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ओपनिषदिक साहित्य में भी उपलब्ध होते हैं। ऐसा कहकर उन्होंने वेद और उपनिषदों के अनेक उद्धरण भी दिये हैं।
वेद और उपनिषदों में अनेकान्तदृष्टि के संकेत -
वेदों और उपनिषदों में तत्कालीन विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं में समन्वय के प्रयास दृष्टिगोचर होते हैं। प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद" में कहा गया है कि सत् एक ही है किन्तु मनीषीगण उसको अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता में कहा गया है कि अनादिमान ब्रह्म न सत् हैं और न असत् है। ईशावास्योपनिषद में सर्वत्र अनेकान्त जीवन दृष्टि के संकेत मिलते हैं। इसमें भी परमेश्वर को सत् और असत् दोनों कहा गया है। परम तत्त्व चलता भी है, नहीं भी चलता है, वह दूर और समीप दोनो है। वह समस्त जगत के भीतर भी है और बाहर भी है। उपनिषद्कारों ने परम तत्त्व की व्याख्या में न केवल एकान्त का निषेध किया, परन्तु विरोधी धर्म को स्वीकार भी किया है, गीता में परमतत्त्व को चराचर भूतों के बाहर और भीतर दोनों माना गया है। इससे उपनिषदों और गीता में अनेकान्त की शैली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उपरोक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि समन्वयवादी व्यावहारिक जीवन दृष्टि के बीज बुद्ध और महावीर से पूर्व भी थे, जो कालान्तर में अनेकान्तवाद का आधार बन गये हों।
बौद्ध साहित्य में अनेकान्त दृष्टि -
संयुक्तनिकाय में कहा गया है कि 'जीव और शरीर एक है' या 'यह दोनों अलग-अलग हैं ऐसा कहना मिथ्यादृष्टि है। इसलिए इन दोनों को छोड़कर बुद्ध
56 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ.3 57 एक सद विप्रा बहुधा वदन्ति - ऋग्वेद, 1/164/46 58 अनादिमत्वरं ब्रह्म न सत्तान्नासदुच्यते - भगवद्गीता, 13/12 " तदेजति तन्नजति तदूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्ययतः।। -ईशावास्योपनिषद, 5 ७० बहिस्तश्च भूतानामचरं चरमेव च - भगवद्गीता, 13/16
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