SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म हैं तो उससे कई गुना अधिक अभावात्मक धर्म है। भावात्मक और अभावात्मक दोनों धर्म मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते हैं। 'वस्तु क्या है और 'क्या - क्या नही है', इसी से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है ।” अतः वस्तु के निर्णय के लिए विधेयात्मक पक्ष के साथ निषेधात्मक पक्ष को भी स्वीकारना पड़ता है, अन्यथा वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी। 78 वस्तु अनेकान्तिक है ज्ञातव्य है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु में न केवल विभिन्न गुण धर्म होते हैं, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ एक ही आम्रफल जब कच्चा रहता है, तब हरा और पकने के बाद पीला हो जाता है । वही आम्रफल कालान्तर में सड़कर काला भी हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जो तत् है वही अतत् भी है; जो एकान्त है वह अनेकान्त भी है; जो सत् है वह असत् भी है । " एक ही वस्तु में अस्तित्व-नासित्व, एकत्व - अनेकत्व, नित्यता - अनित्यता आदि अनेक पक्ष अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं । कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं होती है। इसी प्रकार वस्तु सर्वथा एक या अनेक भी नहीं है। नित्यता, अनित्यता आदि परस्पर निरपेक्ष नहीं है। नित्यता के बिना अनित्यता और अनित्यता के बिना नित्यता अर्थहीन हो जाती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं। एकता और अनेकता परस्पर अनुस्यूत रहते हैं। उत्पत्ति और विनाश भी एक दूसरे के बिना संभव नहीं है। 1 पंचास्तिकाय में भी कहा गया है कि भाव (सत्त्व) का कभी अभाव नहीं होता और ”” अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 8 78 स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 36,37 • 79 तत्र यदेव तत्त्वातत् यदैवैकं तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासवयदेव नित्यंतदेवानित्यमित्येववस्तु । 80 स्यादवाद और सप्तभंगी नय, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 38 1 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 11 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only समयसार, गा. 247 की टीका www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy