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जैनागम में अनेकान्त दृष्टि -
जैन परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग है। इस आगम में भी अनेकान्त दृष्टि के संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ –“जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा ऐसा कहा गया है। इस पंक्ति का अर्थ है कि जिन कारणों से आश्रव हो जाता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा भी हो जाती है और जिन कारणों से निर्जरा होती है, उन्हीं कारणों से आश्रव भी हो जाता है। आश्रव और निर्जरा भावों पर निर्भर रहते हैं। भाव निर्जरा के हैं तो आश्रव की क्रिया भी निर्जरा का कारण बन सकती है तथा भाव आश्रव के हैं तो निर्जरा की क्रिया भी आश्रव का कारण बन सकती है। यहाँ एक ही क्रिया से आश्रव और निर्जरा दोनों हो सकते हैं, ऐसा कहकर अनेकान्त दृष्टि का ही परिचय दिया है। सूत्रकृतांगसूत्र" में श्रमणों को किस प्रकार की भाषा को उपयोग में लानी चाहिए ? इस संदर्भ में भगवान महावीर ने कहा कि श्रमणों को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का अर्थ है – किसी भी प्रश्न का समाधान भिन्न-भिन्न दृष्टियों से भिन्न-भिन्न रूप से देना। भगवान महावीर ने अपने समय में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि के परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समन्वय अनेकान्तवाद के आधार पर ही किया। भगवतीसूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर संकलित हैं।
तथागत बुद्ध ने लोक की शाश्वतता अशाश्वतता, जीव की नित्यानित्यता, जीव और शरीर के भिन्नाभिन्नता आदि तत्त्व सम्बन्धी सभी प्रश्नों को अव्याकृत और अनुपयोगी बताकर उन प्रश्नों का उत्तर देने की अपेक्षा मौन धारण किया। किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि बुद्ध ने भी वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को स्वीकारा है। जब विरोधी धर्मयुगल जैसे- नित्यानित्यता, सान्तता-अनन्तता इत्यादि वस्तु में सापेक्ष रूप से विद्यमान हैं तो एकान्तवाद से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन संभव नहीं हो सकता है। एकान्तवाद से किया गया वस्तु का प्रतिपादन असत्य हो जायेगा। ऐसा
66 आचारांग, 1/4/2 67 भिक्खु विभज्ज्वायं च वियागरेज्जां, सूत्रकृतांगसूत्र, 1/1/14/22 68 अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 21
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