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के रूप में उभर कर आये। जैनदर्शन वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है। जैनदर्शन की यह अनेकान्त दृष्टि उसके स्याद्वाद और नयवाद के सिद्धान्तों से ही स्पष्ट हो सकती है। इस अनेकान्त दृष्टि की पुष्टि के लिए यशोविजयजी ने जैनतर्कभाषा, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश, न्यायालोक, स्याद्वादकल्पलताआदि अनेक जैन न्याय ग्रन्थों की रचना करके जैन दार्शनिक साहित्य को समृद्ध किया। परस्पर विरोधी मन्तव्यों में अनेकान्तवाद के आधार पर समन्वय करना यशोविजयजी की विशेष शैली रही। जैसे- जैन परंपरा में ज्ञान, दर्शन की उत्पत्ति को लेकर क्रमवाद, सहवाद और अभेदवाद ऐसे तीन मतभेद हैं। यशोविजयजी ने अपने 'ज्ञानबिन्दु' नामक ग्रन्थ में इस समस्या का समाधान समन्वयात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से क्रमवाद का व्यवहारनय की अपेक्षा से सहवाद का, और संग्रहनय की अपेक्षा से अभेदवाद का प्रतिपादन किया है। अतः नयभेद की अपेक्षा से इन तीनों मतों में कोई परस्पर विरोध नहीं है, ऐसा कहकर अपनी तार्किक और समन्वयशक्ति का परिचय दिया है।
इस प्रकार यशोविजयजी में एक दार्शनिक के रूप में अद्भुत समन्वयशक्ति, सुन्दर समीक्षिकरण, निर्भयता, विद्वतापूर्ण अर्थघटन, नव्यन्याय की शैली में जैन सिद्धान्तों का निरूपण आदि प्रमुख विशेषताएँ रही हैं। "श्रीमद् यशोविजयजी के अतिरिक्त अन्य किसी विद्वान द्वारा नव्यन्याय शैली में जैन दार्शनिक तत्वों का विस्तृत विवेचन देखने में नहीं आता है। जैनदर्शन के क्षेत्र में अभेदवाद, निक्षेप, नव्यन्याय आदि यशोविजयजी के विशिष्ट योगदानों से उनकी प्रखर दार्शनिक प्रज्ञा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
उदार दृष्टि -
उपाध्याय यशोविजयजी कदाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर सदैव ही सत्य के उपासक रहे। इस सत्यनिष्ठता के कारण उनका दृष्टिकोण उदारवादी रहा।
31 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रन्थ, पृ. 47 32 जैन तर्कभाषा, सं. ईश्वरचन्द्र शर्मा (हिन्दी) पृ. 12
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