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अधिक विस्तृत है। व्यक्ति अव्यक्त पर्यायों के जगत में प्रवेश किए बिना ही अर्थात केवल व्यक्त पर्यायों के आधार पर ही वस्तु स्वरूप का निर्णय कर लेता है, तो उसका वह निर्णय एकांगी और अपूर्ण होता है। कच्चे आम्रफल में व्यक्त रूप से खट्टा स्वाद (रस) होता है। परन्तु अव्यक्त रूप से उसमें अम्ल, मधुर कषैला, आदि सभी रस विद्यमान होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर उसके पकने पर भी मधुरता आदि गुणों की कोई संभावना नहीं रहती। हमारे भीतर राग, द्वेष, आदि व्यक्त पर्यायाएं हैं तो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख आदि की अव्यक्त पर्यायाएं भी हैं। अन्यथा ध्यान, साधना आदि उपक्रम का कोई अर्थ नहीं रहता। इस प्रकार वस्तु में व्यक्ताव्यक्त रूप से अनन्तधर्म है। जैसे- कच्चा आम्रफल वर्ण की दृष्टि से हरा या एकाधिक वर्षों से युक्त है, गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, रस की दृष्टि से अम्ल, मधुर आदि रसों से युक्त है; स्पर्श की दृष्टि से भीतर से कोमल है तो बाहर से कठोर है, आदि। पुनः वस्तु में भावात्मक धर्म ही नहीं, अनन्त अभावात्मक धर्म भी हैं। आम्रफल को आम्रफल होने के लिए आम्रफलत्व धर्म तो चाहिए ही, साथ-साथ द्राक्षत्व, कदलीत्व आदि की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। 'यह आम्रफल है', ऐसा निश्चय तभी होगा जब उसमें द्राक्ष, कदली आदि के गुण धर्मों का अभाव होगा।
वस्तु के स्वरूप निर्धारण में विधि और निषेध दोनों की अपेक्षा रहती है। किसी एक के अभाव में वस्तु का स्वरूप नहीं बन पाता है। स्वयंभूस्तोत्र में लिखा गया है कि विधि और निषेध दोनो कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षा में उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है। व्यक्ति जब चलता है तब दोनों पैर एक साथ नहीं उठते हैं। दोनों एक साथ उठें तो चलना संभव नहीं हो सकता है। चलते समय एक पैर आगे बढ़ता है तो दूसरा पैर पीछे खिसक जाता है। इसी प्रकार विवक्षित समय में वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक धर्म मुख्य होता है, शेष सारे धर्म गौण हो जाते हैं। डॉ. सागरमलजी जैन कहते हैं -वस्तु में अनेक भावात्मक
74 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, महाप्रज्ञजी, पृ. 66 75 विधिनिषेधश्च कथंचितदिष्दौ। विवक्षया मुख्य गुण व्यवस्था।। ....................... स्वयंभूस्तोत्र, का. 25
16 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ.46
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