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जीव रूप भी है और अजीव रूप भी है। 72 इस प्रकार जैनदर्शन में शरीर और आत्मा को भिन्नाभिन्न के रूप में माना गया है। आत्मा शरीर से भिन्न इसलिए है कि वह अपने प्रयासों से शरीर से मुक्त हो जाती है। आत्मा शरीर से अभिन्न इसलिए है कि इन्द्रिय, कषाय, योग, उपयोग आदि परिणाम शरीरयुक्त जीव के ही होते हैं।
इस प्रकार जैनागम, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापना और अनुयोगद्वारसूत्र आदि में अनेकान्तवाद की प्राथमिकता देखी जाती है। परन्तु अनेकान्तवाद को दार्शनिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी को जाता है। इनके बाद में आप्तमीमांसा के प्रणेता आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंक और विद्यानंदी ने विवरण लिखकर उसे सरल बनाने के लिए प्रयत्न किया है। 1444 ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'अनेकान्तजयपताका' आदि अनेक ग्रंथों की रचना करके अनेकान्तवाद के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगावच्छेदक द्वात्रिंशिका आदि ग्रन्थों में एवं उपाध्याय यशोविजयजी ने 'अनेकान्तव्यवस्था' प्रभृति ग्रन्थों में अनेकान्तवाद की पुष्टि के लिए श्लाघनीय प्रयास किये हैं।
वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता :
जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु के अनन्तधर्म, अनन्तगुण और अनन्त पर्यायें होती है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के कुछ गुण धर्म ही हमारे अनुभूति में आते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तु में उतने ही गुण धर्म है, जितने हमारे अनुभूति के विषय बनते हैं। परन्तु वस्तु में ऐसे अनेक गुण धर्म है जो हमारी सामान्य अनुभूति के परे हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं, – वस्तु में अनन्त पर्याय हैं। कुछ व्यक्त पर्याय हैं तो बहुत कुछ अव्यक्त पर्याय हैं। व्यक्त या स्थूल पर्यायों का जगत बहुत संकीर्ण है, जबकि सूक्ष्म या अव्यक्त पर्यायों का जगत बहुत
72 भगवती सूत्र, भाग, 5 13/7/13, 14 73 "जैन दर्शन में नय की अवधारणा" की प्रस्तावना, सुव्रतमुनि शास्त्री
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