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मध्यममार्ग से उपदेश करते हैं,61 "क्योंकि ये दोनों विचार एकान्त रूप होने से मात्र सत्यांश हैं, पूर्ण सत्य नहीं है। आत्मा शरीर से न तो एकान्तः भिन्न है और नहीं अभिन्न ही हैं बुद्ध ने तत्कालीन सभी शाश्वतवादी-उच्छेदवादी, आत्मवादी-अनात्मवादी आदि मन्तव्यों को एकांगी होने के कारण त्याज्य माना है। बुद्ध, यही सत्य है, ऐसा नहीं कहते थे। उन्होंने कहा कि 'सब कुछ विद्यमान है' और 'सब कुछ शून्य है ये दोनों ही अन्त हैं। इसलिए वे मध्यम मार्ग का उपदेश देते थे। बुद्ध सभी प्रश्नों का उत्तर लगभग निषेध रूप से ही देते थे। उनको भय था कि विधेय रूप से कहने पर निश्चित ही किसी मतवाद में उलझ जायेंगे। एकान्तिक मान्यताओं से बचने के लिए तत्त्ममीमांसा सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में या तो मौन रहते या उन्हें अव्याकृत कहकर टाल देते थे। जैसे उनसे पूछा गया कि- मरणोत्तर तथागत की सत्ता रहती है या नहीं ? बुद्ध ने कहा जैसे गंगा की बालू और समुद्र की गहराई को नहीं नापा जा सकता है। उसी प्रकार मरणोत्तर तथागत भी अप्रमेय और गंभीर है। इसलिए अव्याकृत है।
बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित एकान्त उच्छेदवादी और शाश्वतवादियों के मन्तव्यों का निषेधकर अशाश्वतनुच्छेदवाद का समर्थन किया। इससे यही परिलक्षित होता है कि बुद्ध ने सदैव ही एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए प्रयत्न किया और इसके लिए विभज्यवाद का सहारा लिया। शुभ माणवक के यह पूछने पर कि -ब्राह्मण गृहस्थ को ही आराधक मानते हैं तो इस विषय में आपका क्या मत है? बुद्ध ने कहा-मैं यहाँ एकांशवादी नहीं, विभज्यवादी हूँ। मिथ्यात्व से ग्रसित गृहस्थ भी निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं हो सकता और उसी प्रकार मिथ्यात्वी त्यागी भी आराधक नहीं हो सकता है।
6 तं जीवं तं शरीरं ........... संयुक्तनिकाय पालिभाग- 2, 12-36 62 न चाहमेतं तथियऽन्ति ब्रूमि .............. सुत्रनिपात ......... 50, 5 63 सब्बमत्थी ति खो, कच्चान अयमेको अन्तो, ................ संयुक्तनिकाय, भाग-2, 12:15 64 संयुत निकाय पालि भाग-3 44.1(अव्याकृत संयुत्त) 65 मज्झिमनिकाय भाग-2, 49.1 (सुमसुत्त)
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