________________
सोचकर ही तथागत बुद्ध ने इन प्रश्नों के उत्तर में मौन धारण करना अधिक उचित समझा। यदि उत्तर देना भी पड़ा तो निषेधात्मक रूप से उत्तर दिया ।
परन्तु भगवान महावीर की शैली इनसे भिन्न थी। उन्होंने प्रत्येक प्रश्न को व्याकृत बताकर उसका उत्तर देने के लिए प्रयास किया। महावीर ने अनेकान्तिक वस्तु का एक पक्षीय प्रतिपादन नहीं किया, अपितु समस्त परस्पर विरोधी धर्मयुगलों को स्वीकार करके समन्वयात्मक रूप से वस्तु का प्रतिपादन किया। भगवान महावीर का कहना था कि जब वस्तु के स्वरूप में ही नित्यता, अनित्यता, एकता अनेकता, भेद अभेद आदि अनेक परस्पर विरोधी पक्ष विद्यमान हैं, तो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अनेकान्त दृष्टि से उपयुक्त हो सकती है। इसी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया जिनको बुद्ध ने अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर टाल दिया था। जैसे - जमाली ने जब यह प्रश्न किया – “भगवन! लोक शाश्वत है या अशाश्वत् ?" भगवान ने कहा - "लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है" क्योंकि लोक कभी नहीं था, नहीं है, और नहीं रहेगा, ऐसा नहीं है । इसलिए लोक ध्रुव और शाश्वत है। लोक अशाश्वत भी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में लोक का विकास और ह्रास होता रहता है । इस दृष्टि से लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। 9 जीव के शाश्वत या अशाश्वत के विषय भगवती सूत्र में कहा गया है कि जीव शाश्वत है। क्योंकि जीव कभी नहीं था, जीव कभी नहीं है, और कभी नहीं रहेगा - ऐसा संभव नहीं है। इसलिए जीव शाश्वत है। जीव अशाश्वत भी है, क्योंकि जीव नैरयिक से तिर्यंच, तिर्यंच से मनुष्य और मनुष्य से देव हो जाता है।" इस प्रकार जीव या आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। 71
जीव और शरीर परस्पर भिन्न है, या अभिन्न ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि काया आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, काया सचित भी है और अचित भी है, काया
69 भगवती सूत्र, भाग 4,
70 भगवती सूत्र, भाग 4, 71 भगवती सूत्र, भाग 3,
86
Jain Education International
9/33/34 9/33/34 7/3/5
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org