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इनकी श्रुतसाधना पंथ और संप्रदायों से परे थी। यही कारण है कि इन्होंने दिगम्बराचार्य समंतभद्रकृत अष्टसहस्त्री, पतंजलीकृत योगसूत्र, मम्मटकृत काव्यप्रकाश, जानकीनाथशर्मा कृत न्यायसिद्धान्त मंजरी इत्यादि ग्रन्थों पर वृत्तियाँ लिखी तथा उनमें उपनिषदों, योगवसष्ठि, भगवतगीता आदि के उद्धरण दिए हैं। इससे यशोविजयजी की उदारता का परिचय मिलता है।
तर्कशीलता -
यशोविजयजी की कृतियों में सूक्ष्म तर्कशीलता का दर्शन होता है। इन्होंने अपनी तार्किक समर्थता का उपयोग मुख्य रूप से श्वेताम्बर परंपरा की मान्यताओं को दृढ़रूप से प्रतिष्ठित करने में किया है। श्वेताम्बर परंपरा से विपरीत मान्यता रखने वाले दिगम्बर मत के समक्ष 'अध्यात्मपरीक्षा' और 'ज्ञानार्णव' नामक संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन किया। मूर्तिपूजन का निषेध करने वाली मतों का प्रतिकार करके उनको हितशिक्षा देने के लिए 'प्रतिमाशतक' नामक ग्रन्थ की रचना की। दिगम्बराचार्य देवसेनकृत 'नयचक्र' में जैनदर्शन में प्रचलित सात नयों की परंपरा से अलग स्वमति कल्पना से सप्ताधिक नयों का विभाजन करके दिखाया है। यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में सन्मतितर्क प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का आधार लेकर अकाट्य युक्तिसंगत तर्कों द्वारा दिगम्बर सम्मत नय विभाजन की समालोचना करके उसे दोषपूर्ण ठहराया है।
अध्यात्मवादी -
आनंदधनजी जैसे योगनिष्ठ अनुभवी के समागम से यशोविजयजी ने अध्यात्मवाद में अधिक रस लेना प्रारम्भ किया और उत्तरोत्तर इनकी अध्यात्म भावना प्रबल बनती गई। अध्यात्म की साक्षात् अनुभूति के बिना अध्यात्मसार', 'अध्यात्मोपनिषद' और 'ज्ञानसार' जैसे अध्यात्मसारगर्भित ग्रन्थों की रचना संभव नहीं
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