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रत्नों को प्राप्त करते रहे। यशोविजयजी के समय में मल्लवादीसूरि कृत 'द्वादशारनयचक्र' जैसा ग्रन्थ मिल पाना तो दुर्लभ था ही, साथ में नयचक्रवृत्ति की प्रति भी विरल ही थी । सं. 1710 में यशोविजयजी जब पाटण नगर में थे, उस समय नयचक्र पर 18000 श्लोकों प्रमाण सिंहवादीगण द्वारा लिखी टीका की एक हस्तप्रति आपके हाथ लगी। यशोविजयजी को यह प्रति भी प्रायः जीर्ण-शीर्ण हालत में और थोड़े दिनों के लिए ही मिली थी । यशोविजयजी ने मूल ग्रन्थ की दुर्लभता और टीका की जीर्ण-शीर्ण हालत को देखकर नई प्रति तैयार कर लेना चाहिए, ऐसा सोचकर अन्य समय में 18000 श्लोक प्रमाण इस महाकाय ग्रन्थ की 309 पृष्ठों की नई नकल तैयार कर ली। सं. 1710 के पौषबद 10 को नयचक्रवृत्ति की नई प्रति तैयार हो गई। इस कार्य में नयविजयजी, जयसोमगणि, लाभविजयगणि, कीर्तिरत्न, तत्त्वविजय और रविविजय का सहयोग तो प्राप्त हुआ था ही । परन्तु 4800 श्लोक प्रमाण 73 पृष्ठों को स्वयं यशोविजयजी ने तैयार किया। इससे यशोविजयजी का गहरा विद्याप्रेम और श्रुतभक्ति परिज्ञात होती है ।
यशोविजयजी महाराज के ग्रन्थों की हस्तलिखित तीस से भी अधिक हस्तप्रतियाँ अलग-अलग भण्डारों से प्राप्त हुई हैं। इतनी बड़ी संख्या में स्वहस्तलिखित प्रतियाँ अन्य किसी साहित्यकार की अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यशोविजयजी का जीवन निष्प्रमादी और श्रुतसाधना में तल्लीन था ।
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. दार्शनिक प्रतिभा
यशोविजयजी की कृतियों के सूक्ष्म विश्लेषणों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है कि आप सुंदर, सचोट और सतर्क दार्शनिक विश्लेषणों का प्रतिपादन करने वाले प्रखर दार्शनिक प्रतिभा के धनी थे। उपाध्यायजी की यह विशेषता रही कि आप संपूर्ण जीवन के सर्जनकाल में आगम परंपरा का अनुसरण करने वाले तथा अनेकान्तवाद दृष्टि के प्रबल पोषक, एक प्रखर सुसंगत जैन चिन्तक
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