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अभाव (असत्त्व) का कभी सद्भाव नहीं होता है। 2 यद्यपि ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नित्यता और अनित्यता दोनों परस्पर विरोधी धर्म होने से एक ही वस्तु में एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ? वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम परस्पर सर्वथा विरोधी धर्म मानते हैं, वे सर्वथा विरोधी धर्म नहीं होते हैं। दो विरोधी धर्म अपेक्षा भेद से वस्तु में एक साथ विद्यमान रह सकते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते हैं कि एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी की अपेक्षा से पति है तो बहन की अपेक्षा से भाई है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति पति और भाई दोनों है । एक ही भोजन स्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा से पथ्य है तो अस्वस्थ अथवा रूग्ण व्यक्ति के लिए अपथ्य बन जाता है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु छोटी-बड़ी, शीत-उष्ण, कोमल-कठोर बन जाती है। इस प्रकार सामान्यतया मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुणधर्म मान लेती है, वे भी एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से पाये जाते हैं । 3
इसी कारण से जैनाचार्यों ने सत्ता को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य न कहकर परिणामी नित्य माना है । सत्ता प्रतिसमय निमित्तों के आधार पर परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं करती है। जैसे - एक ही व्यक्ति बालक, युवा और वृद्ध के रूप में बदलता रहता है। इस बदलाव के परिणामस्वरूप उसके शरीर, बुद्धि, शक्ति आदि भी बदलते रहते हैं । फिर भी व्यक्ति 'वही रहता है।' इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाएं बदलती रहती हैं, परन्तु व्यक्ति तो वही रहता है। व्यक्ति बदलकर भी नहीं बदलता है। 84 दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यायें बदलती रहती हैं। व्यक्ति अर्थात दृष्टा नहीं बदलता है । बाल्यावस्था नष्ट होकर युवावस्था प्रकट होती है, परन्तु इन दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति नहीं बदलता है। व्यक्ति तो 'वही' रहता है । इस प्रकार एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और धौव्य, ये तीनों युगपत् रहते हैं। उत्पाद एवं नाशरूप पर्यायों के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता है और द्रव्य (ध्रुवांश) के बिना पर्यायें नहीं होती है। अतः द्रव्य उत्पाद, व्यय
82 'भावस्स णत्थि णासो णात्थि भावस्स चैव उत्पादो । गुणपज्जयेसु भावा उतपादवए पकुव्वंति ।। 83 कीदृश वस्तु ? नाना धर्मेयुक्तं विविधस्वभावै 84 अनेकान्तवाद, स्यादवाद और सप्तभंगी,
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पंचास्तिकाय, गा. 15
स्वामी कार्तिकेयनुप्रेक्षा टीका, गा. 253 डॉ. सागरमल जैन, पृ. 10
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