं. सुखलालजी ने निष्कर्ष के रूप में यही लिखा है -ऊपर के
1363 अनइं -"एकगणकालए" इत्यादिक ठामि जे गण शब्द छइं. ते गणितशास्त्रसिद्ध पर्याय विशेष
संख्यावाची छइं, पणि ते वचन गुणास्तिकनय विषयवाची नथी, .......... वही, गा. 2/12 का टब्बा 1364 गुणसद्दमन्तरेण वि तं तु पज्जवविसेससंखाणं।
सिज्झइ नवरं संखाण-सत्थधम्मो ण य गुणोति।। . ........................ सन्मतिप्रकरण, गा. 3/14 1365 जह दससु दसगुणम्मि य एकम्मि दसत्तणं समं चेव अहियम्मि वि गुणसद्दे, तहेव एयंपि दट्ठव्वं - ........
वही, गा. 3/15
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विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यगत सभी धर्मों को जैनशास्त्र में पर्याय कहा है और ये पर्यायें भी गुण शब्द की ही प्रतिपादक हैं। 360
इसप्रकार परमार्थ दृष्टि से गुण पर्याय से भिन्न तत्त्व नहीं है। परन्तु सहभावी और क्रमभावी लक्षण के आधार पर 'गुण और पर्याय' ऐसा औपचारिक भेद किया जाता है। गुण ही पर्यायरूप बनता है। अतः गुण में द्रव्य की तरह पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति नहीं है। ‘पर्यायान् प्राप्नोति इति द्रव्यम्' –यह व्याख्या द्रव्य में ही घटित होती है। गुण पर्यायों का आधाररूप स्वतंत्र पदार्थ नहीं है बल्कि गुण स्वयं ही पर्याय के रूप में बदलता है। इसलिए गुण पर्यायों को प्राप्त करनेवाला शक्तिरूप पदार्थ नहीं है।
पुनः तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है –'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं और स्वयं निर्गुण होते हैं। यदि गुण में पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति विद्यमान है तो गुण भी द्रव्य की तरह शक्तिरूप गुणवाला पदार्थ हो जायेगा तथा दोनों शक्तिरूप पदार्थ हैं तो द्रव्य का लक्षण ‘गुणपर्यायवत्' और गुण का लक्षण 'निर्गुण' घटित नहीं होगा।367
इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है –गुण पर्यायों का दल अर्थात् पर्यायों को प्राप्त करने वाला तत्त्व हो तो द्रव्य क्या करेगा ? पर्यायों को प्राप्त करने का कार्य यदि गुण ही कर लेगा तो फिर द्रव्य निरर्थक सिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार गुण और पर्याय ये दो तत्त्व ही सिद्ध होंगे और द्रव्य नामक तीसरे तत्त्व की सिद्धि ही नहीं होगी। इसलिए गुणों के परिणमन को गुणपर्याय कहना केवल काल्पनिक है, वास्तविक नहीं है। 1368
1366 सन्मतिप्रकारण का विवेचन -पं. सुखलालजी, पृ. 66 1367 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, -धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 91 1368 जो गुण, दल पर्यवर्नु होवइ, तो द्रव्यइ स्युं कीजइ रे।
गुण-परिणाम पटंतर केवल, गुण-पर्याय कही जइ रे ।। ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/13
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यदि कोई दिगम्बर मत का अनुयायी ऐसा कहे कि पर्यायात्मक कार्य द्रव्य पर्याय और गुण-पर्याय के रूप में भिन्न-भिन्न है। मिट्टी से जो पिंड-स्थास-कोश आदि बनते हैं वे द्रव्यपर्याय है और रूप के श्याम, रक्त आदि गुणपर्याय हैं। इस प्रकार पर्याय रूप कार्य की द्विविधता होने से कारण की भी द्रव्य और गुण के रूप में द्विविधता स्वतः सिद्ध हो जाती है। अतः द्रव्य और गुण ये दो शक्तिरूप तत्त्व हैं।
ग्रन्थकार यशोविजयजी इस बात का निरसन करते हुए कहते हैं –कार्यभेद के सिद्ध होने पर ही कारण भेद सिद्ध होता है। द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय नामक कार्यभेद के सिद्ध होने पर ही द्रव्य-गुण नामक कारणभेद सिद्ध होगा। कार्य के भेद का निश्चित हुए बिना कारण के भेद मान्य नहीं होते हैं तथा कारणभेद को सिद्ध होने के लिए पहले कार्यभेद का सिद्ध होना जरूरी है। इस प्रकार दोनों अन्योन्य है। कार्यभेद और कारणभेद दोनों की सिद्धि एक दूसरे पर निर्भर होने से वस्तुस्थिति सिद्ध नहीं होती है। अतः यहाँ अन्योन्याश्रय दूषण लगता है।1389
इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी भी सिद्धसेनदिवाकर का अनुसरण करते हुए गुण और पर्याय में अभेद का ही समर्थन किया है।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन आगमों में विशेषता के अर्थ में 'गुण' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। आचार्य मधुकरमुनिजी द्वारा संपादित उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है –“प्राचीन युग में द्रव्य और पर्याय, ये दो शब्द ही प्रचलित थे। गुण शब्द दार्शनिक युग में पर्याय से कुछ भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है, कई आगम ग्रन्थों में गुण को पर्याय का ही एक भेद माना गया है, इसलिए कतिपय उत्तरवर्ती दार्शनिक विद्वानों ने गुण और पर्याय की अभिन्नता का समर्थन किया है। जो भी हो, उत्तराध्ययन में गुण का लक्षण पर्याय से पृथक् किया है।1370" जैसे जो किसी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण हैं तथा द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहने वाले पर्याय
1369 जे माटिं-कार्यमांहि कारणशब्दनो प्रवेश छइ, तेणइ-कारणभेदइं कार्यभेद सिद्ध थाइ,
अनइं कार्यभेद सिद्ध थयो होइ, तो कारणभेद सिद्ध थाइ, ए अन्योन्याश्रय नामइं दूषण उपजइ ......
... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/13 का टब्बा 1370 उत्तराध्ययनसूत्र – सं. मधुकरमुनिजी, पृ. 468
................ द्रव
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हैं। परन्तु द्रव्य की परिभाषा “गुणाणमासओ दव्वं में पर्याय का उल्लेख ही नहीं किया है। 1371 उमास्वाति1372 और कुन्दकुन्द373 ने द्रव्य के लक्षण में गुण और पर्याय दोनों को सम्मिलित करके गुण और पर्याय में भेद को माना है। सर्वार्थसिद्धिकार ने भी 'अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिनः पर्यायाः' कहकर गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है।1374 जबकि आचार्य अकलंक गुण और पर्याय में भेदाभेद को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार 'गुण' जैनमत की संज्ञा नहीं है। गुणसंज्ञा अन्यमत वालों की है। जैनमत में तो द्रव्य और पर्याय ये दो ही प्रसिद्ध हैं। इसलिए गुणार्थिक नामक नय भी नहीं है। :... वैशेषिक दर्शन गुण को द्रव्य से एकान्त भिन्न मानते हैं। परन्तु द्रव्य से भिन्न कोई गुण नामक पदार्थ उपलब्ध नहीं होता है। एतदर्थ मतान्तर की निवृत्ति के लिए द्रव्य के लक्षण में पर्याय के साथ गुण यह विशेषण दिया है।1375
पुद्गल द्रव्य है। स्पर्श, रूपादि उसके गुण है। स्निग्ध, कर्कश, नील, पीला आदि पुद्गलद्रव्य की रूप अथवा स्पर्श रूप पर्यायें हैं। एक ही वस्तु जब स्पर्शेन्द्रिय का विषय बनती है तब स्पर्श बन जाती है और वही वस्तु जब चक्षुरिन्द्रिय का विषय बनती है तो रूप बन जाती है। यदि स्पर्शादि गुणों से उसके स्निग्ध आदि पर्यायें भिन्न होती तो संभिन्नस्रोतोपलब्धि के समय एक ही इन्द्रिय से संपूर्ण विषयों का ज्ञान कैसे संभव हो पाता है तथा एकेन्द्रिय आदि जीव अपना व्यवहार कैसे चलाते हैं ? अतः गुण और पर्याय को व्यवहार के स्तर पर भिन्न माना जा सकता है। निश्चयतः वे दोनों अभिन्न हैं।1376 ऐसा आगमिक मत ही यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति
1371 गुणाणमासओ दवं एगदव्वस्स्यिा गुणा।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवो - उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6 1372 गुणपर्यायवत् द्रव्यम् - तत्त्वार्थसूत्र, 5/38 1373 दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवसंजुतं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू । ...........पंचास्तिकाय, गा. 10 1374 सर्वार्थसिद्धि, सूत्र 28/600 1375 राजवार्तिक, सूत्र 5/38/2, 3, 4 1376 आर्हतीदृष्टि, समणी मंगलप्रज्ञा, पृ. 105
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'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में मान्य किया है। उनके अनुसार गुण की पर्याय नहीं होती है, गुण स्वयं पर्याय रूप ही है।
द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर अन्य दर्शनों की दृष्टि और जैनदृष्टि में अंतर -
नैयायिक और वैशेषिक दर्शन भेदवादी हैं। वे कार्य-कारण में गुण-गुणी में और द्रव्य–पर्याय (कर्म) में एकान्त भेद को स्वीकार करते हैं। उनकी मान्यतानुसार द्रव्य प्रथम समय में निर्गुण और निष्क्रिय होता है।1377 द्रव्य आधार है और गुण आधेय हैं। आधारभूत द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीय समय में 'द्रव्य से अत्यन्त भिन्न गुण और पर्याय (कार्य) उत्पन्न होते हैं। समवाय सम्बन्ध नामक पदार्थ गुण और गुणी (द्रव्य) को जोड़ने का कार्य करता है। गुण और पर्याय (कर्म) द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय की उत्पत्ति युगपत् मान लेने पर कार्य-कारणभाव घटित नहीं होगा। इसका कारण यह है कि कारण सदा पूर्वसमयवर्ती होता है और कार्य सदा पश्चातसमयवर्ती होता है।1378 जैसे मिट्टी-घट
और तन्तु-पट में पूर्वापर समयवर्तिता होने पर ही कार्य-कारणभाव घटित होगा। कारणकाल में कार्य अविद्यमान रहता है तथा बाद में सामग्री का योग प्राप्त होने पर कार्य उत्पन्न होता है। यदि मिट्टी में घट रूप कार्य सत् है तो फिर उसे उत्पन्न करने की और दंडादि सामग्रियों की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिए कारण में कार्य असत् है। इस प्रकार नैयायिक वैशेषिक दर्शन असत्कार्यवाद के समर्थक है और इसी आधार पर द्रव्य और गुण में या द्रव्य और कर्म में भेद सिद्ध करते है।
जैनदर्शन द्रव्य-गुण-पर्याय में एकान्त भिन्नता को अस्वीकार करके कथंचित् भिन्नता का समर्थन करता है। द्रव्य गुण और पर्यायोंवाला है। द्रव्य के सहभावीधर्म
1377 उत्पन्नक्षणावच्छिन्नं द्रव्यं निर्गुणं निष्क्रिय तिष्टति - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 144 1378 कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम् - वही, पृ. 144
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गुण है तथा क्रमभावी धर्म पर्याय हैं। इस प्रकार लक्षण रूप भेद होने पर भी वस्तु स्वरूप से गुण और गुणी में अभेद हैं। 1379 जो गुण के प्रदेश हैं, वे ही गुणी के प्रदेश है और जो गुणी के प्रदेश हैं वे ही गुण के प्रदेश है।1380 'द्रव्य' और 'गुण' ऐसी संज्ञा की अपेक्षा से भेद परिलक्षित होने पर भी द्रव्य-गुण में सत्तागत भेद नहीं है। यदि द्रव्य और गुण को एकान्त भिन्न माना जाय तो जैन मतानुसार द्रव्य के अभाव का दोष आता है।1381 गुण द्रव्य के आश्रित होते हैं। यदि द्रव्य गुण से सर्वथा भिन्न है तो गुण किसी और के आश्रित होंगे और वह भी यदि गुण से एकांत भिन्न होगा तो द्रव्य और गुण दोनों असम्बन्धित होंगे। पुनः एकान्त भेदवाद को स्वीकार करने पर बिना गुणों के द्रव्य की शून्य तथा निराधार होने से गुणों की शून्यता का प्रसंग उपस्थित होगा।
जैनदर्शन कार्य-कारण के विषय में सतासत्कार्यवादी है। कारण में कार्य को सर्वथा असत् मानने पर खरविषाण की तरह कारण से कार्य की उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती है।1382 इसलिए द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कारण में कार्य सत् और कारण से अभिन्न है।
सांख्यदर्शन अभेदवाद का पोषक है। इस दर्शन के अभिमत में कार्य-कारण में तथा द्रव्य, गुण एवं पर्यायों में पूर्वापरभाव नहीं होता है। द्रव्य अपने गुण–पर्यायों के साथ ही उत्पन्न होता है। यद्यपि मृत्तिका से घटपर्याय बाद में उत्पन्न होता है परन्तु पिंडाकार रूप पर्याय और श्यामता रूप गुण तो सदा मृद्रव्य के साथ ही होते हैं। 1383 इसलिए मिट्टी और उसके आकार और गुणों में कोई पूर्वापरभाव दृष्टिगोचर
1379 द्रव्यं च लक्ष्यलक्षण भावादिभ्य ......... भूतमेवेति मंतव्यम् .... – पंचास्तिकाय, गा.9 की टीका 1380 प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गा. 98 1381 णिच्चं गुणगुणिभेये दव्वाभावं अणंतियं अहवा. .............. माइल्लधवलकृत नयचक्र, गा. 47 का पूर्वार्ध 1382 जो अभेद नहीं एहोनो जी, तो कारय किम होइ ?
अछती वस्तु न नीपजइजी, शशविषाण परि जोई। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/7 1383 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 145
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नहीं होने से कार्य-कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है अर्थात् कारण में कार्य सत् है। कार्य अभिव्यक्त कारण है।1384 इसलिए कार्य-कारण में सदा भेद है। कार्य-कारण भाव में दोनों का सह अस्तित्व भी अपेक्षाभेद से जैनों का मान्य है।
शांकर वेदान्त दर्शन -
ब्रह्माद्वैतवाद सर्वथा अभेदवादी दर्शन है। सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब कुछ मिथ्या है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" -यह इस दर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है। संसार ब्रह्म की ही पर्याय है। परन्तु लोगों की दृष्टि में ब्रह्म दिखाई नहीं देकर उसकी पर्याय (संसार) ही दिखाई देता है।1385 जबकि संसार प्रतीति का विषय होने से मिथ्या है।
यह दर्शन भी सांख्य की तरह सत्कार्यवाद को मानता है, अर्थात् कार्य-कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है। अतः कार्यकारण में अभिन्नता भी है। अतः द्रव्य गुण और पर्याय अभिन्न है।
शांकर वेदान्त मूलतः अद्वैत्वादी दर्शन है और अद्वैत्वादी दर्शन होने से द्रव्य से पृथक् न कोई गुण है और न पर्याय है। व्यवहार की अपेक्षा चाहे हम द्रव्य के गुण एवं पर्याय की कल्पना करें। लेकिन उसके अनुसार द्रव्य ही सत् है तथा गुण और पर्याय की द्रव्य से पृथक् कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं। पारस्परिक सम्बन्ध दो स्वतन्त्र सत्ता में ही हो सकता है। यदि द्रव्य से पृथक् गुण और पर्याय की सत्ता ही नहीं हो तो उनमें पारस्परिक सम्बन्ध का प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता है।
जैनदर्शन को द्रव्य-गुण-पर्याय में सर्वथा भेद की तरह सर्वथा अभेद भी मान्य नहीं है। अपितु कथंचित् अभेद का समर्थक है। जैनमतानुसार द्रव्य आश्रयदाता है और गुण द्रव्य के आश्रित है। इनमें परस्पर आधारआधेय सम्बन्ध है। पुनः सत्ता की
1384 भारतीय दर्शन, पृ. 175 1385 सर्व वै खल्विंद ..... तत्पश्यति कश्चन - छान्दोग्य, 3.14
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अपेक्षा से भेद नहीं होने पर भी संज्ञा, संख्या, लक्षण की अपेक्षा द्रव्यादि तीनों पदार्थ परस्पर भिन्न हैं। 1386 अन्यथा द्रव्य, गुण, पर्याय ऐसा भेद व्यवहार ही संभव नहीं होगा
और ऐसी स्थिति में गुण-गुणी में से कोई एक ही रह पायेगा। यदि केवल गुणी (द्रव्य) ही रहता है तो वह गुणों के अभाव में निःस्वभावी होकर अस्तित्वहीन हो जायेगा तथा गुण भी गुणी के अभाव में निराधार होकर कहाँ आश्रय लेगा।1387 इसलिए द्रव्य मात्र गुण और पर्याय रूप नहीं है तथा गुण–पर्याय भी मात्र द्रव्य नहीं
है।1388
जैनदर्शन सत्कार्यवाद को नहीं मानता है। कारण में कार्य पहले से ही विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए कारण में कार्य पर्यायार्थिकनय से असत् है तथा कारण से भिन्न है। इसलिए कार्य उत्पन्न होता है। जैनदर्शन असत्कार्यवाद और सत्कार्यवाद के मध्य समन्वय प्रस्तुत करता है। द्रव्यार्थिकनय से कार्य कारण में रहता है और पर्यायार्थिकनय से कार्य कारण में नही रहता है। कारण में कार्य अव्यक्त रूप से होने से सत् है और व्यक्त नहीं होने से असत् है।
बौद्धदर्शन - - बौद्धदर्शन क्षणिकवादी दर्शन है और अपने क्षणिकवाद के आधार पर भेदवाद को स्वीकार करता है। उसके अनुसार जगत एक प्रवाहमात्र है। उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन घटित हो रहा है। इस परिवर्तनशील प्रवाह में एकत्व और नित्यता की कल्पना करना उसके अनुसार एक भ्रामक कल्पना है। अतः जैनदर्शन की भाषा में कहें तो बौद्धदर्शन के अनुसार कोई नित्य द्रव्य स्म वस्तु तत्त्व नहीं है। मात्र पर्यायें ही पर्यायें है। जैनदर्शन जिस द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा को स्वीकार
1386 संज्ञा, संख्या लक्षणयी पणि, भेद एहनो जाणी रे .. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/16 1387 यदि गुणा एव द्रव्याभावे निराधारत्वादभावः स्यात् ............. रा.वा 5/2/9/439 1388 तेषामेव गुणानां तैः प्रदेशैः विशिष्टा भिन्न्
. प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, गा. 130
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करता है वहाँ बौद्धदर्शन के अनुसार पर्याय के अतिरिक्त न कोई द्रव्य है और न कोई गुण है। वह पर्याय से पृथक् किसी द्रव्य या गुण को स्वीकार नहीं करता है। संसार पर्यायों के प्रवाह के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। उसके अनुसार पर्याय से पृथक कोई द्रव्य और गुण नहीं होने से उनमें पारस्परिक सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठ सकता है। लेकिन पर्याय भी क्षणिक होने से एक पर्याय का परवर्तिकालीन दूसरी पर्याय से भी सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है। यद्यपि बौद्धदर्शन अपने संततिवाद के आधार पर पूर्व पर्याय का उत्तरपर्याय में रूपान्तरण मानता है। किन्तु यदि दोनों ही पृथक-पृथक् क्षण की अवस्थाएं हैं तो उनमें इस प्रकार का सम्बन्ध घटित नही होता है। जैनाचार्यों ने उसके क्षणिकवाद के आधार पर ही उसके संततिवाद की समालोचना की है और यह बताया है कि पूर्व क्षण का उत्तर क्षण से कोई सम्बन्ध ही नहीं हो सकता है। अतः प्रत्येक पर्याय अपने आप में स्वतंत्र सत्ता है। लेकिन वह क्षणिक है और इसलिए बौद्धदर्शन में द्रव्य और गुण की कोई अवधारणा ही नहीं बन पायी है। उनमें मात्र पर्याय की ही अवधारणा हो सकती है और जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं यदि उसमें द्रव्य और गुण की कोई सत्ता ही नहीं बनती है तो फिर उनमें कोई सम्बन्ध ही नहीं बन सकता है।
उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्टीकरण
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन होने से द्रव्य-गुण-पर्याय में एकान्त भिन्नता या एकान्त अभिन्नता को स्वीकार नहीं करता है। इस दर्शन के अभिमत में द्रव्य-गुण-पर्याय में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता दोनों विद्यमान है। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी प्रस्तुत द्रव्यगुणपर्यायनोरास में जैनदर्शन मान्य द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक भेदाभेद सम्बन्ध को अनेक युक्तियों से सिद्ध करने के लिए प्रयास किया है। सर्वप्रथम द्रव्यादि के कथंचित् भिन्न स्वरूप को समझाने के लिए मोतीमाला का सुन्दर और सटीक उदाहरण प्रस्तुत किया है।
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108 मनकों को एक सूत्र में पिरोकर बनाई गई वस्तु को माला कहा जाता है। उसके एक-एक मनके को मोती कहा जाता है। उस मोती में निहित उज्ज्वलता, कोमलता, वर्तुलाकार आदि उसके गुण (धर्म) हैं। माला, मोती और उज्ज्वलादिगुण भिन्न-भिन्न हैं। यदि तीनों एक और अभिन्न होते तो एक-एक मोती को माला कहना चाहिए। अनेक मनकों के एक सूत्रबद्ध विशिष्ट स्वरूप को ही माला के नाम से अभिहित किया जाता है। एतदर्थ मोती से माला कथंचित् भिन्न है। उज्ज्वलता आदि धर्म है और माला धर्मी है। इन दोनों के मध्य आधार-आधेय सम्बन्ध है। उज्जवलता आदि गुण अनंत है जबकि माला एक है। इसलिए उज्जवलता आदि गुणों से भी माला भिन्न है।
माला-मोती-उज्ज्वलता आदि की तरह ही द्रव्य-गुण-पर्याय भी परस्पर कथंचित् भिन्न है। द्रव्यात्मक शक्ति विशिष्ट गुण एवं पर्यायों से कथंचित् भिन्न है।1389 मृतिका द्रव्य है, पिंड-स्थास-कोश आदि विभिन्न अवस्थाएं उसकी पर्याय है। श्यामवर्ण आदि उसके गुण है। स्थास-कोश आदि पर्यायों का नाश होने पर भी मृतिकाद्रव्य का नाश नहीं होता है। अतः मृदद्रव्य स्थास आदि पर्यायों से भिन्न है। इसी प्रकार श्याम वर्ण आदि गुण आधेय है और मृद्रव्य उसका आधार है। इस आधार-आधेय सम्बन्ध के कारण मृद्रव्य श्यामवर्ण आदि से भिन्न है। जिस प्रकार मोती की माला, मोती और उज्जवलता आदि से कथंचित् भिन्न है उसी प्रकार द्रव्य (सत्ता) अपने गुण एवं पर्यायों से कथंचिद् भिन्न होती है।390 द्रव्य सामान्य है और गुण एवं पर्याय विशेष है। पिंड-स्थास आदि पर्याय और श्यामवर्ण आदि गुण मृद्रव्य से पृथक्-पृथक् आकाश प्रदेशों में दिखाई नहीं देते हैं। जहां मृद्रव्य है वहां ही स्थास आदि पर्यायें तथा श्यामत्व आदि वर्ण दिखाई देते हैं। जैसे मोती की माला, मोती और उज्जवलता एकप्रदेशावगाही है उसी प्रकार द्रव्य अपने
1389 जिम मोती उज्जवलतादिरूपथी, मोतीमाला अलगी रे।
गुण-पर्यायव्यक्तिथी जाणो, द्रव्यशक्ति तिम अलगी रे ।। - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/3 1390 जिम-मोतीनी माला, मोती थकी तथा उज्जवलतादिक धर्मथी अलगी छइंतिम द्रव्यशक्ति गुण पर्याय व्यक्तिथी अलगी छइ -
वही गा. 2/3 का टब्बा
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गुण- पर्यायों में व्याप्त और अनुगत रहने से तीनों एकक्षेत्रावगाही है। अतः परस्पर कथंचित् अभिन्न भी है।
1391
घटादि समस्त द्रव्य सामान्य - विशेष रूप अर्थात् उभयात्मक है । सामान्य दृष्टि से पिंडादि विभिन्न आकारों में 'मिट्टीरूप' सामान्य ही दिखाई देता है तथा विशेष दृष्टि से देखने पर वही द्रव्य पिंड - स्थास - कोश- कुशूल - घट-कपाल आदि भिन्न-भिन्न आकारों (विशेषों) के रूप में दिखाई देता है। इस प्रकार जो सामान्य है वह द्रव्य है और जो विशेष है वे गुण - पर्यायें हैं। 1392 संक्षेप में पदार्थ को सामान्यत्मक दृष्टि से देखने पर द्रव्यात्मक और विशेषात्मक दृष्टि से देखने पर गुणपर्यायात्मक परिलक्षित होता है। पदार्थ को जिस दृष्टि से अथवा जिस विवक्षा से देखा जाता है पदार्थ वैसा ही परिज्ञात होता है। एक विवक्षा से शराव, घट, कुंभ, कलश आदि में मिट्टी सामान्य होने से वह द्रव्य है एवं शराव आदि विशेष होने से वे पर्याय हैं । अन्य विवक्षा से सोने का घट, चांदी का घट, मिट्टी का घट आदि अनेक प्रकारों के घट में निहित घटत्व सामान्य होने से वह द्रव्य है और सोना, चांदी आदि विशेष होने से वे पर्याय हैं। भिन्न-भिन्न अपेक्षा से पदार्थ का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है । अवस्थाओं के बदलने पर भी जो एकरूपता की बुद्धि है, वह सामान्य है । मूलद्रव्य के एक होने पर भी जो बदलने वाली अवस्थाएँ हैं, वे विशेष हैं। 1393 उन्हेंपर्याय कहा जाता हैं ।
1391 तथा एकप्रदेश संबंधई वलगी छइं, इम जाणो
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/3 का टब्बा
मृत्तिकादि सामान्य ज भासइं छइं, विशेष उपयोगइं घटादि विशेष ज भासइं छइं, तिहां सामान्य ते द्रव्यरूप जाणवुं विशेष ते गुणपर्यायरूप जाणवां .. वही, गा. 2/3 का टब्बा
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, - धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 51
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सामान्य भी दो प्रकार का होता हैं1394 –
1. ऊर्ध्वतासामान्य
2. तिर्यक्सामान्य
ऊर्ध्वतासामान्य -
पदार्थगत वह शक्ति जो क्रमशः हो चुकी और होनेवाली समस्त पर्यायों में एकरूप से विद्यमान रहती है, वह ऊर्ध्वतासामान्य शक्ति है। दूसरे शब्दों में कालकृत विभिन्न अवस्थाओं में समाहित द्रव्यविशेष का एकत्व या ध्रुवत्व ऊर्ध्वतासामान्य है। इस ऊर्ध्वतासामान्य को समझाने के लिए ग्रन्थकार ने घट का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे मिट्टी से पिंड-स्थास (रकाबी जैसा गोलाकार) कोश ( ऊंची दीवार से युक्त गोलाकार) कुशूल (कोठी जैसा आकार) घट (नीचे से बड़ा और ऊपर से छोटा आकारवाला) कपाल (घट के फूट जाने से बने टुकड़े) आदि विभिन्न नवीन-नवीन पर्यायों के कालक्रम से उत्पन्न होने पर भी मिट्टी बदलती नहीं है। मिट्टी वही की वही रहती है। यही पिंडादि आकारों का ऊर्ध्वतासामान्य है।1395
इस ऊर्ध्वतासामान्य में द्रव्य एक होता है और उसकी कालक्रम से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें अनेक होती है। इन पर्यायों के बदलने पर भी द्रव्य का स्वरूप बदलता नहीं है। न बदलनेवाले द्रव्य का यह स्वरूप ही ऊर्ध्वतासामान्य है। मनुष्य की अवस्थाएँ बाल्यावस्था, युवावस्था आदि के रूप में बदलने पर भी मनुष्यपना नहीं बदलता है। जीव बार-बार मरकर के देव-नारकी-तिर्यंच-मनुष्य आदि विभिन्न अवस्थाओं को अनेक बार प्राप्त करने पर भी जीवद्रव्य का नाश नहीं होता है। जीव कदापि अजीव के रूप में परिवर्तित नहीं होता है। जीवत्व सदा वैसा का वैसा रहता है। इस प्रकार अपनी विभिन्न पर्यायों में अनुगत रहने वाला द्रव्यत्व ही
1394 ते सामान्य 2 प्रकारइं छइं,
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/4 का टब्बा 1395 उरधता सामान्य शक्ति ते, पूरव अपर गुण करती रे। पिंडकुशूलादिक आकारिं, जिम माटी अणफिरती रे।। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/4
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ऊर्ध्वतासामान्य है। 'वही का वही है' ऐसा अनुगत आकार (अन्वयपन) की प्रतीति जिससे होती है, वह यशोविजयजी की दृष्टि में ऊर्ध्वतासामान्य है।1396
बिना ऊर्ध्वतासामान्य के अनुगताकार (अन्वयपन) अर्थात् 'यह वही मिट्टी है, 'यह वही जीव है' आदि की प्रतीति ही नहीं होगी। मृत्पिण्ड –स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपाल आदि का परस्पर कोई पूर्वापर सम्बन्ध न रहकर प्रत्येक पर्याय स्वतन्त्र पर्याय हो जायेगी। घट में पूरण-गलन रूप पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहने से प्रतिसमय का घट नवीन-नवीन रूप ही प्रतीत होने लग जाएगा। इससे 'यह वही घट है ऐसा व्यवहार भी संभव नहीं हो पायेगा। इस प्रकार सभी विशेष ही हो जाने से तो क्षणिकवादी बौद्धों का मत ही सिद्ध होगा। 1997 परन्तु यह मत युक्ति और अनुभव दोनों से विरूद्ध है। जिस प्रकार एक सूत्र के बिना मणकों की धारा स्थायी नहीं रह सकती है, वृक्षत्व के बिना मूल शाखा, प्रशाखा, फल, पत्र आदि घटित नहीं होते हैं, उसी प्रकार अन्वयी द्रव्य के बिना केवल विशेष पर्यायों का भी कोई अस्तित्व नहीं हो सकता है।
इसलिए घट में प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली विशेष–विशेष पर्यायों में 'यह एक ही घट है ऐसा घटात्मक अन्वयी द्रव्य को तथा पिंड-स्थास आदि विभिन्न अवस्थाओं में 'यह एक ही मिट्टी है ऐसे मृदात्मक अन्वयी द्रव्य को स्वीकारना आवश्यक है। इन दोनों अन्वयी द्रव्य में केवल इतना ही अन्तर है कि घटद्रव्य का जीवनकाल अल्प होने से मृद्रव्य की अपेक्षा से अल्पपर्यायों में व्याप्त है, जबकि मृद्रव्य का जीवनकाल अपेक्षाकृत अधिक होने से मृद्रव्य अधिक पर्यायों में व्याप्त है।1398 इसलिए मृद्रव्य को परऊर्ध्वतासामान्य और घटद्रव्य को अपरऊर्ध्वतासामान्य कहा गया है। मनुष्य और जीव में जीव पर सामान्य है और मनुष्य अपर सामान्य है।
1396 जिहां कालभेदइं-अनुगताकार प्रतीति उपजइ, तिहां उर्ध्वतासामान्य कहिइं - वही. गा.2/5 का
टब्बा 1397 सर्व विशेषरूप थतां क्षणिकवादी बौद्धनुं मत आवइं . - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/4 का टब्बा 1398 ते माटिं घटादिद्रव्य, अनइं तेहनां सामान्य मृदादि द्रव्य अनुभवइं अनुसारइं परस्पर ऊर्ध्वतासामान्य अवश्य मानवां, ..................
.............. वही, गा. 2/4 का टब्बा
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{बाल, युवा, वृद्धावस्था की अपेक्षा से } उपचार प्रधान नैगमनय की अपेक्षा से जो सामान्य है, वही अन्य अपेक्षा से विशेष और जो विशेष है वही अन्य अपेक्षा से सामान्य हो जाता है। परन्तु अभेदप्रधान शुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से सत् रूप अन्तिम परसामान्य ही सामान्य है अर्थात् सत्ता धर्म की अपेक्षा से सदद्वैत्वाद रूप एक ही प्रकार का द्रव्य है | 1399
तिर्यक्सामान्य
भिन्न–भिन्न व्यक्तियों (वस्तुओं) में एकरूपता या एकाकारता रूप जो द्रव्यशक्ति है, वह तिर्यक्सामान्य है । जैसे 'यह भी घट है, 'यह भी घट है' इत्यादि । 1400 जो शक्ति समकालीन और समान आकारवाले, किन्तु भिन्न-भिन्न द्रव्यों से बने पदार्थों में एकाकारता की समान प्रतीति कराती है, वह द्रव्यशक्ति ही तिर्यक्सामान्य है । उदाहरणार्थ सोने से, चाँदी से, ताम्बे से, स्टील से, पीतल से मिट्टी से निर्मित अनेक घटों में घटाकारता के रूप में 'यह भी घट है', 'यह भी घट है' ऐसी समान घटत्व प्रतीति जिस शक्ति से होती है, उस शक्ति को ही तिर्यक्सामान्य कहा गया है। इस सामान्य में एक साथ दृष्टि में आने वाले हजारों घटों को घटत्व के आधार पर समान रूप से देखा जाता है। यहाँ कालभेद नहीं है, किन्तु क्षेत्रभेद हैं। क्योंकि हजारों घटों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है ।
तिर्यक् सामान्य को नहीं मानने पर एक घट दूसरे घट से उतना ही अत्यन्त भिन्न हो जायेगा जितना पट से भिन्न है । जिस प्रकार घट की जलधारण क्रिया पट से नहीं होती है, उसी प्रकार अन्य घट से भी जलधारण क्रिया नहीं हो सकेगी। परन्तु घटत्व सामान्य के कारण एक घट की तरह अन्य - अन्य घट भी जलधारण
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1399
१ इन नर-नारकादि द्रव्य जीवद्रव्यनो पणि विशेष जाणवो, ए सर्व नैमगनयनुं मत शुद्ध संग्रहनयनइं मतइं तो सदद्वैतवादहं एक ज द्रव्य आवइं ते जाणवुं
वही, गा. 2/4 का टब्बा ।
1400 भिन्न विगतिमां रूप एक जो, द्रव्यशक्ति जग दाखइ रे ।
तिर्यक् सामान्य कहिजइ, जिम घट-घट पण राखइ रे ।।
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.2/5
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आदि क्रियाओं को करता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है।1407 इसलिए एक दूसरे घट से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न दोनों हैं। भिन्न-भिन्न परमाणुओं से निर्मित होने के कारण कथंचित् भिन्न है और समान जाति के पदार्थ होने के कारण कथंचित् अभिन्न है। ___उपाध्याय यशोविजयजी ने ऊर्ध्वतासामान्य और तिर्यक्सामान्य में निहित अन्तर को स्पष्ट किया है। जिस सामान्य में देशभेद (क्षेत्रभेद) से भिन्नताकिन्तु आकार की अपेक्षा से एकाकार की प्रतीति होती है, वह तिर्यकसामान्य है और जिस सामान्य में कालभेद से अनुगत आकार की प्रतीति होती है, वह ऊर्ध्वतासामान्य है। 402 तिर्यक्सामान्य विभिन्न क्षेत्र में रहे हुए समकालीन हजारों घटों में एक समान आकारों की प्रतीति कराता है, जबकि ऊर्ध्वतासामान्य कालक्रम से होनेवाली एक मृद्रव्य की पिंड-स्थास-कोश-कुशूल-घट-कपाल आदि भिन्न-भिन्न पर्यायों में मृद्रव्य के अन्वय की प्रतीति कराता है।
सामान्य
तिर्यक्सामान्य एकाकारप्रतीति
ऊर्ध्वतासामान्य
अनुगताकारप्रतीति एक ही द्रव्य की कालक्रम से
होनेवाली अनेक पर्यायों में उपर-उपर सामान्यपने की दृष्टि
भिन्न-भिन्न द्रव्यों से निर्मित एक
आकार
1401 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, -धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 59 1402 देशभेदइं जिहां एकाकार प्रतीति उपजइ, तिहां तिर्यकसामान्य कहिइ जिहां काल भेदई अनुगताकार प्रतीति उपजइ तिहां ऊर्ध्वतासामान्य कहिइं .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/5 का टब्बा
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यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति में ऊर्ध्वतासामान्य के भी पुनः दो भेद किए हैं 1403 समुचितऊर्ध्वतासामान्य
ओघऊर्ध्वतासामान्य
ओघ ऊर्ध्वतासामान्य
यशोविजयजी ने द्रव्य में निहित अपने - अपने सर्व गुण - पर्यायों को प्राप्त करने की सत्तागत शक्ति को ओघशक्ति कहा है 1404 ओघ से तात्पर्य है सामान्य रूप से रहनेवाली ऊर्ध्वतासामान्य नामक शक्ति । प्रत्येक द्रव्य में त्रैकालिक गुण पर्यायों को प्राप्त करने की जो योग्यतारूप सामान्य शक्ति है, वह ओघऊर्ध्वतासामान्य है। मृद्द्रव्य में रही हुई पिंड - स्थास - कोश- कुशूल - घट - कपाल आदि पर्यायों को प्राप्त करने की योग्यता ओघऊर्ध्वतासामान्य है । इसी प्रकार तिल में तेल की, कपास में पट की, बीज में वृक्ष की जो योग्यतारूप शक्ति है, वह ओघशक्ति है।
1403 हिवइ उर्ध्वतासामान्यशक्तिना 2 भेद देखाडइ छइ 1404 शक्तिमात्र ते द्रव्य सर्वनी, गुण पर्यायनी लीजइं रे
!
पिंड-स्थास आदि पर्यायों में मृत्तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । किन्तु कुछ द्रव्यों में कालक्रम से बदलने वाली पर्यायों में (भूत - भावी पर्यायों में ) मूलभूत द्रव्यशक्ति स्पष्ट रूप से परिज्ञात नहीं होती है। जैसे तृण में घृत की शक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती है। यदि गोभुक्ततृणपुंज में घृत की शक्ति नहीं होती तो कालान्तर में क्रमशः उत्पन्न होनेवाली दूध-दही - मक्खन आदि पर्यायों में भी घृत नहीं होता । परन्तु दूध-दही-मक्खन आदि से घृत बनता है। इसलिए तृण में घृत की शक्ति तिरोभाव रूप से अवश्यमेव विद्यमान रहती है।
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का टब्बा द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का टब्बा
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समुचितऊर्ध्वतासामान्य -
कारणभूत द्रव्य में कार्य का अतिशय निकटस्वरूप प्रगट होने की जो विशेष प्रकार की शक्ति पाई जाती है, वह समुचित शक्ति कहलाती है।1405 समुचित का अर्थ है व्यवहार करने योग्य ।1406 जब द्रव्य में कार्य प्रगट होने के लक्षण प्रगट रूप से दिखाई देने लग जाते हैं, तब द्रव्य में रही हुई कार्य प्रगट करने की शक्ति समुचित शक्ति कहलाती है। तृण में रही हुई घृतशक्ति ओघशक्ति है और दूध-दही आदि में रही हुई घृत की शक्ति समुचित शक्ति है। तृण में घृत के कोई बाह्य चिन्ह प्रगट रूप से दिखाई नहीं देने से वह व्यवहार करने योग्य नहीं है। परन्तु दूध-दही आदि में घृत के बाह्य चिन्ह दिखाई देने से वह व्यवहार करने योग्य हैं। इसी प्रकार कपास में पट की शक्ति ओघशक्ति है और तन्तु में पट की शक्ति समुचित शक्ति है। मरीचि के भव में तीर्थंकर होने की योग्यता ओघशक्ति है और महावीर के भव में जन्म से 42 वर्ष तक तीर्थकर होने की योग्यता समुचितशक्ति है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि दूर-दूर कारणों में अर्थात् परंपरा कारणों में रही हुई कार्य की शक्ति जिसमें कार्य प्रगट होने के चिन्ह दिखाई नहीं देते हैं, वह ओघशक्ति है एवं निकटवर्ती कारणों में अर्थात् अनन्तर कारणों में रही हुई कार्यशक्ति जिसमें कार्य प्रगट होने के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं, वह समुचितशक्ति है। 1407
इस ओघशक्ति और समुचितशक्ति को समझाने के लिए यशोविजयजी ने लौकिक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। तृण में घृत की शक्ति विद्यमान है। अन्यथा तृण भक्षण करके गाय जो दूध देती है, उसमें घृत कहाँ से आ सकता है ? इस प्रकार अनुमान प्रमाण से तृण में घृत की शक्ति सिद्ध होने पर भी 'तृण में घृत है' ऐसा
1405 कारणरूप निकट देखीनइं, समुचित शक्ति कहीजइ रे .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का उत्तरार्ध 1406 समुचित कहतां-व्यवहारयोग्य
............. वही गा. 2/6 का टब्बा 1407 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 65
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व्यवहार नहीं किया जाता है। परन्तु यही तृण जब गाय की खुराक बनकर दूध के रूप में परिणत होता है, तब 'दूध में घृत की शक्ति है' ऐसा लोक व्यवहार होता है। अतः दूध में घृत की समुचित शक्ति है।1408
इसी प्रकार भव्यजीव में अचरमावर्तकाल में रही हुई मोक्ष प्राप्ति की शक्ति ओघशक्ति है और चरमावर्तकाल में रही हुई मोक्ष प्राप्ति की शक्ति समुचित शक्ति है।1409 यदि अचरमावर्त में ओघ रूप से मोक्षप्राप्ति की शक्ति नहीं होती तो चरमावर्त में भी मोक्ष प्राप्ति की शक्ति का आविर्भाव नहीं हो सकता था। क्योंकि सर्वथा असत् पदार्थ का आविर्भाव कदापि नहीं होता है। 1410
इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुण और पर्यायों को प्राप्त करने की ओघशक्ति और समुचितशक्ति से युक्त होता है। सुवर्ण द्रव्य में कुंडल-कंगन आदि पर्यायों को, मृद्रव्य में पिंड-स्थास आदि पर्यायों को और जीवद्रव्य में नर-नारकादि पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति रही हुई है। द्रव्य उन-उन पर्यायों का उपादान कारण है। उपादान कारणभूत द्रव्य में ही अपने-अपने गुण-पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति विद्यमान रहती है। दूरतर कारणभूत उपादान में सामान्यशक्ति (ओघशक्ति) रूप योग्यता और निकटतम कारणभूत उपादान में परिपक्वशक्तिरूप (समुचितशक्तिरूप) योग्यता रही हुई है।
इस प्रकार द्रव्य अपने गुण–पर्यायों को प्राप्त करने वाला शक्तिरूप है और गुण–पर्याय द्रव्य में प्रगट अथवा व्यक्त होने से व्यक्तिस्वरूप हैं।1411
1408 पृतनी शक्ति यथा तण भावई जाणी पिण न कहाई रे।
दुग्धादिक भावइ ते जननइं, भाषी चित्त सुहाइ रे।। ............... वही, गा. 2/7 1409 धरम शक्ति प्राणीनइं, पूरव पुद्गलनइं आवर्तइ रे।
ओघइ, समुचित जिम वली कहिइ, छेहलिं आवर्तइ रे।। ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/8 1410 नहीं तो छेहलई पुद्गलपरावर्तइ ते शक्ति न आवइ. "नास्तो विद्यते भाव" । इत्यादि वचनात्
.............. वही, गा. 2/8 का टब्बा 1411 इम शक्तिरूपइं द्रव्य वखाणिउं, हवइ-व्यक्तिरूप गुणपर्याय वखानई छई - .वही, गा. 2/10 का टब्बा
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द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचित भिन्न है :
द्रव्य, गुण और पर्याय के मध्य कथंचित भेद और कथंचित अभेद दोनों हैं। द्रव्य से गुण और द्रव्य से पर्याय एकान्त रूप से भिन्न या अभिन्न नहीं है, अपितु दोनों के मध्य सापेक्ष भेद और अभेद हैं। ज्ञातव्य है कि यह सापेक्ष भेद और अभेद काल्पनिक नहीं होकर पारमार्थिकरूप से विद्यमान है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अनेक युक्तियों से सर्वप्रथम इसी भेद-अभेद को स्पष्ट किया है। यथा -
एक और अनेक :
आधारभूत द्रव्य एक होता है और आधेयरूप गुण और पर्याय अनेक होते हैं।1412 जैसे जीवद्रव्य एक है, किन्तु उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि गुण और उन गुणों की हानि-वृद्धि रूप क्षयोपशमिक भाव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पर्यायें और औदायिकभाव के नर-नारकादि पर्यायें अनेक हैं। विवक्षित एक घट में घटस्वरूप द्रव्य एक है और वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-संस्थान आदि गुण अनेक हैं तथा उन्हीं गुणों के परिवर्तनरूप नील-पीतादि पर्याय अनेक हैं।
आधार-आधेय :
आधार और आधेय सम्बन्ध के आधार पर भी द्रव्य और गुण–पर्याय में भेद है।1413 द्रव्य, गुण और पर्यायों को रखने वाला आधार तत्त्व है जबकि गुण–पर्याय द्रव्य में रहनेवाले आधेय तत्त्व हैं। यदि द्रव्य और गुण-पर्याय में आधार आधेय सम्बन्ध के आधार पर कथंचित भेद नहीं है तो समानाधिकरण के द्वारा बोध होना चाहिए और व्यधिकरण से बोध नहीं होना चाहिए। आत्मा में ज्ञान, घट में रूप,
1412 एक अनेक रूपथी इणि परि, भेद परस्पर भावो रे ...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/14 का पूर्वार्ध 1413 आधारधेयादिक भाविं, इमज भेद मनि ल्हावो रे ............ वही, गा. 2/14 का उत्तरार्ध
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शक्कर में मिठास इत्यादि में प्रथम शब्द में सप्तमी विभक्ति और द्वितीय पद में प्रथमा विभक्ति है। व्यधिकरण रूप से बोध होने से कथंचित भेद है। यह भेद नहीं होता तो आत्मा ही ज्ञान रूप, घट ही घटाकार रूप है। ऐसा समानाधिकरण रूप से बोध होना चाहिए। परन्तु ऐसा बोध नहीं होता है। इसलिए कथंचित भेद अवश्य है।1414 घट-पटादि द्रव्यात्मक पदार्थ आधार के रूप में प्रतीत होते हैं और गुण–पर्याय आधेय के रूप में प्रतीत होते हैं। 1415 नील-पीतादि है ऐसे वाक्योच्चारण में घट–पट द्रव्य सप्तम्यन्त होने से आधाररूप परिलक्षित होते हैं। अतः आधार-आधेय भाव के द्वारा भी द्रव्य से गुण–पर्यायों का कथंचित् भेद सिद्ध होता है।
एकेन्द्रियगोचर और एक से अधिक इन्द्रियगोचर :
___रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादि गुण और उनके नील, पीत आदि 20 उत्तरभेदरूप पर्याय एक-एक इन्द्रिय से ग्राह्य है। जैसे रूप और उसके उत्तरभेद नील, पीतादि एक चक्षुरिन्द्रिय से ही ग्राह्य हैं। रस और उसके उत्तरभेद तिक्त, कटु आदि एक रसनेन्द्रिय से, गन्ध और उसके सुरभि आदि भेद घ्राणेन्द्रिय से और स्पर्श तथा उसके स्निग्ध रूक्ष आदि भेद स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य है। घट-पट आदि द्रव्य चक्षुरिन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय इन दो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य हैं।1416 अंधकार में घटादि स्पर्शनेन्द्रिय से और प्रकाश में चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य है। इस प्रकार गुण-पर्याय एक इन्द्रिय गोचर और द्रव्य द्वीन्द्रियगोचर है। द्रव्य को द्वीन्द्रियगोचर नैयायिकों-वैशेषिकों के अभिमत अनुसार कहा है। जैनदर्शन के अनुसार तो घ्राणेन्द्रिय आदि द्वारा भी द्रव्य ग्राह्य है। अन्यथा 'मैं फूल सूंघता हूं', यह प्रतीति ही भ्रान्तपूर्ण हो जायेगी।1417 घ्राणेन्द्रिय द्वारा
1414 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 96 1415 द्रव्य आधार घटादिक दीसइ, गुण पर्याय आधेयो रे। ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/15 का टब्बा 1416 रूपादिक गण पर्याय एक इन्द्रिय गोचर क. विषय छइ. जिम रूप चक्षुरिन्द्रियइं ज जणाइं, रस ते रसनेन्द्रियइं ज, इत्यादिक. अनई घटादिक द्रव्य छइ, ते दोहिं चक्षुरिन्द्रिय अनइं स्पर्शेनेन्द्रियः ए 2 इन्द्रियइं करीनइं जाणो छे .........
........ वही गा. 2/15 का टब्बा 1417 स्वमतई गंधादिक पर्याय द्वारइं घ्राणेन्द्रियादिकई पणिद्रव्य प्रत्यक्ष छइं, नही तो
"कुसुम गंधु छु" इत्यादि ज्ञाननइं भ्रान्तपणुं थाइ ते जाणवू.
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सूंघकर फूल का प्रत्यक्ष किया जाता है। जैनदर्शन के अभिमत में व्यवहारनय से द्रव्य (द्रव्य और गुणपर्यायों में कथंचित् अभेद मानने पर) पाँचों इन्द्रियों से अगोचर है और निश्चयनय से (कथंचित् भेद मानने पर द्रव्य अतीन्द्रिय है। इस प्रकार नय के भेद से द्रव्य इन्द्रियगोचर और इन्द्रिय अगोचर दोनों है।
संज्ञाभेद :
प्रस्तुत में संज्ञा शब्द से तात्पर्य नाम अभिप्सित है। द्रव्य-गुण–पर्याय इस प्रकार तीनों का नाम भिन्न-भिन्न है।1418 जहाँ नाम या संज्ञा भेद होता है वहाँ कुछ अंश में वस्तुभेद (यदि पर्यायवाची नहीं हो तो) भी अवश्य होता है। इसलिए जिस प्रकार घट नामक वस्तु से पट नामक वस्तु भिन्न है उसी प्रकार द्रव्य से गुण–पर्याय का और गुण–पर्याय से द्रव्य का कथंचित् भेद अवश्यमेव है।
संख्या भेद :
संख्या की अपेक्षा से द्रव्य और गुण–पर्यायों में भेद दृष्टिगोचर होता है। यहाँ संख्या शब्द का अर्थ गणना है।1419 जाति के आश्रय से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के रूप में मूल द्रव्य छह है। छह से अधिक द्रव्यों का अस्तित्व नहीं है। परन्तु गुण और पर्याय अनंत है। एक-एक द्रव्य के अनंत-अनंत गुण और पर्यायें है। जैसे कोई भी विवक्षित जीवद्रव्य एक होने पर भी उसके अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशत्व आदि सामान्य गुण और ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, आनंद आदि विशेष गुण अनंत है। पुनः इन्हीं गुणों की षट्गुण हानिवृद्धि रूप क्षयोपशम भावजन्य मतिज्ञान आदि पर्यायें तथा औदायिक भावजन्य नरनारकादि पर्यायें अनंत है। इस प्रकार संख्या की दृष्टि से भी द्रव्यादि में परस्पर भेद है।
1418 संज्ञा क नाम, तेहथी भेद, –'द्रव्य' नाम 1 'गुण' नाम 2, ‘पर्याय' नाम 3 ....... वही. गा. 2/16 का टब्बा 1419 संख्या-गणना, तेहथी भेद, "द्रव्य 6 गुण अनेक पर्याय अनेक"..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.2/16 का टब्बा
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लक्षण भेद :
द्रव्य-गुण-पर्याय का भिन्न-भिन्न लक्षण होने से भी इनमें परस्पर भेद परिलक्षित होता है। द्रव्य का लक्षण द्रवण है। गुण का लक्षण गुणन है और पर्याय का लक्षण परिगमन-सर्वतोव्यप्ति है।1420 द्रवण अर्थात् एक रूप से दूसरे रूप में रूपान्तरण होना अथवा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं (पर्यायों) को प्राप्त करना है। यह द्रव्य का लक्षण है। गुणन से तात्पर्य भिन्नीकरण करना अथवा पृथक्करण करना है। एक वस्तु का दूसरी वस्तु से अलग करना गुण का लक्षण है। जैसे जीवद्रव्य का ज्ञानगुण उसे अन्य पुद्गलादि द्रव्यों से पृथक् करता है। रूपादिगुण पुद्गलद्रव्य को अन्य जीवादि द्रव्यों से अलग करते हैं। परिगमन का अर्थ है विवक्षित द्रव्य का सर्वतः एक रूप से दूसरे रूप में व्याप्त हो जाना या रूपान्तरण होना है। यह पर्याय का लक्षण है। जैसे किसी जीव का मनुष्य रूप से मरकर देवरूप होना पर्याय है। क्योंकि यह रूपान्तर संपूर्ण जीवद्रव्य का होता है। इस प्रकार लक्षण के आधार पर भी द्रव्य और गुण-पर्याय में भेद है।
इस प्रकार आधारआधेयता, इन्द्रियगोचरता, एकअनेकता, संज्ञा, संख्या, लक्षण आदि की अपेक्षा से द्रव्य ओर गुण–पर्याय में परस्पर भेद है। क्योंकि परस्पर व्यावृति धर्म परस्पर का भेद करता है। 1421 द्रव्य में जो आधारता आदि धर्म है वे गुण-पर्याय में नहीं है। परन्तु यह भेद भी नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य की तरह एकान्तभेद नहीं होकर सापेक्ष या कथंचित् भेद है।
1420 लक्षणथी भेद-द्रवण-अनेकपर्यायगमन द्रव्यलक्षण, गुणन-एकथी अन्यनइं भिन्नकरण ते
गण लक्षण, परिगमन-सर्वतोव्याप्ति, ते पर्याय लक्षण ............. - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/16 का टब्बा 1421 जे माटिं परस्परावृतिधर्म परस्परमांहि भेद जणावई .................. - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/14 का टब्बा
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द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध कथंचित् अभिन्नता का भी है -
जीवादि छहों द्रव्यों के अपने-अपने गुण और पर्याय हैं। सभी गुण एवं पर्यायें अपने-अपने विवक्षित द्रव्य में ही रहते हैं। एक द्रव्य के गुण और पर्यायें दूसरे द्रव्य के गुण और पर्यायों के रूप में परिणमित नहीं होते हैं। जैसे जीव द्रव्य का चैतन्यगुण, जीवद्रव्य को छोड़कर अजीवद्रव्य में कदापि नही जाता है तथा पुद्गलद्रव्य के रूप, रसादि गुण भी स्वद्रव्य पुद्गल का त्याग करके अन्य द्रव्यों में नहीं जाते हैं। इसी प्रकार पर्यायें भी अपने-अपने विवक्षित द्रव्य में ही उत्पन्न होते हैं। जैसे नर, नारक आदि पर्यायें जीवद्रव्य में तथा नील, रक्तादि पर्यायें पुद्गलद्रव्य में ही उत्पन्न होती है। यही कारण है कि जैसे प्रत्येक द्रव्य और उसके गुण–पर्यायों में कथंचित् भिन्नता है वैसे ही द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों में कथंचित् अभिन्नता भी है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर कथंचित् अभेद को स्वीकार नहीं करने पर निम्न आपत्तियाँ आ सकती है -
1. गुण-गुणीभाव का उच्छेद :
प्रत्येक द्रव्य और उसके गुण–पर्यायों में परस्पर एकान्त भेद सम्बन्ध ही मान लेने पर परद्रव्य की तरह स्वद्रव्य के विषय में भी गुण-गुणीभाव का उच्छेद हो जायेगा। 422 जीवद्रव्य के गुण ज्ञानादि है और ज्ञानादिक गुणों का गुणी (स्वामी) जीवद्रव्य है। पुद्गलद्रव्य के गुण वर्ण-गंध-रस-स्पर्शादिक है ओर वर्णादि गुणों का गुणी पुद्गलदव्य है। ऐसी गुण-गुणीभाव की व्यवस्था शास्त्रों प्रसिद्ध है। 1423 क्योंकि गुण-गुणी में अभेद अथवा तादात्मय सम्बन्ध है। इस अभेद सम्बन्ध को अस्वीकार करने पर कोई भी विवक्षित गुण जिस प्रकार परद्रव्य से भिन्न होने से परद्रव्य के साथ उसका गुण-गुणी भाव घटित नहीं होता है, उसी प्रकार स्वद्रव्य से भी विवक्षित
1422 एकान्तिं जो भाषिइजी, द्रव्यादिकनो रे भेद।
तो परद्रव्य परिं हुईजी, गुण-गुणिभाव उच्छेद रे ।। .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/1 1423 जीवद्रव्यना गुण ज्ञानादिक, तेहनो गुणी जीवद्रव्य, पुद्गल द्रव्यना गुण रूपादिक, गुणी पुद्गलद्रव्य, ए व्यवस्था छई, शास्त्र प्रसिद्ध
......... वही गा.3/1 का टब्बा
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गुण एकान्त भिन्न होकर उसका स्व-द्रव्य के साथ भी गुण-गुणी भाव घटित नहीं होगा। उदाहरणार्थ ज्ञानादिक गुण पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने से ज्ञानादिक गुणों में और पुद्गलद्रव्य में गुण-गुणीभाव संभव नहीं हो सकता है। उसी प्रकार यदि ज्ञानादिक गुण स्वद्रव्य जीव से भी एकान्त भिन्न है तो ज्ञानादिक गुणों में तथा जीवद्रव्य के मध्य भी गुण-गुणी भाव का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार द्रव्य और उसके गुणों के मध्य गुण-गुणी भाव के विलुप्त हो जाने पर तो 'इस द्रव्य का यह गुण है', 'यह गुण इस द्रव्य का है' ऐसा सर्वजनानुभव सिद्ध का भी लोप हो जायेगा। 424 ‘जीवद्रव्य के ये ज्ञानादिक गुण हैं तथा 'इन ज्ञानादिक गुणों का गुणी जीवद्रव्य है' ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार ही नहीं हो सकेगा। एतदर्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में कथंचित अभेद सम्बन्ध अवश्य है।
2. अनवस्था दोष :___द्रव्य और गुण–पर्यायों को एकान्त भिन्न मानने पर अनवस्था दोष लगता है। 1425 नैयायिक और वैशेषिक दर्शनकार द्रव्य और गुण में एकान्त भिन्नता के समर्थक हैं। उनके अभिमत में गुण द्रव्य (गुणी) में समवाय सम्बन्ध से रहता है। समवाय सम्बन्ध चैतन्यगुण को आत्मद्रव्य से और रूपादिक गुणों को घटपदादि द्रव्यों से जोड़ता है। यहाँ यह प्रश्न उभरता है कि यदि गुण गुणी में समवाय सम्बन्ध से रहता है तो यह समवाय सम्बन्ध गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि अन्य समवाय सम्बन्ध से रहता है तो वह समवाय सम्बन्ध गुण, गुणी और प्रथम समवाय सम्बन्ध में किस सम्बन्ध से रहता है ? इस प्रकार यह श्रृंखला चलती ही रहेगी। इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। अनवस्था दोष से बचने के लिए ऐसा कहा जाये कि समवाय सम्बन्ध का स्वरूप ही ऐसा है कि वह गुण-गुणी को जोड़ता
1424 "एहनो एह गुणी", "एहना एह गुण' ए व्यवहारनो विलोप थइ आवइं,
ते माटइं "द्रव्य गुण पर्यायनो अभेद ज संभवइ." .. ..........- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/1 का टब्बा 1425 द्रव्यइ गुण पर्यायनोजी, छइ अभेद संबंध । भिन्न तेह जो कल्पिइजी, तो अनवस्था दोष।। ........... ......... -द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.3/2
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है और स्वयं बिना किसी अन्य सम्बन्ध के गुण और गुणी में रहता है तो समवाय सम्बन्ध की तरह गुण स्वयं ही बिना किसी अन्य सम्बन्ध से द्रव्य में क्यों नहीं रह सकता है। अतः द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचित् अभेद या अभिन्नता का भी है।1426
3. अनुभवसिद्ध लोकव्यवहार नहीं घटेगा :
द्रव्य–पर्याय और द्रव्य-गुण के मध्य अभेद सम्बन्ध नहीं स्वीकारने पर 'सुवर्ण कुंडलादि अलंकार रूप बना है' तथा 'घट रक्तरूप बना है ऐसा लोक व्यवहार घटित नहीं होगा।1427 सुवर्ण पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है और कुंडलादि उसके विभिन्न पर्याय हैं। सुवर्णद्रव्य और कुंडलादि का क्षेत्र अलग-अलग नहीं है। सुवर्ण द्रव्य ही कुंडलादिक के रूप में परिणमित होता है। सुवर्ण कहीं अन्यत्र है और कुंडलादि अन्यत्र हैं, ऐसा नहीं होता है। जहां सुवर्ण है वहाँ कुंडलादि हैं और जहाँ कुंडलादि हैं वहीं सुवर्ण है। इसलिए दोनों में कथंचित अभेदभाव है। इसी प्रकार जो घट पहले श्यामरूप था वही घट पकने के बाद रक्तरूप बनता है। घटद्रव्य और उसके रक्तता आदि गुण अलग-अलग उपलब्ध नहीं होते हैं। द्रव्य और गुण में कथंचित अभेद सम्बन्ध रहता है। इसीलिए सुवर्ण कुंडलादि रूप बना है, घट रक्तरूप बना है। ऐसा शिष्ट व्यवहार होता है।
4. द्विगुणित गुरूता का दोष :
यदि द्रव्य से पर्याय एकान्त रूप से भिन्न है तो मिट्टी और घट तथा तन्तु और पट एकान्त भिन्न हो जायेगें। जैनदर्शन की भाषा में घट-पट आदि को स्कन्ध और
1426 ते माटिइं गुण-गणथी अलगो समवाय संबंध कहिइं तो ते पणि अनेरो संबन्ध जोइइ
तेहनइ पण अनेरो, इम करतां किहाई ठइराव न थाई. ...................... वही, गा. 3/2 का टब्बा 1427 "स्वर्ण कुंडलादिक हुउं जी" "घट रक्तादिक भाव"
ए व्यवहार न संभवइजी, जो न अभेदस्वभाव रे।। ............. -द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/3
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उनका मूलकारणभूत मिट्टी, तंतु को प्रदेश कहा जाता है। न्यायदर्शन की भाषा में घट-पट को अवयवी और मिट्टी-तन्तु को अवयव कहा जाता है। न्यायदर्शन के अनुसार अवयव और अवयवी एकान्त भिन्न हैं। परन्तु यशोविजयजी के अभिमत में प्रदेश और स्कन्ध (अवयवी) को एकान्त भिन्न मानने पर स्कन्ध (अवयवी) में दुगुणी गुरूता आ जायेगी। 1428 क्योंकि स्कन्ध (अवयवी) प्रदेश (अवयव) से निर्मित होने से प्रदेशी (अवयव) की गुरूता तो रहेगी ही, साथ में नवीन रूप से उत्पन्न स्कन्ध की गुरूता भी रहेगी। उदाहरणार्थ कुम्हार मिट्टी के घट बनाने के लिए दो किला मिट्टी लेकर आता है और उससे घट निर्मित करता है। मिट्टी से घट बनने से मिट्टी का दो किलो वजन तो रहेगा ही साथ में नवीन रूप से उत्पन्न घट (मिट्टी से एकान्त भिन्न होने से) का वजन भी दो किला रहेगा। अवयव और अवयवी अर्थात् मिट्टी और घट दोनों एकान्त भिन्न होने से घटकाल में मिट्टी और घट दोनों को मिलाकर चार किला वजन अर्थात् दुगुणी गुरूता रहेगी।
यदि कोई नव्य नैयायिक ऐसा कहे कि अवयव की अपेक्षा से अवयवी अत्यन्त गुरूताहीन होता है। 1429 इसलिए दुगुणी गुरूता का दोष नही लगता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अवयवों में ही गुरूता अधिक होती है। इस दृष्टि से परमाणु में ही उत्कृष्ट गुरूता पाई जायेगी। क्योंकि द्वयणुक-त्र्यणुक इत्यादि परमाणुओं से निर्मित होने से परमाणु अवयव है और द्वयणुक आदि अवयवी हैं। इस प्रकार द्वयणुक आदि अवयवियों में अत्यन्त हीन गुरूता और परमाणु में उत्कृष्ट गुरूता पाई जायेगी। 1430 पुन: परमाणु में उत्कृष्ट गुरूता मानने पर तो रूपादि चारों गुणों भी अधिक परिमाण में परमाणु में ही पाये जायेगें 1431 अर्थात् परमाणु में (न्यायमतानुसार) रूप के सातों प्रकार, गंध के दोनों प्रकार, रस के छहों प्रकार और स्पर्श के तीनों प्रकार पाये जायेगें। जबकि अवयवीभूत स्कन्धों में एक रूप, एक रस, एक गन्ध और
1428 खंघ देश भेदइ हुई जी, बिमणी गुरूता रे खंधि . ...............- वही, गा. 3/4 का पूर्वार्ध 1429 "जे अवयवना भारथी अवयवीनो भार अत्यन्त हीन छइ ............-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/4 का टब्बा 1430 द्विप्रदेशादिक स्कंधमांहि किहाइं उत्कृष्ट गुरूता न थइ जोइइ ......-वही गा. 3/4 का टब्बा 1431 अनइं परमाणुमांहि ज उत्कृष्टगुरूत्व मानिइं, तो रूपादिक विशेष पणि परमाणुमांहि मान्या जाईइं, द्विप्रदेशादिकमांहि न मान्या जोइइं ......
.......... -वही, गा. 3/4 का टब्बा
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एक स्पर्श ही रहेगा। परन्तु यह बात लोकविरूद्ध, शास्त्रविरूद्ध और युक्तिविरूद्ध होने से अनुचित है। इसलिए द्रव्य–पर्याय या प्रदेश-स्कन्ध या अवयव–अवयवी में अभेद सम्बन्ध को स्वीकार करने पर कोई दोष नहीं रहेगा। इसका कारण यह है कि प्रदेशों (अवयवों) की गुरूता ही स्कन्ध (अवयवी) के रूप में परिणमित होता है। 1432
मकान की तरह द्रव्य-गुण-पर्याय में एकरूपता है :
लोक व्यवहार में पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, पानी, सीमेन्ट, लोहा, चूना आदि विभिन्न पदार्थों से बने मकान को एक ही पदार्थ कहा जाता है। जब अनेक द्रव्यों से बनी पर्याय को 'यह एक मकान है' ऐसा कहा जा सकता है तो एक ही द्रव्य के गुण–पर्यायों का अपने द्रव्य के साथ एकरूपता क्यों नहीं हो सकती है ?1433 इसलिए जो आत्मद्रव्य है, वही आत्मद्रव्य गुणमय भी है और वही पर्यायमय भी है। ऐसा व्यवहार अनादिकाल से स्वयंसिद्ध है।
द्रव्य का प्रतिनियत व्यवहार नहीं होगा :
जीवादि छहों द्रव्यों और उनके गुण-पर्याय में कथंचिद् अभेद सम्बन्ध को स्वीकार करने पर ही 'यह जीव है', 'यह पुदगल है, यह घट है, यह पट है' इत्यादि प्रतिनियत व्यवहार हो सकता है।1434 द्रव्य-गुण-पर्याय में एकान्त भेदभाव मानने पर ज्ञानगुण जिस प्रकार पुद्गल से भिन्न है, उसी प्रकार जीवद्रव्य से भी भिन्न हो जायेगा तथा रूपादिगुण जिस प्रकार जीव द्रव्य से भिन्न है उसी प्रकार पुदगलद्रव्य से भी भिन्न हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में ज्ञानादिगुणों का जीवद्रव्य के साथ तथा रूपादिगुणों का पुद्गलद्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहने से ज्ञानादि गुणों से
1432 प्रदेश गुरूता परिणमइजी, खंध अभेदह बंध रे ...............- वही, गा. 3/4 का उत्तरार्ध 1433 भिन्न द्रव्यपर्यायनइ जी, भवनादिक रे एक।
भाषइ, किम दाखइ नही जी, एक द्रव्यमां विवेकरे।। ...........-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/5 1434 गुण पर्याय अभेदथीजी, द्रव्य नियत व्यवहार
-वही, गा. 3/6 का पूर्वार्ध
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युक्त द्रव्य जीव है तथा ज्ञानादि गुणों से रहित द्रव्य अजीव है ऐसा प्रतिनियत व्यवहार ही संभव नहीं होगा। इसलिए अनादिकाल से स्वयंसिद्ध द्रव्यादि के परस्पर अभेद सम्बन्ध को स्वीकार करने पर ही ज्ञानादि गुणों और पर्यायों से अभिन्न द्रव्य जीव है तथा रूपादि गुण-पर्यायों से अभिन्न द्रव्य पुद्गल है ऐसा व्यवहार हो सकता है। अन्यथा छहों द्रव्यों की 'द्रव्य' ऐसी सामान्य संज्ञा ही रहेगी, किन्तु यह जीवद्रव्य है, यह पुद्गलद्रव्य है ऐसी विशेष संज्ञा नहीं रहेगी।1435 छहों द्रव्यों की विशेष संज्ञा अपने-अपने गुण पर्यायों के साथ अभिन्न सम्बन्ध के कारण ही है।
जिस प्रकार रत्न (द्रव्य), रत्न की कान्ति (गुण) और ज्वरापहार शक्ति (पर्याय) इन तीनों में एकत्व परिमाण है, उसी प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसे भिन्न-भिन्न तीन नाम होने पर भी इन तीनों अर्थात् द्रव्य-गुण-पर्याय में एकत्व परिणाम है।1436 उदाहरण के लिए जीवद्रव्य, उसके ज्ञानादिक गुण, क्षयोपशमिक भावजन्य ज्ञान की हानि-वृद्धि रूप मतिज्ञान आदि पर्यायें तथा औदायिक भावजन्य नर-नारकादिरूप पर्याय में एकत्वपरिणाम है। इसलिए द्रव्यादि परस्पर कथंचित् अभिन्न है।
कारण-कार्य में अभेद सम्बन्ध नहीं रहेगा :
द्रव्य-गुण-पर्याय में परस्पर कथंचित् अभेद सम्बन्ध को अस्वीकृत करने पर कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि असत् वस्तु खरविषाण की तरह कदापि उत्पन्न नहीं होती है।1437 द्रव्य कारण है तथा पर्याय प्रगट होने से कार्य है। इन कारण-कार्य में अभेद सम्बन्ध नहीं मानने का अर्थ तो यह हुआ कि मृत्तिका आदि कारण में घटादि कार्य असत् है। परन्तु संसार में असत् कार्य की उत्पत्ति खरविषाण
1435 ज्ञानादिक गुण पर्यायथी अभिन्न द्रव्य ते जीवद्रव्य, रूपादिक-गुणपर्यायथी अभिन्न ते अजीवद्रव्य नही तो सामान्यथी विशेष संज्ञा न थाइ ....
........ - वही गा. 3/6 का टब्बा 1436 जिम रत्न 1 कान्ति 2, ज्वरापहराशक्ति 3 पर्यायनइं ए 3 नई एकज परिणाम छ।
तिम द्रव्य-गुण-पर्यायनइं इम जाणवू ............................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/6 का टब्बा 1437 जो अभेद नहीं एहनोजी, तो कारय किम होइ ?
अछती वस्तु न नीपजइजी, शशविषाण परि जोइ रे।। ............. वही गा. 3/7
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की तरह नहीं होने से मृत्तिका आदि से घटादि कार्य कदापि उत्पन्न नहीं होगें। क्योंकि कारणद्रव्य में कार्यशक्ति होने पर ही उस कारण से वह कार्य उत्पन्न हो सकता है तथा कारणद्रव्य में जिस कार्य को प्रगट करने की शक्ति नहीं है, वह कार्य उस कारण से कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता है।1438 परन्तु यह हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्तिका आदि कारण द्रव्यों से घटादि कार्य प्रगट होते हैं। कारणद्रव्य में कार्य की सत्ता तिरोभाव रूप से अथवा अव्यक्त रूप से विद्यमान रहती है और कालादि सामग्रियों का योग प्राप्त होने पर कार्य का आविर्भाव होता है।1439 इसलिए द्रव्य में गुण और पर्याय अभेदभाव से सत् है। अन्यथा उन द्रव्यों से उन-उन पर्यायों का प्रगटीकरण ही नहीं होगा।
द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध भेदाभेद रूप है -
जहाँ कुछ दर्शनकारों जैसे नैयायिक और वैशेषिक आदि ने एकान्त भेदवाद को और अन्य कुछ दर्शनकारों जैसे सांख्य, अद्वैत ने एकान्त अभेदवाद को स्वीकार किया है, वहीं जैन दार्शनिक सदा भेदाभेदवाद या उभयवाद के समर्थक रहे हैं। 1440
जैन दार्शनिकों ने केवल कल्पना के आधार पर भेदाभेदवाद को स्वीकार नहीं किया, अपितु यथार्थता की कसौटी पर कसकर ही उसे स्वीकार किया है। जैनदर्शन के मूल उपदेशक सर्वज्ञ परमात्मा रागद्वेष से मुक्त होने के कारण सर्वद्रव्यों की त्रैकालिक पर्यायों को जाननेवाले यथार्थज्ञाता थे और जो जैसा था, उसे वैसा ही प्रकाशित करनेवाले यथार्थवादी थे। उनके अनुसार विश्व के समस्त पदार्थ भेद और अभेदस्वरूप वाले हैं। पदार्थों का यह भेदाभेदस्वरूप अनादि और स्वयंसिद्ध है।
1438 कारणमांहि कार्यनी शक्ति होइ, तो ज कार्य नीपजइं, कारणमांहि अछती कार्य वस्तुनी परिणति न नीपजइ ज।
......... - वही, गा. 3/7 का टब्बा 1439 द्रव्यरूप छती कार्यनी तिरोभावनी रे शक्ति। आविर्भावइ नीपजइ, गुण पर्यायनी व्यक्ति रे।
.... - वही, गा. 3/8 1440 भेद भणइ नइयायिकोजी, सांख्य अभेद प्रकाश। जइन उभय विस्तारोजी, पामइ सजश विलास ।।
....- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/5
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यहाँ ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार परस्पर विरोधी होने से एक साथ और एक ही स्थान पर नहीं होते हैं, उसी प्रकार भेद और अभेद परस्पर विरोधी होने से एकसाथ और एक स्थान पर कैसे पाये जा सकते हैं ?1441 सर्वप्रथम यहाँ प्रकाश और अंधकार का दृष्टान्त ही सटीक नहीं है। क्योंकि प्रकाश और अंधकार की तरतमता असंख्य प्रकार की होती है। जैसे मध्यान्ह के समय में घर में फैला हुआ प्रकाश बाहर के प्रकाश की अपेक्षा से अंधकार है और भीतर के कक्ष की अपेक्षा से प्रकाश है। भीतर के कक्ष में रहा हुआ प्रकाश भी बाहर के कक्ष की अपेक्षा से अंधकार है और उससे अधिक भीतरवाले कक्ष की अपेक्षा से प्रकाश है। जो प्रकाश है वह उससे अधिक प्रकाश की अपेक्षा से अंधकार है और जो अंधकार है वह उससे गाढ़ अंधकार की अपेक्षा से प्रकाश है। इस प्रकार स्याद्वाद की दृष्टि में कोई विरोध नहीं आता है। अपेक्षाभेद से प्रकाश और अंधकार भी एकसाथ और एक ही स्थान पर हो सकते हैं।1442
यशोविजयजी ने वस्तु के भेदाभेद स्वरूप को अनेक दृष्टान्त से सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। यद्यपि 'घट' एवं 'घटाभाव' में परमार्थ से कोई विरोध नहीं होने पर भी उपचार से उनमें विरोध परिलक्षित हो सकता है। परन्तु भेद और अभेद में तो किसी प्रकार का विरोध नहीं है।1443 क्योंकि भेद और अभेद ये दोनों धर्म सर्वत्र समान रूप से प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। जैसे रूप-रस-गंध-स्पर्श में इन्द्रियग्राह्यता की अपेक्षा से भेद है तथा गुण की अपेक्षा से अभेद है।1444 रूप-रस-गन्ध-स्पर्श क्रमशः चक्षु–रसना-घ्राण-स्पर्शन रूप एक-एक इन्द्रिय से ग्राह्य है। इस प्रकार रूपादि भिन्नेन्द्रिय ग्राह्य होने से परस्पर भिन्न-भिन्न है तथापि अपने आश्रयभूत स्कन्धों या परमाणुओं में एक साथ ही रहने से 'एकाश्रयवृत्तित्व' अनुभव के आधार पर परस्पर
1441 भेद अभेद उभय किम मानो, जिहां विरोध निरधारो।
एक ठामि कहो किम करे रहवइ, आतपनइं अंधयारो।। ...- वही, गा. 4/1 1442 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, -धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 156 1443 जे घट-घटाभावनइं यद्यपि विरोध छइ, तो पणि भेदाभेदनई विरोध नथी - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/2 का टब्बा 1444 एक ठामि सवि जननी साखिं, प्रत्यक्षइं जे लहीइ रे।
रूप रसादिकनो परि तेहनो, कहो विरोध किम कहिइ रे।। ............. - वही, गा. 4/3
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अभेद भी है। इसी प्रकार भेदाभेद को भी एक ही स्थान पर अपेक्षा विशेष से मानने पर कोई विरोध नहीं आता है।1445
मिट्टी का घट जब तक पकता नहीं है तब तक श्यामवर्णवाला होता है तथा पकने के बाद रक्तवर्णवाला हो जाता है। श्यामावस्थावाला घट कच्चा होने से जलाधार आदि कार्य करने में असमर्थ है, जबकि रक्तावस्था वाला घट परिपक्व होने से जलाधार आदि कार्य कर सकता है। श्यामवस्था और रक्तावस्था की अपेक्षा से घट भिन्न है। परन्तु अवस्थाओं के बदलने पर भी घटत्व नहीं बदलता है। दोनों ही अवस्थाओं में वही घटत्व रहने से घट अभिन्न भी है। 446
बाल्यवस्था, युवावस्था आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से व्यक्ति में भेद है। परन्तु देवदत्त नामक उस मनुष्य पर्याय की अपेक्षा से उसमें भेद नहीं भी है। 447 कोई भी व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक 'यह वही पुरूष है, 'यह वही पुरूष है' ऐसा कहा जाता है। यह अभेद है। बाल्यवस्था, तरूणावस्था, वृद्धावस्था रूप जितनी भी पर्यायें है, वह भेद है।1448 इस प्रकार भेदाभेद को एक साथ और एक ही स्थान पर रहने में कोई विरोध नहीं आता है। जहाँ भेद होता है वहां अपेक्षाभेद से अभेद और जहाँ अभेद होता है वहाँ अपेक्षाभेद से भेद अवश्य रहता है।
प्राचीन नैयायिकों का कहना है – भेद व्याप्यवृत्ति होने से जहाँ भेद है वहाँ अभेद हो ही नहीं सकता है। भेद अपने अधिकरण में संपूर्ण रूप से व्याप्त होकर रहने से अभेद को नहीं रहने देता है।1449
1445 जिम-रूप-रसादिकनो एकाश्रयवृत्तित्वानुभवथी विरोध न कहिइं, तिम भेदाभेदनो पण जाणवो,
- वही, गा. 4/3 का टब्बा 1446 श्यामभाव जे घट छइ पहिला, पछइ भिन्न रे रातो रे। ............ – वही, गा. 4/4 1447 बालभाव जे प्राणी दीसइ, तरूण भाव ते न्यारो रे। देवदत्त भावइं ते एक ज, अविरोधइ निरधारो रे।। .....
- वही गा. 4/5 1448 सन्मतिप्रकरण, गा. 1/32 1449 भेद होइ, तिहां अभेद न होइ ज, भेद व्याप्यवृत्ति छइ, ते माटि........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/6 का टब्बा
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'जो श्याम है वह रक्त नहीं है' (श्यामो न रक्तः) इस उदाहरण में श्यामत्व और रक्तत्व नामक धर्मों में ही भेद परिलक्षित होता है न कि घट नामक धर्मी में। इसका अर्थ यह हुआ कि विविध धर्मों में ही भेद होता है। किन्तु धर्मी में कोई भेद नहीं होता है। ऐसा मान लेने पर तो घटो न पटः, जड़ो न चेतनः इत्यादि प्रसंगों में भी घटत्व–पटत्व, जड़त्व-चेतनत्व आदि धर्मों में ही भेद को मानना पड़ेगा और घटद्रव्य, पटद्रव्य, जड़द्रव्य, चेतनद्रव्य में कोई भेद ही नहीं होकर घट, पटादि सभी द्रव्य एक हो जायेगें। यहाँ प्रत्यक्ष से विरोध है।1450 क्योंकि जगत में घट, पटादि भिन्न-भिन्न द्रव्य के रूप में प्रसिद्ध है। पुनः अत्यन्त भिन्न द्रव्यों को एक रूप मान लेने से तो घट का कार्य जलधारण पट से और पट का कार्य शरीराच्छादन घट से, जड़ का कार्य चेतन से और चेतन का कार्य जड़ से हो जायेगा जिससे संसार में अव्यवस्था खड़ी हो जायेगी। इसलिए जहाँ धर्म में भेद होता है वहाँ धर्मी में भी भेद अवश्य होता है। परन्तु अभेद की कोई संभावना नहीं रहती है। अतः जगत में किसी भी वस्तु का स्वरूप भेदाभेदात्मक या उभयात्मक नहीं होता है। ऐसी नैयायिक आदि की मान्यता है।
__ "श्यामो, न रक्तघटः", "रक्तो, न श्यामघटः" इस उदाहरण में जिस प्रकार श्यामघटकाल में रक्तघट का और रक्तघटकाल में श्यामघट का प्रतियोगी के रूप में उल्लेख मिलता है उसी प्रकार "घटो, न पट:" और "पटो, न घट" तथा "यो जड़: सः न चेतनः, और यश्चेतनः, स न जड़ः" इन उदाहरणों में भी प्रतियोगी के रूप में धर्मियों का उल्लेख समान रूप से ही मिलता है।1451 यदि धर्म ही परिवर्तित हो और धर्मी वैसा का वैसा रहता हो तो प्रतियोगी के रूप में धर्मी का उल्लेख ही नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्मी अपरिवर्तनशील होने से दोनों ही अवस्थाओं में विद्यमान ही होगा। इसलिए उसे अप्रतियोगी होना चाहिए। परन्तु धर्मी का प्रतियोगी के रूप में
1450 "श्यामो न रक्तः" इहां श्यामत्व रक्तत्व धर्मनो भेद भासइ छइं, पणि धर्मि घटनो भेद न भासई"
इम जो कहिई तो जड़ चेतननो भेद भासइ छइं, तिहां जड़त्व चेतनत्व धर्मनो ज भेद,
पणि जड़ चेतन द्रव्यनो भेद नहीं ? इम-अवयवस्था थाइ 1451 धर्मीनो प्रतियोगिपणइं उल्लेख तो मे सरखो छइ .. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.4/6 का टब्बा
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उल्लेख होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मी में भी अभेद न होकर भेद ही होता है। जहाँ धर्म में भेद होता है वहाँ धर्मी में भी भेद अवश्य होता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध
इस प्रकार जहाँ नैयायिक आदि एकान्त भेदवादी घट-पट, जड़-चेतन में एकान्त भेद को स्वीकार करते हैं वहाँ जैनदर्शन घट-पट आदि में भी भेदाभेद को ही मानता है।452 दुन्यवी लोगों को जीव-अजीव में अर्थात् घट-पट में, गाय-घोड़े में हाथी-चींटी आदि सर्वत्र एकान्त भिन्नता ही दृष्टिगोचर होती है परन्तु रूपान्तर से अर्थात् द्रव्यत्व, पदार्थत्व आदि की अपेक्षा से जीव-अजीव में भी अभिन्नता है।1453 जड़त्व-चेतनत्व धर्म की अपेक्षा से जीव और अजीव में भेद होने पर भी दोनों जीव-अजीव में पाये जाने वाले द्रव्यत्व, पदार्थत्व, की अपेक्षा से अभेद भी है। क्योंकि जीव भी द्रव्य और पदार्थ है तथा अजीव भी द्रव्य और पदार्थ है। इसी प्रकार घट-पट में पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से, गाय-घोड़े में पशुत्व की अपेक्षा से, हाथी-चींटी में जीवत्व की अपेक्षा से अभेद है। घट अपने अवान्तर पर्यायों श्यामत्व
और रक्तत्व की अपेक्षा से भिन्न है और पर्यायों को गौण कर देने पर एक धर्मी की अपेक्षा से अभिन्न भी है। संक्षेप में प्रत्येक वस्तु सामान्य स्वरूप की विवक्षा करने पर अभेदरूप और विशेषस्वरूप की विवक्षा करने पर भेद रूप प्रतीत होती है। इसलिए भेद व्याप्यवृत्ति नहीं है, अपितु भेदाभेद ही सर्वत्र व्यापक है। 454
पदार्थों के मध्य केवल भेद प्रतीत होने पर भी रूपान्तर (अन्य स्वरूप की अपेक्षा) से उनमें अभेद भी अवश्यमेव होता है तथा केवल अभेद प्रतीत होने पर भी रूपान्तर से उनमें भेद भी अवश्यमेव होता है।1455 जैसे स्थास-कोश-कुशूल-घट आदि में भिन्न-भिन्न आकृतियों (पर्यायों) की अपेक्षा से भेद है। परन्तु मृद्रव्य से
1452 भेदाभेद तिहां पणि कहतां, विजय जइन मत पावइ .............. वही, गा. 4/7 पूर्वार्ध 1453 भिन्न रूप जे जीवाजीवादिक तेहमां, रूपान्तर द्रव्यत्व पदार्थत्वादिक, तेहथी जगमांहि अभेद पणि आवइ
......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/7 का टब्बा 1454 एटलइं-भेदाभेदनइं सर्वत्र व्यापकपणुं कहिउं ... .......... वही, गा. 4/7 का टब्बा 1455 जेहनो भेद अभेद ज तेहनो, रूपान्तर संयुतनो रे। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/8
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विशिष्ट करने पर अर्थात् मृद्रव्य को अर्पित (मुख्य) करके तथा स्थास-कोश आदि प्रतिनियत आकृति रूप स्वपर्यायों को अनर्पित (गौण) करके विचार करने पर स्थास आदि में अभेद भी परिलक्षित होता है। जैसे मृद्रव्य की अपेक्षा से स्थास-कोश-कुशूल-घट आदि में अभेद है। परन्तु भिन्न-भिन्न आकृतियों से विशिष्ट होने पर अर्थात् पर्यायों को अर्पित करके तथा मृद्रव्य को अनर्पित करके विचार करने पर स्थास आदि में भेद भी अवश्यमेव विद्यमान है। यह भेद और अभेद ही सैकड़ों नयों का मूल कारण है। द्रव्य और पर्याय की अर्पणा और अनर्पणा करने से सात मूल नयों के 700 भेद बनते हैं, जिनका उल्लेख वर्तमान में अनुपलब्ध 'शतारनयचक्राध्ययन' में था, वर्तमान में 'द्वादशारनयचक्र' नामक ग्रन्थ में नैगम आदि प्रत्येक नय के विधि, विधिविधि आदि बारह-बारह भेद वर्णित है।1456
इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में जहाँ किसी एक अपेक्षा से एक स्वरूप होता है, वहाँ उसी पदार्थ में अन्य अपेक्षा से उससे विपरीत दूसरा स्वरूप भी हो सकता है। इसलिए भेदाभेद को भी एक साथ अपेक्षा भेद से रहने में कोई विरोध नहीं आता है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु एकान्त रूप से न भेदरूप है और न अभेद रूप है, न नित्य है और न अनित्य है, न सामान्यरूप है और न विशेषरूप है, अपितु भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप, सामान्यविशेषरूप है। वस्तु के इस अनेकान्तिक स्वरूप को प्रकाशित करनेवाली निर्दोष भाषा पद्धति ही स्याद्वाद है। स्याद्वाद में एकान्त कथनों का निराकरण करके, अपेक्षा विशेष के आधार पर वस्तु को कथंचित् भेदरूप कथंचित् अभेदरूप, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि बताया जाता है। इस भाषा प्रणाली में वस्तु के किसी भी धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए विधि, निषेध के आधार पर सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है। यही सप्तभंगी है जिसकी चर्चा हमने दूसरे अध्याय में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के साथ विस्तार से की है। अनेकान्तवाद के प्रबल समर्थक यशोविजयजी
1456 ए भेद नई अभेद छइ, ते सइगमे नयनो मूलहेतु छइ, सात नयना जे सातसंइ भेद छइं,
ते ऐ रीते द्रव्य-पर्यायनी अर्पणा-अनर्पणाई थाइं
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ने भी प्रस्तुत रास में द्रव्य-गुण-पर्याय के परस्पर भेदाभेद सम्बन्ध को सप्तभंगी के आधार पर निम्न रूप से स्पष्ट किया है :
1. स्याद्भिन्नमेव :
पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से द्रव्य से गुण–पर्याय और गुण–पर्याय से द्रव्य कथंचित् भिन्न है।1457 जैसे- जो गुण–पर्यायों का आधार है, वह द्रव्य है तथा जो द्रव्य में आधेय रूप से रहते हैं, वे गुण-पर्याय हैं। द्रव्य का सहभावी धर्म गुण और क्रमभावी धर्म पर्याय कहलाते हैं। इस प्रकार लक्षण, संख्या, संज्ञा, आधारआधेयभाव और इन्द्रियग्राह्यता आदि से द्रव्य और गुण–पर्याय में भेद है। साथ ही सहभावित्व और क्रमभावित्व की अपेक्षा से गुण और पर्याय में भेद है।
2. स्याद् अभिन्नमेव :
द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता करने पर द्रव्य से गुण–पर्यायों और गुण-पर्यायों से द्रव्य कथंचित् अभिन्न है।1458 जैसे सर्प की अवस्था विशेष है उत्फणा और विफणा
और सर्प अपनी अवस्थाओं से भिन्न नहीं है। उसी प्रकार गुण और पर्यायें द्रव्य से भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, अपितु द्रव्य का ही आविर्भाव और तिरोभाव स्वरूप मात्र
3. स्याद् भिन्नाभिन्नमेव :
क्रमशः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय की अर्पणा करने पर द्रव्य से गुण-पर्याय और गुण–पर्याय से द्रव्य कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न दोनों
1457 पर्यायार्थनयथी सर्व वस्तु द्रव्यगुणपर्याय, लक्षणइं कथंचिद् भिन्न ज छइ - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा 1458 द्रव्यार्थनयथी कथंचिद् अभिन्न ज छइ
......... - वही, गा, 4/10 का टब्बा
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हैं। 459 घटद्रव्य की घट के रक्तादिवर्ण और घटाकारता आदि में आधारआधेय आदि लक्षणों की दृष्टि से विचार करने पर अभिन्नता भी परिलक्षित होती है। क्योंकि घटद्रव्य स्वयं ही श्याम, रक्तादि के रूप में परिणत होता है। मृद्रव्य स्वयं ही घटकारता रूप में परिणत होता है।
4. स्याद् अवक्तव्यमेव :
दोनों द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की एक साथ विवक्षा करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय को परस्पर भिन्न भी नहीं कह सकते हैं और उन्हें परस्पर अभिन्न भी नहीं कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में दोनों नयों के आधार पर युगपद् रूप से विचार करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय क परस्पर सम्बन्ध अवाच्य बन जाता है। क्योंकि एक शब्द के द्वारा परस्पर दो विरोधी अर्थों को एकसाथ नहीं कहा जा सकता है।1460 द्रव्य-गुण-पर्याय का यह परस्पर सम्बन्ध भी स्याद् अर्थात् कथंचित् ही अवाच्य है। सर्वथा अवाच्य होने पर तो 'अवाच्य' शब्द से भी वाच्य नहीं बन सकता है।
5. स्याद्भिन्नमवक्तव्यमेव :
प्रथम पर्यायार्थिकनय की कल्पना करने के पश्चात् एक साथ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों की प्रधानता से विवक्षा करने पर द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध स्यात् भिन्न और स्यात् अवक्तव्य है।481 इसका मुख्य कारण यह है कि पर्यायार्थिकनय भेदग्राही होने से प्रधानरूप से भेद को परिज्ञात कराता है तथा दोनों द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय की युगपत् प्रधानता से विवक्षा करने पर उभयस्वरूप
1459 अनुक्रमइ जो 2 नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अपीइ,
तो कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्नो कहिइं .... ...........- द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/10 का टब्बा 1460 जो एकदा उभय नय गहिइं, तो अवाच्य ते लहिइं रे।
एकई शब्द एक ज वारई, दोइ अर्थ नवि कहिइं रे।। .....-द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/11 1461 पर्यायारथ कल्पना उत्तर-उभय विवक्षा संधि रे।
भिन्न अवाच्य वस्तु ते कहीइं स्यात्कारनइं बंधी रे।। ........ वही, गा. 4/12
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का प्रधान रूप से कथन करनेवाला कोई शब्द नहीं होने से द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचित् अवक्तव्य बन जाता है।
6. स्याद् अभिन्नमवक्तव्यमेव :
प्रथम केवल द्रव्यार्थिकनय की अर्पणा करके बाद में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की युगपत् अर्पणा करने से द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचित् अभिन्नत्वरूप और कथंचित् अवक्तव्यरूप है।1462 द्रव्यार्थिकनय प्रधान रूप से अभेदग्राही होने से अभिन्नता को मुख्य रूप से अपने दृष्टिपथ में लेता है तथा उभयनयों की युगपत् विवक्षा करने पर उभयस्वरूप को एकसाथ कथन करनेवाला शब्द नहीं होने से द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचिद् अवक्तव्य बन जाता
7. स्याद्भिन्नाभिन्नमवक्तव्यमेव :
क्रमशः पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनय की प्रधानरूप से विवक्षा करने के पश्चात् उभयनयों की युगपत् प्रधानरूप से विवक्षा करने पर द्रव्य-गुण–पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचिद् भिन्न, कथंचिद् अभिन्न और कथंचिद् अवक्तव्य होता है।463
इस प्रकार हम देखते हैं उपरोक्त सभी आधारों पर द्रव्य, गुण एवं पर्याय में पारस्परिक सम्बन्ध एकान्तभेदरूप और एकान्त अभेदरूप न होकर भेद-अभेद रूप ही सिद्ध होता है।
1462 द्रव्यारथ नइं उभय ग्रहियाथी, अभिन्न तेह अवाच्यो रे। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/13 का पूर्वार्ध 1463 क्रम युगपत् नय उभय ग्रहियाथी, भिन्न अभिन्न अवाच्यो रे..... वही, गा. 4/13 का उत्तरार्ध
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सप्तम् अध्याय
उपसंहार
जैन दार्शनिकों की परम्परा में उत्तर - मध्यकाल में उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं उन्होंने तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा या योगसाधना की दृष्टि से अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया और तत्सम्बन्धी पूर्वाचार्यो के ग्रन्थों पर अनेक टीकाएँ लिखीं हैं। उन्होंने न केवल श्वेताम्बर आचार्यों की कृतियों पर टीकाएँ लिखी, अपितु दिगम्बर एवं हिन्दू परम्परा के आचार्यों की कृतियों पर भी टीकाएँ लिखी है। उन्होंने मौलिक एवं टीकाग्रन्थों को मिलाकर लगभग शताधिक कृतियों की रचना की । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र और हेमचन्द्र के बाद यदि कोई अपने व्यक्तित्व और कृतित्व की दृष्टि से बहुआयामी व्यक्तित्व है तो वह उपाध्याय यशोविजयजी है । इनका साहित्य भाषा और विषयवस्तु दोनों की दृष्टि से विशिष्ट है। उन्होने अनेक विषयों पर अनेक भाषाओं में साहित्य की रचना की । मौलिक ग्रन्थों और टीका ग्रन्थों की दृष्टि से विचार करें तो उनके ग्रन्थों की संख्या शताधिक है। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी के 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक ग्रन्थ का अध्ययन एवं शोधकार्य निश्चित ही मेरे जीवन का सुखद संयोग ही है ।
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यद्यपि उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्म और दर्शन के विविध पक्षों पर विविध ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु उनमें से उनके तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का शोध की दृष्टि से चयन करने का एक विशेष कारण था । आगमयुग के पश्चात् मध्यकाल में जैनधर्म-दर्शन के क्षेत्र में जो साहित्य लिखा गया. वह आचार और साधना प्रधान था। बाद में ज्ञानमीमांसीय या न्याय को लेकर जैनाचार्यों ने ग्रन्थ रचना की थी । जैन तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में प्रायः कम ही लिखा गया और जैन न्यायग्रन्थों में भी जो जैन तत्त्वमीमांसीय उल्लेख मिलते हैं वे प्रमेय के स्वरूप और लक्षण से सम्बन्धित ही है । द्रव्य, गुण और पर्याय एवं उनके पारस्परिक
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सम्बन्ध को लेकर रचा गया कोई गम्भीर एवं स्वतंत्र ग्रन्थ हमारे दृष्टि में नहीं आता है । यद्यपि, आदि आगमों में द्रव्य, गुण, पर्याय और उनके पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि आगमों में किंचित् विवेचन उपलब्ध है, किन्तु वहाँ नय आदि के आधार पर गंभीर तार्किक विवेचन का प्रायः अभाव ही है । दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का पंचास्तिकाय सार तथा आचार्य नेमीचन्द्र का 'द्रव्यसंग्रह' तत्त्वमीमांसा की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माने जा सकते हैं । किन्तु ये ग्रन्थ भी अत्यधिक छोटा है। पंचास्तिकायसार में मात्र 173 गाथाओं, द्रव्यसंग्रह में मात्र 37 गाथाओं में संपूर्ण विषयों का विवेचन कर दिया गया है। जबकि उपाध्याय यशोविजयजी ने लगभग 17 ढालों और 284 गाथाओं में द्रव्य, गुण और पर्याय के सम्बन्ध में एक स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में इतना विशाल और महत्वपूर्ण ग्रन्थ हमारी जानकारी में यही था ।
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यद्यपि उपाध्याय यशोविजयजी ने जैनदर्शन के क्षेत्र में नव्य न्याय की पद्यति को सर्वप्रथम स्थान दिया है, फिर भी इस मूलग्रन्थ में उनके नव्य न्याय शैली का दर्शन नहीं होता है। किन्तु इसकी स्वोपज्ञ टीका में मात्र कहीं-कहीं क्वचित् रूप में नव्य न्याय शैली का दर्शन होता है। दूसरे इस ग्रन्थ के अध्ययन में हमें यह लगा कि जहां एक ओर उन्होंने अपने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों के चिन्तन को स्थान दिया वहीं दूसरी ओर जहाँ उन्हें आवश्यक लगा वहाँ उनकी समीक्षा भी की है । इस प्रकार समन्वय और समीक्षा की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गया है । यद्यपि मूल ग्रन्थ द्रव्य, गुण, पर्याय और उनके सम्बन्धों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । परन्तु इसमें नयों के विवेचन एवं विभाजन की जो शैली अपनाई गई है, वह भी महत्वपूर्ण है। श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजयजी ही एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने इस ग्रन्थ में नयों की गंभीर चर्चा की है । यद्यपि नयप्रवेश, नयरहस्य, अनेकान्त व्यवस्था आदि उनके नयों के सम्बन्ध में अनेक गंभीर ग्रन्थ हैं, फिर भी इस ग्रन्थ में जन-साधारण को द्रव्य गुण एवं पर्याय का स्वरूप एवं सहसम्बन्ध बताने के लिए उदाहरण सहित नयों की जो गंभीर चर्चा हुई है, वह अति महत्वपूर्ण है।
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प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय को हमने तीन भागों में विभक्त करके सर्वप्रथम प्रस्तुत कृति के स्वरूप और महत्त्व की चर्चा की है, वहीं इस कृति के ग्रन्थकार के रूप में उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की भी विस्तृत चर्चा की है । पृष्ठ वृद्धि के भय से वह सब चर्चा यहां पुनः नहीं करेंगे। किन्तु ग्रन्थ के विविध अध्यायों में किन-किन तथ्यों पर बल दिया गया है और उनको उभारा गया है, इसकी चर्चा अग्रिम पृष्ठों में अवश्य करेंगे।
प्रस्तुत कृति का द्वितीय अध्याय नय - विवेचन से सम्बन्धित है। पहले हमने सोचा था कि नय - विवेचन को सबसे अन्त में रखा जाय । लेकिन अध्ययन के दौरान ज्ञात हुआ कि नयों के स्वरूप को समझे बिना द्रव्य - गुण - पर्याय और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को नहीं समझाया जा सकता है। अतः इन तीनों के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए यशोविजयजी ने जैनदर्शन की प्राचीन परम्परा के अनुसार ही नय योजना की है। अतः नय को समझे बिना द्रव्य, गुण, पर्याय और उनके सम्बन्ध को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। यही कारण है कि प्रस्तुत कृति के द्वितीय अध्याय में नयों को समझाने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः 'नय' शब्द से तात्पर्य है जो हमें कथन के सम्यक् अर्थ के निकट ले जाता है। जिस प्रकार किसी एंगल के बिना कोई चित्र लेना संभव नहीं होता है, उसी प्रकार नय के बिना भी किसी पदार्थ को नहीं समझाया जा सकता है। जैन परंपरा के अनुसार तीर्थंकर बहुआयामी वस्तु के विभिन्न पक्षों का सम्यक् प्रकार से अनुभव तो करते हैं, किन्तु वे भी नय के बिना उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं। इसलिए जैन शास्त्रों में कहा गया है " ण णय विहुणं किंचि जिन वयणं"
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सर्वज्ञ भी वस्तु तत्त्व को निरपेक्ष रूप से अनुभव करता है, किन्तु उसकी भी यह शक्ति नहीं है कि नय के बिना कुछ कह सके। नयवाद अनेकान्तवाद और स्याद्वाद की अभिव्यक्ति का ही एक रूप है। इसलिए द्वितीय अध्याय में मुख्य रूप से अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी की चर्चा भी हमने की है । अनेकान्तवाद वस्तु तत्त्व के बहुआयामितता को स्पष्ट करता है, जबकि स्याद्वाद का काम उस
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बहुआयामी वस्तु की सम्यक् एवं सापेक्ष शाब्दिक अभिव्यक्ति करना है। अनेकान्तवाद
और स्याद्वाद एक दूसरे के पूरक हैं। जहां अनेकान्तवाद वस्तु के बहुआयामिता को स्पष्ट करता है वहीं स्याद्वाद उस बहुआयामिता वस्तु को अभिव्यक्त करने के लिए निर्दोष भाषा शैली प्रस्तुत करता है। परन्तु किन अपेक्षाओं से वस्तु की बहुआयामीयता को स्पष्ट किया जाता है, उनका स्पष्टीकरण तो नयवाद के द्वारा ही संभव है। नयवाद यह बताता है कि किस वस्तु के किन गुण-धर्मों को किस दृष्टि से कहा गया है।
प्रस्तुत कृति में उपाध्याय यशोविजयजी ने न केवल नयों की चर्चा की है, किन्तु साथ में यह भी स्पष्ट किया है कि वस्तु के किस पक्ष को किस अपेक्षा से स्पष्ट किया जावे। प्रस्तुत कृति में मैने नयस्वरूप और नय विभाजन को लेकर विस्तृत चर्चा की है जो लगभग 80 पृष्ठों में समाप्त हुई है। क्योंकि उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में और उसकी स्वोपज्ञ टीका में नय और नय के प्रकारों तथा उपप्रकारों की विस्तृत चर्चा की है वहां यह भी बताया है कि किस नय की अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय का कौन सा सम्बन्ध स्पष्ट होगा। इसी प्रसंग में उन्होंने जहां एक ओर दिगम्बर आचार्य देवसेन की नय विभाजन पद्धति को अपनाते हुए उसकी विस्तृत चर्चा की है, वहीं दूसरी ओर उनके नय विभाजन में कहां और कौनसी कमी रही है, उसको भी इंगित किया है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा के किसी तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थ में नयों और उनके प्रकारों एवं उपप्रकारों का वर्णन सर्वप्रथम 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में देखा जा सकता है। इससे यह बात और स्पष्ट होती है कि उपाध्याय यशोविजयजी समीक्षात्मक दृष्टि को रखते हुए भी समीक्षा में विरोधी के सत्पक्ष को अपनाने में नहीं हिचकिचाते थे।
नयों के इस विभाजन में जहां उन्होंने आगमिक परम्परा के अनुसार द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयों की चर्चा की है, वहीं निश्चयनय और व्यवहारनय की भी विस्तृत चर्चा की है। इसके अतिरिक्त इसी प्रसंग में जैन परम्परा के दर्शनयुग के नैगम आदि नयों का समाहार भी किया है तथा यह बताया है कि इन
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नयों के माध्यम से द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक संबंधों को किस प्रकार सम्यक् रूप से समझाया जा सकता है।
प्रस्तुत कृति के तृतीय अध्याय में हमने सर्वप्रथम द्रव्य के स्वरूप, लक्षण और प्रकारों की चर्चा की है। इस चर्चा में हमने यह स्पष्ट किया है कि जैनदर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा से षद्रव्यों की अवधारणा किस प्रकार विकसित हुई। यह सत्य है कि तत्त्वमीमांसा का जन्म दृश्यमान जगत के इन मूलभूत घटकों के स्वरूप को जानने के प्रयास में ही हुआ है। लेकिन जगत् के इस मूलभूत घटक को क्या कहा जाय, इस बात को लेकर दार्शनिकों में मतभेद रहा है। वैदान्त में मूलभूत घटक को सत् या ब्रह्म कहा गया है तो वहीं माध्यमिक बौद्धदर्शन में उसे शून्य कहा गया है। जबकि नैयायिकों और वैशेषिकों ने इस मूलभूत घटक को द्रव्य कहा है। लेकिन हम गहराई में जायें तो लगता है कि कूटस्थ नित्यवादियों की दृष्टि से उसके लिए सत् नाम उपयुक्त रहा है तो सत्ता के परिवर्तनशील पक्ष को माननेवालों ने उसे द्रव्य के रूप में अभिव्यक्त किया है। जबकि बौद्धों ने उसे परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील न कहकर 'शून्य' के नाम से सम्बोधित किया है। जैन दार्शनिक उमास्वाति ने जहां एक ओर उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को सत् का लक्षण कहा है, वहीं दूसरी ओर ‘सतद्रव्यलक्षणं' कहकर सत् और द्रव्य के मध्य समन्वय किया है। उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि भी यही समन्वयवादी रही है। इसलिए उन्होंने भी द्रव्य के लक्षण की चर्चा करते हुए उसमें न केवल उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को सिद्ध किया है, अपितु यह भी स्पष्ट किया कि यह उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य विभिन्न कालों में घटित न होकर सत्ता में समकाल में घटित होते हैं। जिस समय उत्पत्ति है उसी समय विनाश और ध्रौव्य भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न दार्शनिक परंपरा में विश्व के मौलिक तत्त्व के स्वरूप को लेकर विभिन्न दर्शनों की स्थापना हुई। ऋग्वेद में कहा भी गया है ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' सत् एक है, किन्तु मनीषीगण उसको अनेक रूपों में व्याख्या करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र चिन्तन के आधार पर विकसित दार्शनिक परंपराओं में जगत के मूल घटक को लेकर विभिन्न मत दिखाई देते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार भी विश्व अकृत्रिम
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है। वह अनादिकाल से है और अनादिकाल तक चलता रहेगा। किन्तु यहां विश्व को अकृत्रिम मानने का तात्पर्य यह नहीं है कि विश्व कूटस्थ नित्य है। उसको अकृत्रिम कहने का आशय मात्र इतना है कि यह सृष्टि किसी की रचना नहीं है। वैसे तो यह लोक स्वभाव से ही परिवर्तनशील या प्रवाह रूप है। प्रवाह के अपेक्षा से वह अनादि अनंत है, किन्तु इस प्रवाह में परिवर्तनशीलता भी समाविष्ट है। जैनदर्शन की मूलभूत मान्यता यही हैं कि वस्तु कालक्रम में बदलती है, लेकिन बदलकर भी वही रहती है।
जैनदर्शन में सर्वप्रथम पंचास्तिकाय की अवधारणा रही और उसी में आगे कालद्रव्य को जोड़कर षड्द्रव्य की अवधारणा बनी है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि जैन परम्परा में छठी शताब्दी तक भी कुछ विचारक काल को स्वतंत्र द्रव्य मानते थे तो कुछ विचारक काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते थे। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इन दोनों अवधारणाओं को समन्वित करते हुए यह माना कि सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। वस्तु के परिणमन होने पर भी वस्तु का अपना मूल स्वभाव विनष्ट नहीं होता है। सुवर्ण से विभिन्न आभूषण बनने पर भी उनमें सुवर्णत्व नष्ट नहीं होता है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में द्रव्य के स्वरूप को लेकर अपने पूर्व आचार्यों का अनुसरण करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने उसे समन्वित रूप से प्रस्तुत किया ताकि उसमें उत्पाद–व्यय के साथ-साथ ध्रौव्यता भी बनी रहे।
उपाध्याय यशोविजयजी की प्रस्तुत कृति की यह विशेषता है कि उन्होंने वैचारिक स्तर पर द्रव्य और गुण की स्वतंत्र सत्ता मानते हुए भी आचार्य सिद्धसेन के समान यह स्वीकार किया है कि द्रव्य से पृथक् गुण का और गुण से पृथक् द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है। द्रव्य और गुण के मध्य सम्बन्धों को लेकर दार्शनिकों में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं। द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर उपाध्याय यशोविजयजी के सामने भी तीन प्रकार की अवधारणाएं उपस्थित थी। एक परम्परा यह मान रही थी कि द्रव्य और गुण की अपनी-अपनी पृथक-पृथक सत्ता है और द्रव्य गुण का आश्रयस्थल है। दूसरी परम्परा इसके विपरीत यह मान रही थी कि
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द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी भाव न होकर उनमें तादात्म्य सम्बन्ध हैं। किन्तु यह दोनों ही परम्परा समुचित नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर एक भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे यह मानते हैं कि यद्यपि इन दोनों में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध है, परन्तु वह इस प्रकार का नहीं है जैसे देवदत्त घर में रहता है, इस कथन में है। वस्तुतः यहां द्रव्य-गुण की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करते हुए उनमें भेदरूप आश्रय-आश्रयी भाव व्यक्त किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी आश्रय-आश्रयीभाव तो मानते हैं, किन्तु वे उसे एकान्त भेदरूप नहीं मानते हैं। वे यह भी नहीं कहते हैं कि वस्तु मात्र गुणों का समूह है। वस्तुतः उनकी दृष्टि द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर न तो एकान्त भेद की और न एकान्त अभेद की है। वे यह अवश्य कहते हैं कि द्रव्य के बिना गुण और गुण के बिना द्रव्य नहीं होता है। किन्तु यहां उनके कथन का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और गुण में सत्ता के स्तर पर परस्पर अभेद है और वैचारिक के स्तर पर भेद भी परिलक्षित होता है। द्रव्य और गुण में न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है। वस्तुतः उनमें भेदाभेदरूप सम्बन्ध है। अस्तित्व की दृष्टि से एक क्षेत्रावगाही होने से उनमें अभेद सम्बन्ध है तो वैचारिक स्तर पर किसी भी गुण विशेष की सत्ता सर्वथा एकरूप नहीं होने से उनमें भेद भी है। अतः द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर वे भी भेदाभेदवादी ही हैं। वैचारिक स्तर पर उनमें भेद किया जाता है। किन्तु सत्ता के स्तर पर उनमें अभेद ही रहा हुआ है। उनके अनुसार जिस प्रकार दीवार और उसमें अंकित चित्र में परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार द्रव्य और गुण में भी परस्पर सम्बन्ध है। जिस प्रकार मूल, स्कन्ध, शाखाएं, पत्ते, फूल और फल आदि मिलकर वृक्ष कहलाते हैं वैसे ही गुण भी परस्पर समन्वित होकर द्रव्य कहलाते हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि पर्याय के सम्बन्ध में भी भेदाभेद रूप ही रही है। वे एक ओर द्रव्य से पृथक् पर्याय की और पर्याय से पृथक् द्रव्य की सत्ता को नहीं मानते हैं, किन्तु दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि पर्याय उत्पन्न होती है
और नष्ट भी होती है। अतः कोई भी पर्याय द्रव्य के साथ त्रिकाल में नहीं रहती है। इसलिए पर्याय द्रव्य से पृथक् भी है और द्रव्य का एक अंश भी है। जिस प्रकार व्यय
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और ध्रौव्य में अविनाभाव सम्बन्ध है उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी अविनाभाव सम्बन्ध है। सत्ता के स्तर पर उनमें भेद नहीं होता है। परन्तु विचार के स्तर पर उनमें भेद किया जा सकता है। जो पर्याय जिस काल की होती है, उसी काल में अभिन्न होती है, कालान्तर में वह अलग हो जाती है। पूर्वकालीन पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होकर नहीं रहती हैं। अत: उनका भेद होता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने यहां यह भी स्पष्ट किया है कि जहाँ द्रव्य के गुण त्रिकाल में उसके साथ अभिन्न होकर ही रहते हैं। वहां पर्याय अपने स्वकाल में ही द्रव्य से अभिन्न होती है, अन्यकाल में वह द्रव्य से अलग ही रहती है। अतः जहां द्रव्य नित्य है, वहां पर्याय अनित्य है। किन्तु द्रव्य का पर्याय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से इतना तो कहा जा सकता है कि द्रव्य के अभाव में गुण एवं पर्याय कुछ भी नहीं है। इन सबकी चर्चा हमने प्रस्तुत शोध ग्रन्थ के तृतीय अध्याय एवं षष्टम् अध्याय में विस्तार से की है। द्रव्य, गुण और पर्याय में निमित्त और उपादान दोनों कारणों की आवश्यकता है।
इस अध्याय में उपाध्याय ने द्रव्य, गुण, पर्याय और उनके पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर बौद्धों और जैनों में क्या अन्तर है ? इसे भी स्पष्ट किया है। जहां एक ओर बौद्ध दार्शनिक पर्याय से पृथक् द्रव्य की सत्ता ही नहीं मानते हैं वहां यशोविजयजी ने उनके मत का निरसन करते हुए कहा है कि ज्ञेय की वास्तविक सत्ता को अस्वीकार करके मात्र ज्ञानाकार को ही सत् मानने पर घट, पट आदि पौद्गलिक पदार्थों के अस्तित्व के बिना ही केवल वासना विशेष से ही घट पट का ज्ञान हो जायेगा। घट-पट आदि के अभाव में यह ज्ञान घटाकार रूप है, यह ज्ञान पटाकार रूप है, ऐसा स्पष्ट बोध भी नहीं होगा। इसलिए यशोविजयजी का बौद्धों के विरोध में यह कहना है कि द्रव्य और पर्याय की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी प्रतिसमय प्रतिपदार्थ में रहती है। जैसा हमने पूर्व में भी संकेत किया है कि उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही वस्तु में समकाल में रहते हैं। उत्पाद के बिना व्यय और व्यय के बिना उत्पाद संभव नहीं
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होता है। अतः जहां उत्पाद है वहां व्यय भी और वहीं ध्रौव्य भी है। इसकी चर्चा मैने प्रस्तुत शोधग्रन्थ के इस अध्याय में विस्तार से की है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी कहां और किस रूप में घटित होती है, इसकी चर्चा भी इसी अध्याय में विशेष रूप से की है। प्रस्तुत अध्याय में हमने उपाध्याय यशोविजयजी के द्वारा उत्पाद आदि के जो विभिन्न रूप बताए गये हैं, उनकी भी चर्चा की है। सर्वप्रथम उपाध्याय यशोविजयजी ने उत्पाद के प्रयोगज उत्पाद और विनसाउत्पाद दो भेद करके पुनः विनसा उत्पाद के समुदायजनित विम्रसा उत्पाद के तीन भेद करते हुए अचित समुदायजनित विनसा उत्पाद, सचित समुदायजनित विनसा उत्पाद और मिश्र समुदायजनित विनसा उत्पाद ऐसे भेद किये हैं। इसी प्रकार उन्होंने व्यय के भी अनेक भेद करते हुए उनकी चर्चा की है। जैसे रूपान्तरण नाशरूप व्यय, अर्थान्तरणनाशरूप व्यय, समुदायविभागनाशरूप व्यय, अर्थान्तरण गमननाशरूप व्यय । यहां यह भी ज्ञातव्य है कि उपाध्यायजी ने अपनी इस कृति में उत्पाद और व्यय के साथ-साथ ध्रौव्य की भी चर्चा करके उसके भी भेद बतायें हैं, एक स्थूल ध्रुवभाव और दूसरा सूक्ष्म ध्रुवभाव।
इसी तृतीय अध्याय में द्रव्य के गुणों की चर्चा करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने यह दिखाया है कि एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य को पृथक करने के लिए कुछ विशिष्ट गुण होते हैं। जीव में चेतना, पुद्गल में वर्ण आदि, धर्मद्रव्य में गतिसहायकता, अधर्मद्रव्य में स्थिति सहायकता, आकाश में दूसरे द्रव्यों को स्थान देना और काल में दूसरे द्रव्यों के वर्तना में सहायक बनना विशिष्ट गुण है। इस प्रकार षड्द्रव्यों के अपने-अपने विशिष्ट गुण होते हैं जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करते हैं। किन्तु दूसरी ओर द्रव्यत्व, अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरूलघुत्व ये छह गुण सामान्य होते हैं जो सभी द्रव्यों में पाये जाते है। इस प्रकार द्रव्य गुणों का समूह है। हमें यहां एक बात को समझ लेना है कि द्रव्य मात्र पृथक्-पृथक् गुणों का समूह नहीं है, अपितु सामान्य गुणों के साथ किसी एक विशिष्ट गुण युक्त यथार्थ सत्ता को ही द्रव्य कहते हैं सामान्यतया उपाध्याय यशोविजयजी इस बात को स्वीकार करते हैं कि वैसे तो प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण
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होते हैं, किन्तु सामान्य गुणों की अपेक्षा से भी कुछ विशिष्ट गुण होते हैं जो द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। गुण, द्रव्य के स्वरूप के नियामक हैं। इसी प्रकार कोई भी द्रव्य पर्यायों से भी पृथक् नहीं है। पर्यायें द्रव्य और गुणों की विभिन्न अवस्थाओं की सूचक है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्यायों का एक समन्वित स्वरूप है। सामान्य व्यवहार की अपेक्षा से हम द्रव्य, गुण और पर्याय को अलग-अलग मानते हैं। किन्तु ये तीनों एक ऐसी संरचना है जिसे विश्लेषणपूर्वक जाना तो जा सकता है, लेकिन इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। सामान्यतया जैनदर्शन में अपने विशिष्ट गुणों और पर्यायों के आधार पर द्रव्यों की अलग-अलग पहचान की जाती है। अतः यह हमें स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय को हम चाहे वैचारिक स्तर पर भिन्न-भिन्न करके देखें, किन्तु सत्ता के स्तर पर वे तीनों एक हैं। द्रव्य को उसके गुण-पर्यायों से अलग करके देखा भी जाये तो भी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में हमने द्रव्य, गुण और पर्याय का पृथक-पृथक् विवेचन तो किया है, किन्तु यह विवेचन सत्ता के आधार पर न होकर विचार के स्तर पर ही है।
इस अध्याय के अन्त में हमने यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों की क्या उपयोगिता है। अतः अध्याय के अन्त में प्रत्येक द्रव्य की सामान्य और विशेष उपयोगिता को स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है। वस्तुतः छहों द्रव्य अलग-अलग होकर भी एक दूसरे के सहयोगी हैं और उनके पारस्परिक सहयोग से ही इस विश्व का अस्तित्व है।
प्रस्तुत अध्याय में सबसे महत्त्वपूर्ण चर्चा जो उपाध्याय यशोविजयजी ने की है वह कालद्रव्य के अस्तित्व को लेकर की है। उपाध्याय यशोविजयजी ने कालद्रव्य की समीक्षा करते हुए कहा है कि जिस प्रकार गति, स्थिति आदि के माध्यम के रूप में धर्म, अधर्म द्रव्यों की कल्पना की जाती है, उसी प्रकार वर्तना के माध्यम के रूप में कालद्रव्य की कल्पना की जाती है। हमने विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि चाहे परिणमनशीलता के माध्यम के रूप में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना जाये किन्तु
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काल को पर्याय संपृथक् करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि पर्याय परिणमनशीलता से पृथक् नहीं है। काल पर्याय रूप है और पर्याय कालरूप है। इस अध्याय के अन्त में हमने जीव और पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध करते हुए यह बताया है कि चाहे प्रत्येक द्रव्य उपादान के रूप से एक दूसरे से स्वतंत्र
और पृथक् हों, किन्तु कार्य-कारण की व्यवस्था में निमित्त का महत्त्व सर्वविदित है। निमित्त के बिना उपादान सक्रिय नहीं होता है। कार्यकारण की व्यवस्था में निमित्त और उपादान दोनों ही समतुल्य होते हैं। सामान्यतया निश्चयवादियों की यह अवधारणा की कोई भी द्रव्य स्वपर्यायों में ही परिणमन करता है, सत्य है। किन्तु वह पर पर्यायों से भी प्रभावित भी होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसार अवस्था में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से प्रभावित होता भी है और प्रभावित करता भी है। सत्ता के स्तर पर प्रत्येक द्रव्य एक दूसरे से स्वतंत्र है, किन्तु जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है, प्रत्येक द्रव्य एक दूसरे से उपकृत भी होता है और उपकार करता भी है। यहां तक कि जीवद्रव्य भी पारस्परिक उपकार उपकृत भावों से रहित नहीं है। यही बात द्रव्य के सम्बन्ध में सम्यक् समझ की परिचायक है।
अन्य दर्शनों से जैनदर्शन के द्रव्य की समानता और विषमता :
जैनदर्शन के अनुसार सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है। जो सदा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है, वही द्रव्य है। अखण्ड द्रव्य में उत्तर पर्याय का प्रादुर्भाव उत्पाद है। जैसे - मिट्टी से घट का बनना। पूर्व पर्याय का विनाश व्यय है। जैसे- मिट्टी के पिण्डाकार का नाश। इस प्रकार पूर्व पर्याय का विनाश तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपनी जाति को न छोड़ना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार और घट दोनों ही अवस्थाओं में मिट्टीपना ध्रुव है। प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय उत्तर अवस्था से उत्पन्न, पूर्व अवस्था से व्यय और द्रव्यत्व से ध्रौव्य रहता है। इस प्रकार द्रव्य परिवर्तित होकर भी अपरिवर्तनशील है अथवा बदलकर भी नहीं बदलता है। अव्स्थान्तरण या पर्यायान्तरण रूप में प्रतिक्षण परिवर्तित होने पर भी वस्तु वही
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की वही रहती है। उत्पादव्यात्मक होने से जो परिवर्तनशील है वह पर्यायरूप है तथा ध्रौव्यरूप होने से जो अपरिवर्तनशील है वह द्रव्यरूप है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक सत्ता द्रव्यरूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। यही जैनदर्शन का परिणामीनित्यवाद है।
वेदान्त और जैनदर्शन -
जैनदर्शन सम्मत द्रव्य एकान्त रूप से न तो नित्य है और न ही क्षणिक है, अपितु नित्यानित्य है। जैनदर्शन द्रव्य के नित्यपक्ष की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन के निकट है। दोनों दर्शन सत् को नित्य मानने पर भी दोनों की नित्यता में अन्तर है। वेदान्तदर्शन सत् को कूटस्थनित्य, परमार्थिक दृष्टि से निर्विकार और अव्यय मानता है अर्थात् त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन घटित नहीं हो सकता है। जबकि जैनदर्शन सत् को परिणामीनित्य मानता है अर्थात् द्रव्य के रूप में नित्य होते हुए भी पर्याय के रूप में परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तित होते हुए भी द्रव्य के रूप में नित्य रहता है। सत्ता अपने अनादि स्वभाव से न तो उत्पन्न होती है और नहीं व्यय होती है, किन्तु उसकी अवस्थाओं का उत्पाद–व्यय होता रहता है। जहाँ ब्रह्मवादी सत् के उत्पाद-व्यय पक्ष या पर्याय को अवास्तविक मानते हैं और ध्रौव्यपक्ष या द्रव्य को वास्तविक मानते है, वहाँ जैनदर्शन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही सत् के रूप में व्याख्यायित करता है। क्योंकि सर्वथानित्य या पर्याय निरपेक्ष द्रव्य में अर्थक्रिया संभव नहीं हो सकती है और जो अर्थक्रिया से रहित है उसकी सत्ता ही नहीं है। .
एकान्त नित्य मानने पर वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगी। उसमें कुछ भी परिवर्तन संभव नहीं होगा। मिट्टी सदा मिट्टी ही रहेगी। उससे कभी भी घट नहीं बन सकता है। बालक सदा बालक ही रहेगा, वह युवा न हो पायेगा। युवा युवा ही रहेगा, वह कभी वृद्ध नहीं हो पायेगा। वृद्ध सदा वृद्ध ही बना रहेगा, वह मर न पावेगा। जो जैसा है, वह वैसा ही रहेगा। ऐसी स्थिति में जगत को मिथ्या या असत्
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ही मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारे अनुभूति में आने वाला जगत तो परिवर्तनशील है। जगत की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा परिवर्तन से रहित हो। इसी प्रकार सर्वथा नित्य आत्मा दान, पूजा, हिंसा आदि शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकती है। सर्वथा नित्य आत्मा तो वही हो सकती है जिसके स्वभाव में भी परिवर्तन नहीं होता है। पुनः आत्मा नित्य या अपरिवर्तनशील ही है तो वह सदा संसारी रूप में रहेगी या मोक्षावस्था में ही रहेगी। न उसका बंधन हो सकता है और नहीं मुक्ति हो सकती है। ऐसी स्थिति में बंधन और मुक्ति की व्याख्या, धर्मसाधना आदि सब कुछ अर्थहीन हो जायेंगे।
बौद्धदर्शन और जैनदर्शन -
जैनदर्शन वस्तु को परिवर्तनशील मानकर भी उसे सर्वथा क्षणिक नहीं मानता है, जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है। बौद्धदर्शन के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है। सब कुछ क्षणिक है। कुछ भी स्थायी नहीं है। जैनदर्शन भी वस्तु को प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानता है, किन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं मानता है। पर्यायों के उत्पाद और व्ययरूप परिणमन के बावजूद भी द्रव्य का नाश नहीं होता है। उदाहरणार्थ मिट्टी में पिण्डाकार का नाश और घटाकार का उत्पाद रूप परिणमन होने पर भी मिट्टी का सर्वथा नाश नहीं होता है। मिट्टी के पिण्डाकार के नाश के साथ ही मिट्टी का सर्वथा नाश मानने पर तो घट की उत्पत्ति असत् से माननी पड़ेगी परन्तु यह सर्वमान्य नियम है कि सत् का नाश और असत् की उत्पत्ति कभी नहीं होती है।
यदि व्यक्ति या वस्तु अपने पूर्व क्षण की अपेक्षा उत्तर क्षण में सर्वथा बदल जाते हैं तो कर्मफल और नैतिकता आदि की व्याख्या भी नहीं हो सकेगी। दान देने वाला या पाप करनेवाला नष्ट हो गया तो दान या पाप का फल किसे मिलेगा ? पापफल का भोग कौन करेगा ? इसी प्रकार जिसने कर्मबन्ध किया, वह सर्वथा नष्ट
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हो गया तो मोक्ष किसका होगा ? पूर्व में किये हुए चोरी आदि के लिए भी व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। क्योंकि जिसने चोरी की, वह तो नष्ट हो गया। पुनः ऋण देनेवाला अपने ऋणी को पहचानकर ऋण को वसूल भी नहीं कर सकता है। 'यह वही है जिसने ऋण लिया था, ऐसा प्रत्यभिज्ञान क्षणिकवाद में संभव नहीं हो सकता है। परिमाणस्वरूप परिवर्तन के इस दौड़ में एक दूसरे को पहचान नहीं पाते। इस प्रकार क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञान, दान का फल, पापों का भोग, बन्ध और मोक्ष आदि घटित नहीं होते हैं।
यही कारण है कि जैनदर्शन वस्तु का सर्वथा नाश नहीं मानता है, अपितु केवल उसका रूपान्तरण या अवस्थान्तरण ही स्वीकार करता है। चूंकि अवस्थाएं या पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होने से ऐसा कहा जाता है कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय होता है। परन्तु परमार्थ से द्रव्य का न तो उत्पाद होता है और न ही व्यय होता है। द्रव्य तो त्रिकाल स्थायी और अनादिनिधन है। द्रव्य के पर्यायों का ही उत्पाद और व्यय होता है। द्रव्य का द्रव्यत्व तो सदा ध्रुव रहता है। बौद्धदर्शन द्रव्य के इस ध्रुवता को अस्वीकार करके केवल उत्पाद और विनाश को ही मानता है। इस दर्शन के मतानुसार पर्याय ही वास्तविक है। द्रव्य वास्तविक नहीं है।
जैनदर्शन और न्याय–वैशेषिकदर्शन -
जैनदर्शन गुण को द्रव्य के आश्रित और द्रव्य को गुणों का समुदाय मानता है। द्रव्य और गुण परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। न्याय–वैशेषिकदर्शन भी द्रव्य को गुण और क्रिया का आधार तो मानते हैं, परन्तु उनके अभिमत में गुण और द्रव्य सर्वथा भिन्न है। प्रथम क्षण में द्रव्य गुणों से रहित होता है, तदनंतर समवाय नामक पदार्थ से दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है। परन्तु समवाय सम्बन्ध से अनवस्था का दूषण आता है। यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो पुनः प्रश्न उठता है कि समवाय सम्बन्ध गुण और द्रव्य में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि समवाय सम्बन्ध अन्य समवाय सम्बन्ध से गुण और द्रव्य में रहता है तो उस समवाय के लिए
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भी दूसरे समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था दोष आता है। यदि समवाय सम्बन्ध बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में रहता है तो समवाय की तरह गुण भी बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य में रह सकते हैं। अतः जैनदर्शन के अभिमत में द्रव्य और गुण परस्पर भिन्नाभिन्न है।
द्रव्य और गुण को एकान्त भिन्न मानने पर द्रव्य का अभाव और द्रव्य का अनंतता का दोष उत्पन्न होता है। गुण किसी न किसी द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं। यदि वह द्रव्य गुण से भिन्न है तो गुण दूसरे किसी द्रव्य के आश्रय से रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य की अनन्तता का प्रसंग आता है। द्रव्य गुणों का समुदाय है। यदि गुण समुदाय (द्रव्य) से भिन्न है तो फिर समुदाय ही नहीं रहेगा। इस तरह गुणों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न मानने पर तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इसलिए गुण-गुणी का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। जो गुण के प्रदेश हैं वही गुणी अर्थात् द्रव्य के प्रदेश हैं। गुण और द्रव्य में प्रदेश भेद नहीं होने पर संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भेद भी है।
जैनदर्शन और सांख्य योगदर्शन
जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन की तरह जड़ और चेतन तत्त्व को माननेवाला द्वैतवादी दर्शन है, परन्तु वह सांख्यदर्शन की तरह पुरूष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य नहीं मानता है, अपितु वस्तुमात्र को परिणामीनित्य मानता है, फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन तत्त्व। सांख्यदर्शन के अभिमत में प्रकृति परिणामीनित्य है और पुरूष कूटस्थनित्य है। जबकि जैनदर्शन में जड़ और चेतन दोनों ही परिणामीनित्य हैं।
पुरूष को कूटस्थनित्य मानने पर उसके बन्धन एवं मुक्ति की अवधारणा नहीं बनेगी तथा जड़ प्रकृति का बंधन और मुक्ति मानना युक्तिसंगत नहीं होगा। जबकि
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सांख्य एवं योगदर्शन बंधन और मुक्ति को मानकर मुक्ति का मार्ग भी प्रस्तुत करते
हैं ।
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जैनदर्शन और मीमांसा
यद्यपि जैनदर्शन और मीमांसा दोनों ही सत्ता को परिणामीनित्य मानते हैं, फिर भी मीमांसा आत्मा की नित्य मुक्ति को नहीं मानता है । वह स्वर्ग प्राप्ति तक ही अपने को सीमित रखता है। उसका कहना है कि यदि मुक्ति नित्य है तो फिर आत्मा का परिणामी नित्यत्व खण्डित होगा ।
प्रस्तुत शोध ग्रन्थ का चतुर्थ अध्याय गुण की अवधारणा से सम्बन्धित है। जहां न्याय-वैशेषिकदर्शन द्रव्य से गुणों को पृथक् मानता है, वहां जैनदर्शन द्रव्य को गुणपर्याय युक्त कहकर उनमें भेदाभेद की कल्पना करता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में गुण क्या है, कितने प्रकार का है ? उनका द्रव्य और पर्याय से क्या सम्बन्ध है ? किस द्रव्य के कौन-कौनसे द्रव्य हैं ? गुण और स्वभाव में क्या अन्तर है ? आदि प्रश्नों को उठाकर गंभीर चर्चा की है । यद्यपि तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से गुण को द्रव्य का लक्षण बताया गया है। तथापि जैन वाङ्मय में गुण शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुआ है । आचारांग में वह इन्द्रियों के भोग के विषय के रूप में तो नीति सम्बन्धी चर्चा में सद्गुण के रूप में तथा तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से द्रव्य के आश्रित रहने वाले धर्म या शक्ति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में कहीं-कहीं गुण शब्द अंश या अनुपात के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। फिर भी जहां तक जैन तत्त्वमीमांसा का प्रश्न है वहां गुण द्रव्य के स्वभाव, शक्ति या धर्म के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है । उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने ‘द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य के सहवर्ती धर्मों को गुण कहा है और उनके सामान्य और विशेष ऐसे दो विभाग किये हैं । उपाध्याय यशोविजयजी के पूर्व जैनदार्शनिकों ने द्रव्य के आश्रित रहनेवाले विशिष्ट धर्मों को गुण कहा है वहीं उन्हें एक द्रव्य के दूसरे द्रव्य से पृथक् करनेवालों को भी गुण कहा है। वस्तुतः द्रव्य के सहभावी तत्त्व ही
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गुण कहलाता है। किन्तु जो गुण या धर्म सभी द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं उन्हें सामान्य गुण और जो गुण सभी द्रव्यों में समान रूप से नहीं पाया जाकर एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से अन्तर बताते हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में आलापपद्धति, प्रवचनसार आदि के अनुसार ही सामान्य और विशेष रूप में गुण को विभाजित किया है। प्रस्तुत कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने आलापपद्धति का अनुसरण करते हुए दस सामान्यगुण और सोलह विशेष गुणों की चर्चा विस्तार से की है। उन्होंने द्रव्यत्व, अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरूलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ऐसे दस गुणों की विस्तार से चर्चा की है। विशेष गुणों की चर्चा के प्रसंग में उन्होंने ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, इन विशिष्ट गुणों के साथ चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व को स्वजाति की अपेक्षा से सामान्यगुण और परजाति की अपेक्षा से विशेष गुण बताया है। ये चार गुण किसी द्रव्य में भाव रूप से और किसी द्रव्य में अभावरूप से होते हैं। इस प्रकार विशेष गुणों का विस्तार से उल्लेख किया है। 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यह भी स्पष्ट किया गया है कि कौन से द्रव्य में कितने सामान्यगुण और कितने विशेष गुण पाये जाते हैं। यहां हम विशेष चर्चा में न जाकर मात्र इतना कहना चाहेंगे कि उपाध्याय यशोविजयजी ने परमार्थ से द्रव्य में अनंत गुण होने पर भी स्थूल व्यवहार की अपेक्षा से दस सामान्य और सोलह विशेष गुणों की चर्चा की है। उनकी दृष्टि में इस मान्यता से वस्तु में अनंत धर्मात्मकता में कोई अन्तर नहीं आता है। जैनदर्शन में वस्तु को जो अनंतधर्मात्मक कहा गया है उसमें न केवल भावात्मक गुणों का समावेश है, अपितु अभावात्मक गुणों का भी समावेश है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने गुणों की चर्चा के साथ-साथ स्वभाव की भी चर्चा की है। वे कहते हैं कि द्रव्य अनंत स्वभावों का आधार होकर भी एक स्वभाववाला है। द्रव्य को एक स्वभाववाला नहीं मानने पर द्रव्य के गुण बिखर कर द्रव्य का ही
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अभाव हो जायेगा । द्रव्य का अभाव होने से आधार - आधेय सम्बन्ध का भी अभाव होकर गुण और पर्याय निराधार हो जायेंगे। जहां द्रव्य एक ओर एक स्वभाववाला है वहीं अनेक गुण–पर्यायों में अन्वय सम्बन्ध से रहने के कारण अनेक स्वभाववाला भी है। उपाध्याय यशोविजयजी ने ग्यारह सामान्य स्वभाव और कुछ विशेष स्वभावों की चर्चा की है, जिसे हमने इस चतुर्थ अध्याय में विस्तार से चर्चा की है। स्वभाव-स्वभाव, विभाव स्वभाव, उपचरित और अनुपचरित स्वभाव, अस्ति और नास्ति स्वभाव, एक और अनेक स्वभाव, भेद स्वभाव और अभेद स्वभाव, भव्यत्व स्वभाव और अभव्यत्व स्वभाव, चेतन स्वभाव और अचेतन स्वभाव, मूर्त स्वभाव और अमूर्तस्वभाव आदि अनेक प्रकारों के स्वभाव की चर्चा की है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय गुण और स्वभाव के सम्बन्ध को भी स्पष्ट करता है । विस्तारभय से हमने यहां सार रूप ही प्रस्तुत किया है।
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प्रस्तुत शोधग्रन्थ का पंचम अध्याय पर्याय से सम्बन्धित है । द्रव्य में रहनेवाले सहभावी धर्म गुण और क्रमभावी धर्म पर्याय कहलाते हैं। जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में तेल प्रतिक्षण जलने पर भी दीपशिक्षा यथावत रहती है, उसी प्रकार द्रव्य के प्रतिसमय परिणमनशील होते हुए भी द्रव्यत्व यथावत रहता है । द्रव्य का यह परिणमन ही पर्याय है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में परिणमन को ही पर्याय कहा है जिसकी पुष्टि अनेक आचार्यों ने की है। जिस प्रकार द्रव्य और गुण में भेदाभेद सम्बन्ध है, उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी भेदाभेद सम्बन्ध हैं। वर्तमान समयवर्ती पर्याय द्रव्य में अभेद रूप से रही हुई है, वहां भूतकालीन और भविष्यकालीन पर्याय द्रव्य से पृथक् होती है। पर्याय की विशेषता को बताते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने उसे क्रमवर्ती बताया है । द्रव्य और गुण की अनंत पर्याय होती हैं, परन्तु सभी पर्याय एक साथ नहीं होती है । एक पर्याय के नाश होने पर ही दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। इसलिए यह कहा जाता है कि जहां गुण सहभावी धर्म है, वहां पर्याय क्रमभाव
पर्याय है।
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वस्तुतः उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में वस्तु को उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक मानने के लिए अथवा वस्तु का स्वरूप अनंतधर्मात्मक है यह बताने के लिए पर्याय की अवधारणा आवश्यक है । भारतीय चिन्तन में जहां वेदान्त और किसी सीमा तक सांख्य ने द्रव्य के अपरिवर्तनशीलता को महत्त्व दिया वहीं दूसरी ओर बौद्धों ने पर्याय या परिणमनशीलता को ही स्वीकार करते हुए द्रव्य की सत्ता का ही निषेध कर दिया। जैन दार्शनिकों ने दोनों में समन्वय करते हुए वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य बताया है। आलापपद्धति में 'गुण विकाराः पर्याय' कहकर पर्याय को सत्ता का परिवर्तनशील पक्ष ही बताया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने पर्यायों की विभिन्न प्रकारों की विस्तार से चर्चा करते हुए पर्यायों के आठ प्रकारों की चर्चा की है, जैसे शुद्ध व्यंजन पर्याय, अशुद्ध व्यंजन पर्याय, शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय, अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय, शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय, अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय, शुद्ध गुण अर्थ पर्याय और अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय। इसके अतिरिक्त भी पर्यायों के अनेक भेद किये गये हैं । जैसे सजातीय द्रव्य पर्याय, विजातीयद्रव्यपर्याय, स्वाभाविक गुणपर्याय, वैभाविक गुणपर्याय । प्रस्तुत अध्याय में उपाध्याय यशोविजयजी ने पर्यायों के उपरोक्त भेदों की चर्चा करते हुए यह भी बताया है कि वस्तुतः पर्यायों के ये भेद अपूर्ण ही हैं। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य की अनंत पर्याय भूतकाल में हो चुकी है और अनंत पर्याय भविष्यकाल में होगी । अतः पर्यायों को सीमित करके नहीं बताया जा सकता है। पर्यायों के भेदों का कोई भी वर्गीकरण सीमित ही होगा। जबकि पर्यायें एक द्रव्य की अपेक्षा से भी अनंत हैं और द्रव्य समूह और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर भी अनंत है । उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार ऐसी अनंत पर्यायों को सीमित भाषा में बांधकर विवेचित नही किया जा सकता है।
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द्रव्य, गुण, पर्याय के इस चर्चा के उपरान्त हमने षष्टम् अध्याय में यह बताने का प्रयास किया है कि विभिन्न नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध कैसे घटित होता है । यद्यपि पूर्व में द्रव्य नामक तृतीय अध्याय में गुण और पर्यायों के साथ द्रव्य का क्या सम्बन्ध है इसकी चर्चा कर चुके हैं । किन्तु
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इनका पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा नय के आधार पर विशिष्ट होने से इस षष्टम् अध्याय में उसकी विस्तृत चर्चा की है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का षष्टम् अध्याय द्रव्य, गुण एवं पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध की विवेचना करता है। इसमें हमनें एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से, द्रव्य का गुण से, गुण का दूसरे गुणों से तथा द्रव्य और गुण का पर्याय से क्या सम्बन्ध है ? इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपाध्याय यशोविजयजी अनेकान्तवाद के पोषक दार्शनिक रहे। अतः उन्होंने इन सम्बन्धों को सापेक्ष रूप से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है।
जहां तक एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से सम्बन्ध का प्रश्न है, जैनदर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र और स्वप्रतिष्ठित है। निश्चयनय की दृष्टि से एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु दूसरी ओर छहों द्रव्यों का अवगाहन क्षेत्र एक होने से ये छहों द्रव्य एकक्षेत्रावगाही हैं। अतः यह कहना होगा कि सभी द्रव्य स्वतंत्र होकर भी एकक्षेत्रावगाही होने से व्यावहारिक दृष्टि से परस्पर सम्बन्धित है। दूसरी ओर छहों द्रव्य को एक दूसरे का उपकारी भी कहा गया है। जैसे धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गति में सहायक है तो अधर्मद्रव्य उनकी स्थिति में सहायक है। आकाश शेष पांचों द्रव्यों को स्थान देकर उनका उपकार करता है। उसी प्रकार पुद्गल जीव के शरीर संरचना आदि में सहायक बनता है। कालद्रव्य वर्तना लक्षणवाला होने से सभी द्रव्यों के परिणमन में सहायक बनता है। जीव यद्यपि अन्य द्रव्यों का कोई उपकार तो नहीं करता है, फिर भी उनसे उपकृत अवश्य है। दूसरा जीवों का लक्षण ‘परस्परग्रहो जीवानाम' माना गया है। इस आधार पर छहों द्रव्य स्वतंत्र होकर भी परस्पर उपकारी और उपकृत भाव से रहे हुए हैं। अतः उनमें कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनेकान्त दृष्टि इस तथ्य की समर्थक प्रतीत होती है।
जहां तक द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रश्न है गुणों को दो भागों में विभाजित किया गया है –सामान्यगुण और विशेषगुण। सामान्यगुण सभी
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द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं, जबकि विशेषगुण किसी विशेष द्रव्य की विशिष्टता का वाचक होते हैं। किन्तु जहां तक इनके पारस्परिक सम्बन्धों का प्रश्न है, कोई भी द्रव्य गुण से रहित नहीं होता है। क्योंकि गुणों को द्रव्य का सहभावी माना गया है। अतः गुण और द्रव्य परस्पर सम्बन्धित हैं। गुणों से पृथक द्रव्य का और द्रव्य से पृथक् गुणों का कोई अस्तित्व नहीं है। अतः द्रव्य और गुण में अभेद सम्बन्ध है। फिर भी जहां तक विशेष गुणों का प्रश्न है, वे किसी द्रव्य में भाव रूप से तो अन्य किसी द्रव्य में अभावरूप होते हैं। किन्हीं द्रव्यों में किन्हीं विशेष गुणों का अभाव द्रव्य और गुणों के भेद को सूचित करता है। यही कारण है कि उपाध्याय यशोविजयजी ने एक ओर द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध मानकर भेद सम्बन्ध को माना है तो दूसरी ओर द्रव्य और गुण में परस्पर भेद सम्बन्ध को भी स्वीकार किया है। विशेष गुणों का किसी द्रव्य में अन्वय और किसी द्रव्य में व्यतिरेक पाया जाता है। ये विशेष गुण एक दूसरे द्रव्य के भेदक हैं। इस अपेक्षा से भेद सम्बन्ध भी सिद्ध होता है। उपाध्याय यशोविजयजी यह मानते हैं कि द्रव्य और गुण में भी भेदाभेद सम्बन्ध है। उनके अनुसार द्रव्य समुदाय है, गुण समुदायी है। द्रव्य अंश है, गुण अंशी है। द्रव्य आधार है और गुण आधेय है। पुनः जो गुण है वह द्रव्य नहीं है और जो द्रव्य है वह गुण नहीं है। इस प्रकार द्रव्य और गुण के भेद सम्बन्ध को स्पष्ट किया है।
वाचक उमास्वाति ने 'गुणपर्यायवत् द्रव्यम्' कहकर कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता को प्रतिपादित किया है। जहां तक गुणों का पारस्परिक सम्बन्ध है, प्रत्येक गुण स्वतंत्र है। उमास्वाति ने निर्गुणा गुणाः कहकर यह स्पष्ट किया है कि गुण एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। फिर भी एक द्रव्याश्रित होने से कुछ सम्बन्ध तो अवश्य हैं। प्रस्तुत अध्याय में हमने यह भी स्पष्ट किया है कि जहां जैनदर्शन द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर भेदाभेदवादी है वहां नैयायिक एकान्त भेदवादी हैं।
जहां तक द्रव्य और पर्यायों के सम्बन्ध का प्रश्न है उपाध्याय यशोविजयजी यह मानते हैं कि कोई भी द्रव्य पर्याय से रहित और कोई भी पर्याय द्रव्य से रहित
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नहीं होता है। सत्ता में जो उत्पाद और व्यय रूप परिणमन है वह पर्याय आश्रित है और जो ध्रुव है वह द्रव्याश्रित है। उत्पाद के बिना व्यय और व्यय के बिना उत्पाद संभव नहीं है, किन्तु उत्पाद और व्यय किसी ध्रुव में ही संभव है। अतः द्रव्य और पर्याय में परस्पर सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में द्रव्य और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध भेदाभेद रूप है। वे कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। क्योंकि जैनों की अनेकान्त दृष्टि इसी तथ्य की समर्थक है।
इसी अध्याय में हमने द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक बताते हुए यह सिद्ध किया है कि द्रव्य अपनी सत्ता की अपेक्षा से सामान्य होते हुए भी पर्याय की अपेक्षा से विशेष भी है। क्योंकि द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक मानने पर ही द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को कथंचित् भेदरूप है और कथंचित् अभेद रूप समझा जा सकता है। अतः अन्त में यह भी सिद्ध होता है कि उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति में द्रव्य-गुण-पर्याय के सम्बन्ध को भेदाभेद ही माना है। इसी चर्चा के प्रसंग में द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर नैयायिकों की समीक्षा भी की है और जैन सम्मत भेदाभेद सम्बन्ध को सिद्ध भी किया है और अन्त में यह बताया है कि उपाध्याय यशोविजयजी द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक भेदाभेदात्मक सम्बन्ध को किस प्रकार से सिद्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उपाध्याय यशोविजयजी द्रव्य, गुण और पर्याय की इस चर्चा में जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि को लेकर ही उनके पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया है। यही उनका वैशिष्ट्य है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
(अ) आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य -
1. अनुयोगद्वारसूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 2. आचारांगसूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 3. आवश्यकसूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 4. आवश्यकनियुक्ति संपा. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा 5. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 6. उत्तराध्ययनसूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 7. गच्छाचारपयन्ना अनु.डॉ. सुरेश सिसोदिया 8. जीवाजीवाभिगम सूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 9. प्रज्ञापनासूत्र संपा. मधुकरमुनिजी 10. बृहत्कल्पभाष्य संपा. मुनि दुलहराजजी 11. विशेषावश्यकभाष्य पं. न्यास श्री वज्रसेन विजयजी।
गणिवर्य 12. व्यवहारभाष्य संपा. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा 13. व्यवहारभाष्यसानुवाद ___संपा. मुनि दुलहराजजी
श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर अहिंसा आगम संस्थान, उदयपुर श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं भद्रंकर प्रकाशन, महालक्ष्मी सोसायटी, सुजाता फ्लैट के पास, शाहीबाग, अहमदाबाद जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
(ब) महोपाध्याय यशोविजयजी के दार्शनिक ग्रन्थ -
1. महो. यशोविजयजी
2. महो. यशोविजयजी
3. महो. यशोविजयजी 4. महो. यशोविजयजी 5. महो. यशोविजयजी 6. महो. यशोविजयजी
अध्यात्मसार ___ 1. जैन धर्मप्रचारक सभा, भावनगर ई.स. 1919
2. प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर ई.स. 200 अध्यात्मोपनिषदप्रकरण 1. जैन साहित्य सदन, छाणी
2. जैन धर्मप्रचारक सभा, भावनगर वि.सं. 1965 अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम् जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अमदाबाद ई.स. 1943 ज्ञानसार
विश्वप्रकाशन ट्रस्ट, महेसाणा, वि.सं. 2003 नयप्रदीप
जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि.सं. 1965 नयरहस्यप्रकरण जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अमदाबाद, ई.स. 1947
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7. महो. यशोविजयजी
8. महो. यशोविजयजी
9. महो. यशोविजयजी
10. महो. यशोविजयजी
11. महो. यशोविजयजी
12. महो. यशोविजयजी
13. महो. यशोविजयजी
14. महो. यशोविजयजी
15. महो. यशोविजयजी
1. अकलंक देव
2. अकलंक देव
3. उमास्वाति
4. उमास्वाति
5. उमास्वाति
6. उमास्वाति
7. कुन्दकुन्दाचार्य
8. कुन्दकुन्दाचार्य
9. कुन्दकुन्दाचार्य
10. कुन्दकुन्दाचार्य
11. देवसेनाचार्य
12. नेमीचंद्राचार्य
नयोपदेश
नयोपदेशप्रकरणम्
न्यायालोक
जैन तर्कभाषा
(स) अन्य जैन दार्शनिकों के मूल ग्रन्थ
. द्रव्यगुणपर्यायनोस भाग-1 विवेचन, आ.
नियमसार
अभयशेखरसूरि द्रव्यगुणपर्यायनोरास भाग -1 व 2, संपा.
धीरजलाल डाह्यालाल महेता
स्याद्वाद कल्पलता
श्री यशोविजयजी जैन ग्रन्थमाला
सप्तभंगीनयप्रदीपप्रकरण जैन प्रकाशक सभा, अमदाबाद, वि.सं. 1996
स्याद्वाद रहस्य
अंकलक ग्रन्थत्रयम्
राजवार्तिक
तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थधिगम सूत्र
तत्वार्थ भा
प्रशमरति
समयसार
प्रवचनसार
पंचास्तिकाय
जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि.सं. 1965
श्रावक हीरालाल हंसराज, जामनगर, ई. स. 1912
जैन ग्रंथ प्रकाशक सभा, अमदाबाद, ई.सं. 1918
श्री त्रिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (अहमदनगर)
दिव्यदर्शन ट्रस्ट, 38, कलिकुंड सोसायटी, धोलका वि.सं. 2061
श्री जैनधर्म प्रसारण ट्रस्ट - सुरत सन् 2005
आलाप पद्धति
द्रव्य संग्रह
-
भारतीय प्राच्यतत्त्व प्रकाशन समिति, पिंडवाड़ा, वि.सं. 2032
सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद, सन् 1996 भारतीय ज्ञानपीठ, सन् 1993
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 2007
शारदाबेन, चीमनभाई एजुकेशनल रिसर्च सेन्टर
श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, सन् 1932
श्री महावीर जैन विद्यालय आगस्ट क्रान्ति मार्ग, मुबंई वि.सं. 2042
श्रीमती सोनीदेवी पाटनी, कल्याणमल राजमल पाटनी, सिद्धचेतन ट्रस्ट कलकत्ता एवं टोडरमल सर्वोदय ट्रस्ट, जयपुर
साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सन् 1984
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास 1984
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद, सन् 1998
श्रीमान सेठ अरविंदरावजी, सन् 1989
सिद्ध सरस्वती प्रकाशन वाराणसी
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13. नेमीचंद्राचार्य
14. पूज्यपाद 15. प्रभाचार्य
16. भोजसागर कवि द्रव्यानुयोगतर्कणा
णयचक्को (नयचक्र)
स्याद्वाद मन्जरी
परमात्मप्रकाश
पंचाध्यायी
. 17. माइल्ल धवल
18. मल्लिषेणसूरि
19. योगीन्द्रदेव
20. राजमल्ल
21. आ. वट्टकेरि
22. वादिदेवसूरि
गोम्मटसार
सर्वार्थसिद्धि
प्रमेयकमलमार्तण्ड
23. विनयविजयजी नयकर्णिका
उपाध्याय 24. विद्यानंदी
25. विमलदास
31. हरिभद्रसूरि
32. हरिभद्रसूरि
33. हेमचन्द्राचार्य
मूलाचार
प्रमाणनयतत्त्वालोक
श्लोकवार्तिक
सप्तभंगीतरंगिनी
26. समन्तभद्र
आप्तमीमांसा
27. सिद्धसेनदिवाकर न्यायावतार
28. सिद्धसेनदिवाकर सन्मतितर्कप्रकरण
29. स्वामी कार्तिकेय
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
30. हेमचन्द्राचार्य
योगशास्त्र
हरिभद्रयोगभारती
जैनयोगग्रन्थचतुष्टय -
प्रमाण मीमांसा
भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, तृतीय संस्करण सन् 2000
भारतीय ज्ञानपीठ, 1999
श्री लाल मुसद्दीलाल जैन चेरीटेबल ट्रस्ट, दरियागंज, देहली, वी.नि.सं. 2504
श्री परमंश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद राजचंद्र आश्रम, अगास सन 1997 भारतीय ज्ञानपीठ सन् 1999
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद राजचंद्र आश्रम अगास सन् 1979
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद राजचंद्र आश्रम अगास सन् 2000
चावली निवासी लालराम जैन मालिक ग्रंथप्रकाश कार्यालय, इन्दौर वी. नि. 2444
भारतीय ज्ञानपीठ, चतुर्थ संस्करण - 1999
मंत्री पुस्तक प्रकाशन विभाग, श्री त्रिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, अहमदनगर सन् 1972 शारदाबेन चीमनभाई एजुकेशनल रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद सन् 1995
गांधी नाथारंग जैन ग्रन्थमाला, सन् 1998
श्रीमद रायचंद्राश्रम, अगास सन् 1977
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्री परिषद, बड़ौत, सन् 1998
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद राजचंद्र आश्रम, अगास सन् 1976 रतिलाल दीपचंद देसाईमंत्री ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद-9 सन् 1963 श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनागढ़ वी. सं. 2505
श्री मुक्तिचंद्र श्रमण आराधना ट्रस्ट, गिरिविहार तलेटी रोड, पालीताणा, सन् 1977
दिव्यदर्शन ट्रस्ट, 39 कलिकुंड सोसायटी, धोलका - 387810 विसं. 2055 मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, सन् 1982
श्री त्रिलोकरत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, अहमदनगर, वी. सं. 2493
(द) समकालीन जैन चिन्तकों के ग्रन्थ
1. उपाध्याय अमरमुनि
अध्यात्म प्रवचन
श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1966
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पाण्डेय
2. चोथमलजी जैनदिवाकर ज्योतिपुंज भाग 3 जैन दिवाकर साहित्य प्रकाशन समिति, चित्तौड़गढ़
सन् 1998 3. जिनेन्द्र वर्णी जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भारतीय विद्यापीठ, सन् 1983
भाग 1,2,3,4 4. आचार्य तुलसी जैन सिद्धान्त दीपिका आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, सन् 1983 5. देवेन्द्रमुनि शास्त्री जैनदर्शनस्वरूप और विश्लेषण श्री तारकगुरू जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर
सन् 1975 6. देवेन्द्रमुनि शास्त्री धर्मदर्शनमनन और मूल्यांकन श्री तारकगुरू जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर
सन् 1985 • 7. डॉ. धर्मचन्द्र जैन जैनदर्शन में नय की अवधारणा 25 वी महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति
पजाब, मालरकोटला, सन् 1992 8. सा.डॉ.प्रीतिदर्शनाश्री उपाध्याय यशोविजयजी का श्री राजेन्द्रसूरि जैन शोध संस्थान, सन् 2009
अध्यात्मवाद 9. प्रमाणसागर जी जैनधर्म और दर्शन ज्ञानचंद्र इमलिया, सन 1999 10. सं. प्रद्युम्नविजयगणि उपाध्याय यशोविजयजी धीरजलाल मोहनलालशाह श्रीकांतभाई साकरचंद स्वाध्याय ग्रन्थ
वसा दिनेशभाई मंत्रीगण, श्री महावीर जैन विद्यालय
मुंबई-400006, सन् 1993 11. प्रबन्ध सं. श्री प्रकाश डॉ. सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 1998
अभिनंदनग्रंथ 12. पं. फूलचन्द्र सिद्धांताचार्य जैन तत्त्वमीमांसा सिद्धान्ताचार्य पं.फूलचन्द्र शास्त्री फाउण्डेशन,
रूड़की-247667, वी.नि.सं. 2522 13. मुनि फूलचन्द्र ‘श्रमण' नयवाद
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1958 14. भिखारीराम यादव स्याद्वाद और सप्तभंगीनय पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, सन् 1974 15. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जैनदर्शन
श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, सन् 1974 16. मोहनलाल जैन जैनधर्मदर्शन एक समीक्षात्मक सेठ मूथा छगनलाल फाण्डेशन, बेगलूर, सन् 1999
परिचय 17. मनोरमा जैन पंचाध्यायी में प्रतिपादित पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 1998
जैनदर्शन 18. समणी मंगलप्रज्ञा आर्हतीदृष्टि
आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, सन् 2003 19. आचार्य महाप्रज्ञ अनेकान्त है तीसरा नेत्र जैन विश्वभारती, लाडनू, सन् 1997 20. आचार्य महाप्रज्ञ जैनदर्शन के मूल सूत्र आदर्श साहित्य संघ, चुरू, सन् 2002 21. आचार्य महाप्रज्ञ आगमकोश
जैन विश्वभारती लाडनू, सन् 1980 22. आचार्य महाप्रज्ञ जैनदर्शन मनन और मीमांसा आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, सन् 2008 23. सा. योगक्षेमप्रभा जैनदर्शन में द्रव्य की जैन विश्वभारती लाडनू, सन् 2001
अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन (शोधप्रबन्ध)
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24. यदुनाथ सिन्हा
25. सा. डॉ. विद्युतप्रभाश्री
26. राजकुमार छाबड़ा
27. डॉ. रतनचंद्र जैन
28. पं. सुखलाल जी
29. डॉ. सागरमल जैन
30: डॉ. सागरमल जैन
31. डॉ. सागरमल जैन
(इ) पत्र-पत्रिकाएं
1. श्रमण
2. तुलसीप्रज्ञा
3. सम्बोधि
4. निर्ग्रन्थ
5. जैन जनरल 6. तित्थयर
1
भारतीय दर्शन
द्रव्य विज्ञान (शोध प्रबन्ध)
अवधारणा और कारण
द्रव्य
कार्य सम्बन्ध (शोध प्रबन्ध) जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहारनय एक अनुशीलन दर्शन और चिन्तन
अनेकान्तवाद स्याद्वाद और सप्तभंगी
सागर जैन विद्याभारती, भाग-5
लक्ष्मीनारायण अग्रवाल पुस्तक प्रकाशक, आगरा-3 सन् 1968
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, सन् 1994 सन् 1989
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 1997
पं. सुखलाल सन्मान समिति, सन् 1956 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 1988
डॉ. श्री प्रकाश पाण्डे डॉ. विजयकुमार
डॉ. शांता जैन
डॉ. जे.बी. शाह
डॉ. जे.बी. शाह
सत्यारंजन बनर्जी
डॉ. लता बोथरा
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 2002
ला.द.
जैनदर्शन में द्रव्य गुण और पर्याय की अवधारणा (प्रेसकापी) (प्रकाशनाधीन)
भारतीय विद्या मन्दिर, अहमदाबाद
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
जैन विश्व भारती, लाडनूं
एलडी इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद
शारदाबेन चीकुभाई भारतीय संस्कृति संस्थान जैन भवन, कोलकाता
जैन भवन कोलकाता, (पी-25 कलाकार स्ट्रीट, कोलकाता 700007)
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